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Wednesday, June 30, 2010

बिखरा ‘तहलका’ का पठन पाठन

तरुण तेजपाल देश के ख्यातिप्राप्त पत्रकार हैं । तहलका के बैनर से स्टिंग ऑपरेशन कर काफी शोहरत कमा चुके हैं । अब दिल्ली से हिंदी और अंग्रेजी में तहलका पत्रिका निकालते हैं । अंग्रेजी तहलका ने तो कई वर्षों में अपनी एक अलग पहचान बनाई लेकिन हिंदी तहलका पत्रिकाओं की भीड़ के बीच अपना स्थान और पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही है । कुछ अलग करने की चाहत में तहलका ने हिंदी साहित्य का रुख किया और जून में पठन पाठन के नाम पर साहित्य विशेषांक निकाला । आमतौर पर जैसा इस तरह की पत्रिकाओं के साथ होता है तहलका का साहित्य विशेषांक भी उसका शिकार हो गया है । साहित्य विशेषांक के नाम पर निकली इस पत्रिका का कोई साहित्यिक स्वरूप ही नहीं बन पाया है । सबकुछ समेट लेने की चाहत और नामचीन लोगों को बेवजह स्थान देने से में पत्रिका का पूरा स्वरूप बिखर गया । अपने संपादकीय में पत्रिका के वरिष्ठ संपादक संजय दुबे ने लिखा है- समाचार पत्रिका के साहित्य विशेषांक के अपने कुछ फायदे भी हैं । इस अंक में ना केवल दस्तावेज और अन्यान्य जैसी बहुपयोगी श्रेणियां मौजूद हैं बल्कि इसे लोकतांत्रिक और सर्वसमावेशी बनाने की ओर भी विशेष ध्यान रखा गया है । इसमें अनुभवी दिग्गजों को समुचित सम्मान देते हुए साहित्यिक संभावनाओं के नए संकेतों का भी उतनी ही गर्मजोशी से स्वागत किया है । वरिष्ठ संपादक का यह दावा है तो ठीक लेकिन इस अंक में कविता और कवियों को लेकर एक उपेक्षाभाव साफ तौर पर दिखता है । एक तरफ जहां कहानीकारों और लेखकों को प्रमुखता के साथ छापा गया है वहीं कवियों और कविताओं को रनिंग मैटर की तरह एक के बाद एक छाप कर रस्म अदायगी की गई है । ना तो किसी का कोई परिचय दिया गया है और ना ही किसी के फोटो छापे गए हैं । या तो पत्रिका के कर्ता-धर्ता यह समझते हैं कि उन्होंने जितने कवियों को छापा है वो इतने प्रसिद्ध हैं और वो किसी परिचय के मोहताज नहीं है । नाम ही काफी है की अगर सोच है तो नाम तो सही छपना चाहिए था । वरिष्ठ कवि विमल कुमार बेचारे विपल कुमार हो गए, शुक्र है विफल कुमार नहीं हुए । कई अच्छी कविताएं छपी हैं लेकिन खराब डिस्पले की वजह से वो उबर नहीं पाई । चर्चित कवि संजय कुंदन की छोटी कविता- ठीक है- आज की नई पीढ़ी की मानसिकता और उसकी सोच को प्रतिबिंबित करती है । गीत चतुर्वेदी की लंबी कविता - जाना सुनो मेरा जाना – भी इस अंक की उपलब्धि है । गीत की कविता में एक गहराई होती है जिसे पढ़कर महसूस किया जा सकता है ।
आज हिंदी साहित्य में नई पीढ़ी के कहानीकारों की रवीन्द्र कालिया ने एक फौज खड़ी कर दी है । जैसा कि आमतौर पर होता है कि अगर आप फौज बनाते हैं तो उसमें कई जांबाज के साथ साथ कुछ सुस्त भी भर्ती हो जाते हैं, कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो जंग से बचकर शॉर्चकट से निकल भागने के चक्कर में लगे रहते हैं । हिंदी कहानी की इस नई पीढ़ी में भी तीनों तरह के लोग हैं । कई नए कहानीकार बेहतरीन लिख रहे हैं और उन्होंने हिंदी को एक नई भाषा दी है । क्या कहानी लेखन में नयी पीढ़ी को लेकर मच रहा शोर रचनात्मकता है इसको केंद्र में रखकर इस अंक में- समकालीन कहानी कितना जोर कितना शोर- एक लेख छपा है । इसके लेखक दिनेश कुमार ने वरिष्ठ कहानीकारों की राय के आधार पर लेख लिखा है । काशीनाथ सिंह कहते हैं कि – ये युवा लेखक विज्ञापन की ऐसी विधियां जान गए हैं, जिनसे पुराने लेखक अपरिचित थे । वे लोग लेखन पर कम ध्यान देकर विज्ञापन की आधुनिक सुविधाओं का लाभ अधिक उठा रहे हैं । काशीनाथ जी की इस बात में दम है लेकिन ये पूरी पीढ़ी पर लागू नहीं होता । दिल्ली में कई ऐसे लेखक हैं जो संपादकों के दरबार में हाजिरी लगाकर साहित्य में अपने आपको स्थापित करने में लगे हैं । उनमें से कई कहानीकारों की कहानियां इस अंक में छपी भी हैं । ज्ञानरंजन भी नई पीढ़ी को बाजार की मांग के अनुरूप लिखनेवाला करार दे रहे हैं । युवा कहानी में एक नई भाषा और कंटेंट सामने आ रहा है जिसे ये लोग बाजार की देन मांगते हैं । मेरा इन वरिष्ठ लेखकों से यही सवाल है कि हिंदी साहित्या का बाजार कितना बड़ा है । कितने लेखकों को हिंदी साहित्य के बजार से फायदा पहुंच रहा है । आज तो हिंदी में यह हालत है कि वरिष्ठ से वरिष्ठ लेखकों की कृतियां एक हजार से ज्यादा नहीं बिक पाती हैं । उधर अंग्रेजी में अद्वैत काला जैसी नई और युवा लेखिका का उपन्यास पचास हजार प्रतियों से ज्यादा बिकता है । किस भ्रम और किस मानसिकता में जी रहे हैं हमारे बुजुर्ग साहित्यकार । इस अंक में वंदना राग की कहानी देवा- देवा अच्छी है । दूसरी तरफ उमाशंकर चौधरी की कहानी बेवजह खिंची हुई लगती है, नतीजा यह हुआ कि ना केवल कहानी बिखर गई बल्कि उबाऊ भी हो गई ।
संजय दुबे ने अपने लेख में अपने सहयोगी गैरव सोलंकी को विलक्षण लेखन प्रतिभा बताया गया है लेकिन इस अंक में छपी कहानी और कविता में विलक्षणता दिखाई तो नहीं देती ।
अपने संपादकीयमुमा लेख में संजय दुबे ने एक और दावा किया है – शायद हिंदी के किसी भी साहित्य विशेषांक के लिए यह पहला प्रयास होगा कि इस अंक में हमने विभिन्न प्रकाशकों, साहित्यकारों और समालोचकों आदि से अनुरोध करके,उनसे बात करके तमाम तरह की सर्वेक्षणनुमा जानकारियां भी संकलित की हैं । संजय दुबे ने शायद शब्द लिखकर अपने बचने का रास्ता छोड़ दिया है । उन्हें याद दिलाना चाहूंगा कि हिंदी में इस तरह के आयोजन कई बार हो चुके हैं चाहे वो अवध नारायण मुदगल के संपादन में निकला छाया मयूर का अंक हो. या फिर धीरेन्द्र अस्थाना के संपादन में निकला जागरण उदय का अंक हो । कई बार इस तरह के सर्वेक्षण प्रकाशित हो चुके हैं और इसमें नया कुछ नहीं है । तहलका में नया है तो सिर्फ उनमें छपी अशुद्धियां – बेस्य सेलर में कथा सतीसर को गांताजलिश्री का उपन्यास बता दिया गया है जबकि ये चंद्रकांता की कृति है । अन्यान्य पर भी संपादक को गर्व है लेकिन इसमें विभूति नारायण राय ने कहा है कि गोविंद शुक्ल को मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार । गोविंद मिश्र को गोविंद शुक्ल लिखकर लेखक का अपमान किया गया है । उदय प्रकाश का बड़बोलापन भी यहां है, वो कहते हैं कि 99.9 फीसदी लेखन ऐसा ही है । हिंदी जगत में सबसे चमकदार चेहरे सबसे अयोग्य हैं । मुझे लगता है कि उदय ने जो दशमलव एक फीसदी छोड़ा है वो अपने लिए छोड़ा है क्योंकि हिंदी में वही सबसे उत्तम लिख रहे हैं । इसके अलावा भारत भारद्वाज के लेख में भी प्रतीक का प्रकाशन 1943 बताया गया है जबकि उसका प्रकाशन 1945 में शुरू हुआ था ।
संपादकीयनुमा लेख में निस्वार्थ सहयोग के लिए उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल का आबार प्रकट किया गया है । हमें यह नहीं मालूम कि मोरवाल की भूमिका इस अंक में कितनी दूर तक थी लेकिन अंक की परिकल्पना चाहे जो भी हो अंक बेहद औसत निकला है । इसने ना तो हिंदी साहित्य की किसी विधा में कोई हलचल पैदा की है और ना ही इस अंक का कोई स्थायी महत्व है । तहलका के सामने इंडिया टुडे के साहित्य विशेषांक का उदाहरण तो था ही उसे पार करने की एक चुनौती भी थी लेकिन चुनौती स्वीकार करना तो दूर की बात यह अंक इंडिया टुडे के साहित्य विशेषांक के आस-पास भी नहीं पहुंच पाया है । मुझे यह भी नहीं मालूम कि तरुण तेजपाल की इस अंक में कितनी भूमिका है लेकिन इतना तो तय है कि संपादक के रूप में उसका नाम छपने की वजह से उनकी ही दृष्टि पर सवाल खडे़ होंगे ।

Tuesday, June 29, 2010

हिरासत में कैसे हो हिफाजत

हाल में पंजाब से खबर आई कि पुलिस ने एक प्रेमी युगल को पार्क से पकड़ कर थाने ले आई । अगले दिन सुबह लड़की पूछताछ के बाद नारी निकेतन भेज दिया गया और लड़के की मौत हो गई । उसके पहले उत्तर प्रदेश के औरैया में थाने में एक खुदकुशी की खबर से लोगों का गुस्सा इतना भड़ा कि पूरे शहर में आगजनी और विरोध प्रदर्शन हुए । लोगों के बढ़ते गुस्से की वजह से हरकत में आई राज्य सरकार ने पूरे थाने के सारे पुलिसकर्मियों को सस्पेंड कर दिया और थानेदार के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर लिया गया । एक इसी तरह की खबर दिल्ली से आई जहां चोरी के मामूली इल्जाम में एक नाबालिग को पकड़ कर थाने लाया गया और जब उसकी मां जब उसे छुडाने थाने आई तो पुलिसवालों ने लड़के को नंगाकर कर अपनी मां से शारीरिक संबंध बनाने का तालिबानी हुक्म सुनाया । ऐसा नहीं करने पर लड़के की जबरदस्त पिटाई की गई । यह तो देश की राजधानी दिल्ली की पुलिस है जो आपके लिए सदैव का दावा करती है । जिस दिल्ली पुलिस को देश की श्रेष्ठ पुलिस फोर्स में से एक माना जाता है । ऐसी कई खबरें देशभर के अन्य हिस्सों से बहुधा आती रहती हैं । लेकिन आमतौर पर पुलिवालों को ऐसे मामलों में सजा होने की खबरे नहीं आती ।
कुछ दिनों पूर्व एशिएन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की एक रिपोर्ट - टॉर्चर इन इंडिया 2010 प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि भारत में पुलिस हिरासत में होनेवाली मौत की संख्या में लगातार इजाफ हो रहा है । उस रिपोर्ट के मुताबिक दो हजार चार से लेकर दो हजार आठ तक में हिरासत में मौत का प्रतिशत लगभग पचपन फीसदी बढ गया । एशिएन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की यह रिपोर्ट चौंकाने वाली है । एक ओर जब हम आधुनिक होने की राह पर चल रहे हैं वैसे में हमारे देश की पुलिस के इस तरह के कारनामे लोकतंत्र पर बदनुमा दाग की तरह हैं ।
सरकार को भी पुलिसिया जुल्म का एहसास है इसलिए सरकार ने संसद के पिछले सत्र में प्रीवेंशन ऑफ टॉर्चर बिल पेश किया था जो अब राज्यसभा की मंजूरी का इंतजार कर रहा है । हलांकि इस बिल की कई धाराओं को लेकर कानून के जानकारों के बीच मतभेद है । कुछ लोगों का मानना है कि यह कानून सिर्फ अंतराष्ट्रीय दबाव में बनाया जा रहा है क्योंकि भारत ने यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर पर हस्ताक्षर किए हैं । लेकिन यहां सवाल इस बात का नहीं है कि भारत में यह कानून किसके दबाव में बनाया जा रहा है । उससे बड़ा सवाल यह है कि कानून बनाकर क्या इस तरह के पुलिसिया जुल्म को रोका जा सकता है । क्या कानून के रखवालों को कानून का भय है । अगर भय होता तो वो इस तरह की हरकतों से बाज आते । गांधी जी ने बहुत पहले इस बात को महसूस किया था और लिखा था – इन इंडिया वी नीड अ पुलिस टू पुलिस द पुलिस । मतलब कि भारत में हमें एक ऐसे पलिस बल की आवश्यकता है जो पुलिस फोर्स पर नजर रख सके । गांधी जी ने आज से लगभग पचास साल पहले यह टिप्पणी की थी लेकिन गांधी के देश में गांधी की आवाज अनसुनी कर दी गई ।
दरअसल पुलिसिया जुल्म की यह समस्या सामाजिक ज्यादा है । हमारे यहां पुलिसवालों को यह मानसिकता हो गई है कि गाली-गलौच और लाठी डंडे की भाषा में ही बात करने से अपराध कम होंगे । यहां हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या इस बात की है कि पुलिस की इस मानसिकता को कैसे बदला जाए । दूसरी जो समस्या है वो है सिस्टम की जो पुलिसिया जुल्म के बढने के लिए उतना ही जिम्मेदार है । देश में बढ़ते अपराध से निबटने के लिए हमारे पास पर्याप्त संख्या में पुलिस बल नहीं है । नतीजा यह होता है कि कांसटेबल से लेकर इंसपेक्टर तक पर केस को जल्द से जल्द निबटाने का भयानक दबाव होता है । इस दबाब से निबटने के लिए उनके पास कोई ट्रेनिंग नहीं होती । समुचित ट्रेनिंग के आभाव में होता यह है कि केस को जल्दी निबटाने के चक्कर में वो कई बार आरोपियों को ही निबटा देते हैं । एक बार भर्ती होने के बाद सिपाहियों और उसके उपर के हवलदार या फिर सब इंसपेक्टर किसी को भी पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं दिया जाता । रिफ्रेशर कोर्स नहीं होते । आरोपियों से सच उगलवाने के नए वैज्ञानिक तकनीक के बारे में उन्हें बताया नहीं जाता । उन्हें तो लगता है कि सच उगलवाने का एकमात्र उपाय थर्ड डिग्री है । आज देश में जरूरत इस बात की है कि कानून व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी जिनके कंधों पर हैं उनको विशेष रूप से ट्रेनिंग दी जाए और समय समय पर उनकी काउंसिलिंग भी की जाए, ताकि दिल्ली, पंजाब और औरैया जैसी घटनाएं ना हों । और किसी बेटे को इस बात के लिए मजबूर ना किया जाए कि वो अपनी मां के साथ शारिरिक संबंध बनाए ।

Tuesday, June 22, 2010

हरे जख्म पर मुआवजे का मरहम

भोपाल गैस कांड पर केंद्र सरकार अपनी खाल बचाने में जुटी है । चार दिनों तक लगातार मंत्रियों के समूह की बैठक हुई । इस बैठक में भोपाल के गैस पीड़ितों के जख्मों पर मुआवजे का मरहम लगाने की कोशिश की गई । छब्बीस साल तक कुंभकर्णी नींद सो रही केंद्र सरकार को अब भोपाल गैस पीड़ितों की सुध लेने की सूझी । इस बात पर सहमति बनी कि सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव पिटीशन यानि सुधार याचिका दाखिल की जाएगी और वॉरेन एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए नए सिरे से प्रक्रिया शुरू की जाएगी । यह फैसला भी देश की आवाम को बरगलाने की एक कोशिश है । एंडरसन पर सिर्फ लापरवाही के आरोप हैं और अमेरिका की अदालत ने इस मामले में इंटेंट साबित नहीं हो पाने की वजह से प्रत्यर्पण की अर्जी खारिज कर दी है। अब भारत सरकार को इसके लिए एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी होगी। प्रत्यार्पण के लिए अपने अनुरोध पत्र को बदलना होगा । एंडरसन नब्बे की उम्र पार कर चुका है और अमेरिकी कानून में प्रत्यर्पण के लिए आरोपी की उम्र को भी ध्यान में रखा जाता है । कुल मिलाकर यह एक ऐसी कोशिश है जिसका कोई नतीजा नहीं निकलना लगभग तय है । तकरीबन चालीस हजार लोगों की मौत के बाद अचानक सरकार के सक्रिय दिखने की वजह कुछ और है । अदालत के फैसले के बाद केंद्र सरकार चौतरफ दबाव में थी । कांग्रेस अपने दामन पर लगे दाग को धोने और आरोपों के दलदल से निकलने के लिए बेचैन है । अदालती फैसले के बाद एंडरसन के भारत से भागने को लेकर जिस तरह से मीडिया ने सरकार को घेरा और उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर आरोप लगे उससे कांग्रेस सकते में आ गई । पार्टी नेताओं ने बचाव में अलग-अलग तर्क देने शुरू किए जिसका नतीजा यह हुआ कि पार्टी में पहले भ्रम की स्थिति बनी । पार्टी के महासचिव और दस जनपथ के करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह ने एंडरसन के भारत से भगाने को लेकर राजीव गांधी को घेरे में ले लिया । पार्टी के एक और नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने अलग राग अलापते हुए अर्जुन सिंह पर सवाल खड़े कर दिए । मामला बिगड़ता देख पार्टी डैमेज कंट्रोल में जुटी और नेताओं को भोपाल मसले पर मुंह बंद करने का फरमान जारी कर दिया गया । अब पार्टी के बड़बोले प्रवक्ता मनीष तिवारी यह तर्क दे रहे हैं कि अगर वॉरेन एंडरसन को नहीं भगाया जाता तो देश की जनता उसे मार डालती । मनीष के तर्क बेहद लचर और तथ्यहीन हैं । अगर भोपाल की जनता में गैस लीक कांड को लेकर गुस्सा था और इस बात की आशंका थी वो हिंसक हो सकती थी तो तो एंडरसन को वहां से निकाल कर देश के किसी भी हिस्से में रखा जा सकता था । देश में इतने खुफिया ठिकाने हैं जिसमें से कहीं भी एंडरसन को रखा जा सकता था लेकिन उसे तो शाही ठाठ-बाट के साथ भारत से विदा किया गया । भारत से भागने के पहले उसने देश के राष्ट्रपति के साथ बैठकर चाय पी । एयरपोर्ट पर हंसते हुए कहा कि अब मैं आजाद हूं । उस वक्त एंडरसन के बॉडी लैंगवेज से यह साफ तौर पर झलकता है कि वो अपने भारत से निकल जाने को लेकर बहुत आश्वस्त था और जाहिर सी बात है कि यह आश्वासन देश के सर्वोच्च नेतृत्व से ही मिला होगा । और इस आश्वासन के पीछे का राज खुलता है तो यह बोफोर्स से बड़ा कांड साबित हो सकता है ।
भोपाल के मसले पर पर साफ तौर पर कानून को एंडरसन और यूनियन कार्बाइड के पक्ष में तोड़ा मरोड़ा गया । देश का कानून मंत्री इस बात को सरेआम स्वीकार कर चुका है कि कोर्ट ने इस मामले को हल्का कर दिया लेकिन खुद वकील होने के बावजूद हमारे कानून मंत्री यह भूल गए कि उस वक्त क्योरेटिव पीटीशन या सुधार याचिका ना डालकर केंद्र सरकार ने बड़ी गलती की थी । दरअसल इस पूरे मामले में शुरू से ही कांग्रेस के नेतृत्ववाली केंद्र और राज्य सरकार दोनों शक के घेरे में है । भोपाल गैस कांड के बाद जब मुआवजे और हजारों लोगों की मौत के लिए जिम्मेदारियां तय करने संबंधित मुकदमे अलग-अलग अदालतों में दर्ज होने लगे तो फौरन से केंद्र सरकार हरकत में आई । उसने एक कानून बनाकर भोपाल गैस पीडितों की लडाई लड़ने का सारा अधिकार अपने हाथ में ले लिया । अचानक केंद्र सरकार को यह बात याद आ गई कि वो देश के गरीबों के हितों का रक्षक है और उसे इस केस में कस्टोडियन बनना चाहिए । जब केंद्र के इस नए कानून को देश की सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी गई तो सरकार ने संप्रभु सरकार के पेरेंस पाट्रिए के सिद्धांत की आड़ में अपना बचाव किया । मतलब यह कि एक संप्रभु राष्ट्र को अपनी जनता के अभिभावकत्व का हक है और उसका यह दायित्व भी है कि जनता के साथ किसी भी तरह से अन्याय नहीं हो । लिहाजा वो जो भी फैसला लेगी वो सही होगा । यह उसी तरह है जैसे कि कोई माता-पिता अपने बच्चों के बारे में फैसला लेते हैं । इस कानून की आड़ में सरकार ने भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ बड़ा छल किया । सरकार ने यूनियन कार्बाइड के साथ एक समझौता किया जिसमें तकरीबन आठ सौ करोड़ मुआवजा की बात तय की गई । भोपाल के गुनहगार एंडरसन को भारत से भगा दिया गया । आम आदमी के हितों की रक्षा का ढोल पीटकर सारा अधिकार अपने हाथ में लेने के बाद भी केंद्र सरकार चालीस हजार लोगों की मौत के मुजरिमों को सिर्फ दो साल की सजा दिलवा पाने में कामयाब हो पाई । सजा भी उन धाराओं में हुई जिसमें कि हाथ के हाथ जमानत भी मिल जाती है । यह देश के साथ केंद्र सरकार का बड़ा धोखा है । एक सोची समझी रणनीति के तहत कानून बनाकर भोपाल गैस पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ने का अधिकार केंद्र सरकार ने अपने हाथ में लिया । ताकि मनमाफिक फैसले हो सकें । क्या भोपाल गैस कांड में पीड़ितों की हक की लड़ाई का अधिकार अपने हाथ में लेने वाली कांग्रेस पार्टी को चंद दिनों पहले दिल्ली में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के नरसंहार मामले में इस कानून को बनाने की जरूरत महसूस नहीं हुई । क्या गुजरात दंगें में हजारों की ह्त्या के बाद केंद्र सरकार को एक संप्रभु राष्ट्र की जिम्मेदारियों का एहसास नहीं हुआ । इससे एक बात तो साफ है कि केंद्र सरकार अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड और उसके कर्ता-धर्ता को साफ तौर बचाना चाहती थी । जीओएम की कचरा साफ करने के फैसले को लेकर लिया गया निर्णय साफ तौर पर यूनियन कार्बाइड को खरीदनेवाली कंपनी डाउ केमिकल को जवाबदेही से बचाने की एक चाल है ।
लेकिन इससे भी बड़ा एक खतरा देश पर मंडरा रहा है । अमेरिका से परमाणु समझौता होने के बाद से देश में न्यूक्लियर रिएक्टर लगाने की तैयारी जोर शोर से हो रही है । विदेशों से रिएक्टर की खरीददारी की बात भी चल रही है । लेकिन अमेरिका समेत कई देशों की कंपनियों ने किसी हादसे की सूरत में किसी भी तरह के मुआवजा की शर्तों का पालन ना करने की बात कही है । अगर सरकार विदेशी कंपनियों की शर्तों को मान लेती है और किसी भी तरह के हादसे की स्थिति में हर्जाने की बात के बगैर उनको रिएक्टर लगाने की इजाजत दे देती है तो देश एक बड़े खतरे के मुहाने पर बैठा रहेगा । सरकार को यह सुनिश्चित करना पडे़गा कि उसके देश की आम जनता ना केवल सुरक्षित रहे बल्कि उसे यह भरोसा भी रहे कि सरकार उसकी सुरक्षा को लेकर सतर्क है । अगर ऐसा नहीं होता है तो देश की गरीब जनता का सरकार और कानून दोनों पर से विश्वास उठ जाएगा जो देश के लिए गंभीर मसला होगा और लोकतंत्र के लिए खतरा ।

Thursday, June 17, 2010

धोखे का सरकारी दस्तावेज

मनमोहन सिंह सरकार ने अपनी दूसरी पारी में एक साल पूरे होने पर समारोहपूर्वक अपने कामकाज का लेखा-जोखा पेश किया । इस लेखा-जोखा को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की जनता के लिए रिपोर्ट के तौर पर पेश किया गया । इस रिपोर्ट कार्ड में मनमोहन सरकार ने मुख्यतया तेरह क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों का बखान किया । रिपोर्ट कार्ड की प्रस्तावना में प्रधानमंत्री ने बढ़ती महंगाई पर काबू पाने में अपनी सरकार की नाकामी सीधे तौर पर तो नहीं मानी लेकिन शब्दों की बाजीगरी को अगर डिकोड करें को यह साफ तौर पर सामने आती है । यह रिपोर्ट कहती है कि वैश्विक आर्थिक मंदी का सामना हमारी अर्थव्यवस्था ने बेहतर ढंग से किया । आर्थिक संकट से निबटने और सरकार की मानें तो उबरने में उसकी वृहद आर्थिक प्रबंधन की सरकार की कार्यनीति की सफलता साफ झलकती है । पता नहीं मनमोहन सिंह किस कार्यनीति और किस वृहद आर्थिक प्रबंधन की बात कर रहे हैं । सरकार अरना राजकोषीय घाटा पूरा करने के लिए थ्री जी मोबाइल सेवा से जुटाए गए लगभग एक लाख करोड़ का सहारा ले रही है । बेहतर आर्थिक प्रबंघन के नाम पर सरकार ने अभी चुपके से एक फरमान जारी कर दिया । सरकार ने इस बात को अनिवार्य कर दिया है कि शेयर बाजार में लिस्टेड सभी कंपनियों को अपने पच्चीस प्रतिशत शेयर जनता के लिए जारी करने होंगे । इसके पीछे की मंशा यह है कि सरकारी कंपनियों के शेयर भी बेचे जा सकें ताकि बढ़ते राजकोषीय घाटे को पाटा जा सके । अपनी संपत्ति बेचकर घाटा कम करना कैसा वित्तीय प्रबंधन है,आप अनुमान लगा सकते हैं ।
उधर पूरा देश महंगाई से त्रस्त है । जिस आम आदमी की बेहतरी के नाम पर कांग्रेस ने पिछले चुनाव में वोट मांगे थे वो त्राहिमाम कर रही है । जरूरी सामनों के अलावा हर चीज के दामों में जोरदार बढो़तरी हुई है । बीते सप्ताह में फूड इंफ्लेशन पौनै सत्रह फीसदी पहुंच गई है । सरकार विकास दर के बेहतर होने के नाम पर आंकड़ों की बाजीगरी में जुटी है । जनता को सुनहरे सपने दिखाए जा रहे हैं । लेकिन दरअसल जनता को विकास का सपना दिखाकर उसके साथ छल किया जा रहा है । सरकार के पास महंगाई पर लगाम लगाने के लिए ना तो कोई ठोस योजना है और ना ही इसपर काबू पाने के लिए दृढ इच्छा । हर बार केंद्र सरकार महंगाई के लिए राज्य सरकारों के सर ठीकरा फोड़कर अपनी जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश करती है ।
अपनी इस रिपोर्ट कार्ड में मनमोहन सिंह हर तरह की विपदा का इस्तेमाल अपनी नाकामियों को ढकने में करते दिख रहे हैं । महंगाई के लिए सरकार ने दो हजार नौ के में देश में आए सूखे को भी ढाल बनाने की कोशिश की है । यहां भी सरकार ने सूखे से निपटने के सरकार के कदमों को लेकर अपनी पीठ थपथापाई है । मनमोहन सिंह शायद यह भूल गए कि सूखे के बावजूद देश में अनाज के गोदाम भरे रहे । फूड कॉर्पोरेशन के गोदामों में अनाज खुले में सड़ते रहे और जनता के बीच पहुंच ही नहीं पाए । कीमतें आसमान छूती रही लेकिन सरकार है कि बेहतर प्रबंधन का ढोल पीट रही है । चीनी की कीमतों पर ही बात करें तो पहले देश से चीनी निर्यात में छूट दी गई फिर जब कीमतें बेकाबू होने लगी तो चीनी आयात किया गया । चीनी के आयात-निर्यात का खेल अलग से जांच का विषय है, जिसमें अगर ईमानदारी से तफ्तीश की जाए तो एक बड़ा घोटाला सामने आएगा । इस रिपोर्ट कार्ड में सरकार ने बढ़ती महंगाई पर नजर रखने की बात कही है लेकिन सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमतों को अंतराष्ट्रीय मूल्य की आड़ में बढाने के लिए भी एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है । सरकार के वित्त और पेट्रोलियम मंत्री लगातार इस बात की वकालत कर रहे हैं कि पारिख कमेटी की रिपोर्ट जल्द से जल्द मानकर पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस के दाम बढाए जाएं । बेहतर आर्थिक प्रबंधन का दावा करनेवाली सरकार को क्या यह नहीं मालूम है कि पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने से हर क्षेत्र में इसका असर पड़ेगा ।
बच्चो को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिए जाने और प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा में सुधार को लेकर सरकार अपने उठाए कदमों से गदगद है । शिक्षा का अधिकार कानून बना देने से ही सबको शिक्षा मिलनी शुरू हो जाएगी यह जरूरी नहीं है । यह कानून बना देना आसान है, यह भी मान लिया जा सकता है कि आपकी मंशा भी साफ है लेकिन इस बात पर विचार किया गया कि इस कानून को देशभर में लागू कैसे किया जाएगा, इसके लिए वांछित संसाधन कहां से जुटाए जाएंगें । बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे राज्य इस बात की आशंका जता चुके हैं कि धनाभाव की वजह से इस कानून को लागू करने में मुश्किल होगी । उच्च शिक्षा में सुधार के नाम पर विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश में आने का रास्ता खोल दिया गया । लेकिन शिक्षा के नाम पर व्यवसाय करनेवाले विदेशी विश्वविद्यालय ही यहां अपना कारोबार चलाएंगी । अभी तक इस बात के कोई संकेत नहीं है कि कैंब्रिज या ऑक्सफोर्ड जैसी प्रतिष्टित युनिवर्सिटी यहां अपना कैंपस खोलेंगी । देश में मेडिकल शिक्षा की क्या गत हुई है ये मेडिकल काउंसिल के मुखिया केतन देसाई की गिरफ्तारी के बाद साफ हो गया । अपनी इस रिपोर्ट कार्ड में सरकार ने स्कूली छात्रों को मिड डे मील देने का दंभ भी भरा है । लेकिन इस योजना की जमीनी हकीकत आए दिन सामने आती रहती है ।
ग्रामीण विकास के नाम पर भी सरकार ने बेहद बेशर्मी से अपनी उपलब्धियां गिनाई हैं । आज देश के ग्रामीण इलाकों में क्या हालत है ये किसी रिपोर्ट कार्ड से सामने नहीं आ सकता । इसके लिए उन इलाकों में जाने की जरूरत है । ग्रामीण विकास में ऐतिहासिक काम करने का दावा करनेवाली मनमोहन सरकार को विदर्भ के किसानों की खुदकुशी नजर नहीं आती । अगर मनमोहन सरकार के पिछले छह साल के कार्यकाल में सिर्फ विदर्भ में किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को जोडा़ जाए तो यह एक सभ्य सरकार के मुंह पर तमाचा होगा । खाद पर सब्सिडी हटाने की भी साजिश रची जा रही है । कृषि प्रधान देश और अर्थवयवस्था में किसानों को सहूलियत देने के बजाए सरकार बडे़ उद्योगपतियों को सहूलियतें दे रही है । उनको टैक्स हॉलीडे के नाम पर अरबो रुपये की छूट दी गई लेकिन किसानों से ऋण वसूली के लिए बैंक के बाबू उसकी जान के पीछे पड़ जाते हैं । दो बड़ी विमान कंपनियों ने तेल के सात सौ करोड़ रुपए सरकार को नहीं चुकाए हैं लेकिन अबतक उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है । ये कुछ ऐसे मसले हैं जो समेकित विकास का दावा करनेवाली इस सरकारी रिपोर्ट कार्ड की चमक को फीका कर देते हैं ।
इस रिपोर्ट कार्ड में सुरक्षा के भी बड़े दावे किए गए हैं । सरकार ने कहा है कि वामपंथी उग्रवादियों से निपटने के लिए सुरक्षा विकास और जन धारणा जैसे क्षेत्रों में समेकित दृष्टिकोण अपनाया गया है । लेकिन सरकार और कांग्रेस पार्टी में वामपंथी उग्रवादियों से निपटने में जिसतरह का मतभेद दिखाई देता है उससे भ्रम की स्थिति बनती है । गृहमंत्री नक्सलियों के खिलाफ कड़े कदम उठाने की वकालत करते हैं तो कांग्रेस का महासचिव और पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी अपने लेखों में कार्रवाई के साथ नरमी के भी संकेत देती है । नतीजा यह है कि पिछले दो महीने में वामपंथी उग्रवादियों ने तकरीबन तीन बड़े हमले कर तीन सौ से ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिया । नक्सलियों से निपटने के लिए सरकार के पास कोई ठोस कार्ययोजना नहीं है ।
अपनी उपलब्धियों को गिनाते-गिनाते सरकार ने एक बेहद दिलचस्प उपलब्धि को अपनी इस रिपोर्ट कार्ड में सम्मिलित कर लिया । सरकार ने गिनाया है कि – प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में पंद्रह सौ प्रवासी भारतीयों ने शिरकत की । सरकार ने इसमें से चौदह को प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार दिए । सत्तर पृष्ठ की उपलब्धि पुस्तिका में इस तरह के उपलब्धियों की भरमार है । दरअसल यह पूरी पुस्तिका जनता के साथ छल है और उसे भरमाने की एक सोची समझी चाल भी ।
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Sunday, June 13, 2010

गुलजार ने चेतन भगत को धोया

अभी ज्यादा दिन नहीं हीते हैं जब थ्री इडियट्स फिल्म में क्रेडिट को लेकर लेखक चेतन भगत ने खासा बवाल खड़ा कर दिया था । चेतन भगत के दो हजार चार में लिखे उपन्यास फाइव प्वाइंट समवन- व्हाट नॉट टू डू एट आई आई टी – पर विधु विनोद चोप़ड़ा ने फिल्म बनाई जो सुपर हिट रही थी । लेखकीय जगत में प्रतिष्ठा पाने के लिए संघर्ष कर रहे चेतन भगत को उस विवाद से हिंदी जगत में एक पहचान मिल गई थी । चेतन के अंग्रेजी में लिखी किताबें हिंदी में अनूदित होकर हजारों की संख्या में बिकी । इससे चेतन को आर्थिक लाभ अवश्य हुआ होगा लेकिन ना तो उनके हिंदी ज्ञान में कोई इजाफा हुआ और ना ही हिंदी समाज के मन मिजाज को समझने में कोई मदद मिली । लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है कि सफलता मिलते ही लोग खुद को ज्ञानी समझने लगते हैं, चेतन भी उसी सक्सेस सिंड्रोम के शिकार हो गए । ट्विटर और ब्लॉग की दुनिया में छोटी बड़ी टिप्पणी कर लोकप्रियता हासिल करनेवाले चेतन भगत एक समारोह में फंस गए ।
किस्सा बेहद दिलचस्प है । मुंबई में एक समारोह के दौरान चेतन भगत और गुलजार साथ बैठे थे । चेतन को सभी अतिथियों का स्वागत तो करना ही था, समारोह का संचालन भी करना था । चेतन ने अपने अंदाज में ठसक के साथ कार्यक्रम की शुरुआत की । अतिथियों का परिचय करवाते हुए बारी गुलजार साहब की आई । यहीं पर चेतन भगत से चूक हो गई । ऑस्कर पुरस्कार विजेता और हिंदी के बेहद प्रतिष्ठित लेखक-गीतकार गुलजार का परिचय करवाते हुए चेतन भगत ने कहा- मुझे कजरारे-कजरारे गीत बेहद पसंद है । गुलजार साहब ने इस गीतो को लिखा है । यह बेहतरीन कविता का एक नमूना है । जिस तरह से चेतन यह बात कही वो गुलजार साहब को चुभ गई । गुलजार को नजदीक से जानने वाले इस बात को बेहद अच्छी तरह से जानते हैं कि उनकी वाणी विरोधियों के खिलाफ तेजाब उगलती है । शायद चेतन को यह पता नहीं रहा होगा और उसने गीतकार गुलजार पर टिप्पणी कर डाली जो गुलजार को अखर गई । चेतन बोल ही रहे थे कि उन्होंने इशारा कर माइक अपने पास मंगवाया और बोलने की इच्छा जाहिर की । किसी भी कार्यक्रम में जब गुलजार साहब बोलना चाहें तो किसी की मजाल नहीं कि उन्हें रोक सके । गुलजार ने माइक हाथ में लिया और खचाखच भरे हॉल में बोलना शुरु किया- चेतन मुझे यह बात बेहद अच्छी लगी और मैं खुश हूं कि आप जैसे महान लेखक को कजरारे –कजरारे गीत अच्छा लगा । लेकिन मुझे लगता है कि आप जिस कविता की यहां बात कर रहे हैं उसे समझ भी पाए हैं । अगर आपको फिर भी लगता है कि आपने उस कविता को समझा है तो मैं आपके लिए उसकी दो लाइन गाकर सुनाता हूं आप भरे हॉल में उसका अर्थ बता दीजिए । गुलजार साहब यहीं पर नहीं रुके और उन्होंने कजरारे-कजरारे गीत से दो लाइन गाकर सुना दी – तेरी बातों में किवाम की खुशबू है, तेरा आना भी गर्मियों की लू है । इसके बाद सीधे चेतन की तरफ मुखातिब होकर पूछा कि इसका अर्थ बताइये । अब चेतन को काटो तो खून नहीं । गुलजार जैसा सीनियर लेखक भरी सभा में कविता की दो लाइन का अर्थ पूछ रहा है । गुलजार के वार से सन्न रह गए चेतन बगलें झांकने लगे । चेतन को चुप देखकर भी गुलजार नहीं रुके । उन्होंने भरी सभा में चेतन को झिड़कना शुरू कर दिया । गुलजार ने कहा – जिस चीज के बारे में पता नहीं हो उसके बारे में कुछ भी बोलना उचित नहीं है । जिसके बारे में जानते हो उसी के बारे में बोलो । हाथ में माइक लिए पोडियम पर खडे़ चेतन की स्थिति का अंदाज आप लगा सकते हैं । गुलजार ने चेतन की ठसक और हेकड़ी चंद पलों में हवा कर दी ।
मैं विश्वास के साथ तो यह नहीं कह सकता कि चेतन को उन दो पंक्तियों का अर्थ पता नहीं था लेकिन चेतन भगत जिस पीढ़ी को और जिस तरह की अंग्रेजीदां जनरेशन का प्रतिनिधित्व करते हैं उनके लिए ‘किवाम की खुशबू’ और ‘गर्मियों की लू’ का अर्थ ना जानना कोई हैरत की बात नहीं है । किसी तरह से मामला निबटा और समारोह खत्म हुआ । इस वाकए से एक बात तो साफ हो गई कि हिंदी को जाने बगैर भी हिंदी के बाजर को भुनाने की लगातार कोशिश हो रही है । चेतन के अलावा हिंदी फिल्मों की सफलतम नायिका कटरीना कैफ इतने दिनों बाद भी हिंदी बोल नहीं पाती है । इतना वक्त बिताने के बाद हिंदी समझ जरूर लेती है । अब इसे बिडंबना ही कहा जाएगा कि कटरीना हिंदी फिल्मों की सफलतम हिरोइन है । हिंदी के बूते कमाने-खाने वाले लोग हिंदी बोलना तक नहीं जानते ।
चेतन के उपन्यास खासे लोकप्रिय हैं और अंग्रेजी के अलावा हिंदी में हजारो की संख्या में बिके हैं । लेकिन व्यावसायिक सफलता को गुणवत्ता की गारंटी नहीं माना जा सकता है । मेरठ से निकलने वाले प्लप फिक्शन भी हिंदी में खासे लोकप्रिय हुए हैं और हो भी रहे हैं लेकिन उनके लेखकों को कोई स्थायी पहचान हिंदी में नहीं बन पाई । रानू और मनोज को अब कितने लोग याद करते हैं । वेद प्रकाश शर्मा और कर्नल रंजीत भी कुछ ही दिनों की बात हैं । होता यह है कि पल्प फिक्शन राइटर पैसा तो बहुत कमा लेता है, पाठकों के बीच लोकप्रियता भी हासिल कर लेता है लेकिन लेखकीय प्रतिष्ठा उसे हासिल नहीं हो पाती है ।
गुलजार चेतन विवाद से एक बात तो साफ हो गई है कि भारत में अंग्रेजीदां युवक युवतियों की एक ऐसी फौज तैयार हो गई है जिसे ना तो हिंदी की समझ है और ना ही अंगेजी को समझते हैं । पटर-पटर अंग्रेजी बोलनेवाले लोगों को भी अंग्रेजी की परंपरा और उसके व्याकरण का ज्ञान नहीं होता है । लेकिन उन्हें इसका रिमोर्स भी नहीं होता । अगर आप किसी चीच को नहीं जानते हैं तो आपको उसका अफसोस होना चहिए लेकिन आज की युवा पीढ़ी – हू केयर्स के सिद्धांतो पर चलती है जहां अपनी अज्ञानता पर उन्हें फख्र होता है । प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध को नहीं जानने को वो अपनी शान समझते हैं । अज्ञेय, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, रवीन्द्र कालिया का नाम नहीं सुनने को उन्हें जरा भी मलाल नहीं । एक और दिलचस्प प्रसंग बताता हूं – न्यूज चैनल की एक बड़ी एंकर हैं । किसी जमाने में साहित्य कला की बीट कवर करती थी । दिल्ली के प्रगति मैदान में पुस्तक मेला चल रहा था, मोहतरमा उसे कवर कर रही थी ।संपादक ने फोन कर कहा कि ‘गीतांजलि’ लेते आना । मेले से लौटने के बाद बेहद बेतकुल्लफी से वो अपने संपादक के पास गई और कहा कि गीतांजली को मेले में बहुत ढूंढा लेकिन वो कहीं दिखाई नहीं दी । मैंने उसके लिए मैसेज छोड़ दिया है कि वो तुरंत आपको फोन करे । बेचारे संपादक महोदय... लाने को कहा था रविन्द्रनाथ टैगोर की किताब ‘गीतांजलि’ लेकिन उनकी खोजी रिपोर्टर ने ढूंढ लिया किसी लड़की गीतांजलि को । संपादक मुंह ताकते रहे और वो रिपोर्टर वहां से इस तरह चली गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो ।

Monday, June 7, 2010

बीमार विपक्ष, कमजोर लोकतंत्र

कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार की दूसरी पारी के सालभर पूरा होने पर हर तरफ सरकार के कामकाज को कसौटी पर कसा गया । किसी ने फेल किया तो किसी ने पास तो किसी ने औसत नंबर दिए । प्रधानमंत्री ने भी मीडिया से बात कर अपनी और सरकार की पीठ थपथपाई । लेकिन इन तमाम कोलाहल के बीच हम यह भूल गए कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए मजबूत और जिम्मेदार विपक्ष का होना भी जरूरी है । जब यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल की समीक्षा हो रही है तो यह भी आवश्यक है कि मुख्य विपक्षी दल के सालभर के कामकाज को भी परखा जाए। दो हजार नौ में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से मुंह की खाने के बाद बीजेपी में लगभग विद्रोह जैसी स्थिति हो गई थी । दो हजार चार में लोकसभा चुनाव में बीजेपी की इतनी बुरी गत नहीं बनी थी । कांग्रेस की एक सौ पैंतालीस सीटों की तुलना में उसे कुछ ही कम सीटें मिली थी । लेकिन दो हजार नौ में पार्टी का जनादेश और कम हो गया । नतीजा यह हुआ कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व पर ही सवाल खड़े होने लगे । अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा सरीखे नेताओं ने अपने बयानों से केंद्रीय नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर दिया । अरुण शौरी ने पार्टी के आला नेतृत्व को हम्फ्टी-डम्फ्टी तक बता डाला । इन बयानबाजी का असर यह हुआ कि पार्टी दिशाहीन हो गई । पार्टी विद ए डिफरेंस का नारा बुलंद करनेवाली पार्टी में अनुशासनहीनता चरम पर जा पहुंची ।

जब वक्त हार की नैतिक जिम्मेदारी लेकर पार्टी में एक संदेश देने का था तो पार्टी के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने नेता विपक्ष की कुर्सी पर बने रहने का इरादा जता दिया था । नेता विपक्ष को मिलनेवाली सुविधाएं छोड़ने को वो राजी नहीं थे । लेकिन देर से ही सही संघ के दबाव में आडवाणी ने नेता विपक्ष की कुर्सी छोड़ दी । बीजेपी ने सुषमा स्वराज को लोकसभा में और अरुण जेटली को राज्यसभा में नेता चुना तो लगा कि पार्टी में नए नेतृत्व से स्थितियां बदलेगी और अपेक्षाकृत युवा नेता नई जान फूंक पाएंगें । लेकिन बूढे होते आडवाणी का गद्दी मोह नहीं छूटा और संसदीय दल पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए वो उसके चेयरमैन पद पर आसीन हो गए ।

बीजेपी में चल रहा ड्रामा यहीं खत्म नहीं हुआ । राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की दखल के बाद महाराष्ट्र की राजनीति करनेवाले नितिन गडकरी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया। देशभर में पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच नितिन गडकरी की काबिलियत को लेकर एक संदेह का वातावरण बना । इसकी वजह से पार्टी से जुडे़ कार्यकर्ताओं में किसी तरह का उत्साह पैदा नहीं हो सका । लंबे जद्दोजहद के बाद नितिन गडकरी ने दो महीने पहले तेरह उपाध्यक्ष और पंद्रह महासचिव समेत पार्टी पदाधिकारियों की एक बड़ी फौज का ऐलान किया । टीम के ऐलान के साथ ही पार्टी प्रवक्ता बनाए गए शाहनवाज हुसैन और राजीव प्रताप रुडी खफा हो गए । शाहनवाज ने तो कुछ दिनों तक पार्टी की बैठकों का बहिष्कार कर नेतृत्व को चुनौती भी दी । शाहनवाज हुसैन का तर्क था कि जब रविशंकर प्रसाद केंद्र में राज्य मंत्री थे तो वो कैबिनेट मंत्री थे, लिहाजा पार्टी में रविशंकर प्रसाद का जूनियर बनाकर अध्यक्ष ने उन्हें अपमानित किया है । दो महीने से ज्यादा का वक्त बीत गया पार्टी पदाधिकारियों का एलान हुए लेकिन गडकरी अब तक उनके बीच काम का बंटवारा नहीं कर पाए हैं । हां इस बीच यह जरूर हुआ कि गडकरी ने लालू और मुलायम सिंह यादव को सोनिया का तलवा चाटने वाला कुत्ता बताकर खासी आलोचना झेली । जिस पार्टी का अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सलीकेदार वक्ता रहा वहां गडकरी के इस छिछले बयान ने बीजेपी की छवि पर दाग लगा दिया जिसकी निकट भविष्य में भारपाई मुश्किल है ।

अगर हम पार्टी अध्यक्ष के तौर पर गडकरी के राजनैतिक पैसलों पर नजर डालें तो वहां भी वो बुरी तरह से अपरिपक्व नजर आए । झारखंड में शिबू सोरेन और उसके बेटे हमंत सोरेन की चाल में फंसकर पार्टी की खासी भद पिटी । सरकार से समर्थन वापसी का ऐलान फिर साथ मिलकर सरकार बनाने का फैसला और फिर समर्थन वापसी के फैसले से पार्टी की किरकिरी हुई । राजनीति में शुचिता और पवित्रता की बात करनेवाली पार्टी झारखंड में बुरी तरह से एक्सपोज हो गई ।

लोकतंत्र में विपक्षी दल की एक महती जिम्मेदारी यह भी होती है वह सरकार की गलत नीतियों को उजागर करे, साथ ही सरकार के जन विरोधी कदमों का पुरजोर विरोध करते हुए आंदोलन करे । लेकिन अगर हम पिछले सालभर के बीजेपी के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो अपनी अंतर्कलह से जूझ रही पार्टी कोई भी बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाई । महंगाई और गन्ने के मूल्य पर संसद में विपक्षी दलों के बीच अभूतपूर्व एकता दिखाई दी थी । उन्नीस सौ नवासी में वीपी सिंह की सरकार गठन के बाद पहली बार बीजेपी, वामपंथी दल और लालू-मुलायम एक साथ नजर आए थे । लेकिन विपक्षी दलों की यह एकता ज्यादा समय तक चल नहीं पाई । कांग्रेस के राजनीतिक दांव के आगे विपक्षी एकता तार-तार हो गई । इससे भी बीजेपी के सरकार को घेरने के सपने पर ग्रहण लग गया । प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते इस बिखराव को ना रोक पाने का ठीकरा भी बीजेपी ही सर ही फूटा ।

संसद में बिखरी विपक्षी एकता को कांग्रेस ने बजट पर कटौती प्रस्ताव के दौरान जमकर भुनाया और एक बार फिर से साबित कर दिया कि गठबंधन की सरकार को कोई खतरा नहीं है । देश में महंगाई चरम पर है, जनता त्राहिमाम कर रही है, गैस के बाद अब पेट्रोल डीजल के दाम बढाने की सरकार तैयारी कर रही है । किसानों को सब्सिडी की रियायत खत्म करने की भी कवायद चल रही है । आम आदमी के नाम पर सत्ता में वापस लौटी कांग्रेस को आम आदमी की ही फिक्र नहीं है लेकिन बीजेपी को भी कहां फिक्र है । दिल्ली में पार्टी ने महंगाई पर एक प्रतीकात्मक रैली अवश्य की लेकिन महंगाई के मुद्दे पर देशव्यापी आंदोलन झेड़ने में बुरी तरह नाकाम रही । इसकी वजह है कि संगठन और काडर जिस बीजेपी की मजबूती हुआ करती थी आज वही संगठन और कार्यकर्ता द्वंद में हैं । राज्य इकाइयों के अध्यक्ष या तो चुने नहीं जा सके हैं या फिर जहां चुने गए हैं वहां वो पदाधिकारी बनाने और रूठे नेताओं को मनाने में लगे हैं । जनता और उसकी समस्या के लिए उनके पास वक्त ही नहीं है । दिल्ली की रैली में गर्मी से गश खाकर गिर पड़ने वाले बीजेपी अध्यक्ष विदेश में छुट्टियां मना रहे हैं । हालात तो यह है कि राज्यसभा के चुनाव होने हैं लेकिन अभी तक पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति का गठन नहीं हो पाया है । सबकुछ एडहॉक तरीके से चल रहा है । लोकतंत्र के लिए प्रमुख विपक्षी दल का इस तरह से बिखरा हुआ और दिशाहीन होना अच्छा नहीं है । जरूरत इस बात की है कि पार्टी हार के सदमे से उबरे, अंतर्कलह को दरकिनार करे और जनता के बीच जाकर फिर से अपनो खोए हुए जनाधार को वापस पाने की कोशिश करे, तभी पार्टी मजबूत होगी और देश में लोकतंत्र भी मजबूत होगा ।