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Saturday, October 26, 2013

खत्म होते पुस्तकालय

आजकल हिंदी साहित्य के तमाम मसले सोशल नेटवर्किंग साइट् फेसबुक पर हल हो रहे हैं । विवाद से लेकर विमर्श तक । कुछ लेखकों को फेसबुक की अराजक आजादी ने एक ऐसा मंच मुहैया करवा दिया है जहां वो अपनी अपनी कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं । कोई वहां बेहतरीन कवि, कहानी, उपन्यासकार, आलोचक और पत्रकार की सूची चिपकाते रहते हैं तो कई लोग उसको अपने प्रचार का प्लेटफॉर्म मानकर उपयोग कर रहे हैं । फेसबुक किसी भी मुद्दे या घटना के खिलाफ या समर्थन के अभियान का मंच भी बन गया है । इस आभासी दुनिया की अराजक आजादी के दौर में कुछ गंभीर मसले भी अभी फेसबुक पर उठ रहे हैं । इसी तरह का एक गंभीर अभियान फेसबुक पर चल रहा है - चलो करनाल । साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों से करनाल जाने की अपील इस वजह से की जा रही है कि वहां के पाश पुस्तकालय को बंद करने की साजिश हो रही है । पाश पुस्तकालय ने करनाल और आसपास के इलाके में साहित्यक सांस्कृतिक चेतना जगाने का और एक सांस्कृतिक संस्कार विकसित करने का काम किया है । वहां पुस्तकालय के अलावा देश भर के लेखकों और रंगकर्मियों का जमावड़ा होता रहा है । लेकिन अब उस साहित्यक सांस्कृतिक केंद्र को बंद करने की कोशिश की जा रही है । हिंदी का साहित्य समाज इससे उद्वेलित है । कुछ दिनों पहले इस तरह की खबरें आई थी कि दिल्ली की मशहूर और ऐतिहासिक लाइब्रेरी दिल्ली बल्कि लाइब्रेरी के कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल पा रहा है । दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बदहाल है वहां मूलभूत सुविधाओं का आभाव है । कर्मचारियों के वेतन पर संकट के अलावा पुस्तकालय की किताबों और पत्र-पत्रिकाओं को सहेजने के लिए भी आवश्यक धनराशि की कमी है । लिहाजा ऐतिहासिक महत्व की किताबें नष्ट हो रही हैं या उनके नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया है । कमोबेश यही हालत देशभर के पुस्तकालयों का है । यह हालत तो तब है कि जबकि पुस्तकालयों में किताबों की सरकारी खरीद के लिए लंबा चौड़ा बजट है । किताबों की खरीद के लिए संस्कृति मंत्रालय के अधीन राजा राम मोहन राय के नाम से एक ट्रस्ट है । यह ट्रस्ट देशभर के सरकारी और गैरसरकारी पुस्तकालयों को किताबों की खरीद के लिए अनुदान देता है । इस ट्रस्ट में विभिन्न मंत्रालयों और सरकारी विभागों के अधिकारियों की अलग अलग समिति होती है । इसके अलवा सांसदों के स्थानीय विकास निधि में भी एक निश्चित धनराशि पुस्तकों के लिए आरक्षित करने का भी प्रावधान है। सांसद उस धनराशि का उपयोग हर साल अपने इलाके के स्कूलों में किताबें खरीदने के लिए अनुदान के तौर पर दे सकते हैं । बावजूद इसके हमारे देश में पुस्तकालय मरणासन्न हो रहे हैं । एक जमाना था जब पुस्तकालयों की अहमियत इतनी ज्यादा थी कि उसके बगैर छात्रों और शोधार्थियों का काम ही नहीं चलता था । मैं कई ऐसे लेखकों को जानता हूं जो किसी लेखक की रचनावली पर काम करने के सिलसिले में कोलकाता के नेशनल लाइब्रेरी में महीनों तक किताबें और पत्र-पत्रिकाएं छानते रहे हैं । मुझे नब्बे के दशक के अपने दिल्ली विश्वविद्यालय के शुरुआती दिन भी याद आते हैं जब हम अपने छात्र जीवन के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस के सेंट्रल रेफरेंस लाइब्रेरी में नियमित जाया करते थे । यह नियमितता वैसी ही थी जैसी कि दफ्तर जाने की होती है । तय समय पर घर से निकल जाना और फिर भोजनावकाश के बाद फिर से वहां जाकर शाम तक डटे रहना । पुस्तकालय में पढ़ने के माहौल के अलावा भी नियमितता की एक अन्य वजह थी । वह वजह थी वहां पहुंचने वालों छात्रों की भीड़ । अगर आप दस मिनट भी लेट हो गए तो आपको लाइब्रेरी में जगह नहीं मिलती थी और आपको निराश होकर वापस लौटना पड़ता था । लेकिन अब वहां के हालात भी बदलने लगे हैं । सभी लाइब्रेरी की तरह वो भी उदासनीता का शिकार होने लगा है ।
पुस्तकालयों के प्रति उदासीनता और उनकी बदहाली के लिए हमें इसके सामाजिक और अन्य कारणों की पड़ताल करनी चाहिए । जब हम अपने आसपास देखते हैं तो ये सारी वजहें हवा में तैरती नजर आती है । कई विद्वानों का मानना है कि पुस्तकालयों की दुर्गति के लिए इंटरनेट जिम्मेदार है । अब लोगों की मुट्ठी में मौजूद इंटरनेट युक्त मोबाइल फोन और टैबलेट पर गूगल बाबा हर वक्त हर तरह की मदद को तैयार रहते हैं । आपने कुछ सोचा और पलक झपकते वो आपके सामने लाखों परिणाम के साथ हाजिर है । इस तर्क में ताकत है और हो सकता है कि पुस्तकालयों के प्रति हमारी उपेक्षा का यह भी एक कारण हो । लेकिन पुस्तकालयों के प्रति उपेक्षा की जो सबसे बड़ी वजह है वो है हमारी शिक्षा पद्धति । हमारी शिक्षा पद्धति ही इतनी दोषपूर्ण है कि वहां पुस्तकालयों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता है । जिस तरह से देशभर में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का जाल फैला है उसने भी पुस्तकालयों को स्कूल की शोभा भर बना दिया है । अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में इस बात पर जोर तो रहता है कि छात्रों को खेलकूद, नृत्य संगीत से लेकर स्केटिंग में रुचि विकसित की जाए, लेकिन क्या इन स्कूलों में छात्रों को पुस्तकालयों से उपन्यास या कहानी या कोई अन्य किताब पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है । अगर हम इसका उत्तर ढूंढते हैं तो अंधकार दिखाई देता है । आज हमारी शिक्षा प्रणाली में परीक्षा में आनेवाले अंक इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि उसके अलावा किसी अन्य चीज पर छात्रों, अध्यापकों और अभिभावकों का फोकस ही नहीं रहता है । छात्रों की इस तरह से कंडीशनिंग की जाने लगी है कि उसके लिए पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य किसी पुस्तक का महत्व ही नहीं रह गया है । अन्य पुस्तकों का महत्व रहे भी क्यों क्योंकि वो पाठ्य पुस्तक तो हैं भी नहीं ।
आज हालात यह है कि नई पीढ़ी के छात्र-छात्राओं को लाइब्रेरी कार्ड का तो पता है लेकिन उनको लाइब्रेरी का कैटलॉग देखना आता हो इसमें संदेह है । कार्ड तो इसलिए पता है क्योंकि नामांकन के साथ ही आपका लाइब्रेरी कार्ड बन जाता है । कैटलॉग देखना सीखने के लिए तो पुस्तकालय जाना होगा । वहां जाना किसी भी स्कूल में अनिवार्य नहीं है । इन अंग्रेजी स्कूलों में लाइब्रेरी पीरियड भी होता है लेकिन उसमें बच्चे पुस्तकालय से ज्यादा वक्त स्कूल परिसर से लेकर खेल के मैदान में बिता देते हैं । स्कूल के अलावा अगर हम इसके सामाजिक वजहों को देखों तो वहां भी पुस्तक को लेकर एक खास किस्म की उपेक्षा का भाव दिखाई देता है । आज बच्चों के जन्मदिन के मौके पर दिए जानेवाले उपहार में किताब नहीं ही होते हैं । इलेक्ट्रॉनिक गेम्स से लेकर बल्ले और गेंद तक उपहार में दिए जा रहे हैं । मां-बाप के अंदर भी अपने बच्चों को पुस्तक देने की प्रवृत्ति लगभग खत्म होती जा रही है । इन सामाजिक वजहों से जब पुस्तक को लेकर उपेक्षा का भाव लगातार मजबूत होता जा रहा है तो उसके आलय यानि पुस्तकालय का उपेक्षित होना तो स्वाभाविक है ।
दूसरी बात जो पुस्तकालयों की उपेक्षा को लेकर है वह है पुस्तकालयों में किताबों की खरीद । पूरे हिंदी जगत को यह तथ्य पता है कि राजा राम मोहन राय ट्रस्ट में किताबों की खरीद या फिर उसकी अनुशंसा में किस तरह के खेल होते हैं । अंट-शंट किताबों की सरकारी खरीद होती है । कुछ गंभीर पाठक जब नई कृतियों की तलाश में अपने पास के पुस्तकालय में पहुंचता है तो वहां स्तरहीन किताबें देखकर उसका मन खट्टा हो जाता है । अगली बार पुस्तकालय जाने से पहले वो दस बार सोचता है । अगर कहीं जाने के लिए किसी को भी दस बार सोचना पड़े तो समझ लीजिए की उपेक्षा की जमीन तैयार हो रही है । हमारे देश के पुस्ताकालयों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है । अगर हमें अपने देश में पुस्तकालय या पढ़ने की संस्कृति का विकास करना है तो सर्वप्रथम हमारी शिक्षा प्रणाली की खामियों को दूर करना होगा । पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकों के बारे में एक ऐसा मैकेन्जिम बनाना होगा कि नई पीढ़ी के लड़के-लड़कियां उन्हें भी पढ़ें । इसके अलावा समाज में जागृति पैदा करने के लिए सरकारी और गैरसरकारी संगठनों को काम करना होगा ताकि मां-बाप अपने बच्चों को किताबों के करीब ले जाएं । सरकारी खरीद में हो रहे घपलों पर लगाम लगाने के लिए भी जतन करने होंगे । अगर हम ये तीन काम भी कर लेते हैं तो हमें विश्वास है कि कोई भी पाश पुस्तकालय को बंद करने की साजिश नहीं रच पाएगा, मशहूर पुस्तकालय उपेक्षा के शिकार नहीं होंगे । अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो फिर पुस्तकालय इतिहास के खंडहर बन जाएंगें ।

Thursday, October 24, 2013

विवेकानंद पर विशिष्ट

मेरा मानना है कि साहित्यक पत्र-पत्रिकाएं साहित्य का वो मंच है जहां साहित्य की सभी विधाओं में नई छप रही रचनाओं के अलावा समकालीन साहित्यक विमर्श और विवादों पर लेखकों की राय और पाठकों की प्रतिक्रिया होती है । हिंदी में इस वक्त नया ज्ञानोदय, हंस, कथादेश और पाखी के अलावा साहित्य अमृत की निरंतरता के साथ निकल रही है । हंस और पाखी तो अपने यहां साहित्यक विवादों को नियमित रूप से जगह देते रहे हैं । कथादेश भी अपने खांचे में अपने पसंदीदा लेखकों से विवादों पर विमर्श करवाते रहते हैं । छिनाल विवाद के पहले ज्ञानोदय में भी साहित्यक विवादों को जगह मिलती रही थी । लेकिन छिनाल विवाद के बाद ज्ञानोदय ने अपने आपको साहित्यिक विधाओं पर केंद्रित कर लिया है । इन सबके बीच साहित्य अमृत में कभी भी विवादों को जगह नहीं मिली । मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन एक बार मैंने किसी साहित्यक विवाद पर साहित्य अमृत को एक लेख भेजा था । लेकिन पियूष जी ने बेहद विनम्रतापूर्वक अपनी संपादकीय नीति की जानकारी देते हुए मेरा लेख वापस कर दिया था । पिछले दो साल से मैं लगातार साहित्य अमृत को देख-पढ़ रहा हूं । चौथी दुनिया में एकाधिक बार उसके अंकों और संपादकीयों के बहाने टिप्पणी भी कर चुका हूं । अभी अभी साहित्य अमृत ने एक बेहद काम किया है जिसको हिंदी साहित्य में रेखांकित किया जाना चाहिए । साहित्य अमृत ने अपने अगस्त अंक को स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित किया है । सवा तीन सौ पन्नों के इस महाविशेषांक को पढ़ने के बाद विवेकानंद के विचारों और उनके व्यकतित्व को मोटे तौर पर समझा जा सकता है । इस अंक में विवेकानंद पर निराला जी का लिखा चर्तित लेख- वेदांत केशरी स्वामी विवेकानंद भी है । अपने इस लेख में निराला ने स्वामी विवेकानंद के चमत्कारी व्यक्तित्व और पराधीनता के दौर में लोगों में राष्ट्रीय चेतना पैदा करने की उनकी क्षमता को उकेरा है । इलके अलावा इस अंक में विवेकानंद पर लिखे- प्रेमचंद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, रोम्या रोलां, भगिनी निवेदिता से लेकर गिरिराज किशोर, देवेन्द्र स्वरूप, कृष्णदत्त पालीवाल, बी के कुठियाला, मृदुला सिन्हा तक के लेख संकलित किए गए हैं । संयोग यह है कि इस अंक से साहित्य अमृत के साथ वरिष्ठ लेखक प्रकाश मनु भी संयुक्त संपादक के रूप में जुड़े हैं । अपने संपादकीय में त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी ने विवेकानंद के कोलकाता के एक भाषण का अंश उद्धृत किया है- क्या हमें हमेशा पाश्चात्यों के चरणों में बैठकर हर चीज उनसे सीखनी होगी, यहां तक कि धर्म भी । हम उनसे क्रियाविधि सीख सकते हैं । हम उनसे और कई चीजें सीख सकते हैं । लेकिन हमें भी उन्हें कुछ पढ़ाना होगा और वह है हमारा धर्म, हमारी आध्यात्मिकता । अत: बाहर जाना चाहिए । समानता के बिना मैत्री नहीं हो सकती और हमारा एक पक्ष सदा अध्यापक की तरह रहे और दूसरा सदैव शिष्य की तरह चरणों में बैठे तो समानता नहीं हो सकती । यदि तुम अंग्रेजों अथवा अमेरिकनों से बराबरी चाहते हो तो तुम्हें पढ़ना और उनसे कुछ सीखना होगा और तुम्हारे पास उनको सदियों तक पढ़ाने के लिए बहुत कुछ है । अब इस कथन से स्वामी विवेकानंद की उस वक्त की सोच को समझा जा सकता है । अपने देश के धर्म और दर्शन में विवेकानंद की अगाध श्रद्धा थी और उनको उसपर भरोसा भी था । उनके उपर के इस कथन- तुम्हारे पास उनको सदियों तक पढ़ाने के लिए बहुत कुछ है- से उनका भरोसा साफ तौर पर दिखता है । कुल मिलाकर विवेकानंद पर साहित्य अमृत का यह अंक बेहद उपयोगी और संग्रहणीय है ।

हाल ही मैं हंस संपादक राजेन्द्र यादव ने भागलपुर, बिहार से निकलनेवाली पत्रिका- किस्सा -का अंक भिजवाया । इसके प्रधान संपादक शिवकुमार शिव और संपादक डॉ योगेन्द्र हैं । पत्रिका के मुखपृष्ठ पर भागलपुर विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे डॉ राधाकृष्ण सहाय की भव्य फोटो छपी है । पत्रिका का कवर देखकर मैं एकदम से ठिठका । नब्बे के शुरुआती दशक में एक बार कभी डॉक्टर सहाय से मेरी मुलाकात हुई थी । उस मुलाकात की बहुत धुंधली सी तस्वीर मेरे मन पर है । संभवत साहित्यक पत्रिका संवेद के जमालपुर से निकलने का दौर था । डॉ राधाकृष्ण सहाय को तब मैं एक गंभीर नाटककार के रूप में जानता था । बाद में मुझे पता चला कि वो कहानियां भी लिखते हैं । बाद में यह भी पता चला कि डॉ सहाय हमारे परिवार से जुड़े हैं । मेरी भाभी बेहद श्रद्धा के साथ डॉ सहाय और उनकी पत्नी प्रोफेसर मालती को याद करती रहती हैं । इस साल जून में भागलपुर गया था तो यह सोचकर गया था कि डॉ सहाय से मिलूंगा लेकिन मुलाकात नहीं हो पाई । शादी में रातभर जगा होने के बाद जब मैं सुनील भैया से मिलने महेश अपार्टमेंट गया तो डॉ सहाय के बारे में दरियाफ्त की । उनके बारे में काफी चर्चा भी हुई । भैया और बड़की बहिन दोनों बहुत आदर के साथ डॉक्टर सहाय के बारे में बात कर रहे थे । मिलने की इच्छा और प्रबल हो रही थी । लेकिन डॉ सहाय के भागलपुर से बाहर होने की वजह से उनसे मुलाकात नहीं हो पाई । अब जब किस्सा के अंक के कवर पर उनकी फोटो देखी तो मुलाकात नहीं हो पाने का अफोसस और बढ़ गया । इस अंक में डॉ सहाय की कहानी -खुदा हाफिज और संस्मरण के तौर पर -ढंग अपना अपना प्रकाशित है । ढंग अपना अपना में उनके जर्मनी प्रवास के दौरान पान और पारिवारिक संस्कार का बेहतरीन चित्रण है । संपादकीय में डॉ योगेन्द्र ने बताया है कि उनकी कहानी -खुदा हाफिज का 1971 में अज्ञेय ने अनुवाद किया था और वॉक पत्रिका में उसको प्रकाशित किया था । डॉ सहाय की दो रचनाएं पढ़ने के बाद उनकी कहानियां पढ़ने की ललक पैदा हुई है । इस अंक में इसके अलावा राजेन्द्र यादव पर दिनेश कुशवाह का लेख देखा जा सकता है । किस्सा पत्रिका का प्रोडक्शन शानदार है । चमकते हुए कागज का उपयोग किया गया है । छपाई सफाई अच्छी है । इसके पहले के दो अंक मैंने नहीं देखे हैं लेकिन अगर संपादकगण पत्रिका की निरंतरता बरकरार रख सके तो आनेवाले दिनों में इस पत्रिका में अपनी पहचान बना लेने के संकेत मिल रहे हैं ।

एक पत्रिका मुझे डाक से मिली क्रमश: । यह पत्रिका सृजनात्मक अनुभव का अनवरत सिलसिला होने का दावा करती है । इसके संपादक सत्येन्द्र हैं । पत्रिका का यह अंक कवि लेखक स्व संजय कुमार गुप्त पर केंद्रित है । इस अंक का संपादन शैलेन्द्र चौहान ने किया है । संजय कुमार गुप्त बालाघाट में कॉलेज शिक्षक थे और समकालीन हिंदी साहित्य में कविताएं और टिप्पणियां लिखकर हस्तक्षेप कर रहे थे । उनकी असमय मौत से एक संभावनाशील लेखक हमारे बीच नहीं रहा । क्रमश: के इस अंक में स्वर्गीय संजय की रचनाओं को एक जगह इकट्ठा कर पाठकों के सामने रखा गया है । संजय की कविताओं में एक खास किस्म का विद्रोह और विट दोनों दिखाई देता है । जब वो कहते हैं- आओ/गालियों को एक नए सिरे से जिंदा करें/गालियों की प्रशस्ति में गीत लिखें/आज नपुंसकता के देह समय में/ शायद गालियां वियाग्रा की गोलियां सिद्ध हो । इस कविता के बिंब आधुनिक हैं । आज की आपाधापी में जब किसी को सिवाए अपने दूसरे की फिक्र नहीं । वैसे समय में अपने स्वर्गीय मित्र पर अंक पत्रिका का अंक केंद्रित करना आश्वतिकारक है । जो रचेगा वो जरूर बचेगा ।

महात्वाकांक्षाओं का हवाई गठबंधन

लोकसभा चुनाव के करीब आने की वजह से अगली सरकार के विकल्पों को लेकर अटकलें तेज होने लगी हैं । चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भी आगामी लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी या गठबंधन को बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है । यूपीए और एनडीए से ज्यादा सीटें अन्य पार्टियों के खाते में जाती नजर आ रही हैं । इन कयासों के बीच तीसरे मोर्चे की संभावना पर विचार और मेल मुलाकातों का दौर शुरू हो गया है । लोकतंत्र में जनता से किसी भी राजनीतिक दल को ताकत मिलती है । विचारधारा जनता को पार्टी से जोड़ने का काम करती है ।  विचारधारा को जनता तक पहुंचाने के लिए मजबूत पर लचीले संवाहक की जरूरत होती है । संवाहक ऐसा हो जिसकी साख हो और जनता को उस साख पर भरोसा हो । संवाहक की साख ना हो तो विचारधारा में चाहे कितना भी ओज हो, वो जनता के बीच भरोसा पैदा नहीं कर सकती है । तीसरे मोर्चे के संभावित दलों और उनके नेताओं में इतने ज्यादा अंतर्विरोध है कि उनका साथ आना मुमकिन लगता नहीं है । विचारधारा की कोई डोर उनको एकजुट कर नहीं सकेगी । मायावती किसी भी हाल में मुलायम के साथ नहीं जा सकती, नीतीश और लालू एक साथ आ नहीं सकते, लेफ्ट और ममता बनर्जी एक मंच साझा नहीं कर सकते तो सरकार में कैसे शामिल हों , डीएमके और एआईएडीएमके की सत्ता में साझी भागीदारी हो नहीं सकती । वाईएसआर कांग्रेस और तेलगु देशम पार्टी भी एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते । ऐसे में तीसरे मोर्चे की अटकल या संभावना को हकीकत में बदल देना बहुत मुश्किल काम है । हमारे देश ने नब्बे के आखिरी दशक में तीसरे मोर्चे की सरकारों का दौर देखा है । उस दौर की राजनीति को याद करें तो सीपीएम नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के बिना उसकी कल्पना नहीं हो सकती है।  चाहे वो वीपी सिंह की सरकार हो या उसके बाद के लिए चंद चंद महीनों के लिए बनी देवगौड़ा और गुजराल की सरकारें हों, सबके गठन में हरकिशन सिंह सुरजीत की जबरदस्त भूमिका रही है, बल्कि कह सकते हैं कि उस वक्त देश की राजनीति के सुरजीत धुरी थे । वाम दलों को एकजुट करने के अलावा सुरजीत ने सभी दलों को एकसाथ लाने में महती भूमिका निभाई थी । यह सुरजीत का ही कमाल था कि वी पी सिंह की सरकार को वामपंथी दलों के साथ साथ दक्षिणपंथी दल का भी समर्थन मिला । लेकिन इस वक्त की राजनीति में सुरजीत जैसा कोई विराट राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं है जो तमाम अलग अलग विचारधाराओं और महात्वाकांक्षओं को काबू में कर सके और उनको एक मंच पर ला सकें ।
सुरजीत के निधन के बाद हाल के वर्षों में वाम दलों की जनता के बीच प्रासंगिकता भी लगभग खत्म होती नजर आ रही है । वाम दल तीसरे मोर्च की धुरी बन सकते थे लेकिन ये दल खुद ही हाशिए पर हैं । ऐसा नहीं है कि वाम दल सिर्फ पश्चिम बंगाल में हाशिए पर हैं । बिहार और अन्य सूबों की राजनीति में हमेशा से वामपंथी पार्टियां एक तीसरी ताकत के साथ मजबूती से उपस्थित रही हैं । अब इन सूबों में भी वाम दलों की उपस्थिति नगण्य मात्र है । अगर त्रिपुरा को छोड़ दें तो वो कहीं सत्ता में नहीं है । केंद्र की राजनीति में भी वो अलग थलग पड़े हुए हैं और अपनी भूमिका की तलाश के लिए हाथ-पांव मारते भी नजर नहीं आ रहे हैं । ले देकर सांप्रदायिकता के नाम पर धर्मनिरपेक्ष दलों को एकजुट करने का एक प्रयास हो रहा है । जनता को जोड़ने के बजाए वो नेताओं को जोड़ने में ज्यादा श्रम करते नजर आ रहे हैं । उससे तो यह लगता है कि जिस पार्टी की पहचान ही संघर्ष और जुझारूपन था वही सुस्त पड़ गई है । वाम दलों के नेताओं में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की कोशिश भी दिखाई नहीं देती । क्या बुर्जुआ से लोहा लेने का नारा बुलंद करनेवाले वाम दलों के नेता खुद बुर्जुआ होकर आराम परस्त हो गए हैं । लंबे समय तक वाम दलों की राजनीति करनेवाले और लोकसभा के पूर्व स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने वाम दलों की इस गत के लिए शीर्ष नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया है । ।
देश में सबसे ज्यादा लोकसभा सीट वाले राज्य उत्तर प्रदेश में हालत सबसे ज्यादा उलझी हुई है । अस्सी सीटों वाले इस सूबे में चतुष्कोणीय मुकाबला होता दिख रहा है । अगर भाजपा को मोदी फैक्टर का लाभ होता है तो उसकी सीटें बढ़ सकती हैं । मायावती और मुलायम की सीटें बीस से तीस के आसपास रहने की उम्मीद है । कांग्रेस को यहां जबरदस्त नुकसान होता दिख रहा है । ऐसे में मुलायम और मायावती को एक साथ लाकर तीसरे मोर्चे के स्वपन को साकार करना टेढी खीर है । अन्य दलों के बीच मुलायम की विश्वसनीयता भी संदिग्ध है । राष्ट्रपति चुनाव के वक्त मुलायम ने जिस तरह से ममता बनर्जी को धोखा दिया था उसको ममता भूल नहीं पाईं होंगी । उधर बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के तीन बड़े नेता की महात्वाकांक्षा भी हिलोरें ले रही हैं । नीतीश कुमार चाहे लाख इंकार करें कि वो प्रधानमंत्री पद की रेस में नहीं हैं लेकिन वो अपने आपको बेहद चालाकी से पोजिशन कर रहे हैं । नीतीश कुमार की रणनीति यह है कि वो अपने आपको नो नानसेंस और विकास पुरुष के तौर पर पेश करें । नीतीश कुमार की दिक्कत यह है कि भाजपा से गंठबंधन टूटने के बाद लोकसभा में उनके सदस्यों की संख्या कम हो सकती है । अगर ऐसा होता है तो उनकी महात्वाकांक्षा पर लगाम लगेगी और उनकी दावेदारी भी कमजोर होगी । उधर ममता बनर्जी के मूड और स्वभाव में उतार चढ़ाव को देखते हुए अन्य पार्टियों के उनके नाम पर सहमत होना संभव नहीं हैं । ले देकर बचते हैं नवीन पटनायक । नवीन पटनायक सौम्य हैं , ओडिशा में उनके शासनकाल में जबरदस्त विकास भी हुआ है । पाइलीन तूफान के वक्त पूरे देश ने उनकी प्रशासनिक क्षमता को भी देखा । इस बात की भी संभावना है कि उनकी पार्टी को लोकसभा में सीटें भी ठीक ठाक आ जाएं । लेकिन नवीन को अगर सबसे समर्थन का भरोसा नहीं होगा तो वो ओडिशा से निकलने में हिचक दिखाएंगें ।

अब इन सबसे अहम बात यह है कि तीसरे मोर्चे की सरकार को भाजपा या काग्रेस के समर्थन की भी जरूरत पड़ेगी । तथाकथित तीसरे मोर्चे की पार्टियों की विचारधारा को देखते हुए इस वक्त यह बात कही जा सकती है कि वो कांग्रेस के करीब है । भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने में ममता बनर्जी से लेकर नीतीश, मुलायम और नवीव पटनायक को दिक्कत होगी । लिहाजा सांप्रदायिकता की दुहाई देकर उनको कांग्रेस का ही समर्थन लेना होगा । अब कांग्रेस की वैशाखी पर चलनेवाली सरकार के सामने यह मजबूरी भी होगी कि उसकी नीतियों से हटे ना । कांग्रेस पार्टी भी अपने समर्थन की जमकर कीमत वसूलेगी । एक सिपाही की तैनाती पर चंद्रशेखर की सरकार गिरा देनेवाली पार्टी लगातार इस कोशिश में रहेगी कि किस तरह से सरकार चला रहे लोगों को डिसक्रेडिट किया जाए और फिर साख के सवाल पर सरकार गिराकर चुनाव के मैदान में ताल ठोंकी जाए । कहावत है कि इतिहास खुद को दोहराता है । लेकिन सवाल यह है कि तीसरे मोर्च की सरकार देश के लिए कितना फायदेमंद है । अभी तक के तीसरे मोर्च की सरकारों का अनुभव देश के लिए बहुत बुरा रहा है । क्षेत्रीय क्षत्रपों की महात्वाकांक्षाओं के टकराव में नीतिगत निर्णयों से लेकर नियमित प्रशासनिक फैसलों में भी देरी होती है जो किसी भी देश के लिए ठीक नहीं है । इन सारी परिस्थियों के मद्देनजर 2014 का चुनाव हमारे लोकतंत्र की मैच्युरिटी का भी टेस्ट होगा । 

Wednesday, October 23, 2013

भागो नहीं बदलो

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों के बाद हुए लोकसभा उपचुनाव से लेकर स्थानीय निकायों तक के चुनाव में वामदलों का सूपड़ा साफ होता रहा है । समय समय पर हुए इन चुनावों से साफ तौर पर ये संकेत मिल रहे हैं कि वामपंथी दल बंगाल में अपने को खड़ा नहीं कर पा रहे हैं । या फिर दशकों तक सत्ता पर काबिज रहने की वजह से नेतृत्व का जुझारूपन कुंद हो गया है । या फिर जनता के बीच वाम दलों के कुशासन को लेकर जो गुस्सा था वो कम नहीं हो पा रहा है । हाल के पश्चिम बंगाल के स्थानीय निकाय चुनावों या फिर लोकसभा उपचुनाव में जिस तरह से वहां वाम दलों के गठबंधन का सूपड़ा साफ हुआ उससे एक बार फिर से वाम दलों के सामने चुनौती खड़ी हो गई है । वामपंथी विचारधारा से मोहभंग को मैं इसकी वजह इसलिए नहीं मानता क्योंकि अगर वो कोई कारक होता तो नतीजे सोवियत रूस के पतन के बाद ही दिखाई देने लगते । मेरी समझ से ये कुशासन का नकीजा है । जनतंत्र के नाम पर जनता के साथ तानाशाही व्यवहार उसकी एक वजह हो सकती है । लोकतंत्र में जनता से किसी भी राजनीतिक दल को ताकत मिलती है । विचारधारा जनता को पार्टी से जोड़ने का काम करती है ।  विचारधारा को जनता तक पहुंचाने के लिए मजबूत पर लचीले संवाहक की जरूरत होती है । संवाहक ऐसा हो जिसकी साख हो और जनता को उस साख पर भरोसा हो । संवाहक की साख ना हो तो विचारधारा में चाहे कितना भी ओज हो लेकिन वो जनता के बीच भरोसा पैदा नहीं कर सकती है । हाल के वर्षों में वाम दलों के साथ ऐसा ही हो रहा है । ऐसा नहीं है कि वाम दल सिर्फ पश्चिम बंगाल में हाशिए पर हैं । बिहार और अन्य सूबों की राजनीति में हमेशा से वामपंथी पार्टियां एक तीसरी ताकत के साथ मजबूती से उपस्थित रही हैं । अब इन सूबों में भी वाम दलों की उपस्थिति नगण्य मात्र है । अगर त्रिपुरा को छोड़ दें तो वो कहीं सत्ता में नहीं है । जिस तरह से केंद्र की राजनीति में भी वो अलग थलग पड़े हुए हैं और अपनी भूमिका की तलाश के लिए हाथ-पांव मारते भी नजर नहीं आ रहे हैं । ले देकर सांप्रदायिकता के नाम पर धर्मनिरपेक्ष दलों को एकजुट करने का एक प्रयास हो रहा है । उससे तो यह लगता है कि जिस पार्टी की पहचान ही संघर्ष और जुझारूपन था वही सुस्त पड़ गई है ।
अगर हम भारतीय राजनीतिक इतिहास में ज्यादा पीछे नहीं जाएं और नब्बे के दशक की राजनीति को याद करें तो सीपीएम नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के बिना उसकी कल्पना नहीं हो सकती है।  चाहे वो वीपी सिंह की सरकार हो या उसके बाद के लिए चंद चंद महीनों के लिए बनी देवगौड़ा और गुजराल की सरकारें हों, सबके गठन में हरकिशन सिंह सुरजीत की जबरदस्त भूमिका रही है, बल्कि कह सकते हैं कि उस वक्त देश की राजनीति के सुरजीत धुरी थे । अब जबकि लोकसभा चुनाव सर पर आ गए हैं । सात महीने से भी कम वक्त बचे हैं । तमाम तरह के ओपनियन पोल और चुनावी पंडित इस बात के संकेत दे रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलने जा रहा है । ऐसे हालात में भी वाम दलों के नेताओं में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की कोशिश भी दिखाई नहीं देती । क्या बुर्जुआ से लोहा लेने का नारा बुलंद करनेवाले वाम दलों के नेता खुद बुर्जुआ होकर आराम परस्त हो गए हैं । नफरत बहुधा प्यार में बदल जाती है ।
लंबे समय तक वाम दलों की राजनीति करनेवाले और लोकसभा के पूर्व स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने वाम दलों की इस गत के लिए शीर्ष नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया है । सोमनाथ दा ने कहा कि जिस तरह से खेल में हार या जीत का सेहरा कप्तान या कोच के सर बंधता है उसी तरह से राजनीति में भी हार या जीता का सेहरा टीम के कप्तान के सर होना चाहिए । उन्होंने कहा कि फुटबॉल के खेल में लगातार हार के बाद कोच को बदल दिया जाता है उसी तरह से राजनीति में भी लगातार हार के बाद नेतृत्व परिवर्तन होना चाहिए । सोमनाथ चटर्जी का सीधा-सीधा इशारा प्रकाश करात की तरफ था । प्रकाश करात से उनकी अदावत पुरानी है । अमेरिका से परमाणु करार के दौरान पार्टी के हुक्म को नहीं मानने पर करात ने सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा स्पीकर रहते हुए पार्टी से निकाल दिया था । सोमनाथ चटर्जी ने अपनी आत्मकथा में विस्तार से इस प्रसंग पर लिखा है । उन्होंने प्रकाश करात की तानाशाही के बारे में साफ साफ लिखा है । दरअसल वाम दलों के बारे सोमनाथ चटर्जी ने जो बात कही है या फिर नेतृत्व बदलने की जो राय दी है उसमें एक पुराने कॉमरेड का दर्द झलकता है व्यक्तिगत खुन्नस नहीं । सोमनाथ दा ने इस बात पर भी जोर दिया कि वक्त आ गया है कि वाम दल गंभीर रूप से आत्मविश्लेषण करें । आपको याद होगा कि दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव के पहले भी सोमनाथ चटर्जी ने वामदलों की रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए उनके हार की भविष्यवाणी की थी, जो लगभग सही साबित हुई थी । अब सोमनाथ चटर्जी जब पार्टी के आत्मविश्लेषण की बात करते हैं तो उसके पीछे पार्टी और उसके नेतृत्व की कार्यप्रणाली में सुधार की बात साफ तौर पर अंडरलाइन की जा सकती है। यह मानने में किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि प्रकाश करात वामदलों के कुनबे को नेतृत्व देने में लगभग नाकाम रहे हैं । उनके पूरे व्यक्तित्व से एक खास किस्म का अभिजात्य स्वरूप प्रतिबिंबित होता है जो सर्वहारा से उनको जोड़ नहीं पाता है । यह भी तथ्य है कि उनके नेतृत्व में लड़े गए सारे चुनावों में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा । त्रिपुरा को अपवाद मान सकते हैं क्योंकि वहां के चुनाव में माणिक सरकार पार्टी के चेहरा थे । इसके अलावा प्रकाश करात गैर कांग्रसी और गैर बीजेपी विकल्प की धुरी भी नहीं बन पा रहे हैं । सवाल साख का ही है । सवाल कार्यप्रणाली का भी है । अब भी अगर नहीं चेते तो दो हजार चौदह में कोई नामलेवा भी नहीं बचेगा

Sunday, October 20, 2013

कहानी की प्रतिनिधि को नोबेल पुरस्कार

विश्व साहित्य खासकर अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में दो हजार तेरह को महिला लेखन की सशक्त मौजूदगी को लेकर याद किया जाएगा । अमेरिका से लेकर इंगलैंड, कनाडा से लेकर न्यूजीलैंड तक में लेखिकाओं ने अपने लेखन को एक नया आयाम दिया, एक नई ऊंचाई दी और साथ ही एक नया अंदाज भी दिया । अमेरिका की रचेल कुशनर की द फ्लेमथ्रोअर्स ने तो अपने कथ्य और विषय को लेकर पूरे साहित्य जगत को झकझोर दिया था । सत्तर के दशक में आतंक और कला को केंद्र में रखकर लिखे गए उपन्यास को इक्कीसवीं सदी का सर्वोत्तम उपन्यास करार दिया गया था । यह उपन्यास विषयकी नवीनता और उसके ट्रटमेंट को लेकर रोचक अवश्य है लेकिन किसी फैसले पर पहुंचने के पहले उसपर पर्याप्त मंथन होना चाहिए । हलांकि अमेरिका में भी हिंदी साहितय की तरह ही सर्वोत्तम और सदी का महानतम, सदी का सर्वेश्रेष्ठ करार देने की एक लंबी परंपरा है । पिछले साल जब जोनाथन फ्रेंजन का उपन्यास फ्रीडम छपकर आया था तो उसे भी अमेरिकी आलोचकों ने सदी की महानतम कृतियों की श्रेणी में रखते हुए उसको लियो टॉलस्टाय के वॉर एंड पीस के टक्कर का उपन्यास बताया था । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है । अगर अमेरिका और ब्रिटेन से इतर अंग्रेजी में लिख रही एशियाई लेखिकाओं पर भी गौर करें तो इस निषकर्ष पर पहुंचते हैं कि उन्होंने भी अपने लेखन से अंग्रेजी साहित्य के आलोचकों का ध्यान खींचा । महिलाओं के इस गंभीर और लोकप्रिय लेखन को ना केवल सराहा गया बल्कि उसने हर तरह के पुरस्कार भी हासिल किए । यहां तक कि पुरस्कारों के लिए जो नामांकन हुए उसमें भी लेखिकाओं का ही कब्जा रहा । अगर हम मैन बुकर प्राइज के लिए नामांकित लेखकों पर नजर डालें तो यह तस्वीर और साफ होती है । छह में से चार लेखिकाएं- झुंपा लाहिरी की द लव लैंड, एलेनॉर काटन की द ल्यूमिनरीज, वॉयलेट बुलावॉयो की वी नीड न्यू नेम्स रूथ ओजकी की अ टेल फॉर द टाइम बीइंग इस सूची में थी । इस सूची के नामों को गिनाने का मकसद सिर्फ इतना है कि लेखिकाओं ने अपनी कृतियों के बूते पर दुनिया के प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक मैन बुकर में प्रमुखता से अपनी जगह बनाई । इस सूची में से ही न्यूजीलैंड की मात्र अट्ठाइस साल की युवा लेखिका एलेनॉर काटन की द ल्यूमिनरीज को मैन बुकर प्राइज से नवाजा गया । आठ सौ से ज्यादा पन्नों में लिखे गए इस उपन्यास ने अपने क्राफ्ट और रोमांच की वजह से सूची के बाकी लेखकों को पछाड़ा । मैन बुकर के अलावा के ग्रांटा के बेस्ट अंडर फोर्टी के बीस लेखकों की सूची में भी बारह लेखिकाओं ने जगह बनाई । उसी तरह से अमेरिका के नेशनल बुक फाउंडेशन के फाइव अंडर थर्टी फाइव की सूची में पहली बार पांचों लेखिकाएं ही रही । भारत समेत एशियाई देशों में भी अंग्रेजी लेखन में महिलाओं ने अपनी पहचान बनाने के साथ साथ अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया । चाहे वो जेनिस पेरियॉट हो, नीलांजना राय हो ।
अंग्रेजी लेखन में महिलाओं के इस दबदबे के बीच साहित्य के लिए इस वर्ष को नोबेल पुरस्कार कनाडा की बयासी साल की वयोवृद्ध लेखिका एलिस मुनरो को दिया गया । मुनरो को पुरस्कार मिलने के बाद अंग्रेजी में हो रहे महिला लेखन पर एक बार फिर से सबकी नजर चली गई । एलिस मुनरो लंबे लंबे उपन्यास नहीं लिखती हैं । वो मूलत कथाकार हैं जिन्हें अंग्रेजी में शॉर्ट स्टोरी राइटर कहते हैं । एलिस मुनरो कनाडा की पहली कथाकार हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है इसके पहले इसके पहले कनाडा मूल के साउल बेलो को उन्नीस सौ छिहत्तर में नोबेल पुरस्कार मिला था लेकिन वो बचपन में ही अमेरिका में जा बसे थे । नोबेल पुरस्कार के इतिहास में बहुत कम बार ही कथाकार को साहित्य के लिए पुरस्कृत किया गया है । यह मुनरो की कहानियों की ताकत ही है जिसने नोबेल पुरस्कार समिति के सदस्यों को उनको चुनने के लिए बाध्य कर दिया। अपनी बीमारी की वजह से खुद पुरस्कार लेने नहीं जा पाई एलिस मुनरो ने एक बयान जारी कर कहा कि उनको नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद कहानी एक विधा के तौर पर और मजबूत होगी । किसान परिवार में उन्नीस इकतीस में जन्मी एलिस मुनरो ने साठ के दशक के एकदम शुरुआत से लिखना शुरू किया था। मुनरो ने माना है कि जब उन्होंने लिखना शुरू किया तो कनाडा में बहुत कम लेखक थे और विश्व साहित्य में उनकी उपस्थिति लगभग नगण्य थी । उनके घर का माहौल साहित्यक था और उनके पिता की साहित्य में गहरी अभिरुचि थी । एलिस एनी लेडलॉ ने पहली कहानी द डायमेन्शंस ऑफ शैडो उन्नीस पचास में लिखी । तब वो पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही थी । पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान ही अपने एक सहकर्मी जेम्स मुनरो से इश्क होता है और वो दोनों शादी रचा लेते हैं । शादी के बाद एलिस मुनरो के तीन बच्चे होते हैं और वो पूरी तरह से एक गृहिणी का दायित्व निभाने लगती है । एलिस मुनरो ने माना है कि उस दौर में वो अपने परिवार में मशगूल हो गई थी और नहीं लिख पाने की वजह से वो डिप्रेशन का भी शिकार हुई । पारिवारिक चक्रव्यूह में वो इतना उलझ गई कि उसने माना कि उससे एक शब्द नहीं लिखा जाने लगा । पारिवारिक उलझनों और जिम्मेदारियों में डूबी एलिस मुनरो के लिए उसकी किताब की दुकान वरदान साबित हुई । उन्नीस सौ अड़सठ में एलिस मुनरो ने अपने पति जेम्स के साथ मिलकर एक किताब की दुकान-मुनरो बुक्स खोली, जो अब भी विक्टोरिया इलाके में मौजूद है  । उस दुकान के ग्राहकों से बात करते हुए एलिस मुनरो में फिर से लेखन की इच्छा जाग्रत होने लगी । नतीजा यह हुआ कि उन्नीस सौ अड़सठ में उनका पहला संग्रह- डांस ऑफ द हैप्पी शेड्स -प्रकाशित हुआ । इस दौर में एलिस मुनरो की कहानियां नियमित रूप से न्यूयॉर्कर समेत तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी थी । पहले संग्रह के प्रकाशन से ही एलिस मुनरो को कनाडा में पहचान मिली और उस किताब पर ही उसको वहां का प्रतिष्ठित साहित्यक पुरस्कार- गवर्नर जनरल पुरस्कार से नवाजा गया । मुनरो के उसके बाद कई कहानियां आईं और उसके बाद वो दो विश्वविद्यालयों में राइटर इन रेजिंडेंस भी रहीं । एलिस मुनरो की एक और लंबी कहानी है द बीयर कम ओवर द माउंटेन । यह कहानी एक ऐसे महिला की है जो अपनी याददाश्त खोने लगती हैं और अपने पति की इस बात से सहमत होती है कि उसको अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए । कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है तो पता चलता है कि औरत का पति विवाहेत्तर संबध बनाता रहा है और उसे इसका अफसोस भी नहीं है । इन्हीं हालत के बीच अस्पताल में भर्ती उस औरत को एक शख्स से प्यार हो जाता है और वो उसमें सुकून तलाशने लगती है । मानवीय संबंधों के मनोविज्ञान का बेजोड़ चित्रण है । इस कहानी पर हिट फिल्म अवे फ्रॉम हर- भी बनी ।
इनकी कहानियों में साठ के दशक में कनाडा और अमेरिका का उथल पुथल और उस दौर में वहां रहनेवाली लड़कियों के मनोविज्ञान का चित्रण है । एलिस मुनरो की किस्सागोई में यथार्थ और अनुभव को बेहतरीन सम्मिश्रण होता है जो उनकी कहानियों को पठनीय तो बनाता ही, पाठकों को एक नई तरह की अनुभूति से भी भर देता है । एलिस मुनरो की कहानियों में ग्रामीण जीवन और क्षेत्रीय परिवेश मुख्य रूप से उभर कर सामने आता है । मुनरो की कहानियों में कथानक से ज्यादा घटनाएं और स्थितियां उभर कर आती हैं और पाठकों को चौंकाती हैं । बहुधा एलिस मुनरो की तुलना महान कथाकार एंटन चेखव से भी की जाती है । अपनी कहानियों की वजह से एलिस मुनरो को समकालीन कथा साहित्य में इस विधा के प्रतिनिधि कथाकार का दर्जा हासिल है । मुनरो की अबतक दर्जनभर से जद्यादा कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । अमेरिका और कनाडा में उनकी किताबें लाखों में बिकती हैं । नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद कई भाषाओं में उनकी रचनाओं का अनुवाद होगा और अन्य भाषा के फाठकों को उनकी रचनाओं से परितित होने का मौका मिलेगा । एलिस मुनरो को समझने के लिए दो हजार दो में छपी उनकी बेटी की किताब अहम है । उनकी बेटी साइला मुनरो ने लाइव्सस ऑफ मदर्स एंड डॉटर्स. ग्रोइंग अप विद एलिस मुनरो लिखी है । इस किताब में उनकी बेटी ने मुनरो के संघर्ष और एक कहानीकार के बनने पर विस्तार से लिखा है । इस किताब को पढ़कर मुनरो की कहानियों के विषयों को समझने में मदद मिलती है । हमें यह उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी का भी कोई प्रकाशक एलिस मुनरो की कहानियां छापने का उद्यम करेगा ताकि हिंदी के विशाल पाठक वर्ग को भी उनकी कहानियों से परिचित होने का मौका मिल सके ।


Tuesday, October 8, 2013

पीढियों की टकराहट की सियासत

दागी नेताओं को बचानेवाले अध्यादेश पर राहुल गांधी के गुस्से भरे बयान और उनके अंदाज पर पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति के एक वरिष्ठ सदस्य से बात हो रही थी । उनका तर्क था कि हमारा देश हमेशा बागियाना तेवर पसंद करता रहा है । उनकी एक और दलील यह थी कि चूंकि हमारे देश में युवा मतदाताओं की संख्या काफी है लिहाजा राहुल गांधी का अंदाज और तेवर दोनों उस वर्ग को पसंद आएगें । मैंने उनको उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के तेवर, पर्चा फाड़ने के अंदाज, बात बात में कुर्ते की बांह चढ़ाने की अदा की याद दिलाई । याद तो उनको उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे भी दिलाने पड़े । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी के बागियाना तेवर और अंदाज और अदा का हश्र पार्टी भुगत चुकी है । मेरी नजर में राहुल गांधी का दागी अध्यादेश पर उठाया गया कदम कांग्रेस की राजनीति में एक बार फिर से पीढ़ियों के करवट लेने का संकेत है । संकेत तो यह पार्टी के अंदर के सत्ता संघर्ष का भी है । सोनिया गांधी की बीमारी की वजह से कम होती सक्रियता और फिर एक रणनीति के तहत राहुल गांधी को कमान सौंपने की पूरी कवायद के दौरान का संघर्ष राहुल गांधी के बयान के माध्यम से सार्वजनिक हुआ । दागी अध्यादेश जारी करने की सिफारिश का फैसला कांग्रेस कोर ग्रुप में हुआ था । इस कोर ग्रुप में सोनिया गांधी और उनके शक्तिशाली राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, रक्षा मंत्री एंटोनी, वित्त मंत्री चिदंबरम और गृहमंत्री सदस्य हैं । कांग्रेस पार्टी में अमूमन सभी अहम फैसले यह ग्रुप करता है । कोरग्रुप के फैसले के बाद कैबिनेट ने उसको पास करके राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया था । तब तक भी राहुल गांधी खामोश रहे । राहुल की अध्यादेश से नाराजगी का संकेत सिपहसालार दिग्विजय सिंह के बयान से मिला । बाद में युवा सांसद और मंत्री मिलिंद देवड़ा ने इसके खिलाफ ट्वीट कर विरोध की आहट साफ कर दी । अगले ही दिन राहुल गांधी ने नाटकीय अंदाज में दिल्ली के प्रेस क्लब पहुंचकर अध्यादेश को बकवास करार दे दिया । अब अगर हम इस पूरे प्रकरण की महीन राजनीति का विश्लेषण करें तो यहां अपने आप को असर्ट करने की एक महीन लकीर नजर आती है । आगामी लोकसभा चुनाव के पहले राहुल गांधी के इस एंग्री यंग मैन की छवि को पुख्ता करने की कोशिश । एक ऐसा युवक जो देश के सिस्टम को बदलने को बेचैन है । राहुल के बयान के बाद जिस तरह से कांग्रेस के नेताओं ने अध्यादेश के बारे में अपने विचारों से पलटी मारी उसमें राहुल की बेचैनी को स्थापित करने की ललक दिखाई देती है ।
दरअसल सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी पार्टी में जब जब नई पीढी केंद्र में आती है तो इस तरह के बागियाना तेवर देखने को मिलते हैं । पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद जब इंदिरा गांधी ने पार्टी को संभाला था तो उस वक्त भी पीढ़ियों की ये टकराहट साफ तौर पर देखी गई थी । चाहे 1967 का आम चुनाव हो या 1969 में डॉ जाकिर हुसैन के निधन के बाद राष्ट्रपति के चुनाव का मसला । कांग्रेस ने जुलाई 1969 में बैंगलोर में पार्टी की एक बैठक बुलाई । उस बैठक में राष्ट्रपति की उम्मीदवारी पर विमर्श होना था । मोरारजी देसाई, के कामराज, एस के पाटिल, अतुल्य घोष और एस निजलिंगप्पा जैसे शक्तिशाली नेताओं ने नीलम संजीव रेड़्डी को उम्मीदवार बनाना तय कर रखा था । उस बैठक में इंदिरा गांधी ने जबरदस्त आक्रामक रुख अपनाया और बैंगलोर के मशहूर लाल बाग गार्डन इंदिरा ने कांग्रेस के तमाम दिग्गजों के अरमानों पर पानी फेर दिया था । बाद में राष्ट्रपति चुनाव के वक्त भी कांग्रेस में पुराने नेताओं के सिंडिकेट ने इंदिरा को परास्त करने की कोई कसर नहीं छोड़ी।  अपने उम्मीदवार नीलम संजीव रेड़्डी की जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के नेताओं से मुलाकात कर समर्थन मांगा था । इंदिरा ने इस मुलाकात को धर्मनिरपेक्षता से जोड़ दिया और बेहद आक्रामक तरीके से बुजुर्ग नेताओं की साख पर ही सावल कर उनको संदिग्ध बना दिया । नतीजा यह निकला कि नीलम संजीव रेड़्ड़ी हार गए । वी वी गिरी की जीत ने इंदिरा को स्थापित कर दिया । उस वक्त के युवा नेताओं का जोरदार समर्थन इंदिरा को था । पार्टी में इंदिरा के ओज के सामने पुराने और वरिष्ठ नेता लगभग निस्तेज हो गए थे । इंदिरा गांधी की आक्रामकता यहीं नहीं रुकी । रजवाड़ों को मिलनेवाले प्रीवी पर्स और बैंकों के राष्ट्रीय करण के मुद्दे पर भी इंदिरा की आक्रामकता ने उनको जबरदस्त लोकप्रियता दिलवाई थी । पीढ़ियों की इस टकराहट में इंदिरा गांधी विजेता के तौर पर उभरी थी ।
कालांतर में भी इंदिरा गांधी की मौत के बाद जब राजीव गांधी ने सत्ता संभाली तो उन्होंने भी अपने शासन काल के शुरुआती दिनों में सिस्टम के खिलाफ विद्रोही नेता की छवि को ओढे रखा । कांग्रेस के सौ साल पूरे होने के मौके पर 1985 में - एक रपए में से गरीब जनता तक 15 पैसे पहुंचने के उनके भाषण ने जनता के बीच अब काफी उम्मीद जगाई थी । राजीव गांधी के कांग्रेस की राजनीति के केंद्र में आने के बाद भी कांग्रेस में पीढ़ियों के बीच टकराहटट देखने को मिली थी । आर के धवन और माखन लाल फोतेदार जैसे इंदिरा गांधी के विश्वासपात्रों का युग खत्म होने लगा था और अरुण नेहरू, अरुण सिंह, सतीश शर्मा का ग्राफ चढ़ने लगा था । राजनीति से इतर रोमी चोपड़ा और सुमन दूबे जैसे उनके साथी अहम होने लगे थे। इंदिरा गांधी के जमाने के नेता नेपथ्य में चले गए । दरअसल इसके पहले भी इमरजेंसी के पहले जब संजय गांधी ताकतवर हो रहे थे तो उन्होंने भी इंदिरा गांधी के सिपहसालारों के अलग अपनी एक टीम बनाई थी । राजीव गांधी की हत्या के बाद जब सोनिया गांधी ने राजनीति से किनारा कर लिया तो भी परिवार में आस्था रखनेवालों ने उम्मीद नहीं छोड़ी । सीताराम केसरी और नरसिंह राव परिवार की आस्था से इतर कांग्रेसी नेताओं को मजबूत नहीं कर सके । लिहाजा केसरी को अपदस्थ कर सोनिया के सर पर कांग्रेस का ताज रख दिया गया ।
अब राहुल गांधी की शक्ल में इतिहास एक बार फिर से अपने को दोहराने के लिए तैयार है । कांग्रेस में पीढ़ियों के टकराहट की एक और जमीन तैयार हो चुकी है । सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर यह बात साफ भी कर दी । उधर राहुल गांधी की अपनी पसंद नापसंद है । उनकी योजना में अहमद पटेल ,चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे, ए के एंटोनी जैसे नेता कहां फिट होंगे यह देखनेवाली बात होगी । राहुल गांधी कनिष्क सिंह, भंवर जितेन्द्र सिंह, मिलिंद देवड़ा के अलावा अपनी पसंद की टीम के साथ अलहदा किस्म की राजनीति करना चाहते हैं । जिस तरह के संकेत वो दे रहे हैं उससे तो यही लगता है कि वो कांग्रेस पार्टी की कार्यपद्धति में बदलाव लाना चाहते हैं । राहुल गांधी के सामने चुनौती वैसेी ही है जैसी इंदिरा गांधी के सामने थी । कांग्रेस में पैंसठ पार ताकतवर नेताओं की एक फौज है जो यथास्थितिवादी है । उनमें से कुछ को राहुल की मां सोनिया गांधी की सरपरस्ती हासिल है तो कुछ को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की । राहुल गांधी के सामने चुनौती है कि वो अपनी मां सोनिया और प्रधानमंत्री से ताकत पा रहे नेताओं की राजनीति को प्रभावहीन कर अपनी वैकल्पिक राजनीति से कांग्रेस को नई शक्ल दें । अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो इतिहास पुरुष हो जाएंगे वर्ना इतिहास के बियाबान में गुम होने में देर नहीं लगती ।

Sunday, October 6, 2013

पुरस्कार, विवाद और छीछालेदार

हिंदी साहित्य इन दिनों पुरस्कार विवाद से गरमाया हुआ है । इस गरमाहट की आंच हिंदी से जुड़े लोग अच्छी तरह से महसूस कर रहे हैं । हिंदी के महान साहित्यकार प्रेमचंद के गांव के नाम पर उनके दूर के रिश्तेदार हर साल लमही सम्मान देते हैं । लमही नाम से से एक पत्रिका भी निकालते हैं । लमही पुरस्कार पिछले चार सालों से दिया जा रहा है । पिछले चार सालों से यह पुरस्कार अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने में जुटा था । अब तक ये पुरस्कार मशहूर अफसानानिगार ममता कालिया, पत्रकार साजिश रशीद और कथाकार शिवमूर्ति का दिया जा चुका है । इन तीन वर्षों के चयन पर विवाद नहीं उठा नहीं कोई सवाल खड़े हुए । इसकी एक वजह इस पुरस्कार से हिंदी जगत का अनभिज्ञ होना भी हो सकता है । लमही पुरस्कार देने वाले लोग उसी नाम से एक साहित्यक पत्रिका भी निकालते हैं । इस साल भी सबकुछ सामान्य चल रहा था । तीस जनवरी दो हजार तेरह को हिंदी की उभरती हुई लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ को चौथा लमही सम्मान देने का ऐलान हुआ। निर्णायक मंडल में संयोजक विजय राय के अलावा वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता, फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी, लेखक सुशील सिद्धार्थ और प्रकाशक महेश भारद्वाज थे । इस साल विश्व पुस्तक मेले के मौके पर इस पुरस्कार की खूब चर्चा रही थी । लमही के मनीषा कुलश्रेष्ठ पर केंद्रित अंक की जोरदार बिक्री का दावा भी किया गया । इस तरह से प्रचारित किया गया कि ये हिंदी साहित्य जगत की कोई बेहद अहम घटना हो । थोड़ा बहुत विवाद उस वक्त निर्णायक मंडल में प्रकाशक के रहने पर उठा था लेकिन चूंकि पुरस्कार की उतनी अहमियत नहीं थी लिहाजा वो विवाद जोर नहीं पकड़ सका । तकरीबन छह महीने बाद उनतीस जुलाई को दक्षिण दिल्ली के मशहूर और प्रतिष्ठित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में समारोहपूर्वक लमही सम्मान अर्पण संपन्न हुआ । पत्र-पत्रकिओं से लेकर अखबारों तक में इस समारोह की खूब तस्वीरें छपी । ऐसा पहली बार हुआ था कि लमही सम्मान समारोह उत्तर प्रदेश की सरहदों को लांघ कर दिल्ली पहुंचा था। हिंदी जगत में यह माना गया कि लमही सम्मान अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए दिल्ली पहुंचा । इस भव्य समारोह को इसी आलोक में देखा समझा गया था । इस पृष्ठभूमि को बताने का मकसद इतना है कि पाठकों को पूरा माजरा समझ में आ सके ।
पुरस्कार अर्पण समारोह तक सबकुछ ठीक रहा । असल खेल शुरू हुआ पुरस्कार अर्पण समारोह के डेढ महीने बाद । सोशल नेटवर्किंग साइट पर किसी ने लिखा कि लमही पुरस्कार के संयोजक ने लखनऊ की एक पत्रिका को साक्षात्कार में कहा है कि इस साल मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही पुरस्कार देकर उनसे चूक हो गई। किसी ने पत्रिका को देखने की जहमत नहीं उठाई। किसी ने विजय राय समेत जूरी के सदस्यों से बात करने की कोशिश नहीं की । किसी सोशल नेटवर्किंग साइट पर उनमें से किसी का पक्ष भी नहीं छपा । सिर्फ एक पोस्ट के बाद यह खबर फेसबुक पर वायरल की तरह फैल गई । शोर ऐसा मचा कि कौआ कान लेकर भाग गया और बजाए अपने कान को देखने के उत्साही साहित्यप्रेमी कौआ के पीछे भागने लग गए । फेसबुक की अराजक आजादी ने कौआ के पीछे भागनेवालों की संख्या बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम किया । नतीजा यह हुआ कि मनीषा कुलश्रेष्ठ ने फौरन अपनी फेसबुक पर लिखा- मैं यहां जयपुर में हूं । लमही सम्मान की बाबत तमाम विवाद से अनभिज्ञ हूं .....विजय राय जी का बयान अगर सत्य है कि उन्होंने दबाव में पुरस्कार दिया है तो इस अपमानजनक सम्मान को मैं लौटाने का निर्णय ले चुका हूं । कौआ के पीछे भागने की एक और मिसाल । अगर मगर की बजाए जूरी के सदस्यों से बात करने के बाद टोस तरीके से अपनी बात रखी जाती । लेकिन अपमानजनक विवाद में पड़ने के बाद संतुलन रखना थोड़ा मुश्किल काम होता है । पुरस्कृत लेखिका ने दावा किया उसने पुरस्कार के लिए ना तो प्रविष्टि भेजी थी और ना ही अपनी किताब । उन्होंने मांग की कि जूरी और संयोजक उनसे माफी मांगे । उन्होंने आहत होकर लेखन छोड़ देने का संकेत भी दिया था । एक माहिर राजनेता की तरह चले इस दांव से फिर फेसबुकिया ज्वार उठा और  लेखिका ने अपना निर्णय बदल लिया । खैर यह तो होना ही था । लेखिका का आग्रह था कि पुरस्कार लौटाने के निर्णय को हिंदी में एक परंपरा की शुरुआत के तौर पर देखा जाना चाहिए । लेकिन वो यह भूल गईं कि हिंदी में पुरस्कार लौटाने की एक लंबी परंपरा रही है । लेकिन ज्यादातर साहित्यक वजहों से । ज्यादा पीछे नहीं जाकर अगर हम याद करें तो दो हजार दस में आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने हिंदी अकादमी का पुरस्कार ठुकरा दिया था । उनका विरोध कृष्ण बलदेव वैद के लेखन के समर्थन और हिंदी अकादमी के उस लेखन के एतराज पर था । अग्रवाल के पुरस्कार लौटाने के बाद हिंदी अकादमी की साख पर सवाल खड़ा हो गया था ।
लमही सम्मान पर यह विवाद इतने पर ही नहीं रुका । अब पुरस्कार, लेखक, जूरी सदस्यों के बारे में निहायत घटिया और बेहूदा बातें भी सामने आने लगी । पेसबुक पर जिसे जो मन आया लिखता चला गया । हिंदी साहित्य से जुड़े लोग चटखारे ले लेकर इन व्यक्तिगत बातों से आनंद उठाने लगे । लेकिन वो बातें इतनी घटिया थी कि उसको पढ़ने के बाद हमको अपने को हिंदी साहित्य से जुड़े होने पर भी शर्म आ रही थी । हिंदी साहित्य में व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप की कोई जगह होनी नहीं चाहिए और हमें उसका घोर प्रतिवाद भी करना चाहिए । साहित्यक मसलों में व्यक्तिगत लांछन लगानेवालों का साहित्यक बहिष्कार किया जाना चाहिए । लेकिन यहां फर्क हिंदी और अंग्रेजी की मानसिकता का और कुंठा का है । हिंदी का लेखक इतना कुंठित हो गया है कि उसको मर्यादा की परवाह ही नहीं रही । मैं लंबे समय से इस कुंठा पर लिखता आ रहा हूं लेकिन राजेन्द्र यादव को यह छाती कूटने और मात्र विलाप करने जैसा लगता है । हकीकत यह है कि हिंदी के ज्यादातर लेखक अदने से लाभ-लोभ के चक्कर में इतने उलझ गए हैं कि वो बड़ा सोच ही नहीं सकते हैं । अब देखिए कि पंद्रह हजार रुपए के इस पुरस्कार के लिए इतना बड़ा विवाद । इस विवाद के पीछे भी हाय हुसैन हम ना हुए की मानसिकता ही है ।
दरअसल आज हिंदी साहित्य के परिदृश्य में इतने पुरस्कार हो गए हैं कि हर दूसरा लेखक कम से कम एक पुरस्कार से नवाजा जा चुका है । पुरस्कारों की संख्या बढ़ने के पीछे लेखकों की पुरस्कार पिपासा है । इसी पुरस्कार पिपासा का फायदा उठाकर हिंदी साहित्य को कारोबार समझनेवाले लोग फायदा उठाने में जुटे हैं । शॉल श्रीफल के पीछे का खेल बेहद घिनौना है । पुरस्कारों के खेल पर लेखक संगठनों की चुप्पी भी खतरनाक है । हिंदी के तीनों लेखक संगठनों ने अब तक हिंदी में पुरस्कारों की गिरती साख को बचाने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया है । लेखक संगठन भी पुरस्कृत लेखक या फिर विवादित लेखक की विचारधारा को देखकर ही फैसला लेते हैं । उनके लिए साहित्य प्रथम का सिद्धांत कोई मायने नहीं रखता है । उनके लिए तो विचारधाऱा सर्वप्रथम और सर्वोपरि है । लेखकों के सम्मान और अपमान को भीवो विचारधारा की कसौटी पर ही कसते हैं । लमही सम्मान विवाद पर भी लेखक संगठनों ने चुप्पी साधे रखी । उसके बाद के अप्रिय प्रसंगों पर भी लेखक संगठनों ने उसको रोकने के लिए कोई कदम उठाया हो ये ज्ञात नहीं है । अब वक्त आ गया है कि हिंदी साहित्य के वरिष्ठ लोग मिलजुल कर बैठें और पुरस्कार को लेकर तल रही राजनीति और खेल को रोकने के लिए पहल करें । हिंदी में पुरस्कारों की लंबी और प्रतिष्ठित परंपरा रही है । उस सम्मानित परंपरा को वापस लाने का काम वरिष्ठ लेखकों को अपने कंधों पर उठाना होगा । अगर ऐसा होता है तो इससे हिंदी का भी भला होगा और साहित्यकारों की साख पर भी सवाल नहीं उठेंगे । इसके अलावा हमसब को मिलकर कुंठित और व्यक्तिगत लांछन लगानेवालों का बहिष्कार भी करना होगा । लेकिल सवाल यही है कि क्या हम हिंदी वालों के बीच इतना नैतिक साहस है । क्या हम हजारी पुरस्कारों का मोह त्याग सकेंगे । क्या हम छोटे लाभ लोभ से मुक्त हो सकेंगे या व्यक्तिगत हितों की अनदेखी करने का साहस उटा पाएंगे । हिंदी साहित्य के सामने आज ये बड़ा सवाल मुंह बाए खड़ा है । इससे बचकर निकलने से हमारा ही नुकसान है । फायदा इन सवालों से मुठभेड़ में ही है । रास्ता भी वहीं से निकलेगा 

विवाद से शर्मसार हिंदी साहित्य

हिंदी साहित्य में अपनी पहचान और प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे छोटे से पुरस्कार लमही सम्मान को लेकर इन दिनों शर्मनाक विमर्श हो रहा है । पुरस्कार के ऐलान, अर्पण से लेकर उसके लौटाने तक बेहद निर्लज्जता के साथ जिस तरह का खेला जा रहा है उसने तो राजनीतिक बेशर्मी को भी पीछे छोड़ दिया है । परोक्ष और प्रत्यक्ष आरोपों-प्रत्यारोपों से हिंदी की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है । लमही सम्मान पर उठे विवाद को पीढ़ियों की टकराहट की शक्ल देने की कोशिश की जा रही है । इस कोशिश में वरिष्ठ लेखकों के बारे में उलजलूल और अनर्गल प्रलाप शुरू हो गए हैं । व्यक्तिगत टिप्पणियों से हिंदी साहित्य शर्मसार हो रहा है । व्यक्तिगत खुंदक को मंच मंच मुहैया करवाया है सोशल नेटवर्किंग साइट्स की अराजक आजादी ने । पुरस्कार की इस साहित्यक लड़ाई पर व्यक्तिगत कुंठा बुरी तरह से हावी है । ना वरिष्ठों का सम्मान और ना ही खुद की प्रतिष्ठा का ख्याल ।
आज की इस हालत के लिए हिंदी के अधिकांश लेखकों की पुरस्कार पिपासा जिम्मेदार है । हिंदी साहित्य में तकरीबन चालीस पचास खुदरा पुरस्कार दिए जा रहे हैं । अगर हम उत्तर प्रदेश सरकार के थोक साहित्यक पुरस्कारों को नजरअंदाज भी कर दें तो क्योंकि वहां तो पुरस्कार की बजाए रेवड़ी बंटती है जो अपनों अपनों को मिलती है। कुछ खुदरा पुरस्कार तो ऐसे हैं जो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन मांगते हैं । हिंदी के पुरस्कार पिपासु लेखक बड़ी संख्या में इस तरह के पुरस्कारों के लिए आवेदन भेजते हैं । कहना नहीं होगा कि हिंदी के ज्यादातर नए लेखक/लेखिकाओं  में हल्का काम करके भी प्रसिद्धि की ललक ऐसे पुरस्कारों को प्राणवायु प्रदान करती है । कई पुरस्कारों की धनराशि तो पांच से दस हजार रुपए तक है लेकिन उन पुरस्कारों की आड़ में कई तरह के विमर्श आकार लेते हैं । सवाल यह उठता है कि हिंदी के लेखकों में पुरस्कार को लेकर इतनी भूख क्यों है । क्योंकर वो हजार दो हजार के पुरस्कार के लिए सारे दंद फंद और पुरस्कार देनेवालों की चापलूसी तक पर उतारू है । इसकी पड़ताल करने पर बेहद निराशाजनक तस्वीर दिखाई देती है । हिंदी के लेखकों में मेहनत करने की प्रवृत्ति का लागातार क्षय हो रहा है । बगैर व्यापक शोध के और कल्पना के आधार पर यथार्थ लिखने की प्रवृत्ति ने साहित्य का बड़ा नुकसान किया है । विचारधारा वाली साहित्य ने तो नुकसान किया ही । नई पीढ़ी में एक और प्रवृत्ति रेखांकित की जा सकती है वह है - जल्दबाजी, धैर्य की कमी, कम वक्त में सारा आकाश छेक लेने की तमन्ना और वह भी किसी कीमत पर । सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास मुझे चांद चाहिए की नायिका सिलबिल की तरह । इस चाहत का फायदा उठाकर कुछ साहित्यक कारोबारी पुरस्कारों में संभावनाएं तलाशते हैं । हिंदी के नए लेखक शुरू से ही आसमान पर चढ़ने की तमन्ना पाले बैठे रहते हैं । महात्वाकांक्षी होना बुरी बात नहीं है।  हर किसी को महात्वाकांक्षी होना चाहिए लेकिन उसमें अति के जुड़ने से जो खतरनाक रोमांच जुड़ता है वह खतरनाक है । पुरस्कार के कारोबारी इस प्रवृत्ति को बढ़ाकर खतरा और बढ़ा देते हैं ।
दरअसल हिंदी में पुरस्कारों की महत्ता और प्रतिष्ठा लगातार कम होती जा रही है । हिंदी में सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार साहित्य अकादमी सम्मान को माना जाता था लेकिन पिछले एक दशक से जिस तरह से साहित्य अकादमी पुरस्कारों की बंदरबांट हुई है उससे अकादमी पुरस्कारों की साख पर बट्टा लगा है । दो हजार एक से लेकर दो हजार दस तक की साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लिए बनाई गई पुस्तकों की आधार सूची पर नजर डालने से यह बात और साफ हो जाती है । दो हजार तीन में जब कमलेश्वर को उनके उपन्यास - कितने पाकिस्तान - पर साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था तो उस वक्त की आधार सूची में इकतीस लेखकों के नाम थे जिसे मृदुला गर्ग ने तैयार किया था । इस सूची में तेजिन्दर, गौरीनाथ, हरि भटनागर, संजना कौल और जयनंदन आदि के नाम शामिल थे । तब अकादमी पर यह आरोप लगा था कि कमलेश्वर का नाम पहले से तय था । दो हजार चार में जब वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल को उनके कविता संग्रह दुश्चक्र में स्रष्टा पर पुरस्कार मिला तो शक का कोहरा और घना हो गया था । उस वक्त हिंदी के संयोजक थे गिरिराज किशोर और आधार सूची तैयार की थी कहानीकार प्रियंवद ने । हद तो तब हो गई थी जब निर्णायक मंडल के तीन सदस्यों में से दो कमलेश्वर और श्रीलाल शुक्ल बैठक में उपस्थित ही नहीं हो सके थे । अपनी टिप्पणी में निर्णायक मंडल के तीसरे सदस्य से रा यात्री ने लिखा- दुश्चक्र में स्रष्टा- काव्य कृति को हम सभी निर्णायक मंडल के सदस्य एक समान प्रथम वरीयता देते हैं और साहित्य अकादमी के दो हजार चार के पुरस्कार के लिए सहर्ष प्रस्तुत करते हैं । लेकिन संस्तुति पत्र पर सिर्फ उनके ही दस्तखत थे । उसी जगह हिंदी भाषा के तत्कालीन संयोजक गिरिराज किशोर ने लिखा- श्री श्रीलाल शुक्ल एवं कमलेश्वर जी उपस्थित नहीं हो सके । उन्होंने अपनी लिखित संस्तुति बंद लिफाफे में भेजी है । श्रीलाल जी ने ज्यूरी के उपस्थित सदस्य से रा यात्री से फोन पर लंबी बातकर दुश्चक्र में स्रष्टा को 2004 के पुरस्कार के लिए समर्थन दिया । हलांकि साहित्य अकादमी के दस्तावेजों में श्रीलाल जी की संस्तुति मौजूद नहीं है । कमलेश्वर का बीस दिसंबर का खत है जो इक्कीस दिसंबर की बैठक के पहले प्राप्त हो गया था । वीरेन डंगवाल की प्रतिष्ठा पर किसी को कोई शक नहीं है । वो साहित्य अकादमी पुरस्कार डिजर्व भी करते थे लेकिन जिस अफरातफरी में पुरस्कार का ऐलान किया गया उससे चयन प्रक्रिया की विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई थी । कालांतर में अकादमी पुरस्कारों के चयन को लेकर कई गंभीर आरोप लगे । नतीजा यह हुआ कि अकादमी पुरस्कार को हिंदी जगत में उस तरह का उत्साह नहीं रहा जो नब्बे के दशक में हुआ करता था ।

लमही सम्मान को लेकर उठे शर्मनाक विवाद के बाद हिंदी के कर्ता धर्ताओं की यह जिम्मेदारी है कि वो इस वक्त आगे आएं और टुटपुंजिए पुरस्कारों को चिन्हित कर उसके बहिष्कार का विरोध करें ताकि हिंदी से पुरस्कारों के कारोबार पर रोक लगाई जा सके । अंत में मैं कात्यायनी की कविता से खत्म करूंगा- दो कवि थे/बचे हुए अंत तक/वे भी पुरस्कृत हो गए/इस वर्ष/इस तरह जितने कवि थे/सभी पुरस्कृत हुए/और कविता ने खो दिया /सबका विश्वास । चुनौती इसी विश्वास को बचाने की है । 

Saturday, October 5, 2013

विश्वास का कत्ल रोको

दिल्ली गैंगरेप के मुजरिमों को फांसी की सजा के ऐलान और बीजेपी में घमासान के बाद नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद पर उम्मीदवारी की घोषणा और फिर दागियों को बताने के सरकार के अध्यादेश और उसपर राहुल गांधी के गुस्से का दिखावे के कोलाहल के बीच कई अहम खबरें दब गई । गैंगरेप के मुजरिमों को दोषी ठहराए जाने और सजा  मुकर्रर होने के बीच बच्चियों के यौन शोषण और उनके साथ रेप की घिनौनी वारदात की खबरें किसी भी सभ्य समाज पर कलंक है । देश के कई कोनों से बाल यौन शोषण की खबरें आईं । कथाववाचक आसाराम पर भी संगीन इल्जाम लगे । फिर खबर आई कि एक म्यूजिक टीचर ने बच्ची का यौन शोषण किया । मुंबई से दिल दहला देनेवाली खबर आई कि स्कूल बस के क्लीनर ने चार साल की बच्ची के साथ रेप किया । उसके पहले भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के अलावा देश के अन्य हिस्सों से बच्चों के यौन शोषण की बेचैन करनेवाली खबरों लगातार आती रहीं है । कहीं स्कूल में शिक्षकों ने बच्चों का यौन शोषण किया तो कहीं बच्चों को स्कूल लाने ले जाने वाली गाड़ी के ड्राइवरों ने । बच्चों के यौन शोषण की इस तरह की खबरों पर गंभीरता से राष्ट्रव्यापी बहस की जरूरत थी । इस दिशा में पहल भी हुई थी । बच्चों के यौन शोषण की खबरों के बाद मीडिया में मचे शोरगुल और हो हल्ले के बाद सरकार और संबंधित मंत्रालय इस दिशा में सक्रिय हुआ था । नतीजा यह हुआ कि बच्चों को इस तरह के यौन अपराध से बचाने के लिए पिछले साल प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड अगेंस्ट सेक्सुअल ओफेंस एक्ट (पॉक्सो ) लागू हुआ । लेकिन इस कानून के प्रावधानों में कई झोल हैं । उसके प्रावधाऩों में बहुत ज्यादा सुधार की आवश्यकता है । इस कानून में सजा का प्रावधान हल्का है और कई खामियों की वजह से आरोपियों के बच निकलने का रास्ता भी देता है ।
बच्चों और नाबालिगों के मामले में कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि स्कूल आरोपियों को सजा दिलवाने की बजाए मामले को दबा देने में अपना सारा जोर लगा देते हैं । पीड़ित बच्चों के अभिभावकों को स्कूल और बच्चे का नाम खराब होने की दुहाई देकर मामले को रफा दफा करने की कोशिश की जाती है । बच्चे के परिवार की आर्थिक आधार को देखकर तरह तरह के प्रलोभन भी दिए जाते हैं । पॉक्सो में हलांकि आरोपियों को बचाने या केस दबाने या बिगाड़ने की कोशिश करनेवालों के लिए 6 महीने की सजा या मामूली जुर्माने का प्रावधान है । इस मामूली सजा से स्कूल संचालकों के मन में कानून का भय नहीं पैदा होता है । एक तो कानूनी दांव पेंच और उसकी लंबी प्रक्रिया उसपर से बहुत हल्की सजा का प्रावधान । यौन शोषण के मामले में ज्यादातर बच्चों के परिवार वाले भी बदनामी के डर से समझौता कर लेने में ही भलाई समझते हैं । महानगरों में तो इस तरह के मामले उजागर भी हो जाते हैं लेकिन सुदूर गांवों और कस्बों में तो इस तरह के अपराध के ज्यादातर अननोटिस्ड रह जाते हैं । ना तो समाज उतना जागरूक है और ना ही मीडिया की नजर वहां पहुंच पाती है । गांव के बड़े बुजुर्ग मामले को यह कहकर निबटा देते हैं कि परिवारों की इज्जत बची रह जाएगी। बच्चों के यौन शोषण को अपराध नहीं मानकर उपहास किया जाता रहा है ।
बच्चों के साथ स्कूल या फिर स्कूल जाने के रास्ते में इस तरह की वारदात दरअसल एक भरोसे का कत्ल है । परिवार अपनो बच्चों को सौ फीसदी भरोसे के साथ स्कूल भेजता है । यह मानकर उनका बच्चा सुरक्षित है । अदालतें भी इस भरोसे का सम्मान करती हैं । दो हजार दस में मद्रास हाईकोर्ट ने एक स्कूल के फिजिकल ट्रेनिंग इंसट्रक्टर, जिसपर चौथी कक्षा की छात्रा के रेप का आरोप था, की दस साल की सजा बरकरार रखी थी । कोर्ट ने उस वक्त माना था कि बच्चों के यौन शोषण पर लगाम लगाने के लिए कड़े कानून की जरूरत है । कई अदालतों की टिप्पणियों और वारदातों की खबरों ने सरकार को पॉस्को बनाने पर मजबूर कर दिया । लेकिन सिर्फ कानून बनाने से काम नहीं चल सकता है । बच्चों के यौन शोषण और नाबालिग से रेप के मामलों में सख्त कानून के अलावा स्कूलों में और स्कूल से घर आने-जाने दौरान बच्चों की सुरक्षा को लेकर एक व्यापक राष्ट्रीय नीति की भी आवश्यकता है । इस वक्त अलग अलग शिक्षा बोर्ड और अलग अलग राज्यों में इस तरह के मामलों से निबटने के लिए अलग अलग तरह के गाइडलाइंस हैं । पूरे देश में बच्चों के खिलाफ बढ़ रहे यौन हिंसा के मद्देनजर एकीकृ्त गाइडलाइंस बनाकर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि स्कूल अपने यहां होने वाली इस तरह की वारदात पर त्वरित कार्रवाई करे और फौरन पुलिस को सूचित कर मुजरिमों को ना सिर्फ पकड़वाने में सहयोग करे बल्कि सजा दिलवाने में भी सक्रिय भूमिका निभाए । अगर कोई भी स्कूल ऐसा करने में विफल रहता है तो उसकी मान्यता रद्द करने से लेकर संचालकों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई का भी प्रावधान होना चाहिए । अहम कामकाज के लिहाज से आगामी लोकसभा चुनाव के पहले संसद का सिर्फ एक सत्र बाकी है । संसद के शीतकालीन सत्र के हंगामेदार होने की उम्मीद की जा रही है क्योंकि चुनाव के पहले सतापक्ष और विपक्ष दोनों तरफ से माहौल बनाने की कोशिश होगी  । कोयला घोटाले से लेकर दागियों के अध्यादेश पर बवाल तय है । क्या हम और हमारा समाज लोकतंत्र के मंदिर में बैठनेवाले निति नियंताओं से यह अपेक्षा कर सकते हैं कि राजनीति के कोलाहल के बीच वो देश के बच्चों की चिंता के लिए वक्त निकालकर इसपर गंभीर मंथन करेंगे । उम्मीद तो बाल एवं महिला विकास मंत्रालय से भी की जानी चाहिए जो कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मदद लेकर इस बारे में एक एकीकृत राष्ट्रीय नीति बनाए । शिक्षा के अधिकार का कानून बना देने से बच्चों को शिक्षित करने का लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सकता है । शिक्षा के अधिकार के साथ बच्चों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी होगी ।