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Wednesday, November 30, 2016

कुशल रणनीति से विपक्ष पस्त

आठ नवंबर को रात आ बजे जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पांच सौ और हजार रुपए की नोटबंदी का एलान किया तो कई लोग सदमे में चले गए लेकिन ज्यादातर राजनीति दलों ने फौरी प्रतिक्रिया में प्रधानमंत्री मोदी के कालेधन के खिलाफ इस कदम की तारीफ की । अब भी लगभग सभी विपक्षी दल मोदी के इस फैसले को समर्थन दे रहे हैं लेकिन जैसे जैसे दिन बीत रह हैं तो वैसे वैसे इ समर्थन के साथ अगर मगर और लेकिन बढ़ते जा रहे हैं । नोटबंदी के बाद सबसे पहले सोशल मीडिया पर एक लड़की की तस्वीर विरोधियों ने वायरल करवाई जिसमें वो हाथ में दो हजार के नोटों का बंडल लिए दिखाई दे रही थी । तब बताया गया कि वो उत्तर प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष की बिटिया है । ये तस्वीर गलत निकली । फिर बीजेपी के कई प्रदेश स्तर के नेताओं की तस्वीरें सोशल मीडिया पर आईं और इस मीडियम की जो अराजकता है उसने इस तरह की तस्वीरों के जरिए माहौल बनाने की कोशिश की गई । इसी दौरान खबर फैलाई गई कि बीजेपी की बंगाल इकाई ने नोटबंदी से पहले भारी मात्रा में नकदी बैंक में जमा करवाई । उधर महाराष्ट्र के एक मंत्री की गाड़ी से बानवे लाख नकदी बरामद की गई । इन तमाम कोलाहल के बीच विपक्ष को बीजेपी पर आरोप लगाने का मौका मिल गया कि सरकार के नोटबंदी के फैसले की जानकारी बीजेपी नेताओं को पहले दे दी गई थी । विपक्ष ने अपने इन आरोपों को पुख्ता करने के लिए बिहार बीजेपी के कई जिलों में आठ नवंबर के पहले जमीन खरीदने के दस्तावेज पेश कर सनसनी फैलाने की कोशिश की ।

आरोपों के इन घटाटोप के बीच प्रधानमंत्री ने एक और राजनीतिक दांव चल दिया । उन्होंने अपनी पार्टी के सभी सांसदों और विधायकों को निर्देश जारी कर दिया कि वो आठ नवंबर से लेकर इकतीस दिसंबर के बीच अपने खातों में सभी तरह के लेनदेन का ब्यौरा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को सौंपे । प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले को विपक्ष के आरोपों की हवा निकालने की रणनीति मानी जा रही है । प्रधानमंत्री का ये निर्देश केंद्र सरकार के सभी मंत्रियों पर भी लागू होगा । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के सांसदों और विधायकों को पाई पाई का हिसाब देने का निर्देश पार्टी संसदीय दल की बैठक में सार्वजनिक तौर पर दिया । इस तरह के निर्देश जारी करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता को ये संदेश देना चाहते हैं कि नोटबंदी के इस फैसले से बीजेपी के नेताओं ने कोई बेजा फायदा नहीं उठाया है और ना ही उनको नोटबंदी के फैसले की पहले से जानकारी थी । दूसरे उन्होंने ऐसा करके अमित शाह को इस बात अधिकार दे दिया कि वो अगर किसी विधायक या सांसद के खातों में ज्यादा लेनेदेन देखें तो उससे जवाब तलब करें । अब इसके दो फायदे हैं एक तो पार्टी के पास हरेक नेता के खातों की जानकारी हो जाएगी और अगर किसी के खाते में गड़बड़ी पाई जाती है तो उसके खिलाफ कार्रवाई करके बीजेपी अपने दामन को और चमकदार बना सकती है । भारतीय जनता पार्टी के विधायकों और सांसदों के खातों की जानकारी मांगकर प्रधानमंत्री ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं । एक कुशल राजनेता की तरह सबसे पहले तो जनता को ये संदेश दिया कि वो किसी को भी बख्शने वाले नहीं हैं और अपनी पार्टी के नेताओं से भी पारदर्शिता की अपेक्षा रखते हैं ।  इसके अलावा प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के सांसदों और विधायकों को खातों का हिसाब देने का फरमान जारी कर विपक्षी दलों पर भी ऐसा करने का दबाव बना दिया है । भारतीय जनता पार्टी के नेता ये कहने भी लगे हैं कि विपक्ष भी अपने सांसदों और विधायकों के खातों का हिसाब मांगे । अब अर विपक्ष पर दबाव बढ़ता है तो उन क्षेत्रीय दलों के नेताओं की मुसीबतें बढ़ सकती हैं जिनका सारा कामकाज नकदी पर ही चलता है । इतने विशाल देश में क्या पता कि पार्टी के किस नेता ने अपने बैंक खातों में किस प्रकार का लेन देन किया है । सभी दलों के सांसदों और विधायकों के खातों की जानकारी संबंधित पार्टी में पहुंची तो फिर कई राज फाश हो सकते हैं । हलांकि आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के भारतीय जनता पार्टी के सांसदों और विधायकों को दिए इस निर्देश की खिल्ली उड़ाते हुए कहा है कि इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा और इससे ना ही किसी तरह की पारदर्शशिता का पता चलेगा । उन्होंने कहा कि अगर खातों की जानकारी ही लेनी है तो नोटबंदी के पहले के लेन देन की जानकारी मंगवानी चाहिए । अब उनके इस आरोप से तो यही लगता है कि बीजेपी के लोकसभा और राज्यसभा को मिलाकर करीब साढे तीन सौ सांसदों और देशभर के सैकड़ों विधायकों को नोटबंदी की जानकारी थी । इस आधार पर आरोप हल्के और हास्यास्पद लगते हैं । प्रधानमंत्री के इस फैसले के बाद अब विपक्ष कालेधन ,रेंडर करने के सरकारी स्कीम को लेकर हमलावर है । विपक्ष का आरोप है कि पचास फीसदी टैक्स के साथ इस स्कीम से कालेधन वालों का आधा पैसा साफ बच जाएगा जबकि प्रधानमंत्री ने कहा है कि कालेधन का आधा हिस्सा गरीबों के हितों में काम लाया जाएगा । नोटबंदी के फैसले के बाद आरोपों को लेकर विपक्ष लगातार अपना गोलपोस्ट बदल रहा है लेकिन अबतक उसको गोल करने में सफलता हासिल नहीं पाई है । नरेन्द्र मोदी कुशल रणनीतिकार की तरह विपक्ष की चालों को असफल कर रहे है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण भारत बंद के दौरान विपक्षी दलों के बीच का कंफ्यूजन या फिर सबसे अपने अपने बंद और विरोध रहे जोकि लगभग बेअसर रहे थे । 

प्रतीकों की आजादी का हासिल क्या

मुंबई के हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को कट्टरपंथियों पर महिलाओं की जीत के तौर पर पेश किया जा रहा है । उत्साही टिप्पणीकार इसको महिला सशक्तीकरण से जोड़कर पेश कर रहे हैं । इसके पहले इस तरह का माहौल महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत के वक्त भी बना था । तब भी और अब हाजी अली दरगाह मैनेजमेंट का ये फैसला सिर्फ प्रतीकात्मक हैं । लोकतंत्र में प्रतीकात्मक फैसलों का अपना एक महत्व है लेकिन प्रतीकों से किसी समस्या का हल नहीं हो सकता है या समाज में किसी सुधार को बहुत फायदा हो, ऐसा उदाहरण देखने में नहीं आता है । राजनीति में प्रतीकों का महत्व हो सकता है, है भी, लेकिन समाज में इन प्रतीकात्मक जीत का बौद्धिक जुगाली के अलावा कोई खास मतलब है नहीं । इनसे देश में महिलाओं की स्थिति पर कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है । हाजी अली या शनि शिंगणापुर मंदिर जानेवाली अकेली महिलाओं को अब भी अपने परिवार में पूछताछ का सामना करना पड़ता है । कहां जा रही हो, किसके साथ जा रही हो, कब लौटोगी, पहुंचकर फोन कर देना आदि आदि । प्रधानमंत्री बनने के बाद लालकिले की प्राचीर से पहली बार नरेन्द्र मोदी ने जब देश को संबोधित किया था तो इस तरह की बातें करने पर उनको आलोचना का सामना करना पड़ा था । ये समाज की हकीकत है और अगर हमको इस विसंगति को दूर करना है तो इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है ।
दरअसल अगर हम देखें तो पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति को पांच पैमानों पर आंका जाता है- आर्थिक आजादी, बेहतर सामाजिक स्थितियां, संपत्ति का अधिकार, मनचाहा काम करने की आजादी, संवैधानिक अधिकार । हमारे देश में महिलाओं को संविधान बराबरी का अधिकार देता है, कुछ सालों पहले सुप्रीम कोर्ट ने संपत्ति पर भी बराबरी का हक दे दिया, बावजूद इसके अभी भी हमारे देश की सभी महिलाओं को आर्थिक आजादी हासिल नहीं है। भारत की स्थिति बेहद दिलचस्प है । विश्व बैंक की एक स्टडी के मुताबिक भारत में पुरुषों की तुलना में कम महिलाएं मजदूरी करती हैं । इसमें एक और दिलचस्प तथ्य है कि जब देश की आर्थिक स्थिति बेहतर होती है तो ये अनुपात और कम हो जाता है यानि की परिवार की आय बढ़ती है तो महिलाएं काम करना छोड़ देती हैं । अर्थशास्त्र इस स्थिति को अब तक व्याख्यायित नहीं कर पाए हैं ।  इसके अलावा अगर हम देखें तो लड़कियों और महिलाओं को लेकर सामाजिक हालात बहुत अच्छे नहीं हैं । उनको अब भी अपनी मर्जी से कहीं भी कभी भी आने जाने की ना तो स्वतंत्रता है और ना ही सुरक्षा । राजधानी दिल्ली में जब हालात अच्छे नहीं हैं तो गांव देहात की तो कल्पना ही की जा सकती है । आजादी के सत्तर साल बाद भी देश की राजधानी में महिलाओं के लिए सुरक्षित और खतरनाक सड़कों और डॉर्क स्पॉट पर होनेवाली बहसें इस बात का सबूत हैं कि उनकी सुरक्षा कैसी है ।
महिलाओं और लड़कियों के लिए नागरिक सुविधाएं भी कम हैं । लड़कियों के स्कूल ड्रॉप आउट होने की एक वजह वहां शौचालयों का नहीं होना भी माना जाता है । इस दिशा में जो काम हो रहे हैं वो नाकाफी हैं । अब से करीब एक दशक पहले यानि आजादी के साठ साल बाद देश के बजट में उन स्कीमों का अलग से जिक्र होने लगा जो सिर्फ महिलाओं के लिए प्रस्तावित किए गए थे । उसके बाद से देश में महिलाओं की स्थिति बेहतर बनाने के लिए कई राज्य सरकारों ने गंभीरता से सोचना शुरू किया । हालात का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि बजट में महिलाओं के लिए अलग से स्कीम बनाने का काम अबतक सिर्फ सोलह राज्यों ने ही शुरू किया है । जबकि तमाम तरह के शोध इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि बजट में महिलाओं के लिए स्कीमों का अलग से प्रावधान करने से उनकी हालात में सुधार दिखाई देना शुरू हो गया है । जिन राज्यों ने इस तरह की एक्सक्लूसिव स्कीमों को अपने बजट में जगह दी है वहां लैंगिक समानता को लेकर स्थिति बेहतर दिखाई दे रही है । स्कूलों में लड़कियों के नामांकन में बढोतरी दर्ज की गई है । इसका राजनीतिक फायदा भी होता है जैसे बिहार में नीतीश कुमार ने स्कूलू लड़कियों को मुफ्त में साइकिल बांटी तो उनकी लोकप्रियता बढ़ी और चुनावी नतीजों पर उसका असर दिखा । महिलाओं की स्थिति बेहतर करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना भी जरूरी है ।

हमारे देश में महिला अधिकारों के लिए बात बात पर झंडा-डंडा लेकर निकलनेवाली महिलाएं उनकी बेहतरी को या फिर उनकी आजादी को उनकी देह से जोड़ दे रही हैं । मेरा तन, मेरा मन जैसे नारे फिजां में गूंजते रहते हैं । मन और तन की आजादी महिलाओं के लिए आवश्यक हैं लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है उनको आर्थिक आजादी मिले, उनको सुरक्षा मिले । समाज में वैसी स्थिति बने जो महिलाओं को सुरक्षित माहौल दे सके तभी तो सही मायने में मन और तन दोनों की आजादी का अनुभव कर पाएंगी । प्रतीकों से उपर उठकर नारीवादियों को भी ठोस काम करने की जरूरत है अन्यथा वो लेखों, कहानियों और सेमिनारों के दस्तावेजों में दफन हो जाएगा ।   
(30.11.2016)

साधु और वास्तु करेंगे बेड़ा पार

एक तरफ जहां नोटबंदी को लेकर पूरे देश में पक्ष और विपक्ष के बीच तलवारें खिंची हुई हैं । बैंकों के बाहर पैसों के लिए कतारें लग रही हैं वहीं दक्षिण में तेलांगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखरराव ने राजा महाराजाओं जैसे नए बने महल में वेदों की ऋचाओं के उद्घोष के साथ गृह प्रवेश किया । नौ एकड़ में करीब एक लाख स्कावयर फीट में बने इस भव्य बंगले को वास्तु के हिसाब से तैयार किया गया है, जिसमें सिनेमा हॉल से लेकर एक हजार लोगों की क्षमता का विशाल कांफ्रेंस हॉल भी है । हैदराबाद के पॉश इलाके बेगमपेट में मुख्यमंत्री के इस आवास को बनाने के लिए आसपास की पुरानी सरकारी इमारतों को गिराया गया और करीब चालीस करोड़ की लागत से आठ महीने में इसका निर्माण हुआ । वास्तु के साथ साथ भव्यता और सुरक्षा का इंतजाम इतना है कि कमरों के अलावा बॉथरूम तक में बुलेटप्रूफ शीशे लगाए गए है । ये तो उस राज्य के मुख्यमंत्री का महलनुमा निवास है जिसने अपने सूबे के गरीबों के लिए पांच लाख रुपए की लागत से करीब पौने तीन लाख घर बनाने का एलान किया था । उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक अबतक पांच फीसदी घर भी नहीं बन पाए हैं । तेलांगाना के गरीबों को दिए जानेवाले इन दो कमरों के घरों को बनाने के लिए बजट में प्रावधान होने के बावजूद संबंधित विभाग पैसे की कमी का रोना रो रहा है लेकिन मुख्यमंत्री के महल के लिए उसके पास असीमित धन है ।
यह सही है कि आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद तेलांगाना का विकास तेजी से हुआ लेकिन यह विकास बेहद असंतुलित है । इंडस्ट्री और सर्विस सेक्टर में तो काफी ग्रोथ है लेकिन कृषि के क्षेत्र में विकास की रफ्तार बेहद धीमी है । इसी तरह से अगर हम देखें तो तेलांगाना के पंद्रह से उनतीस साल के नौजवानों के बीच बेरोजगारी की दर करीब आठ फीसदी है । ऐसे माहौल में चंद्रशेखर राव का खुद के लिए महलनुमा घर बनवाना कितना उचित है । चंद्रशेखर राव की शाही हवेली की चर्चा हो ही रही थी कि एक और वजह ने उनको कठघरे में खड़ा कर दिया ।
चंद्रशेखर राव के गृहप्रवेश के चंद घंटों बाद सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल होने लगा । उस वीडियो में चंद्रशेखर राव के नए बने घर के अंदर के उनके दफ्तर की कुर्सी पर एक साधु बैठे दिख रहे हैं और चंद्रशेखर राव उनके बगल में खड़े हैं । सोशल मीडिया के उस वीडियो के बारे में बताया गया कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे वो साधु चिन्ना जीयर स्वामी हैं । सोशल मीडिया पर इस वीडियो के वायरल होने के बाद विरोधियों ने चंद्रशेखर राव को घेरना शुरू कर दिया । कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष उत्तम रेड्डी ने मुख्यमंत्री पर वास्तु आस्था के चलते जनता का पैसा बर्बाद करने का आरोप लगाया । उनका आरोप है कि अगर बंगले की कीमत में जमीन की कीमत जोड़ दी जाए तो वो करीब डेढ सौ करोड़ तक पहुंच जाती है । दरअसल चंद्रशेखर राव का वास्तुप्रेम काफी पुराना है । जब वो तेलांगाना के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने हैदराबाद में पुराने सचिवालय में बैठने से इंकार कर दिया था । बताया जाता है कि इसकी वजह वास्तु है । चंद्रशेखर राव ने करीब सौ करोड़ की लागत से नया सचिवालय बनवाने का एलान किया था लेकिन वो मामला फिलहाल कोर्ट में लंबित है । पत्रकारों से बातचीत में चंद्रशेखर राव ने कहा था कि इतिहास इस बात का गवाह है कि पुराने सचिवालय में बैठनेवाला कोई भी मुख्यमंत्री फला-फूला नहीं है । वो इसको तेलांगना के भविष्य से भी जोड़कर देखते हैं । नए घर में प्रवेश के पहले भी चंद्रशेखर राव ने वास्तु के हिसाब से पूजा सुदर्शन यज्ञ करवाया ।  

सवाल यही है कि राजनेताओं को क्यों खराब वास्तु से डर लगता है और क्यों वो साधुओं की शरण में जाते हैं । आज जब हमारा देश मंगल ग्रह पर अपने यान का सफल प्रक्षेपण कर चुका है और विज्ञान के क्षेत्र में इतनी प्रगति कर चुका है तो फिर वास्तुशास्त्री और साधुओं पर इतना भरोसा क्यों । अगर हम इस पर विचार करें तो हमारे देश में साधुओं और धर्मगुरुओं पर राजनेताओं के भरोसे का लंबा इतिहास रहा है । नेताओं के हाथों में अंगूठियां इस बात की गवाही देती रहती हैं । दरअसल सत्ता का स्वाद चख लेने के बाद नेता उसको छोड़ना नहीं चाहते हैं और पद पर पहुंच जाने के बाद उनमें एक खास किस्म की असुरक्षा देखने को मिलती है । अपनी इसी असुरक्षा बोध से बचने के लिए नेता वास्तुशास्त्रियों, ज्योतिषियों और साधुओं के पास पहुंचते हैं । उन्हें लगता है कि उनके आशीर्वाद या उपायों से वो सत्ता में बने रह सकते हैं । वो  भूल जाते हैं कि लोकतंत्र में सिर्फ जनता ही किसी की भी सत्ता बना और बचा सकती है । अपनी किताब वन लाइफ इज नॉट एनफ में पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने चंद्रास्वामी और मार्गेट थैचर के बीचे के दिलचस्प संवाद का जिक्र किया है जिसमें स्वामी ने उनके बारे में जो भविष्यवाणी की थी वो सच निकली थी । ऐसे तुक्के लगते रहते हैं जो कि बाबाओं की दुकान चमका देते हैं ।   लेकिन क्या जनता का इससे भला होता है ?
( नारद न्यूज 30.11.2016)

Tuesday, November 29, 2016

लोकपाल की राह मे रोड़ा क्यों ?

लोकपाल कानून को जनवरी दो हजार चौदह में प्रभावी बना दिया गया था । इस बात को ढाई साल से ज्यादा बीत गए हैं लेकिन अभी तक लोकपाल को नियुक्त करने की प्रक्रिया क्यों रुकी हुई है ? सरकार इस नियुक्ति प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए अध्यादेश क्यों नहीं ला रही है ? सरकार ये संदेश क्यों देना चाहती है कि वो लोकपाल की नियुक्ति के पक्ष में नहीं है । सरकार क्यों इस प्रक्रिया में देरी होने दे रही है ? कुछ इसी तरह के सवाल सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से लोकपाल कानून को अमली जामा पहनाने के बारे में पूछे हैं । एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की नियुक्तु को लेकर बेहद सख्त रुख अनाया है । जनवरी दो हजार चौदह में इस कानून को नोटिफाई किया गया था उसमें लोकपाल की नियुक्ति के लिए जिस कमेटी का गठन होना है उस कमेटी में प्रधानमंत्री, लोकसभा के स्पीकर, लोकसभा में नेता विपक्ष, सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के अलावा इन चारों की अनुशंसा पर राष्ट्रपति के द्वारा नामित एक न्यायविद को होना था । मई दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस या कोई भी अन्य दल लोकसभा की दस फीसदी सीट जीतने में नाकाम रही लिहाजा लोकसभा में किसी भी दल को नेता विपक्ष की कुर्सी नहीं मिली । यहीं से लोकायुक्त की नियुक्तिमें पेंच फंस गया । केंद्र सरकार का तर्क है कि चूंकि इस वक्त लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं हैं इस वजह से लोकपाल कानून में संशोधन करना होगा । जिसके लिए उसने बिल बनाकर संसद में पेश कर दिया है । उस बिल को संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी देखकर अपनी रिपोर्ट दे दी है । सरकार का तर्क है कि इस कानून में जो संशोधन होना है वो संसद में विचाराधीन है । लेकिन सरकार के ये तर्क सुप्रीम कोर्ट के गले नहीं उतर रहे है । कोर्ट ने सरकार को सख्त लहजे में चेतावनी दी है कि संसद लंबे समय से इस पर विचार नहीं कर रही है । एक संस्था के रूप में लोकपाल को शुरू करवाने के लिए कोर्ट आदेश दे सकता है जो संसद की भावना के अनुरूप होगा । इसके बाद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से इल मसले पर जवाब देने के लिए वक्त मांग लिया है ।
अब इस पूरे मसले से सवाल ये खड़ा होता है कि केंद्र सरकार क्यों भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बनाई गई संस्था को प्रभावी नहीं बनाना चाहती है । क्यों नरेन्द्र मोदी सरकार लोकपाल की नियुक्ति को लेकर देरी करते या उसकी राह में रोड़ा अटकाते दिखना चाहती है । ये सवाल और तीखा हो जाता है जब ये सामने आता है कि इसी सरकार ने सीबीआई के डायरेक्टर के चयन में, केंद्रीय सूचना आयुक्त के चयन के लिए और केंदीय सतर्कता आयुक्त को चुने जावने वाली कमेटी में लोकसभा में नेता विपक्ष की मौजूदगी के कानून में संशोधन करके उसकी जगह लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता के नाम को मंजूरी दिलवाई है । फिर वो कौन सी बाध्यता है कि मौजूदा सरकार लोकपाल को लेकर ये जरूरी संशोधन नहीं पास करवा रही है और खुद पर अंगुली उठाने और सुप्रीम कोर्ट को लताड़ने या ये कहने का मौका दे रही है कि अगर संसद ये नहीं कर सकती है तो वो इस काम को करने में सक्षम हैं । इसके पीछे की मंशा चाहे जो हो लेकिन ये सरकार की छवि को खराब कर रही है ।
दरअसल अगर हम देखें तो लोकपाल को लेकर शुरू से ही राजनीतिक दलों में उपेक्षा का भाव रहा है । पिछले करीब छह दशक में इस कानून को पास करवाने के लिए आठ से ज्यादा बार कोशिश की गई लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली थी । कई बार संसद में पेश होने के बावजूद लोकपाल बिल धूल खा रही थी । जब दो हजार ग्यारह में अन्ना हजारे ने लोकपाल को लेकर आंदोलन शुरू किया । पहले तो पांच अप्रैल 20111 को जंतर मंतर पर अनशन किया और फिर उसके बाद अन्ना हजारे को 16 अगस्त से दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में अनशन करना था लेकिन उनकी गिरफ्तारी से वो टल गया था । रिहा होने के बाद अन्ना 19 अगस्त से रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे और तेरह दिनों तक उनके अनशन ने उस वक्त की यूपीए सरकार पर इतना दबाव बना दिया था कि संसद के विशेष सत्र में लोकपाल बिल पर बहस हुई थी । किन दो हजार ग्यारह में उस बिल को राज्यसभा से पास नहीं करवाया जा सका था । राज्यों में लोकायुक्तों के अनिवार्य गठन को लेकर कई दलों को एतराज था । उस एतराज को संसद की सेलेक्ट कमेटी के पास भेजा गया । उसके बाद कई संशोधनों के साथ दो हजार तेरह में इसको पास करवाया जा सका । पांच दशकों से जो बिल कानून बनने के लिए प्रयासरत था उसको अमली जामा पहनाया गया । इस बिल को पास करवाने के लिए राज्यसबा में कांग्रेस और बीजेपी दोनों एक साथ आए थे । ये एक ऐतिहासिक मौका था औपर उस वक्त देश की जनता को ये संदेश गया था कि भ्रष्टाचार के राक्षस से लड़ने के लिए दोनों प्रमुख विपक्षी दल साथ आ सकते हैं । लोकपाल को लेकर सक्रिय रहे अन्ना के उस वक्त के अर्जुन अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाई और पहली बार कांग्रेस के साथ तो दूसरी बार प्रचंड बहुमत से दिल्ली में सरकार भी बनाई ।

दरअसल लोकपाल एक ऐसा कानून है जिसको लेकर सभी राजनीतिक दलों में एक तरह का भय है । जिस दिल्ली में केजरीवाल ने लोकपाल आंदोलन से ताकत पाई थी उसी दिल्ली में अबतक लोकपाल कानून लागू नहीं किया जा सका है । सरकार बनने के महीनों बाद उसको दिल्ली विधानसभा से पारित करवा कर केंद्र को भेजा गया जहां वो लंबे समय से लंबित है । अरविंद केजरीवाल जिस तरह के लोकपाल कानून की वकालत करते रहे हैं उस तरह का कानून तो कोई भी नेता कहीं भी लागू नहीं होने देगा । दो हजार ग्यारह में जो भारतीय जनता पार्टी लोकपाल कानून को लेकर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करती थी वही भारतीय जनता पार्टी जब सत्ता में आई तो पिछले ढाई साल से इस संस्था के गठन को लेकर उदासीन है । दरअसल सत्ता का अपना एक चरित्र होता है वो किसी दल से या नेता से प्रभावित नहीं होती है । विश्व इतिहास में बहुत कम ऐसा नेता हुए हैं जिन्होंने अपनी सोच और अपने क्रियाकलाप से सत्ता का स्वभाव बदला हो, ज्यादातर नेता सत्ता के स्वभाव के हिसाब से खुद को ढाल लेते हैं । सिस्टम बदलने की बात करनेवाले नेता भी जब सत्ता में आते हैं या जब उनको सिस्टम बदलने का मौका मिलता है तो बजाए सिस्टम को बदलने के वो सिस्टम का हिस्सा बनकर राजनीति के बियावान में खो जाते हैं ।  लोकपाल कीनियुक्ति को लेकर भी कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है । अब भी वक्त है कि नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार लोकपाल की नियुक्ति को लेकर संसद के मौजूदा सत्र में इस कानून में संसोधन करवाए और लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया को तेज करे । लोकतंत्र में कानून का सम्मान करना जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक है उसका सम्मान करते दिखना ।  

Saturday, November 26, 2016

सेक्स प्रसंगों से करो तौबा- आर्चर

अंग्रेजी के मशहूर लेखक जैफ्री ऑर्चर ने भारत के युवा लेखकों को सलाह दी है कि वो सेक्स, हिंसा और भूत प्रेत के बारे में नहीं लिखें । उनकी सलाह है कि खराब भाषा से भी भारत के युवा लेखकों को बचना चाहिए । उन्होंने साफ कहा है कि भारतीय युवा लेखकों को उन्हीं विषयों पर लिखना चाहिए जिसको लेकर लेखक को खुद पर पूरा यकीन हो यानि वो विषय को लेकर कन्विंस हों। जैफ्री ऑर्चर ने कहा कि लेखक को अपना काम करना चाहिए और फिर उसको जनता पर छोड़ देना चाहिए कि वो उसको पसंद करती हैं या नहीं । उन्होंने साफ तौर पर जोर देकर ये भी कहा कि जो जनता चाहती है उस हिसाब से नहीं लिखना चाहिए बल्कि लेखक को अपने हिसाब से साहित्य सृजन करना चाहिए । जैफ्री आर्चर कोई मामूली लेखक नहीं हैं बल्कि पूरी दुनिया में उनकी लेखन का डंका बजता है । सत्तर साल की उम्र में भी वो खुद के लेखन को चुनौती देते रहे हैं और लगातार नए नए विषयों पर लिखते रहे हैं। जब उपन्यास से मन भरने लगा तो नाटक लिखना शुरू कर दिया फिर कहानी की ओर मुड़ गए। एक अनुमान के मुताबिक उनकी किताब केन एंड एबेल की करीब साढे तीन करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं । यह साहित्य में एक घटना की तरह है । इस किताब से पहले प्रकाशित जैफ्री ऑर्चर की दो किताबें भी बेस्ट सेलर रही हैं । दरअसल अगर हम देखें तो जैफ्री ऑर्चर ने अपना करियर लेखक के तौर पर तब शुरू किया जब वो लगभग दीवालिया हो गए थे और उनपर कर्ज का भारी बोझ आ गया था । जैफ्री ऑर्चर सौ मीटर रेस के धावक रह चुके हैं, ब्रिटेन में सांसद रह चुके हैं लेकिन कारोबार में ठोकर खाने के बाद लेखक बने । कर्ज उतारा फिर राजनीति में गए ।
आर्थिक रूप से घिरे जैफ्री ऑर्चर ने सबसे पहले नॉट अ पेनी मोर, नॉट अ पेनी लेस लिखा जिसकी सोलह देशों में जमकर बिक्री हुई । उसके बाद तो उन्होंने लेखन को ही अपना लिया और अपने बैलेंस शीट को लेखन की कमाई से ठीक किया। गूगल के मुताबिक उनका तीसरा उपन्यास केन एंड एबेल विश्व साहित्य के इतिहास में ग्यारहवां सबसे सफलतम उपन्यास है । लियो टॉलस्टॉय के वॉर एंड पीस से सिर्फ एक पायदान नीचे । जैफ्री ऑर्चर का जीवन विवादों से भी भरा रहा है और जेल भी काट चुके हैं । लिहाजा उनका अनभव संसार वैविध्यपूर्ण है । जैफ्री ऑर्चर के बारे में ये बताने का मकसद सिर्फ इतना था कि उनकी सलाह को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए । उसको माना जाए या नहीं इस बात पर कम से कम विमर्श तो होना ही चाहिए । इस लेख का मकसद भी यही है ।
जैफ्री ऑर्चर की भारत के युवा लेखकों की इस सलाह पर कई लोगों ने ये सवाल उठाए कि उनको भारत के पाठकों की रुचि का और भारतीय लेखन का उनको क्या पता । अब ऐसे लोगों की अज्ञानता पर क्या कहा जाए । जैफ्री ऑर्चर का भारत से बहुत पुराना और गहरा नाता रहा है और वो नियमित तौर पर भारत आते जाते रहे हैं और भारत के बारे में उनकी एक राय भी है । भारतीय महिलाओं के बारे में जैफ्री ऑर्चर ने हाल ही में अपने एक इंटरव्यू में कहा है कि जब भी वो भारत आते हैं तो यहां की महिलाओं को मजबूत होते देखकर खुश होते हैं । वो भारतीय महिलाओं के सशक्तीकरण की भावना का सम्मान करते हुए कहते हैं कि नई पीढ़ी को रोकने की ताकत अब किसी में नहीं है । जैफ्री ऑर्चर भारत के प्रकाशन जगत की सचाईयों से भी वाकिफ हैं और अपनी कई किताबों को सबसे पहले भारत में ही लॉंच करते रहे हैं । उनका मानना है कि भारत में पाइरेसी एक बड़ी समस्या है और अगर भारत में किताब बाद में लॉंच की जाती है तो लेखक और प्रकाशक दोनों का नुकसान हो जाता है । लिहाजा वो इसकी काट के लिए सबसे पहले अपनी किताब भारतीय बाजार में ही लॉंच करते हैं ।
अब हम आते हैं जैफ्री ऑर्चर की युवा लेखकों को दी जानेवाली सलाह पर । उन्होंने सेक्स संबंध से लेकर भूत-प्रेत की कहानियां नहीं लिखने की सलाह दी है लेकिन इन दिनों सेक्स संबंध युवा लेखकों के लेखन में लगभग अनिवार्य उपस्थिति की तरह है । कई युवा लेखकों को लगता है कि उपन्यासों में बगैर यौन संबंधों के छौंक के उसको सफल नहीं बनाया जा सकता है जबकि उनके सामने ही अमिष त्रिपाठी का उदाहरण है । जो बगैर इस तरह के विषयों को छुए दुनिया के बड़े लेखकों की लीग में शामिल हो गए हैं । दरअसल कुछ युवा, कुछ युवापन की दहलीज पार कर चुके लेखक अपनी कहानियों में यौन संबंधों का इस्तेमाल उसी तरह करते हैं जैसे कुछ फिल्मकार अपनी फिल्मों की सफलता के लिए नायिकाओं से अंग प्रदर्शन करवाते हैं । उन्हें ये सफलता का शॉर्टकट फॉर्मूला लगता है । फिल्मों में भी जहां कहानी की मांग हो वहां अंगप्रदर्शन से परहेज नहीं करना चाहिए और साहित्य में भी जहां सिचुएशन की मांग हो वहां यौन संबंधों का वर्णन होना चाहिए । साहित्य में यौन संबंधों के वर्णन को लेकर बहस पुरानी है लेकिन जिस तरह से चेतन भगत जैसे लेखकों ने जुगुप्साजनक तरीके से चटखारे लेने के अंदाज में इस तरह से प्रसंगों पर विस्तार से लिखा है उसको जैफ्री ऑर्चर की टिप्पणी के आइने में देखे जाने की जरूरत है । चेतन के नए उपन्यास वन इंडियन गर्ल के कई पन्ने तो पोर्नोग्राफी को मात देते हैं । हिंदी में जब मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास चाक या फिर अल्मा कबूतरी प्रकाशित हुआ था तब भी उसमें वर्णित यौन संबंधों को लेकर साहित्य जगत में अच्छा खासा विवाद हुआ था । साहित्य के शुद्धतावादियों ने तब मैत्रेयी पुष्पा के लेखन को कटघरे में खड़ा किया था । बाद में भी इस तरह के प्रसंगों को लेकर कई कृतियां आईं । कृष्णा अगिनहोत्री की आत्मकथा के दो खंड- लगता नहीं है दिल मेरा तथा ...और और औरत में इस तरह के प्रसंगों की भरमार है । हद तो बुजुर्ग लेखिका रमणिका गुप्ता ने अपनी आत्मकथा में कर दी। उनकी आत्मकथा आपहुदरी में जिस तरह क जुगुप्साजनक प्रसंगों की भरमार है वो उस किताब को साहित्य के अलग ही कोष्टक में रख देता है। जैफ्री ऑर्चर की सलाह युवा लेखकों को लेकर है । इन वरिष्ठ लेखकों की रचनाओं का उल्लेख इस वजह से किया गया ताकि लेखन की इस परंपरा को समझने में मदद मिले । यौन संबंध मानव जीवन की अनिवार्यता है लेकिन उसको कितना और कैसे उभारा जाए ये लेखक पर निर्भर करता है । अभी पिछले दिनों युवा लेखिका सोनी सिंह का संग्रह क्लियोपेट्रा प्रकाशित हुआ था । उनकी कहानियों में इस तरह के कई प्रसंग बेवजह आते हैं और जिस तरह के बिंबो का वो इस्तेमाल करती हैं वो हिंदी कहानी में कुछ जोड़ता हो इसमे संदेह है । हलांकि राजेन्द्र यादव को सोनी सिंह की कहानियां अपने बेबाक बयानी के बावजूद बौद्धिक खुराक मुहैया करवाने वाली लगती हैं । संभव है कि यादव जी की तरह के कुछ पाठक साहित्य में हों । सोनी सिंह के अलावा भी कई लेखक लेखिका इस तरह की कहानियां लिख रहे हैं । पर उनमें से ज्यादातर अपनी इस तरह की कहानियों से पाठकों को झकझोरने के बाद अलग भावभूमि पर विचरण करने लगी हैं ।  जिसको उनके कोर्स करेक्शन की तरह देखा जा रहा है ।

जैफ्री ऑर्चर की इस सलाह के बाद एक बार फिर से साहित्य में इस बात पर बहस होनी चाहिए कि साहित्यक शुचिता की सीमा कितनी हो । लेखक सिचुएशन की मांग पर कहां तक जा सकता है या जा सकती है । यौन संबंधों पर लिखने के लिए दरअसल बहुत सधे हुए दिमाग और लेखनी की जरूरत होती है । ये प्रसंग ऐसे होते हैं कि अगर लिखते वक्त लेखक का संतुलन खो गया तो वो उसके लेखन को हल्का भी कर दे सकता है या पाठक उसको रिजेक्ट भी कर सकते हैं । खुद लेखक को भी इस तरह के लेखन के पहले कन्विंस होना चाहिए । पाठकों को कहानियों की ओर आकर्षित करने के लिए इस तरह के प्रसंग जबरदस्ती नहीं ढूंसने चाहिए । जैफ्री ऑर्चर ने एक और बात कही कि बाजर की मांग के हिसाब से लेखकों को नहीं लिखना चाहिए तो वो इस ओर इशारा करते है कि लेखक तो पाठकों की रुचि का निर्माण करते हैं, रुचियों आधार पर साहित्य सृजन करनेवाले लेखक नहीं बल्कि कारोबारी होते हैं । अब हिंदी के युवा लेखकों को तय करना है कि वो वैश्विक लेखक की सलाह मानते हैं या फिर शॉर्टकट सफलता के लिए पुराने फॉर्मूले को अपनाते हैं । 

साहित्य का 'समीकरण काल'

हिंदी साहित्य में फेसबुक अब एक अनिवार्य तत्व की तरह उपस्थित है । कई साहित्यकार इस माध्यम को लेकर खासे उत्साहित रहते हैं । उनका मानना है कि फेसबुक ने नए-पुराने लेखकों को एक खुला मंच दिया जहां आकर वो अपनी बात कर सकते हैं । इस मंच पर वो अपनी रचनाएं लिख सकते हैं, यहां अपनी राय प्रकट करने के साथ-साथ बहस मुहाबिसे में भी हिस्सा ले सकते हैं । इस माध्यम की वकालत करनेवालों को ये अभिव्यक्ति का ऐसा मंच मानते हैं जहां कोई बंदिश नहीं है । लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जो इस असीमित अधिकार को लेकर सशंकित रहता है और उनका तर्क होता है कि इससे साहित्य में अराजकता को बढ़ावा मिलता है । सोशल मीडिया के इन दो पक्षों पर ही बहस होती रहती है लेकिन इसका एक तीसरा और दिलचस्प पक्ष भी है । फेसबुक आपको साहित्यक समीकरणों को समझने में मदद तो करता ही है कई बार इन समीकरणों को उघाड़कर रख देता है । हिंदी साहित्य में लेखकों के बीच समीकरण बनते बिगड़ते रहते हैं । इस बात को फेसबुक पर इनकी गतिविधियों से सहजता के साथ रेखांकित किया जा सकता है । हिंदी साहित्य का ये दौर समीकरणों का दौर है जहां ज्यादातक लेखक आत्ममुग्धता, आत्मश्लाघा और आत्मप्रशंसा में डूबे हैं । आत्ममुग्धता, आत्मश्लाघा और आत्मप्रशंसा ही साहित्य में नए समीकरणों को जन्म देती रहती है । इस वक्त साहित्य की दुनिया में हर रोज नए ध्रुवों और गुटों का जन्म होता है और इस जन्म की सूचना आपको फेसबुक पर मिल जाती है । फेसबुक के लोकप्रिय होने के पहले तो होता ये था कि लेखकों को किसी के पक्ष में दिखने या खड़े होने के लिए लेख आदि लिखने पड़ते थे लेकिन फेसबुक ने वो काम आसान कर दिया । अब आप लाइक या कमेंट या शेयर कर किसी के पक्ष में खड़े हो जाते हैं । कुछ सालों पहले जब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय ने ज्ञानोदय पत्रिका में इंटरव्यू दिया था और उस इंटरव्यू के बाद छिनाल विवाद छिड़ा था तो मैत्रेयी पुष्पा ने उनके खिलाफ विरोध का झंडा बुलंद किया था । भारतीय ज्ञानपीठ के दफ्तर के बाहर मैत्रेयी पुष्पा के साथ नारे लगानेवाले साहित्यकार कालांतर में एक एक करके उनका साथ छोड़ गए । बिछड़े सभी बारी बारी बारी की तर्ज पर कोई वर्धा विश्वविद्यालय से जुड़ गया तो कोई कुलपति विभूति नारायण राय से किसी और तरह से उपकृत होकर उनके साथ हो लिया । इसी तरह से युवाओं को लेकर भी साहित्य में एक लंबी बहस चली थी जिसमें एक तरफ मैत्रेयी पुष्पा थीं और दूसरी तरफ कई लेखिकाएं । उस वक्त मैत्रेयी जी का खुलकर और लिखकर विरोध करनेवाली कई लेखिकाएं इन दिनों मैत्रेयी पुष्पा के साथ मंच साझा करती नजर आ रही हैं । मैत्रेयी पुष्पा भी उन लेखिकाओं के कार्यक्रमों में शिरकत कर रही हैं । तो इस तरह से अगर देखा जाए तो साहित्य जगत की इन जीवंतताओं का पता फेसबुक से ही चलता है । जीवंतता इस वजह से कह रहा हूं कि इसको गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है और मनोरंजन के तौर पर इसका आनंद उठाना चाहिए क्योंकि ये मंच सबको एक्सपोज करता चलता है । एक्सपोज इस वजह से कि जोकमेंट किए जाते हैं वो बहुधा व्यक्तिगत हो जाते हैं । चंद सालों पहले एक लेखिका ने दूसरी लेखिका के खिलाफ फर्जी आईडी से कई आपत्तिजनक पोस्ट डाले थे । तब शायद उनको मालूममहीं रहा होगा कि कंप्यूटर और इंटरनेट के कनेक्शन की वजह से पोस्ट डालने वाले की पहचान हो सकती है । उस वक्त ये हुआ भी था और साहित्य जगत में बहुत बवाल खड़ा हुआ था ।  
गुटबाजी के इस खुले खेल के अलावा भी फेसबुक साहित्यक माहौल को जीवंत बनाए रखता है । फेसबुक को अगर आप नियमितता के साथ फॉलो करेंगे तो वहां आपको दो तीन लेखकों का एक ग्रुप नजर आएगा जो हर दिन किसी ना किसी तरह का विवाद उठाने के उपक्रम में जुड़े रहते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इन लेखकों का ये छोटा गुट सुबह तय कर लेता है कि आज फलां लेखक को या फलां लेखिका को घेरना है और उसपर येनकेन प्रकारेण साहित्यक या साहित्येतर वजह से हमले करने हैं । अपनी योजना पर अमल करते हुए विवादित पोस्ट लिखे जाते हैं । उसके बाद होता है कि उन लेखकों से जुड़े छोटे-मोटे लेखक या लेखक बनने के लिए संघर्ष कर रहे कुछ लोग अति उत्साह में आकर इस या उस पक्ष पर हमलावर हो जाते हैं । साहित्य के इस खेल में बहुधा भाषिक मर्यादा की लक्षम्णरेखा लांघी जाती है, जिससे बचा जाना चाहिए । फेसबुक पर साहित्य से जुड़े कई लोग आपको ऐसे मिल जाएंगे जो अपने मठाधीश के हर पोस्ट पर किसी ना किसी तरह की टिप्पणी अवश्य करते हैं । वाह से लेकर आह टाइप की । फेसबुक पर कोई एक मठाधीश नहीं है यहां तो बडे. मंझोले और छोटे मठाधीश आपको मिल जाएंगे । कई मठाधीश तो इतने असहिष्णु हैं कि वो अपना मर्यादित विरोध नहीं झेल पाते हैं और विरोध के तर्क देनवाले को ब्लॉक कर अपना परचम लहराते रहते हैं ।

अब अगर हम विचार करें तो फेसबुक ने साहित्यक माहौल में अवश्य ही अनेक आयाम जोड़ दिए हैं लेकिन इन आयामों से साहित्य को क्या हासिल हो रहा है । हासिल हो रहा है भगवानदास मोरवाल सरीखे वरिष्ठ लेखकों का जो फेसबुक के मंच को अपनी किताब के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल करते हैं । अपनी किताब के प्रमोशन का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते हैं बल्कि मौके पैदा कर लेते हैं । फेसबुक का ये इस्तेमाल तो कोलकाता की साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखिका अलका सरावगी ने भी अपनी किताब जानकीदास तेजपाल मैनशन के प्रकाशन के वक्त किया था । उन्होंने भी जमकर अपनीकिताब का प्रचार किया था । तब उसको लेकर भी विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई थी । लेकिन देश में इंटरनेट के बढ़ते घनत्व के मद्देनजर फेसबुक जैसा माध्यम लेखकों को पाठकों तक पहुंचने का माध्यम बन सकता है । हलांकि इस माध्यम को चलानेवाले इसमें कारोबार की असीम संभवानाओं के मद्देनजर पोस्ट की पहुंच को सीमित कर दे रहे हैं बावजूद इसके लेखकों को इसका इस्तेमाल करना चाहिए । लेखकनुमा विवादप्रिय लोग तो कर ही रहे हैं, जेनुइन लेखकों को भी करना चाहिए । 

Friday, November 25, 2016

नियोजित विवाद का हासिल क्या ?

त्योहार के उत्सव बाद पूरे देश में इस वक्त साहित्य के उत्सव चल रहे हैं । सुदूर तमिलनाडू से लेकर दिल्ली तक और पश्चिम में मुंबई और अहमदाबाद तक में कुछ आयोजन हो चुके हैं और कइयों की तारीखों का एलान होकर अब वक्ताओं के विज्ञापन हो रहे हैं । अभी हाल ही में मुंबई के एक लिटरेचर फेस्टिवल में पूर्व वित्त मंत्री पी चिंदबरम ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढांचे को गिराए जाने को लेकर उस वक्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव को कठघरे में खड़ा कर दिया। लिटरेचर फेस्टिवल में नरसिम्हाराव : द फॉरगॉटन हीरो वाले सत्र में चिदंबरम ने कहा कि उस वक्त विवादित ढांचे को केंद्र के अधीन नहीं लेना घातक राजनीतिक भूल थी । अब इस तरह के डिस्कोर्स का साहित्य के उत्सव में क्या काम । इसी तरह से इन दिनों दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार भी साहित्य उत्सवों में स्थाई नाम बन गए हैं । इसके अलावा विवादित राजनेताओं को साहित्य उत्सवों में बुलाने का भी चलन चल पड़ा है । दिल्ली सरकार में मंत्री कपिल मिश्रा का साहित्य में योगदान अबतक साहित्यक पाठकों को ज्ञात नहीं है लेकिन वो भी साहित्य उस्तवों में बुलाए जाते हैं । कन्हैया के भी साहित्यक योगदान से साहित्य जगत अब तक अनजान है । पिछले दिनों कसौली में हुए खुशवंत सिंह लिटरेरी फेस्टिवल में कन्हैया कुमार को एक सत्र में बतौर वक्ता आमंत्रित किया गया था । कन्हैया कुमार ने वहां राष्ट्रवाद की अवधारणा को खिचड़ी बताकर विवाद खड़ा करने की कोशिश में अपनी अज्ञानता का परिचय दे गए । कन्हैया ने साहित्य संवाद के बीच अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दिकि को रामलीला में भाग लेने से रोकने की घटना के आधार पर राष्ट्रवाद की नई स्थापना देने की कोशिश की । उन्होंने कहा कि देश में पहचान के आधार पर घृणा फैलाने की कोशिश की जा रही है । कन्हैया के भाषण के बीच में ही श्रोताओं ने उनकी हूटिंग शुरू कर दी और उनसे मांग शुरू हो गई कि सेना को बलात्कारी कहने के अपने बयान पर माफी मांगे । कन्हैया ने सफाई देने की कोशिश की कि उसने सेना को बलात्कारी नहीं कहा था । साथी वक्ताओं के हस्तक्षेप के बाद मामला किसी तरह से शांत हो सका । अब इस साल जयपुर में आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल के आखिरी दिन के वाकए पर गौर फर्माते हैं । अभिव्यक्ति की आजादी पर एक सत्र था जिसमें अनुपम खेर, सलिल त्रिपाठी, पवन वर्मा, मधु त्रेहान के अलावा कपिल मिश्रा भी थे । इस सत्र में भाषा के साथ साथ संवाद की मर्यादा तार-तार हो गई । कपिल मिश्रा ने प्रधानमंत्री को लेकर आपत्तिजनक बातें कह डालीं जिसका श्रोताओं ने जबरदस्त प्रतिवाद किया। कपिल मिश्रा और अनुपम खेर के बीच काफी देर तक तू-तू मैं-मैं होता रहा जो कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे प्रतिष्ठित साहित्यक उत्सव के मंच की मर्यादा के अनुकूल नहीं था । इस तरह के वाकयों से कई सवाल खड़े होते हैं जिनमें से पहला तो ये कि कन्हैया और कपिल मिश्रा जैसे लोगों का साहित्यक जमावड़े में क्या काम है ?  क्या सिर्फ विवाद बढ़ाकर चर्चा बटोरने के लिए साहित्य उत्सवों के आयोजक इनको बुलाते हैं । ठीक उसी तरह से जैसे लाइव शो के दौरान एक महिला के साथ मारपीट करनेवाले ओम जी महाराज को बिग बॉस के घर में रहने के लिए बुला लिया गया । लेकिन क्या गंभीर साहित्यक चर्चा या गंभीर सामाजिक विषयों पर मंथन करने का दावा करनेवाले इन लिटरेचर फेस्टिवल भी विवादों की वैसाखी के सहारे लोकप्रियता हासिल करना चाहते हैं । क्या लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक भी टीवी सीरियल्स की तरह विवादित प्रतिभागियों का चयन करने लगे हैं । गंभीर साहित्यक विमर्श भी क्या मनोरंजन का मंच बनने की जुगत में लग गया है ।
दरअसल अगर हम देखें तो देशभर में जितने भी लिटरेचर फेस्टिवल होते हैं सभी के सामने कमोबेश जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता का मॉडल रहता है । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता और लोकप्रियता बढ़ाने में वहां उठे बड़े विवाद काफी प्रभावी रहे हैं चाहे वो दो हजार बारह में सैटेनिक वर्सेस जैसा विवादित उपन्यास लिखने वाले सलमान रश्दी के फेस्टिवल में शामिल होने को लेकर उठा विवाद हो या फिर पूर्व पत्रकार और अब आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष और समाजशास्त्री आशीष नंदी के बायनों से उठा विवाद हो । सलमान रश्दी के जयपुर आने पर रोक की वजह उस वक्त उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भी बनी थी । मुसिम मतदाताओं पर नजर रखकर तमाम सियासी दलों ने सलमान रश्दी के जयपुर आने का विरोध किया था । जमकर धरना प्रदर्शन और मीडिया में इसकी चर्चा हुई थी । बाद में ये बात फैली कि सलमान का वीडियो लिंक होगा लेकिन विरोध के मद्देनजर वो भी नहीं हो पाया । सलमान रश्दी के साथ दिखने के लिए जीत थाइल, और कुछ अन्य लेखकों ने अपने सत्र में सलमान रश्दी की किताब के अंश पढ़ डाले । जीत पर जयपुर और अजमेर समेत कई जगहों पर आधे दर्जन से ज्यादा केस दर्ज हुए । विवादों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को नेताओं के बयान से लेकर कोर्ट कचहरी की दहलीज तक पहुंचा दिया था, प्राइम टाइम न्यूज डिबेट का विषय तो कई दिन तक बना ही रहा था । अब चिदंबरम का नपसिंह राव को कठघरे में खड़ा करनेवाला बयान भी य़ूपी चुनाव के मद्द्नजर दिया गया प्रतीत होता है ।
इस विवाद के बाद अगले साल आशुतोष और आशीष नंदी के बीच एक सत्र में हुई बहस ने भी भारी विवाद का रूप ले लिया था । दरअसल भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करते हुए आशीष नंदी ने कहा था कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग ज्यादा भ्रष्ट होते हैं । इस पर आशुतोष ने कड़ी आपत्ति जताई थी । बात जंगल में आग की तरह फैली और आयोजन स्थल के बाहर दलितों और पिछड़ों ने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया । चौबीस घंटे चलनेवाले न्यूज चैनलों को भी मसाला मिला और वो भी इस मसले पर पिल पड़े । सबके केंद्र में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल । बाद में ये मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था । इन दोनों विवादों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को साहित्यकारों की दुनिया से निकालकर लोगों के बीच पहुंचा दिया ।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उठे विवाद सायास नहीं थे, स्थितियों और बहसों ने विवाद को जन्म दिया । कहना ना होगा कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता को मॉडल मानने वाले अन्य लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने विवाद पैदा करने के लिए कन्हैया कुमार और कपिल मिश्रा जैसे लोगों को आमंत्रित करना शुरू कर दिया । साहित्यक बहसों से निकलनेवाले विवादों और नियोजित विवादों के बीच का अंतर खत्म हो गया । ये स्थिति साहित्यक आयोजनों के लिए भविष्य में घातक हो सकती है ।


लव-स्टोरी में नया ट्विस्ट

इन दिनों बॉलीवुड में कटरीना कैफ और रणबीर कपूर के फिर से साथ आने की चर्चा जोरों पर है । कहा जा रहा है कि कटरीना ने रणबीर के साथ पैचअप कर लिया है और दोनों अब एक बार फिर से साथ हो गए हैं । रणबीर ने नेहा धूपिया के साथ वीडियो चौट में कहा था कि वो कटरीना को दीपिका से बेहतर मानते हैं, बस फिर क्या था दोनों के साथ आने की अटकलें तेज हो गईं । किसी का किसी से ब्रेकअप हो या किसी का किसी से पैचअप हो उसका असर बॉलीवुड मे कहीं और भी दिखने लगता है । कहा जाता था कि कटरीना से ब्रेकअप के बाद रणबीर और दीपिका की नजदीकियां बढ़ गई थीं । दोनों कई बार साथ साथ देखे भी गए थे लेकिन एक बार फिर से कटरीना के साथ पैचअप की खबरों को लोग सलमान के तानों से जोड़कर देख रहे हैं । दरअसल इस बात की चर्चा थी कि करण जौहर के शो में सलमान और कटरीना एक साथ कॉफी पीते नजर आएंगे लेकिन कटरीना ने सलमान खान के साथ करण जौहर के शो पर जाने से इंकार कर दिया, इस इंकार के बाद सलमान खान को रोमांटिक झटका तो लगा ही है । कहा जा रहा है कि कटरीना ने सलमान के साथ आने से तो मना कर दिया लेकिन उन्होंने करण जौहर को भरोसा दिया है कि वो आदित्य रॉय कपूर के साथ उसको शो पर आएंगीं । कटरीना जानती हैं कि अगर सलमान के साथ वो करण के शो पर गईं तो करण उनसे सलमान के साथ उनके रिश्तों के बारे में सवाल जरूर पूछेंगे । पहले भी करण ऐसा कर चुके हैं । रणबीर के साथ एक बार फिर से पैचअप होने के बाद कटरीना अपनी जिंदगी के सलमान चैप्टर को नहीं खोलना चाहती हैं, उन्हें लगता है कि सलमान खान के उनके रिश्तों पर बात करके करण का शो तो हिट हो जाएगा, कई दिनों तक न्यूज चैनलों पर उसकी क्लिपिंग भी तलेगी लेकिन रणबीर के खफा होने का खतरा भी बढ़ जाएगा । लिहाजा उन्होंने करण को दो टूक कह दिया कि उनको सलमान का साथ गंवारा नहीं है । अगर देखा जाए तो कटरीना कैफ की जब जब रणबीर से नजदीकियां बढ़ती हैं तो वो सल्लू भाई से दूर दिखने की कोशिश करती नजर आती हैं । वो पहले भी कई बार इस तरह का व्यवहार कर चुकी हैं । लेकिन कटरीना ने आदित्य के साथ आने की हामी भरकर लोगों को चौंका दिया है । कटरीना तो आदित्य के साथ करण के शो पर जाएंगी लेकिन रणबीर और रणवीर के शो में रविवार को क्या धमाल होगा उसको लेकर कटरीना आशंकित हैं ।
लेकिन कटरीना के मना करने से सलमान खफा हो गए और मौका मिलते ही रणबीर पर ताने कसने लगे । हाल ही में अपने शो बिग बॉस में सलमान ने जूनियर कपूर की जमकर खिल्ली उड़ाई । आलिया भट्ट अपनी फिल्म डियर जिंदगी के प्रमोशन के सिलसिले में बिग बॉस से सेट पर पहुंची थी । वहां सलमान खान ने आलिया भट्ट को एक गेम करने को बोला । शो के दौरान सलमान खान ने आलिया भट्ट को रणबीर कपूर और रणवीर सिंह की तस्वीर दिखाई और उन दोनों फोटो में से एक को हटाने को कहा । काफी देर तक इधर उधर की बातें करने के बाद आलिया भट्ट ने रणवीर सिंह की फोटो को हटा देती है और रणबीर कपूर को गेम में बनाए रखती है । आलिया भट्ट के ऐसा करने पर सलमान खान उनसे मजे लेते नजर आते हैं । उन्होंने आलिया से कहा कि जो गायब हो रहे हैं उन्हें हटा दो और जो हैं उन्हें रहने दो । सलमान का साफ इशारा ये था कि रणबीर कपूर को हटा दो क्योंकि वो तो बॉलीवुड से गायब हो रहे हैं और रणवीर सिंह की तस्वीर रहने दो । दरअसल सलमान रणबीर कपूर की फ्लॉप हो रही फिल्मों के बहाने से उनपर तंज कस रहे थे । जानकारों का कहना है इस तंज के पीछे रणबीर और कटरीना के एक साथ आने की खबरें हैं । एक तरफ सलमान खान रणबीर कपूर का मजाक उड़ा रहे हैं तो दूसरी तरफ दीपिका पादुकोण कटरीना कैफ की खिल्ली उड़ाने से नहीं चूक रही हैं । तमाशा फिल्म के सक्सेस पार्टी में कटरीना नहीं आई और एक अवॉर्ड शो में भी दीपिका के साथ शामिल होने से कटरीना कतराती नजर आईं। समारोह के शुरू होने के काफी देर बाद कटरीना वहां पहुंची और पुरस्कार लेकर चलती बनीं । कहा तो यहां तक जा रहा है कि दोनों के बीच तल्खी इतनी बढ़ गई है कि जिम में साथ वर्कऑउट करने से भी परहेज करने लगी हैं । दोनों एक ही जिम की मेंबर हैं । दरअसल बॉलीवुड में इस तरह का चलन काफी पुराना है । अपने एक्स के साथ किसी अन्य हिरोइन के अफेयर की खबरों को लेकर रगड़ा चलता रहता है । अब तो सोशल मीडिया के आने के बाद से ये चलन और बढ़ गया है । अब आप इशारों इशारों में ट्वीट कर दें और चैनलों पर वो दिनभर का मसाला बन जाता है । वैसे भी सलमान और कटरीना के अफेयर तो चैनलों पर हर दो तीन महीने में नए एंगल के साथ चलती ही रहती हैं । अब तो खबर ये भी आ रही है कि कटरीना उधर रणबीर के साथ पींगे बढ़ा रही है तो दीपिका पादुकोण की रणवीर सिंह के साथ फिर से नजदीकियां देखने को मिल रही हैं । कई बार इस तरह के गॉसिप को तब ज्यादा हवा दी जाती है जब उनकी कोई फिल्म रिलीज होनेवाली होती है । एक तो करण जौहर की शो को हिट कराने के लिए इस तरह से गॉसिप जोर पकड़ रही है दूसरी तरफ कटरीना और दीपिका की नई फिल्में भी फ्लोर पर हैं । चाहे जो लेकिन कटरीना का बार बार सलमान के साथ से इंकार से बॉलीवुड के भाई ट्रेजडी किंग ना बन जाएं ।


जोखिम की सियासत के खतरे

विमुद्रीकरण के एलान के बाद से ही पक्ष और विपक्ष में गरीबों और किसानों के हितों को लेकर तलवारें खिची हुई हैं । विपक्ष लगातार ये आरोप लगा रहा है कि सरकार के नोटबंदी के फैसले का असर सबसे ज्यादा गरीबों और किसानों पर पड़ेगा । फसल की बुआई के वक्त के मद्देनजर विपक्ष सरकार से किसानों को रियासत देने की मांग को लेकर आंदोलनरत है उधर सरकार का दावा है कि किसानों के हितों की अनदेखी नहीं होने दी जाएगी । विपक्ष के आरोपों को अगर हम आंकड़ों की कसौटी पर कसते हैं तो उनके दावे कमजोर नजर आते हैं । अगर हम नेशनल सैंपल सर्वे संगठन के उस सर्वेक्षण के नतीजों का विश्लेषण करें जो देश के विभिन्न आय वर्ग के करीब पांच लाख लोगों के बीच किए गए थे तो उन आंकड़े से एक अलग तस्वीर बनती है । सर्वे के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गरीब या कम आयवर्ग के लोग पांच सौ या हजार के नोट बदलने के लिए बैंक में कम जा रहे होंगे । उस विश्लेषण से ये निष्कर्ष भी निकलता है कि गरीबों की बचत का बड़ा हिस्सा पांच सौ या हजार के नोट की शक्ल में नहीं होता है । रोज कमानेवाले और रोज खर्चनेवाले जो भी बचत करते हैं उसकी राशि बहुत कम होती है । वो जितना कमाते हैं उसका बड़ा हिस्सा वो रोजाना खर्च कर देते हैं । आकड़ों के मुताबिक रोजाना कमाने वाले ग्रामीणों की साप्ताहिक आय करीब चौदह सौ रुपए है जो कि शहरी इलाकों में बढ़कर करीब दो हजार रुपए हो जाती है । अब अगर हम विचार करें कि उनका साप्ताहिक बचत कितना होगा । सरकार ने नोटबंदी के पहले हफ्ते में चार हजार रुपए प्रतिदिन बदलने का विकल्प दिया था । अगर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के दिहाड़ी मजदूर अपना पूरा पैसा भी बचा लें तो पुराने नोट बदलने की सीमा उनके आय के अनुपात में काफी था । दो हजार प्रतिदिन कर देने से भी उनके सामने कठिनाई आई हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है । तो क्या माना जाए कि बैंकों के आगे जो लाइन दिखाई दे रही थी वो उन धन्ना सेठों ने लगवाई थी जो गरीबों के मार्फत अपना उल्लू सीधा करना चाह रहे थे । जनधन योजना के बैंक खातों में इक्कीस हजार करोड़ रुपए जमा होना भी कुछ इसी तरह का संकेत दे रहा है ।
अब रही बात किसानों और छोटे निवेशकर्ताओं की । सरकार ने किसानों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए कई कदम उठाने का एलान किया जिससे उनको राहत मिलने की उम्मीद की जानी चाहिए । सबसे बड़ा एलान तो सरकार की तरफ से ये किया गया कि नबार्ड अगले कुछ दिनों में जिला सहकारी बैंकों को राज्य सहकारी बैंकों के माध्यम से इक्कीस हजार करोड़ रुपए उपलब्ध करवाएगी । ये राशि किसानों को फसल के लिए कर्ज देने के काम आएगी । वित्त विभाग में आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास के मुताबिक देश के करीब चालीस फीसदी छोटे किसान बुआई के सीजन में कर्ज के लिए इन जिला सहकारी बैंकों पर निर्भर रहते हैं । नबार्ड के इक्कीस हजार करोड़ रुपए मुहैया करवाने से इन जिला सहकारी बैंकों को प्राथमिक कृषि सहकारी संघों के माध्यम से किसानों को कर्ज देने में सहूलियत होगी । इसके अलावा सरकार ने किसानों को राहत देने के लिए पहले भी कई कदम उठाए हैं जिसमें खाते से पच्चीस हजार प्रति सप्ताह निकालने से लेकर सरकारी दुकानों से बीज खरीदने के लिए पुराने पांच सौ और हजार के नोट के इस्तेमाल की मंजूरी दी गई थी । इसके अलावा सरकार ने पोस्ट ऑफिस के खातों में पुराने नोट जमा करने की छूट भी दे रखी है । सरकार ने एक और बड़ी राहत देते हुए डेबिट और क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल पर सर्विस टैक्स से भी इकतीस दिसंबर दो हजार सोलह तक छूट देने का एलान किया है । इससे ग्राहकों के साथ साथ कारोबारियों को भी बड़ी राहत मिलेगी । सरकार की इस घोषणा के बाद कई निजी बैंकों ने भी ये छूट देने का एलान कर दिया है । हां सरकार ने पीपीएफ, पोस्ट ऑफिस सेविंग स्कीम, नेशनल सेविंग स्कीम और किसान विकास पत्र के लिए पुराने नोट देने पर पाबंदी लगा दी है । इससे इन स्कीमों में कालेधन को सफेद करने की मंशा पाले बैठे लोगों पर कुठाराघात हुआ है । हमारे देश में लंबे समय से गरीबों और किसानों को आगे करके राजनीति की जाती रही है और ये ऐसा संवेदनशील मामला है जिसका फायदा अबतक राजनीतिक दल उठाते रहे हैं ।
दरअसल अगर हम देखें तो आठ दिसंबर को जब प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का एलान किया तो उसके बाद से पूरे देश में कई विद्वान अर्थशास्त्री सामने आ गए और प्रधानमंत्री के इस कदम की आलोचना करने लगे । सरकार के इस कदम को अर्थव्यवस्था और गरीब किसान विरोधी करार दिया जाने लगा । अर्थशास्त्र के इस विषय को राजनीति का विषय बनाकर सरकार की मंशा पर सवाल खड़े किए जाने लगे । सोशल मीडियापर तो जैसे अर्थशास्त्रियों की बाढ़ ही आ गई । एक सौ चालीस शब्दों में भी विमद्रीकरण के आसन्न खतरों को लिखा जाने लगा । यह सही है कि शुरुआत में आम जनता को नोटबंदी के इस फैसले से परेशानी हुई लेकिन करीब पखवाड़े भर में बैंकों के आगे की कतार कम हो गई । देशभर के पचास प्रतिशत एटीएम को नई करेंसी के हिसाब से तैयार कर दिया गया । दरअसल अगर देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी के इस फैसले को लागू करके बड़ा रिस्क लिया है जो अगर वो नहीं भी लेते तो कोई फर्क नहीं पड़ता और उनकी राजनीति चलती रहती । नोटबंदी के पहले हो रहे तमाम सर्वे के नतीजे यब बता रहे थे कि मोदी सबसे लोकप्रिय नेता हैं । बावजूद ये जोखिम उठाना इस बात के संकेत तो देता ही है कि नरेन्द्र मोदी देश को बड़े बदलाव के लिए तैयार कर रहे हैं ।


Wednesday, November 23, 2016

Time for Introspection

In the last one year, Bihar witnessed four fatal attacks on journalists. Recently, a journalist working with a leading Hindi Daily was shot dead in broad daylight in Sasaram. Before that, it was alleged that an associate of Mafia don and RJD leader Mohammad Shahabuddin killed another journalist in Siwan. Likewise, a journalist was also killed in Jharkhand. So, journalists are being killed at regular intervals but the champions of Freedom of Expression are maintaining complete silence.
Till now, no Press Club meeting has been organised for the murdered journalist Dharmendra. There is no long speech in favour of Freedom of Expression, nor is there any write-up about the murder of fellow journalist of Sasaram.
In fact, this is more serious a threat to Freedom of Expression than the government banning any organisation just for few hours. A few days back when Ministry of Information & Broadcasting slapped 24 hours ban on a private news channel for allegedly violating the cable and television regulation act, many editorials were written and statements were issued criticizing this move of the government. Protests were held, and the move and motive of the Narendra Modi government were questioned. This move was compared to emergency or even fascism.
It was also alleged that government wanted to silence the Media by using Cable and Television Regulation Act. Nobody wants listen to the arguments put by Government of India. It is good that almost entire Media comes together to oppose the ban.
 After a week’s protest and back channel compromise, government put the ban on hold. But that incident again underlined the need for serious discussion on the rights to Freedom of Expression.
People of this country are very touchy about this right to Freedom of Expression. When Constitution came into force, the Freedom of Expression was almost absolute. But that time Pt. Jawaharlal Nehru was worried about the speeches of Shyama Prasad Mookherjee, who was spearheading the movement of Akhand Bharat just after the partition. His speeches were fiery and attracted most of the press coverage at that time.

In fact after partition, large-scale attacks happened on Hindus in East Pakistan and large number of Hindus migrated from East Pakistan. After that large scale violence, Nehru and Liaquat Ali Khan decided to sign an agreement to stop violence which was later known as Nehru-Liaquat Pact. According to that proposed pact, nobody in either country will engage any activity which may precipitate war, and even speeches are to be curbed. But the Freedom of Expression guaranteed under Indian Constitution was the biggest hurdle in finalisation of the pact. Pakistan considered Shyama Prasad Mookherjee’s speech as war mongering. Nehru even discussed this with his Home Minister Sardar Patel. At that time, under the leadership of Nehru it was decided to define and restrict the Freedom of Expression guaranteed in the Indian Constitution.
A meeting between Pt Nehru, Sardar Patel and Dr Bhimrao Ambedkar was held and the result was the first constitutional amendment. But it was not on the basis of this pact but on the basis of court verdict in a case of Crossroad magazine. This magazine was vehemently opposing the policies of Nehru. A case was filed and the verdict came in favour of Crossword.

Another case which became the basis of first constitutional amendment was RSS magazine Organiser. These are the facts in the historical documents. This was the first move to curb the Freedom of Expression which was vehemently opposed by Shyama Prasad Mookherjee in Parliament and otherwise too.
The second serious move was during emergency, when all the rights of Media were suspended. It was also opposed at that time, and after the emergency was revoked it was also lifted. This was the second major move to curb the Independence of Media. The third move was also during the Congress rule when Rajiv Gandhi was the Prime Minister. Government introduced Defamation Bill in 1988. It was aimed to limit the right of Freedom of Expression. The Rajiv Gandhi government could not succeed and was forced to withdraw the controversial bill. The forth serious move was also mooted during the Congress rule under Dr Manmohan Singh, when a proposal was made to amend the Cable and Television Act. By that proposal, government of the day wanted to give powers to area SDM to stop the telecast of news channel if he thinks it is a case to do so. This move was fiercely opposed by journalist fraternity and again government was forced to withdraw it. That time Broadcast Editors’ Association was very active.
If we analyse, we can see a pattern in these moves to curb the freedom of the Media. But the threat to Media has now changed. The job security of the journalists and threat to the life of reporters are to be taken into account. When a journalist is not sure about his or her job security and works under tremendous pressure how can we expect him/ her to be fair. How can we expect a reporter to work fearlessly if he or she is constantly under threat to his or her life? These are the major hindrances in the way of free press. Editors Guild and other journalist organisations have to think about this.
There is another side of this story where news channels are showing fictions for hours. Dreaded terrorist Baghdadi’s killing story and Islamic State visuals are the classic case of such fiction writing. It’s a matter of serious research that how many times news channels killed Baghdadi. News channels never think before airing the audio or video clips and about veracity or authentication of such clips. Just put a disclaimer that this channel doesn’t verify this visual/audio and run it for hours. There has to be some Lakshman Rekha for Media too. News channels had established a self-regulatory mechanism, but the time has come for them to rethink on that mechanism, because this mechanism is not seen to be strong enough. If the Media wants to have the right to Freedom of Expression intact it has to introspect too.

Saturday, November 19, 2016

युवाओं से वरिष्ठों को परहेज क्यों ?

पिछले दिनों दिल्ली में दो दिनों का युवा साहित्यकार सम्मेलन - युवा 2016 संपन्न हुआ । ये आयोजन रजा फाउंडेशन और इसके प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी की पहल और अगुवाई में संपन्न हुआ । जब इस समारोह का निमंत्रण पत्र मिला तो लेखकों की सूची देखकर लगा कि इसमें कई तो युवावस्था को पार कर चुके हैं । मन में ये भी सवाल उठा कि अशोक जी किस उम्र तक के लेखकों को युवा माने बैठे हैं । आयोजन के एक दिन पहले सोशल मीडिया पर इस आयोजन में शामिल हो रहे कथित युवा लेखकों की उम्र को लेकर लंबी चौड़ी बहस चली । विवाद का धुंआ भी उठा । दरअसल ये विवाद इस वजह से उठा कि इस सम्मेलन में बुलाए जानेवाले युवा लेखकों का नाम प्रस्तावित करने के लिए वरिष्ठ लेखकों, पत्रकारों आदि को एक पत्रावली भेजी गई थी जिसमें चालीस साल की उम्र सीमा का उल्लेख था लेकिन सूची में शामिल कई लेखक चालीस पार के होने की वजह से सवाल उठने लगे थे । सोशल मीडिया पर इस आयोजन को लेकर उठे विवाद में एक सवाल बार बार उठ रहा था कि हिंदी साहित्य में युवा लेखक किसको और कितनी उम्र तक वालों को माना जाए । क्या कोई उम्र सीमा होनी चाहिए जिसके पार कर लेने के बाद लेखक को युवा के कोष्ठक से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए । फेसबुक पर इस विवाद में कूदी दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व शिक्षिका और साहित्यक पत्रिका हंस के संपादन से लंबे समय तक जुड़ी रही अर्चना वर्मा । उन्होंने लिखा- रही बात चालीस वर्ष तक युवा की। तो भाई, किसी भी समय लेखकों की अमूमन चार पीढ़ियाँ सक्रिय होती हैं। पहली वरिष्ठ, दूसरी वरिष्ठ होने की दिशा में अग्रसर स्थापित और प्रतिष्ठित । मौजूदा पीढ़ियों में जो भी सीनियर-मोस्ट होते हैं वे इनमें आते हैँ और उसी के हिसाब से आयुसीमा निर्धारित समझनी चाहिये । तीसरी पीढ़ी पहचान बना चुके या बनाने की दिशा में अग्रसर रचनाकारों की और चौथी पीढ़ी प्रवेश करते और अपनी रचनात्मक संभावनाओं का परिचय और पुष्टि करते रचनाकारों की। तीसरी और चौथी को मैँ युवा पीढ़ी में शुमार करने चाहूँगी। चालीस उसके लिये एक उचित अधिकतम आयु सीमा जान पड़ती है । युवा का निर्णय यहां बीस बाइस पच्चीस जैसे साल-निर्धारण से नहीं होता। जाहिर है संस्तुति भेजने वाले उम्र का पीढ़ी में प्लेसिंग के हिसाब से अनुमान करते हैं, रचनाकार की जन्म-कुण्डली से परिचित प्रायः नहीं होते। और यह पीढ़ी सम्मत जन्मतिथि बाल-अपराध की धारा के हिसाब निश्‍चित निर्विवाद भी नहीं हो सकती कि एक दिन कम होगा तो हत्या और बलात्कार के लिये तीन साल का रिमाण्ड होम, एक दिन ज्यादा हुआ तो उम्रकैद या फांसी । एकाध साल इधर उधर हो तो भी रचनाकार को उसका प्राप्य मिल जाना चाहिये ।‘  अर्चना जी ने पीढियों का जो वर्गीकरण किया है उसमें वो खुद ही उलझती नजर आती हैं । एक तरफ तो वो अपने वर्गीकरण के हिसाब से तीसरी और चौथी पीढ़ी को युवा मानती हैं लेकिन उसमें चालीस की उम्र का राइडर भी लगाती हैं । क्या दोनों तर्क साथ चल सकते हैं ? पीढियों के वर्गीकरण पर एक बार फिर साहित्य में बहस की गुंजाइश नजर आती है ।
अब आते हैं युवा लेखक सम्मेलनों पर । मेरे जानते हिंदी में संगठित और अखिल भारतीय स्तर का पहला युवा लेखक सम्मेलन साहित्य पत्रिका सिर्फ के तत्वाधान में पटना में 27-28 दिसबंर 1970 को पटना में हुआ था । उस दौर के सभी चर्चित युवा लेखकों को उसमें बुलाया गया था । उन्नीस सौ सत्तर में आयोजित सम्मेलन के दौरान भी युवा लेखकों को लेकर भ्रम की स्थिति बनी थी लेकिन तब भी मोटे तौर पर चालीस के आसपास के लेखकों को ही उसमें बुलाया गया था । उस सम्मेलन में भी कुछ अपवाद थे । जैसे नामवर सिंह की उम्र उस वक्त तैंतालीस साल थी । परंतु ज्यादातर लेखक तीस साल के थे जिनमें अशोक वाजपेयी, रवीन्द्र कालिया, वेणुगोपाल. इब्राहिम शरीफ आदि का नाम याद आ रहा है । तब नागार्जुन को उसमें बुलाया गया था परंतु उन्होंने तब कहा था कि वो युवा लेखक सम्मेलन में बूढ़े बंदर की तरह इधर उधर डोलना नहीं चाहते हैं । नागार्जुन ने जो टिप्पणी की थी वो इस वक्त हिंदी के बुढाते युवा लेखकों को शायद ज्ञात ना हो वर्ना वो युवा कहलाने के दायरे से बाहर होते । पटना में आयोजित युवा लेखक सम्मेलन में जिन युवा लेखकों की पहचान की गई थी उसमें से ज्यादातर कालांतर में हिदीं साहित्य के मूर्धन्य कवि, कहानीकार और आलोचक के तौर पर स्थापित हुए । पटना में उस वक्त कई सत्र आयोजित किए गए थे और उन सत्रों में हुई चर्चा की अनुगूंज कई सालो तक हिंदी साहित्य में सुनाई देती रही थी ।
बताया जा रहा है कि अभी हा ही में अशोक वाजपेयी द्वारा आयोजित युवा लेखक सम्मेलन में प्रतिभागी युवा लेखक काफी तैयारी के साथ आए थे और आलोचना और नाटक के सत्रों में जमकर विमर्श हुआ । आलोचना के सत्र में वक्ताओं का कहना था कि विमर्शों के साहित्य ने आलोचना को लगभग असंभव कर दिया । संभव है इसपर विस्तार से चर्चा हुई होगी लेकिन वो बाहर नहीं आ पाया । दरअसल हिंदी आलोचना की सबसे बड़ी दिक्कत उसके पुराने औजार हैं । अब भी जितने युवा आलोचक लिख रहे हैं उनकी आलोचना उद्धरणों की आलोचना है, फलां ने ये कहा, फलां ने वो कहा आदि आदि । आलोचक क्या कहना चाहता है वो इन लंबे लंबे उद्धरणों में गुम होकर रह जाता है । बड़े लेखकों को उद्धृत करना उचित है लेकिन सिर्फ उसके ही सहारे अपनी बात कह देने का उपक्रम इस वक्त हिंदी आलोचना ता सबसे बड़ा दुश्मन है । कुछ देशी तो कई विदेशी लेखकों के भारी भरकम उद्धरणों से लेखक का पाठकों पर रौब तो पड़ सकता है लेकिन वो आलोचना को पाठकों से दूर भी ले जाती है । नाटक के सत्र में युवा रंगकर्मी आशीष पाठक ने साहित्य में वर्ण व्यवस्था की बात कहकर सबको चौंका दिया । आशीष के मुताबिक उनको ऐसा लगा कि साहित्य में भी वर्ण व्यवस्था होती है । उन्होंने कहा कि कवि ब्राह्मण, कहानीकार क्षत्रिय, उपन्यासकार वैश्य, और हम नाटक वाले शूद्र की तरह जिसका काम मनोरंजन करना भी है । उन्होंने झुब्ध होते हिए सवाल उछाला कि क्या साहित्य के सवर्ण, हमारे लिए कुछ लिखेंगे क्या ? 
नाटककारों की कमी की बात भी हुई । कुछ वक्ताओं ने कम नाटक लिखे जाने का सवाल भी उठाया । लेकिन इस आयोजन के बारे में व्यापक चर्चा बाहर नहीं सुनाई पड़ी, सोशल मीडिया में गीताश्री और अन्य लेखकों के छिटपुट पोस्ट के अलावा ।
अशोक वाजपेयी हिंदी के उत्सवधर्मा लेखक हैं जिनके पास अपनी उत्सवधर्मिता को अमलीजामा पहनाने के लिए संसाधन भी है। हिंदी में सबसे ज्यादा साहित्यक पत्रिकाओं के संपादन का रिकॉर्ड भी उनके नाम पर है । उन्होंने युवाओं का सम्मेलन करके हिंदी की विभिन्न विधाओं की प्रतिभाओं को एक राष्टीय मंच देने का काम किया है । दरअसल अशोक वाजपेयी पहले भी ये काम कर चुके हैं जब पहचान सीरीज के अंतर्गत उन्होंने हिंदी के युवा कवियों के संग्रह छापे थे । मुझे जहां तक ध्यान आ रहा है पहचान सीरीज के कविता संग्रह उन्नीस सौ बहत्तर या उसके आसपास ही छपे थे । इस सीरीज में छपे कई कवि आज हिंदी के वरिष्ठतम कवियों में से हैं । दिल्ली में आयोजित युवा सम्मेलन में वक्ताओं ने अशोक वाजपेयी पर भी हमले किए जिसको उन्होंने धैर्य के साथ सुना ।इस युवा सम्मेलन को लेकर दिल्ली के वरिष्ठ लेखकों की उदासीनता उनकी कुंठा और अपनी जमात के नए सदस्यों के प्रति असहिष्णुता को भी दर्शाती है । बमुश्किल छह या सात वरिष्ठ लेखक युवाओं को सुनने के लिए आए थे । ऐसा क्यों हुआ इसपर भी विचार करने की जरूरत है । मुझे तो लगता है कि हिंदी के ज्यादातर वरिष्ठ कहे जाने वाले लेखकों ने अपनी एक दुनिया बना ली है और उसमें ही जीने की आदत डाल ली है । नतीजा यह हो रहा है कि उस दुनिया से बाहर निकलने में उनको तकलीफ होती है । दूसरी बात ये कि वरिष्ठ लेखकों की अपेक्षा रहती है कि युवा उनको सुनने आएं लेकिन जब युवा अपनी सुनाना चाहते हैं तो इस तरह की उदासीनता वरिष्ठ लेखकों की मानसिकता को उजागर कर देती है । वरिष्ठ लेखकों को युवाओं को सुनना चाहिए था उनको अपनी राय बतानी चाहिए थी ताकि युवाओं की दृष्टि समृद्ध होती । क्रिकेट में भी अनिल कुंबले पुजारा को सलाह देते हैं और वो शतक जड़ देता है । अशोक वाजपेयी ने अनुल कुंबले की भूमिका निभाने की कोशिश की लेकिन साहित्य ग्यारह लोगों का खेल नहीं है इसका दायरा बहुत विस्तृत है लिहाजा कई अनुल कुंबले की जरूरत है । अंत में ये ऐलान किया गया कि युवा सम्मेलन हर साल किया जाएगा तो क्या यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि अगले साल हिंदी के वरिष्ठ लेखक अपने युवाओं को सुनने समझने के लिए जुटेंगे ।   




आरोपों की सियासत का हासिल क्या

बैंकों में नोट बदलने और पुराने नोटों को जमा करने के बीच सियासी बयानबाजी भी चरम पर है । विरोधी दल सरकार के इस फैसले के साथ दिखने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन एक बड़े प्रश्नचिन्ह के साथ । प्रश्नचिन्ह सरकार की उस फैसले के पहले तैयारियों को लेकर लगाए जा रहे हैं । सरकार के फैसलों की आलोचना करना और जनता को हो रही दिक्कतों के पक्ष में खड़े होना विपक्ष का संवैधानिक अधिकार है । उसे करना भी चाहिए । लेकिन लोकतंत्र में आरोपों की एक लक्ष्मणरेखा ना हो लेकिन मर्यादा तो होती ही है, होनी भी चाहिए । नोटबंदी के केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मोर्चा खोला हुआ है । केजरीवाल सरकार ने इस फैसले के खिलाफ विधानसभा का एक दिन का विशेष सत्र बुलाया । इस सत्र में केंद्र सरकार के नोटबंदी के फैसले के खिलाफ जमकर भाषण आदि हुए लेकिन जब अरविंद केजरीवाल के बोलने की बारी आई तो उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर संगीन इल्जाम जड़ दिए । उन्होंने आयकर विभाग के दस्तावेजों को विधानसभा में दिखाते हुए आरोप लगाया कि वर्ष दो हजार तेरह में एक औद्योगिक घराने पर इंकमटैक्स पर हुई रेड के दौरान जो दस्तावेज आदि मिले थे उसमें गुजरात सीएम को पच्चीस करोड़ देने का जिक्र है । उन्होंने इसको सत्य मानते हुए नरेन्द्र मोदी के साथ साथ कांग्रेस को घेरा । उनका आरोप है कि कांग्रेस ने उस वक्त मोदी के खिलाफ कार्रवाई इस वजह से नहीं कि अगली सरकार अगर मोदी की बनती है तो वो भी उनके नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं करेंगे । अपने आरोपों को वजनदार बनाने के लिए उन्होंने राबर्ट वाड्रा को भी घसीट लिया । इस तरह के आरोप लगाकर अरविंद केजरीवाल ने सनसनी फैलाने की कोशिश की । दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हवाला कांड में डायरी में लालकृष्ण आडवाणी का नाम आने के बाद उनके इस्तीफा का उदाहरण देते हुए मोदी को ललकारा । यहीं केजरीवाल से चूक हो गई । उन्होंने डायरी में नाम आने पर लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे का हवाला तो दे दिया लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र नहीं किया । यह उसी तरह है जैसे महाभारत के युद्ध में जब द्रोणाचार्य को पराजित की योजना बनी तो कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर के ये कहते ही कि अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा में हतो के बाद इतनी जोर से शंख बजा दिया कि द्रोणाचार्य को नरो वा कुंजरो नहीं सुनाई दिया और उन्होंने ये मानकर कि अश्वत्थामा की मौत हो गई है, हथियार डाल दिए । हवाला के केस में सुप्रीम कोर्ट ने एविडेंस एक्ट को परिभाषित करते हुए साफ कहा था कि किसी भी डायरी में किसी का नाम होने से वो दोषी नहीं हो जाता है । डायरी में नामोल्लेख के साथ साथ सबूत भी होने चाहिए कि जिसका नाम है उसको पैसे दिए गए हैं । केजरीवाल के मोदी पर आरोप में कोई सबूत नहीं हैं ।
दरअसल अगर हम देखें तो अरविंद केजरीवाल की सियासत की बुनियाद ही आरोप रहे हैं । उन्होंने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के साथ मिलकर मुहिम शुरू की थी तब भी उन्होंने यूपीए सरकार के सोलह मंत्रियों की एक सूची जारी कर उनपर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम लगाए थे । उन मंत्रियों में मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का नाम भी शामिल था । ये उनकी रणनीति है कि आरोप लगाओ, शक का एक वातावरण तैयार करो और फिर उसका राजनीतिक फायदा उठाओ । यूपीए सरकार के दौरान लगातार भ्रष्टाचार के मामलों ने केजरीवाल के आरोपों की सियासत को उर्वर जमीन मुहैया करवाई थी । तब लोग उनपर यकीन भी कर लेते थे और उनकी सियासी जमीन मजबूत भी हो जाती थी । जब उनके आरोपों पर सवाल खड़े किए जाते थे तो वो या उनके सिपहसालार ये कहकर बच जाते थे कि मैसेंजर को क्यों शूट किया जा रहा है । कई बार तो ऐसा हुआ है कि जिनपर आकोप लगाए हैं वो खड़े हो जाते हैं तो मामला लगभग खत्म सा भी होने लगता है । नितिन गडकरी पर जब केजरीवाल ने आरोप लगाए थे तो उन्होंने अरविंद के  खिलाफ आपराधिक मानहानि का केस किया था । उस केस में निचली अदालत ने जब केजरीवाल को जमानत लेने को कहा तो उन्होंने इंकार कर दिया था । हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जब उनको राहत नहीं मिली तो उनको जमानत लेनी पड़ी थी । इसी तरह से उन्होंने पिछले दिनों दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन को लेकर वित्त मंत्री अरुण जेटली पर आरोपों की झड़ी लगा दी थी जिसके बाद उनके खिलाफ जेटली ने आपराधिक मानहानि का केस दर्ज किया है जो कि अदालत में लंबित है ।  दरअसल जैसा कि उपर कहा गया है कि अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीति की शुरुआत से ही बड़े लोगों के खिलाफ शक पैदा कर आगे बढ़ने की रणनीति अपनाई । खुलासा दर खुलासा किया । बड़े उद्योगपति से लेकर राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्ष के दामाद तक पर सनसनीखेज आरोप लगाए । एक से एक संगीन इल्जाम ।  उन आरोपों को अंजाम तक पहुंचाने की मंशा नहीं थी । तर्क ये कि जाचं का काम तो एजेंसियों का है । लेकिन क्या अपने आरोपों पर अरविंद ने कभी भी पलटकर सरकार से ये पूछने कि कोशिश की कि क्या हुआ । वो सिर्फ सनसनी के लिए थे लिहाजा वो सनसनी पैदा कर खत्म होते चले गए । तात्कालिक फायदा यह हुआ कि अरविंद केजरीवाल देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ योद्धा के तौर पर स्थापित होते चले  गए । लोगों के मन में एक उम्मीद जगी कि ये शख्स अलग है । कुछ कर दिखाना चाहता है ।
सवाल यही है कि इस तरह की राजनीति कितनी दीर्घजीवी हो सकती है । दरअसल आरोपों की राजनीति काठ की हांडी की तरह होती है जो एक बार तो चढ़ सकती है बार-बार नहीं । आरोपों की सियासत का नतीजा यह हुआ कि लोग अब ये बातें करने लगे कि केजरीवाल सिर्फ आरोप लगाते हैं उसके बाद वो खामोश हो जाते हैं । दिल्ली में सरकार चलाने के दौरान उनके साथियों पर जिस तरह के आरोप लगे उससे उनकी छवि छीजती जा रही है और एक बार वो फिर से अपनी इस छीजती छवि को आरोपों की राजनीति के सहारे बेहतर करने की जुगत में लगे हैं ।
दूसरा सवाल ये खड़ा होता है कि क्या किसी विधानसभा को राजनीतिक आरोपों प्रत्यारोपों का अखाड़ा बनाने की इजाजत दी जा सकती है । आमतौर पर ये संसदीय परंपरा रही है कि जो व्यक्ति सदन का सदस्य नहीं होता है उसके बारे में आरोप लगाने या उसका नाम नहीं लिया जाता है । कई बार संसद में इस तरह के मसले उठते हैं लेकिव पीठासीन अधिकारी या खुद सदन के अध्यक्ष या सभापति उसको रोक देते हैं । लेकिन दिल्ली विधानसभा में सदन का नेता खड़े होकर एक शख्स पर आरोप लगा रहा था और विधानसभा अध्यक्ष खामोशी के साथ उनको सुन रहे थे । इस आरोप के बाद विधानसभा अध्यक्ष की जिम्मेदारियों पर भी एक बार फिर से विचार करने की जरूरत है । विधानसभा का का विशेष सत्र लोकहित से जुड़े आपात मसलों में बुलाने की परंपरा रही है लेकिन दिल्ली में तो विधानसभा का विशेष सत्र इतवनी जल्दी जल्दी बुलाए जा रहे हैं कि लोकहित के आपात मसलों को भी फिर से परिभाषित करने की जरूरत आन पड़ी है क्योंकि किसी भी दल को अपनी राजनीति के लिए विधानसभा का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है ।  



Tuesday, November 15, 2016

दूसरी पारी में हॉट एश्वर्या

करण जौहर की फिल्म ऐ दिल है मुश्किल में जब ऐश्वर्य राय और रणवीर कपूर के बीच इंटीमेट सीन्स को लेकर बॉलीवुड में काम करनेवाले लोगों से लेकर दर्शकों के बीच खासा कौतूहल रहा । खबर तो ये भी आई कि ऐश्वर्य के इन दृश्यों को लेकर बच्चन परिवार ने आपत्ति जताई है,परिवार में अनबन की खबरें भी रहीं । अभिषेक बच्चन से जब उनकी पत्नी ऐश्वर्या राय के इन बोलव्ड और इंटीमेट सींस के बारे में पा गया तो उन्होंने कहा कि व्यस्तता की वजह से वो अभी फिल्म देख नहीं पाए हैं । इसके बाद गॉसिप बाजार को और मसाला मिल गया ।  लेकिन इस तरह की खबरें और गॉसिप फिल्म को प्रमोट करने के लिए ही भी उड़ाई जाती रही हैं। ऐश्वर्य राय के मामले में भी यही होता दिखा क्योंकि दिल है मुश्किल के इंटीमेट सीन और उसकी तारीफ के बाद ऐश्वर्य राय इस राह पर चलने को बेचैन दिख रही हैं । अभी एक पत्रिका के लिए जिस तरह के फोटो शूट ऐश्वर्य राय ने किए हैं उससे तो यही लगता है कि पूर्व विश्वसुंदरी एक बार फिर अपने बोल्ड लुक से बॉलीवुड के निर्माताओं के साथ साथ दर्शकों को भी चौंकाना चाहती हैं । पहले ऐ दिल है मुश्किल में रणवीर के साथ जिस तरह के हॉट सीन्स दिखे वो इस बात के संकेत दे रहे थे कि सरबजीत जैसी फिल्मों से वो तौबा करना चाहती हैं ताकि उनकी नई बोल्ड और बिंदास छवि बन सके । दिल खोल के उन्होंने दिल है मुश्किल में अंग प्रदर्शन किया और फिर फोटो शूट में पाठकों को शेड्यूस करने के की भी जुगत दिखाई देती है । बॉलीवुड से लेकर फिल्म में रुचि रखनेवालोंके बीच ऐश्वर्या के इस नए और सेक्सी लुक को लेकर खासी चर्चा हो रही है । परिवार में उनके सेक्सी बाला की खबर को लेकर अनबन के बाबजूद इसके ऐश्वर्या राय अपने को सेक्सी बाला के रूप में फिर से इस्टैबलिश करने में लगी हैं । बॉलीवुड वालों के बीच जो चर्चा चल रही है उसके हिसाब से ऐश्वर्या राय के इस नए लुक के लिए सलमान खान की पूर्व गर्लफ्रेंड कटरीना कैफ की सलाह है । कहा जा रहा है कि इन दिनों कटरीना कैफ और ऐश्वर्या राय के बीच जमकर छन रही है और कटरीना की सलाह को ऐश्वर्या राय खास तवज्जो देती हुई नजर आ रही हैं । बताया जा रहा है कि कटरीना पैख की स्टाइलिश बियांस ने ही ऐश्वर्या राय का नयालुक गढ़ा है । कटरीना कैफ ने स्टाइलिश बियांस को ऐश्वर्या राय के पास भेजा और फिर तीनों के बीच डिस्कशन के बाद बियांस ने ऐश्वर्या राय की कायापलट कर दी । बताया जा रहा है कि ऐश्वर्या राय से बियांस को कटरीना कैफ के मिलवाने के बाद दोनों में नजदीकियां काफी बढ़ गईं । अब तो हालात ये बताया जा रहा है कि ऐश्वर्या राय अपने लुक और ड्रेस को लेकर पूरी तरह से बियांस पर ही निर्भर हो गई है । अब यहां ये भी देखा जा सकता है कि एक जमाने में ऐश्वर्या राय के भी सलमान खान से नजदीकी संबंध रहे हैं । कटरीना के तो थे ही ।
दरअसल बॉलीवुड का ये पुराना चलन है जब अंग प्रदर्शन आदि करके हिरोइनें खुद को प्रासंगिक बनाए रखने की कोशिश करती हैं । सत्तर के दशक में रेखा ने या फिर अपनी फिल्मों की शुकुआत में माधुरी से लेकर कई अन्य हीरोइनों ने काफीबोल्ड सीन्स दिए । रेखा की शुरुआती फिल्मों में किस सीन्स को लेकर काफी हो हल्ला मचा था । इसी तरह के जब राजकपूर ने राम तेरी गंगा मैली बनाई थी तो मंदाकिनी के झरने में नहाते हुए सींस को लेकर सनसनी फैली थी । मंदाकिनी ने बहुत ही महीन साड़ी पहनकर नहाने का दृश्य शूट किया था । इसी तरह से दयावान फिल्म में विनोद खन्ना के साथ माधुरी दीक्षित का बेहद अंतरंग सीन फिल्माया गया था । तब ये कहकर उसको जायज ठहराया गया था कि ये कहानी की मांग है ।  यही तर्क अब भी दिया जाता है । उस वक्त ये माना जाने लगा था कि हिट होने के लिए अंग प्रदर्शन जरूरी है । भारतीय फिल्म लंबे समय तक प्रतीकों के सहारे रोमांस करवाता रहा । दो फूल हिलते रहे, दो तितलियां एक दूसरे के साथ फूलों पर बैठी रहीं, जैसे दृश्यों से रोमांस या फिर नायक-नायिकाओं के प्रेम प्रसंगों को फिल्माया जाता रहा  धीरे-धीऱे ये टैबू खत्म होता चला गया और हिंदी फिल्मों में सेक्स सीनों की भरमार लगने लगी । रेखा ने तो करीब दो दर्जन से अधिक फिल्मों में इस तरह के बेहद बोल्ड सीन या हॉट सीन दिए थे । इसके अलावा भी देखें तो ये फेहरिश्त बेहद लंबी है – परवीन बॉबी से लेकर जीनत अमान तक ।
इस तरह की ज्यादातर फिल्में हिट भी रही थीं लेकिन अंग प्रदर्शन करनेवाली नायिकाओं की संजीदा हिरोइन की छवि बन नहीं पाती हैं । वही रेखा के साथ भी हुआ था । लेकिन शादी के बाद और बिटिया के पैदा होने के बाद ऐश्वर्या राय ने जिस तरह से अपने को सेक्सी लुक में ढाला है उसकी मिसाल हिंदी फिल्म जगत में कम ही मिलती है । मौसमी चटर्जी से लेकर राखी तक ने शादी के बाद फिल्मों में अभिनय किया लेकिन इनमें से शायद ही किसी ने हॉट सीन्स देकर दर्शकों को सिनेमा हॉल तक लाने का दांव चला हो । संभव है कि वो उस वक्त की सामाजिक स्थिति की मांग रही हो जिसकी वजह से फिल्मों के प्रोड्यूसर्स शादी शुदा महिलाओं के हॉट सीन्स से परहेज करते हों लेकिन अब तो जमाना काफी बदल गया है अब तो हमारे समाज में सेक्स की वर्जनाएं लगभग टूट सी गई हैं । शादी के बाद भी महिलाओं की आजादी को किसी भी तरीके से गलत नहीं ठहराया जाता है इस वजह से फिल्मों की नायिकाएं भी और फिल्मों के निर्माता भी इस तरह के रिस्क ले रहे हैं । इन सबसे बड़ी बात ये है कि शादी के बाद भी ऐश्वर्या राय ने अपनी फिगर को मेंटेन किया हुआ है तो पुरानी कहावत है कि जिसके पास जो होता है वो उसको फ्लांट करता है ।       


Saturday, November 12, 2016

कौशल विकास से जुड़ती विधा

भारत संभवत: विश्व का इकलौता देश होगा जहां अपनी कला संस्कृति को बचाने, संजोने और सहेजने को लेकर एक तरह की उपेक्षा का भाव दिखाई देता है । यहां अपनी विरासत को आगे बढ़ाने को, अपनी पारंपरिक भाषा और वेशभूषा में बात करने को पिछड़ेपन की निशानी करार दिया जाता रहा है । हमारे देश की संस्कृति बेहद आधुनिक रही है लेकिन धीरे-धीरे उसको पुरातन करार देकर पश्चिमी संस्कृति को अपनाने की राह बनाई गई और युवाओं को उस राह पर चलने के लिए येन केन प्रकारेण प्रेरित और बहुत हद तक मजबूर किया गया । मजबूर इस वजह से कि भारत की पौराणिक संस्कृति को अपनाने पर दकियानूसी और पिछड़ा कहकर प्रचारित किया जाने लगा । पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति को मॉडर्न बताया जाने लगा । यह कहना अनुचित होगा कि पश्चमी संस्कृति में कोई बुराई है लेकिन वो उनकी अपनी संस्कृति है, हमारी अपनी संस्कृति है । आपत्ति तो उनकी संस्कृति में आवाजाही को लेकर भी नहीं होनी चाहिए । आपत्ति तब होती है जब उनकी विदेशों से आई संस्कृति को बेहतर और भारतीय संस्कृति को बदतर कहकर प्रचारित किया जाता है । किसी भी लकीर को बड़ी दिखाने के लिए दूसरी लकीर को छोटी करने के उद्यम से बेहतर होता है अपनी लकीर को बड़ी करना । अफसोस तो तब होता है जब देश में कला और संस्कृति के वाहक भी भारतीय संस्कृति को अपेक्षित महत्व नहीं देते हैं और विदेशी संस्कृति को तरजीह देते हैं।
कमोबेश यही स्थिति साहित्य में भी है । हम अपने साहित्य की समृद्ध विरासत को संजोने में नाकाम रहे और फिर एक लंबे अंतराल के बाद विदेशों से आनेवाले साहित्य को ही सर्वोत्तम मानने लगे जबकि वही काम हमारे देश में वर्षों पूर्व किया जा चुका है चाहे वो व्याकरण का क्षेत्र हो या फिर विज्ञान का । विचार करना होगा कि आज भारत में लोग व्याकरण के लिए पाणिनी को कितना याद करते हैं और रेन और मार्टिन को कितना महत्व देते हैं । आज से करीब पच्चीस सौ साल पहले पाणिनी ने चालीस पन्नों में जो अष्टाध्ययी लिखा वो अप्रतिम है लेकिन उसको लेकर अब हमारे अकादमिक जगत में कोई हलचल होती हो ये ज्ञात नहीं है । पाणिनी ने उस वक्त पवित्र मानी जानेवाली भाषा संस्कृत के स्वर और व्यंजन को एक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया । विशेषज्ञों का तो यहां तक मानना है कि इस भाषिक वैज्ञनिकी की वजह से भारत साफ्टवेयर के क्षेत्र में अग्रणी बना हुआ है जबकि चीन अब भी हार्डवेयर में ही फंसा हुआ है । तो अगर हम देखें तो यहां भी साफ नजर आता है कि हम अपनी परंपराओं के प्रचार प्रसार को लेकर कितने उदासीन हैं । संस्कृत को जिस पवित्रता से पाणिनी ने आजाद करवाकर वैज्ञानिकता से जोड़ा था बाद में उसको फिर से पवित्र बनाकर विश्वविद्यालयों के विभागों में कैद कर दिया गया है । ये क्यों और कैसे हुआ इस पर राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए ।

इसी तरह से अगर हम देखें तो साहित्य की भी कई विधाओं के साथ यही सलूक हो रहा है । इन विधाओं में नाटक प्रमुख है जिसको लेकर कम से कम हिंदी में तो चंद लोग ही गंभीरता से काम करते नजर आ रहे हैं । साहित्य को अपने कंधे पर उठाकर आधुनिक बनाने का दावा करनेवाली नई पीढ़ी के लेखक नाट्य लेखन की ओर प्रवृत्त नहीं हो रहे हैं । संभव है मेरे इस कथन पर नाटक से जुड़े लोगों को आपत्ति हो लेकिन क्या हम युवा पीढ़ी के लेखकों के लिखे नाटकों के बारे में जानते हैं । अगर लिखे भी जा रहे हों तो जिस तरह से उसको प्रचारित किया जाना चाहिए वो नहीं हो रहा है । यह सही है कि देश के हर शहर में नाटक से जुड़े लोग मिल जाएंगे और उसमें से कई गंभीरता से काम भी कर रहे हैं लेकिन नाटक अब एक खास दायरे में बंधता नजर आ रहा है । नई पीढ़ी में इंदिरा दांगी ने ने नाटक लिखे हैं और उनसे वरिष्ठ पीढ़ी की विभा रानी भी लगातार नाटक के क्षेत्र में सक्रिय हैं और उस क्षेत्र में कुछ नया कर रही हैं । और भी लोग होंगे । परंतु नाटक जैसी असीमित संभावनाओं वाली विधा के लिए इतना प्रयास काफी नहीं है । हाल ही में मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय ते आत्माराम सनातन धर्म कॉलेज के ड्रामेटिक सोसाइटी के एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला । छात्रों ने खुद ही कई नाटक लिखे और उनका मंचन भी किया । छोटे नाटक लेकिन बड़ा संदेश । छात्रों के लिखे नाटकों में मोहब्बत की एक अंतर्धारा साफ तौर पर दिखाई दे रही थी । सात नाटकों को देखने के बाद ये लगा कि कोई संस्थान तो ऐसा है जो छात्रों को गंभीरता से इस विधा की ओर प्रवृत्त कर रहा है । कॉलेज के प्रिंसिपल ज्ञानतोष झा तो साफ कहते हैं कि उनका मकसद छात्रों में एक तरह के कौशल का विकास करना है और इस कौशल विकास के लिए रंगमंच भी एक माध्यम हो सकता है । छात्रों को रंगमंच की बुनियादी सुविधाएं तो मिल ही रही हैं वहां लगातार नाटक से जुड़े लोगों से छात्रों का संवाद भी करवाया जाता है । इस कॉलेज के छात्रों को प्रिंसिपल के मार्गदर्शन के अलावा जयदेव तनेजा की कॉलेज शिक्षक के रूप में उपस्थिति ने भी माहौल बनाया । वहां भी छात्रों से बात करने पर ये पता चला कि वो बेहतर नाटकों की तलाश में रहते हैं । बड़े और कठिन नाटकों को करने से पहले वो छोटे-छोटे और आसान नाटक करना चाहते हैं ताकि अपनी कला को मांज सकें । हिंदी में कम नाटक लिखे जाने की वजह से उनको दिक्कतें होती हैं । दरअसल नाट्य लेखन करते वक्त लेखकों को अभिनय, संगीत, नृत्य के अलावा अन्य दृश्यकलाओं के बारे में भी ज्ञान होना आवश्यक है । इस ज्ञान के लिए बेहद श्रम की जरूरत है क्योंकि जिस तरह से हमारे समाज की स्थितियां जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं उसको नाटक के रूप में प्रस्तुत कर दर्शकों को अपनी बात संप्रेषित करना एक बड़ी चुनौती है । चुनौती तो नाटकों में संदेश देने से लेकर व्यवस्था को चैलेंज करने कि भी है । बगैर इसके नाटकों में वो दम नहीं आ पाता है जो अंधा युग से लेकर जिन लाहौर नईं बेख्या.. तक में महसूस किया जा सकता है । लेकिन संतोष ये कि इस विधा को लेकर छात्रों को आगे बढ़ाने का काम हो रहा है ।