Translate

Wednesday, March 30, 2016

मोहल्ला पुस्तकालय से निकलेगा रास्ता

दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार गैर पारंपरिक राजनीति के लिए तो जानी ही जाती है वो अलग तरह की योजनाएं बनाकर चौंकाती भी रही है । हाल ही में जिस तरह से दिल्ली में मोहल्ला क्लीनिक शुरू होकर सफल हुआ उसकी देश विदेश में तारीफ हो रही है । मोहल्ला क्लीनिक की तर्ज पर अब दिल्ली सरकार मोहल्ला पुस्तकालय खोलने की योजना पर गंभीरता से विचार कर रही है । दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी ने तय किया है एक अप्रैल से शुरू होनेवाले वित्त वर्ष में वो दिल्ली की सत्तर विधानसभाओं में मोहल्ला पुतकालय खोलेगी । हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष और मशहूर कथाकार मैत्रेयी पुष्पा के मुताबिक पहले चरण में सत्तर विधानसभा में पुस्तकालय खोले जाएंगे । हिंदी अकादमी की इस पहल से देश में खत्म हो रही पुस्तक और पुस्तकालय संस्कृति को एक नया जीवन मिलने की शुरुआत हो सकती है । हिंदी अकादमी के ही दिल्ली में तेरह केंद्रों पर लाइब्रेरी चल रही है जो मरणासन्न है, उसको भी देखने की जरूरत है । इसके अलावा दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी और ऐतिहासिक लाला हरदयाल लाइब्रेरी है जहां मूलभूत सुविधाओं का आभाव है । धनाभाव के चलते किताबों के रखरखाव से लेकर उसके डिजीटाइजेशन का काम नहीं हो पा रहा है । लिहाजा ऐतिहासिक महत्व की किताबें नष्ट हो रही हैं या उनके नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया है । दिल्ली सरकार को मोहल्ला पुस्तकालयों के साथ साथ इस ओर भी ध्यान देना होगा । दूसरी चुनौती उन पुस्तकालयों में किताबों के चयन और खरीद में होनेवाले घपले से बचाने की होगी । ये घपले इतने प्रछन्न रूप से प्रकट होते हैं कि वो आम जन को दिखाई नहीं देते । सर्व शिक्षा अभियान से लेकर सभी सरकारी खरीद इसके गवाह हैं । ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड के दौर में हुए तमाम कांड अभी तक अनसुलझे हैं ।
एक जमाना था जब हिंदी पट्टी में पुस्तकालय खासे लोकप्रिय हुआ करते थे । बदलते वक्त के साथ पुस्तकालयों के प्रति उदासीनता दिखाई देने लगी जिसकी वजह से वो बदहाल होते चले गए । बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की किताबें मुंगेर में श्रीकृष्ण सेवासदन में रखी हैं लेकिन अब वहां लगभग सन्नाटा रहता है । मुंगेर के उस पुस्तकालय में हजारों किताबें है जिनमें से कई तो अब दुर्लभ हैं । पटना की लॉर्ड सिन्हा लाइब्रेरी भी अच्छी हालत में नहीं है और कई जगह के ब्रिटिश लाइब्रेरी भी अब नाम मात्र के ही रह गए हैं ।

पुस्तकालयों की बदहाली वजहें हमारे आसपास हवा में तैरती नजर आती है । कई विद्वानों का मानना है कि पुस्तकालयों की दुर्गति के लिए इंटरनेट जिम्मेदार है । अब लोगों की मुट्ठी में मौजूद इंटरनेट युक्त मोबाइल फोन और टैबलेट पर गूगल बाबा हर वक्त हर तरह की मदद को तैयार रहते हैं । आपने कुछ सोचा और पलक झपकते वो आपके सामने लाखों परिणाम के साथ हाजिर है लेकिन चुनौती सूचनाओं के इस जंगल में से सही का चुनाव । डार्विन ने कहा था कि जंगल का मतलब होता है जहां शक्ति का बोलबाला हो और नीति का कोई स्थान नहीं हो । अगर इंटरनेट पुस्तकालय का विकल्प हो सकता है तो ये शिक्षा का भी विकल्प हो सकता है । पुस्तकालयों के प्रति उपेक्षा बड़ी वजह हमारी शिक्षा पद्धति भी है । छात्रों की इस तरह से कंडीशनिंग हो रही है कि उनके लिए पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य किसी पुस्तक का महत्व ही नहीं रह गया है । आज हालात यह है कि नई पीढ़ी के छात्र-छात्राओं को लाइब्रेरी कार्ड का तो पता है लेकिन उनको लाइब्रेरी का कैटलॉग देखना आता हो इसमें संदेह है । हमें अपने देश में पुस्तकालय या पढ़ने की संस्कृति का विकास करना है तो सर्वप्रथम हमारी शिक्षा प्रणाली की खामियों को दूर करना होगा । 1952-53 में स्थापित मुदालियार आयोग से लेकर कोठारी और राममूर्ति आयोग तक सभी ने पुस्तकालयों पर जोर दिया । चंद सालों पहले सांसदों के स्थानीय विकास निधि में से भी एक निश्चित राशि पुस्तकों की खरीद के लिए आपक्षित कर दिया गया था लेकिन पुस्तक और पुस्तकालयों को लेकर स्थिति उत्साहजनक नहीं दिखाई देती है । पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकों के बारे में एक ऐसा मैकेन्जिम बनाना होगा कि नई पीढ़ी के छात्र उन्हें भी पढ़ें । इसके अलावा समाज में जागृति पैदा करने के लिए सरकारी और गैरसरकारी संगठनों को काम करना होगा ताकि मां-बाप अपने बच्चों को किताबों के करीब ले जाएं । 

Monday, March 28, 2016

साहित्य की गुगली

इस वक्त साहित्य में जमकर राजनीति का दौर जारी है । साहित्यकारों का एक खेमा अब फ्रंटफुट पर खेल रहा है । एक दौर में वामपंथी लेखक जिनको कलावादी कहकर खारिज करने में जुटे रहते थे उनको ही गले लगाकर सिरमौर करार दिया जा रहा है । प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में जिन लेखकों को अपमानित किया गया था उनकी ही अहुवाई में अब सरकार के खिलाफ मुहिम शुरू हो रही है । अवसरवादिता और खेमों के रीअलायनमेंट का खेल जारी है । पहले अवॉर्ड वापसी की मुहिम चलाकर और मीडिया में उसको प्रमुखता मिलने के बाद अब अशोक वाजपेयी की अगुवाई में कुछ साहित्यकारों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के बहाने से अपनी अपील की राजनीति शुरू की है । इनकी मांग है कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल अपने टाइटल स्पांसर को बदल डाले । अब हमारे देश में लोकतंत्र है,अभिव्यक्ति की आजादी है तो यहां तो किसी को भी किसी तरह की मांग रखने और अपील जारी करने का संवैधानिक हक है । दरअसल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का टाइटल स्पांसर एरक निजी टेलिवीजन चैनल है । अपील करनेवालों का आरोप है कि कन्हैया एपिसोड के दौरान इस चैनल की भूमिका संदेह के घेरे में रही थी । लिहाजा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को इसको छोड़ देना चाहिए । सवाल फिर से वही है कि जो लोग इस तरह की मांग कर रहे हैं उनके पीछे कितना नैतिक बल है । क्या उनकी मांग को लेकर समाज में किसी तरह का कोई उद्वेलन होगा । क्या साहित्य समाज में भी उनकी अपील पर कोई उत्साह या समर्थन हासिल होगा । क्या लेखक समुदाय भी एकजुट होकर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर इस बावत दबाव डाल पाएंगे । मुझे तो इसमें संदेह है । क्योंकि किसी भी मुहिम के व्यापक होने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी अगुवाई करनेवालों के पास नैतिक ताकत हो । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से अपने टाइटल स्पांसर को छोड़ने की अपील करने वालों का नैतिक खजाना खाली है । अशोक वाजपेयी पर भी उन लोगों से पुरस्कार लेने का आरोप है जो सफदर की हत्या में संदेह के घेरे में थे । अपनी उम्र के पचहत्तर पड़ाव पार करने के बाद अशोक वाजपेयी की सक्रियता सराहनीय है लेकिन बढ़ी उम्र के साथ वो अपने इर्द गिर्द घिरे लोगों से प्रभावित होते दिखाई देते हैं । साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी के दौर में उनकी अपील का असर हो रहा था । लोग काफी संख्या में उनसे जुड़ने लगे थे कि अचानक उन्होंने कालबुर्गी और दाभोलकर के साथ अखलाक का नाम जोड़कर उसको भटका दिया । अशोक वाजपेयी को करीब से जानने वाले कहते हैं कि उन्होंने अपने एक सलाहकार की राय के बाद ये किया और यहीं से पुरस्कार वापसी मुहिम कमजोर पड़ने लगी ।  क्योंकि साहित्य के सावलों से मुठभेड़ करने के लिए साहित्यक जमीन ही चाहिए । जैसे ही अशोक वाजपेयी ने अखलाक का नाम लिया तो विपक्षी खेमे को इसको पोलराइज करने का मौका मिल गया और जो एक बड़ी जमात अशोक जी के साथ खड़ी हो रही थी वो पीछे हट गई ।

इस वक्त साहित्य का जो माहौल है उसमें लेखक खुलकर सामने आने से कतरा रहे हैं । लेखक समुदाय भी दो तरफ बंटे हुए नजर आ रहे हैं जबकि कुछ लोग तटस्थ रहना चाहते हैं । ऐसे माहौल में अशोक वाजपेयी और के सच्चिदानंदन ने जयपुर लिट फेस्ट के सामने बड़ी चुनौती पेश की है । अशोक वाजपेयी लंबे समय से जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से जुड़े रहे हैं । अशोक वाजपेयी की इस गुगली को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक किस तरह के डक करते हैं ये देखना दिलचस्प होगा । 

Saturday, March 26, 2016

चला निर्देशक हीरो बनने !

अपने छात्र जीवन में या यों कहें कि स्कूल के दिनों में जैकी श्रॉफ और मीनाक्षी शेषाद्रि की फिल्म हीरो देखी थी । उस फिल्म में उसके निर्देशक सुभाष घई चंद पलों के लिए दिखाई दिए थे । तब सुभाष घई को फिल्म में देखकर सिनेमा हॉल में तालियां बजी थीं और थोड़ा शोर भी हुआ था । तब मुझे इस बात को लेकर बहुत जिज्ञासा हुई  कि निर्देशक फिल्म में क्या करने आया था । बाद में लोगों ने बताया कि सुभाष घई अपनी हर फिल्म के किसी ना किसीसीन के कुछ फ्रेम में अवश्य नजर आते हैं । फिल्म से जुड़े लोगों का मानना है कि सुभाष घई इसको अपनी फिल्मों के लिए शुभ मानते हैं । उनको लगता है कि वो जिस फिल्म में थोड़ी देर के लिए भी दिखाई देंगे वो फिल्म हिट हो जाएगी । उस वक्त मेरे लिए निर्देशक का पर्दे पर आना विसम्य था । तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि एक वक्त ऐसा भी आएगा कि फिल्मों के निर्देशक खुद नायकों की भूमिका में नजर आने लगेगे । अभी हाल ही में हिंदी फिल्मों के मशहूर निर्देशक प्रकाश झा की फिल्म आई है – जय गंगाजल । अपनी इस फिल्म का निर्देशन भी प्रकाश झा ने ही किया है और उसमें मुख्य भूमिका में भी वही हैं । साठ साल के प्रकाश झा की एक्टिंग की चारो तरफ तारीफ अवश्य हुई । पुलिस अफसर की भूमिका में उनकी डॉयलॉग डिलीवरी से लेकर स्टंट आदि के सीन में भी उनके अभिनय की प्रशंसा हुई, बावजूद इसके फिल्म बुरी तरह से फ्लॉप रही । जय गंगाजल के फ्लॉप होने के बावजूद अभिनय को लेकर प्रकाश झा के हौसले बुलंद हैं । फिल्म के जानकारों के हवाले से खबर ये है कि प्रकाश झा अपनी अगली फिल्म में बतौर नायक काम करने जा रहे हैं । यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि प्रकाश झा को जिन दर्शकों ने निर्देशक के तौर पर भरपूर प्यार दिया वो उनको अभिनेता के तौर पर कितना पसंद करते हैं । लंबे वक्त से फिल्मों से जुड़े प्रकाश झा को अभिन की बारीकियों का तो पता है ही ।
ऐसा नहीं है कि प्रकाश झा इकलौते ऐसे निर्देशक हैं जिन्होंने फिल्म में अभिनय करना शुरू कर दिया है । इसके पहले अनुराग कश्यप की फिल्म बांबे वेलवेट में करण जौहर ने भी भूमिका निभाई थी । इस फिल्म में करन जौहर निगेटिव रोल में थे । छोटे पर्द पर अपनी सफलता से उत्साहित करन जौहर ने फिल्मों में काम करना शुरु किया लेकिन वो यहां कोई कमाल नहीं दिखा पाए । अनुराग कश्यप की ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी थी । जबकि इस फिल्म में करन जौहर के अलावा अनुष्का शर्मा और रणबीर कपूर भी थे । ये फिल्म लेखक ज्ञान प्रकाश के उपन्यास मुंबई फेबल्स पर बनी थी । सिर्फ करन जौहर और प्रकाश झा ही क्यों नए निर्देशक के तौर पर अपनी पहचान कायम करने वाले तिग्मांशु धूलिया ने भी कई फिल्मों में काम किया । अपनी फिल्म साहब बीबी और गैंगस्टर में भी तिग्मांशू ने अभिनय किया । जिमी शेरगिल, माही गिल और रणदीप हुडा के साथ तिग्मांशु भी इस फिल्म में थे । ये फिल्म भी कोई जोरदार बिजनेस नहीं कर पाई लेकिन सफलता के लिहाज से ठीक-ठाक रही, कहा गया था कि इसने अपनी लागत निकाल ली थी । तिग्मांशु ने तो अनुराग कश्यप की बहुचर्चित फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर में मुख्य विलेन का किरदार निभाया था । तिग्मांशु भी इस फिल्म में निगेटिव रोल में थे और इस फिल्म में उनके अभिनय की भी काफी तारीफ हुई थी और इसने को बिजनेस भी अच्छा किया था । इलस फिल्म को देश विदेश में कई पुरस्कार भी मिले थे । जहां तक मुझे याद पड़ता है कि अनुराग कश्यप ने भी किसी फिल्म में अभिनय किया है ।
नब्बे के दशक के एकदम शुरुआत में लमहे और उसके बाद फिल्म हिमालयपुत्र के साथ बतौर
सहायक निर्देशक जुड़े फरहान अख्तर इन दिनों बेहद कामयाब हीरो हैं । फरहान अख्तर ने सबसे पहले 1991 में फिल्म लमहे का सहायक निर्देशन किया लेकिन निर्देशक के तौर पर उनकी पहली फिल्म रही दिल चाहता है । इस फिल्म से फरहान अख्तर को एक नई पहचान तो मिली ही निर्देशक के तौर पर सम्मान भी मिला । इसके बाद फरहान अख्तर ने दो हजार चार में लक्ष्य फिल्म बनाई और उसी साल लीवुड में भी उनकी एंट्री हुई । उन्होंने ब्राइड एंड प्रीज्यूडिस के लिए गाने लिखे । फरहान बेहद प्रतिभाशाली हैं और अपने पिता जावेद अख्तर की तरह लेखन में भी सिद्धहस्त हैं । निर्देशक के तौर पर उन्होंने शाहरुख खान को हीरे लेकर फिल्म डॉन बनाई जो कारोबार के लिहाज से सुपर पर हिट रही थी । सहायक निर्देशक के तौर पर करियर शुरू करने के सत्रह साल बाद फरहान अख्तर ने दो हजार आठ में रॉक ऑन के साथ अपने अभिनय के करियर की शुरुआत की । इस फिल्म को दर्शकों ने काफी सराहा और जमकर पुरस्कार आदि मिले । इसके बाद फरहान अख्तर ने फिल्म  जिंदगी मिलेगी ना दोबारा में सह अभिनेता का रोल किया । जिंदगीना मिलेगीदोबारा में फरहानम के अभिनय की प्रशंसा हुई तो उनके हौसले बुलंद हो गए ।  उसके बाद को उन्होंने भाग मिल्खा भाग से अपने अभिनय के झंडे गाड़ दिए । अभी हाल ही में उनकी एक फिल्म आई है वजीर जिसमें उन्होंने सदी के महानायक अभिताभ बच्चन के साथ अभिनय किया है । फरहान ने निर्देशक और अभिनेता के मिश्रण का एक आदर्श प्रस्तुत किया जिसमें वो दोनों भूमिकाओं में सफल रहे हैं । उनके बाद ये फेहरिश्त लंबी होनी शुरू हो गई है ।  
अब सवाल यही है कि फिल्मों ने निर्देशकों ने अभिनय करना क्यों शुरू कर दिया है । जो सबसे पहली बात सतह पर दिखाई देती है वो है ग्लैमर और लोगों के बीच अपने को पहचाने जाने की चाहत । पर्दे के पीछे के प्रोड्यूसर के मन में कहीं ना कहीं ये आकांक्षा दबी होती है कि वो भी पर्दे पर दिखे और लोग उनको भी पहचानें। जैसे न्यूज चैनल में खबरों को बनाने वाले प्रोड्यूसर्स को कोई जानता नहीं है क्योंकि वो कभी टीवी स्क्रीन पर नजर नहीं आता है । उसी तरह फिल्मों में भी प्रोड्यूसरों और निर्देशकों को कोई जानता नहीं है । पोस्टरों पर उनका नाम अवश्य होता है लेकिन उनकी तस्वीर आदि कहीं नहीं छपती । प्रोड्यूसर निर्देशक को लगता होगा कि जो अभिनेता उनकी मर्जी से अभिनय करते हैं, उनके कहे अनुसार किरदार में ढलते हैं । फिर सफल होकर लाखों लोगों के दिलों पर राज करते हैं तो क्यों ना वो खुद भी इस भूमिका में आएं । न्यूज चैनल के प्रोड्यूसर्स पर तो पेशगत व्यस्तता भी होती है क्योंकि उनको कई और काम करने होते हैं ।  लेकिन जो खुद फिल्म बना रहा है या जो खुद फिल्मों में पैसे निवेश कर या करवा रहा है उसको अभिनय करने से कौन रोक सकता है । एक तो ये मानसिकता हो सकती है जो निर्देशकों को अभिनय की ओर खींच कर लेकर आती है । दूसरी बात ये हो सकती है कि कुछ निर्देशकों को लगता होगा कि अभिनेताओं को बताने के बाद भी अगर वो किरदार को पर्दे पर सही तरीके से उतार नहीं पा रहे हैं तो वो खुद उस किरदार में घुसकर उसको जीवंत कर सकते हैं । यह सोच भी निर्देशकों के अभिनेता बनने की राह तैयार करती है । एक और बात है वो ये कि जब से हिंदी फिल्मों में चॉकलेटी हीरो का दौर खत्म हुआ है और हर तरह के चेहरे मोहरे, काले गोरे हीरो हिट होने लगे हैं तो निर्देशकों के सामने भी सुंदर होने या दिखने की बाध्यता खत्म हो गई है । उनको लगता है कि दर्शक को बेहतर अभिनय के आधार पर किसी भी अभिनेता को पसंद या नापसंद करते हैं । लिहाजा वो खुद से ये अपेक्षा करते हैं या मान लेते हैं कि किसी खास किरदार के लिए वही सबसे फिट हैं । अब अगर जय गंगाजल की बात की जाए और उसमें डीएसपी की भूमिका में प्रकाश झा की बात हो तो ये लगता है कि वो इस किरदार के लिए सबसे ज्यादा सुटेबल थे । जिस तरह से उन्होंने लखीसराय के अधेड़ और घूसखोर सर्कल बाबू की भूमिका निभाई है उसमें वो फिट बैठते हैं । फिर अब तो कम उम्र हीरो के सफल होने की बात भी बीते दिनों की बात हो गई । अब तो लगभग सभी सुपर स्टार पचास पार के हैं ऐसे में निर्देशकों को भी लगता है कि किसी भी उम्र में वो अभिनय करने के लिए उतर सकते हैं और अपनी सफलता का परचम लहरा सकते हैं ।

     

Wednesday, March 23, 2016

बीजेपी-पीडीपी नेता खेलेंगे होली !

करीब ढाई महीने बाद जम्मू और कश्मीर में एक बार फिर से बीजेपी और पीडीपी गठबंधन की सरकार का बनना लगभग तय हो गया है । दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पीडीपी की अध्य़क्ष महबूबा मुफ्ती के बीच हुई मुलाकात के बाद इसके साफ संकेत मिले हैं । नरेन्द्र मोदी से मिलने के बाद महबूबा ने कहा कि जब आप प्रधानमंत्री से मिलते हैं तो कई समस्याएं खुद ब खुद हल हो जाती हैं । अब पीडीपी ने चौबीस मार्च य़ानि होली के दिन पीडीपी ने अपने विधायक दल की बैठक बुलाई है । माना जा रहा है कि इस दिन पीडपी अपने विधायक दल के नेता का चुनाव करेगी । उसके बाद दोनों दल राज्यपाल से मिलकर सरकार बनाने के का दावा पेश करेंगे । दरअसल दोनों दलों के बीच पिछले कई दिनों से तल्खी बढ़ रही थी । कुछ दिनों पहले पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बीच हुई मुलाकात सरकार गठन का रास्ता नहीं खोल पाई थी । जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री और पीडीपी के नेता मुफ्ती मुहम्मद सईद के निधन के बाद वहां पीडीपी और बीजेपी की साझा सरकार भंग कर दी गई थी । बाद में मुफ्ती सईद की बेटी और पीडीपी की आला नेता महबूबा मुफ्ती ने सरकार बनाने में रुचि नहीं दिखाई । पहले तो ये कहा गया चालीस दिनों के शोक की वजह से महबूबा सरकार बनाने के पक्ष में नहीं है । उसके बाद खबर आई कि महबूबा मुफ्ती के परिवार ने श्रीनगर में सीएम आवास खाली कर दिया । बीजेपी की तरफ से उसके महासचिव राम माधव कई बार श्रीनगर के दौरे पर गए और मुलाकातों का सिलसिला चला । कई बार पर्द के पीछे से भी दोनों दलों के बीच समझौते की कोशिशें हुईं लेकिन ये कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकीं । इस तरह की खबरें भी सामने आईं कि महबूबा मुफ्ती बीजेपी के साथ शर्तों को रिव्यू करना चाहती हैं । बीजेपी के स्थानीय नेताओं ने अपने तेवर सख्त रखे और लगातार ये बयानबाजी चलती रही कि सरकार बनने के समय तय किए गए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में कोई तब्दीली मंजूर नहीं की जाएगी और बीजेपी को किसी भी तरह की नई शर्त मंजूर नहीं है । अपनी फिछली श्रीनगर यात्रा के बाद तो राम माधव ने भी कह दिया था कि ऐसे हालात में सरकार का गठन संभव नहीं है लेकिन कहा जाता है न कि राजनीति में जो दिखता है वो होता नहीं है । यहां भी वही हुआ । 
इस बीच देश में बीफ खाने को लेकर बवाल मचा, जेएनयू में आतंकीवादी अफजल को लेकर सियासी संग्राम जारी है । भारत माता की जय के नारे को लेकर भी अच्छा खासा  विवाद जारी है । इस तरह के माहौल के बीच महबूबा बीजेपी के साथ खड़ी नहीं दिखना चाहती थी । दरअसल महबूबा मुफ्ती शुरू से ही एक्टिविल्ट किस्म की रही है और कश्मीरी अलगाववादियों को लेकर हमेशा से उसका रुख नरम रहा है । आतंकवादी अफजल की फांसी के बाद उसके अवशेषों को उसके परिवारवालों को सौंपने की मांग भी पीडीपी के नेता कई बार कर चुके हैं । पीडीपी के कई नेताओं का मानना है कि आतंकवादी अफजल के ट्रायल के वक्त सही से न्याय नहीं हो पाया । उनकी पार्टी के कई विधायक तो अफजल की फांसी को न्यायिक व्यवस्था का माखौल मानते हैं । जब जेएनयू में अफजल की बरसी पर बीजेपी ने कांग्रेस और वामपंथियों को घेरा तो उसके विरोधियों ने पीडीपी के स्टैंड को लेकर बीजेपी पर वार किया । विपक्षी दलों ने कहा था कि अफजल के समर्थकों के साथ सरकार बनाने वाले अपने स्टैंड को साफ करें । आरोप प्रत्यारोप के इस दौर में बीजेपी पर्दे के पीछे से सरकार गठन की कवायद में लगी रही । पार्टी का मानना था कि कश्मीर के हालात के मद्देनजर वहां चुनी हुई सरकार का होना जरूरी है । वक्त बढ़ता जा रहा था और समस्या का कोई समाधान नहीं निकल रहा था । दोनों दल अपने अपन-अपने स्टैंड पर कायम थे । बीजेपी महासचिव राम माधव और अमित शाह के बयानों से लग रहा था कि दोनों दलों के बीच सरकार गठन की संभावना लगभग खत्म हो गई है ।

हाल में जम्मू कश्मीर में कई सियासी गतिविधियों ने महबूबा पर दबाव बना दिया । इस सप्ताह ही नेशनल कांफ्रेंस के नेता और सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने राज्यपाल एन एन वोरा से मुलाकात की थी ।  राज्यपाल वोरा से मुलाकात के बाद उमर अबद्ल्ला ने कहा था कि गवर्नर को विधानसभा भंग कर देनी चाहिए और फिर से विधानसभा चुनाव कराए जाने चाहिए । उमर ने कहा था कि उनकी पार्टी सूबे में वैकल्पिक सरकार देने की स्थिति में नहीं है और वो हॉर्स ट्रेडिंग के पक्ष में भी नहीं हैं । इस बीच पीडीपी के विधायक भी सरकार के गठन को लेकर अपने नेतृत्व पर दबाव बनाने लगे थे । पीडीपी के विधायक फिर से चुनाव में जाने के पक्ष में नहीं थे । पार्टी के ज्यादातर विधायकों सरकार बनाने के पक्ष में एकजुट होने लगे थे । इसका भी असर हुआ और पिछले एक सप्ताह में महबूबा मुफ्ती का दिल्ली दौरा बढ़ गया । पांच दिन में वो दो बार दिल्ली आईं । इन दौरो से बीजेपी और पीडीपी के बीच जमी बर्फ पिघलने लगी थी । सियासी हलकों में जारी चर्चा के मुताबिक वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दखल दिया और पहले उन्होंने बयान दिया कि जहां तक सरकार के एजेंडे की बात है तो हम उसके साथ पूरी प्रतिबद्धता के साथ खड़े हैं । अरुण जेटली के इस बयान के बाद एक बार फिर से मुलाकातों का माहौल बना । उधर मुफ्ती मोहम्मद सईद की अगुवाई वाली साझा सरकार में वित्त मंत्री रहे हसीब द्राबू ने भी पहल शुरू की । हसीब द्राबू ने राम माधव के साथ मिलकर अजेंडा ऑफ अलांयस बनाया था । वो राम माधव के करीबी भी बताए जाते हैं । हसीब द्राबू जम्मू कश्मीर बैंक के पूर्व चेयरमैन रहे हैं और मुफ्ती मुहम्मद परिवार के करीबी हैं । अंत मे तय किया गया कि महबूबा मुफ्ती और प्रधानमंत्री की मुलाकात होगी । ये मुलाकात हुई और बात लगभग बन गई । आश्चर्य नहीं कि होली के दिन बीजेपी और पीडीपी के नेता एक दूसरे को गुलाल और अबीर लगाते नजर आएं । 

Tuesday, March 22, 2016

The new Poster Boy of Congress

Social Media is abuzz about a man called Prashant Kishore. When the Bharatiya Janata Party (BJP) under the leadership of Narendra Modi got the historic mandate in Lok Sabha election, Prashant Kishore was given the title of master strategist. At that point of time, political pundits called him Chanakya of Narendra Modi. But, things went wrong after the victory and Narendra Modi and Prashant Kishore parted ways. Bihar Chief Minister Nitish Kumar saw an opportunity and immediately contacted Prashant Kishore and signed him for the forthcoming Bihar assembly election. 
Now, the historic win of Mahagathbandhan in Bihar has made Prashant Kishore a most sought after commodity in Politics. And the rule of market is that each and every investor wants to invest in that commodity. Those large investors also invest in that commodity to get profit. Same is the case in Politics. Now, every political party wants to invest in that commodity named ‘Prashant Kishore’.
Nowadays, there is much noise on Nationalism and Sedition. Each and every political party is preaching Nationalism as per their convenience. In this scenario of fierce political debate, Congress has invested in Prashant Kishore. Congress has assigned him Punjab, Gujarat and Uttar Pradesh. But, in the political corridor, speculation is rife that Prashant Kishore will be signed till 2019 Lok sabha election.  This will depend on the results of Punjab, Gujarat and Uttar Pradesh. Those who knows Congress culture think that it’s very difficult for Prashant Kishore to play a long innings with the party.  
Prashant Kishore has started making strategy for Congress in Uttar Pradesh assembly election slated in first half of 2017. Prashant has already met senior leaders of Congress and is planning to meet the district level leaders of party in the coming days. Political Pundits are underlining this as a major political coup by Congress. But this is the biggest challenge for Kishore because when he was part of the Modi campaign. Scam after scam and the policy paralysis made UPA Govt hated by many. Anti incumbency was clear. Prashant Kishore turned the table in favour of Modi by projecting him as leader with a strong will. The result is known to everybody.
When Prashant came to Nistish camp, he played a masterstroke. It is widely believed that he was the person who made Nitish agree to have an alliance with Lalu Yadav’s RJD. It was Prashant Kishore who made Nitish agree to shun more than 25 sitting seats in favour of RJD. It was considered the most accurate political move keeping in mind the cast equation of the state. PK placed Lalu-Nitish duo against Narendra Modi. Prashant Kishore Placed Nitish kumar as Bihari Pride. Bihari Vs Bahri paid the dividend.
But the assignment of Uttar Pradesh is entirely different from the last two assignment of this celebrity pollster. Congress in Uttar Pradesh in its worst phase. When the party won 21 LS seats in Uttar Pradesh, it was said that Rahul Gandhi revived the party. At that time Congress got almost 18 percent vote share. But Congress fared very badly in assembly and parliamentary elections. Rahul Gandhi worked very hard and spent many days and night is 2012 assembly election but Congress mustered only 12 percent vote share.
After two years, came the Parliamentary election and vote share of congress furtherr gone down to seven and half percent.  Only Rahul Gandhi and Sonia Gandhi were able to won the election from Uttar Pradesh. This was the worst ever performance of congress party in Uttar Pradesh. Even in the election held after emergency, Congress got twenty five percent vote without winning a single seat. After 2014 election, the morale of congress workers at its lowest ebb.
Now, Congress has given the baton to Prashant Kishore for its revival and strengthening. After Prashant Kishore took over the responsibility it was reported in media that Priyanka Gandhi may be the face of Congress in Uttar Pradesh. But till now this is not more than a political gossip. The strategists of Congress felt that since Prashant Kishore has worked with Narendra Modi for long time, so he could make out the weak point of Prime Minister and could be successful in countering him. Now, if you see the history of Congress and its mass leaders, it’s very hard to digest that now the grand old party is banking on a pollster to revive its fortune in a state. Congress was known for the mass leaders who attract voters. Those mass leaders were backbone of the but now the party is lacking those type of leaders. There are historic reasons for this.

It is a fact that Prashant Kishore has written a success story with Narendra Modi and Nitish Kumar but at the same time it is also felt that for writing a success story, Prashant Kishore needs a Modi or a Nitish. In UP, congress has no Modi or no Nitish Kumar, although Prashnat Kishore has started the search of Modi or Nitish like leader in congress. It will be very interesting to see the strategy of Prashant Kishore in Uttar Pradesh for 2017 assembly election, because it is widely believed that Congress leaders are not in favor of any alliance either with Mayawati or Mulayam Singh Yadav. 

Sunday, March 20, 2016

असगर वजाहत को श्लाका सम्मान

दिल्ली की हिंदी अकादमी में जब से मैत्रेयी पुष्पा ने उपाध्यक्ष का पद संभाला है तब से अकादमी की सक्रियता काफी बढ़ गई है । हर महीने ताबड़तोड़ आयोजन हो रहे हैं- कविता, कहानी, नाटक से लेकर पत्रकारिता तक के विषयों पर विमर्श आयोजित किए जा रहे हैं । अब हिंदी अकादमी ने पिछले दो साल से रुके पुरस्कारों को भी फिर से देना शुरू किया है । दरअसल दिल्ली में सरकारों के बनने बिगड़ने के खेल में पिछले दो साल से साहित्यक पुरस्कार नहीं दिए जा रहे थे । अब अकादमी ने पुरस्कार की राशि बढ़ाते हुए एक बार फिर से इन पुरस्कारों का एलान किया है । इस बार हिंदी अकादमी का सबसे बड़ा पांच लाख रुपए का श्लाका सम्मान हिंदी के वरिष्ठ लेखक असगर वजाहत को दिया गया है । इसके अलावा राजी सेठ को भी हिंदी अकादमी ने सम्मानित करने का एलान किया है । हिंदी अकादमी के पुरस्कृत लेखक-पत्रकारों की सूची लगभग अविवादित है । कहना न होगा कि मैत्रेयी पुष्पा की अगुवाई में बेहतर लेखकों का चयन हुआ है । पुरस्कार की चयन समिति में जो लोग थे उनमें से एक को छोड़कर दो से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती थी क्योंकि उनको हिंदी साहित्य से बहुत लेना देना है नहीं । जिन एक का लेना देना है वो बेहद सौम्य हैं । दरअसल मैत्रेयी पुष्पा का चयन समिति में इस तरह के लोगों को रखने का प्रयोग भी सही रहा और उनके चुनाव को चयन समिति ने सहूलियतें दी बाधा पैदा नहीं की होंगी । साहित्य से इतर जिन लोगों को पुरस्कार दिया गया वो आम आदमी पार्टी की नीतियों और नेताओं के प्रशंसक रहे हैं । सरकारी अकादमियों को ऐसे फैसले लेने होते हैं । संतोष कोली के नाम पर शुरू किया गया पुरस्कार छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी को दिया गया है । सोनी सोरी के साथ क्या हुआ है ये ज्ञात है और उसको दोहराने का ये अवसर नहीं है।  
असगर वजाहत इस वक्त हिंदी के उन गिने चुने लेखकों मे जो विवादों से परे हैं । उनकी प्रतिबद्धता को लेकर कभी कभार कोने अंतरे से हल्की फुल्की आवाज उठती रहती है लेकिन कमोबेश वो पाठकों के प्यारे हैं । उनके उपन्यासों की पठनीयता और पाठकों से सीधे संवाद करने की उनकी कला उनकी रचानओं को अलग करती हैं । असगर वजाहत के उपन्यासों के अलावा उनका एक नाटक- जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ- बेहद लोकप्रिय रहा है और उसके हजारों मंचन हो चुके हैं । आज के करीब दस साल पहले हिंदी की एक समाचार पत्रिका के एक सर्वेक्षण में असगर वजाहत को हिंदी के दस श्रेष्ठ लेखकों में चुना गया था । उपन्यासों और नाटक के अलावा असगर वजाहत के यात्रा संस्मरण भी बेहतरीन माने जाते हैं । ईरान और आजरबाइजान की यात्रा को केंद्र में रखकर असगर वजाहत ने चलते तो अच्छा था के नाम से एक किताब लिखी जो इस विधा में अपना अलग मुकाम रखती है । असगर वजाहत की लेखन के अलावा चित्रकला में भी गहरी रुचि है । मुजे याद है कि आजमगढ़ के जोकहरा में रामानंद सरस्वती पुस्तकालय में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान असगर वजाहत ने बातों बातों में एक रेखाचित्र बनाया और मुझे भेंट कर दिया । लगभग बारह तेरह साल बाद भी मैंने उस खूबसूरत चित्र को संभाल कर रखा है । असगर वजाहत उन लेखकों में हैं जिनकीओर साहित्य अकादमी का ध्यान नहीं गया, ऐसे में हिंदी अकादमी का उनको श्लाका सम्मान से सम्नानित करना संतोष की बात है । वैसे तो साहित्य अकादमी का ध्यान अबतक किसी भी मुस्लिम लेखक की ओर नहीं गया जो हिंदी में लिखते हैं चाहे वो राही मासूम रजा हो, मंजूर एहतेशाम हो या फिर नासिरा शर्मा । यह साहित्य अकादमी की अपनी बौद्धिक सांप्रदायिकता है जो अब जाकर रेखांकित होनी शुरू हुई है ।   


साहित्य में मार्च ‘लूट’ का मौसम

बिहार के कस्बाई शहर जमालपुर से सटे गांव वलिपुर में रहता था तो शहर से हमारे गांव को जोड़नेवाली सड़क से लेकर बाजार की मुख्य सड़क पर मार्च के महीने में अलकतरा के बड़े बड़े ड्रम खड़े होने लगते थे । कहीं सड़कों पर पैबंद लगाने का काम किया जाता था तो कहीं नालियों को ठीक करने का । जब जमालपुर से दिल्ली आकर यहां के ईस्ट ऑफ कैलाश इलाके में रहने लगा तब भी ये नोटिस किया कि मार्च के महीने में बनी बनाई सड़कों को फिर से बना दिया जाता था । सड़क किनारे के फुटपाथ को ठीक कर रंग रोगन कर दिया जाता था । दिल्ली छोड़कर जब इंदिरापुरम में रहने आया तो यहां और भी अद्भुत नजारा देखने को मिला । इंदिरापुरम में कॉलोनी के अंदर इक्का दुक्का बस कभी कभार दिखाई देती है लेकिन मार्च में यहां कई बस शेल्टर बना दिए गए । बस शेल्टर बनाने के लिए फुटपाथ को तोड़ा गया। हमारी हाउसिंग सोसाइटी के बाहर की सड़क बने ना बने हर साल मार्च महीने में फुटपाथ की टाइल्स बदल दी जाती है । फुटपाथ की टाइल्स बदलने के क्रम में बस शेल्टर के चबूतरे को तोड़ा जाता था । ये एक ही महीने में होता था । इन इलाकों से जब साहित्य की दुनिया में आया तो यहां भी मार्च की अहमियत का एहसास हुआ । हिंदी साहित्य के ज्यादातर आयोजन विश्वविद्लायों के हिंदी विभागों में किए जाते रहे हैं । अब भी हो रहे हैं । यहां मार्च में हर वर्ष ताबड़तोड़ कार्यक्रम किए जाते हैं । साहित्य से जुड़े लोग हर दिन किसी ना किसी कॉलेज, विश्वविद्लाय के हिंदी विभाग आदि में प्रवचन देते नजर आते हैं । इसके अलावा कई विश्वविद्यालय भी स्वतंत्र रूप से आयोजन आदि करते हैं ।  सोशल मीडिया के फैलाव और वहां लाइक्स के आकर्षण ने हिंदी विभागों की इस मार्च सिंड्रोम को उघारकर रख दिया है । जो भी इन कार्यक्रमों में शामिल होता है वो भाषण देते हुए अपनी तस्वीर फेसबुक आदि पर पोस्ट कर अपनी उपलब्धि की दुंदुभि बजाता है । जाहिर सी बात है कि जब दुंदुभि का शोर होगा तो आसपास के लोगों को पता चलेगा ही और सोशल मीडिया के इस फैलाव ने तो इसकी चौहद्दी को और भी विस्तृत कर दिया है । अब तो हालत ये है कि कई लेखक अपनी उपलब्धियों का जो इश्तेहार लगाते हैं उसमें सुबह किसी कॉलेज में तो शाम को किसी कॉलेज में अगले दिन किसी अन्य विश्वविद्यालय में प्रवचन का कार्यक्रम होता है । कई बार शहर बदल जाते हैं लेकिन आयोजन लगभग एक जैसा ही दिखाई देता है ।
कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में सेमिनार करवाने के लिए यूजीसी से लेकर कई अन्य सरकारी संस्थाएं आर्थिक मदद देती हैं । इसके अलावा कॉलेज का अपना भी फंड होता है । वित्तीय वर्ष खत्म होने यानि इकतीस मार्च के पहले इस फंडको खत्म करने का दबाव भी होता है । सालभर से सो रहे ये विभाग मार्च में जागते हैं और आनन-फानन में सेमिनार आदि करवा डालते हैं ।  मौजूदा शिक्षा नीति के हिसाब से माना यह गया था कि कॉलेज और विश्वविद्यालयों में इस तरह के सेमिनार से नवाचार को बढ़ावा मिलेगा । कॉलेज कैंपस से बाहर किस तरह की ज्ञान की बातें हो रही हैं या विश्वविद्यालय सिस्टम से बाहर के विद्वान किन अवधारणाओं की बात कर रहे है, इससे छात्रों और शिक्षकों का परिचय करवाया जा सकेगा । ये एक बेहतर अवधारणा है लेकिन इसका विकृत रूप इन दिनों दिखाई दे रहा है । इन सेमिनारों को कॉलेज शिक्षकों ने अपने प्रमोशन की सीढ़ी बना ली है । तुम मुझे बुलाओ हम तुम्हें बुलाएंगें की तर्ज पर काम हो रहा है । इसके पीछे भी एक खेल है जिसको एपीआई कहते हैं । इसपर आगे चर्चा होगी ।   
हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि सालभर ऐसी सक्रियता देशभर के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में क्यों नहीं होती है । ये गोष्ठियां और ये सेमिनार साल भर क्यों नहीं आयोजित किए जाते हैं । इसकी वजहों की पड़ताल करने के लिए हमें विश्वविद्यालयों और उसके अंतर्गत के कॉलेजों की कार्यपद्धति का विश्लेषण करना होगा । नियमों से मुताबिक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को पूरे सप्ताह में चौहद क्लास लेनी होती है । अगर प्रोफेसर साहब विभागाध्यक्ष भी हैं तो उनको सिर्फ बारह क्लास लेने का प्रावधान है । उनको प्रशासनिक कार्य की वजह से दो क्लास कम लेने की छूट दी गई है । यानि सप्ताह में छह या सात घंटे । इस तरह से औसत निकालें तो यह हर दिन करीब घंटा सवा घंटा बैठता है । यही स्थिति एसोसिएट प्रोफेसरों की भी है । उनको भी सप्ताह में चौदह क्लास लेने का प्रावधान है । असिस्टेंट प्रोफेसर को सप्ताह में सोलह पीरियड लेना तय किया गया है । जब इस तरह का नियम बनाया गया था तब माना यह गया था कि कक्षा खत्म होने के बाद विश्वविद्यालय और कॉलेज के शिक्षक शोध छात्रों को वक्त देंगे,छात्रों को पढ़ाने के लिए कुद पढ़ेंगे । अब भी नियम है कि शिक्षकों को कैंपस में पांच से छह घंटे बिताना अनिवार्य है । शिक्षकों का कैंपस में रहने का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है । उनकी उपस्थिति उनके कक्षा में उपस्थित रहने से ही तय होती है । इस तरह का कोई मैकेनिज्म अब तक नहीं बनाया गया है कि युनिवर्सिटी के शिक्षक कैंपस में कितनी देर रहते हैं उसपर नजर रखी जा सके । वो चाहे तो घंटे सवा घंटे में अपने पीरियड के बाद जा सकते हैं । ज्यादातर केस में ऐसा ही होता भी है । इसके अलावा इनको सेमिनार आदि में भाग लेने के लिए छुट्टी का भी प्रावधान है । असिस्टेंट और एसोसिएट प्रोफेसरों को तो सेमिनार में भाग लेने के प्वाइंट भी मिलते हैं जो उनके करियर प्रमोशन के वक्त काम आता है । अगर सेमिनार अंतराष्ट्रीय है तो दस प्वाइंट और अगर राष्ट्रीय है तो साढे सात प्वाइंट । इन प्लाइंट्स के चक्कर में ही इस तरह के सेमिमारों में तुम मुझे मैं तुझे की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । हर कॉलेज के शिक्षक एक दूसरे को अपने यहां बुलाते हैं, ताकि आसानी से प्वाइंट इकट्ठा हो सकें ।

दूसरा अगर हम इन सेमिनारों पर नजर डालें तो यह बात सामने आती है कि हर साल अक्तूबर नवंबर से विभागों के चंद शिक्षक सक्रिय हो जाते हैं । उन्हें मालूम है कि सरकारी व्यवस्था में बजट आदि देने के बाद भी अनुमति मिलने में दो तीन महीने का वक्त लग जाता है । हर जगह यही जुगत रहती है कि मार्च के पहले पहले सेमिनार आयोजित हो जाए ताकि फंड भी खर्च हो जाए और जरूरी प्वाइंट्स भी मिल जाएं । मार्च की इस साहित्यक लूट में हिंदी विभागों के शिक्षक बाहर के अपने जानकार लेखक आदि को भी बुलाकर उपकृत करते हैं । इन सेमिनारों में क्या होता है बहुधा इस बात को भुला दिया जाता है । भुलाया इसलिए भी जाता है कि याद करने लायक कुछ होता नहीं है । सेमिनारों की रस्म अदायगी के नाम पर कुछ पुरानी अवधारणाओं पर चर्चा हो जाती है । नई प्रवृतियों पर कम ही बात होती है । अब वक्त आ गया है कि विश्वविद्यालय और कॉलेज के शिक्षकों की जवाबदेही तय की जाए । उनके काम के घंटे तय किए जाएं और कोई ऐसा सिस्टम बने कि उनके कार्यों का ऑडिट हो सके । ऐसी व्यवस्था बने कि उनके काम का आंकल हो सके । उनके कैंपस में रहने के घंटे पर नजर रखी जा सके । कुछ लोगों को ये विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता पर खतरे जैसी बात लग सकती है लेकिन स्वायत्ता का मतलब अराजकता तो नहीं हो सकता है । स्वायत्ता के साथ जवाबदेही तो होनी ही चाहिए । काम करने के घंटे भी तय किए जाने चाहिए । क्या स्वायत्ता के नाम पर करदाताओं के पैसों की इस तरह से बरबादी जायज है । नई शिक्षा नीति तो बनाने का काम चल रहा है। तमाम स्टेक होल्डर्स के साथ मानव संसाधन विकास मंत्रालय की कमेटी बातचीत कर फीडबैक ले रही है । खुद मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी कई राज्यों में जाकर बातचीत कर चुकी हैं । नई शिक्षा नीति में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि स्वायत्ता के नाम पर करदाताओं की गाढ़ी कमाई के पैसे का अपव्यय ना हो । नवाचार और बाहरी ज्ञान से परिचय के नाम पर मार्च में होनेवाले इस साहित्यक लूटपर भी लगाम लागने का प्रावधान हो । सेमिनार हों, लेकिन वो रस्म अदायगी ना हो । सेमिनार हो, साल भर हों और उनमें नवाचर पर चर्चा हो । छात्रों के साथ शिक्षकों का भी फायदा हो । 

Thursday, March 17, 2016

स्टिंग के चक्रव्यूह में ममता बनर्जी

कहते हैं ना कि मोहब्बत और जंग में सब जायज है लेकिन लोकतंत्र में चुनाव के वक्त ये बात अपने अंदाज को बदलकर सामने आती है । लोग कहना शुरू हो जाते हैं कि भारत में चुनाव में सबकुछ जायज है । धनबल, बाहुबल से लेकर जाति और समुदाय को धड़ल्ले से उपयोग में लाया जाता है । अब जब पश्चिम बंगाल चुनाव होनेवाला है तो तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं और अफसरों का एक स्टिंग ऑपरेशन सामने आया है । इस स्टिंग ऑपरेशन में कई सांसद, मंत्री और मेयर समेत तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेताओं को काम के बदले पैसे लेते हुए दिखाया गया है । इस स्टिंग ऑपरेशन के सामने आते ही देश की राजनीति में भूचाल आ गया है । तृणमूल के खिलाफ एकजुट वामपंथी और कांग्रेस ने इस बहाने से ममता बनर्जी पर सीधा हमला बोला तो बीजेपी ने तो इसकी सीबीआई से जांच की मांग की है । टीएमसी इसको सियासी साजिश करार दे रही है और दावा कर रही है कि विपक्ष के पास चुनावी मैदान में जाने के लिए कोई सियासी मुद्दा नहीं है लिहाजा वो स्टिंग ऑपरेशन का सहारा ले रहे है । टीएमसी ने तो अपने सभी नेताओं को क्लीन चिट देते हुए पूरे मसले पर उनसे शो कॉज भी नहीं करने का फैसला लिया है । ये तो हुई बयानों की जुबानी जंग लेकिन इस स्टिंग ऑपरेशन ने लोकतंत्र के मंदिर लोकसभा और विधानसभा में बैठनावालों की साख पर सवाल खड़े कर दिए हैं । जिस तरह से इस स्टिंग ऑपरेशन में नेताओं को घूस लेते हुए दिखाया गया है वो ममता बनर्जी की साख पर भी बट्टा लगाने के लिए काफी है । हमारे देश की सियासत के मौजूदा दौर में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार, बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ईमानदारी की थाती के साथ ही सियासत में अपनी धमक पैदा कर सत्ता में आए थे । पहले शारदा स्कैम में तृणमूल के नेताओं पर लगे आरोप और अब इस स्टिंग ऑपरेशन की ममता बनर्जी की इस ईमानदार छवि को नुकसान पहुंचाया है । हलांकि ना तो ममता बनर्जी का सीधा इंवॉल्वमेंट इसमें है और ना ही उनके भतीजे अभिषेक ने पैसा लिया है, बल्कि अभिषेक तो इस स्टिंग में मना करते हुए दिख रहे हैं । अंग्रेजी में एक कहावत है कि अ मैन ऑर अ वूमन इज नोन बाय द कंपनी ही ऑर शी कीप्स । लिहाजा ममता बनर्जी को आरोपों का सामना तो करना ही होगा । ममता बनर्जी की हालत मनमोहन सिंह जैसी दिखाई दे रही है । हर कोई उनकी ईमानदारी की दुहाई देता नजर आ रहा है लेकिन वो अपने सिपहसालारों को रोक पाने में नाकाम रही हैं । मनमोहन सिंह भी बेहद ईमानदार थे लेकिन आजाद भारत के इतिहास में उनके कार्यकाल में बड़े-बड़े घोटाले हुए । ममता बनर्जी भी पर कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं लगा लेकिन उऩके सिपहसालार तो इस स्टिंग में साफ तौर पर पैसे लेते नजर आ रहे हैं । ममता की पार्टी के इन बड़े नेताओं पर लगे इस आरोप की गूंज पश्चिम बंगाल विधानसभा में अवश्य सुनाई देगी । इस बार कांग्रेस-वामपंथ गठजोड़ के अलावा बीजेपी भी अपनी पूरी ताकत से सूबे के इस चुनाव को अपनी उपस्थिति से त्रिकोणीय संघर्ष बनाने में जुटी है । ऐसे में इस तरह के स्टिंग ऑपरेशन उसको ममता को घेरने का हथियार प्रदान करती है । चुनाव में इसका कितना असर होगा तो ये छह चरणों  के चुनाव के नतीजों के बाद ही सामने आएगा ।
चुनावी राजनीति से इतर भी इस स्टिंग ऑपरेशन को देखा जाना चाहिए । इस स्टिंग ऑपरेशन के सामने आने के बाद संसद में भी जमकर हंगामा हुआ और वामपंथी और कांग्रेस सदस्यों ने इसकी जांच की मांग की ।यह बात भी लोकसभा नें उठी कि कैमरे पर पैसे लेने की तस्वीर सामने आने के बाद इन सदस्यों पर कार्रवाई होनी चाहिए । पाठकों को याद होगा कि दो हजार पांच में भी संसद के कई सदस्य एक स्टिंग ऑपरेशन में धरे गए थे जहां वो संसद में सवाल उठाने क लिए पैसे लेते हुए दिखाए गए थे । ऑपरेशन दुर्योधन के नाम से किए गए उस स्टिंग ऑपरेशन में बीजेपी, बीएसपी,कांग्रेस और आरजेडी के सदस्य दोषी पाए गए थे और जांच आदि के बाद उनकी सदस्यता खत्म कर दी गई थी । उस वक्त के लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इसको संसद की गरिमा के साथ खिलवाड़ माना था और कहा था कि संसदों का यह व्यवहार बिल्कुल उचित नहीं है । उन्होंने जांच होने तक सभी आरोपी सांसदों को लोकसभा की कार्रवाई में बाग नहीं लेने को कहा था ।  इसी तरह से उस वक्त के राज्यसभा के सभापति भैरोसिंह शेखावत ने भी अड़तासील घंटे में राज्यसभा की कमेटी से रिपोर्ट मांगकर कार्रवाई की थी । दरअसल इस तरह की स्थिति की कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने नहीं की थी लिहाजा संविधान में इसका उल्लेख नहीं है । इस तरह का एक वाकया उन्नीस सौ इक्यावन में भी सामने आया था । कांग्रेस के सदस्य एच जी मुदगल पर बांबे बुलियन एसोसिएशन से संसद में सवाल पूछने के एवज में दो हजार रुपए लेने के आरोप लगे थे । तब उन्होंने खुद ही इस्तीफा दे दिया था । प्रथम दृष्टया ये संविधान के अनुच्छेद निन्यानवे का उल्लंघन माना जा सकता है । इस स्टिंग के सामने आने के बाद अब लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन के पूरे मामले को एथिक्स कमेटी को भेज दिया है ।

सवाल तो स्टिंग ऑपरेशन में खर्च की गई राशि पर भी उठ रहे हैं कि जिस बेवसाइट ने ये स्टिंग ऑपरेशन किया उसके पास करीब एक करोड़ की राशि कहां से आई । ये बात भी सामने आ रही है कि स्टिंग के लिए ये पैसा एनएरआई के एक समूह ने दिया । तृणमूल कांग्रेस इसको इस वजह से भी साजिश करार दे रही है कि विदेशों से हमारी चुनावी प्रक्रिया को बाधित करने के लिए फंडिंग की जा रही है । यह सब जांच का विषय है और इसकी पूरी तहकीकात होनी भी चाहिए कि चुनाव के वक्त अचानक से ये स्टिंग क्यों और कैसे सामने आया । यह सब ठीक है लेकिन बड़ा सवाल यही कि स्टिंग में फंसे सांसदों पर कब तक और क्या कार्रवाई होती है । अगर इस बार इन सांसदों पर कार्रवाई नहीं हुई तो जनता का लोकतंत्र के इस सबसे बड़े मंदिर से भरोसा छीज जाएगा जो देश के लिए अच्छी स्थिति नहीं होगी ।       

Saturday, March 12, 2016

लुगदी साहित्य का गुनहगार ?

इन दिनों हिंदी साहित्य में लुगदी साहित्य को परिधि से केंद्र में लाने की कोशिश हो रही है । शहर दर शहर आयोजित हो रहे लिटरेचर फेस्टिवल में पल्प लिखने वाले लेखक नजर आने लगे हैं । अभी हाल ही में वाणी फाउंडेशन ने दिल्ली में एक दिन का हिंदी महोत्सव किया था, उसमें भी एक सत्र पल्प के तिलिस्म पर था ।  हॉर्पर हिंदी जैसा मशहूर प्रकाशक अब लुगदी साहित्य को छापने लगा है । हाल ही में हार्पर हिंदी ने सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों का एक बॉक्स एडिशन छापा है । सुरेन्द्र मोहन पाठक के अलावा भी अन्य लेखक क्राइम फिक्शन की श्रेणी में गिने जाने लगे हैं । दरअसल अब पल्प फिक्शन और फिक्शन की दीवार टूटने लगी है । ये अच्छी स्थिति है क्योंकि टीवी के घरों में प्रवेश के बाद इन उपन्यासों की मांग कम हुई है । बदलते समाज में अब बहुत खुलापन आ गया है और लोगों के पास विकल्प भी बढ़ गए हैं । अपने अभिभावकों से छुपा कर इस तरह के उफन्यासों को पढ़नेवाले किशोरवय के पाठक पहले टीवी और फिर इंटरनेट की तरफ जाने लगे हैं । पल्प का बाजार लड़खड़ाने लगा है । इस लड़खड़ाते बाजार को संभालने की भी कोशिश हो रही है । पल्प की शुरुआत अमेरिका में हुई थी जब चमकीले कवर के बीच बेहद घटिया पन्नों वाली पत्रिकाएं छपती थी जो खूब बिकती थी । उन्नीस सौ तीस और चालीस के दशक में वहां पत्रिकाओं के बाद छोटे-छोटे उपन्यास भी छपकर लोकप्रिय होने लगे । उन उपन्यासों में नायक नायिका के बीच हल्का फुल्का रोमांस होता था जो पाठकों को खींचता था ।
भारत में हिंदी में पल्प फिक्शन की शुरुआत इब्ने सफी के उपन्यासों से मान सकते हैं । इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है । इब्ने सफी, इब्ने सईद और राही मासूम रजा तीनों दोस्त थे । एक दिन इन तीन दोस्तों के बीच साहित्य और लोकप्रिय साहित्य पर बहस हो रही थी । उस बातचीत के दौरान देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता संतति का जिक्र चला । यहां ये बताते चलें कि देवकीनंदन खत्री के इस उपन्यास की हिंदी में धूम हुआ करती थी । कहा तो यहां तक जाता है कि देवकीनंदन खत्री के उफन्यासों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी थी । देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों पर बात करते करते तीनों लेखक जासूसी उपन्यासों की चर्चा तक जा पहुंचे । राही मासूम रजा ने कहा कि बगैर सेक्स प्रसंगों का तड़का डाले जासूसी उपन्यास लोकप्रिय नहीं हो सकता है । इब्ने सफी इससे सहमत नहीं हो पा रह थे । उन्होंने राही मासूम रजा का प्रतिवाद किया तो रजा ने उनको चुनौती देते हुए कहा कि आप लिखकर देख लो । इब्ने सफी ने राही मासूम रजा की इस बात को चुनौती के तौर पर लिया और बगैर सेक्स प्रसंग के पहला उपन्यास लिखा । वह उपन्यास जबरदस्त हिट हुआ । फिर तो इब्ने सफी ने जासूसी उपन्यासों की दुनिया में तहलका मचा दिया । इब्ने सफी के इमरान सीरीज के उपन्यासों की बदौलत उनके मित्र अली अब्बास हुसैनी ने एक प्रकाशन गृह खोल लिया था । जो काफी सफल रहा था । जब इब्ने सफी अपने जासूसी उपन्यास की बदौसत धूम मचा रहे थे तो उसी वक्त के आसपास इलाहाबाद से जासूसी पंजा नाम की पत्रिका में अकरम इलाहाबादी भी एक जासूसी सीरीज लिखा करते थे । ये सीरीज उन दिनों बेहद लोकप्रिय हुआ था । जासूसी पंजा की लोकप्रियता को देखते हुए डायमंड पॉकेट बु्क्स और हिंद पॉकेट बुक्स ने एक रुपए की सीरीज की किताबें छापनी शुरू की । तब तक इसको उस तरह से लुगदी साहित्य कहकर हाशिए पर नहीं डाल गया था । अभी कुछ साल पहले एक बार फिर से हॉर्पर कॉलिंस ने इब्ने सफी के उपन्यासों को प्रकाशित किया था जिसे पाठकों का प्य़ार मिला ।
बाद मे साठ के दशक में इस तरह के रहस्य और रोमांच से भरे कथानक वाले उपन्यासों की धूम मची । उस परंपरा को मजबूत किया गुलशन नंदा, रानू, सुरेन्द्र मोहन पाठक, अनिल मोहन, कर्नल रंजीत और मनोज जैसे लेखकों ने । रानू और गुलशन नंदा तो हिंदी पट्टी के तकरीबन हर घर तक पहुंच रहे थे । रानू और गुलशन नंदा महिलाओं और नए नए जवान हुए कॉलेज छात्र-छात्राओ की पहली पसंद हुआ करते थे । गुलशन नंदा तो इतने लोकप्रिय हुए कि उनके उपन्यास- झील के उस पार, शर्मीली और चिंगारी पर फिल्म भी बनी जो काफी हिट रही थी । गुलशन नंदा ने जब 1962 में अपना पहला उपन्यास लिखा था तो उसकी दस हजार प्रतियां छपी थीं । ये प्रतियां बाजार में आते ही खत्म हो गई और कहा जाता है कि उसकी जबरदस्त मांग को देखते हुए प्रकाशक ने दो लाख प्रतियां फिर से छपवाईं । पहले उपन्यास  की सफलता से उत्साहित प्रकाशक ने उसके बाद गुलशन नंदा के उपन्यासों का पहला संस्करण ही पांच लाख का छापना शुरू कर दिया था । इन उपन्यासों के अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है । बाजार के जानकारों के मुताबिक उस दौर में इस तरह के उपन्यासों की कीमत पांच रुपय़े हुआ करती थी । प्रकाशकों को उपन्यास छपवाने से लेकर पुस्तक विक्रेताओं तक पहुंचाने आदि का खर्चा काटकर भी एक प्रति पर एक रुपए की बचत हो जाती थी । प्रकाशन के अर्थशास्त्र के लिहाज से ये एक बेहतर मुनाफा था । वो दौर मोबाइल, आईपैड, थ्री जी और इंटरनेट का दौर नहीं था । इन किताबों की इतनी धूम रहती थी कि लेखकों को अग्रिम रॉयल्टी दी जाती थी । उपन्यासों की अग्रिम बुकिंग होती थी । कई छोटे शहरों के रेलवे स्टेशन पर तो इन उपन्यासों को छुपाकर रखा जाता था और दुकानदार अपने खास ग्राहकों को काउंटर के नीचे से निकालकर देते थे । इस तरह के उपन्यासों की लोकप्रियता को देखते हुए कई घोस्ट राइटर्स ने भी पैसे की खातिर लिखना शुरू कर दिया । मनोज ऐसा ही काल्पनिक नाम था जिसकी आड़ में कई लेखक लिखा करते थे । मुझे याद है कि अस्सी के दशक में जब वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास वर्दी वाला गुंडा छप कर आनेवाला था तो कई शहरों में उसके प्रचार के लिए होर्डिंग और पोस्टर आदि लगे थे । वो जमकर बिका था ।
अब वक्त आ गया है कि इस तरह के उपन्यासों को हाशिए पर डाले जाने और लुगदी कहकर हेय दृष्टि से देखे जाने की पड़ताल की जानी चाहिए । इकना ध्यान ऱखना चाहिए कि प्रगतिशीलता के के दौर में ही इन लोकप्रिय साहित्य को लुगदी कहकर खारिज किया जाता रहा । जिनके लाखों पाठक वो साहित्य नहीं और जिनका कोई पाठक नहीं, जो लाइब्रेरियों की शोभा बढ़ाते थे वो गंभीर साहित्य । साहित्य की इस वर्ण व्यवस्था को खत्म तो होना ही चाहिए, वर्ण व्यवस्था बनानेवालों को चिन्हित करके उनसे सवाल फूचे जाने चाहिए ।




हिंदी कहानी क्यों दूर पाठक ?

चंद दिनों पहले एक कहानीकार मित्र ने पूछा कि आज कैसी कहानी लिखी जानी चाहिए ताकि पाठकों को पसंद आए । पाठकों को ध्यान में रखकर कहानीकी बात पूछी गई तो मैं चौका क्योंकि हिंदी कहानीकारों ने लंबे अरसे तक पाठकों की रुचियों का ध्यान ही नहीं रखा । यथार्थ के नाम पर नारेबाजी आदि जैसा कुछ लिखकर उसको कहानी के तौर पर पेश ही नहीं किया बल्कि अपने कॉमरेड आलोचकों से प्रशंसा भी हासिल की । हिंदी कहानी के पाठकों से दूर होने की अन्य वजहें के साथ साथ ये भी एक वजह है । हिंदी कहानी में आज कई पीढ़ियां सक्रिय हैं एक छोर पर कृष्णा सोबती हैं तो दूसरे छोर पर उपासना जैसी एकदम नवोदित लेखिका है । इस लिहाज से देखें तो हिंदी कहानी का परिदृश्य एकदम से भरा पूरा लगता है । बावजूद इसके हिंदी कहानी से पाठकों का मोहभंग होने की चर्चा बहुधा होती रहती है । दपअसल कहानी और हिंदी दोनों उसी शास्त्रीयता का शिकार हो गई । समय बदल गया, समाज बदल गया, भाषा बदल गई, लोगों के मन मिजाज बदल गए लेकिन हिंदी उसके चाल में नहीं ढल पाई । जब मैं हिंदी के उस चाल में ढलने की बात करता हूं तो उसकी शुद्धता को लेकर कोई सवाल नहीं उठाता है लेकिन जिस तरह से परंपराएं बदलती हैं उसी तरह से शब्द भी अपना चोला उतारकर नया चोला धारण करते हैं । जैसे सरिता नदी हो गई, जल पानी हो गया, व्योम आकाश हो गया । अब भी हिंदी में एक प्रजाति मौजूद है जो कि इसकी शुद्धता और अपनी पुरातनता के साथ मौजूद रहने की जिद्द पाले बैठे हैं । वो गलत कर रहे हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता है लेकिन समय के साथ नहीं बदलने की ये जिद उनकी संख्या को कम करती जा रही है । इसी तरह के कहानी ने आजमाए हुए सफलता के ढर्रे को नहीं छोडा । जब भी कहानी ने अलग राह बनाई तो लोगों ने उसको खासा पसंद किया और वो लोकप्रिय भी हुआ ।
दरअसल कहानी के साथ दिक्कत ये हुई कि वो प्रेमचंद और रेणु के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाई । खासकर बिहार के कहानीकार तो रेणु के ही ढर्रे पर चल रहे हैं । रेणु जिस जमाने में कहानियां लिख रहे थे उस दौर में वो अपने परिवेश को अपनी रचनाओं में उतार रहे थे । रेणु से अपने लेखन से कहानी की बनी बनाई लीक को छोडा भी था । रेणु की सफलता के बाद उनका अनुसरण करनेवालों को लगा कि कहानी लेखन का ये फॉर्मूला सफल है तो वो उसी राह पर चल पड़े । रेणु के अनुयायियों की एक बड़ी संख्या हिंदी कहानी में इस वक्त मौजूद है । इन अनुयायियों की भाषा भी रेणु के जमाने की है, उनके पात्र  भी लगभग वही बोली भाषा बोलते हैं जो रेणु के पात्र बोलते थे । आलोचकों को भी वही बोली भाषा सुहाती रही तो कहानीकारों का भी उत्साह बना रहा लेकिन वो इस बात को भांप नहीं पाए कि आलोचकों को सुहाती कहानियां उनको वृहत्तर पाठक वर्ग से दूर करती चली गई । अब ये जमाना थ्री जी से फोर जी में जाने को तैयार बैठा है और हिंदी कहानी के नायक नायिका तार के जरिए एक दूसरे से संवाद करेंगे तो पाठकों को तो ये अभिलेखागार की चीज लगेगी । अभिलेखागार में रखी वस्तुएं हमको अपने गौरवशाली अतीत पर हमें गर्व करने का अवसर तो देती हैं लेकिन साथ ही ये चुनौती भी देती हैं कि हमसे आगे निकल कर दिखाओ । हिंदी कहानी ने उस चुनौती को स्वीकार करने के बजाए उसका अनुसरण करना उचित समझा ।हिंदी कहानी को अब ये समझना होगा कि उदारीकरण के दौर के बाद गांव के लोगों की आकांक्षाएं सातवें आसमान पर हैं । उनकी इलस आकांक्षा को इंटरनेट और मोबाइल के विस्तार ने और हवा दी है । अब ग्रामीण परिवेश का पाठक अपने आसपास की चीजों के अलावा शहरी जीवन को जानना पढ़ना चाहता है । वो अपनी दिक्कतों और अपने यथार्थ से उब चुका है लिहाजा वो शहरी कहानियों की ओर जाना चाहता है । लेकिन हम अब भी उनको गांवों की घुट्टी ही पिलाने पर उतारू हैं । इस बात को हमारे हिंदी के ज्यादातर कहानीकार पकड़ नहीं पा रहे हैं । इसको चेतन भगत, रविन्द सिंह और पंकज दूबे जैसे लेखकों ने पकड़ा और गांव से शहर पहुंचनेवालों की कहानी लिखकर शोहरत हासिल की ।   
बीच में कहानीकारों की एक पीढ़ी आई थी जिसने अपने नए अंदाज से पाठकों को अपनी ओर खींचा था । उसमें मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, संजीव, सृंजय, अरुण प्रकाश, शिवमूर्ति, उदय प्रकाश आदि तो थे ही संजय खाती ने भी उम्मीद जगाई थी । पर पता किन वजहों से उनमें से कई कहानीकारों ने लिखना ही छोड़ दिया । पर अब का परिवेश तो उपरोक्त कथाकारों के दौर से भी ईगे बढ़ गया है । हाल के दिनों में एक बार फिर से कुछ कहानीकारों ने अपनी कहानियों में रेणु की लीक से अलग हटने का साहस दिखाया है । समाज के बदलाव को अपनी कहानियों में पकड़ने की कोशिश की है । इन कहानीकारों मे गीताश्री का नाम अग्रणी है । उदय प्रकाश के बाद गीताश्री ने हिंदी कहानी को अपनी रचनाओं के माध्यम से झकझोरा है । गीताश्री की कहानी प्रार्थना के बाहर और गोरिल्ला प्यार दो ऐसी कहानियां हैं जिन्होंने हिंदी के पाठकों की रुचि के साथ कदमताल करने की कोशिश की है । जिस तरह से उदय प्रकाश ने पीली छतरीवाली लड़की में विश्वविद्यालय की राजनीति को उघाड़ा था उसी तरह से गीताश्री ने प्रार्थना के बाहर में महानगर में अपने सपनों को पूरा करनेवाली लड़की की आजादी की ख्वाहिश को उकेरा है । इसी तरह से अगर देखें तो गोरिल्ला प्यार में गीताश्री ने आज की पीढ़ी और समाज में आ रहे बदलाव और बेफिक्री को उजागर किया है । गीताश्री की कहानी में जिस तरह की भाषा को इस्तेमाल होता है वो हमें हमारी विरासत के साथ साथ आधुनिक होती हिन्दी की याद भी दिलाता है । एक तरफ तो उनके पात्र सोशल मीडिया की भाषा में संवाद करती है तो दूसरी तरफ बिंजली के फूल खिलने जैसे मुहावरे का प्रयोग भी करती हैं, जिसका सबसे पहले प्रयोग जयशंकर प्रसाद ने किया था लेकिन दोनों के संदर्भ अलग हैं और अलग अलग अर्थों में प्रयोग हुए हैं । गीताश्री अपनी कहानियों के माध्यम से शहर और ग्रामीण दोनों परिवेश में आवाजाही करती हैं लेकिन उनकी शहरी कहानियां पाठकों को ज्यादा पसंद आती हैं क्योंकि उसमे बदले हुए समय को पकड़ने की महीन कोशिश दिखाई देती है । इसी तरह से अगर हम देखें तो इंदिरा दांगी की कई कहानियों में भी समाज के बदलते हुए परिवेश को पकड़ने की कोशिश की गई है । इंदिरा दांगी की एक कहानी है –शहर की सुबह – उसमें भी शहरी जीवन और वहां रहनेवालों के मनोविज्ञान का बेहतर चित्रण है । जयश्री राय ने भी अपनी शुरुआती कहानियों से काफी उम्मीदें जगाईं थी । जयश्री राय की भाषा, कहानियों का प्लाट और नायिकाओं के साहसपूर्ण फैसले पाठकों को उन कहानियों की ओर आकर्षित कर रहे थे लेकिन जयश्री राय ने अपने लिए जो चौहद्दी बनाई उससे वो बाहर नहीं निकल पा रही हैं । उनमें संभावनाएं हैं लेकिन सफल कहानियों के फॉर्मूले से बाहर निकलकर आगे बढ़ना होगा । इसी तरह ये योगिता यादव ने भी अपनी कहानियों में नए प्रयोग किए हैं, भाषा के स्तर पर भी कथ्य के स्तर पर भी । योगिता यादव निरंतर लिख रही हैं और हिंदी कहानी को उनसे काफी उम्मीदें हैं । दो और कथाकारों ने अपनी काहनियों से मेरा ध्यान आकृष्ट किया – ये हैं राकेश तिवारी और पंकज सुबीर । राकेश तिवारी की कहानी मुकुटधारी चूहा गजब की कहानी है । वो इसके एक पात्र मुक्की के बहाने कथा का ऐसा वितान खड़ा करते हैं पाठक चकित रह जाता है । इसी तरह से महुआ घटवारिन लिखकर पंकज सुबीर ने हिंदी कहानी में अपनी उपस्थिति तो दर्ज कराई ही पाठकों के बीच भी उसको खासा पसंद किया गया । ये चंद नाम हैं हिंदी कहानी के जो अपने समय को पकड़ने में कामयाब हैं । हो सकता है कि इस तरह की कहानियां लिखनेवाले और लेखक होंगे । आवश्यकता इस बात की है कि आलोचकों और कहानी पर लिखनेवालों को भी इन कहानीकारों की पहचान कर उनको उत्साहित करना होगा । आलोचको को भी जंग लगे और भोथरा हो चुके मार्क्सवादी औजारों को अलग रखकर इन कहानियों पर विचार करना चाहिए । इससे भी ज्यादा जरूरी ये है कि आलोचकों को अपने लेखन में प्रगतिशील बेइमानी से बचना होगा क्योंकि ज्यादातर कहानीकारों ने उनकी वाहवाही हासिल करने के लिए ही विषयगत प्रयोग नहीं किए । जिस तरह से राजनीति में नरेन्द्र मोदी और संघ की आलोचना करते ही सेक्युलर होने का सर्टिफिकेट मिल जाता है उसी तरह से कहानीकारों को भी भोगे हुए यथार्थ के लिखते ही कहानीकार का सर्टिफिकेट मिल जाता रहा है । कहानी के हित में  इससे अलग हटने की आवश्यकता है ।
दपअसल


Friday, March 11, 2016

बाजार में बाबाओं की धमक ·

जब उन्नीस सौ इक्यानवे में भारत में खुले बजार की बयार बहनी शुरु हुई थी तब पूरे देश में मल्टी नेशनल कंपनी, फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स, शेल्फ लाइफ आदि जैसे शब्द अचानक से गूंजने लगे थे । देशभर के लोगों के सामने तरह तरह के प्रोडक्ट्स का विकल्प सामने आ गया था । प्रोडक्ट्स की मोनोपॉली टूटने लगी थी, लोगों की फूड हैबिट में बदलाव आने लगा था । विदेशों में मिलने वाली सामग्री भारत में भी मिलने लगी थी । ये क्रम लगातार बढ़ता चला गया और कालंतर में हम ग्लोबल बाजार का हिस्सा हो गए । मल्टी नेशनल कंपनियों को भारत का बहुत बड़ा बाजार मिला । बढ़ते बाजार और ग्राहकों की बढ़ती क्रय शक्ति ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मुनाफा कमाने की उर्वर भूमि प्रदान की । उनको इस बाजार में देसी कंपनियों से बहुत मुकाबला भी नहीं करना पड़ा था । करीब दो दशक से ज्यादा वक्त तक ये चला लेकिन अब इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ रहा है । ये कंपटीशिन बिल्कुल ही अनपेक्षित कोने से मिल रहा है । वो कोना है गुरुओं और बाबाओं का । भारत में अध्यात्म और योग की शिक्षा देने वाले गुरूओं का अब कॉरपोरेटाइजेशन हो गया है। पहले छोटे स्टर पर उन गुरुओं के प्रोडक्ट बिका करते थे लेकिन अब इन लोगों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को टक्कर देना शुरू कर दिया । बाबाओं के इन प्रोडक्ट्स का असर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बैलेंस शीट पर दिखाई देने लगा है । यहां तक तो बाजार के नियमों के हिसाब से मुकाबला हो रहा था लेकिन अब कई बाबाओं के एफएमसीजी बाजार में उतरने से बाजार की जंग में कई रंग भरने लगे हैं । सबसे पहले तो योग गुरू बाबा रामदेव ने अपनी साख और लोकप्रियता का इस्तेमाल करते हुए पतंजलि प्रोडक्ट्स लांच किया । पंतजलि प्रोडक्ट्स को बाजार में उतारने का वक्त बेहद चालाकी से तय किया जाता है । जब पूरे देश में मैगी को लेकर विवाद चल रहा था तो बाजार के उस असमंजस का फायदा उठाने के लिए बाबा रामदेव ने अपना नूडल्स पेश कर दिया । बाबा रामदेव खाने पीने के अपने सभी प्रोडक्ट्स को स्वास्थ्य से जोड़कर पेश कर रहे हैं चाहे वो नूडल्स हो या फिर हनी या च्यवनप्राश । हाल ही में बाबा रामदेव ने के पतंजलि प्रोडक्ट्स ने जूस मार्केट में दस्तक दी है । पंतजलि प्रोडक्ट्स की कीमत कम रखते हुए बाबा रामदेव इसकी एग्रेसिव मार्केटिंग करते हैं । जैसे जूस के बाजार में पंतजलि का जूस अन्य ब्रांड के जूस से करीब पंद्रह फीसदी सस्ता बेचा जा रहा है । एक तो सस्ता, दूसरे स्वास्थ्य से जोड़कर बाबा रामदेव ने इनको सफल बना दिया है । अब बाबा रामदेव ने एक और नया मार्केंटिंग दांव चला है जो भावना की चासनी में लिपटा है ।अब उन्होंने कहा है कि रिटेल स्टोर को स्वदेशी उत्पादों को प्रमुखता से डिस्पले करना चाहिए क्योंकि ये महात्मा गांधी के स्वदेशी को सपने को साकार करने का उद्यम है । पतंजलि का कहना है कि वो रिटेल स्टोर के मालिकों को स्वदेशी के इस मुहिम में जुड़ने की अपील कर रहे हैं । दरअसल ये भावनात्मक अपील भी मुनाफा बढ़ाने का ही एक कदम है । रिटेल स्टोर उत्पादों को प्रमुखता से डिस्पले करने के लिए कंपनियों से पैसे लेते हैं लेकिन स्वदेशी और गांधी के सपनों का दांव चलकर पतंजलि इस खर्चे को बचाना चाहती है । बाबा रामदेव की सफलता इस वक्त चर्चा का विषय है और माना जा रहा है कि इस वित्तीय वर्ष में उनका टर्न ओवर ढाई हजार करोड़ तक पहुंच जाएगा ।
पतंजलि का ढाई हजार करोड़ सालाना टर्न ओवर का आंकड़ा अन्य धर्म और आध्यात्मुक गुरुओं भी इस बाजार में खींच रहे हैं । अपनी साख और अपने अनुयायियों की बड़ी संख्या के मद्देनजर भी इन बाबाओं को संभावनाएं नजर आ रही हैं । इन दोनों स्थितियों को ध्यान में रखते हुए अब आध्यात्मिक गुरू जग्गी वासुदेव भी बाजर में कूद पड़े हैं उनके प्रोडक्ट इशा आरोग्य के नाम से बाजर में हैं । हरियाणा और पंजाब में बेहद लोकप्रिय डेरा सच्चा सौदा वाले धर्म गुरू बाबा राम रहीम भी एमएसजी के नाम से अपने प्रोडक्ट लांच कर चुके हैं । बाबा राम रहीम ने तो एक साथ करीब चार सौ प्रोडक्ट की ग्लोबल लांचिंग की, जिसमें दाल, मसाला, अचार, जैम, से लेकर मिनरल वॉटर और नूडल्स भी शामिल हैं । एमएसजी यानि मैसेंजर ऑफ गॉड के नाम से फिल्म बनाकर सफल हो चुके गुरमीत राम रहीम भी अपनी लोकप्रियता  के भरोसे एफएमसीजी मार्केट में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं । ऑर्ट ऑप लीविंग के श्रीश्री रविशंकर का श्रीश्री आयुर्वेद ट्रस्ट भी कई फूड प्रोडक्ट्स से लेकर पर्सनल केयर प्रोडक्ट बेचता है । ट्रस्ट के बयान के मुताबिक 2017 तक वो पूरे देश में करीब ढाई हजार स्टोर खोलने की योजना बना रहे हैं जहां आधुनिक उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर पुरातन आयुर्वेदिक प्रोडक्ट्स की बिक्री की जाएगी । ये फेहरिश्त काफी लंबी है । दक्षिण भारत में बेहद लोकप्रिय माता अमृतानंदमयी भी इस बाजार में उतर चुकी है । माता अमृतानंदमयी मठ अमृता लाइफ के नाम से प्रोडक्ट मार्केट कर रहा है । इन धर्म गुरुओं के प्रोडक्ट्स की बढ़ती बिक्री ने कई स्थापित कंपनियों की नींद उड़ा दी है क्योंकि ये बाबा अपने प्रोडक्ट्स की ऑन लाइन बिक्री को भी आक्रामक तरीके से मार्केट कर रहे हैं । एक रिपोर्ट के मुताबिक पंतजलि के प्रोडक्ट्स ने तेरह सूचीबद्ध कंपनियों को प्रभावित किया है और उनका मुनाफा गिरा है ।

एक जमाना था जब कुंभनदास ने कहा था कि – संतन को कहां सीकरी सौं काम । लेकिन अब ये परिभाषा बदलती नजर आ रही है । अब तो संतों को सीकरी से ही काम नजर आ रहा है। बेहद दिलचस्प है कि दुनिया को माया मोह से दूर रहने का उपदेश देनेवाले गुरु माया के चक्कर में पड़े हैं । अलबत्ता बाजार में उतरने वाले सभी अध्यात्मिक और धर्मगुरू यह कहना नहीं भूलते कि वो इस कारोबार से होने वाले मुनाफे को मानव कल्याण से लेकर लोगों को शिक्षित करने तक के काम में उपयोग में लाएंगे । अबतक इनकी साख है तो भक्तगण इनके प्रोडक्ट पर भी भरोसा कर रहे हैं लेकिन बाजार के कायदे कानून बेहद निर्मम होते हैं और उत्पादों को लेकर एक जरा सी चूक इनके भक्तों को इनसे दूर भी कर सकती है । 

Sunday, March 6, 2016

कांग्रेस के नए खेवनहार बने प्रशांत

एक हैं प्रशांत किशोर । दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद उनके नाम का डंका पूरे देश में बजा था । उन्हें नरेन्द्र मोदी का मास्टर स्ट्रैटजिस्ट कहा गया था और राजनीति विश्लेषकों से लेकर सियासत को अंदर से जानने का दावा करनेवालों ने उस वक्त माना था कि प्रशांत किशोर ने मोदी की चुनावी रणनीति को बेहद सफलतापूर्वक अंजाम दिया था । उसके बाद कई वजहों से प्रशांत किशोर और नरेन्द्र मोदी की राह जुदा हो गई। अवसर भांपते हुए नीतीश कुमार ने प्रशांत कुमार को बिहार चुनाव के में अपनी पार्टी की चुनावी रणनीति को अंजाम देने के लिए चुना । बिहार चुनाव में नीतीश-लालू गठबंधन की सफलता के बाद देश की राजनीति में प्रशांत किशोर उस वक्त सबसे बड़ी कमोडिटी बन चुके हैं । जाहिर है कि बाजार के नियमों के मुताबिक बड़ी कमोडिटी पर हर किसी कीनजर रहती है । खरीदारों को बी लगता है कि उस कमोडिटी पर उसका हक हो । जिसके पास पूंजी होता है वो बड़े और मुनाफा वाली कमोडिटी में निवेश करना चाहता है । यही हाल सियासत के बाजार का भी है । हर दल और उसके नेता प्रशांत किशोर को अपने चुनावी चाणक्य के रूप में देखना चाहता है । इस वक्त देश में रोहित वेमुला से लेकर कन्हैया तक पर और देशद्रोह से लेकर देशभक्त पर बहस चल रही है । राष्ट्रीयता की नई नई परिभाषा गढ़ी जा रही है । विमर्श के इस कोलाहल के बीच कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी की वैतरणी पार करवाने का जिम्मा प्रशांत किशोर को सौंपा है । अभी प्रशांत को उत्तर प्रदेश, पंजाब और गुजरात की जिम्मेदारी दी गई है लेकिन माना जा रहा है कि दो हजार उन्नीस के लोकसभा चुनाव तक प्रशांत किशोर कांग्रेस के साथ रहेंगे । हलांकि ये इस बात पर भी निर्भर करेगा कि प्रशांत किशोर पार्टी को उत्तर प्रदेश, पंजाब और गुजरात में कैसी सफलता दिलवा पाते हैं । कांग्रेस के कल्चर को जानने वाले यह इस बात से वाकिफ हैं कि वहां की अंदरूनी राजनीति में लंबे समय तक पांव टिकाना कितना मुश्किल है । फिलहाल तो प्रशांत ने यूपी की जिम्मेदारी संभाल ली है और सूबे के वरिष्ठ नेताओं के साथ उनकी एक बैठक दिल्ली में हो भी चुकी है । देश की सियासत के लिए इसको बड़ी घटना माना जा रहा है । प्रशांत किशोर के लिए ये अबतक की सबसे बड़ी चुनौती है । जब उन्होंने लोकसभा चुनाव के पहले नरेन्द्र मोदी के कैंपेन की कमान संभाली थी तब यूपीए के दस साल के शासन से और वहां हो रहे भ्रष्टाचार के नए नए खुलासे से देश की जनता खिन्न हो चुकी थी । पूरे देश में एंटीइंकमबेंसी साफ तौर पर दिखाई दे रही थी । प्रशांत किशोर ने रणनीतिक तौर पर उसका इस्तेमाल मोदी के हक में किया । उसके बाद प्रशांत ने बिहार में नीतीश को इस बात के लिए तैयार किया कि वो लालू यादव के साथ गठबंधन करें । यह बिहार की जातिगत संरचना को देखते हुए मास्टरस्ट्रोक था । नीतीश को प्रशांत किशोर पर इतना भरोसा था कि उन्होंने सीटिंग विधायकों से कम सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना को भी मान लिया । लालू-नीतीश की जोड़ी और केंद्र सरकार से लोगों के शुरू हो रहे मोहभंग को प्रशांत किशोर ने महागठबंधन के हक में इस्तेमाल किया । नीतीश कुमार की जनता तक पहुंच और बिहारी गौरव को केंद्र में रखने का नतीजा सकारात्मक रहा । लेकिन उत्तर प्रदेश के हालात उनके पिछले दो असाइनमेंट से बिल्कुल अलग हैं। यूपी में कांग्रेस इस वक्त अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है । दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में में पार्टी ने सूबे में इक्कीस सीटें जीती थी तब ये माना गया था कि राहुल गांधी ने पार्टी को रिवाइव कर दिया है । उस वक्त कांग्रेस को करीब सवा अठारह फीसदी वोट मिले थे । उसके बाद हुए विधान सभा और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत खराब रहा । राहुल गांधी के एड़ी चोटी का जोर लगाने के बावजूद दो हजार बारह के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को करीब बारह फीसदी ही वोट मिल पाए थे । उसके दो साल बाद दो हजार चौदह में हुए लोकसभा चुनाव में तो पार्टी की और बुरी गत हुई थी । सोनिया और राहुल गांधी को छोड़कर कोई भी उम्मीदवार जीत नहीं सका और पार्टी का वोट शेयर गिरकर करीब साढे सात फीसदी तक पहुंच गया था । यह अबतक का सबसे बुरा प्रदप्शन था । इतना खराब प्रदर्शन तो इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में भी नहीं रहा था । उस वक्त भी कांग्रेस को सूबे से कोई लोकसभा सीट नहीं मिली थी लेकिन तब भी पार्टी का वोट शेयर करीब पच्चीस फीसदी रहा था । दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल पूरी तरह से टूटा हुआ है । कभी कभी ये चर्चा चल पड़ती है कि प्रियंका गांधी को यूपी के मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया जाएगा लेकिन अबतक ये सिर्फ अटकलबाजी ही साबित हुई है । अब कांग्रेस को प्रशांत किशोर में उम्मीद की किरण नजर आ रही है । कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना है कि प्रशांत किशोर चूंकि लंबे समय तक नरेन्द्र मोदी के साथ काम कर चुके हैं लिहाजा वो मोदी को घेरने की कामयाब रणनीति बना सकते हैं । इसको देखते हुए ये भी लगता है कि बदलते वक्त के साथ राजनीति कितनी बदल गई है । एक जमाना था जब कांग्रेस के पास यूपी में जमीनी नेताओं की पूरी फौज हुआ करती थी । उनके प्रभाव में पार्टी को वोट और शासन दोनों हासिल होता था । अब तो हालात यह है कि लोकसभा चुनाव में करारी हार के बावजूद पार्टी को प्रदेश अध्यक्ष का विकल्प नहीं सूझ रहा है । यह ठीक है कि मीडिया और सोशल मीडिया के दौर में चुनावी रणनीतिकारों की जरूरत होती है लेकिन वो उन हालात में चमत्कार कर सकते हैं जब नेता हों । प्रशांत किशोर ने भी नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार के साथ मिलकर सफलता की इबादत लिखी । यूपी में उनके सामने चुनौती खाली स्लेट पर सफलता की कहानी लिखने की है । यह देखना दिलचस्प होगा कि दो हजार सत्रह के यूपी विधानसभा चुनाव के पहले प्रशांत किशोर किस तरह की रणनीति बनाते हैं क्योंकि माना जा रहा है कि कांग्रेस के नेता मायावती और मुलायम दोनों से समान दूरी बनाकर चुनावी समर में कूदना चाहते हैं ।  

मजबूत होती हिंदी

मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज में दो दिनों तक चले लिटरेचर फेस्टिवल- लिटो फेस्ट – ने वहां मौजूद युवाओं और सत्रों में उनकी भागीदारी ने साहित्य के उज्जवल भविष्य को रेखांकित किया। दरअसल लिट ओ फेस्ट में गंभीर साहित्यक विषयों के अलावा संगीत और कला पर भी बातचीत हुई । एक बेहद दिलचस्प साहित्य में व्यंग्य की विधा के हाशिए पर चले जाने पर हुआ । इसमें लेखक रत्नेश्वर और हास्य कवि लोढ़ा ने अपने भाषणों से श्रोताओं का ज्ञानवर्धन किया । इस सत्र में ये बात निकलकर सामने आई कि हमारे जीवन से ही हास्य कम हो रहा है । इस बात की कमी को शिद्दत से महसूस किया गया कि हिंदी में व्यंग्य लेखन की परंपरा हरिशंकर परसाईं से आगे बढ़ वहीं पाई । मेरा मानना है कि शरद जोशी और के पी सक्सेना के बाद इन दिनों ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य की मशाल को जलाए हुए हैं अन्यथा को व्यंग्य के नाम पर हिंदी में फूहड़ चुटकुलों ने ले ली है । जिस तरह का व्यंग्य लेखन हो रहा है उसको देखकर लगता है कि साहित्य में व्यंग्य और हास्य के बीच का फर्क मिट गया है । दरअसल जब हम हंसने की बात करते हैं तो आज की पीढ़ी के जेहन में चुटकुला आता है । इसकी जिम्मेदारी आज के व्यंग्य लेखकों की भी है । हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि साहित्य से व्यंग्य गायब क्यों होता चला गया ।

मुंबई में कोई इस तरह का आयोजन हो और सितारों का मेंला ना लग ऐसा संभव ही नहीं है । शत्रुध्न सिन्हा की नई किताब- एनी थिंग बट खामोश पर चर्चा हुई जहां शॉटगन ने कई दिलचस्प संस्मरण साझा किए । मनोज वाजपेई और अलीगढ़ फिल्म की पूरी स्टार कास्ट वहां पहुंची थी लेकिन चर्चा फिल्म के बहाने से समलैंगिक संबंधों और धारा तीन सौ सतहत्तर पर हुई । एक अलग सत्र में मनोज वाजपेयी ने हिंदी की कई कविताएं पढ़ी । मनोज वाजपेय़ी ने एक सत्र में कहा कि अब वो उन फिल्मों की स्क्रिप्ट नहीं पढ़ते जो नागरी में ना लिखी गई हो । मनोज ने कहा कि सत्या फिल्म की सफलता के बाद वो अब इस स्थिति में हैं कि फिल्म जगत में अपनी शर्तों पर काम कर सकें । लिहाजा अब वो नागरी में टाइप्ड स्क्रिप्ट मांग सकते हैं । मनोज जब ये कह रहे थे तो वो उस प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रहे थे बॉलीवुड में आम चलन में है । बॉलीवुड में ज्यादातर स्क्रिप्ट और संवाद रोमन में लिखे जाते हैं और कलाकार भी उसको ही पढ़ते हैं । चेतन भगत जैसे लेखक तो खुलेआम हिंदी को नागरी लिपि में लिखे जाने का विरोध कर उसके रोमन में लिखे जाने की वकालत कर चुके हैं । ऐसा लगता है कि चेतन भगत जैसों को हिंदी और नागरी की परंपरा का ना तो एहसास है और ना ही उसके व्याकरण और उच्चारण का ज्ञान । मनोज वाजपेयी ने चेतन भगत जैसे रोमन में लिखे जानेवाले पैरोकारों को लिट ओ फेस्ट के मंच से एक संदेश भी दिया । इसके अलावा साहित्य में मठाधीशी और असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी पर भी एक सत्र था । इसमें हिंदी के वरिष्ठ लेखक नरेन्द्र कोहली, वरिष्ठ संपादक विश्वनामथ सचदेव, आलोचक विजय कुमार और वरिष्ठ कथाकार सूर्यबाला ने हिस्सा लिया । उनके विचार बंटे हुए थे । साहित्य में मठाधीशी पर उपन्यासकार प्रभात रंजन और पंकज दूबे ने जमकर अपनी बात रखी और मुक्तिबोध की पंक्ति- तोड़ने ही होंगे सभी मठ और गढ़ एक बार फिर से गूंजा ।  इस लिट फेस्ट में पुस्तक मेला भी लगा था और मराठी बहुल क्षेत्र में हिंदी की किताबें जमकर बिक रही थीं । कवयित्री स्मिता पारिख और नाट्य निर्देशक सलीम आरिफ की किताबें लोकार्पित हुई । इस तरह से गैर हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी पर विमर्श सुखद रहा ।   

Saturday, March 5, 2016

हिन्दी साहित्य में मठाधीशी ·

फरवरी के बेहतरीन मौसम में मुंबई के ऐतिहासिक सेंट जेवियर्स कॉलेज के प्रांगण में दो दिनों तक साहित्य, कला, संस्कृति और संगीत का बेहतरीन समागम हुआ । हिंदी-अंग्रेजी के साहित्यकारों और लेखकों ने दो दिनों तक सुबह से लेकर शाम तक जेवियर्स के कैंपस में गंभीर विमर्श किया । इस विमर्श में युवा पीढ़ी की भागीदारी आश्विस्तिकारक रही । ये लिटरेचर फेस्टिवल इस लिहाज से अन्य साहित्य समारोहों से अलग रहा क्योंकि इसमें संगीत पर भी खासा जोर रहा । इसमें कई सत्रों में बेहद दिलचस्प बहसें हुई । एक सत्र साहित्य की मठाधीशी पर था । मठाधीशी का साहित्य पर मेरा मानना है कि साहित्य में इस तरह के गढ़ और मठ गढ़ने की शुरुआत प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ ही शुरु हुई । आजादी पूर्व 1936 में बनाए गए इस प्रगतिशील लेखक संघ का उद्देश्य उस वक्त चाहे जो रहा हो, आजादी के बाद तो यह शुद्ध रूप से साहित्य का एक ऐसा मठ बन गया जिसमें दीक्षित होकर ही कोई साहित्यकार बन सकता था । संघ की मान्यताओं में रचनाकार का पक्ष पहले से दिया रहता था और रचनाकारों को उसपर चलना होता था, इस उक्ति को समय समय पर कई लेखकों ने दोहराया है । दरअसल प्रगतिवाद का मतलब हो गया था मार्कसवादी सिद्धांतों का अंधानुकरण । प्रगतिशीलता के नाम पर साहित्यकारों को प्रगतिशील लेखक संघ से लेखक होने का सर्टिफिकेट मिलने लगा था । उस सर्टिफिकेट के आधार पर आपकी प्रतिभा या मेधा का आंकलन होने लगा । प्रगतिशील लेखक संघ की प्रतिबद्धता भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ थी, लिहाजा इस संगठन से जुड़े लेखकों के लेखन से लेकर उनके वक्तव्यों तक में पार्टी की नीतियों की छाप साफ तौर पर दिखाई देती थी । यह मठाधीशी के साहित्य की शुरुआत का दौर था जो अब भी बदस्तूर जारी है । बीच में जब कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ तब साहित्य के इस मठ में भी बंटवारा हो गया । अपनी चूल्हा-चौका लेकर अलग हुए लोगों ने जनवादी लेखक संघ बनाया । साहित्य का ये नया मठ जनवादी लेखक संघ अपने हर कदम के लिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की ओर ताकने लगे । सीपीएम के सीपीआई से ज्यादा ताकतवर होने की वजह से जनवादी लेखक संघ नाम वाले साहित्यक मठ में साहित्यक भक्तों की संख्या बढ़ने लगी । कालांतर में सीपीआई-एमएल बना तो एक बार फिर से साहित्य के ये मठ टूटा और जन संस्कृति मंच का जन्म हुआ । ये तीनों मठ अब भी साहित्य में अपने अपने भक्तों के साथ डटे हुए हैं । हिंदी साहित्य में इन तीनों मठों का कालखंड बहुत लंबा चला । साहित्य के इन मठों में बैठे महंथों ने अपने भक्तों को जमकर रेवड़ियां बांटी । विचारधारा को मानने वालों को विश्वविद्यालयों में नौकरियां मिली, फैलोशिप मिले, पुरस्कार मिले, विदेशों में सैर सपाटे के अवसर मिलने लगे । शर्त बस यही थी कि मठ के प्रति आस्था भी बनी रही और सार्वजनिक तौर पर उसका प्रदर्शन भी होता रहे । जैसा कि आमतौर पर होता है कि मठों के महंथ अपने इर्द गिर्द चापलूसों को रखते हैं और उनको ही पुरस्कृत करते हैं वही यहां भी होता रहा । मठ के महंथों की तरह काम करनेवाले इन लेखक संघों के मठाधीश भी प्रतिभा को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे और प्रतिभाशील लेखकों को दरकिनार कर दिया जाता था । मार्क्सवादी मान्यताओं के अंधानुकरण पर सवाल खड़े करनेवाले लेखकों को साहित्य की दुनिया से बाहर कर दिया जाता था । जिस तरह की साजिशें मठों के महंथ किया करते थे कमोबेश उसी तरह की साजिशें भी इन साहित्यक मठों के महंथ करते थे और विरोधियों को हाशिए पर डाल देते थे । लेखक संघों के मठों के अलावा हिंदी साहित्य में छोटे छोटे मठ बनाने की कोशिश होती रही । लेखक संघों की मनमानी के खिलाफ उन्नीस सौ पैंतालीस में परिमल नाम की संस्था बनाई गई । इस संस्था से जुड़े लेखकों का मानना था कि जो लेखक हैं वो अपनी राह खुद बनाएं, नई राह के अन्वेषी बनें ना कि मार्क्सवाद की बनी बनाई लीक पर चलते रहें । लेकिन प्रगतिशील लेखकों ने  परिमल से जुड़े लेखकों पर विचार ही नहीं किया । उनको कलावादी कहकर दरकिनार करते रहे । प्रगतिशीलता के दौर में साहित्य अकादमी और राज्यों की अकादमियां भी इन्ही संघों की शाखा के तौर पर काम करने लगी थीं । उसके बाद अगर साहित्य के मठों को देखें तो लेखकों ने अपने अपने मठ बना लिए । एक जमाना था जब अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव साहित्य के मठाधीश के तौर पर उभरे और स्थापित हुए । हंस पत्रिका के जरिए राजेन्द्र यादव ने जो साहित्यक मठ बनाया उसमें हलांकि उन्होंने अपने विरोधी विचारधारा के लोगों को भी स्थान दिया । कई साहित्यक संस्थाओं को बनाने में अशोक वाजपेयी की भूमिका रही और प्रशासनिक सेवा में होने की वजह से उनको राजाश्रय भी मिला । अशोक वाजपेयी के अनुयायियों की लंबी संख्या है और अच्छी बात यह है कि वाजपेयी अपने शिष्यों या मठ के सदस्यों का खास ख्याल रखते हैं, नौकरी दिलवाने से लेकर पुरस्कार दिलवाने, देने तक में । नामवर सिंह ने अपने दौर में अपने मठ के सदस्यों को विश्वविद्यालयों में फिट किया । अस्सी और नब्बे के दशक में नामवर जी साहित्य के सबसे बड़े मठाधीश थे । एक जमाना था जब इन तीनों को हिंदी साहित्य का ब्रह्मा, विष्णु महेश कहा जाने लगा था । साहित्यक मठाधीशी पर राजस्थान की लेखिका रजनी कुलश्रेष्ठ ने कहानी छपने से लेकर किताब छपने तक में साहित्यक मठाधीशों की भूमिका की ओर संकेत किया । वो संकेत भयावह था । हमारा मानना है कि साहित्य में मठाधीशी का जन्म कम्युनिस्टों ने अपनी विचारधारा को स्थापित करने के लिए किया । इसको उन्होंने लंबे समय तक सफलतापूर्वक संचालित किया । अब भी स्थिति ज्यादा नहीं बदली है और प्रगतिशीलता के तमगे के बिना हिंदी साहित्य में आपको गंभीरता से नहीं लिया जाता है । हलांकि अब दूसरी विचारधारा के लोग भी या कम्युनिस्टों से वैचारिक मतभेद वाले लेखक भी अपने को असर्ट करने लगे हैं । यह स्थिति साहित्य के लिए अच्छी है जहां हर वितारधारा को विमर्श और लेखन के लिए समान अवसर और मंच मिले । मुंबई में आयोजित लिट ओ फेस्ट में इस तरह के विषयों को केंद्र में रखकर गंभीरता से विमर्श हुआ और प्रभात रंजन, सुंदर ठाकुर और पंकज दूबे जैसे युवा लेखकों ने बेवाकी से अपने विचार रखे । वहां यह बात भी निकलकर आई कि औसत दर्ज के लेखकों को मठों की जरूरत होती है ताकि उनकी कमजोर रचनाओं को आगे बढाया जा सके । लेखकों को अपनी रचनाओं पर यकीन होना चाहिए तभी ये मठ या गढ़ टूटेंगे ।
लिट ओ फेस्ट में हिंदी की जोरदार वकालत की गई । आज जब चेतन भगत जैसे लेखक हिंदी को नागरी में नहीं लिखकर बल्कि रोमन लिपि में लिखने की वकालत कर रहे हैं ऐसे माहौल में फिल्म अभिनेता मनोज वाजपेय़ी ने देवनागरी की जमकर वकालत की । एक सत्र में मनोज वापजेयी ने कहा कि अब वो उन फिल्मों की स्क्रिप्ट नहीं पढ़ते जो देवनागरी में नहीं लिखी गई हो । मनोज वाजपेयी ने स्वीकार किया कि सत्या फिल्म की जबरदस्त सफलता के बाद वो अब इस स्थिति में हैं कि फिल्म जगत में अपनी शर्तों पर काम कर सकें । लिहाजा अब वो नागरी में स्क्रिप्ट की मांग कर सकते हैं, कर भी रहे हैं  । मनोज जब ये कह रहे थे तो वो उस प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रहे थे बॉलीवुड में आम चलन में है । बॉलीवुड में ज्यादातर स्क्रिप्ट और संवाद रोमन में लिखे जाते हैं और कलाकार भी उसको ही पढ़ते हैं । मनोज वाजपेयी जब नागरी की वकालत कर रहे थे तो वो चेतन भगत को नकार रहे थे । मनोज वाजपेयी ने चेतन भगत जैसे रोमन में लिखे जानेवाले पैरोकारों को लिट ओ फेस्ट के मंच से एक संदेश भी दिया । दरअसल चेतन भगत जैसों को हिंदी और नागरी की परंपरा का ना तो एहसास है और ना ही उसके व्याकरण और उच्चारण का ज्ञान । इस लिटरेचर फेस्टिवल में खास बात यह रही इसके सत्रों के विषयों का चयन और युवा लेखकों की भागीदारी । क्राइम लेखन पर भी एक सत्र रहा जिसमें पुलिस अधिकारी और लेखक ब्रजेश सिंह और तथाकथित पल्प लेखक अमित खान ने हिस्सा लिया। सबसे अच्छा रहा मराठी धरती पर हिंदी कविताओं की अनुगूंज यानि की काव्य पाठ । इस काव्य पाठ में स्मिता पारिख, चित्रा देसाई, देवमणि पांडे, रजनी कुलश्रेष्ठ को सुनने के लिए छात्रों की भीड़ को देखकर लगा कि अगर कविताएं कुछ संप्रेषित करती हैं तो उसके श्रोता या पाठक उसकी ओर वापस आ सकते हैं । यह एक बेहद सुख स्थिति होगी अगर हिंदी कविता के पाठक श्रोता उसकी ओर वापस लौट सकें । अगर मीना बाजार में तब्दील हो रहे लिटरेचर फेस्टिवल यह काम कर सकें तो साहित्य के लिए ये बड़ा काम होगा ।