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Monday, May 30, 2016

पाठ्यक्रमों में छेड़छाड़ का खतरनाक खेल


ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब राजस्थान के स्कूल के पाठ्यक्रम की किताब से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और आधुनिक भारत की मजबूत बुनियाद रखनेवाले जवाहरलाल नेहरू को हटा दिया गया । वहां बीजेपी की सरकार है । इस फैसले पर देशव्यापी बहस चल ही रही थी कि त्रिपुरा सरकार के स्कूली किताबों से स्वतंत्रता संग्राम और महात्मा गांधी समेत सभी आजादी के सेनानियों को निकाल बाहर किया । गांधी की जगह कार्ल मार्क्स, एडॉल्फ हिटलर, सोवियत क्रांति, फ्रेंच क्रांति, क्रिकेट का इतिहास आदि को जगह दी गई । गांधी को त्रिपुरा की स्कूली किताबों में जगह तो मिली लेकिन क्रिकेट पर उनके रुख को लेकर ना कि स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका पर । गांधी को हटाकर मार्क्स को जगह देनेवाले राज्य त्रिपुरा में सीपीएम की सरकार है । ये दो उदाहरण इस वजह से दिए जा रहे हैं कि दोनों ताजा है जबकि इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं कि जब जब सरकारें बदली हैं तो इतिहास की पुस्तकों से छेड़छाड़ की गई है । सवाल यह उठ खड़ा होता है कि सरकार बदलने से शिक्षा पद्धति या शिक्षा सामग्री क्यों बदल जाती है । कारण यह है कि हर राजनीतिक दल अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों को प्रमुखता देना चाहता है और विरोधी विचारधारा के साहित्य और उससे जुड़े लोगों को हाशिए पर रखना चाहता है । यह सही है कि शिक्षा राज्य सरकारों का विषय है लेकिन ऐसा क्यों होता है कि एक राज्य के लिए गांधी या नेहरू महत्वपूर्ण हैं तो दूसरे राज्य के लिए पंडित दीनदयाल उपाध्याय या तीसरे राज्य के लिए मार्क्स । अपनी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है लेकिन शासक दल यह नहीं समझते हैं कि ऐसा करके वो के छात्रों के पीढ़ियों के बीच मानसिक उलझन पैदा कर देते हैं । एक पीढ़ी कुछ और जानती समझती है और दूसरी पीढ़ी कुछ और । स्कूली शिक्षा व्यक्तित्व विकास की बुनियाद है और राष्ट्र का विकास भी इसपर बहुत हद तक निर्भर करता है । जब हम उस बुनियाद से छेड़छाड़ करते हैं या इनको उलझाते हैं तो कहीं ना कहीं हम राष्ट्र के विकास में भी उलझन पैदा करते हैं और उसको कमजोर भी करते हैं । अब एक राज्य का छात्र बड़ा होकर गांधी के स्वतंत्रता संग्राम में अप्रतिम योगदान को जानेगा तो दूसरे राज्य का छात्र गांधी को क्रिकेट पर उनके विचारों को लेकर जानेगा । यह हास्यास्पद तो है ही लोकतंत्र के संघीय ढांचे के लिए खतरनाक भी हैं ।
एक अहम वजह जिसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है वह है भारतीय इतिहास लेखन पद्धति की कमजोरियां । भारत में इतिहास लेखऩ या तो औपनिवेशिक मानसिकता के साथ किया गया या फिर विचारधारा विशेष के आलोक में । औपनिवेशिक मानसिकता से लिखे गए इतिहास का उदाहरण विंसेंट स्मिथ की किताब – अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया और ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया है । बाद में कई इतिहासकारों ने इसी को आधार बनाकर इतिहास लेखन किया । औपवनिवेशिक इतिहास लेखन पद्धति के बाद मार्क्सवादी पद्धति के इतिहासकार हुए जिन्होंने एक खास विचारधारा के आधार पर इतिहास लेखन किया जिसमें कई आवश्यक तत्व छूटते चले गए, जाने-अनजाने या जानबूझकर कहना मुश्किल है । एक खास विचारधारा की अवधारणा के आलोक और आधार पर लिखा गया इतिहास एकहरा होता चला गया और इसने स्कूली किताबों में छेड़छाड़ के लिए जमीन छोड़ दी। अठारह सौ इकतासील में मशहूर अमेरिकी लेखक और अंतर्ज्ञानवाद के प्रवर्तक वॉल्डो इमरसन ने लिखा था कि सही मायने में इतिहास जीवनियों से बनता है । उन्नीसवीं शताब्दी में इमरसन ने अमेरिकी इतिहास लेखन और इंटलैक्चुअल और अध्यात्मवाद के प्रतिकार में ये टिप्पणी की थी । अब अगर हम इस टिप्पणी को भारतीय इतिहास लेखन के संदर्भ में देखते हैं तो ये सही प्रतीत नहीं होता है । भारतीय इतिहासकारों ने जीवनियों को एक स्वतंत्र विधा के तौर पर तो देखा, लेकिन गंभीर सामाजिक इतिहास लेखन में उसको स्त्रोत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया । भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा पर अगर नजर डालते हैं तो यहां जीवनी के बहाने से इतिहास अनुपस्थित है। इसका नतीजा यह हुआ कि जिस भी विचारधारा की सरकार आती रही वो अपने अर्धज्ञान के आधार पर अपने नेताओं को बढ़ावा देती है । फ्योदोर दस्तावस्की ने कहा भी था कि – अर्धज्ञान एक अतुलनीय निरंकुश सत्ता है जिसके अपने पुरोहित और अपने गुलाम होते हैं, जिसकी अभूतपूर्व श्रद्धा से पूजा की जाती है और जिसके समक्ष स्वयं विज्ञान सिहरता और चापलूसी करता है ।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय नई शिक्षा नीति को पेश करने जा रही है । उसको इस बात का ध्यान रखना चाहिए और बगैर देश के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाए शिक्षा और पाठ्यक्रम में इस तरह से सुधार किए जाने चाहिए कि सरकारे बदलें तो वो मनचाहे तरीके से किताबों में बदलाव नहीं कर सके । समय के साथ पाठ्यक्रमों में बदलाव आवश्यक है लेकिन उस बदलाव का वैज्ञानिक आधार होना चाहिए । समकालीन समय को देखते हुए छात्रों को अद्यतन जानकारी देने के लिए बदलाव होने ही चाहिए । अगर इतिहास की कोई नई अवधारणा सामने आती है तो उससे भी छात्रों को अवगत कराना चाहिए लेकिन सिर्फ राजनीति दलों की विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए पाठ्यक्रमों में बदलाव ना केवल आपत्तिजनक है बल्कि देश के लिए खतरनाक भी । नई शिक्षा नीति में अगर इस प्रवृत्ति को रोकने का उपाय ढूंढ सकती है तो ये एक सार्थक कदम होगा । 

Stop this whimsical approach

Recently, Union Minister of State for External Affairs Gen (Rtd) VK Singh shot off a request letter to Urban Development Minister M Venkaiah Naidu to rename Akbar Road of Delhi. He also proposed to rename it as Maharana Pratap Road. This news was flashed and within a few hours film star Rishi Kapoor posted number of tweets attacking Nehru-Gandhi family. Rishi Kapoor asked questions  why roads, airports and government buildings are not being named after artists. Rishi Kapoor’s tweets were discussed at length in the Media. Points and counter points were given. But the basic question remains unanswered as to why no importance was given to writers and artists while naming the roads and buildings. Did you ever see an airport or big government building named after Premchand, the great Hindi writer or Nirala, the great Hindi poet or RK Laxman, the great cartoonist or Bharat Ratna Ustad Bismillah Khan, the great Shehnai maestro.
The answer is a big 'NO'. Why this approach towards the writer and artist fraternity? We have to think very seriously on this apathy of the ruling class towards writers and artists. Is this the exclusive domain of politicians only? Roads in Delhi are named after small time Netas but Tagore and Nirad Chaudhury or Bhairappa did not get this privilege. There is Subramaniam Bharti Marg, Amrita Shergill Marg, but is this sufficient? Only the building of Sahitya Akademi is named as Ravindra Bhawan. Apart from that, I could not remember any building named after any great literary personality. Is it the Netas' privilege to get the roads named after them or their seniors in politics? Do we have any responsibility towards our writers and artists? Is the country not indebted to the writers and artists who made this country great by their creative writings? Didn’t they make us hold our head high in the world? Now the time has come for a national debate on naming the roads and governments buildings.
When we analyse the apathy of the political class towards writing community, we find that after the independence writers were given due credit and respect by the political class. Writers were nominated to Rajya Sabha and their voices were heard by politicians. Hindi poet Ramdhari Singh Dinkar was such a meritorious personality that he was given the title of Rashtra Kavi. Indian language writers were also given respect. After that, film personalities started getting nominations in Rajya Sabha. Writers were pushed on the back stage.
The last Hindi writer nominated to Rajya sabha was Vidya Niwas Mishra, who was nominated by Atal Bihari Vajpayee government. After that, sports personalities, film personalities and journalists got nominations but not any Hindi writer. What is the thinking of the leaders about writers could be understood by one of the statements of minister VK Singh just before the World Hindi Conference held at Bhopal. That was the thinking of the minister whose Prime Minister Narendra Modi himself is a poet. That was the reflection of the thinking of the political class about the writing community.
If we analyse the reason behind widening of the gap between politicians and writers we reach numerous reasons. But the root cause of this goes back to the last years of the seventh decade. Under the influence of an ideology, writers started sharing the dais with the politicians. This movement of not sharing the dais with Netas were promoted by those who always see to Ajoy Bhawan for their writings. Few years back, the living legend of Hindi criticism Namvar Singh released the autobiography of Pappu Yadav. Namvar Singh was lynched by many writers. By not sharing the dais with politicians, writers with certain ideology stopped the exchange of ideas between the two. The imported ideology also put a barrier for promotion of our glorious culture and writings. We forgot our cultural heritage and started propagating the imported writings. This left the Marxist writers to follow their masters and they become their masters voice. No Marxist poet had the courage to write like Dinkar who was free from ideological slavery.
He wrote - Martya manav ki Vijay ka turya hu main, Uravashi, Apne samamy ka surya hun main (I am the sun of my time). When any writer had the guts to write these types of lines, the strength came from the rich cultural tradition. Dinkar possessed that. His master piece 'Sanskriti ke char adhyay' was sidelined by the imported ideology critics.
For this sorry state of writers, the ideology is to be blamed which was imposed on Indian literature. When literary persons stood in favour of one political class and for decades advocated their ideology they lost respect. This happened in India under the patronage of Progressive and Janwadi writers associations. This harmed the literature as well as the reputation of the writers.
In fact, writers have to be neutral but in the last four to five decades very often writer under the forced influence of Marxist writers left this neutrality and became the torch bearer of leftists. Namvar Singh, who was criticised by the leftists for releasing the book of Pappu Yadav, was the torch bearer of left ideology. He even fought and lost the Lok Sabha election on CPI ticket. But that political party never cared about Namvar Singh. They were in power for many years in West Bengal and Kerala but never thought of sending him to Rajya Sabha. Even the mediocres were nominated but not Mr Singh.
Now the time has come to make a policy on naming the roads, airports and government buildings. While making this policy, the government must also take into account the contribution of writers and artists. It would be better to form a committee which suggests the local authorities about naming the roads, etc. It would be better to have a nominee from literature, art and culture in that committee. If the present government makes a policy on naming the roads and buildings then this monopoly of naming schemes and roads etc can be curbed, otherwise this whimsical approach continues and angry tweets or comments will continue to come.



Sunday, May 29, 2016

प्रकाशन जगत में पारदर्शिता कब ?

पिछले दिनों युवा कथाकार पंकज सुबीर ने फेसबुक पर ये सूचना साझा कि उनके उपन्यास अकाल में उत्सव का दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया । वो इस बात को लेकर भावुक हो रहे थे कि इस साल जनवरी में प्रकाशित उनके उपन्यास का मई आते आते यानि पांच महीने में ही दूसरा संस्करण प्रकाशित हो गया । परंतु पंकज ने अपनी उक्त सूचना में प्रथम संस्करण की प्रतियों का जिक्र नहीं किया अगर वो पहले संस्करण की बिकी हुई प्रतियों का जिक्र कर देते तो हिंदी प्रेमियों को संतोष होता । हिंदी प्रेमियों को संतोष तो इस बात से भी होगा कि पांच महीने में उपन्यास का दूसरा संस्करण छप कर आ गया । हिंदी प्रकाशन जगत में अब संस्करणों की संख्या तीन सौ से लेकर पांच सौ तक की होने लगी है । इसकी बड़ी वजह तकनीक की सहूलियत और गोदामों में रखने की जगह की किल्लत भी हो सकती है । इस लेख का विषय पंकज सुबीर के उपन्यास के संस्करणों की संख्या को विश्लेषित करना नहीं है बल्कि उसके माध्यम से इस बात पर चर्चा करना है कि हिंदी में साहित्यक कृतियों के संस्करणों की संख्या कम क्यों होती जा रही है । अगर हम कविता संग्रहों पर बात करें तो अस्सी फीसदी से ज्यादा कविता संग्रह लेखकों के खुद के प्रयास से छप रहे हैं । प्रकाशक अपना ब्रांड भर देते हैं और बाकी लेखक का होता है । कहानी और उपन्यासों की स्थिति कविता से थोड़ी बेहतर है परंतु बड़े दावे करनेवाले प्रकाशक भी इस बात को जानते हैं कि पांच संस्करण या दस संस्करण का मतलब डेढ दो हजार प्रतियां ही है । यही भी चिंता की बात है कि अंग्रेजी के जो प्रकाशक हिंदी प्रकाशन के क्षेत्र में उतरे हैं वो कविता की किताबें इतनी कम क्यों छाप रहे हैं ।  

अब एक नई तरह की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है । एक नया प्रकाशक बाजार में पांव जमाने की कोशिश कर रहा है नाम है जगरनॉट । ये पहले किताबों को ई बुक्स में सामने लाने की योजना पर अमल कर रहा है और उसके बाद उसको पुस्तक के तौर पर बाजार में पेश करेगा । पिछले दिनों इसकी शुरुआत मशहूर फिल्म अभिनेत्री सनी लियोनी की कहानियों से हुई थी । जगरनॉट हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए लेखकों से संपर्क कर रहा है । लेखकों को उनकी कृतियों के लिए अग्रिम धनराशि भी दे रहा है और मनपसंद विषय पर किताबें लिखवा भी रहा है । सनी लियोनी से शुरुआत करने वाले इस प्रकाशक की सोच है कि हल्की फुल्की किताबें प्रकाशित की जाएं । इस सोच से ये संकेत मिलता है कि ऑनलाइन पाठकों की रुचियों पर उन्होंने कोई सर्वे किया होगा जिसमें उनको पता चला होगा कि पाठक हल्के फुल्के रोमांटिक विषयों को पसंद कर रहा है लिहाजा उनका जोर इस तरह के विषयों के इर्द गिर्द ही दिखाई दे रहा है । हिंदी के कई लेखकों को भी जगरनॉट ने अग्रिम भुगतान का प्रस्ताव देकर मनसपंद विषय पर पुस्तकें लिखने का प्रस्ताव दिया है । अब यह प्रयोग कितना सफल हो पाता है यह देखनेवाली बात होगी । दरअसल हिंदी पाठकों के मन मिजाज को समझने के लिए गहन मेहनत की आवश्यकता है । हिंदी के पाठकों को याद होगा कि चंद सालों पहले रेनबो के नाम से एक प्रकाशक ने हिंदी के लेखकों को जमकर लुभाया था और कई बड़े नामों को अपने यहां से छापा था लेकिन आज रेनबो का हिंदी प्रकाशन जगत में कोई नामलेवा भी नहीं है । इसी तरह से अंग्रेजी के कुछ प्रकाशकों ने भी हिंदी में साहित्यक कृतियों को छापने का उपक्रम किया था लेकिन उनके सलाहकारों ने ऐसे ऐसे लेखकों की कृतियां छपना दीं कि वो योजना परवान नहीं चढ़ सकीं । सवाल फिर वहीं है कि हिंदी प्रकाशन जगत में पारदर्शिता के लिए क्या किया जाना चाहिए

Saturday, May 28, 2016

मुबारक बेगम को मदद का इंतजार

आज के दौर के फिल्म संगीत और गाने के प्रेमियों के लिए मुबारक बेगम का नाम भले ही अनजाना हो लेकिन साठ और सत्तर के दशक में मुबारक बेगम के गाए गीत खूब लोकप्रिय हुआ करते थे । मुबारक बेगम ने एक सौ पंद्रह फिल्मों में करीब पौने दो सौ गाने गाए हैं । मुबारक बेगम ने अपना पहला गाना उन्नीस सौ उनचास में फिल्म आइए के लिए गाया था । इनको पार्श्वगायकी का पहला मौका देने वाले थे उस दौर के मशहूर संगीतकार शौकत हैदरी उर्फ नाशाद । मुबारक बेगम का पहला गाना था- मोहे आने लगी अंगड़ाई, आ जा आ जा बलम हरजाई । इस फिल्म में ही मुबारक बेगम ने लगा मंगेशकर के साथ एक डूयट भी गाया था- जिया डोले ही जिया डोले ही किसी के ख्याल में । उसके बाद उन्नीस सौ इकसठ हमारी याद आएगी का गाना- कभी तन्हाइयों में हमारी याद आएगी, अंधेरे छा रहे होंगे कि बिजली कौंध जाएगी -को लोगों ने काफी पसंद किया था । मुबारक बेगम ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि इस गीत के बोल उनकी जिंदगी में साकार हो उठेंगे लेकिन ऐसा हो गया है । मुंबई के बीएसईएस अस्पताल के बिस्तर पर गुमनामी में अपना इलाज करवा रही मुबारक बेगम तन्हाइयों में अपनी सफलता के दौर को याद कर रही हैं । उन्हें भी इस बात का इंतजार है कि उनकी जिंदगी में छाए अंधेरे में कोई बिजली कौंधेगी । कोई रौशनी होगी जो उनकी अंधेरी जिंदगी में थोड़ा प्रकाश भर देगी । तेइस साल तक फिल्म इंडस्ट्री में अपनी प्रतिभा के दम पर बनी रहने और हर साल कई कई हिट गाने गाने के बाद भी आज अस्सी साल की उम्र में मुफलिसी में इलाज के लिए मदद का मुंह जोह रही  हैं मुबारक बेगम । उन्नीस सौ तिरसठ में सुपरहिट फिल्म हमराही का गाना- मुझको अपने गले लगा लो - जब मुबारक बेगम ने गाया था तब उस वक्त भी उनकी आवाज को लेकर खूब प्रसिद्धि मिली थी लेकिन उस गाने के पचपन साल बाद भी अस्पताल के बेड पर मुबारक बेगम सोच रही होंगी कि काश कोई मुझे अपने गले लगा ले यानि मदद का हाथ फैलाए । गले लगाने का सरकार ने वादा किया था लेकिन वो हो ना सका । अस्सी साल की उम्र में तंगहाली में रह रही मुबारक बेगम ने अपने श्रेष्ठ दौर में पैसों को अहमियत नहीं दी  वो कहती हैं उस वक्त फिल्मों में गाने के लिए ज्यादा पैसे नहीं मिलते थे । एक गाने के तीन चार सौ रुपए मिला करते थे और वो यह भी बताती हैं कि वो गाने के लिए पैसों को लेकर मोलभाव नहीं करती थीं जो भी जितना देता था रख लेती थी । सच्चा कलाकार ऐसा ही होता है वो अपनी कला का सौदा नहीं करता है । मुबारक बेगम के दौर के पहले के संगीतकार नौशाद ने वो वो मुकाम हासिल किया था जो आमतौर पर नायकों को ही हासिल हो पाता था । वो किसी भी फिल्म में संगीत देने के लिए मुंहमांगी रकम लेते थे । उनका जो मन होता था वो मांगते थे और फिल्म निर्माता उतना पैसा देते थे । पचास के दशक में नौशाद एक फिल्म के एक लाख दस हजार रुपए लेते थे जबकि निर्देशकों को उसका आधा पैसा भी नहीं मिलता था । कई फिल्मों में तो नायकों को भी इतना मेहनताना नहीं मिलता था । बाद में तो शंकर-जयकिशन की जोड़ी ई जो प्रति फिल्म बीस हजार रुपए पर काम करने लगी थी लेकिन तब भी नौशाद की शान और दाम दोनों में कोई कमी नहीं आई । नौशाद के संगीत का ये जलवा था कि उनका नाम देखकर ही फिल्में हिट हो जाती थी । कहते हैं कि ये नौशाद के नाम का ही असर था कि दर्शकों और श्रोताओं को भरमाने के लिए नक्शब ने शौकत देहलवी का नाम नाशाद रख दिया था । ये वही नाशाद थे जिन्होंने मुबारक बेगम को ब्रेक दिया था । यह अलहदा बात है कि नाशाद कभी भी नौशाद के स्तर तक नहीं पहुंच पाए लेकिन उन्होंने कई बेहतरीन गाने दिए । उन्होंने अपने संगीत में कई तरह के प्रयोग किए । खैर ये अवांतर प्रसंग है ।   
ये सुनने में अच्छा लगता है कि कला का सौदा नहॆं किया जाना चाहिए लेकिन जब कलाकरों को वक्त के उबड़खाबड़ रास्ते पर चलना होता है तो उनको कई बार अफसोस होता है कि काश अपने अच्छे दिनों का सौदा कर लिया होता या अपने फन के लिए उचित पैसे ले लिए होते तो आज ये दिन नहीं देखने होते। हमें पता नहीं कि इन दिनों मुबारक बेगम को इस बात का अफसोस हो रहा है या नहीं कि उन्होंने अपने अच्छे समय में पैसे को लेकर मोलभाव क्यों नहीं किए थे । क्यों नहीं उन्होंने गाने के लिए ज्यादा पैसों की मांग की थी । लेकिन उन्हें इस बात का बेहद अफसोस है कि मदद का ऐलान करने के बावजूद महाराष्ट्र सरकार उनकी मदद के लिए अबतक आगे नहीं आई है । खुद महाराष्ट्र के संस्कृति मंत्री के ऐलान के बावजूद मदद नहीं मिलने से हमारी व्यवस्था की संवेदनहीनता उजागर होती है । मदद तो दूर की बात सरकार का कोई नुमाइंदा मुबारक बेगम का हाल चाल लेने अस्पताल तक नहीं पहुंचा । इन दिनों मुबारक बेगम की मदद उनके साथ फिल्मों में गायकी करनेवाली लता मंगेशकर कर रही हैं और बहुधा दवाइयों का खर्चा सलमान खान उठा रहे हैं । लता मंगेशकर पैसों से भी उनकीमदद करती हैं लेकिन वो उनकी बीमारी को देखते हुए नाकाफी है ।  कुछ दिनों पहले सैकड़ों फिल्मों में काम करनेवाले मशहूर अभिनेता ए के हंगल की मुफलिसी की खबरें भी आईं थी । तब भी सरकार की संवेदनहीनता पर सवाल उठे थे लेकिन तब से लेकर अबतक कोई बदलाव नहीं आ पाया है । कलाकार को, लेखक को, अभिनेता को तो हमें अपनी विरासत की तरह सहेज कर रखना चाहिए लेकिन हो यह रहा है कि ये भी विरासत की तरह ही नष्ट होते जा रहे हैं । कलाकारों को सरकार की तरफ से तवज्जो ही नहीं मिल रही है, मदद की बात तो दूर । क्या केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती कि वो इतनी अच्छी गायिका की उनके बुरे दिनों में मदद करे । क्या संगीक नाटक अकादमी के पास इस बात के लिए पैसे नहीं हैं कि वो मुबारक बेगम के अच्छे इलाज का इंतजाम करवा सके । इन अकादमियों को क्या सिर्फ पुरस्कार, गोष्ठी और सेमिनारों तक सीमित कर दिया जाना चाहिए । इस वजह से काफी समय से एक मांग उठ रही है कि मुफलिसी के वक्त कलाकारों,लेखकों की मदद के लिए एक कोष की स्थापना की जाए और उसमें संबंधित अकादमियों के नुमाइंदों के साथ साथ उस क्षेत्र की एक एक मशहूर हस्तियां भी हों । इस कोष में सरकार एक आधार राशि अनुदान के तौर पर दे और उसके बाद इंडस्ट्री और कला प्रेमियों से डोनेशन लेकर इस फंड को बढ़ाने की कोशिश की जानी चाहिए । ताकि वक्त जरूरत कलाकारों और लेखकों की मदद की जा सके । हमें याद पड़ता है कि हिंदी के वरिष्ठ कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने भी अपनी जिंदगी के आखिरी साल मुफलिसी में ही गुजारे थे । जब उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जब इस बात का पता चला था तब उन्होंने साहित्य अकादमी के मार्फत निराला जी की मदद करवाई थी । सवाल यही उठता है कि क्यों लेखकों को इस स्थिति का सामना करना पड़ता है । फिल्मों में गायक गायिका से लेकर सबने अब अपनी आर्थिक स्थिति के मद्देनजर अपने को मजबूत बनाने का काम किया और अपनी जिंदगी के पूर्वार्ध की आर्थिक सुरक्षा पक्की कर ली । लेकिन हिंदी साहित्य की स्थिति अब भी जस की तस बनी हुई है । आज भी हिंदी साहित्य रचकर जीविकोपार्जन कर पाना मुश्किल है । शायद ही हिंदी का कोई साहित्यकार हो जो सिर्फ साहित्य सृजन कर अपनी जिंदगी अच्छे से रह सकता है ।

साहित्यकारों और संगीतकारों और गायकों की मदद करने के लिए कई निजी संस्थाएं सक्रिय हैं लेकिन उनकी सक्रियता काफी नहीं है । मुंबई में ही एक कार्यक्रम रहमतें के नाम से होता है और उसको आयोजित करनेवाली संस्था हर साल कलाकारों की मदद करती है । मदद करने का उनका अपना अनूठा तरीका है वो कलाकारों का एक निश्चित रकम का बीमा करवाकर उनको देती है जो मौके पर काम आ सके । इसी तरह से कई निजी कंपनियां कलाकारों की समय समय पर मदद करती हैं लेकिन कोई केंद्रीय संस्था नहीं है जो कलाकारों, लेखकों को उनके बुरे वक्त में मदद कर सके ।   

Wednesday, May 25, 2016

असम की जीत से निकलते संदेश

असम में सर्बानंद सोनोवाल के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने असमिया में चंद पंक्ति कहकर बीजेपी के पूर्वोत्तर राज्यों में पार्टी के मंसूबों को साफ कर दिया । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि पूरे पूर्वोत्तर के चौतरफा विकास के लिए असम बेहद अहम केंद्र बिंदु होने वाला है । मोदी के मुताबिक असम से होकर ही इस पूरे क्षेत्र में विकास की गंगा बहेगी और पूरा नार्थ ईस्ट एक शक्तिशाली विकसित क्षेत्र के रूप में भारत के मानचित्र पर स्थापित होगा । उन्होंने इस मौके पर केंद्र सरकार के एक्ट ईस्ट पॉलीसी की भी याद दिलाई । एक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत जिस तरह से पिछले दो साल में केंद्र सरकार और उसके विभागों ने पूर्वोत्तर में काम किया वो इसी रणनीति का हिस्सा था । अब नरेन्द्र मोदी के इस बयान को बीजेपी की नार्थ ईस्ट के अन्य राज्यों में पार्टी के विस्तार की योजना से जोड़कर देखा जाना चाहिए । अगर हम थोड़ा और पीछे जाएं और दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के दौर को याद करें तो बीजेपी की पूर्वोत्तर राज्य में विस्तार की आकांक्षा ज्यादा साफ नजर आती है । दो हजार चौदह के चुनाव प्रचार के वक्त नरेन्द्र मोदी ने पूर्वोत्तर के राज्यों को सेवन सिसटर्स कहे जाने के औपनिवेशिक मानसिकता पर भी प्रहार किया था । मोदी ने तब सेवन सिसटर्स की बजाए पौराणिक कथाओं में वर्णित अष्ठ लक्ष्मी की पहचान को उभारा था । बीजेपी का ये मानना है कि सेवन सिसटर्स औपनिवेशिक मानसिकता से लबरेज संज्ञा है जो उसको अखंड भारत की पहचान से दूर ही नहीं बल्कि अलग भी करता है । पूर्वोत्तर के राज्यों की इस पौराणिक पहचान को उभारकर बीजेपी ने वहां की जनता की स्थानीय आकांक्षा को उभारा । स्थानीयता और स्थानीय अस्मिता का मुद्दा उन चुनावों में हमेशा फायदा पहुंचाता है जहां ले लोग खुद को मुख्यधारा से अलग मानते हैं । बीजेपी ने असम का चुनाव तो जीता ही अब उसके मंसूबे नार्थ ईस्ट के अन्य राज्यों में पार्टी का परचम लहराना है । आरएसएस उत्तर पूर्व के राज्यों में दशकों से काम करता रहा है और संगठन के शक्तिशाली सहसरकार्यवाह में से एक को उत्तर पूर्व के राज्यों की जिम्मेदारी दी जाती रही है । संघ बेहद खामोशी के साथ लंबे समय से कार्यकर्ताओं को इलस बदलाव के लिए तैयार कर रहा था । आरएसएस की बेवसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक इस वक्त भी डॉ कृष्ण गोपाल के जिम्मे उत्तर पूर्व के राज्य है । गोपाल कृष्ण इस वक्त संघ के शक्तिशाली पदाधिकारी हैं और संघ और सरकार के बीच के समन्वय का काम भी देखते हैं । राम माधव भले ही बीजेपी में आकर पार्टी महासचिव हों लेकिन वो संघ के ही नुमाइंदे हैं । माना जाता है कि इस वजह से भी राम माधव को वहां की जिम्मेदारी दी गई थी ताकि पार्टी और संघ के बीच बेहतर तालमेल बना रहे । इस तरह से कृष्ण गोपाल, राम माधव के केंद्र में होने से पार्टी और सरकार दोनों के साथ तालमेल बेहतर रहा । इस बेहतर तालमेल का नतीजा भी सबके सामने है । राम माधव ने कैडर को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई । उन्होंने नए वोटरों को पार्टी से जोड़ने पर सफलतापूर्वक काम किया । बीजेपी को मुस्लिम बहुल इलाकों में भी वोट मिले और उसका एक मुस्लिम उम्मीदवार विधायक भी बना । बीजेपी ने स्थानीय मुद्दों को तो उठाकर वोटरों को एकजुट किया ही स्थानीय अस्मिता को उभारकर वोटरों के बीच गहरी पैठ भी बनाई । बीजेपी और संघ दशकों से असम में बांग्लादेशी मुसलमानों के घुसपैठ और उससे आसन्न खतरों के मुद्दे उठाते रही है । अब पार्टी इसी लाइन पर चलते हुए पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी मजबूती से काम कर रही है । सर्वानंद सोनोवाल ने तो बांग्लादेश सीमा पर कंटीले तार लगाने के वादा भी कर दिया है ।  

सर्बानंद सोनोवाल के शपथ गर्हण समारोह के कोलाहल और तमाम दिग्गज नेताओं की उपस्थिति के बीच बीजेपी ने एक ऐसा फैसला लिया जो खबरों में उभर कर नहीं आ पाया ।  बीजेपी ने नार्थ ईस्ट के लिए एक अलग फ्रंट का एलान किया और उसके संयोजक की भूमिका पूर्व कांग्रेस नेता और अब सर्बानंद सोनोवाल सरकार में नंबर दो के मंत्री हेमंता सरमा बिस्वा को सौंपा है । इस फ्रंट को बनाने के पीछे पूर्वोत्तर के अन्य छोटे राज्यों में पार्टी को मजबूत करना है । बीजेपी ने असम में एक रणनीति के तहत बीपीएफ और एजीपी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया और सफलता का स्वाद चखा । नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिंक फ्रंट के नाम से बनाए गए इस गठबंधन में सिक्किम और नागालैंड की सत्तारूढ पार्टियों को भी शामिल किया गया है और योजना के मुताबिक अन्य विपक्षी छोटी पार्टियों को भी एक मंच पर इकट्ठा किया जाएगा। इस तरह से अगर हम देखें तो नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिंक फ्रंट यानि एनईडीए में उत्तर पूर्व के चार राज्यों के सत्ताधारी दल शामिल हो चुके हैं । सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट और नगा पीपल्स फ्रंट के साथ असम और अरुणाचल प्रदेश के एनडीए सीएम इसके सदस्य हैं । पूर्वोत्तर के चंद राज्यों में ही कांग्रेस की सरकार बच पाई है । कह सकते हैं कि अगर कर्नाटक को छोड़ दें तो कांग्रेस तो हिमालय की गोद में सिमट कर रह गई है चाहे वो उत्तराखंड हो, हिमाचल हो या फिर मेघालय, मणिपुर और मिजोरम हो । बीजेपी ने जिस तरह से नगा पीपल्स फ्रंट और इंफाल के अन्य छोटे दलों से गठबंधन कप नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिंक फ्रंट बनाया है उसका असर अगले साल होनेवाले मणिपुर विधानसभा चुनाव पर दिखाई दे सकता है । पूर्व कांग्रेसी नेता हेमंता बिस्बा को नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिंक फ्रंट का क्नवीनर बनाकर बीजेपी नेमाल्टर स्ट्रोक खेला है । बिस्बा को ना केवल कांग्रेस की उत्तर पूर्व की रणनीति का इल्म है बल्कि अन्य राज्यों के पुराने कांग्रेसियों से उनके बेहतर संबंध भी हैं जो चुनाव ते वक्त बीजेपी के काम आ सकते हैं । असम चुनाव के वक्त मेघालय की तुरा लोकसभा सीट से जिस तरह से वहां से कांग्रेसी मुख्यमंत्री की पत्नी को हार मिली है उसको देखते हुए भी बीजेपी को संभावनाएं नजर आ रही हैं । बीजेपी ने हेमंता बिस्वा को इस काम में लगाकर कांग्रेस को दबाव में लेने का कार्ड खेल दिया है । इस तरह से अगर गम देखें तो बीजेपी रणनीतिक तौर पर पूर्वोत्तर में कांग्रेस से मजबूत दिखाई दे रही है और कांग्रेस मुक्त पूर्वोत्तर के नए नारे को साकार करने में लगी है ।      

Sunday, May 22, 2016

नामकरण में साहित्यकारों से परहेज क्यों

अभी हाल ही में केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री मंत्री वी के सिंह ने शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू को पत्र लिखकर दिल्ली के अकबर रोड का नाम बदलकर महाराणा प्रताप के नाम पर करने का अनुरोध किया । यह खबर अभी चल ही रही थी कि ऋषि कपूर ने एक के बाद एक दनादन ट्वीट करके सियासत की दुनिया में सनसनी फैला दी । ऋषि कपूर ने गांधी-नेहरू परिवार पर सीधे हमला बोला और सवाल पूछा कि क्या सिर्फ एक ही परिवार के सदस्यों के नाम पर एयरपोर्ट और सड़कों के नाम रखे जाने चाहिए । साथ ही ऋषि कपूर ने कलाकारों के नाम लिखकर ये प्रश्न खड़ा किया कि उनके नाम पर कोई सड़क, कोई एयरपोर्ट या किसी सरकारी इमारत का नाम क्यों नहीं रखा जाता है । ऋषि कपूर ने चूंकि इसमें गांध-नेहरू परिवार का नाम ले लिया था इस वजह से जो सियासत शुरू हुई उसमें कई बातें दबकर रह गई । ऋषि के ट्वीट्स की भाषा पर भी कई लोगों ने सवाल खड़े किए। यह सब अपनी जगह पर ठीक है लेकिन कपूर ने अपने एक ट्वीट में कलाकारों के नाम पर सड़क, एयरपोर्ट या सरकारी इमारत का नाम नहीं रखने की जो बात की वो कहीं इस राजनीतिक बयानबाजी के कोलाहल में दबकर रह गई । इस सवाल पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए कि किसी राजधानी में हमें कोई प्रेमचंद मार्ग या निराला मार्ग क्यों नहीं मिलता है । किसी एयरपोर्ट का नाम रामधारी सिंह दिनकर या सुमित्रानंदन पंत के नाम पर क्यों नहीं दिखाई देता है । किसी विश्वविद्लाय का नाम मुक्तिबोध या मोहन राकेश के नाम पर क्यों नहीं दिखाई देता है । हमारे समाज में साहित्यकारों को लेकर इस उदासीनता के भाव की वजह क्या है । हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए । क्या इन सड़कों, इन इमारतों या फिर एयरपोर्ट्स के नाम पर सिर्फ और सिर्फ हक नेताओं का ही है । इस बात पर राष्ट्रव्यापी बहस क्यों नहीं होती है कि नामकरण के वक्त साहित्यकारों के नाम पर भी विचार हो । राजधानी दिल्ली में हर छोटे-बड़े-मंझोले नेता के नाम पर सड़क, चौक, फ्लाईओवर आदि है लेकिन अगर सुब्रह्ण्यम भारती और दिनेश नंदिनी डालमिया का नाम छोड़ दिया जाए तो मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी सड़क का नाम किसी भी भाषा के साहित्यकार के नाम पर है । साहित्य अकादमी के भवन का नाम छोड़ दिया जाए तो याद नहीं पड़ता कि किसी सरकारी इमारत का नाम किसी वरिष्ठ साहित्यकार के नाम पर हो । ऐसा क्यों होता है । क्या सत्ता में रहनेवाले लोग ही बारी बारी से अपने नेताओं के नाम पर सड़को इमारतों का नामकरण करते रहेंगे । क्या साहित्यकारों के प्रति हमारी कोई श्रद्धा नहीं है । क्या देश रचनात्मक लेखन करनेवालों का ऋणी नहीं है ।  
दरअस अगर हम देखें तो आजादी के बाद हमारे देश में साहित्यकारों की बहुत इज्जत थी । हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के विद्वानों को राज्यसभा में जगह दी जाती थी । भारतीय भाषाओं के नुमाइंदे तब संसद में हुआ करते थे । बाद में कलाकारों के कोटे से फिल्म अभिनेताओं को जगह दी जाने लगी ।यह गलत भी नहीं है । साहित्यकारों के नाम पर फिल्मों के स्क्रिप्ट लिखनेवाले राज्यसभा पहुंचने लगे । हिंदी का आखिरी साहित्यकार, अगर हम याद करें. जो कि राज्यसभा पहुंचे थे वो थे विद्यानिवास मिश्र । विद्यानिवास मिश्र को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने मनोनीत किया था । उसके बाद तो फिल्मों से, खेल जगत से तो लोग नामांकित होते रहे लेकिन साहित्य को लेकर उदासीनता बनी रही । कालांतर में तो सक्रिय राजनीति कर रह और चुनाव में हारे हुए नेताओं को सरकार राज्यसभा में मनोनीत करने लगी । साहित्य और साहित्यकारों की जगह कम होती चली गई ।
साहित्यकारों को लेकर कुछ नेताओं के मन में किस तरह के विचार हैं यह वी के सिंह के उस बयान से पता चलता है जो उन्होंने पिछले साल भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के ठीक पहले दिया था ।  यह उस सरकार के मंत्री का बयान था जिसके मुखिया यानि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं कवि हैं और उनकी कविता की पुस्तकें प्रकाशित हैं । स्वयं वी के सिंह की बी किताब प्रकाशित है और पाठकों द्वारा पसंद की की जा रही है । हलांकि वी के सिंह ने बाद में सफाई देकर कहा था कि लेखकों को अपमानित करने की उनकी मंशा नहीं थी ।
दरअसल अगर हम विचार करें तो देखते हैं कि साहित्य और राजनीति के बीच खाई गहरी होती जा रही है, साहित्यकारों और नेताओं के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है । सत्तर के दशक के बाद हिंदी में इस प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा था कि लेखकों को नेताओं के साथ मंच शेयर नहीं करना चाहिए । लेखकों ने नेताओं को हेय दृष्टि से देखना शुरू किया था । इनमें वो लेखक ज्यादा थे जो कि अपनी रचनाओं के लिए अजय भवन के संदेशों का इंतजार करते थे । इसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति और साहित्य में दूरियां बढ़ती चली गईं । मुझे याद पड़ता है कि दो एक साल पहले बिहार के सांसद पप्पू यादव की आत्मकथा का विमोचन नामवर सिंह ने किया था तो नामवर सिंह पर जमकर हमले हुए थे । पिछले साल एक कहानी पुरस्कार वितरण समारोह में एक वरिष्ठ साहित्यकार ने इस वजह से आने से इंकार कर दिया था क्योंकि वहां दिल्ली के उपराज्यपाल को भी होना था । राजनेताओं के साथ मंच साझा नहीं करने की प्रवृत्ति ने साहित्य और राजनीति के विचारों की आवाजाही को रोक दिया । आयातित विचारधारा की संस्कृति ने अपनी सोच को आगे बढ़ाने के लिए हर तरह के बैरियर लगाए थे । अपनी संस्कृति को छोड़कर हम बाहर से आई संस्कृति के हिसाब से काम करने लगे थे । तभी तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था – जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगते हैं । जब वे मन ही मन अपने को हीन दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती है । पारस्परिक आदान-प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, किन्तु जहां प्रवाह एकतरफा हो, वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरे जाति की सांस्कृतिक दासी हो रही है । किन्तु सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने लगती है । यह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जोजाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, वह अपनी परंपरा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है ।दिनकर जी की बातों को अगर हम वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखें तो सारी बातें साफ हो जाती है । दिनकर के इस कथन से सूत्र पकड़ने की जरूरत है जब वो एकतरफा प्रवाह की बात करते हैं ।
दूसरी बात यह है कि दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दास्ता को स्वीकार कर लेते हैं तो विकास अवरुद्ध हो जाता है । आत्मविश्वास की कमी हो जाती हैं । अपने सांस्कृतिक विचारों से मार्क्स के विचारों को श्रेष्ठ मानने का नतीजा आज हम सबके सामने है । किसी मार्क्सवादी कवि में ये नैतिक साहस नहीं है जो दिनकर में था । आज कौन सा कवि लिख सकता है कि – मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूं मैं ।  अब यह पंक्ति कहने का साहस कवि को है तो उसके पीछे उसका अपनी परंपराओ पर अपनी संस्कृति पर गर्व और विश्वास की ताकत है । उसका आत्मविश्वास है । अपने समय का सूर्य हूं कहना मामूली बात नहीं है । सवाल यही है कि जिस तरह से हमारे साहित्यकार एक पक्ष में खड़े होते चले गए उसने साहित्य को राजनीति का एक पक्ष बना दिया और जब आप एक पक्ष बन जाते हैं तो दूसरा पक्ष आपका अनदेखी करता ही है । साहित्य और साहित्यकारों की अनदेखी तो दोनों पक्षों ने की । हिंदी के सबसे बड़े लेखक नामवर सिंह ने तो विचारधारा की ध्वजा भी उठाई थी और चुनाव भी लड़ा था लेकिन उस विचारधारा ने कभी भी नामवर सिंह को संसद में भेजने का नहीं सोचा । बंगाल के हर तरह के छोटे मोटे नेता, प्रोफेसर आदि को राज्यसभा में भेजा गया नामवर सिंह के बारे में सोचा भी नहीं गया । आज जरूकत इस बात की है कि हमारे देश में सड़को, इमारतों और एयरपोर्ट के नामकरण के लिए एक नीति और समिति बनाई जानी चाहिए । उसमें साहित्य कला और संस्कृति के नुमाइंदे भी हो जो सरकार को इस बात का सुझाव दें । अगर ऐसा हो पाता है तो अच्छा होगा वर्ना नामकरण को लेकर राजनीतिक वर्ग खासकर सत्ताधारी दल की मनमानी चलती रहेगी और जिस परिवार या वर्ग का उस दल पर वर्चस्व रहेगा वो अपनी मनमानी करता रहेगा । वक्त आ गया है कि आजादी के बाद से हुई गलतियों से सबक लेने की और उसको ठीक करने की योजना पर अमल करने की ।  


शब्दों के संरक्षण की पहल की दरकार

अभी हाल ही में एक बार फिर से एक अंग्रेजी शब्दकोश ने उन शब्दों की सूची जारी की है जो उन्होंने हिंदी समेत विश्व की दूसरी भाषाओं से लेकर अंग्रेजी में मान्यता दी हैं । यह अंग्रेजी का लचीलापन है जो उसको दूसरी भाषा के शब्दों को अपनाने में मदद करती है । अंग्रेजी जब इन शब्दों को गले लगाती है तो वो अपने शब्दों को छोड़ती नहीं है बल्कि उसको संजोकर रखते हुए अपने दायरे का विस्तार करती है । हिंदी में इससे उलट स्थिति दिखाई देती है । हिंदी की ताकत स्थानीय बोलियों के शब्द भी हैं । अभी हाल ही में मैं बिहार के अंग जनपद में बोले जानेवाले शब्दों को लेकर विचार कर रहा था तो कई ऐसे शब्द मिले जो अब वहां की स्थानीय बोली, अंगिका, से भी गायब हो रहे हैं । उदाहरण के तौर पर वहां आटा को चिकसा कहा जाता था, रोटी को मांड़ो, झोला को धोकरा, पॉकेट को जेबी, बच्चों को बुतरू, नवजात शिशु को फुलवा, दुल्हन को कनियां बुलाया जाता था । बदलते वक्त के साथ ये सारे शब्द प्रचलन से गायब होते चले गए । कुछ योगदान आधुनिक बनने की मानसिकता तो कुछ टीवी के घर घर में पहुंचने और बच्चों की उसकी भाषा अपनाने से हुई है । यह बहुत स्वाभाविक है कि शब्द प्रचलन से गायब होते हैं । हिंदी में भी कई शब्द है जो प्रचलन से गायब हो रहे हैं- जैसे सरिता, जल, पवन आदि, लेकिन चिंता तब होती है प्रचलन से हटने के साथ साथ वो बोलियों और भाषा से गायब भी हो जाती है । भाषा और बोलियों के संरक्षण के लिए हर स्तर पर गंभीर कोशिश की जानी चाहिए । सरकारें अपनी गति से ये काम करती हैं लेकिन वो गति भाषा और बोलियों के शब्द संरक्षण के लिए बहुत धीमी है । यह काम पत्रकारिता और साहित्य में होना आवश्यक है क्योंकि ये दोनों विधाएं आम आदमी के बोलचाल को गहरे तक प्रभावित करती हैं । बोलचाल में शब्दों का प्रचलन संरक्षण का एक बेहतर विकल्प है । पत्रकारिता खासकर टीवी पत्रकारिता में आसान शब्दों पर जोर दिया जाता है । वाक्यों को और शब्दों को आसान बनाने के चक्कर में बहुधा अंग्रेजी के वैसे शब्दों का प्रयोग भी हो जाता है जो अनपेक्षित है । अखबारों में भी अंग्रेजी के इस तरह के शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से शुरू हो गया है । पिछले दिनों भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने सात हिंदी अखबारों का कई दिनों तक अध्ययन किया और फिर उसके आधार पर पंद्रह हजार सात सौ सैंतीस अंग्रेजी के शब्दों को चिन्हित किया जो अखबारों में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे हैं । अंग्रेजी के इन शब्दों का पांच श्रेणियों में वर्गीकरण किया गया । विश्वविद्यालय ने एक ऐसी श्रेणी बनाई है जिसमें अंग्रेजी के वैसे शब्दों को रखा गया है जिसका उपयोग बाजिब माना गया । लेकिन इस सर्वेक्षण की सबसे बड़ी खामी ये रही कि इसने एक वैसे अखबार को शामिल नहीं किया जो सबसे ज्यादा अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करता है । बहरहाल हम बात हिंदी के शब्दों के संरक्षण की कर रहे थे ।
पत्रकारिता के बाद या यों कहें कि उससे पहले साहित्यक लेखन पर ये जिम्मेदारी आती है कि वो हिंदी के शब्दों की भाषा और बोलियों को बचाने का उपक्रम करे । इस संबंध में हमें जयशंकर प्रसाद का स्मरण होता है । हिंदी में भारतेंदु ने खड़ी बोली शुरू की जिसमें हिंदी और उर्दू के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग होता था लेकिन जयशंकर प्रसाद ने अपनी रचना में देहाती शब्दों का जमकर प्रयोग किया । जयशंकर प्रसाद के निबंधों की एक किताब है – काव्य और कला तथा अन्य निबंध । इस किताब में जयशंकर प्रसाद ने जिस तरह की भाषा और शब्दों का प्रयोग किया है वो खड़ी बोली से बिल्कुल भिन्न है । जयशंकर प्रसाद की ये महत्वपूर्ण किताब है । प्रसाद ने उर्दू मिश्रित हिंदी को छोड़कर एक नई भाषा गढ़ी और ये उनका हिंदी पर बड़ा उपकार है । उर्दू में जो लालित्य है वही लालित्य उन्होंने हिंदी के शब्दों में पैदा की । खड़ी बोली के पैरोकारों ने उस वक्त प्रसाद के संग्रह आंसू को दरकिनार कर उनका उपहास किया था । आंसू में जो उनकी कविताएं हैं उसमें शायरी का आनंद मिलता है । हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी इस किताब को हिंदी में शायरी की पहली किताब कहते हैं । हिंदी के कई कथाकारों ने स्थानीयता के नाम पर बोलियों को अपनी रचना में स्थान दिया लेकिन उत्तर आधुनिक होने के चक्कर में बोली के शब्दों का अपेक्षित प्रयोग नहीं कर पाए और उसको हिंदी के प्रचलित शब्दों से विस्थापित कर दिया । जिस कालखंड को अपनी कृति में दर्शाते हैं उस काल-खंड में बोली जाने वाली भाषा और उसके शब्दों को बहुधा छोड़ते नजर आते हैं । इसका नतीजा यह होता है कि बोलियों के शब्द छूटते चले जाते हैं और पहले प्रचलन से और फिर स्मृति से भी गायब हो जाते हैं । हिंदी में जरूरत इस बात की भी है कि कोई लेखक जयशंकर प्रसाद जैसा साहस दिखाएं और अपने मौजूदा दौर की भाषा की धारा के विपरीत तैरने की हिम्मत करे और करुणा कल्पित ह्रदय में क्यों विकल रागिनी बहती जैसी रूमानी पंक्ति लिख सके । जयशंकर प्रसाद ना तो खड़ी बोली से प्रभावित हुए थे और ना ही गालिब या रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाषा से जबकि उस दौर के साहित्य लेखन पर इन दोनों का काफी असर दिखाई देता है । इस वक्त साहित्य सृजन में भाषा के साथ उस तरह की ठिठोली नहीं दिखाई देती है जैसी कि होली में देवर अपनी भाभी के साथ करता है । भाषा के साथ जब लेखक ठिठोली करेगा तो उसको अपने शब्दों से खेलना होगा । समकालीन साहित्य सृजन में हो ये रहा है कि कथ्य तो एक जैसे हैं ही भाषा भी लगभग समान होती जा रही है । कभी कभार किसी कवि की कविता में या किसी कहानी में इस तरह के शब्दों का प्रयोग होता है जो भाषा को तो चमका ही देता है बिसरते जा रहे शब्दों को जीवन भी देता है । शब्दों को बचाने में साहित्यकारों की बड़ी भूमिका है । इस भूमिका का निर्वहन गंभीरता के साथ करना चाहिए । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी किताब कबीर में में लिखा है कि कबीर वाणी के डिक्टेटर थे और वो चाहते थे वो करते थे और भाषा में वो हिम्मत नहीं थी कि उनको रोक सके । क्या आज शब्दों को बचाने के लिए हिंदी को कबीर जैसा एक भाषा का डिक्टेटर चाहिए ।  


Sunday, May 15, 2016

मिथकीय चरित्रों से हिंदी को परहेज क्यों

एक तरफ जहां हिंदी साहित्य लेखन में एकरसता जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है और लगभग एक ही ढर्रे पर कहानी, कविता और उपन्यास लिखे जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ अंग्रेजी में लिखनेवाले भारतीय लेखकों ने विषयों की विविधता को लेकर खासे प्रयोग किए । हिंदी में पुरातन भारतीय चरित्रों और मिथकीय चरित्रों पर लिखने को एक खास विचारधारा ने सांप्रदायिकता से जोड़ दिया उसी मिथकीय चरित्रों पर लिखकर अंग्रेजी के लेखकों ने ना केवल प्रसिद्धि पाई बल्कि करोड़ों रुपए भी कमाए । भगवान शंकर के चरित्र चित्रण को लेकर अमिष त्रिपाठी ने जितनी प्रसिद्धि पाई वो हिंदी के लेखकों के लिए फिलहाल तो अकल्पनीय नजर आती है । बाबा भोलेनाथ पर ट्रायोलॉजी लिखकर अमिष ने अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपने लेखन की ना केवल पहचान बनाई बल्कि जमकर पैसे भी कमाए । उसकी इस सफलता के बाद एक प्रकाशन गृह ने उनसे करोड़ों रुपए अग्रिम देकर आनेवाली किताबों को छापने का अधिकार खरीदा था । तब देशभर के अखबारों में ये करार सुर्खियां बनी थी । हिंदी के विचारधारा युक्त साहित्यकार अमिष त्रिपाठी को लाख खारिज करें लेकिन उन्होंने अपना एक पाठक वर्ग तैयार किया और अपने तमाम साक्षात्कार में वो भगवान शंकर के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर बात करते हैं । अमिष इस हिंदू देवी देवता पर बात करने से  बिल्कुल नहीं हिचकते हैं । उन्हें इस बात की भी चिंता नजर नहीं आती है कि हिंदू देवी देलताओं के चरित्र पर बात करनेवालों को संघी मान लिया जाता है । वो बेबाक होकर कहते हैं कि आज उनके पास जो कुछ भी है वो बाबा भोलेनाथ की कृपा से है । अंग्रेजी में सिर्फ अमीष त्रिपाठी ही नहीं हैं जो मिथकीय चरित्रों पर लिखते हैं । अभी हाल ही में देवदत्त पटनायक की एक किताब शिखंडी एंड अदर टेल्स दे डोंट टेल यू देखने को मिली । देवदत्त पटनायक भी लगातार भारतीय मिथकीय चरित्रों को अपने लेखन का विषय बनाते हैं । देवदत्त पटनायक हेल्थकेयर में नौकरी करने के बाद लेखन की ओर मुडे थे और उन्होंने शिव, विष्णु, हनुमान,लक्ष्मी भारत की देवियां स्वतंत्र रूप से किताबें लिखीं और उनकी सारी किताबें पाठकों ने खासी पसंद की । उनकी किताबों का हिंदी में भी अनुवाद हुआ और हिंदी के पाठकों ने भी अमिष के उपन्यासों की तरह पटनायक की किताबों को भी हाथों हाथ लिया । हमारे देश की युवा पीढ़ी बेहद चाव से इन मिथकीय चरित्रों को पढ़ना जानना चाहती है । अच्छी बात यह है कि इन लेखकों में कइयों ने इन मिथकीय चरित्रों को आधार बनाकर बाल साहित्य भी रचा । पटनायक की ही करीब आधा दर्जन किताबें बच्चों को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं जो उनके बीच लोकप्रिय हैं । अब तो इन मिथकीय चरित्रों और उनके प्रबंधन कौशल को आधुनिक प्रबंधन से जोड़कर किताबें लिखी जा रही हैं । चाहे वो शंकर हों या विष्णु या कृष्ण का चरित्र ।क्राइसिस के दौरान उनके प्रबंधकीय कौशल को लेकर या संकट से निबटने के उनके सूत्रों को आधुनिक प्रबंधन सिद्धांत के तौर पर पेश कर किताबें लिखी जा रही हैं ।       
हिंदी साहित्य में स्थिति इसके बिल्कुल उलट है । हिंदी में नरेन्द्र कोहली ने राम पर लिखना शुरू किया तो उनको रामकथा मर्मज्ञ और आगे बढ़कर जब उन्होंने महाभारत पर अपने लेखन का फोकस किया तो उनको धार्मिक लेखक कहकर साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा से अलग रखा गया । विपुल लेखन करनेवाले नरेन्द्र कोहली को लाखों पाठक तो मिले पर साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया । कोहली को आजतक उनके श्रम और लेखन के हिसाब से हिंदी साहित्य में वो प्रतिष्ठा नहींमिली जिसके वो हकदार हैं । उम्र के पचहत्तरवें पड़ाव को पार करने के बाद भी लगातार वो भारतीय पौराणिक मिथकीय चरित्रों को अपने लेखन का विषय बना रहे हैं । धर्म को अफीम मामने वाली विचारधारा को यह सोचना चाहिए कि इस सिद्धांत का प्रतिपादन करनेवाले को भारतीय मानस की ना तो समझ है और ना ही ये सिद्धांत भारत के लिए मुफीद है । विदेशी सिद्धांत को भारतीय साहित्य पर लागू करवाने की जिद ने धर्म और मिथक पर लिखनेवालों को दोयम दर्जे का लेखक करार देने की प्रवृत्ति बढ़ती चली गई । हिंदी और अंग्रेजी लेखऩ का ये अलग अलग चरित्र समझने की जरूरत है । दरअसल भारतीय अंग्रेजी लेखन किसी भी तरह की विचारधारा के अधिनायकवाद से स्वतंत्र है और वो विषयों को पाठकों की रुचि को ध्यान में रखकर चुनता और उसपर लेखन करता है । हिंदी की स्थिति अंग्रेजी से बिल्कुल उलट है यहां अब भी विचारधारा विशेष का दबदबा है और उसके दायरे से बाहर लेखन करनेवालों को हाशिए पर डाल दिया जाता है । ज्यादातर उन्हीं लेखकों को सम्मान और साहित्यक यश आदि मिलता है जो वितारधारा की बेड़ियों में रहकर लेखन करते हैं । विचारधारा के दायरे से बाहर लेखन करनेवालों को नीचा दिखाने की कोशिश होती रही हैं । इसका नतीजा यह रहा कि नए लेखकों मे सफलता के इस शॉर्टकट को अपनाया और विचारधारा युक्त लेखन की ओर प्रवृत्त होते चले गए । विषयों की विविधता के अन्वेषण की बजाए उन्हीं विषयों पर लिखा जो कि हिंदी साहित्य में स्वीकृत थी । नए लेखकों ने इलस चौहद्दी को तोड़ने की कोई कोशिश नहीं की । निर्मल वर्मा और अज्ञेय ने इस दायरे को तोड़ा तो उनको भी साहित्यक कॉमरेडों ने नहीं बख्शा । दिनकर को भी नहीं । अभी एक गोष्ठी में मैंने कविता में यथार्थ की खुरदरी जमीन पर पाठकों के लहूलुहान होते रहने का सवाल उठाया था । यह इस वजह से ही हुआ कि हिंदी के नए लेखक विषयगतत नवीनता की ओर उन्मुख नहीं हो पाए । उनके सामने नरेन्द्र कोहली, मिर्मल वर्मा, अज्ञेय और दिनकर का उदाहरण था । निर्मल वर्मा ने तो इस साहित्यक बेइमानी पर लिखा भी है – जिस मार्क्सवादी स्वर्गका बखान हमारे हिंदी के अधिकांश लेखक, पत्रकार , बुद्धिजीवी बरसों से करते आए हैं, उसके भीतर झांकने की बौद्धिक ईमानदारी शायद ही किसी ने अपनी लेखकीय जिम्मेदारी समझ कर बरती हो । यह जानते हुए कि भी राजा नंगे हैं’, अपनी आंखें मेदे रखना ही उन्होंने सुविधानक समझा । इससे उन्होंने दो सुख एक साथ प्राप्त कर लिए – वे राजनीति रूप से सही, पॉलिटिकली करेक्ट भी बने रहे और सत्य बोलने के खतरों से भी बचे रहे ।...भारत के मार्क्सवादियों ने पिछले वर्षों में नए रंग पोतने और पुराने धब्बों को पोंछने में जो हस्तकौशल दिखाया, वह आश्चर्यजनक है । यहां निर्मल वर्मा साफ तौर पर संकेत करते हैं कि साहित्य में किस तरह से विचारधारा विशेष के लेखकों ने बेइमानियां की ।

अंग्रेजी में जिस तरह से भारतीय मिथकीय चरित्रों को केंद्र में रखकर लिखी गई किताबें युवा पाठकों को लुभा रहे हैं वो इस बात को साबित करते हैं आज की युवा पीढ़ी की रुचि धर्म की ओर बढ़ रही है । इसको इस तरह से भी कह सकते हैं कि आज हमारी युवा पीढ़ी जो अपनी संस्कृति के बारे में जानना चाहती है, उस विचारधारा को परखना चाहती है जो हमारे देश में पहले से मौजूद थी । हिंदी के लेखकों ने तो मराठी के लेखक शिवाजी सावंत से भी सीख नहीं ली । अगर हमारे लेखक मृत्युंजय की लोकप्रियता को ही देख लेते तो आज हिंदी का विस्तार कहीं अधिक हो रहा होता । आज इस बात का अफसोस भी है कि हमारी नई पीढ़ी बाबा भोलेनाथ, इच्छवाकु, राम, विष्णु जैसे चरित्रों को समझने के लिए अमिष त्रिपाठी और देवदत्त पटनायक को पढ़ने की जरूरत गो रही है । हिंदी में इनपर विपुल साहित्य मौजूद है लेकिन इनको धर्म की किताबें बताकर हाशिए पर डालनेवालों ने अमिष और देवदत्त जैसे लेखकों के लिए लेखन की उर्वरक जमीन तैयार की । आज हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि हिंदी में मौजूज मिथकीय साहित्य अंग्रेजी के रास्ते फिर से अनुदित होकर हिंदी में आ रहा है और लाखों की कमाई कर रहा है । वहीं मूल हिंदी में इनको छापनेवाली संस्था गीता प्रेस बदहाली के दौर से गुजर रही है । क्या हिंदी उस औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त हो सकेगी । इन सवालों के साथ विचार तो इसपर भी किया जाना चाहिए कि हिंदी में मिथकीय चरित्रों पर लिखी गई पुस्तकों को पाठकों से दूर करनेवाले कौन लोग हैं । उनको साहित्य में चिन्हित कर उनसे भी इस बाबत जबाव मांगा जाना चाहिए । जबतक सार्वजनिक रूप से इस साजिश को बेनकाब नहीं किया जाएगा तबतक हिंदी साहित्य को उसका उचित हक नहीं मिल पाएगा ।  

आलोचना से बचती युवा पीढ़ी

अभी पिछले दिनों एक अनौपचारिक साहित्यक गोष्ठी में एक लेखक मित्र ने कहा कि इन दिनों हिंदी के युवा लेखक बहुत जल्दबाजी में हैं और वो इंस्टैंट कॉफी और टू मिनट नूडल्स की तरह साहित्य की रचना कर रहे हैं । उनकी यह बात सोलह आने सच ना भी हो तो चौदह पंद्रह आने तो सही है ही । ज्यादातर युवा लेखक थोक के भाव से कहानियां और कविताएं लिख रहे हैं और उनकी चाहत मशहूर होने की भी होती है । साहित्य को अगर साधना कहा गया है तो उसके पीछे कोई ना कोई सोच रही होगी । अगर हम ये मान भी लें कि ये साधना जैसा कठिन कर्म नहीं भी है तो कम से कम श्रमसाध्य तो है ही । साहित्य को हल्के तरीके से नहीं लिया जा सकता है, यह एक बेहद गंभीरकर्म है और इसमें लेखकों को उनका दाय कभी उनके जीवन काल में मिल पाता है तो कभी मरणोपरांत ही उनके लेखन पर चर्चा हो पाती है । इन दिनों हमारे युवा लेखक लिखना शुरू करते ही चाहते हैं कि उनको साहित्य जगत में गंभीरता से लिया जाए औप वो स्थान मिले जो उनके वरिष्ठों को हासिल है । यह अपेक्षा और महात्वाकांक्षा सही है लेकिन इसके लिए जितने प्रयास किए जाने चाहिए उतने दिखाई नहीं देते हैं । युवा लेखकों की इस महात्वाकांक्षा तो परवान चढाया है कुछ वैसी पत्रिकाओं ने जो लेख की तरह कहानीकारों से कहानियां लिखवाते हैं । आठ सौ शब्दों में दे दीजिए, हजार शब्दों में दे दीजिए या ज्यादा से ज्यादा पंद्रह सौ शब्दों की कहानी होनी चाहिए । पत्रिकाओं की मजबूरी हो सकती है लेकिन लेखकों की क्या मजबूरी है, ये समझ से परे हैं ।  जब लेखकों की रचनाओं और उसकी कल्पना को शब्द संख्या में बांधा जाने लगे और लेखक उसको स्वीकार भी करने लगे तो माना जाना चाहिए कि साहित्य के सामने संकट काल है । कई युवा लेखकों ने मुझे बताया कि अमुक पत्रिका ने उनके उतने शब्दों में कहानी मांगी और हमने फौरन उनको लिखकर दे दिया । गोया कहानी ना हो किसी समसमायिक विषय पर लेख हो । जरूरत इस बात की है कि साहित्य को इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत के इस रोग से मुक्त किया जाए ।

दूसरी बात जो समकालीन साहित्य में रेखांकित की जानी चाहिए वो है युवा लेखकों का अपने साथी लेखकों की रचनाओं पर टिप्पणी करने से बचना । मौखिक या फेसबुकिया टिप्पणियां यदा कदा देखने को मिल जाती है लेकिन ज्यादातर युवा लेखक अपने समकालीनों पर लेख आदि लिखने से बचते हैं । इसका एक नुकसान यह होता है कि नई सोच सामने आने से रह जाती है । नए विमर्श को स्थान नहीं मिलता है । मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव का जब कहानी की दुनिया में डंका बज रहा था तो सभी एक दूसरे की रचनाओं पर लिख रहे थे । उसका लाभ तीनों को मिला था और वो लगातार चर्चा में बने रहे थे । युवा लेखक क्यों नहीं अपने साथियों पर गंभीरता से लिखते हैं इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए । ऐसा प्रतीत होता है कि युवा पीढ़ी अपने साथियों पर आलोचनात्मक टिप्पणियों से बचना चाहती है । तू पंत, मैं निराला जैसी टिप्पणियां तो यदा कदा देखने को मिल जाती हैं पर किसी रचना को आलोचना की कसौटी पर उसके औजारों से कसता हुए लेख दुर्लभ है । यह सही है कि हिंदी में आलोचनात्मक टिप्पणियों का असर व्यक्ति संबंधों पर पड़ता है लेकिन क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कही जानी चाहिए । 

Saturday, May 14, 2016

वोटरों को मुफ्त सामान का लॉलीपॉप

भारतीय राजनीति में सत्तर के दशक के बाद क्षेत्रीय क्षत्रपों के उदय को देश की राजनीति में एक प्रस्थान बिंदु के तौर पर देखा जाना चाहिए । ये वही दौर था जब दक्षिण से लेकर उत्तर भारतीय सूबों में राज्यस्तरीय नेताओं ने अपनी धाक जमानी शुरू कर दी थी । दक्षिण में एम जी रामचंद्रन हों या फिर यूपी में चरण सिंह या हरियाणा में देवीलाल । राजनीतिक विश्लेषकों में इस बात पर अच्छी खासी बहस हुई थी और अब भी जारी है कि लोकतंत्र के ये सूबेदार कितने मुफीद हैं । कई लोगों का मानना है कि जातियों के इन स्थानीय नेताओं की वजह से लोकतंत्र मजबूत हुआ । उदाहरण के तौर पर लालू यादव और मुलायम सिंह यादव या फिर चौधरी देवीलाल और अजीत सिंह को देखा जा सकता है । यादव और जाटों के नेता होने के बावजूद ये अलग अलग दल में हैं और इस तरह से किसी भी जाति विशेष का किसी समुदाय या जाति के खिलाफ एकजुट होने का खतरा नहीं है । राजनीतित विश्लेषण के लिए यह तर्क काफी हद तक सही हो सकता है लेकिन इन क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपनी राजनीतक जमीन बचाने के लिए लोकतंत्र को कमजोर करने का काम भी किया है । लोकतंत्र की मजबूती और सफलता के लिए मतदाताओं का बगैर किसी लोभ लालच या डर भय के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनने की स्वतंत्रता आदर्श स्थिति मानी गई है । होती भी है । लेकिन चुनावी वादों के नाम पर इन क्षेत्रीय दलों मे पिछले कई दशकों से वोटरों को लुभाकर अपने पाले में खींचने का काम किया है । यह काम दक्षिण के राज्यों में खूब हुआ जो अब उत्तर भारत के राज्यों तक पहुंचने लगा है । वोटरों को लुभाने के लिए चुनावी वादों के लिए एक बहुत ही मशहूर किस्सा है जिसके बारे में हर बार बात की जाती है । तमिलनाडू में एम जी रामचंद्रन की लोकप्रियता चपम पर थी वो सूबे के मुख्यमंत्री थे, चुनाव सर पर थे । चुनाव के उस दौर में तत्कालीन मद्रास के लोग पानी के भयंकर संकट से गुजर रहे थे । आंध्र प्रदेश के साथ तेलुगू गंगा प्रोजेक्ट पर समझौता होना शेष था । एम जी रामचंद्रन ने देखा कि समझौते में देरी हो रही है और पानी का संकट गहराता जा रहा है । इस बात को भांपते हुए कि चुनाव में पानी एक बड़ा मुद्दा बनेगा, एम जी रामचंद्रन ने एलान कर दिया कि गरीबों को पानी रखने के लिए बड़ी बड़ी बाल्टियां सरकार की तरफ से मुफ्त में दी जाएंगीं । एमजीआर के इस चुनावी वादे का असर हुआ और जनता ने उनके पक्ष में मतदान किया । चुनाव में इस बात का कोई प्रमाण नहीं होता है कि वोटर ने किस वजह से अमुक पार्टी को वोट दिया । लेकिन राजनीतिक दलों के वादों और इरादों को जोड़कर एक तस्वीर तो बनाई ही जाती है ।
इस वक्त भी तमिलनाडू में चुनाव प्रक्रिया चल रही है । एम जी रामचंद्रन की विरासत संभाल रही सूबे की मुख्यमंत्री जयललिता ने वोटरों को लुभाने के लिए चुनावी वादों कि झड़ी लगा दी है । ये वादे ऐसे हैं जो तत्काल पूरे हो सकते हैं क्योंकि इसमें ज्यादातर मुफ्त समान देने एलान शामिल है । जयललिता ने एलान किया कि अगर वो जीत कर वापस सत्ता में आती हैं तो उन सभी लोगों को मोबाइल फोन दिए जाएंगें जिनके पास राशन कार्ड होगा । इसी तरह से उन्होंने दसवीं और बारहवीं के छात्रों के लिए मुफ्त लैपटॉप बांटने की घोषणा भी की । इसके अलावा सौ यूनिट बिजली मुफ्त, महिलाओं को स्कूटी खरीदने पर पचास फीसदी सब्सिडी, गर्भवती महिलाओं की सहायता राशि बारह हजार से बढ़ाकर अठारह हजार करने का एलान भी किया गया । जयललिता ने गरीब परिवार को शादी के वक्त बेटी के मंगलसूत्र लिए चार ग्राम सोना के तोहफे को बढ़ाकर आठ ग्राम करने का एलान भी किया है । दो हजार चौदह के चुनाव के वक्त जयललिता ने मुफ्त मिक्सर का एलान किया था। वादा तो दस करोड़ नई नौकरी का भी था लेकिन वादे हैं वादों का क्या । दरअसल तत्काल फायदे के लिए तात्कालिक चुनावी लॉलीपॉप का खेल तमिलनाडू की राजनीति में करीब चार दशकों से खेला जा रहा है । इसमें ना सिर्फ एआईएडीएमके शामिल हैं बल्कि करुणानिधि की पार्टी भी इसमें पीछे नहीं रही है । करुणानिधि भी सोलह लाख छात्रों के लिए फ्री लैपटॉप, टैबलेट, 10 जीबी तक का इंटरनेट कनेक्शन, गरीबों के लिए स्मार्ट फोन देने का चुनावी वादा किया है । इसके अलावा शिक्षा ऋण माफी का भी वादा किया गया है । कांग्रेस और बीजेपी का तमिलनाडू की सियासत में बहुत कुछ दांव पर है नहीं लिहाजा उनके चुनावी वादे भी इनकी तुलना में कम किए हैं । बीजेपी ने जलीकट्टू पर लगाई पाबंदी को हटाने का भरोसा दिया है और गरीब परिवार की बेटी को शादी में आठ ग्राम सोने का लॉलीपाप दिया है वहीं कांग्रेस ने आजमाए हुए नुस्खे को दोहराते हुए किसानों के कृषि ऋण माफी का एलान किया है । लेकिन सबसे दिलचस्प दावा विजयकांत की पार्टी डीएमडीके ने किया है । उन्होंने पोंगल पर एक हफ्ते की छुट्टी, पेट्रोल पैंतालीस रुपए लीटर और डीजल 35 रुपए लीटर के अलावा सूबे के पांच हजार किसानों को खेती की आधुनिक तकनीक सीखने के लिए विदेश भेजने का वादा किया है । विजयकांत ने वादा किया है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो गरीब परिवारों की आय बढ़ाकर पच्चीस हजार प्रतिमाह करवा देंगे । इस नायाब योजना के लिए वो सूबे में 1120 थिएटर और करीब सवा लाख दुकानें खोलेंगे ।

साफ है कि तमाम राजनीतिक दल इस तरह के एलान कर सत्ता हासिल करना चाहती हैं लेकिन सत्ता के लिए वो भूल जाते हैं कि सूबे की वित्तीय स्थिति पर इसका क्या दूरगामी असर होगा । एक अनुमान के मुताबिक तमिलनाडू के कर्ज में पिछले पांच साल के दौरान सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है । वहां की सरकार ये तर्क दे सकती है कि कर्ज और सूबे की जीडीपी का अनुपात राष्ट्रीय औसत से कम है लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्ज पर ब्याज अदायगी की दर में भी बढ़ोतरी हुई है और उनका राजस्व घाटा भी बढ़ा है । दरअसल वोटरों को लुभाने का ये खेल अब उत्तर भारतीय राज्यों में भी खुलकर खेला जाने लगा है । दो हजार बारह के यूपी चुनाव में अखिलेश की सफलता के पीछे फ्री लैपटॉप के एलान का बड़ा हाथ रहा था । इसी तरह से नीतीश कुमार ने छात्राओं को मुफ्त साइकिल देकर वाहवाही के साथ साथ वोट भी बटोरे थे । इस वक्त भले ही लालू-नीतीश साथ मिलकर बिहार में सरकार चला रहे हों लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त दोनों ने मुफ्त सामान के वादों को लेकर एक दूसरे पर जमकर तीर चलाए थे । इसी तरह से छत्तीसगढ़ में रमन सिंह ने गरीबों के लिए एक रुपए किलो चावल देकर अपने लिए चाउर बाबा का विशेषण तो अर्जित किया ही जमकर वोट भी बटोरे । रमन सिंह ने भी कॉलेज में प्रवेश करनेवालों छात्रों को लैपटॉप का लॉलीपॉप 2013 के विधानसभा चुनाव में दिया था ।
चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के इस मुफ्त सामान के वादों को लेकर विमर्श की कोशिश की थी लेकिन उसको सफलता हाथ नहीं लगी । एक दो छोटी पार्टियों को छोड़कर सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों ने इसके पक्ष में अपनी राय रखी थी । सवाल अब भी यही है कि क्या मुफ्त के इन सामानों का एलान कर राजनितक दल निष्पक्ष चुनाव की संविधान की भावना का सम्मान कर रहे हैं ।कतई नहीं ।   

  

Saturday, May 7, 2016

प्रासंगिक बने रहने का दबाव

जब कोई लेखक अपने सर्वश्रेष्ठ दौर में होता है, उस वक्त लिखना छोड़ दे ऐसा सुनने में कम ही आता है, हिंदी में तो और भी कम । हिंदी के लेखक जब तक जीवित रहते हैं तब तक लिखते रहते हैं । ज्यादातर हिंदी के लेखकों को लगता है किताबों की संख्या से ही उनको अमरत्व प्राप्त होता उसकी गुणवत्ता से नहीं, लिहाजा वो पचनात्मक तौर पर चुक जाने के बाद भी कुछ ना कुछ लिखते रहते हैं । नतीजा यह होता है कि पूर्व में जो प्रतिष्ठा उन्होंने अर्जित की होती है वो भी छीजने लगती है । इस रोग से हिंदी का शायद ही कोई लेखक अछूता रहा है । पहले उपन्यास लिखकर साहित्य जगत में अपना डंका बजाने वाले लेखक से जब उपन्यास छूटता है तो वो संस्मरण लिखने लगते हैं । यहां भी जब उनकी थाती खत्म हो जाती है तो वो आत्मकथा की ओर मुड़ते हैं । बीच बीच में छिटपुट लेखों के संग्रह आदि छपवा लेते हैं । इसका फायदा यह होता है कि उनके किताबों की संख्या बढ़ती चली जाती है । प्रकाशक लेखक की प्रसिद्धि के दबाव में किताबें छाप भी देते हैं । उम्र के छिहत्तरवें पड़ाव पर आकर राजेन्द्र यादव ने किशोरावस्था में लिखा अपना उपन्यास एक था शैलेन्द्र छपवा लिया था जो बेहद अनगढ़ और उनकी प्रतिष्ठा को कम करनेवाला था । उसपर से तुर्रा ये कि इसको अविकल और असंपादित कहकर प्रचारित भी किया गया था । इस उपन्यास ने राजेन्द्र यादव के किताबों की संख्या में अवश्य इजाफा कर दिया था लेकिन उनकी लेखकीय प्रतिष्ठा इससे धूमिल ही हुई थी । दो हजार छह में उन्होंने ये किताब मुझे दी थी और समीक्षा लिखने का आदेश दिया था । किताब पढ़कर मैंने उन्हें फोन किया कि अगर मैं इसकी समीक्षा लिख दूंगा तो आप खफा हो जाएंगे । साथ ही मैंने विस्तार से अपनी आपत्तियों को उनको बताया था । खैर यादव जी इतने लोकतांत्रिक थे कि वो सामनेवाले की ना केवल बात सुनते थे बल्कि उसकी राय का सम्मान भी करते थे । अपने अंदाज में उन्होंने मुझे हड़काया भी था लेकिन उसके बाद एक बार भी मुझे समीक्षा लिखने के लिए उन्होंने नहीं कहा था । इसके पहले राजेन्द्र जी ने हंस के अपने संपादकीय को भी संकलित कर प्रकाशित करवाया था । दो हजार एक में उनका लगभग आत्मकथ्य मुड़ मुड़ के देखता हूं...प्रकाशित हुआ था । तब उस किताब में उन्होंने अपनी जिंदगी को कठघरे में खड़ा किया था और व्यक्तिगत अर्थहीनता का प्रश्न भी उछाला था । चेखव के नाटक तीन बहनों की एक पात्र, जो कि व्यर्थता बोध की मारी थी, का एक संवाद उद्धृत किया था – काश ! जो कुछ हमने जिया है, वह सिर्फ जिंदगी का रफ ड्राफ्ट होता और इसे फेयर करने का एक अवसर हमें और मिलता । दरअसल ये लाइन हिंदी के उन तमाम लेखकों की बाद की रचनाओं को देखते हुए बरबस याद आ जाती है कि काश उनको एक बार फिर से रचनात्मक जीवन मिलता और वो अपनी कमजोर रचनाओं को पुनर्लेखन कर पाते । यहां राजेन्द्र यादव का नाम सिर्फ इसलिए ले सका कि उनसे जुड़ा एक प्रसंग स्मरण में था । अन्यथा तो हिंदी के बहुतेरे लेखक यही कर रहे हैं । कई लेखक तो अपनी चंद कहानियों को बार बार अलग अलग नाम से प्रकाशित करवा कर किताबों की संख्या बढाते रहते हैं – मेरी प्रिय कहानियां, मेरी चुनिंदा कहानियां, मेरी दस कहानियां, मेरी पच्चसी कहानियां, फलां और अन्य कहानियां आदि आदि ।
दरअसल जब हम लेखन में आ रहे अवरोध की बात करते हैं तो यह बात साफ है कि लेखक भी एक तय सीमा तक ही लिख पाते हैं और उसके बाद वो खुद को या तो दोहराने लगते हैं या फिर अपने बनाए लेखकीय मानदंड को ही पार नहीं कर पाते हैं । हिंदी के कथाकार सृंजय की कहानी कामरेड का कोट इतना चर्चित हुआ कि उसके बाद सृंजय की कोई रचना उनको वो प्रसिद्धि नहीं दिला पाई और फिर कालांतर में वो साहित्य की दुनिया से लगभग विस्मृत हो गए । इसी तरह से अगर हम देखें तो हिंदी के बड़े कवियों में से एक आलोक धन्वा का लेखन भी लगभग स्थगित है । आलोक धन्वा का अबतक एक ही कविता संग्रह प्रकाशित है, हलांकि बाद में उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट कविताएं लिखी । एक आलोचक के मुताबिक आलोत धन्वा का लंबा मौन अपनी कविता को विकास के नए धरातल पर पहुंचाने की तैयारी थी । इसी तरह से अगर हम हिंदी की मशहूर उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा की कृतियों पर विचार करें तो देखते हैं कि जो धार या जो पैनापन उनके लेखन में इदन्नम से लेकर अल्मा कबूतरी तक था या जिस तरह की रचनात्मक ऊंचाई उनकी आत्मकथा से दो खंड- कस्तूरी कुंडल बसै और गुड़िया भीतर गुड़िया में दिखाई दिए वह उसके बाद के लिखे उपन्यासों में नहीं मिलता है । मैत्रेयी पुष्पा के पहले लिखे गए उपन्यास उनके बाद के उपन्यासों के लिए अबतक चुनौती बनकर खड़े हैं । मेरा मानना है कि अल्मा कबूतरी उनकी अबतक प्रकाशिक रचनाओं में सबसे श्रेष्ठ है ।
दऱअसल लेखकों की ना लिख पाने की जो समस्या है वो विश्वव्यापी है । पश्चिम में इसको राइटर्स ब्लॉक कहते हैं । वहां यह माना जाता है कि किसी भी रचना पर सालों तक काम करते रहो, उसको लगातार संपादित करते रहो, उसमें जोड़ो घटाओ और जब संतुष्ट हो तो प्रकाशित करवाओ । यह सवाल भी पश्चिम में लगातार उठता रहा है कि कविता कहानी या उपन्यास लिखना शुरू करना आसान है लेकिन लेखक को अपना लेखन कब रोक देना चाहिए ये बड़ा सवाल है । उस सवाल से अमेरिका के लेखक लगातार मुठभेड़ करते रहे हैं । अमेरिका के ही एक मशहूर लेखक थे राल्फ एलिसन जिनकी एक बेहतरीन कृति द इनविजिबल मैन उन्नीस सौ बावन में प्रकाशित होकर खूब चर्चित हुई थी । नस्लीय राष्ट्रवाद पर केंद्रित ये किताब जब प्रकाशित हुई थी तब अमेरिका के आलोचकों ने इसको मास्टरपीस करार दिया था । लेकिन इस उपन्यास के प्रकाशन के चालीस साल बाद तक राल्फ एलिसन अगली कृति को लिखने को लेकर संघर्ष करते रहे थे । इन चालीस वर्षों तक वो अपना एक उपन्यास फनटीन्थ लिखते रहे थे  । उस दौरान अमेरिका में राल्फ एलिसन को लेकर मजाक भी होता था कि अनिश्चित काल तक ये उपन्यास लिखा जाएगा । अपनी मृत्यु तक राल्फ एलिसन ने अपने दूसरे उपन्यास को प्रकाशित नहीं करवाया क्योंकि वो इससे संतुष्ट नहीं थे । उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवारवालों ने उनके लिखे दो हजार पृष्ठ प्रकाशक को छपने के लिए दे दिए । प्रकाशक ने उसको संपादित करके पांच सौ पन्नों का उपन्यास बना दिया । राल्फ एलिसन का उपन्यास था, जिसके बारे में साहित्य जगत में ये चर्चा थी कि इसको चालीस साल से लिखा जा रहा है और और उनकी मृत्यु भी हो चुकी थी लिहाजा किताब को लेकर पाठकों और आलोचकों में उत्सुकता थी। किताब छपी, बिकी भी खूब लेकिन इसने पाठकों को भी निराश किया और आलोचकों ने तो विनम्रता के साथ इसको खारिज ही कर दिया । इसके बाद अमेरिका में इस बात को लेकर व्यापक चर्चा हुई थी कि आखिरकार राल्फ एलिसन इस किताब को क्यों नहीं छपवाना चाहते थे । राल्फ एलिसन के कुछ मित्रों ने उस वक्त ये बताया था कि वो इसके ड्राफ्ट से असंतुष्ट थे । यही हाल हिंदी में भी होता है । कई लेखक अपने जीवन काल में अपनी कुछ रचनाओं को नहीं छपवाते हैं लेकिन उनके मूर्ख वारिस चंद पैसों की लालच में उनकी कमजोर कृतियों को छपवाकर उनकी प्रतिष्ठा कम करते हैं । क्या ऐसी कुछ व्यवस्था बननी चाहिए कि जो लेखक अपनी किसी रचना को प्रकाशित नहीं करवाना चाहते हैं उसके बारे में वसीयत करके जाएं । इससे उनकी प्रतिष्ठा बची रह सकती है ।

राइटर्स ब्लॉक का दूसरा उदाहरण है द न्यूयॉर्कर में काम करनेवाले जोसेफ मिशेल का जो सालों तक दफ्तर जाते रहे लेकिन कुछ लिख नहीं पाए । उनके बारे में कहा जाता है कि उनके दफ्तर से जाने के बाद उनके मित्र डस्टबिन खंगालते थे कि किस तरह का ड्राफ्ट फाड़ कर जोसेफ मिशेल ने फेंका है । दरअसल इस राइटर्स ब्लॉस से हर लेखक का सामना होता है जब उसके सामने रचनात्मकता का संकट उत्पन्न हो जाता है लेकिन अपने को समीचीन बनाए रखने की ललक भी जोर मारती है । हिंदी के लेखक इस चुनौती को झेल नहीं पाते हैं और राइटर्स ब्लॉक पर खुद को रेलिवेंट बनाए रखने की ललक भारी पड़ जाती है और इसी ललक में कमजोर कृतियों का प्रकाशन कर अपनी प्रतिष्ठा को कम करते चले जाते हैं। रचनात्मकता के चुक जाने पर ई एम फोस्टर ने उचित ही कहा था कि वो सुबह से लेकर शाम तक कुछ नहीं करते हैं और फिर शाम को बैठकर दिनभर के अपने कामों पर लिखना शुरू कर देते हैं । यह एक लेखक की पीड़ा है लेकिन राइटर्स ब्लॉक पर सटीक टिप्पणी भी है । 

डायरी से खुलती मन की गिरहें

दोपहर ग्यारह बजे लखनऊ से नरेश सक्सेना का फोन आया । उन्हें दस्तावेज का एक सौ चोदहवां अंक मिला है । उन्होंने कहा- हिंदी की सभी पत्रिकाओं में मुझे दस्तावेज सबसे अलग और विशिष्ट लगती है । इसकी साज-सज्जा ही नहीं इसमें छपी सामग्री भी । मेरा इससे ज्ञानवर्धन होता है । लेकिन आप वामपंथ विरोध क्यों जारी रखे हुए हैं ? मैंने कहा, आपके हाथ में जो अंक है उसी का संपादकीय देख जाइए तो पाएंगे कि मैंने सभी दलों के नेताओं का नाम ले लेकर विरोध किया है । इस अंक में किसानों की आत्महत्या शीर्षक संपादकीय है । क्या यह वामपंथ विरोध है ? नरेश सक्सेना ने मेरी बात को स्वीकार किया । असल बात यह है कि यह वामपंथी दुष्प्रचार है और वो अपने दल की आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते । यह पूरा प्रसंग दर्ज है साहित्य अकादमी के मौजूदा अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी की डायरी में और तारीख है बीस जून दो हजार सात ।उनकी डायरी को वाणी प्रकाशन नई दिल्ली ने पुस्तकाकार छापा है । नाम है – दिन रैन ।  अगर सतही तौर पर देखें तो ये दो साहित्यकारों के बीच की बातचीच है जो विश्वनाथ तिवारी ने अपनी डायरी में दर्ज कर ली है और अब उसका प्रकाशन हो गया है । लेकिन अगर इसका विश्लेषण करें तो विश्वनाथ तिवारी की एक पंक्ति पर गौर करना पड़ेगा जहां वो कहते हैं कि यह वामपंथी दुष्प्रचार है और वो अपने दल की आलोचवना बर्दाश्त नहीं कर पाते । दरअसल हिंदी साहित्य में वामपंथियों का ये दुष्प्रचार लंबे समय से चल रहा है । वो ना तो अपनी रचना की, ना ही अपने संगठन की, ना अपने पार्टी की और ना ही अपनी विचारधारा और तो और ना ही अपने कॉमरेड की आलोचना बर्दाश्त कर पाते हैं । आलोचना करनेवालों को दक्षिणपंथी, कलावादी, सरकारपरस्त, संघी आदि से लेकर जाने क्या क्या कहकर बदनाम किया जाता रहा है । रामधारी सिंह दिनकर को, अज्ञेय को, निर्मल वर्मा को और तो और अशोक वाजपेयी को भी वामपंथियों ने कहां बर्दाश्त किया । यह अलहदा बात है कि बदली हुई परिस्थिति में अशोक वाजपेयी वामपंथियों के सिरमौर बने हुए हैं ।दरअसल हिंदी साहित्य का यह दौर अवसरवादिता का दौर है और अशोक वाजपेयी की रहनुमाई में वामपंथी लेखकों का आना अवसरवादिता का बेहतरीन उदाहरण है । वामपंथी लेखकों के दुष्प्रचार और अवसरवादिता को हिंदी में लंबे समय से लक्षित किया जाता था लेकिन संस्थाओं और विष्वविद्यालयों के हिंदी विभागों पर उनके कब्जे की वजह से उनके खिलाफ कम लिखा जाता था । विश्वनाथ तिवारी जैसे लेखक यदा कदा वामपंथ के अंतर्विरोधों पर लेख आदि लिखा करते थे लेकिन उसपर कभी कोई विमर्श हुआ, हो याद नहीं आता । या तो इस तरह के लेखों का नोटिस ही नहीं लिया जाता था और अगर कही गले पड़ ही गया तो लेखक को संघी आदि कहकर साहित्यक अछूत करार देकर विमर्श से पीछा छुड़ा लिया जाता था ।
विश्वनाथ तिवारी की प्रकाशित डायरी दिन रैन में कई ऐसे प्रसंग हैं जो हिंदी साहित्य की बजबजाती दुनिया को बेनकाव करते हैं । जुलाई 2007 में विश्वनाथ तिवारी लिखते हैं, किसी भी भाषा में कुंठित लेखकों की कमी नहीं है । हर शहर में कुछ ऐसे हैं, जिनकी शिकायत है कि उनकी उपेक्षा हो रही है । एक दो की शिकायत कुछ सही भी हो सकती है क्योंकि हिंदी में पिछले कुछ दशकों से लेखक संगठनों के कारण साहित्यक माहौल धूमिल हुआ है तथा कुछ लेखक अन्य कारणों से चर्चित हो गए हैं । मगर शिकायत करनेवाले अधिकांश लेखकों का भुनभुनाना और बिसूरना निराधार है । उनमें ना तो प्रतिभा है, न अध्ययन, ना दृष्टि की चमक न सर्जनात्मक भाषा । अपना लिखा सबको अच्छा लगता है लेकिन जब वह दूसरों को प्रभानित करे तब ना । किसी को पद या पुरस्कार तो साहित्येतर प्रयत्नों से प्राप्त हो सकता है पर यश तो उसे आत्मप्रचार या सिफारिश से नहीं ही मिला करता । जिन लेखकों को अपने कर्म में गहरी आस्था नहीं होती वो कुंठित हो जाते हैं । जो अपने लेखन को ही सिद्धि मानते हैं वे लिखते भी रहते हैं और देर-सबेर प्रतिष्ठित भी होते हैं । लेखक की दुनिया में देर है पर बहुत अंधेर नहीं । अपनी इस छोटी सी टिप्पणी में विश्वनाथ तिवारी ने हिंदी के ज्यादातर लेखकों की कमजोरी नस दबा दी है । साथ ही तिवारी जी लेखक संगठनों की भूमिका को भी नकारात्मक मानते हैं और उसको साहित्य का माहौल खराब करने का जिम्मेदार ठहराया है । अपनी इस टिप्पणी में तिवारी साफ तौर पर संकेत करते हैं कि कुछ लेखकों के चर्चित होने की वजह लेखक संगठन और खास विचारधारा से उनकी प्रतिबद्धता है । यह कितना दुखद है कि किसी औसत लेखक को सिर्फ इसलिए चर्तित कर दिया जाए क्योंकि वो आपकी विचारधारा के झंडे की गुलामी स्वीकार कर रहा है । इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि वो प्रतिभाशाली है या नहीं, उसके लेखन में उसकी रचनाओं में धार है या नहीं । इस साहित्यक बेइमानी पर पूरी हिंदी पट्टी में बहस होनी चाहिए ।

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हिंदी लेखकों की आत्ममुग्धता पर भी कठोर टिप्पणी करते हैं । यह हिंदी साहित्य के लिए सचमुच बहुत भयावह स्थिति है कि यहां हर लेखक अपने को साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य मानता है । युवा लेखकों की एक पूरी फौज है जो इतनी आत्ममुग्ध है कि कहा नहीं जा सकता है । इन युवा लेखकों की आत्ममुग्धता को पंख लगते हैं फेसबुक की लाइक्स से । लाइक्स की वजह से वो इतना आत्मलिप्त हो जाता है कि उसको लगता है कि वो हिंदी साहित्य के हर पुरस्कार के योग्य है । अब इस आत्ममुग्धता को जब मंजिल नहीं मिलती है तो लेखक कुंठित होना शुरू हो जाता है । जैसे जैसे यह कुंठा बढ़ती जाती है तो वो फिर बदतमीजी पर उतारू हो जाता है और फेसबुक आदि के अराजक मंच पर अपनी भड़ास निकालना शुरू कर देता है । वह तटस्थ होकर अपने लेखन की कमजोरियों पर विचार करने की मानसिकता में नहीं रह जाता है । इस मानसिकता के आभाव में कभी वो नकली गंभीरता का आवरण धारण करता है जो उसकी रचनाओं में भी प्रतिबिंबित होकर उसको बोझिल बना देता है । बोझिलता उसको पाठकों से दूर कर देती है और यहीं से कुंठा और बढ़ जाती है । हिंदी साहित्य में खत्म होती विधा डायरी लेखन को इस किताब से प्राणवायु तो मिलेगी ही ये साहित्यक प्रवृत्तियों पर गंभीर विमर्श का आधार भी प्रदान करती है । 

Monday, May 2, 2016

हिसाब चुकाने की पवार की सियासत

बीजेपी को विधानसभा चुनाव में पटखनी देने के बाद नीतीश कुमार बुलंद हौसले के साथ बिहार की गद्दी पर सत्तासीन हुए । बिहार में चंद महीनों तक ही शासन करने के बाद अब उनकी महात्वाकांक्षा को पंख लग गए हैं । पहले तो उन्होंने संघ मुक्त भारत का नारा देकर तमाम कथित सेक्युलर पार्टी को अपनी ओर खींचने का दांव चला । अब हाल ही में इस तरह के संकेत दे दिए कि दो हजार बीस के विधानसभा चुनाव में उनकी रुचि नहीं है । संघ मुक्त भारत का ख्वाब और अगले विधानसभा चुनाव में अरुचि को छोटी पार्टियों के साथ विलय की बातचीत की पृष्ठभूमि में देखें तो एक तस्वीर नजर आती है । ये तस्वीर है राष्ट्रीय राजनीति में खुद की भूमिका को स्पष्ट करने की । नीतीश कुमार गैर बीजेपी दलों के साथ आने की वकालत करते हैं । ये पूर्व के तीसरे मोर्चे की असफल कोशिशों से इतर कोशिश है । बीजेपी के खिलाफ संभावित मोर्च में वो कांग्रेस की भूमिका भी देखते हैं । पहले तीसरे मोर्च को लेकर जितने भी प्रयोग हुए वो सारे लोहिया के सिद्धातों के आधार पर बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी रखने के सिद्धांत पर बने थे । खुद को लोहिया का अनुयायी कहनेवाले नीतीश कुमार अब कांग्रेस के साथ ना केवल बिहार में सरकार चला रहे हैं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी इस प्रयोग को आगे बढ़ाना चाहते हैं । इस वक्त बीजेपी की बढ़ती ताकत को लेकर लगभग हर क्षेत्रीय दल खुद को हाशिए पर महसूस कर रहे हैं और खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए बयानों के दांव चल रहे हैं । बीजेपी के अलावा अपने पुराने राजनीतिक प्रतिद्वद्यों को भी सेट करने का खेल खेला जा रहा है ।
नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो शरद पवार राजनीति के बेहद मंजे हुए खिलाड़ी हैं । महाराष्ट्र की राजनीति में दस सालों तक सत्ता में रहने के बाद इन दिनों विपक्ष में हैं । केंद्र की राजनीति में उनके दल की कोई भूमिका फिलहाल है नहीं । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बारामती बुलाने और अपने पचहत्तरवें जन्मदिन पर दिल्ली के विज्ञान भवन में तमाम राजनीतिक दलों को एक मंच पर इकट्ठा करने के बावजूद वो सियासत में अप्रसांगिक हैं । कांग्रेस को लेकर उनके मन में एक फांस अब भी है, उनको लगता है कि कांग्रेस ने उनके साथ न्याय नहीं किया । कांग्रेस में उनको उनके कद के हिसाब से पद नहीं मिला । तभी तो सोनिया गांधी ने जब पार्टी की कमान संभाली तो उन्होंने विदेशी का मुद्दा उठाकर पी ए संगमा और तारिक अनवर के साथ कांग्रेस का दामन छोड़कर अपनी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बना ली । ये तो सियासत की मजबूरी कहिए कि जिस सोनिया गांधी के मुद्दे पर उन्होंने कांग्रेस छोड़ी थी उसके साथ ही महाराष्ट्र में जूनियर पार्टनर के तौर पर सरकार चलानी पड़ी । सियासत की मजबूरी अपनी जगह है लेकिन फांस तो अब भी अटकी हुई है । अब उनको नीतीश की महात्वाकांक्षा में संभावना नजर आ रही है । उन्होंने हाल ही में कहा कि अगर विपक्षी दल एक साथ आते हैं नीतीश कुमार सबसे अधिक साखवाले चेहरा हो सकते हैं । इसके साथ ही पवार ने ये भी जोड़ा कि नीतीश कुमार जैसी साख वाला नेता कांग्रेस के पास नहीं है । शरद पवार ने कहा कि अगर बीजेपी के खिलाफ कोई मोर्चा बनता है तो उसकी अगुवाई करनेवालों में नीतीश का नाम नंबर वन पर है । शरद पवार ये मानते हैं कि इस तरह के किसी भी मोर्चे में कांग्रेस की बड़ी भूमिका हो सकती है । वो ये तो मानते हैं कि समय के साथ सोनिया गांधी की ना केवल स्वीकार्यता बढ़ी है बल्कि वो भी अकोमोडेटिव हुई हैं । शरद पवार के मुताबिक नीतीश कुमार सबको जोड़नेवाले शख्स के तौर पर उभर सकते हैं । पवार ने नीतीश के लिए सीमेंटिंग फोर्स शब्द का इस्तेमाल किया ।
अब पवार की राजनीति यहीं से शुरू होती है । एक तरफ जहां कांग्रेस में राहुल गांधी को पार्टी की कमान सौंपने की बात हो रही है वहीं वो राहुल के बारे में बेहद हल्की टिप्पणी करते हैं । शरद पवार ने कहा कि राहुल गांधी एक नेता के तौर पर उभर रहे हैं लेकिन उनके बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी । वो कहते हैं ये देखना होगा कि राहुल गांधी अगले तीन साल में किस तरह से परफॉर्म करते हैं । शरद पवार ने यहीं पर राजनीति की शातिर चाल चली, एक तरफ नीतीश को सीमेंटिंग फोर्स करार दे दिया तो दूसरी तरफ राहुल गांधी को किनारे करने की कोशिश की । पवार को लगता है कि अगर राहुल गांधी की केंद्रीय भूमिका होती है तो फिर उनके लिए कुछ शेष बचेगा नहीं । यह संभव नहीं है कि नीतीश कुमार के हालिया कांग्रेस प्रेम और राहुल गांधी के साथ उनकी केमिस्ट्री के बारे में पवार को पता नहीं हो । उन्होंने राजनीति की बेहद आजमाई चाल चली जहां दो सहयोगियों को आमने सामने खडा किया जाता है । हुआ भी यही । कांग्रेस के कुछ नेताओं ने शरद पवार के बयान को तवज्जो नहीं दी तो कुछ ने कहा कि राहुल गांधी की केंद्रीय भूमिका और कांग्रेस को अहमियत के बगैर इस तरह का कोई मोर्चा अर्थहीन होगा । मोर्चा चाहे बने या ना बने शरद पवार ने राहुल गांधी और नीतीश के बीच राजनीति का वो बीज तो बो दिया है जिसका फल कड़वा होने की आशंका है ।
नीतीश कुमार का गैर बीजेपी मोर्चा बनाने की रणनीति बहुत हद तक पांच राज्यों के चुनावी नतीजों पर निर्भर करता है । अगर बीजेपी को असम में जीत मिलती है तो इस मोर्चे की सुगबुगाहट थोड़ी थम सकती है लेकिन अगर बीजेपी असम विधानसभा चुनाव में सफलता का परचम नहीं लहरा सकती है तो एक बार फिर से देश में पॉलिटिकल रिअलायनमेंट की संभावना बनने लगेगी । ये रिअलायनमेंट कितना सफल हो पाएगा इसमें संदेह है क्योंकि यूपी की समाजवादी पार्टी ने साफ कर दिया है कि इस तरह के मोर्चे में वो तभी शामिल हो सकते हैं जबकि नेताजी यानि मुलायम सिंह यादव को सभी दल अपना नेता मानें । बीएसपी ने भी शरद पवार के बयान से पल्ला झाड़ते हुए साफ कर दिया है कि इस तरह की बातें करना अभी जल्दबाजी है । बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी महागठबंधन बनाने की काफी कवायद हुई थी लेकिन मुलायम सिंह यादव उससे अलग हो गए थे और वो योजना बैठकों तक ही सीमित रह गई थी । नतीज चाहे जो हो लेकिन इतना तय है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद सियासत अपने चरम पर होगी ।