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Monday, April 25, 2011

इज्जत की जमींदारी

शादी के ग्यारह साल बाद ससुराल जाने का मौका मिला । लंबा अंतराल इस वजह से कि ससुराल के सबलोग बिहार के ऐतिहासिक शहर गया में बस गए थे । शादी भी वहीं से हुई और जब भी जाना हुआ गया ही गया । पत्नी के पैतृक गांव यानि अपनी असली ससुराल जाने का अवसर, जैसा कि उपर बता चुका हूं शादी के ग्यारह साल बाद मिला । इतने लंबे अंतराल के बाद वहां पिछले साल दिवंगत हुए अपने श्वसुर की बरसी में गया था। हमें जाना था गया से तकरीबन साठ-सत्तर किलोमीटर दूर औरंगाबाद जिले के रायपुर बंधवा गांव में, हमलोग गया से चलकर दो घंटे में वहां पहुंचे । बिहार की सड़के पिछले सालों में बेहद अच्छी हो गई हैं और रास्ते में पड़नेवाले आजादी के पूर्व बने सारे सड़क पुल के समांतर नए पुल बन रहे थे । जब मैं रास्ते में था तो सोच रहा था कि लगभग एक दशक पूर्व अपनी शादी में मुझे जमालपुर से गया के लगभग सौ एक सौ दस किलोमीटर का सफर तय करने में ग्यारह घंटे लगे थे । तब बिहार में लालू राज था और सड़कें लगभग गायब हो चुकी थी । खैर यह अवातंर प्रसंग है । मैं बात कर रहा था अपने बंधवा सफर की । औरंगाबाद जिले के बंधवा तक जाने का रास्ता पूरी तरह से नक्सल प्राभवित इलाका गोह, हसपुरा से होकर जाता था । लेकिन टाटा मैजिक से दो घंटे का सफर बेखौफ होकर तय किया । रास्ते में सबकुछ सामान्य लग रहा था । रास्ते में मिलनेवाले कस्बानुमा बाजार में खूब भीड़ भाड़ और चहल पहल थी, किसी भी तरह के डर का वातावरण नहीं दिख रहा था, कहीं कोई पुलिसवाला भी नहीं दिखा, अर्धसैनिक बल के जवान तो दूर की बात । हमलोग दोपहर बाद बंधवा पहुंचे । वहां का घर पुराने जमाने का बना था, मिट्टी की मोटी-मोटी दीवारें और खूब उंचाई पर छत । गांव में घुसते ही एक बोर्ड दिखाई दिया - यह गांव राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के तहत उर्जाकृत ग्राम है । लेकिन घर पहुंचते ही राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना की पोल खुल गई । वहां तक बिजली के तार-खंभे तो हैं लेकिन बिजली नहीं है । कई घरों में सोलर एनर्जी से काम चल रहा था । मेरे लिए बिना बिजली के रहने का यह नया अनुभव नहीं था लेकिन एक लंबे अंतराल के बाद बगैर बिजली के चार-पांच दिन गुजारा था । यह एक संयोग ही बना कि जब पहली बार भारत ने क्रिकेट का वर्ल्ड कप जीता था तब भी मैंने रेडियो पर ही भारत के जीत की दास्तां सुनी थी और इस बार भी क्रिकेट के महायुद्ध में जब भारत श्रीलंका को पराजित कर रहा था तो मैं रेडियो से ही चिपक कर बैठा था । लेकिन सबसे मजेदार बात यह थी कि एक ओर जहां टीवी और बिजली से दूर था वहीं मेरा मोबाइल मुझे बाहर की दुनिया से जोड़े हुथा और मुझे अपडेट रख रहा था । उन पांच दिनों में मैंने मोबाइल इंटरनेट का जमकर इस्तेमाल किया, फेसबुक और ट्विटर से वर्ल्ड कप पाइनल के दौरान लोगों के जोश और उत्साह का अंदाज मिल रहा था ।
रायपुर बंधवा के अपने बंगले पर जब हमलोग शाम को बैठे तो लोगों के आने जाने का सिलसिला शुरू हो गया । चूंकि मैं घर का दामाद था इस लिए मुझे खास तौर पर इज्जत बख्शी जा रही थी। गांव में मेरे दिवंगत श्वसुर प्रोफेसर प्रियव्रत नारायण सिंह की काफी इज्जत थी । गांव से बाहर रहने के बावजूद उनका दिल गांव में ही बसता था । हर साल दो तीन बार गांव जरूर जाते थे । शाम को जब मैं और मेरी पत्नी के बड़े भाई राजेश जी गांव में घूमने निकले तो इस इज्जत का एहसास और गहरा हो गया । रास्ते में हर छोटा बडा़ आदमी राजेश जी को सलाम मालिक कह रहा था । जमींदारी तो 1953 में ही चली गई थी लेकिन इज्जत की जमींदारी अब भी कायम थी । कई लोग जो हमसे मिलने आ रहे थे वो राजेश जी और उनके चाचा के सामने कुर्सी या बेंच पर बैठने की बजाए जमीन पर बैठ रहे थे । मुझे यह सामंती लग रहा था लेकिन जब उनसे बात हुई तो पता चला कि यह उनके सम्मान देने का एक तरीका है, उन्हें कोई इसके लिए फोर्स नहीं करता है । यह सदियों से चली आ रही एक परंपरा है जिसे निभाया जा रहा है । यहां मेरे दिमाग में एक बात बार-बार उठ रही थी कि सुदूर गांव में हर कोई एक दूसरे को विश करने के लिए सलाम का इस्तेमाल कर रहा था । बोलचाल में उर्दू के लफ्जों का जमकर इस्तेमाल हो रहा था। उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहने वालों को उन इलाकों में जाकर देखना चाहिए कि जहां कोई मुस्लिम आबादी नहीं है वहां भी बगैर किसी औपचारिक शिक्षा के, सिर्फ परंपरा के सहारे लोग उर्दू का इस्तेमाल कर रहे थे । भाषा के बीच दरार पैदा करनेवाले लोगों को एसी कमरों से बाहर निकलकर लोगों के बीच जाने की जरूरत है।
इन पांच दिनों तक वहां रहने के दौरान कई अनुभव हुए । एक दिन अचानक दोपहर में घर के बरामदे पर बैठा था तो दर्जनों बच्चे थाली पीटते हुए सामने से गुजरे । पूछने पर पता चला कि ये बच्चे मिड डे मील स्कीम के तहत खाना खाने स्कूल जा रहे हैं । और दरियाफ्त की तो आगे पता चला कि बच्चों का नामांकन तो स्कूल में कर दिया गया है लेकिन उनकी पढ़ाई और उनके स्कूल में उपस्थिति ज्यादातर रजिस्टर में ही दर्ज होती है । बच्चे स्कूल में पढ़ने की बजाए दोपहर का खाना खाने आते हैं । दस बजे के करीब से स्कूल में खाना बनना शुरू हो जाता है और बारह-एक बजे तक बच्चों को खाना खिलाकर स्कूल के मास्टर लोग फारिग हो जाते हैं । उसी तरह से आंगनबाड़ी केंद्र का काम भी चल रहा था । लेकिन गांव के ही लोगों ने बताया कि मिड डे मील में जमकर घपला होता है । रजिस्टर में फर्जी छात्रों के नाम भी दर्ज होते हैं और जिले के आला शिक्षा अधिकारियों की मिलीभगत से यह फर्जीवाड़ा धड़ल्ले से चलता है । बातों -बातों में बता चला कि वहां एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी है जिसमें तैनात डॉक्टर घंटे -डेढ़ घंटे के लिए केंद्र में आते हैं । गांव के लोग इस बात से ही खुश दिखे कि कम से कम घंटे भर के लिए तो डॉक्टर गांव में होता है । नीतीश राज के पहले तो स्वास्थ्य केंद्र का ताला ही महीनों में खुलता था । यह भी पता नहीं चलता था कि किसी डॉक्टर की तैनाती वहां है या नहीं । लेकिन बड़ा सवाल अब भी है कि क्या नीतीश कुमार शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और सुधार कर पाएंगे । क्या केंद्र पर तैनात डॉक्टर पूरे समय तक मौजूद रहेंगे । क्या होटल में तब्दील हो रहे स्कूलों को विद्या का मंदिर बना पाएंगे । नितीश कुमार को प्रदेश की जनता ने प्रचंड बहुमत के साथ जिताकर दुबारा सत्ता तो सौंप दी लेकिन अब जनता की प्रचंड अपेक्षा भी है जिसपर नीतीश कुमार को खड़ा उतरना होगा । अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो इतिहास पुरुष हो जाएंगे और इगर उसमें कोई कमी रह जाती है तो इतिहास पुरुष बनने की बजाए इतिहास में खो जाने का खतरा भी उत्पन्न हो जाएगा ।
बंधवा में चार पांच दिन रहने के बाद हमलोग दोपहर बाद फिर से गया के लिए रवाना हो गए । देवकुंड, अमझरशरीफ से होते हुए हमलोग हसपुरा के रास्ते जा रहे थे । शाम घिरने लगी थी लेकिन डर कहीं नहीं था, खुली गाड़ी में अंधेरे में सफर जारी था । मुझे याद है जब शादी के बाद मैं अपने ससुराल गया जाया करता था तो शाम ढलने के बाद भी मेरे श्वसुर जी पास के बाजार में भी नहीं जाने देते थे । एक अजीब तरह का डर और अपराधियों का खौफ लोगों के मन में इतने अंदर तक था कि हर कोई शाम ढ़लने के पहले घर लौट आता था लेकिन सिर्फ पांच साल में एक वयक्ति ने पूरी फिजां ही बदल दी । अंत में मैं एक मजेदार वाकया सुनाता हूं जो वहीं किसी ने मुझे सुनाया - हसपुरा से एक लड़का गोह जाने के लिए बस में चढ़ा और उसने किराए के तौर पर पंद्रह रुपए निकाल कर दिए । कंडक्टर ने कहा कि किराए के बीस रुपए बनते हैं । दोनों मे बकझक होने लगी । रंगदार टाइप के उस लड़के ने कंडक्टर पर धौंस जमाते हुए कहा कि तुम मुझे जानते नहीं मैं तो पंद्रह रुपए ही दूंगा । तो कंडक्टर ने जबाब दिया कि तुम भूल गए हो कि लालू यादव का राज खत्म हुए छह साल हो गए हैं और अगर तुम तत्काल से किराए के बाकी पैसे नहीं दोगे तो या तो बस से उतार दूंगा और अगर रंगदारी करोगो तो थाने में बंद करवा दूंगा । तो समाज के आम आदमियों में कानून के प्रति जो यह विश्वास कायम हुआ है है वो बहुत कुछ कह जाता है ।

Saturday, April 23, 2011

लोकतंत्र को शर्मसार करता वाकया

अन्ना हजारे के आंदोलन की सफलता के जश्न और उसके बाद ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों पर आरोपों की बौछार ने पूरे देश में ऐसा माहौल बना दिया जैसे की वही देश की सबसे बड़ी समस्या हो । इस पूरे विवाद में सीडी के सरताज अमर सिंह की एंट्री ने उस गंभीर मुद्दे को मनोरंजक बना दिया । सीडी के शोर के बीच एक ऐसी खबर दबकर रह गई जिसने पूरे देश को शर्मसार कर दिया, साठ साल से ज्यादा के हमारे गणतंत्र पर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया । देश में सबसे ज्यादा साक्षर लोगों के प्रदेश केरल में एक ऐसा वाकया हुआ जो सभ्य समाज के मुंह पर करारा तमाचा है । केरल सरकार में एक वरिष्ठ दलित अधिकारी के रिटायर होने के दिन ही उनके दफ्तर में काम करनेवाले लोगों ने पूरे दफ्तर का शुद्धीककरण किया । सूबे के रजिस्ट्री विभाग में इंसपेक्टर जनरल के पद पर काम करनेवाले ए के रामकृष्णन जब इकत्तीस मार्च को सेवानिवृत्त हुए तो उस दिन उनकी विदाई के बाद उनके ही दफ्तर में काम करनेवाले कुछ लोगों ने उनकी कार को पहले पानी से धोया गया और फिर मंत्रोच्चार के बीच सार्वजनिक रूप से कार का शुद्धीकरण किया गया । बात इतने पर ही नहीं रुकी अगले दिन तो रजिस्ट्रार के दफ्तर के लोगों ने और आगे बढ़कर रामकृष्णन के बैठनेवाले कमरे और उनकी कुर्सी को भी पवित्र पानी में गाय के गोबर को घोलकर उससे साफ किया । पानी में गाय के गोबर को मिलाकर शुद्धीकरण करने की केरल में पुरानी मान्यता है । एक सरकारी दफ्तर में सरेआम इस तरह का वाकया हो और पूरा दफ्तर खामोश रहकर देखता रहे तो इस बात का पता चलता है कि हमारे समाज में जाति व्यवस्था कितने अंदर तक पैठ चुकी है । केरल की राजधानी में यह सब कुछ तब घटित हो रहा था जब कि लगभग एक पखवाड़े बाद सूबे में विधानसभा का चुनाव होनेवाला था। अफसोस की किसी भी राजनीतिक दल ने इस शर्मनाक वाकए को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया । उस कांग्रेस पार्टी ने भी इस मुद्दे पर कोई जनआंदोलन नहीं छेड़ा ना ही कोई मुहिम चलाई जो अपने आपको महात्मा गांधी की विरासत का वारिस कहते नहीं थकती । उस कांग्रेस पार्टी के नेताओं को भी यह मुद्दा नहीं लगा जिसके केरल के ही नेता और अब केंद्र में मंत्री व्यालार रवि के बेटे के विवाह के बाद गुरुवयूर मंदिर को शुद्ध किया गया था । सामाजिक समानता की बात करनेवाली वामपंथी पार्टी जो कि इस वक्त तक केरल में सत्ता में है,उसने भी इस मामले के सामने आने के बाद कोई कार्रवाई नहीं की। इस मामले में शिकायत मिलने के बाद राज्य मानवाधिकार आयोग ने सरकार के राजस्व विभाग से पूरे मामले की रिपोर्ट तलब की है । रिपोर्ट आने के बाद क्या कोई कार्रवाई हो पाएगी इस सवाल का जबाव तो अभी समय के गर्भ में ही है । एक जमाने में केरल के समाज में जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता समाज में गहरे तक धंसा था । स्वामी विवेकानंद ने केरल के समाज में भेदभाव की उस स्थिति पर गहरी चिंता जताई थी और महात्मा गांधी ने भी केरल के मंदिरों में दलितों के प्रवेश के लिए सत्याग्रह भी किए थे । केरल के प्रसिद्ध गुरुवयूर मंदिर में भी दलितों और गैर हिंदुओं के प्रवेश को लेकर लंबे समय तक जनआंदोलन चला था । लेकिन तमाम आंदलनों और समाज में शिक्षा के प्रचार प्रसार ने भी इस सामजिक बुराई को कम किया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है । ऐसा नहीं है कि दलितों के साथ भेदभाव सिर्फ केरल में ही हो रहा हो । चंद साल पहले उत्तर प्रदेश के न्यायिक अधिकारी ने भी इसी तरह के आरोप लगाए थे कि उनके दफ्तर के सहयोगी ने उनके बैठने की जगह का शुद्धीकरण किया था । उस मामले में भी शिकायत हुई थी लेकिन क्या कार्रवाई हुई यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है ।
केरल के अलावा हिमाचल प्रदेश के एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर में अब भी एक बोर्ड प्रमुखता से मंदिर के बाहर टंगा है - लंगर में शूद्रों का प्रवेश वर्जित है । यह किस तरह के समाज की तस्वीर जहां उसके ही लोगों का प्रवेश किसी धार्मिक स्थान में वर्जित है । देश की आजादी के चौंसठ साल बाद भी सार्वजनिक रूप से इस तरह के बोर्ड मंदिरों में लगे हैं और प्रशासन सो रहा है, सरकारों को इसकी फिक्र नहीं है । इससे तो यही प्रतीत होता है कि सरकार की मूक सहमति इस तरह की मान्यताओं के पक्ष में है या फिर वो इस तरह की समाजिक कुरीतियों को हचाने के प्रति उदासीन है । मंदिर में दलितों को प्रवेश नहीं मिलेगा, मंदिर के गर्भ गृह में महिलाओं को भी प्रवेश नहीं मिलेगा, लेकिन हम प्रगतिशील समाज हैं, हम आधुनिक हैं । इस तरह के दकियानूसी और घटिया विचार के लिए हमारे समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए । आज हमारा देश विश्व में सुपर पॉवर बनने का सपना देख रहा है । विश्व में हमारी अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी अर्थवयवस्था होने का ख्बाब देख रही है ,लेकिन समाज में इन विसंगतियों की ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है । आज पूरे देश में भ्रष्टाचार को लेकर बड़ा आंदोलन किया जा रहा है । तथाकथिकत सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे और सरकार के आला मंत्री भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए लोकपाल बिल के ड्राफ्ट बनाने में जुटे हैं । कांग्रेस के हाई प्रोफाइल नेता दिग्विजय सिंह लोकपाल बिल की ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं । लेकिन किसी के पास यह सोचने की फुरसत नहीं है कि समाज के निचले पायदान पर जीवन जी रहे लोगों को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और वो किस तरह जहालत और अपमानजनक जिंदगी जीने को अभिशप्त हैं । दलितों के घर में रात बिताने और उनके हाथ का खाना खाने वाले कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी को भी देश में दलितों के उत्थान की चिंता हो सकती है लेकिन उनकी तरफ से दलितों के उत्थान के लिए कोई ठोस पहल सामने नहीं आई है । क्या दलितों के घर में खाना भर खा लेने या उनके घर में रात बिता लेने से समाज में उनको मान्यता या फिर बराबरी का हक मिल पाएगा । दलितों के उत्पीड़न के खिलाफ कड़े कानून भर बना देने से उनका हित हो जाएगा या फिर उनपर अत्याचार रुक जाएंगे यह सोचना भी गलत है । कानून को सख्ती से लागू करना और समाज में उसका भय होना जरूरी है और यह तभी हो पाएगा जब ऐसे मामलों में त्वरित कार्रवाई होगी और दोषियों को सख्त से सख्त सजा मिलेगी ।
समाज से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए जारी जंग जायज है, इस मुहिम को हर तरह का और हर तबके का समर्थन मिलना चाहिए । लेकिन देश में भ्रष्टाचार से बड़ी समस्या अब भी दलितों की समाज में दयनीय स्थिति है । इस दिशा में देश के कर्ताधर्ताओं के साथ साथ सिविल सोसाइटी को भी विचार करना होगा । गांधी जी ने अप्रैल 1921 में अहमदाबाद में सप्रेस्ड क्लास कॉंफ्रेंस के अपने भाषण में कहा था- जबतक देश का हिंदू समाज छूआछूत को अपने धर्म का हिस्सा मानता रहेगा, जब तक हिंदू समाज अपने समाज के साथ रहनेवाले कुछ लोगों को छूना पाप समझता रहेगा तबतक स्वराज को पाना मुमकिन नहीं है । गांधी का यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है । हम चाहे भ्रष्टाचार के खिलाफ जितनी भी बड़ी लड़ाई लड़ लें, उसमें चाहे हमें कितनी भी बड़ी सफलता हासिल हो जाए लेकिन जब तक हमारे समाज में केरल जैसी घटनाएं घटती रहेंगी, तबतक हमारी उस जीत का कोई मतलब नहीं रह जाएगा ।

Sunday, April 17, 2011

महानगरीय जीवन की त्रासदी

राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के एक बेहद पॉश इलाके की बहुमंजिला इमारत के एक फ्लैट में सात महीने से दो बहनें गुमनाम जिंदगी जी रही थी । ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्तिगत अवसाद और असुरक्षा बोध की वजह से दोनों बहनें अनुराधा और सोनाली ने खुद को अपने फ्लैट में कैद कर लिया था । पिछले सात महीनों से दोनों बहनें ना तो घर से बाहर निकल रही थी और ना ही बाहर की दुनिया से या फिर अपने नाते रिश्तेदारों से कोई संपर्क रख रही थी । यह भी बेहद हैरान करनेवाला और चौंकानेवाल तथ्य सामने आया है कि चंद फीट के फासले पर मौजूद दूसरे फ्लैट में रह रहे परिवारों से भी उनका किसी तरह का कोई नहीं संबंध था । सात महीने बाद जब मीडिया में खबर प्रकाशित होने के बाद पुलिस की मौजूदगी में गैर सरकारी संगठन की मदद से फ्लैट को दोनों बहनों के विरोध के बावजूद ताला तोड़ कर खोला गया तो अंदर का मंजर दिल दहला देनेवाला था । फ्लैट में भयानक बदबू के बीच जिंदगी जी रही दोनों बहनों की हालत बेहद खराब थी । पूरे फ्लैट में खाने पीने का कोई सामान मौजूद नहीं था । जाने कब से दोनों बहनों ने खाना नहीं खाया था। महीनों की तन्हाई और कुछ नहीं खाने-पीने की वजह से एक बहन तो नरकंककाल में तब्दील हो चुकी थी और दूसरी चलने फिरने लायक तो थी लेकिन अस्पताल पहुंचते ही उसकी हालत भी खराब हो गई । बड़ी बहन तो खुलेपन में चौबीस घंटे भी जिंदा नहीं रह सकी जबकि दूसी भी सदमे में और तमाम बीमारियों की वजह से अस्पताल में बेंटिलेटर पर मौत और जिंदगी के बीच झूल रही है । नोएडा की इन बहनों की यह काहनी बेहद डरावनी लगती है लेकिन उससे भी भयावह है समाज का और हमारा आपका संवेदनाशून्य हो जाना । आपके पड़ोस में दो अकेली लड़की रहती है, उसके माता-पिता की मौत हो चुकी है, भाई वयक्ति कारणों से घर छोड़कर जा चुका होता है । दोनों की नौकरी चली जाती है । आर्थिक और समाजिक असुरक्षा का बोध इतना गहरा हो जाता है कि वो खुद को अपने घर में कैद कर लेती है । इतना सबकुछ होने के बाद भी आस पड़ोस के लोग दोनों बहनों की हालात से बेखबर रहते हैं, दो घरों के बीच की दीवार इतनी मोटी हो जाती है कि दीवार के उस पार तिल तिल कर मर रही दो जिंदगियों की सिसकियां भी पड़ोसियों को सुनाई नहीं देती या फिर हम उन्हें सुनना नहीं चाहते । इन दोनों की कारुणिक दास्तान से हमको, हमारे समाज को लेकर कई बड़े सवाल खड़े हो गए हैं । क्या इन बहनों की हालत के लिए हम और आप जिम्मेदार नहीं है । एक बहन की मौत खुदकुशी नहीं बल्कि हत्या है । समाज की संवेदनाशून्यता ने उनकी हत्या कर दी । सवाल यह उठ खड़ा होता है कि हम और आप इतने संवेदनहीन क्यों हो गए हैं । क्यों समाज और आस पड़ोस को लेकर हमारी संवेदनाएं मर गई हैं । वसुधैव कुटुम्बकम की हमारी परंपरा से हम इतने दूर क्यों चले गए हैं । इन सवालों का जबाव ढूंढने की अगर हम कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि महानगर की भागदौड़ की जिंदगी और पैसा कमाने की हवस ने हमको ना केवल संवेदनशून्य बना दिया बल्कि हम स्वकेंद्रित भी होते चले गए । इस आपाधापी में हमारा परिवार और हमारा समाज हमसे दूर होता चला गया । हम महानगर की भाग दौड़ की जिंदगी में अपने को स्थापित करने की होड़ में इतने डूब गए कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से मुंह चुराने लगे । पश्चिमी सभ्यता के आक्रमण और उसके बाद उसके अंधानुकरण ने हमसे हमारे समाज को अलग कर दिया । नतीजा यह हुआ कि महानगरों में न्यूक्लियर फैमिली की अवधारणा को बल मिलता चला गया है । मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे की अवधारणा ने परिवार के बाकी बचे लोगों को अलग-थलग कर दिया । इस अलगाव की वजह से परिवार के अन्य लोगों में असुरक्षा की भावना पैदा होती गई । इस असुरक्षा की भावना ने उनको डिप्रेशन का शिकार बना दिया जिससे वो मनोरोग के शिकार होते चले गए । हाल ही में एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली में सिर्फ दस फीसदी लोग संयुक्त परिवार में रहते हैं जबकि 76 फीसदी लोग एकल परिवार का हिस्सा हैं । इस एकाकीपन का जो खौफ होता है, अपने परिवार से अलग होने या रहने का जो एक अजीब अनुभूति होती है जिसे हर कोई वयक्त नहीं कर पाता है, अंदर ही अंदर घुटते रहने से और अपनी भावनाओं को जज्ब करने से मानसिक रोगी होने का खतरा बढ़ जाता है। महानगरों में एकल परिवार की अवधारणा को बढावा देने के दो अहम कारण हैं- पहला तो काम करने या फिर पढ़ाई लिखाई के जगह का दूर होना और दूसरा परिवार में पर्सनल स्पेस की कमी । अभी कुछ दिनों पहले इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के तीन महानगरों में कराए गए सर्वे का नतीजा भी बेहद हैरान करनेवाला है । आईसीएमआर के उस सर्वे के मुताबिक दिल्ली में रहनेवाले आठ प्रतिशत लोग तनाव के शिकार हैं जबकि चंडीगढ़ और पुणे में स्थिति थोड़ी सी बेहतर है जबकि चेन्नई में हालात बेहद खराब हैं और वहां तकरीबन सोलह फीसदी लोग मानसिक रोगी हैं । अगर हम पूरे देश पर नजर डालें तो तकरीबन सवा करोड़ लोग किसी ना किसी तरह के मानसिक रोग के शिकार हैं । सिर्फ दिल्ली में ही दो हजार एक के मुकाबले दो हजार दस में मानसिक रोगियों की संख्या में छह फीसदी का इजाफा हुआ है । यहां हमें यह याद रखना होगा कि इसी दस साल में देश ने आधुनिकता का दामन कसकर पकड़ा और उन्मुक्त अर्थवयवस्था ने देश में अपने पांव पसारे । इसके अलावा अगर हम इंडियम साइकेट्रिक सोसाइटी की सालाना रिपोर्ट पर गौर करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि एकांत अवसाद का प्रमुख कारक है और तकरीबन पचपन फीसदी लोगों की सामाजिक भागीदारी नग्णय है । इसमें ज्यादातर वो लोग हैं जो अन्य शहरों या सूबों से नौकरी की तलाश में यहां आए और अपना कोई समाज नहीं बना पाए । सामाजिक सहभागिता कम होने की वजह से लोग अवसाद के शिकार होते चले गए । अगर मनोचिकित्सकों की मानें तो सामाजिक या पारिवारिक या फिर आर्थिक असुरक्षा बोध में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा जल्दी डिप्रेशन की शिकार हो जाती हैं और अकेलापन इस डिप्रेशन को और बढ़ा देता है । महिलाओं के अलावा महानगरों में बुजुर्गों में भी असुरक्षा का बोध ज्यादा होता है । अपने बच्चों को पढ़ा लिखाकर योग्य बनाने के बाद उनके बच्चे उन्हें ही छोड़ जाते हैं । कई परिवारों के साथ तो यह भी देखने को मिलता है कि बेटे-बहू एक ही शहर में अलग रहते हैं और बुजुर्ग मां-बाप भी उसी शहर में अलग मकान में रहते हैं । मां-बाप को उम्र के उस मुकाम पर जब अपने औलाद के साथ की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तभी वो अलग हो जाते हैं । इसल अलगाव से जो मानसिक तनाव या फिर बच्चों की संवेदनहीनता से एकाकीपन का जो गहरा एहसास होता है वो उन्हें अंदर से तोड़ देता है जिसकी भरपाई ताउम्र नहीं हो पाती है। नोएडा में दोनों बहनों की इस घटना ने हमारे समाज को एक बार फिर से झकझोर दिया है और यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि महानगरों की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में एकाकी से बढ़ रहे अवसाद या फिर डिप्रेशन को कैसे रोका जाए ।

Friday, April 15, 2011

जश्न में दबे बड़े सवाल

चार दिनों से दिल्ली के जंतर मंतर पर जारी बुजुर्ग समाजसेवी अन्ना हजारे का जनलोकपाल बिल को लेकर जारी आमरण अनशन खत्म हो गया । अन्ना के अनशन और देशभर में उसको मिल रहे अपार जनसमर्थन को देखकर सरकार के हाथ पांव फूल गए । भारत सरकार के कर्ता-धर्ता और वरिष्ठ मंत्रियों के बीच कई दौर की बातचीत के बाद अन्ना की सभी मांगे मान ली गई । चार दिन तक चले एक व्यक्ति के आंदोलन ने भारत सरकार को जनता की भावनाओं को समझने और अन्ना की मांग मानने के लिए मजबूर कर दिया । दो दिन पहले जिस सरकार की एक वरिष्ठ मंत्री अंबिका सोनी दहाड़ते हुए बयान दे रही थी कि चंद मुट्ठी भर लोगों के दबाव में सरकार झुकने वाली नहीं है । उन्हीं चंद मुट्ठीभर लोगों ने सरकार से अपनी सभी मांगे मनवा ली । अन्ना के आह्वान पर देशभर में जिस तरह से हर वर्ग के लोग स्वत:स्फूर्त घर से बाहर आंदोलन के लिए निकले वो इस अनशन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । वैश्वीकरण के इस दौर में कई विद्वानों की राय थी कि जिस तरह से देश का नया मध्यवर्ग बाजार के प्रभाव में है उसमें वो सिर्फ अपने बारे में सोचती है और उनके सामाजिक सरोकार खत्म हो गए हैं । आम जनता से जनआंदोलन की अपेक्षा करने की तो वो सोच भी नहीं सकते थे । नतीजा यह हुआ कि देश के नेताओं के मन में जनादेश को लेकर जो आदर होना चाहिए था वो खत्म होने लगा था । जनता का डर कम होने के इस भाव से नेताओं के मन में यह बैठ गया कि वो कुछ भी करके बेदाग निकल सकते हैं । जनता की गाढ़ी कमाई के लाखों-करोड़ों रुपए डकार कर भी वो मजे में रह सकते हैं । उनके मन से जनता का डर और आमजन के प्रति आदर का भाव खत्म होने लगा था जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत था । लेकिन अन्ना के अनशन ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया कि अगर कोई विश्वसनीय व्यक्ति जनता से जुड़े मुद्दे को लेकर खड़ा होता है तो देश की जनता का ना केवल उसे समर्थन मिलता है बल्कि देश के हर तबके का आदमी उसकी एक आवाज पर घर से निकल कर उसके कदम से कदम मिलाकर सरकार से लोहा लेने तो भी तैयार हो जाते हैं । अन्ना के अनशन ने एक बार फिर से देश के नेताओं में जनता के लिए आदर और जनता का डर कायम कर दिया । अन्ना का अनशन खत्म हो गया देशभर में अभी जीत का जश्न मनाया जा रहा है । लोगों को लग रहा है कि उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ी जंग जीत ली है । दरअसल पूरा भारतीय मानस जो है वो बेहद इमोशनल है, एक छोटी सी उपलब्धि में भी वह मानस जश्न में डूब जाता है । लेकिन जीत के इस जस्न के बीच कई सवाल भी मुंह बाए खड़े हो गए हैं । सबसे पहला और बड़ा सवाल यह खड़ा हो गया है कि अन्ना के इस अनशन से हासिल क्या हुआ । अगर हम उपरी तौर पर देखें तो लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की जनता को बड़ी जीत और कामयाबी हासिल हुई है । देश में इस तरह का एक वातावरण बन गया है जिसमें आम जनता को लगने लगा है कि लोकपाल बिल भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बडा़ हथियार होने जा रहा है जिसे भ्रष्टाचार रूपी राक्षस का वध संभव हो सकेगा । लेकिन क्या सचमुच ऐसा संभव हो पाएगा । अगर कुछ देर के लिए यह मान लिया जाए कि जनदबाव में प्रधानमंत्री, मंत्री और देश के आला अफसर लोकपाल के दायरे में आ जाते हैं और लोकपाल को किसी को मुजरिम करार देकर सजा देने का अधिकार भी दे दिया जाता है तो क्या इससे भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकेगा । अगर यह भी मान लिया जाए कि माथापच्ची के बाद बिल ोक कानूनी जामा पहना कर लागू कर दिया जाता है । तो क्या सिर्फ कानून बना देने भर से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा । लेकिन सिर्फ कानून बना देने भर से जुर्म कम नहीं होता । जरूरत होती है कानून को सही तरीके से लागू करने की और ऐसा वातावरण तैयार करने की जिसमें मुजरिमों के मन में कानून का भय पैदा हो जाए । भ्रष्टाचार से निबटने के लिए हमारे देश में पहले से प्रीवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट है । उसमें भी भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए कई सख्त प्रावधान हैं तो कई खामियां भी हैं । जरूरत इस बात की है कि भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए एक नया कानून बनाने के बजाए वर्तमान में लागू कानून की कमियों को दूर किया जाए । जैसे अफसरों या मंत्रियों को आरोपी बनाने के पहले जो इजाजत लेने का प्रावधान है उसको खत्म किया जाना चाहिए । वर्तमान कानून में स्पेशल जज से सुनवाई का प्रावधान है लेकिन बहुधा ऐसा हो नहीं पाता है । जरूरत इस बात की है कि भ्रष्टाचार के मामले में न्यायिक प्रक्रिया को तेज किया जाए और दोषी को जल्द से जल्द सजा दिलवाया जाए । एक और अहम सवाल उठता है कि क्या इसती आसानी से लोकपाल को इतने तरह के अधिकार दे दिए जा सकते हैं । देश के मौजूदा कानून और संवैधानिक संस्थाओं को संविधान से मिले अधिकारों के मद्देनजर यह इतना आसान नहीं है । इसमें कई संवैधानिक अड़चनें आएंगी – ड्राफ्ट कमिटी का गठन जितनी आसानी से नोटिफाई हो गया है प्रस्तावित बिल का मसौदा बनाने में उतनी ही दिक्कतें आएंगी । लोकपाल बिल के कानून बनने के बाद भी हर आरोपी के पास राइट टू अपील तो होगा ही । किसी भी तरह के कानून से अपील के इस अधिकार को ना तो खत्म किया जा सकता है और ना ही ऐसा किया जाना चाहिए । क्योंकि अगर ऐसा होता है तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक बात होगी । राइट टू अपील आरोपी के हाथ एक ऐसा अधिकार है जिसका इस्तेमाल करके वो लंबे समय तक खुला घूम सकता है, संसद और विधानसभा का सदस्य बन सकता है । देश का कोई भी कानून आरोपी को चुनाव लड़ने से नहीं रोकता है । एक अजीब विडंबना और भी है कि अगर कोई संसद सदस्य या मंत्री या विधानसभा का सदस्य किसी जुर्म में दोषी भी करार दे दिया जाता है तो उसकी सदस्यता खत्म नहीं होती है और सिर्फ आरोपी है तो वह ठाठ से लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर का सम्मानित सदस्य बना रह सकता है । जरूरत इस बात की है कि इस तरह के कानूनों में संशोधन किया जाए । अगर भ्रष्टाचार पर लगाम लगानी है तो न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने और मुकदमों के जल्द से जल्द निबटारे की आवश्यकता है, जिसकी ओर अन्ना को ध्यान देना चाहिए था । इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बेहद अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है । वहां के अपराधियों के खिलाफ फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई करवाकर जल्द से जल्द मुकदमे का निबटारा करवाया और मुजरिमों को सजा मिली । नतीजा यह हुआ कि सूब में लोगों के मन में कानून के प्रति एक विश्वास जगा और अपराधियों के मन में कानून का भय । अंत में एक बात और कि अन्ना को इस अनशन के दौरान कई उत्साही लोगों ने छोटे गांधी कह डाला लेकिन गांधी और अन्ना में बुनियादी अंतर है । गांधी हमेशा व्यक्ति में बदलाव की बात करते थे और अन्ना संस्थागत बदलाव की बात करते हैं । गांधी हमेशा आदर्श स्थिति और रामराज्य की कल्पना करते थे । उनका मानना था कि लोगों का मन इतना साफ हो कि वो भ्रष्टाचारी बनें ही ना जबकि अन्ना हजारे कानून बनाकर उसे रोकने की बात करते हैं ।गांधी का लक्ष्य और आदर्श दोनों बेहद बड़े थे । इसलिए गांधी से अन्ना की तुलना बेमानी है । लेकिन उत्साह में बहुधा तुलना में गलती हो जाती है

Thursday, April 14, 2011

सवालों के घेरे में ललित कला अकादमी

क्रिकेट के विश्वकप के शोरगुल में एक अहम घटना दब कर रह गई । यह एक ऐसी घटना है जो सरकार पोषित संस्था के कार्यकलापों पर सवालिया निशान खड़ा करती है । मैं बात कर रहा हूं ललित कला अकादमी की जिसके अध्यक्ष हिंदी के वरिष्ठ कवि, आलोचक और कला प्रेमी अशोक वाजपेयी हैं । सवाल इस लिए खड़े हो रहे हैं कि एक मशहूर चित्रकार डॉक्टर प्रणब प्रकाश ने अकादमी पर मनमानी का आरोप लगाया है । प्रणब प्रकाश का आरोप है कि उसने अरुंधति की एक न्यूड पेंटिग बनाई जिसकी वजह से ललित कला अकादमी ने उसकी पेंटिंग प्रदर्शनी की इजाजत नहीं दी । प्रणब का कहना है कि ललित कला अकादमी के अधिकारियों ने उन्हें मौखिक रूप से इस प्रदर्शनी की इजाजत दे दी थी और दो मार्च को उन्हें अकादमी के दफ्तर में आकर पैसे जमाकर प्रदर्शनी लगाने का आदेश पत्र लेने के लिए बुलाया गया था । लेकिन जब वो दो मार्च को अकादमी के दफ्तर में पहुंचे तो उन्हें मना कर दिया गया । पहले तो यह बताया गया कि उन्हें प्रदर्शनी के लिए गैलरी नहीं मिल सकती है क्योंकि बांग्लादेश के कुछ कलाकार उन्हीं तारीख को अपनी पेंटिग्स की नुमाइश करना चाहते हैं । लेकिन प्रणब प्रकाश का आरोप है कि जब उन्होंने कहा कि अगर बांग्लादेश के चित्रकारों की प्रदर्शनी उन्हीं तारीखों में लगनी थी तो पहले ही अनुरोध आया होगा ऐसे में उन्हें क्यों बुलाया गया । इस बात पर अकादमी के उपसचिव ने गैलरी के एसी खराब होने की बात बताई, साथ ही उन्हें इशारों-इशारों में यह भी बता दिया गया कि सचिव और अकादमी के आला अफसर उनके अरुंधति के न्यूड पेंटिग से खफा हैं और इस वजह से उनको प्रदर्शनी की इजाजत नहीं दी जा सकती है । हलांकि ललित कला अकादमी के सचिव सुधाकर शर्मा का कहना है कि प्रणब प्रकाश को कभी प्रदर्शनी की इजाजत दी ही नहीं गई थी, लिहाजा मनमानी का कोई सवाल ही नहीं उठता है । उन्होंने तो यह भी कहा कि अगर प्रणब प्रकाश के पास ललित कला अकादमी से किसी भी तरह का कोई पत्र व्यवहार हुआ हो या अकादमी ने हामी भरी हो तो वो फैरन दिखाएं । अगर ऐसा होता है तो सुधाकर शर्मा अपने अधिकारियों के खिलाफ जांच की बात भी करते हैं । दरअसल यह पूरा विवाद है बड़ा ही दिलचस्प । पढ़ाई से डॉक्टर, पेशे से शिक्षक और अपनी पेंटिग्स के जरिए मशहूर हुए प्रणब प्रकाश ने एक बेहद ही विवादास्पद पेंटिग बनाई जिसका शीर्षक दिया – गॉडेस ऑफ फिफ्टीन मिनट्स ऑफ फेम । इस पेंटिंग का नाम भी अरुंधति की मशहूर किताब गॉड ऑफ स्माल थिंग्स से ही उठाया गया है । इस विवादास्पद पेंटिंग में प्रणब प्रकाश ने लेखिका अरुंधति राय को न्यूड तो पेंट किया ही साथ ही एक ही बिस्तर पर उन्हें दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन और चीन के नेता माओ के साथ दिखाया । प्रणब ने अपनी इस पेंटिग में बेहद चटख रंगों का इस्तेमाल करके अपने विरोध को मुखरता के साथ चित्रित किया है । प्रणब का कहना है कि अरुंधति एक बेहद प्रचार प्रिय लेखिका और तथाकथित समाजसेवी हैं जो प्रचार के लिए एक तरफ तो नक्सलियों के पक्ष में खड़ा होती हैं दूसरी तरफ कश्मीर के अलगाववादी नेताओं के साथ भी अपनी एकजुटता दिखाती हैं । प्रणब प्रकाश के इस पेंटिंग्स के बाद तो भूचाल आ गया । कई वामपंथी लेखकों और विचारकों और कलाकारों ने इसे घोर आपत्तिजनक माना और उसको प्रचार का हथकंडा करार दिया । अरुंधित के न्यूड पेंटिंग पर आपत्ति जताते हुए उक्त पेंटिग को वयक्ति विशेष की निजता का हनन और अभिवयक्ति की आजादी का दुरुपयोग करार दिया गया । उन्होंने इसे एक लेखक का अपमान बताते हुए इस तरह की चीजों को गैरजरूरी बताया । अभिवयक्ति की आजादी के बेजा इस्तेमाल पर शोर मचाने वाले यही लोग तब एम एफ हुसैन का समर्थन कर रहे थे जब उन्होंने सरस्वती, दुर्गा और सीता की आपत्तिजनक तस्वीरें बनाई थी । दरअसल मुझे लगता है कि प्रणब प्रकाश तो एस एफ हुसैन के दिखाए रास्ते पर ही चलने की कोशिश कर रहे हैं । एक बार हुसैन साहब ने भी आइंस्टीन, हिटलर और गांधी की तस्वीर बनाई थी जिसमें उन्होंने हिटलर को नंगा दिखाया था । जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने तीनों में सिर्फ हिटलर को उन्होंने नंगा पेंट किया तो एम एफ हुसैन ने जवाब दिया था कि किसी को अपमानित करने का यह उनका अपना तरीका है । और प्रणब प्रकाश बी यही कर रहे हैं । खैर यह एक अलग और अवांतर प्रसंग है जिसपर मैंने चौथी दुनिया के अपने इसी स्तंभ में कई लेख लिखे हैं । अब यहां सवाल यह उठता है कि प्रणब प्रकाश की पेंटिंग्स पर विवाद हो सकता है लेकिन क्या ललित कला अकादमी को किसी भी पेंटर के प्रदर्शनी को रोकने की इजाजत दी जा सकती है । ललित कला अकादमी देश की शीर्ष संस्था है जिसपर देश और विदेश में भारतीय कला को प्रोत्साहित करने और प्रचार प्रसार की महती जिम्मेदारी है । अगर यह संस्था किसी चित्रकार को उसके चित्रों के आधार पर दरकिनार करता है तो यह उसके घोषित उद्देश्य से भटकने जैसा होगा । ललित कला अकादमी पर इस तरह के आरोप पहले भी लग चुके हैं । कुछ दिनों पहले कार्टूनिस्ट इरफान ने भी अकादमी पर आखिरी वक्त पर प्रदर्शनी के लिए गैलरी देने से इंकार करने का इल्जाम लगाया था । उनका आरोप था कि चूंकि उनकी प्रदर्शनी का उद्घाटन बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी को करना था इस वजह से उसको जगह देने से मना कर दिया गया । बाद में वह प्रदर्शनी प्रेस क्लब ऑप इंडिया में लगाई गई थी । तब भी अकादमी की तरफ से यही बताया गया था कि इरफान को इजाजत नहीं दी गई थी । अगर एक ही तरह के आरोप कई लोग लगाते हैं तो ललित कला अकादमी की कार्यप्रणाली के बारे में उसके कर्ताधर्ताओं को सोचना चाहिए । किसी विचारधारा विशे, से ताल्लुक रखनेवाले कलाकार पर पाबंदी लगाकर तो सिर्फ फासीवाद का उदाहरण ही प्रस्तुत किया जा सकता है । लोकतंत्र में इस तरह से विचारधारा पर पाबंदी लगाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है । इस तरह के काम वामपंथी प्रभाव वाले संस्थानों में जमकर हुआ है । जबतर वामपंथ का जोर रहा राष्ट्रवादी विचारधारा या फिर उनका विरोध करनेवाले को भगवा विचारधारा का पोषक करार देकर अछूत जैसा व्यवहार किया जाता रहा । इस बात को ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी से बेहतर कोई नहीं समझ सकता । अशोक वाजपेयी पर भी कलावादी कहकर जाने कितने हमले हुए । लेकिन अंतत बचता है तो लेखन और कला ही । अगर अशोक वाजपेयी के ललित कला अकादमी का अध्यक्ष रहते हुए कलाकारों के साथ उनकी विचारधारा के आधार पर भेदभाव किया जाता है, पावंदियां लगाई जाती हैं तो यह हिंदी जगत को किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं होगा । ललित कला अकादमी पर इस तरह के आरोप से बचाने के महती जिम्मेदारी उसके अध्यक्ष अशोक वाजपेयी पर है और पूरे देश को उनसे वस्तुनिष्ठता की उम्मीद है ।

Saturday, April 9, 2011

निराशा का संपादकीय

पिछले पच्चीस साल से राजेन्द्र यादव के संपादन में प्रकाशित हंस का संपादकीय होता है- मेरी तेरी उसकी बात । मैं पिछले पच्चसी साल से तो नहीं लेकिन सत्तरह अठारह साल से नियमित राजेन्द्र जी का संपादकीय पढ़ता रहा हूं । मुझे यह कहने या मानने में कोई संकोच नहीं है कि हंस के संपादकीय ने मुझे चीजों को देखने समझने की एक अलग दृष्टि दी । राजेन्द्र यादव का संपदकीय बहुधा उर्जा से लबरेज और व्यवस्था से लड़ने भिड़ने पर उतारू या सामाजिक रूढियों पर चोट करता हुआ रहता था । यादव जी की तीखी भाषा और तर्क गढ़ने की शक्ति का कायल हो गया था । कई बार हंस संपादक से उनके संपादकीय में प्रकट किए गए विचारों को लेकर असहमतियां भी रही जो लिखकर या फिर मौखिक दर्ज करवाई । लोग संपादकीय के बारे में बेशक अनाप शनाप बोलते रहे हों, कई नामवर लोग तो -मेरी तेरी उसकी बात- को कूड़े की बात कहकर मजाक भी उड़ाते रहे हैं लेकिन अगर ईमानदारी से कहूं तो मुझे उनका संपादकीय हमेशा से विचारोत्तेजक लगता रहा है । अभी पिछले दो तीन अंकों का संपादकीय बेहद अच्छा था,पसंद इसलिए आ रहा था क्योंकि कम डिप्लोमैटिक था । साफ बातें हमेशा से लोगों को पसंद आती हैं, मुझे भी । लेकिन फरवरी अंक का संपादकीय पढ़कर मुझे जाने क्यों बेहद कोफ्त हुई । मैं उनको पत्र लिखना चाह रहा था लेकिन अपनी व्यस्तताओं की वजह से लिख नहीं पाया । लेकिन अगले ही अंक में संपादकीय की भूल-गलतियों पर साधना अग्रवाल का एक लंबा पत्र और राजेन्द्र यादव का खेद भी प्रकाशित है । लेकिन वो तो तथ्यात्मक भूल की बातें थी लेकिन फरवरी अंक के संपादकीय से जो निराशा का भाव सामने आता है वो ना केवल चिंता जनक है बल्कि उस निराशा के अंधकार में यादव जी इतना डूब जाते हैं कि उन्हें पूरी दुनिया, समाज का हर तबका(लेखक को छोड़कर) भ्रष्ट और टुच्चा नजर आता है । उनके संपादकीय को देखिए- “घूस, घोटालों और घपलों का एक साल (2010) बीत गया, शायद यह साल स्वतंत्र भारत के सबसे काले दिनों के रूप में याद किया जाएगा, जहां निरंकुश सत्ता भारतीय संविधान से कारपोरेट हाउसों ने छीन ली और देश के सारे शक्ति स्तंभ चरमरा कर ढह गए हैं । पांचवां स्तंभ यानी मीडिया या तो पेड न्यूज के हाथों बिक गया है या नीरा राडिया जैसों के माध्यम से दोनों हाथों से दलाली खा रहा है ।“ यादव जी के इस संपादकीय ने मीडिया को लोकतंत्र में एक पायदान नीचे ठेल दिया अब तक चौथा स्तंभ माना जाता था लेकिन राजेन्द्र जी ने इसे पांचवा स्तंभ करार दिया । निराशा के घोर आलम में राजेन्द्र यादव जी ने पूरी मीडिया को बिका हुआ या दलाल करार दे दिया । यादव जी जैसे जिम्मेदार और बुजुर्ग लेखक से इस तरह की फतवेबाजी की उम्मीद नहीं की जा सकती है । अगर किसी एक दो अखबार में पेड न्यूज छप रहा है या फिर कुल जमा चार पत्रकारों के नीरा राडिया से संवंध सामने आए हैं वैसे में पूरी मीडिया को दलाल कहना गैरजरूरी ही नहीं गैर जिम्मेदाराना भी है । यादव जी जैसे सम्मानित लोगों को इस तरह के स्वीपिंग रिमार्क से बचना चाहिए । उन्हें शायद इस बात का एहसास होगा कि लोग उनकी बात सुनते हैं, उनके कहे का समाज पर असर पड़ता है । इसलिए अगर वो कोई बात कहते हैं तो उसमें सब्सटैंस होना चाहिए । लेकिन वो तो एक डंडा लेकर निकल पड़े हैं और उससे ही सभी को हांकने पर आमादा हैं । मीडिया पर यहीं नहीं रुकते उसी में आगे कहते हैं – देश की राजधानी में हर रोज दर्जनों हत्याएं, बलात्कार और लूट-पाट की घटनाएं आम हो चुकी हैं – गरीबी अमीरी के बीच की खाई अपराधों और हत्याओं से पाटी जा रही है । गरीब और वंचित आदमी आखिर कब तक उपर वालों की हजारों-लाखों करोड़ की हेर-फेर को चुपचाप बैठा देखता रहे ? टीवी चैनलों और अखबारों के पास इन सनसनीखेज खबरों के सिवा परोसने को कुछ नहीं बचा है । वे इन्हें ही कूट पीस रहे हैं । गांव और गरीबी का वहां कोई नामोनिशान नहीं रह गया है । यहां भी यादव जी का संपादकीय समान्यीकरण के दोष का शिकार हो गया है । यादव जी जिन घपलों –घोटालों की बात कर रहें हैं उसे किसने उजागर किया । जिस एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ के टेलीकॉम घोटाले में पूर्व मंत्री ए राजा जेसल में हैं उसका पर्दाफाश किसने किया । क्या एक अखबार के रिपोर्टर ने आजाद भारत के इस सबसे बड़े घोटाले का पर्दाफाश नहीं किया । क्या कमजोर के हक की लडाई मीडिया नहीं लड़ता है । क्या यादव जी जेसिका के इंसाफ की लड़ाई भूल गए या फिर प्रियदर्शिनी मट्टू कांड में मीडिया की सामाजिक भूमिका को भुला दिया या फिर अभी अभी दिल्ली के एक कॉलेज की लड़की राधिका की सरेआम हत्या पर मीडिया ने सरकार और पुलिस पर दबाव नहीं बनाया । यह फेहरिश्त बड़ी लंबी है । लेकिन यादव जी देखना चाहें तब तो उन्होंने तो पहले से ही तय कर लिया है कि सबका नाश करना है और फिर उसपर पिल पड़े । लेकिन जब आप सामान्यीकरण की बीमारी से ग्रस्त होते हैं तो आप सिर्फ वही देख सकते हैं जो आप देखना चाहते हैं । आगे अपने संपादकीय में यादव जी अपने पसंदीदा विषय नक्सली और उसके हमदर्द विनायक सेन पर पहुंचते हैं और टिप्पणी करते हैं – उधर काश्मीर, असम और महाराष्ट्र में रोज बंद होते हैं । घर बसें और सार्वजनिक संपत्तियां फूंकी जाती हैं । गोली लाठी पत्थर चलाए जाते हैं ऐसे में आदिवासियों, किसानों के हितों के लिए लड़नेवाले माओवादी, नक्सली देश के दुश्मन नंबर वन घोषित ही नहीं किए जाते, फौजों और हवाई जहाजों से वहां शांति स्थापित की जाती है । भगवान जाने किसने माओवादियों को देश का दुश्मन नंबर वन घोषित किया है लेकिन यादव जी इतना तो तय मानिए कि जिसे आप आदिवासियों और किसानों के हितों के लिए लड़नेवाला नक्सली और माओवादी बता रहे हैं वो अब सिर्फ अपने हित की सोचते हैं । अब वो अपराधी बन चुके हैं । अब वो फिरौती के लिए अपहरण करते हैं और धन नहीं मिलने पर मासूमों को जान से मार डालते हैं । किसानों के हितों की आड़ में अपराध का नंगा खेल खेला जा रहा है । उससे भी चिंता की बात है कि उनका संपर्क आतंकवादी और अलगाववादी संगठनों से होने लगा है । लेकिन यादव जी आप जिस लाल चश्मे से नक्सलियों को देखते हैं उससे तो वो किसानों और गरीबों के हितों का रक्षक ही नजर आएगा । जरा आंखों से लाल चश्मा हटाकर देखिए आपको अपराध की काली दुनिया नजर आएगी । जिस बिनायक सेन को आप गरीबों का चिकित्सक बता रहे हैं वो देशद्रोह की सजा काट रहे हैं । देश के तमाम नामी गिरामी वकीलों और गैर सरकारी संस्थाओं का पैसा भी बिनायक सेन को हाईकोर्ट से जमानत नहीं दिलवा सका । आपलोगों का तर्क होगा कि अदालत भी तो राज्य सत्ता का एक अंग ही होता है । देश की न्यायपालिका पर भी आपका भरोसा नहीं रहा । आपने लिखा- न्यायपालिकाएं खुलेआम अपने फैसले अपराधी के पक्ष में बेच रही हैं । यहां भी जनरलाइजेशन । अगर हमारी न्यायपालिका अपने फैसले बेच रही होती तो विदेशों से आर्थिक मदद पानेवाली देशी एनजीओ बिनायक सेन के लिए फैसला खरीद चुकी होती । लेकिन यकीन मानिए यादव जी हमारी देश की न्यायपालिका आपको अवस्य बिकी हुई नजर आ रही हो लेकिन एक दो अपवादों को छोड़कर, कमोबेश ईमानदार है । राजेन्द्र जी के अपने इस छाती पीट रंडी रोना पर क्षमा मांगते हुए भविष्य को और काला देख रहे हैं । लेकिन असलियत में यादव जी जितना काला देख पा रहे हैं उतना है नहीं । समाज के हर क्षेत्र में गड़बड़ लोग हैं, गड़बड़ियां भी हो रही है लेकिन उससे ज्यादा अच्छा काम भी हो रहा है । जरूरत है कि हम अपने अप्रोच और आउटलुक में पॉजेटिव हों । अगर इतना हो गया तो यकीन मानिए यादव जी की निराशा की काली छाया भी छंट जाएगी ।