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Wednesday, July 27, 2011

साहित्य की क्लियोपेट्राएं

विश्व राजनीति के पटल पर क्लियोपेट्रा एक ऐसा नाम है जिसने अपनी खूबसूरती और अपने शरीर का इस्तेमाल अपने करियर को बढ़ाने में बेहतरीन तरीके से किया । उसने सेक्स पॉवर को पहचानते हुए खुलकर उसका उपयोग किया और उसे अपनी सफलता की सीढ़ी बना कर बुलंदी पर पहुंची । उसने सत्ता और शक्ति हासिल करने के लिए अपने भाई से ही विवाह किया और मिस्त्र की सत्ता हासिल की । लेकिन भाई से मनमुटाव के चलते उसे देश छोड़कर निर्वासित होना पड़ा । निर्वासन के बाद उसने सीजर को अपनी खूबसूरती के जाल में फंसाया और ना केवल उसके साथ सत्ता का सुख हासिल किया बल्कि कई सालों तक तानाशाह की तरह का जीवन भी जिया। जब सीजर की हत्या कर दी गई तो क्लियोपेट्रा ने पूर्वी रोम के मॉर्क एंटोनी को अपने सम्मोहन के जाल में फंसाकर अकूत संपत्ति हासिल की। क्लियोपेट्रा बहुत खूबसूरत नहीं थी लेकिन वो इस बात को जानती थी किस तरह से अपने शरीर का इस्तेमाल कर मर्दों को गुलाम बनाया जा सकता है । उसे उस हुनर का पता था जिसके बल पर वो बड़े-बड़े लोगों को अपने मोहजाल में फंसा सकती थी । साफ है कि क्लेयोपेट्रा ने सेक्स और अपने शरीर को एक कमॉडिटी की तरह अपने हक में सता हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया । उसने सेक्स को अंतराष्ट्रीय कूटनीति का हिस्सा भी बना दिया था । विश्व परिदृश्य में सिर्फ क्लियोपेट्रा ही नहीं बल्कि कई और महिलाएं हैं जिसने अपने महिला होने का, अपने देह का इस्तेमाल करके , जबरदस्त रूप से फायदा उठाया और सफलता हासिल की । रूस की महान साम्राज्ञी कैथरीन ने सत्ता हासिल करने के लिए अपने पति का कत्ल किया और फिर अपने आशिक के साथ देश पर लगभग तीस साल तक शासन किया । उसने भी सेक्स और सेक्सुअल पॉवर को सत्ता से जोड़कर अपनी स्थिति मजबूत की । उसके कितने आशिक थे या फिर उसने अपने कितने सुरक्षा गार्ड के साथ शारीरिक संबंध बनाए यह कहना बेहद कठिन है । कहनेवाले तो यहां तक कहते हैं कि अपने प्रेमी से शारीरिक संबंध बनाने के पहले वो नियमित तौर पर अपने एक सुरक्षाकर्मी तो चुनती थी और उसके साथ एकांत में काफी देरतक रोमांस करने के बाद अपने प्रेमी के पास पहुंचकर सेक्स करती थी । इस तरह से उसने कई सुरक्षाकर्मियों के साथ एक ऐसा रिश्ता बना लिया था जिसी काट नामुमकिन था । इस तरह की महिलाओं की लिस्ट और लंबी हो सकती है ।
ऐसा नहीं है कि इस तरह की महिलाएं, जो अपनी देह को सत्ता हासिल करने का जरिया बनाती हैं, सिर्फ विदेशों या पश्चिमी देशों में ही हैं । इस तरह के कई उदाहरण हमारे देश में भी मिल जाएंगे लेकिन हमारे यहां सेक्स या फिर इस तरह के संबंधों पर बातें तो खूब की जाती हैं लेकिन उसके बारे में लिखना गुनाह माना जाता है । अपने राजनेताओं और उनकी महिला मित्र के बारे में सत्ता के गलियारे में खूब चर्चा होती है लेकिन उसके बारे में सार्वजनिक रूप से कोई बहस नहीं होती । हमारे यहां यह समझा जाता है कि यह उनका वयक्तिगत जीवन है जिसमें झांकना उनकी निजता के अधिकार का हनन होगा । लेकिन उस वक्त हम भूल जाते हैं कि जिस वयक्ति का जीवन ही सार्वजनिक हो गया है उसका निजी कुछ नहीं रह जाता । गांधी जी भी कहा करते थे कि सार्वजनिक जीवन व्यतीत करनेवालों का निजी कुछ भी नहीं रह जाता । खैर यह एक अलग विषय है जिसपर विस्तार से बहस की जा सकती है ।
राजनीति के अलावा अगर हम हिंदी साहित्य की बात करें तो यहां भी आपको कई क्लियोपेट्रा मिल जाएंगी । जिन्होंने अपनी देह का इस्तेमाल साहित्य में अपने करियर को नई ऊंचाई तक पहुंचाने में बखूबी किया । यहां मैं भी किसी एक या दो का नाम लेकर नाहक विवाद खड़ा करना नहीं चाहता लेकिन साहित्य के हलके में लोग इस तरह की क्लियोपेट्राओं को बखूबी जानते हैं । हिंदी साहित्य में देह मुक्ति आंदोलन के प्रणेता हंस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव तो इन क्लियोरेट्राओं से घिरे ही रहे है, कई को तो बढ़ावा भी दिया है (क्षमा सहित ये बात कह रहा हूं,लेकिन पूरा साहित्य जगत उन नामों से वाकिफ है ) । मैं यह नहीं कह रहा राजेन्द्र जी साहित्य के सीजर हैं लेकिन उनके दरबार में समय समय पर इस तरह की एक दो महिला लेखिका हमेशा से रही हैं । कई ने तो, जिनमें कुछ प्रतिभा थी, आगे चलकर लेखन में खूब नाम और यश दोनों कमाया । लेकिन जिनमें प्रतिभा नहीं सिर्फ महात्वाकांक्षा थी वो कुछ समय के लिए हिंदी साहित्य के आकाश पर धूमकेतु की तरह चमककर गायब हो गई। किसी के एक संग्रह आए तो किसी को कोई छोटा मोटा पुरस्कार मिल गया । उनके साहित्य के आकाश पर चमकने के साहित्येत्तर कारण रहे हैं । इन वजहों को राजेन्द्र जी चाहें तो खोल सकते हैं और साहित्य के क्लियोपेट्राओं का नाम भी बता सकते हैं, बता देना भी चाहिए । लेकिन जिस तरह से उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्थितियों और नामों को काल्पनिक रूप देकर वास्तविकता को छुपा दिया उसके बाद उनसे तो यह उम्मीद बिल्कुल नहीं की जा सकती है कि वो हिंदी साहित्य की क्लियोरेट्राओं का नाम उजागर करें । जानते वो सबकुछ हैं । राजेन्द्र यादव के बाद लोगों की उम्मीद अशोक वाजपेयी से भी हो सकती है लेकिन सार्वजनिक तौर पर अशोक जी की जो छवि है उसमें उनसे यह अपेक्षा करना बेमानी है कि वो हिंदी की इन क्लियोपेट्राओं का नाम लेंगे । अपनी बेबाक बयानी के लिए जाने जानेवाले प्रसिद्ध उपन्यासकार और महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय जिस तरह से छिनाल विवाद में अपना हाथ जला चुके हैं उसके बाद तो उनसे इस स्त्रियों के मामले में कुछ भी अपेक्षा नहीं की जा सकती है ।
हिंदी साहित्यिक परिदृश्य में अब काफी बदलाव देखा जा सकता है । कई लेखिकाएं तो खुले तौर पर दैहिक उदारवाद की बात करती हैं । बातचीत में जो बिंदासपन और खुलापन है वो उनके स्वभाव में भी देखा जा सकता है । उनके लिए सेक्स अब टैबू नहीं है, देह उनके लिए भी उसकी तरह उपभोग की वस्तु है जिस तरह से मर्दों के लिए । अपने परुष मित्रों के साथ सेक्स संबंध बनाने में उन्हें ना तो कोई एतराज होता है और ना ही झिझक । लेकिन नाम और यश कमाने के लिए जिस तरह से उसका उपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ी है वो चिंता की बात है । हमारे यहां क्लियोपेट्रा अब एक नाम नहीं रही बल्कि यह एक प्रवृत्ति के तौर पर स्थापित हो चुकी है । एक संज्ञा के प्रवृत्ति में बदलने की जो प्रक्रिया है वो चिंता की बात है । कई नवोदित लेखिकाएं इस राह पर चलकर शॉर्टकट में सफलता हासिल करना चाहती हैं जो साहित्य के लिए चिंता की बात है । लेकिन उन लेखिकाओं को शॉर्टकट में सफलता की राह दिखाने के लिए कई कवि मित्र सदैव तत्पर रहते हैं । उन्हें तो तलाश रहती है बस मौके की । मेरा यह कहने का मतलब कतई नहीं है कि साहित्य में सफलता की सीढ़ी चढ़ने के लिए सभी लेखिकाएं अपने शरीर का इस्तेमाल करती हैं । ना ही मैं स्त्रियों या लेखिकाओं को अपमानित करने के लिए ये लेख लिख रहा हूं । मेरी मंशा उस तरह की लेखिकाओं को हतोत्साहित करने की है जो बगैर किसी प्रतिभा के सिर्फ अपनी देह के बूते हिंदी साहित्य का सारा आकाश झेकना चाहती है ।

Monday, July 25, 2011

भ्रष्टाचार पर कांग्रेस का दोहरा रवैया

हाल में ही में बांबे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र के पशुधन मंत्री और कांग्रेस के दलित नेता नितिन राउत के खिलाफ कार्रवाई ना करने पर महाराष्ट्र सरकार को कड़ी फटकार लगाई । कांग्रेस के इस नेता पर नागपुर के बेजनबाग इलाके में जमीन कब्जाने और हड़पने का संगीन इल्जाम है । हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को एक अगस्त से पहले अतिक्रमण हटाने और जमीन पर कब्जा करनेवालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करके हलफनामा दायर करने को का हुक्म दिया है । इस लेख का उद्देश्य नितिन राउत पर हाईकोर्ट के निर्देश के बारे में बताना नहीं है बल्कि यह बताना है कि भ्रष्टाचार पर कांग्रेस में दोहरा रवैया अपनाया जाता है । सामाजिक जीवन में उच्च मानदंडों की रक्षा करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का दंभ भरनेवाली कांग्रेस पार्टी ने भी अब तक नितिन राउत के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है । दरअसल कांग्रेस पार्टी के साथ यह बड़ी दिक्कत है वह पार्टी ईमानदार दिखना तो चाहती है लेकिन बेईमानों के खिलाफ कार्रवाई करके नहीं बल्कि सिर्फ बयानबाजी और इक्का दुक्का कमजोर नेताओं के खिलाफ कार्रवाई का दिखावा करके । जिस भी नेता का जरा भी जनाधार होता है या फिर वो वोट बैंक की राजनीति की बिसात पर सधा हुआ मोहरा होता है उसके खिलाफ कांग्रेस कार्रवाई का दिखावा भी नहीं करती है । भ्रष्टाचार के आरोपों से चौतरफा घिरी कांग्रेस पार्टी में इस तरह के नेताओं की लंबी फेहरिश्त है जिनपर घोटालों और घपलों के संगीन आरोप के बावजूद कार्रवाई नहीं हुई ।
चंद महीनों पहले जब मुंबई में कारगिल के शहीदों के लिए बनने वाले आदर्श सोसाइटी घोटाला सामने आया था । उस घोटाले में महाराष्ट्र कांग्रेस के कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं की संलिप्तता की बात सामने आई । उस वक्त के सूबे के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख और सुशील कुमार शिंदे समेत कई कांग्रेस के नेताओं के दामन पर घोटाले के दाग लगे थे । लेकिन आदर्श घोटाले में कार्रवाई हुई सिर्फ युवा मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर । मीडिया के दबाव में कांग्रेस पार्टी ने उनसे इस्तीफा ले लिया । लेकिन उतने ही संगीन इल्जाम के बावजूद विलासराव देशमुख और सुशील कुमार शिंदे का बाल भी बांका नहीं हुआ था । बल्कि पिछले मंत्रिमंडल फेरबदल में विलासराव देशमुख को भारी उद्योग मंत्रालय से ग्रामीण विकास जैसा अहम मंत्रालय सौंप दिया गया । अब यह बात तकरीबन साफ हो गई है कि आदर्श सोसाइटी मामले में विलासराव देशमुख ने अतिरिक्त रुचि लेकर फाइलों को क्लीयरेंस दिया था । आदर्श के पहले भी विलासराव देशमुख का अपने गृह जिले में जमीन विवाद में नाम आया था । देशमुख के अलावा केंद्रीय उर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे के खिलाफ भी कोई कार्रवाई नहीं हुई उल्टे हाल में उन्होंने देश का उपराष्ट्रपति बनने की इच्छा जता दी । अशोक चव्हाण के खिलाफ कार्रवाई होने और देशमुख और शिंदे के खिलाफ कोई एक्शन नहीं होने के पीछे की कई राजनीतिक वजहें हैं । विलासराव देशमुख महाराष्ट्र के मजबूत मराठा नेता हैं और कांग्रेस पार्टी उन्हें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार के बरख्श खड़ा करके मराठा वोट बैंक की राजनीति करती है । अशोक चव्हाण भी मराठा नेता हैं लेकिन पार्टी में उनका कद विलासराव देशमुख जितना बड़ा नहीं है । दूसरे अशोक चव्हाण अपने विरोधियों की राजनैतिक चाल नहीं समझ पाए और पार्टी की अंदरुनी राजनीति के शिकार हो गए । सुशील कुमार शिंदे महाराष्ट्र के मजबूत दलित नेता हैं । कांग्रेस उन्हें आगे कर दलितों को लुभाती है । शिंदे का दलित होना उनकी ताकत है और कांग्रेस की कमजोरी । अभी अगर कांग्रेस अपने नेता नितिन राउत के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पा रही है तो वह भी साफ है । नितिन राउत महाराष्ट्र की राजनीति में पार्टी का नया दलित चेहरा है । खैरलांजी कांड के बाद से नितिन राउत सूबे में एक आक्रामक युवा दलित नेता के तौर पर उभरे हैं । पार्टी उनमें भविष्य की दलित राजनीति तलाश रही है इस वजह से वो जमीन हड़पने और कब्जाने जैसे संगीन आरोपों के बाद भी महफूज हैं । महाराष्ट्र के ही एक और कांग्रेस नेता हैं सुरेश कलमाडी जो इन दिनों कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान हुए घोटाले के आरोपों में जेल की सलाखों के पीछे हैं । लंबे समय तक आलोचना झेलने के बाद जब सीबीआई ने कलमाडी को गिरफ्तार किया तो पार्टी नींद से जागी और कलमाडी को पार्टी के पद से हटा दिया गया । लेकिम मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष कृपा शंकर सिंह के बेटे पर टेलीकॉम घोटाले के आरोपी शाहिद बलवा की कंपनी से लेनदेन के आरोप लगे । मामला अदालत तक पहुंचा । मीडिया में खबरें आने के बाद लगा कि कृपाशंकर सिंह की मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष पर से छुट्टी हो जाएगी लेकिन वह हो ना सका । कृपाशंकर सिंह दिल्ली के अपने आकाओं की कृपा से अब भी अपने पद पर बने हैं । कांग्रेस पुरबिया लोगों के वोट बैंक के टूट जाने के खतरे को भांपते हुए कृपा पर कोई कार्रवाई नहीं कर पा रही है ।
अब अगर हम महाराष्ट्र से बाहर निकल कर देश की राजधानी दिल्ली आएं तो वहां भी पार्टी का इसी तरह का दोहरा रवैया दिखाई देता है । कॉमनवेल्थ घोटाले में कलमाडी को तो पार्टी ने पद से हटा दिया लेकिन घोटाले में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का नाम आने के वावजूद उनको मुख्यमंत्री पद से हटाना तो दूर की बात उनसे पार्टी ने सफाई तक नहीं मांगी । कॉमनवेल्थ घोटाले की जांच के लिए प्रधानमंत्री द्वारा गठित शुंगलू कमिटी ने सीधे सीधे शीला दीक्षित को कठघरे में खड़ा किया है । दिल्ली के ही एक और मंत्री राजकुमार चौहान पर लोकायुक्त की पद से हटाने की सिफारिश के बाद भी कोई कड़ा कदम नहीं उठाया जा सका । बल्कि बहुत ही बेशर्मी से उनका बचाव भी किया गया । यह भ्रष्टाचार पर कांग्रेस के दोहरे रवैये की एक बानगी भर है । साथ ही लोकायुक्त और उनकी सिफारिशों को लेकर पार्टी के स्टैंड को भी साफ करती है । कर्नाटक में वहां के लोकायुक्त संतोष हेगड़े की सिफारिशों और टिप्पणियों को लेकर सूबे के मुख्यमंत्री वी एस येदुरप्पा को घेरनेवाली कांग्रेस अपने मंत्री के खिलाफ लोकायुक्त की सिफारिश पर खामोश रह जाती है । भ्रष्टाचार के आरोप तो पार्टी के हाईप्रोपाइल महासचिव दिग्विजय सिंह पर भी लगे हैं । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए इंदौर में एक मॉल मालिक को जमीन के मामले में फायदा पहुंचाने के आरोप हैं । इन आरोपों की सूबे की आर्थिक अपराध शाखा जांच कर रही है और कुछ ही दिनों में उस केस में चालान भी पेश होने वाला है । लेकिन इन सबसे आंखें मूंदे कांग्रेस पार्टी ने दिग्विजय सिंह को छुट्टा छोड़ रखा है । संघ फोबिया से ग्रसित दिग्विजय सिंह पूरे देश में घूम घूमकर कांग्रेस पार्टी के लिए अलख जगा रहे हैं, पार्टी के युवराज राहुल गांधी के मुख्य सलाहकार बने हुए है । क्या कांग्रेस पार्टी दिग्विजय सिंह, शीला दीक्षित, विलासराव देशमुख या फिर सुशील कुमार शिंद पर वही मानदंड लागू कर पाएगी जो उसने बेचारे अशोक चव्हाण पर लागू कर उन्हें पद से च्युत कर दिया । क्या कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में वो इच्छाशक्ति है जो भ्रष्टाचार के आरोपो से घिरे अपने इन दिग्गज नेताओं पर कार्रवाई या उसका दिखावा मात्र भी कर सके । ऐसा प्रतीत होता नहीं है । कांग्रेस में कार्रवाई सिर्फ दो तरह के लोगों के खिलाफ ही होती है । पहले जो पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र की बात करें और गांधी-नेहरू परिवार को चुनौती दें और दूसरे जिनका कोई जनाधार नहीं है । इन दो मसलों पर पार्टी त्वरित गति से कड़े से कड़ा कदम उठा सकती है । इन दो मामलों के अलावा अगर कोई बड़ा घोटाला भी हो जाए तो देर तक उसे लटकाए रखना ही कांग्रेस का सिद्धांत बन गया है । सोचना देश की जनता को है कि क्या वो दिखावे की कार्रवाई पर भरोसा करती रहेगी या फिर असली मुलजिमों के खिलाफ कार्रवाई होते देखना चाहेगी ।

Saturday, July 23, 2011

जागो हिंदी के प्रकाशको !

हिंदी में प्रकाशित किसी भी कृति- उपन्यास या कहानी संग्रह या फिर कविता संग्रह को लेकर हिंदी जगत में उस तरह का उत्साह नहीं बन पाता है जिस तरह से अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में बनता है । क्या हम हिंदी वाले अपने लेखकों को या फिर उनकी कृतियों को लेकर उत्साहित नहीं हो पाते हैं । हिंदी में प्रकाशक पाठकों की कमी का रोना रोते हैं जबकि पाठकों की शिकायत किताबों की उपलब्धता को लेकर रहती है । यह स्थिति पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसी है । लेकिन इसमें हम हिंदीवालों का नुकसान हो रहा है । अपनी भाषा को लेकर जिस तरह का गर्व हमारे मन में होना चाहिए या फिर जिस तरह का लगाव दिखना चाहिए उसका नितांत अभाव दिखाई देता है । दरअसल इसके लिए हिंदी के लेखक भी कम जिम्मेदार नहीं है । हिंदी के लेखकों में एक दूसरे को नीचा दिखाने की जो प्रवृत्ति है उससे उसका बड़ा नुकसान हो रहा है । इस स्थिति से उबरने के लिए हिंदी के लेखक, उनके तीन संगठन और जाहिर सी बात है प्रकाशक भी कोई ज्यादा प्रयास नहीं कर रहे हैं । अब हम अंग्रेजी को देखें । हाल ही में अग्रेजी के भारतीय लेखक अमिताभ घोष की महात्वाकांक्षी ट्रायोलॉजी के तहत लिखा जा रहा दूसरा उपन्यास प्रकाशित हुआ । कई राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पुरस्कारो से नवाजे जा चुके अमिताभ घोष के उपन्यास रिवर ऑफ स्मोक के प्रकाशित होने के पहले और बाद में हमारे देश के अंग्रेजी अखबारों ने एक ऐसा माहौल बनाया जैसे लगा कि साहित्यिक जगत में कोई विशेष घटना घटी हो । अंग्रेजी के कई राष्ट्रीय अखबारों ने आधे पन्ने पर अमिताभ घोष के इंटरव्यू छापे । अखबारों के रविवारीय सप्लिमेंट में लेखक पर कवर स्टोरी प्रकाशित हुई । बात यहीं तक नहीं रुकी । उपन्यास के प्रमोशन के लिए लेखक का वर्ल्ड टूर आयोजित किया गया । ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ अमिताभ घोष के लिए ही किया गया। ये अंग्रेजी प्रकाशन जगत के लिए सामान्य सी बात है । कोई भी उपन्यास या अहम कृति प्रकाशित होती है तो उसको लेकर योजनाबद्ध तरीके से एक समन्वित प्रयास किया जाता है। इस प्रयास में अंग्रेजी के अखबार भी सहयोग करते हैं । अमिताभ घोष या फिर अन्य अंग्रेजी लेखकों को जिस तरह से उनकी कृति के बहाने प्रचारित किया जा रहा है या जाता रहा है उससे हिंदी समाज को सीख लेनी चाहिए । लेकिन बजाए उनसे कुछ सीख लेने की हम अपनी जड़तो को लेकर ही बैठे रहते हैं ।
हमें तो यह याद नहीं पड़ता कि हिंदी के किसी लेखक को उसकी कृति के प्रकाशन के बाद इतना प्रचार मिला हो । चाहे वो हमारे स्टार लेखक राजेन्द्र यादव हो, कमलेश्वर हों, निर्मल वर्मा हो या फिर आज की पीढ़ी का कोई नया लेखक हो । सवाल प्रचार का नहीं है एक समन्वित प्रयास का है । क्या हिंदी के प्रकाशकों ने कभी अपने लेखकों को प्रचारित करने, उनकी कृति को प्रमोट करने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास किया गया। मैं तो बहुत नजदीक से हिंदी प्रकाशन को तकरीबन डेढ दशक से देख रहा हूं, उस तरह का कोई प्रयास मुझे नजर नहीं आया । मैं यह कह सकता हूं कि इस मामले में हिंदी प्रकाशन की स्थिति बेहद दयनीय है ।
हिंदी का इतना विशाल पाठक वर्ग है, सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंदी पट्टी में अपने बाजार का विस्तार कर रही है लेकिन हमारे हिंदी के प्रकाशक अब भी सरकारी खरीद के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें हिंदी के पाठकों पर भरोसा नहीं है । हिंदी के प्रकाशक किताबों के प्रचार प्रसार पर खर्च नहीं करना चाहते । किसी लेखक का विदेश यात्रा की बात तो दूर हिंदी पट्टी में भी पाठकों से संवाद का कार्यक्रम आयोजित नहीं करवाया जाता । हमारे प्रकाशक किताब का विमोचन, वो भी लेखकों के साझा प्रयास से, करवाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं । कई बार तो लेखकों को विमोचन पर आए खर्च को भी साझा करना पड़ता है । उसके पीछे यह मनोविज्ञान काम करता है कि ये सब फिजूलखर्ची है । जबकि प्रकाशकों को ये समझना चाहिए कि ये एक लंबी अवधि का निवेश है जिसमें जमकर रिटर्न मिलने की संभावना है। लेकिन इसके लिए हिंदी के प्रकाशकों को तात्कालिक लाभ का मोह छोड़ना होगा। हिंदी के पाठकों के बीच एक संस्कार विकसित करने की दिशा में प्रयास करना होगा । इसके लिए हमें अपने लेखकों को उनके बीच लेकर जाना होगा । ऐसा नहीं है कि हमारे प्रकाशकों के पास पैसे की कमी है लेकिन उसे खर्च करने की इच्छाशक्ति का अभाव जरूर है ।
दरअसल अंग्रेजी और हिंदी के प्रकाशकों में एक बुनियादी फर्क है । अंग्रेजी के प्रकाशक भविष्य की योजना बनाकर काम करते हैं जबकि हिंदी के प्रकाशकों की कोई भी फॉर्वर्ड प्लानिंग नहीं होती । उदाहरण के तौर पर आपका बताऊं कि जब 1857 की क्रांति की डेढ सौ साल पूरे हो रहे थे तो अंग्रेजी के प्रकाशकों ने धड़ाधड़ कई किताबें छापी लेकिन हिंदी प्रदेश में हुई इस घटना से हिंदी के प्रकाशक उदासीन रहे । कोई भी बड़ी घटना या फिर अहम तिथि आती है तो अंग्रेजी में धड़ाधड़ किताबें आ जाती है । देश में कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन हुआ तो अंग्रेजी में कई किताबें आईं लेकिन हिंदी में ऐसे इक्का दुक्का प्रयास ही देखने को मिले । अंग्रेजी और हिंदी प्रकाशन में इस तरह के अंतर के कई उदाहरण मौजूद हैं ।
अंग्रेजी प्रकाशकों का तंत्र बेहद मजबूत और प्रोफेशन है जबकि हिंदी का प्रकाशन व्यवसाय अब भी पारिवारिक कारोबार है । किसी भी हिंदी प्रकाशन गृह में प्रोफेशनलिज्म का घोर अभाव है । प्रोफेशनल काम करनेवाले लोग किसी भी हिंदी प्रकाशन गृह में लंबे समय तक टिक नहीं सकते । अंग्रेजी के मुकाबले में हिंदी का प्रचार-प्रसार तंत्र बेहद लचर है । अंग्रेजी प्रकाशन गृह में एक सूची होती है जिसमें वैसे चुनिंदा लोग होते हैं जिनको किताब छपने से पहले ही उसके अंश और बाजार में किताब आने के पहले उनको किताब मुहैया करवा दिया जाता है । पाठकों में रुचि जगाने के लिए किताब के चुनिंदा अंशों को लीक करवाकर पाठकों के मन में जिज्ञासा पैदा करवाया जाता है । इसके दो बेहतरीन उदाहरण हैं एक तो टोनी ब्लेयर की आत्मकथा- अ जर्नी और दूसरा जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब द ग्रेट सोल । ब्लेयर और उनकी पत्नी के पूर्व प्रकाशित सेक्स प्रसंग और गांधी और कैलनबाख के संबंध को सनसनीखेज तरीके से प्रचारित किया गया जैसे कोई नया खुलासा हो । जबकि दोनों प्रसंग पहले से ही ज्ञात थे । नतीजा यह हुआ कि किताब आने के पहले ही उसका एक बाजार तैयार हो गया । प्रकाशकों को भी लाभ हुआ और लेखकों को भी रॉयल्टी में लाखों रुपए मिले । मैं अपने देश के भी दो तीन अंग्रेजी लेखकों को जानता हूं जिन्हें उनकी किताब पर लाखों रुपए की रॉयल्टी मिली । लेकिन हिंदी के शीर्ष लेखकों को भी साल में एक कृति पर लाख रुपए की रॉयल्टी मिलती हो उसमें मुझे संदेह है । जबकि हिंदी में समीक्षकों को किताबें देने में , कुछ अपवाद को छोड़कर, अधिकतर प्रकाशक आनाकानी करते हैं ।
अब वक्त आ गया है कि हिंदी के प्रकाशक अपनी संकुचित मानसिकता से उठकर विचार करें और एकल या सामूहिक रूप से लेखकों और उनकी कृतियों को पाठकों के बीच ले जाने का प्रयास करें । कृतियों को प्रचारित या प्रसारित करने के लिए एक प्रोफेशनल तंत्र का विकास करें। हिंदी के अग्रणी प्रकाशन गृह होने की वजह से राजकमल और वाणी प्रकाशन समूह की यह जिम्मादरी बनती है कि वो इसमें पहल करें । ऐसा करने से उनका और लेखक दोनों का भला होना निश्चित है । सिर्फ प्रकाशकों की नहीं हिंदी मीडिया की भी जिम्मेदारी बनती है कि हम हमारे लेखकों को उचित सम्मान और स्थान दें ।

Friday, July 22, 2011

किताबों में बनता इतिहास

प्रभाष जोशी हमारे समय के बड़े पत्रकार थे । उनके सामजिक सरोकार भी उतने ही बड़े थे । समाज और पत्रकारिता को लेकर उनकी चिंता का दायरा भी बेहद विस्तृत था । हिंदी पट्टी और हिंदी समाज में प्रभाष जी की काफी इज्जत भी थी । उनके निधन के बाद हिंदी पत्रकारिता में एक खालीपन आ गया है । जिस तरह से प्रभाष जोशी समाज को लेकर चिंतित रहा करते थे या फिर पत्रकारिता के गिरते स्तर को बचाने के लिए उन्होंने जिस तरह से एक अभियान की अगुवाई की थी वो हम सबके लिए अनुकरणीय है । प्रभाष जी जो भी सोचते थे बेखौफ होकर उसे या तो अपने स्तंभ में व्यक्त करते थे या फिर सभाओं या गोष्ठियों के जरिए लोगों तक अपनी बात पहुंचाते थे । देश भर की यात्राओं के बावजूद प्रभाष जोशी अपने स्तंभ लेखन को लेकर बेहद सतर्क रहते थे और बिना नागा उसको लिखते थे।हर हफ्ते हमलोग रविवार का इंतजार इस बात के लिए करते थे कि कागद कारे पढ़ने को मिलेगा । प्रभाष जी के स्तंभ से पाठकों का जो एक अपनापा कायम हुआ था वही उनकी ताकत थी । अपने स्तंभ के माध्यम से प्रभाष जी का पाठकों से सीधा संवाद था । लेकिन उनके निधन के बाद ये संवाद टूट गया । जनसत्ता और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में लिखे उनके स्तंभ हिंदी समाज के लिए थाती हैं और पाठकों के लिए सहेजकर रखनेवाला धरोहर ।
प्रभाष जी के जीवन काल में ही 2003 में राजकमल प्रकाशन ने उनके लेखों का संग्रह -हिंदू होने का धर्म- छापा था जिसकी खासी चर्चा हुई थी । अब एक बार फिर से राजकमल प्रकाशन से ही उनके लेखों के दो संग्रह- आगे अन्धी गली है और 21वीं सदी पहला दशक- छपे हैं । इन दोनों पुस्तकों का संपादन वरिष्ठ पत्रकार सुरेश शर्मा ने किया है । आगे अन्धी गली है में प्रभाष जोशी के प्रथम प्रवक्ता और तहलका हिंदी में छपे लेख संकलित हैं । अपने संपादकीय में सुरेश शर्मा ने लिखा है कि – आगे अन्धी गली प्रभाष जी के अंतिम दिनों का लेखन है । ....वे प्रथम प्रवक्ता और तहलका में में कॉलम लिख रहे थे । ये कॉलम अपने समय की धड़कनों के जीवन्त दस्तावेज हैं । इस पुस्तक के संपादकीय में सुरेश शर्मा ने प्रभाष जी की जिंदगी के अंतिम दिनों पर विस्तार से लिखा है । सुरेश शर्मा के इस लेख से आम पाठकों के मन पर प्रभाष जी के व्यक्तित्व की तस्वीर और साफ होती है । बीमारी में भी समाज और पत्रकारिता के अपने पेशे के उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए प्रभाष जी ने अपनी जान को भी दांव पर लगा दिया । तबीयत खराब होने के बावजूद उन्होंने हिंद स्वराज पर आयोजित गोष्ठी में हिस्सा लिया और अपनी बात श्रोताओं के साथ साझा की । सुरेश शर्मा ने प्रभाष जी की अंतिम घड़ी को उनकी अदम्य जिजिविषा से जोड़कर एक बेहद संजीदा तस्वीर पेश की है । इस किताब में कई ऐसे लेख हैं जो वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिक है । जैसे मई 2008 में प्रथम प्रवक्ता में प्रभाष जी ने लिखा- राहुल के अंदेशे से दुबलीं मायावती । प्रभाष जी का यह लेख उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में आज भी उतना ही मौजूं है जितना तीन साल पहले था । उस वक्त दलितों के घर राहुल के खाना खाने और रात बिताने को लेकर मायावती परेशान थी और आज भट्टा पारसौल में राहुल के धरने ने मायावती को परेशानी में डाल रखा है । मायवती की परेशानी पर प्रभाष जी विस्मित होते हुए लिखते हैं – राहुल गांधी के दलित प्रेम से मायावती इतनी घबरा क्यों गई हैं । दूसरे नेताओं की तरह वो कोई जड़विहीन हवाई नेता नहीं जो मीडिया में लगातार बने रहने के कारण नेता हो गई हैं । मई 2008 में ही प्रभाष जी ने एक और लेख लिखा था- चूके अवसरों की महादेवी । इस लेख के केंद्र में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी है । उस लेख में प्रभाष जी ने निराशा भरे लहजे में लिखा था- इस त्याग ( प्रधानमंत्री पद ठुकराना) ने सोनिया गांधी को भारत ते जनमानस में वह जगह दी जो उन्हें अपनी पार्टी कांग्रेस में प्राप्त थी । ....उन्हें ऐसा नैतिक आभामंडल मिला जो उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी के पास भी नहीं था । पअपने इस लेख में सोनिया की रहनुमाई में चल रही सरकार के चार साल के कार्यकाल से प्रभाष जी निराश थे, निराश तो वो सोनिया गांधी के प्रदर्शन से भी थे । उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कांग्रेस को फिर से सरकार बनाने का मौका मिलेगा । लेकिन वो हो नहीं सका और कांग्रेस ने सोनिया की अगुवाई में 2004 के मुकाबले ज्यादा सीटें हासिल की । प्रभाष जी के लेखों में विभिन्न विषयों की जो रेंज थी वो उनकी विद्वता और अध्ययन को दिखाता है । समाज और राजनीति के अलावा प्रभाष जी साहित्य के भी गहरे अध्येता थे । राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का शताब्दी वर्ष जिस तरह से हिंदी समाज में मनाया गया और जो लापरवाहियां हुई उसपर भी प्रभाष जी ने एक बेहद तल्ख टिप्पणी लिखी । जिस तरह से दिनकर शताब्दी समारोह में बिहार के एक मंत्री ने बाद में मंच पर आकर उलजलूल बातें की उससे प्रभाष जी बेहद खिन्न थे । दिनकर जन्म शताब्दी वर्ष में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार और बिहार सरकार की लापरवाही से भी प्रभाष जी दुखी थे । इसी तरह से एक और अन्य विषय समलैंगिकता पर भी इसमें प्रभाष जी का एक लेख संकलित है । कुल मिलाकर यह किताब प्रभाष जी की विचारधारा और अपने समय, समाज और राजनीति को जानने की एक कुंजी है जिस इसके संपादक सुरेश शर्मा ने श्रमपूर्वक तैयार किया है ।
दूसरी किताब -21वीं सदी पहला दशक है जिसमें प्रभाष जोशी के दो हजार एक से लेकर 2009 तक के बीच में जनसत्ता में लिखे लेख संकलित हैं । संपादक का कहना है कि इस जनसत्ता में प्रकाशित इस कालखंड के तकरीबन सारे लेख इस किताब में संकलित किए गए हैं । यह संकलन इस लिहाज से अहम है कि इसमें लगभग एक दशक की राजनीति गतिविधयां की एक मुकम्मल तस्वीर बनती है । प्रभाष जी के लेखों को पढकर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और बीजेपी के काम करने के तरीकों को समझने में मदद मिल सकती है । लेकिन दोनों किताबों के कुछ लेखों में मोहभंग को भी साफ तौर रेखांकित किया जा सकता है । मई 2004 में जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री मनोनीत किया था तो प्रभाष जी को उनमें एक उम्मीद की किरण दिखाई दी थी । उन्होंने एक लेख लिखा था- आइए सोनिया जी, अनन्त संभावनाओं की दहलीज पर । इस लेख में प्रभाष जी ने सोनिया गांधी की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी । उस लेख की दो लाइन देखिए- किन्हीं भी कारणों और कैसे भी इराजदों से सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद छोड़ा हो पर सच बताइये कितने माई के लाल ऐसा कर सकते हैं और कितनों ने ऐसा किया है ? जिसने किया है, उठिए और उनको सलाम कीजिए । लेकिन चार साल में ही प्रभाष जी का सोनिया से मोहभंग हो गया और 2008 में मई में लिख डाला- चूके अवसरों की महादेवी । जिसका जिक्र मैं उपर कर चुका हूं । इस तरह के कई लेख देखकर आप इस बात का अंदाज लगा सकते हैं कि देश और पत्रकारिता का मूड कैसा रहा होगा । प्रभाष जी के वस्तुनिष्ठ लेखों से समाज की उस सोच का भी पता चलता है जिसमें लोग राजनेताओं के बारे में क्या विचार रखते हैं । प्रभाष जोशी के इन लेखों को एक साथ सामने लाने के लिए सुरेश शर्मा ने जो श्रम किया उसके लिए वो साधुवाद के पात्र हैं ।

Tuesday, July 19, 2011

दिलचस्प अनुभवों की शाम

बात अस्सी के दशक के अंत और नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की है । पुस्तकों को पढ़ते हुए बहुधा मन में विचार आता था कि उसपर कुछ लिखूं । लेकिन संकोचवश कुछ लिख नहीं पाता था, ज्यादा पता भी नहीं था कि क्या और कैसे लिखूं और कहां भेजूं । अपने इस स्तंभ में मैं पहले भी चर्चा कर चुका हूं कि किताबों को पढ़ने के बाद चाचा भारत भारद्वाज को लंबे-लंबे पत्र लिखा करता था । फिर पत्रों में सहमति और असहमतियां भी होने लगी । इस पत्र व्यवहार से मुझे समीक्षा का एक संस्कार मिला । जमालपुर में रहता था वहां के कुछ साहित्यक मित्रों के साथ उठना बैठना होने लगा । फिर विनोद अनुपम के कहने पर जमालपुर प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ा, पदाधिकारी भी बना । प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के बाद कई गोष्ठियों बैठकों में बोलने का मौका मिलना शुरू हो गया । लिहाजा पुस्तकों और रचनाओं पर तैयारी करने लगा, जिसका फायदा बाद में मुझे समीक्षा लेखन में हुआ । फिर मित्रों के आग्रह पर लघु पत्रिकाओं में कुछ समीक्षाएं भेजी जो प्रकाशित भी हुई । इन सबके पहले मैं हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष नामवर सिंह की कई किताबें पढ़ चुका था । सबसे पहले मैंने उनकी किताब - कहानी नयी कहानी पढ़ा, फिर कविता के नए प्रतिमान । उनपर केंद्रित पत्र-पत्रिकाओं और समीक्षा ठाकुर द्वारा संपादित किताब कहना ना होगा भी पढ़ा । नामवर जी के लेखन और उनकी समीक्षकीय दृष्टि से गहरे तक प्रभावित था । कहानी नयी कहानी में लिखी नामवर सिंह की एक पंक्ति अबतक याद है – आज की ग्राम जीवन पर लिखी हुई कहानियां प्रेमचंद की स्वस्थ और प्रवृत्त प्रवृति का अस्वाभाविक, परिवर्तित, कृत्रिम और डिस्टॉर्टेड पुन:प्रस्तुतीकरण है । वेद में जिसतरह सबकुछ है, उसी चरह प्रेमचंद की कहानियों में सबकुछ है । जगत ब्रह्म का विवर्त है तो आज की ग्राम कथाएं प्रेमचंद की विकृति है । कहानी नयी कहानी में जो लेख संकलित हैं वो नामवर सिंह ने 1956 से 1965 के बीच लिखे थे । लेकिन उनका उपरोक्त कथन आज भी पूरी तरह से समीचीन है । आज भी ग्रामीण जीवन पर लिखी जा रही कहानियों के संदर्भ में इस बात को कहा जा सकता है और मुझे लगता है कि यह टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है. जितनी उस वक्त थी । खैर मैं वर्तमान कहानी पर चर्चा नहीं कर रहा । बात नामवर सिंह की हो रही थी । जमालपुर में जब रह रहा था तो नामवर सिंह को पढ़ते हुए यह लगता था कि काश उनसे परिचय होता, उनसे बातें कर पाता । कई बार उनको पत्र लिखा लेकिन डाक में डालने की हिम्मत नहीं जुटा पाया । लेकिन नामवर और उनसे जुड़ा कुछ भी मिल जाता तो फौरन पढ़ लेता ।
समय के चक्र ने मुझे देश की राजधानी दिल्ली पहुंचा दिया । एक गोष्ठी में नामवर जी को सुना तो उनके वक्तृत्व कला से खासा प्रभावित हुआ । फिर फ्रीलांसिंग का दौर शुरु हुआ । मित्र संजय कुंदन ने राष्ट्रीय सहारा के रविवारीय पृष्ठ के लिए कई परिचर्चाएं करवाई । उसी के सिलसिले में दो एक बार नामवर जी से बात हुई । जितनी बार उनसे बात होती तो मुझे कुछ ना कुछ नया हासिल हो जाता । नामवर जी से आमना सामना नहीं हुआ । हिंदी भवन में एक गोष्ठी में नामवर जी ने अपने भाषण के क्रम में बोलते हुए ये कह डाला कि आजकल हिंदी साहित्य में अनंत विजय भी तलबारबाजी कर रहे हैं । संदर्भ मुझे अब याद नहीं है लेकिन इतना याद है कि उसी दौरान आलोचना पर एक परिचर्चा में मैंने नामवर सिंह की राय को शामिल नहीं किया था। फिर धीरे-धीरे नौकरी की व्यस्तता में लिखना कुछ कम हो गया । नामवर जी से बात करने की इच्छा मन में बनी रही । कई बार उन व्यक्तिगत पार्टी में बैठा जिसमें नामवर जी थे, उनको और उनके संस्मरणों और टिप्पणियों को सुनकर हमेशा से उनकी स्मृति और उनके अपडेट रहने की क्षमता पर ताज्जुब होता था ।
हाल ही में एक अनौपचारिक कवि गोष्ठी में नामवर सिंह जी से मुलाकात हो गई । ये कवि गोष्ठी हिंदी कवि तजेन्द्र लूथरा के पहल पर हुई थी । जिसमें वरिष्ठ कवि विष्णु नागर, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ,मदन कश्यप, लीलाधर मंडलोई, पंकज सिंह, सविता सिंह के अलावा राजेन्द्र शर्मा, रोहतक की कवियित्री शबनम, रमा पांडे और हरीश आनंद और ममता किरण भी थी । कवि मित्र अरुण आदित्य भी । उस दिन संयोग से विष्णु नागर जी का जन्मदिन भी था । सभी कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया । हमेशा की तरह अरुण आदित्य की कविताएं व्यंग्यात्मक लहजे में बड़ी बातें कह जाती है । उनकी कविताज- डर के पीछे कैडर है- सुनकर आनंद आ गया। तजेन्द्र लूथरा ने अपनी बेहतरीन कविता-अंतराल का डर- सुनाई। यह किवता मैं पहले ही पढ़ चुका था । इसमें कवि के अनुभव संसार का व्यापक फलक और उसको देखने समझने की उनकी दृष्टि सामने आती है । लक्ष्मी शंकर वाजपेयी और ममता किरण की खासियत यह है कि वो बिना पढ़े कविता बोलते हैं। सुनाते हैं। उनकी शैली उनके काव्य पाठ को एकदम से उपर उठा देती है । राजेन्द्र शर्मा की हुसैन पर लिखी कविता एकदम से मौजूं थी । लेकिन मंडलोई की दो लाइन ने महानगरीय जीवन की त्रासदी को एकदम से नंगा कर दिया- सांप काटने से नहीं हुई है देह नीली, कल रात मैं अपने दोस्त के साथ था । सभी कवियों ने दो-दो कविताएं सुनाई लेकिन चूंकि विष्णु नागर जी का जन्मदिन था इसलिए उन्होंने अपने संग्रह से कई कविताओं का पाठ किया । सविता सिंह ने लंबी कविता सुनाई लेकिन दूर बैठे होने की वजह से मैं कविता ठीक से सुन नहीं पाया । संभवत कविता का शीर्षक था- चांद, तीर और अनश्वर स्त्री । इस कवि गोष्ठी के बाद सबको उम्मीद थी कि नामवर जी कुछ बोलेंगे । संचालन कर रहे तजेन्द्र लूथरा और रमा पांडे समेत कई लोगों ने उनसे आग्रह किया लेकिन नामवर जी ने अपने अंदाज में मुंह में पान दबाए सिर्फ इतना कहा- आनंद आ गया ।
गोष्ठी के बाद नामवर जी से मेरी पहली बार बेहद लंबी बात हुई । उन्होंने ये कहकर मुझे चौंका दिया कि चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में तुम अच्छा लिख रहे हो । चौंकते हुए मैंने कहा कि सर आप देखते हैं तो उन्होंने फौरन मेरे स्तंभों की कई बातें बता कर अचंभे में डाल दिया । अपनी प्रशंसा सुनना हमेशा अच्छा लगता है लेकिन खुद से उसकी चर्चा अश्लीलता हो जाती है । नामवर जी से फिर हिंदी की रचनाओं पर बात शुरू हुई । हमारी लंबी चर्चा हिंदी के रचनात्मक लेखन में डीटेलिंग के नहीं होने पर हुई । उन्होंने इस बात पर सहमति जताई कि हिंदी के लेखक डिटेलिंग नहीं करते हैं इस वजह से बहुधा रचनाएं सतही हो जाती है । फिर हमारी चर्चा हुसैन पर हुई । नामवर जी ने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया । एक बार वो, श्रीकांत वर्मा, हुसैन और कुछ मित्र दिल्ली में टी हाउस के बाहर खड़े हो कर बातें कर रहे थे, अचानक से एक वयक्ति दौड़ता हुआ आया और हुसेन को एक थप्पड़ मारकर भाग गया । सारे लोग हतप्रभ । यह दौर वही रहा होगा जब हुसेन हिंदू देवी देवताओं के चित्र बनाकर विवादित हो चुके थे । इससे हम हुसेन के भारत छोड़ने के डर का सूत्र पकड़ सकते हैं । हलांकि हुसेन के भारत छोड़ने को लेकर मेरी काफी असहमतियां रही हैं । नामवर जी ने एक और बात बताई कि कल्पना के हर अंक में हुसेन के रेखाचित्र छपा करते थे और उसके संपादक बदरी विशाल पित्ती हुसेन के गहरे मित्रों में से थे । हुसेन के बाद नामवर जी से भारतीय राजनीति, लोकपाल बिल, भ्रष्टाचार आदि पर भी बातें हुई । नामवर जी का मानना था कि आज भारतीय राजनीति बेहद खतरनाक दौर से गुजर रही है । कांग्रेस और बीजेपी पर उन्होंने ख्रुश्चेव के बहाने से एक टिप्पणी- एक बार ख्रुश्चेव से ग्रेट ब्रिटेन की दोनों पार्टियां- लेबर पार्टी और कंजरवेटिव पार्टी के बारे में उनकी राय पूछी गई । ख्रुश्चेव ने उत्तर दिया कि एक बाएं पांव का जूता है और दूसरा दाएं पांव का जूता है । कहने का अर्थ यह कि दोनों आखिरकार जूते ही हैं ।
नामवर जी से तकरीबन घंटे भर की बातचीत उनको जानने समझने के लिए काफी था और यह मेरे लिए एक लाइफ टाइम एचीवमेंट जैसा था । जिनके लिखे को पढ़कर लिखना सीखा हो उनके सामने अपनी बात कहना मेरे लिए एक स्वपन के सच होने जैसा था ।नामवर जी से इतनी लंबी बात करने का अवसर सुलभ करवाने के लिए मित्र तजेन्द्र लूथरा का आभार ।

Wednesday, July 13, 2011

'सांस्कृतिक क्रांति' पर बवाल

चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में कुछ दिन पहले मैंने बिहार सरकार के कला और संसकृति मंत्रालय के कॉफी टेबल बुक बिहार विहार के बहाने सूबे में सांस्कृतिक संगठनों की सक्रियता, उसमें आ रहे बदलाव और सरकारी स्तर पर उसके प्रयास की चर्चा की थी । अपने उस लेख में मैंने बिहार सरकार के हाल-फिलहाल में किए गए कामों को रेखांकित करते हुए लालू-राबड़ी राज को इन कला और सांस्कृतिक संस्थाओं की दुर्गति के लिए जिम्मेदार ठहराया था । मेरे इस लेख पर कई लोगों को सख्त आपत्ति है । उस लेख के जबाव में कई लेख लिखे गए । लेख के बहाने मुझ पर व्यक्तिगत टिप्पणियां की गई । लेकिन प्रतिलेख लिखनेवाले विद्वतजनों ने अपनी आपत्ति में जो तर्क दिए वो उनकी विद्वता के अनुकूल नहीं है । मेरे लेख की जबाव में लिखा गया लेख चूंकि प्रतिक्रिया में लिखे गए हैं इसलिए वो हल्के हैं । हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है लेकिन जब प्रतिक्रिया में बदले की भावना और वयक्तिगत राग-द्वेष शामिल हो जाए तो वह नरेन्द्र मोदी वाली प्रतिक्रिया हो जाती है । लोगों ने मुझपर ये भी आरोप लगाए कि मैं अपनी सवर्ण ग्रंथि के तहत लालू यादव को बिहार की बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहराता हूं और नीतीश कुमार को उसी ग्रंथि के तहत शीर्ष पर पहुंचाता हूं । लालू यादव के बारे में लिखी गई मेरी टिप्पणी से वो इतने आहत हो गए कि उनलोगों ने यह भी पता लगा लिया कि मैं कितने पानी में हूं । मेरे लेख को सावधानी के पढ़े बगैर मेरी जाति और मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर राय बना लेनेवाले इन विद्वानों की समझ पर सिर्फ मुस्कुराया जा सकता है । हंसी तो कतई नहीं आती । बिहार में लालू यादव के शासनकाल के दौरान सूबे की क्या दुर्गति हुई थी इस बारे में किसी को कुछ कहने की या कुछ साबित करने की जरूरत ही नहीं है । जिस तरह से हर साल कोसी में बाढ़ आती है और पूरे इलाके में तबाही मचा देती है उसी तरह सरकारी विभागों में चारा,अलकतरा, बीएड घोटालों की बाढ़ ने पूरे सूबे के विकास की राह को तबाह कर दिया था । क्या लालू यादव की जय जयकार करनावालों को यह बताने की जरूरत है कि लालू-राबड़ी शासनकाल के दौरान बिहार में ग्रोथ रेट कहां से कहां तक पहुच गया था । क्या उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि किस तरह से सूबे के अफसरों को खुलेआम उनके दफ्तर में घुसकर उनके साथ बदतमीजी की जाती थी । क्या उन्हें यह याद दिलाना पड़ेगा कि लालू के राज में अपहरण एक उद्योग में तब्दील हो चुका था । क्या उन्हें यह भी याद दिलाना होगा कि लालू की शह पर शहाबुद्दीन जैसे नेता बिहार में फल फूल रहे थे । क्या उन्हें यह भी याद दिलाना होगा कि उन पंद्रह सालों में अस्पतालों से डॉक्टर, स्कूल से शिक्षक और दफ्तरों से बाबू गायब रहा करते थे । क्या उन्हें यह भी याद नहीं कि पंद्रह साल में बिहार में परिवहन वयवस्था चंद चुनिंदा लोगों की बपौती बनकर रह गई । बिहार परिवहन निगम की खूबसूरत इमारत खंडहर में तब्दील हो गई। उस वक्त के कानून व्यवस्था की बात करने से शरीर में सिहरन हो जाती है । लालू यादव के शासन काल में बिहार सिर्फ निगेटिव ग्रोथ और छवि हासिल कर पाया । जिन लोगों लालू यादव सामजिक क्रांति के मसीहा और समाज के पिछड़े वर्ग के लोगों के मसीहा नगर आते हैं उनको मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि उन दबे कुचलों ने ही उनको सत्ता से च्युत कर दिया । शासन सिर्फ नारों और जुमलों और मसखरेपन से नहीं चलता । उसके लिए ठोस कार्य और अहम फैसले करने होते हैं । दरअसल लालू यादव के बिहार विधानसभा में करारी हार के बाद कुछ लोगों को लालू में अपना भविष्य नजर आने लगा है और वो उनमें संभावना तलाशने लगे है। अब अगर मैं ये कहूं कि उनकी जातिवादी मानसिकता उनको ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है तो मैं भी उसी ग्रंथिदोष का शिकार हो जाऊंगा जिसका आरोप मुझपर लगाया गया है ।
मेरे उस लेख की प्रतिक्रिया में जिसतरह से बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह और बाबा साहब भीराव अंबेडकर का उल्लेख किया गया वो भी बेहद हास्यास्पद और मनोरंजक है । उसपर मैं कुछ नहीं कहना चाहता ।
दूसरी बात जो साबित करने की कोशिश की गई वो यह कि लालू यादव के शासनकाल में बिहार में जमकर सांस्कृतिक गतिविधियां होती थी । इस क्रम में यह बताया गया कि लालू यादव के समय में बिहार विधान परिषद की साहित्यिक गतिविधियां ‘सुगढ़’ फ थी । इस सुगढ़ता के लिए दो उदाहरण दिए गए–एक तो उस वक्त की परिषद पत्रिका साक्ष्य और संवाद राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो रही थी । अब इस कथन का क्या किया जाए । राष्ट्रीय स्तर की तो बात छोड़िए मैं तो सिर्फ इतना कह सकता हूं कि ये पत्रिकाएं अब भी साहित्यिक हलके में अपनी जगह और पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही हैं । जाबिर हुसैन हमारे मित्र हैं, मैं भी उन पत्रिकाओं को लगातार देखता रहा हूं । लेकिन राष्ट्रीय लोकप्रियता का कथन अति उत्साह में दिया गया प्रतीत होता है। दूसरे ये कि विधान परिषद में राजेन्द्र यादव, गुलजार, सीताराम येचुरी जैसे बौद्धिक वहां की गतिविधियों में शामिल होते थे । ये सच है कि जाबिर हुसैन के बिहार विधानसभा के सभापति रहते परिषद में कुछ साहित्यिक गतिविधियां हुई थी । उसकी तारीफ भी हुई थी । खुद जाबिर हुसैन की किताब पर लिखते हुए मैंने भी उनकी साहित्यिक सक्रियता को सराहा था । लेकिन क्या उतना भर ही काफी है । क्या मुझपर आरोप लगानेवाले यह जानते हैं कि उस वक्त कला और संसकृति मंत्री कौन थे या फिर उस मंत्रालय की पहल पर क्या सार्वजनिक कार्य किए गए ।
दिल्ली के एक समाजवादी कवि-उपन्यासकार ने भी फोन करके मुझसे बहस की । उनकी पहली लाइन थी – बेबसाइट्स पर चौथी दुनिया में छपे आपके लेख पर खूब बहस हो रही है । मैंने पढ़ा नहीं है लेकिन जैसा कि लोगों ने मुझे बताया कि आपने बिहार की सांस्कृतिक हलचल पर लिखा है । पहले तो वो फेसबुक पर लिखत-पढ़त में बहस करना चाहते थे लेकिन बाद में मौखिक बहस हुई । उनका कहना था कि बिहार की अकादमियां बहुत बुरे हाल में है । मैं उनकी राय से सौ फीसदी सहमत हूं । अकादमियों की हालत बुरी है । लेकिन फिर से मैं उसी तर्क पर लौटता हूं कि वर्तमान हालत को पिछले शासनकाल के बरक्श रखकर देखिए आपको हकीकत का पता चल जाएगा । क्या उन अकादमियों की बेहतरी की दिशा में सोचा नहीं जा रहा । क्या उनके कर्मचारियों के वेतन और अन्य सुविधाओं के बारे में सरकार ने धन मुहैया कराने की कार्ययोजना नहीं बनाई । उनको सक्रिय करने की दिशा में पहल नहीं हो रही । ये सच है कि बिहार सरकार की प्राथमिकता में कला संस्कृति नहीं है । लेकिन ये प्राथमिकता तो किसी भी सरकार की नहीं रही है और ना ही आगे रहेगी । हिंदी के नाम पर राजनीति करनेवालों को यह भी याद नहीं कि विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन होता है । हम सिर्फ बिहार की अकादमियों के बारे में ही क्यों सोचते हैं । आप देशभर की अकादमियों की तफ्तीश करके देख लीजिए- कमोबेश हर जगह आपको एक जैसे हालात नजर आएंगे । लेकिन इस तर्क पर बिहार के अकादमियों की बदहाली को जायज नहीं ठहराया जा सकता है । बिहार सरकार की कला और संस्कृति मंत्रालय की इस बात के लिए तो सराहना करनी ही चाहिए कि उसने सुधार की दिशा में कदम उठाए हैं । कवि मित्र मुझे यह भी समझाने की कोशिश करने लगे कि वो बिहार की मंत्री सुखदा पांडे की समझ को जानते हैं और उनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है । मैंने उनसे निवेदन भी किया कि किसी की वयक्तिगत क्षमता को उसकी विचारधारा के आधार पर नहीं बल्कि उसके काम के आधार पर आंका जाना चाहिए । लेकिन उनका गुस्सा चरम पर था और वो कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं थे और वही संवाद टूटने की वजह बना । बातचीत खत्म होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि उन्होंने तो बगैर मेरे लेख को पढ़े किसी के कहने के आधार पर अपनी राय बना ली । खैर हिंदी की दुर्दशा के लिए यही चीज- बिना पढ़े राय बनाना- बहुत हद तक जिम्मेदार है ।
अंत में सिर्फ इतनी बात कहना चाहूंगा कि किसी विचार पर सार्थक बहस हो, तर्कों का सहारा लेकर एक दूसरे पर हमले हों। लेकिन लेखन में एक न्यूनतम मर्यादा का पालन तो हो । आजकल बेवसाइट पर हर किसी को गाली गलौच करने और व्यक्तिगत जीवन पर कीचड़ उछालने की हासिल छूट को जो बेजा इस्तेमाल हो रहा है वो चिंता की बात है । मैं उस तरह के लोगों का नाम लेकर उनको वैधता नहीं प्रदान करना चाहता लेकिन उन कुंठित लोगों के बारे में हिंदी समाज को गंभीरता से सोचना होगा, नहीं तो आनेवाले दिनों में ये लंपटई हम सब पर भारी पड़ सकती है ।

Tuesday, July 12, 2011

बिहार में 'सांस्कृतिक क्रांति'

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी मशहूर किताब संस्कृति के चार अध्याय में कहा है कि – विद्रोह, क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका विस्फोट अचानक होता है । घाव भी फूटने के पहले बहुत दिनों तक पकता रहता है । दिनकर जी की ये पंक्तियां उनके अपने गृह राज्य पर भी पूरी तरह से लागू होती है। बिहार में लालू यादव और उनकी पत्नी श्रीमती रावड़ी देवी के तकरीबन डेढ दशक के शासन काल में सूबे की सारी संस्थाएं एक एक कर नष्ट होती चली गई या फिर प्रयासपूर्वक उनको बरबाद कर दिया गया । जो बिहार में एक जमाने में शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में विश्व में मशहूर था, जहां नालंदा विश्वविद्यालय जैसे उच्च कोटि के शिक्षा केंद्र हुआ करते थे, उन पंद्रह सालों के दौरान सबकुछ खत्म सा हो गया । जिस बिहार में कला संस्कृति की एक समृद्ध परंपरा थी वहां कला –संस्कृति मजाक बनकर रह गए । जो सूबा शिक्षा का अप्रतिम केंद्र हुआ करता था वहां से हर साल उच्च शिक्षा के लिए हजारो छात्र पलायन कर दिल्ली और अन्य शहरों का रुख करने लगे । जिस सूबे में ज्ञान की गंगा बहा करती थी वहां अपराध और रंगदारी का बोलबाला हो गया । राज्य के संवैधानिक मुखिया होने के नाते यह सारी जिम्मेदारी लालू-रावड़ी की की बनती है कि उन्होंने बिहारी गौरव को बिहारी गाली में तब्दील कर दिया । लालू यादव का फूहड़पन और उनके रिश्तेदारों के रंगदारी के किस्सों पर फिल्में बननी लगी और उन फिल्मों के अहम किरदारों में आपको उन लोगं की झलक साफ तौर पर दिखाई देने लगी । बिहारी शब्द हास्य और व्यंग्य का प्रतीक बन गया । लेकिन जैसा कि दिनकर जी ने लिखा है कि विद्रोह क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं कि उसका विस्फोट अचानक होता है । उसी तरह जनता के गुस्से का विस्फोट होने में सालों लग गए । बिहार की जनता ने समझदारी दिकाते हुए सूबे में सरकार बदल दी । पहले तो कुछ अंदेशे के साथ लेकिन दूसरी बार जब भरोसा हो गया तो प्रचंड बहुमत के साथ। इस प्रचंड बहुमत के साथ ही जनता की आशाएं और आकांक्षाएं भी सातवें आसमान पर जा पहुंची है ।
यह वर्ष बिहार राज्य के स्थापना के सौ वर्ष के रूप में साल भर जश्न के रूप में मनाया जा रहा है । राज्य की नीतीश सरकार ने साल भर के कई कार्यक्रम बनाए हैं जिनमें राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर गोष्ठी सेमिनार तो हैं ही उसके अलावा कई पुस्तकों का प्रकाशन और सांस्कृतिक रूप से लुप्त हो रही कलाओं के संरक्षण का काम भी शुरू किया गया है । इस काम में बिहार का कला संस्कृति मंत्रालय बेहद शिद्दत से जुटा है । इसी कड़ी में मंत्रालय ने बिहार विहार नाम से एक कॉफी टेबल बुक का प्रकाशन किया है । इस किताब में बिहार की कला संस्कृति एवं युवा विभाग की मंत्री सुखदा पांडे ने मर्म पर चोट की है – मैकाले के हवाले से उन्होंने लिखा है – हिंदुस्तानी यदि अपनी सांस्कृतिक और वैचारिक इतिहास को जान जाएं तो हम उनको गुलाम नहीं कर पाएंगे इस लिए उन्हें उनके इतिहास को नहीं जानने दो । बिहार में तकरीबन डेढ दशत में यही हुआ । बिहार की नई पीढ़ी को उसके सांसक्कृति और वैचारिक इतिहास की जानकारी से वंचित रखने का षडयंत्र रचा जाता रहा और प्रयासपूर्वक ऐसा किया भी गया । लेकिन अब सुखदा पांडे के नेतृत्व में बिहार का यह मंत्रालय मैकाले के इस सिद्धांतो को झुठलाने में लगा है । सुखदा पांडे शिक्षण कार्य से जुड़ी रही हैं और उनसे .ह उम्मीद भी की जा सकती है कि कला और संस्कृति के क्षेत्र में बिहार के गौरव को वापस लाने में महती भूमिका निभाएंगी ।
बिहार के गौरवशाली इतिहासल को सामने लाने के लिए संस्कृकि मंत्रालय ने एक किताब बिहार-विहार छापी है य़ इस किताब का संपादन राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त लेखक विनोद अनुपम ने किया है । विनोद अनुपम ने अएपने संपादकीय में बिहारकी होने की पीड़ा से ही सुरुआत की है कि किस तरह से जब वो 1992 में फिल्म एप्रिशिएशन का कोर्स करने के लिए पुणे गए थे तो उनके साथ के लोगों को इस बात का आश्चर्य होता था और व्यंग्यात्मक लहजे में पूछते थे कि कैसा है आपका बिहार । विनोद अनुपम के मुताबिक - अब बदलते वक्त में भी लोग बिहार के बारे में जानना चाहते हैं लेकिन अब वो लोग बिहार के इतिहास के बारे में जानना चाहते हैं, बिहार में हो रहे नवीनतम बदलाव के बारे में जानना चाहते हैं । जनता वह सबकुछ जानना चाहती है जो शायद हम भी नहीं जानते। शायद इसलिए कि उन्हें पता है कि बदलाव की इबारत बिहार से ही लिखी जानी है , देश में भविष्य की रोशनी बिहार से ही आनी है । बिहार को करीब से जानने की इसी क्षुधा की पूर्ति की छोटी सी कोशिश है – बिहार विहार । दरअसल इस कॉफी टेबल बुक से बिहार की संस्कृति और समृद्ध लोक कलाओं की एक छोटी से झलक भर ही मिलती है । संकेत मिलते हैं कि हमारे बिहार की कला परंपराएं कितनी समृद्ध रही है । बिहार का होने के बावजूद इस किताब को पढ़ने के बाद मेरी जानकारी में भी जबरदस्त इजाफा हुआ । इस किताब से भी एक दिलचस्प प्रसंग जुड़ा है । विनोद अनुपम ने जब फोन पर मुझे कहा कि बिहार की कला संस्कृति पर वो बिहार सरकार की तरफ से प्रकाशित होनेवाली कॉफी टेबल बुक का संपादन कर रहे हैं तो मुझे लगा था कि वो मजाक कर रहे हैं । पहले तो मुझे लगा था कि सरकार की कला संस्कृति में क्यों दिलचस्पी होगी । और उसपर से कॉफी टेबल बुक । जब भी हमारी बातचीत होती थी तो विमोद अनुपम उलके बारे में बताते थे लेकिन हर बार मैं सोचता था कि वो दिवास्वप्न देख रहे हैं और मैं सपने तोड़ने में यकीन नहीं रखता हूं इसल वजह से उनको कुछ कहता नहीं था लेकिन कालांतर में पता चला कि बिहार विहार को जो सपना था और जिसे मैं दिवा-स्वपन सोच समझ रहा था, दरअसल वो हकीकत था और सपना पूरा भी हुआ ।
कॉफी टेबल बुक की योजना के बारे में विवेक कुमार सिंह ने अपनी पूर्व पीठिका में लिखा है – देश विदेश में घूमते हुए मुझे कॉफी टेबल बुक की उपयोगिता का एहसास हुआ। विषय विशेष में रुचि जगाने के लिए कॉफी टेबल बुक हमेशा से एक बेहतर माध्यम रही है । यह विषय की विस्तार से जानकारी भले ही ना दे, उसके प्रति दिलचस्पी अवश्य जगाती है । बिहार विहार की परिकल्पना बिहार के प्रति दुनिया की दिलचस्पी जगाने के लिए ही की गई है । विवेक कुमार सिंह को नजदीक से जानने वाले यह बताते हैं कि इस प्रशासनिक अधिकारी ने बिहार में कला संस्कृति के विकास के लिए बहुच कार्य किए हैं और कई मृत प्राय संस्थाओं में नई जान फूंक दी थी । लेकिन कॉफी टेबल बुक की उपयोगिता उसकी उपलब्धता पर भी निर्भर करती है । अगर बिहार सरकार सिर्फ किताब छापकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेगी तो इसका उद्देश्य पराजित हो जाएगा । जरूरत इस बात की है कि इस किताब को उन खास लोगों तक पहुंचाया जाए जहां से किसी भी सूबे की छवि निर्मित होती है । अन्यथा यह किताब भी अन्य सरकारी प्रकाशनों की तरह गोदाम में धूल फांक रही होगी और इसके प्रकाशम से जुड़े लोग अपनी पीठ थपथपा रहे होंगे ।
इस किताब में बेहद श्रमपूर्वक सामग्री का चयन किया गया है लेकिन इसमें जो चित्र लगे हैं वो इस किताब की कमजोरी हैं । हो सकता है वक्त की कमी के चलते ऐसा हुआ हो या फिर कोई और कारण रहे हों लेकिन सामग्री के हिसाब से ना तो चित्रण कमजोर हैं चाहे वो रामलीला के पहले के चित्र हों राजाओं का चित्रण हो । लेकिन हमें इस प्रयास की सराहना करनी चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की और सामग्री सामने आएं, कमजोरियां तो दूर हो ही जाती है । बस जैसा कि मैंने उपर भी कहा कि इसे टारगेट पाठक वर्ग तक पहुंचावने का काम होना चाहिए ।