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Tuesday, February 28, 2017

नसीहत नहीं, कार्रवाई का वक्त

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पांचवें चरण की वोटिंग के पहले चुनाव आयोग ने एक बार फिर से सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से संयम बरतने की अपील की है । सभी दलों को लिखे खत में चुनाव आयोग ने कहा है कि इस तरह का कोई बयान ना दें जिससे धर्म और राजनीति का घालमेल होता हो । चुनाव आयोग ने अपने नसीहत में यह भी कहा है कि वोटरों को अपनी तरफ लुभाने के लिए धर्म का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे धार्मिक कटुता और ध्रुवीकरण का खतरा पैदा हो जाता है । चुनाव आयोग पहले भी इस तरह की गाइडलाइंस जारी करती रही है लेकिन इसको सख्ती से लागू करवाने का कोई प्रयास इस संवैधानिक संस्था की तरफ से दिखाई नहीं देता है । नियमित अंतराल पर एडवायजरी जारी कर राजनीतिक दलों को उनके कर्तव्यों की याद दिलाई जाती है ।चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के नेताओं को लगभग आदेश दिया है कि वो इस तरह के बयानों से बचें जिसकी व्याख्या से धार्मिक तनाव पैदा हो सकता है ।  चुनाव आयोग का मानना है कि मौजूदा समय में किसी भी तरह का कोई भी बयान किसी क्षेत्र विशेष में सीमित नहीं रहता है और टीवी पर प्रसारण के अलावा सोशल मीडिया के विस्तार से वो बिजली की गति से हर जगह पहुंच जाता है । चुनाव आयोग के मुताबिक इसका असर उन इलाके के मतदाताओं के दिमाग पर पड़ता है जहां चुनाव हो रहे होते हैं । कई बार तो उससे समाज में भी दरार पैदा होने जैसे हालात पैदा होते हैं । चुनाव आयोग कोई नई बात नहीं कर रहा है । इसी साल सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक फैसले में धर्म को चुनाव प्रचार से अलग करने का आदेश दिया था । चुनाव आयोग के पास तो कानून का डंडा भी है लेकिन वो नेताओं के मसले पर नरम दिखाई पड़ता है । चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में नेताओं के खिलाफ कार्रवाई बहुत ही विरले होती है । ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग भी राजनीतिक दलों और उनके नेतांपर सीधी कार्रवाई से बचता है । अभी हाल ही में एक अखबार की बेवसाइट पर जनता की राय के नाम से सर्वेनुमा एक्जिट पोल छप गया था तो उसके संपादक और मालिक के खिलाफ केस दर्ज करने के आदेश चुनाव आयोग ने दिया था । संपादक की तो गिरफ्तारी भी हुई थी और बाद में वो जमानत पर छूटे थे । कितने नेताओं के मामले में चुनाव आयोग ऐसा त्वरित कार्रवाई करता है ? कितने नेताओं को चुनाव के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन में जेल जाना पड़ता है ? इसपर विचार किया जाना आवश्यक है ।
चुनाव आयोग की प्राथमिक जिम्मेदारी सही तरीके से चुनाव करवाने की है और उसमें वो सफल रहता है । फ्री और फेयर इलेक्शन के बुनियादी सिद्धांत की रक्षा भी करता है लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से चुनावों के दौरान एक दूसरे पर भाषायी तीर चलते हैं उसको रोकने के लिए चुनाव आयोग को कदम उठाने की जरूरत है । जिस तरह से राजनीतिक दल एक समुदाय विशेष को टिकट देकर और फिर उसका सार्वजनिक प्रचार करते हुए उस समुदाय के वोटरों को लुभाने की कोशिश करते हैं यह तो परोक्ष रूप से धर्म के आधार पर वोट मांगने की कोशिश जैसा है । यह वैसा ही मामला है जैसे हमारे देश में शराब के विज्ञापन पर पाबंदी है लेकिन शराब कंपनियां उसी नाम से कोई अन्य उत्पाद बनाकर उसका विज्ञापन कर ग्राहकों तक अपनी बात पहुंचाती हैं । ऐसा ही कुछ राजनीति दल भी कर रहे हैं । अब चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वो इन सरोगेट विज्ञापनों की तरह सरोगेट बयानों को भी चिन्हित करें और उनको रोकने के लिए उचित कार्रवाई करें । चुनाव आयोग को धर्म के आधार पर वोट मांगने की मंशा को पहचान कर उसको रोकने के अलावा जाति के नाम पर वोट मांगने की कोशिशों पर भी रोक लगानी होगी । अलां समाज महासभा, फलां महासभा पर भीनजर रखनी होगी क्योंकि ये जातीय संगठवन चुनाव के दौरान कुकुरमुत्ते की तरह उग आते हैं और राजनीतिक दल इनकी आड़ में अपनी सियासी रोटी सेंकते हैं । चुनाव आयोग को इनके अलावा मर्यादाहीन बयानों पर भी रोक लगाने की दिशा में काम करना होगा । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान इशारों में ही सही प्रधानमंत्री को गधा कहा गया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं, प्रधानमंत्री को रावण कहा गया, प्रधानमंत्री को आतंकवादी कहा गया लेकिन चुनाव आयोग लगभग खामोश ही रहा । मुलायम सिंह यादव के मरने के वक्त की घोषणा की गई, प्रियंका गांधी पर सेक्सिस्ट कमेंट किए गए लेकिन चुनाव आयोग नेताओं की सफाई भर से ही संतुष्ट नजर आया ।  चुनाव आयोग ये मानता है कि आज सूचनाओं के तेज संप्रेषण के दौर में देश के किसी कोने में दिया गया बयान चुनाव वाले इलाके में असर डाल सकता है । यह टीवी का दौर है और नेताओं को लगता है कि टीवी पर उनके भाषणों का वही हिस्सा दिखाया जाएगा जो विवादस्पद होगा । स्वस्थ आलोचना कभी भी भाषा की मर्यादा को नहीं तोड़ती और यह सच है कि जब भाषा की मर्यादा नहीं टूटती तो न्यूज चैनलों में स्पंदन नहीं होता । सारे दिन चलनेवाले न्यूज चैनलों के इस दौर में नेताओं के विवादित या बिगड़े बोल हमेशा प्राथमिकता पाते हैं । बार बार उन्हीं बयानों को दिखाया जाता है । टीवी और सोशल मीडिया के दौर में भाषा अपनी सीमा रेखा का बार बार अतिक्रमण करती है । क्या चुनाव आयोग को इसपर भीनजर रखने की जरूरत है इसपर विचार करवना भी आवश्यक है ।

   

सावरकर के समग्र मूल्यांकन की दरकार

रविवार को विनायक दामोदर सावरकर की इक्यावनवीं पुण्यतिथि थी । इस देश में हिंदुत्व शब्द को देश की भौगोलिकता से जोड़नेवाले इस शख्स की विचारधारा पर वस्तुनिष्ठ ढंग से अब तक काम नहीं हुआ है । सावरकर की विचारधारा को एम एस गोलवलकर और के बी हेडगेवार की विचारधार और मंतव्यों से जोड़कर उनकी एत ऐसी छवि गढ़ दी गई जो दरअसल उनके विचारों से मेल नहीं खाती है । सावरकर ने जिस हिन्दुत्व की विचारधारा को प्रस्तावित और प्रचारित किया था उसको आजादी के बाद या यों कहें कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद उसपर हिकारत की नजरों से विचार किया गया । किसी भी सिद्धांत को जब घृणा की बुनियाद पर या नतीजे को सामने रखकर परखा जाता है तो उसका दोषपूर्ण होना तय होता है । सावरकर की विचारधारा को महात्मा गांधी की हत्या से जोड़कर जिस तरह से प्रचारित किया गया और उसको घृणा की कसौटी पर कसा गया उससे जो नतीजा निकला वह सावरकर के योगदान को सीमित करने के लिए काफी था । फिर वामपंथी विचारधारा के लोगों में एक साथ हल्ला करने की जो संगठित ताकत है वह किसी को भी झूठ की बुनियाद पर बदनाम कर सकती है । बहुधा वामपंथी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अफवाह फैलाने की मशीनरी का आरोप लगाते हैं लेकिन अफवाह और झूठ फैलाने में वामपंथियों जितना संगठित उदाहरण पूरी दुनिया में कहीं अन्यत्र नहीं मिलता है । इसको लेनिन से लेकर माओ और फिडेल कास्त्रों तक को मुक्ति का मसीहा बनाने के उपक्रम को देखकर समझा जा सकता है । माओ और फिडेल ने मुक्ति के नाम पर कितना अत्याचार किया, गरीबों के अधिकारों के नाम पर लोकतंत्र का गला घोंट दिया, बावजूद इसको वो मसीहा बने रहे तो यह मूल्यांकन की वामपंथी पद्धति ही है । यह पद्धति अपनी विचारधारा के अनुयायियों को आगे तो बढ़ाती ही है विपरीत या अन्य विचारधारा के मानने वालों को साथ-साथ बदनाम भी करती चलती है । अब अगर हम सावरकर के मामले में ही देखें तो उनके लिखे का मूल्यांकन कम उनपर लिखे का मूल्यांकन ज्यादा हुआ है । जैसे उन्होंने हिंदुत्व में पृष्ठ 81 पर लिखा है कि – कोई भी व्यक्ति बगैर वेद में विश्वास किए भी सच्चा हिंदू हो सकता है । सावरकर के मुताबिक सिर्फ जातीय संबंध या पहचान हिंदुत्व को परिभाषित नहीं कर सकता है । उनके मुताबिक किसी भी राष्ट्र की पहचान के तीन आधार होते हैं – भौगोलिक एकता,जातीय गुण और साझा संस्कृति । यह भी सही है कि सावरकर ने साझा संस्कृति की जो वकालत की है उसके मुताबिक कोई एक ऐसी भाषा होनी चाहिए जो सबको जोड़ कर रख सके । सावरकर ने इसके लिए संस्कृत या फिर हिंदी को अपनाने की वकालत की । सावरकर के यहां जिस तरह से धार्मिक स्वतंत्रता की बात मिलती है उसको भी ध्यान में रखकर उनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए । जैसे वो अपने लेखन में कहते हैं कि भारत से ज्यादा उदार धार्मिक व्यवस्था कहां हो सकती है जहां चार्वाक जैसा विद्वान महाकाल मंदिर की सीढ़ियों से नास्तिकता पर बात करते हैं ।
दरअसल आजादी के बाद गांधी के साथ के लोगों को उच्च स्थान मिला और गांधी से मतभिन्नता रखनेवाले लोगों को जानबूझकर इतिहास के हाशिए पर रखा गया । इसके वजहों की गहन पड़ताल की जरूरत है । इतिहास बहुत निर्मम होता है और वक्त जब करवट लेता है तो वो इतिहास को दुरुस्त भी करता चलता है । अब आप देखें तो जिस सावरकर को कट्टर हिदुत्व का पोषक बताकर प्रचारित किया गया वही सावरकर आजादी के आंदोलन के दौरान भी और उसके बाद भी लगातार यंत्र-युग की वकालत करता रहा लेकिन उनके इस विचार को उनके मूल्यांकन के वक्त भुला दिया गया क्योंकि इससे कट्टर हिंदू की छवि गढ़ने में दिक्कत हो सकती थी । सावरकर अपने विचारों में आधुनिक थे और उनको विज्ञान की महत्ता का पता था, लिहाजा वो देश के विकास के लिए विज्ञान को तरजीह देने के मुखर समर्थक थे ।

अब अगर हम देखें तो आजादी आंदोलन में जनता को संगठित करने के लिए गांधी और सावरकर दोनों ने हिंदू धर्म का सहारा लिया । अगर हम सूक्षम्ता और वस्तुनिष्ठता के साथ विचार करें तो यह पाते हैं कि सावरकर गांधी से ज्यादा उग्रता से हिंदू धर्म की कुरीतियों और कर्मकांडों पर प्रहार करते चलते हैं । अगर हम हिंदू महासभा के उनके अध्यक्षीय उद्बोधन को देखें तो उसमें से यह बात निकलकर आती है सावरकर की लोकतांत्रिक मूल्यों में जबरदस्त आस्था थी और वो हर किसी को समानता के सिद्धांत की वकालत भी करते थे चाहे उसकी जाति, धर्म कुछ भी हो । सावरकर के इन विचारों का मुठेभड़ उनके ही हिदुत्व को परिभाषित करते हुए पितृभमि और पुण्यभूमि के विचारों से होता है । सावरकर के विचार के इन दोनों छोरों को कभी भी साथ रखकर विचार नहीं किया गया । सावरकर गांधी के अहिंसा के सिद्धांत के भी प्रबल विरोधी थे लेकिन उन्होंने हिंसा की वकालत की हो ऐसा प्रमाण नहीं मिलता है । दरअसल सावरकर जब सेल्यूलर जेल से बाहर आए तो उनके विचार पूर्व के विचार से बदले हुए थे । इस्लाम के नाम पर सियासत के वो तीव्र आलोचना करने लगे थे । धर्मांतरण के खिलाफ उग्रता से अपने विचारों को रखने लगे थे । दरअसल अगर हम देखें तो सावरकर के विचारों का सही मूलायंकन किया ही नहीं गया । 1923 में प्रकाशित उनकी किताब हिंदुत्वा, हू इज हिंदू के आधार पर उनके समर्थकों ने अपनाया और विरोधियों ने आलोचना की । हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहते उनके विचारों को छोड़कर जब उनका एकांगी मूल्यांकन होता है तो यह एक तरह से बौद्धिक बेइमानी हो जाती है । उनके निधन के पचास साल बाद क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि सावरकर के विचारों को समग्रता में पेश किया जाए और उनकी जो छवि गढ़ी गई है उसको सही तरीके से जनता के सामने रखा जाए ।  

हिंदी लेखन के पंचमुखी दीपक

बहुधा हिंदी के साहित्यकार हिंदी में पाठकों की कमी का रोना रोते रहते हैं, इस बात पर भी लगातार मंथन होता आया है कि हिंदी की किताबें बिकती नहीं हैं ।  लेकिन इस रुदन के पीछे की वजहों पर यदा-कदा वो भी अगंभीरता से ही बात होती है, जो गोष्ठियों आदि तक ही सीमित रहती है । दरअसल पिछले चार पांच दशकों में साहित्य में एक ऐसी वर्ण व्यवस्था बनाई गई जिसने लेखकों के साथ साथ पाठकों का भी वर्गीकरण कर दिया है । बेहद लोकप्रिय उपन्यास लेखक वेद प्रकाश शर्मा के निधन के बाद एक बार फिर यह साहित्यक वर्णव्यवस्था विमर्श के केंद्र में है । वेदप्रकाश शर्मा के गुजरने के बाद जिस तरह से कथित मुख्यधारा के लेखकों ने उनको लुगदी साहित्यकार कहकर संबोधित किया वह बेहद क्षुब्ध करने जैसा था । वेदप्रकाश शर्मा को लुगदी लेखक कहकर एक बार फिर से साहित्य में वर्णव्यवस्था को पोषक सामने आ गए । लुगदी लेखन, लोकप्रिय लेखन, गंभीर लेखन की पुरानी बहस फिर से साहित्यक विमर्श के केंद्र में है । साहित्य में इस तरह के बहस व्यर्थ हैं क्योंकि साहित्य तो साहित्य है और उसको किसी खांचे में डालकर पाठकों को भ्रमित करने की कोशिश होती है और एक खास किस्म के लेखन को बढ़ावा देने की जुगत होती है, बहुधा खोटे सिक्के को चलाने की कवायद भी । जिसे हिंदी साहित्य में लुगदी कहकर और जिनके लेखकों को पल्प राइटर कहकर हाशिए पर डाल दिया जाता रहा दरअसल वो हिंदी के पाठकों के केंद्र में रहे । चाहे वो गुलशन नंदा हों, रानू हों, सुरेन्द्र मोहन पाठक हों या फिर वेद प्रकाश शर्मा ।
वेद प्रकाश बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और उनका लिखा इतना अधिक लोकप्रिय होता था कि पाठकों को उनके हर नए उपन्यास का इंतजार रहता था । उनके उपन्यासों की अग्रिम बुकिंग हुआ करती थी । लगभग दो सौ उपन्यास लिखनेवाले वेदप्रकाश शर्मा का हाल ही में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया । कम ही लोगों को यह बात मालूम होगी कि वेद प्रकाश शर्मा के मशहूर उपन्यास वर्दी वाला गुंडा की करीब आठ करोड़ प्रतियां बिकी थीं । राजीव गांधी की हत्या पर जब यह उपन्यास लिखा गया था तब शुरुआत में ही इसकी पंद्रह लाख प्रतियां छापी गई थीं । हिंदी के पाठकों में इस उपन्यास को लेकर दीवानगी थी । उन्नीस सौ तेरानवे में छपे इस उपन्यास के लिए कई शहरों में पोस्टर और होर्डिंग लगे थे । मेरे जानते किसी राजनीतिक शख्सियत की हत्या और उसकी साजिश पर लिखा गया हिंदी का यह इकलौता उपन्यास है । वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों को जासूसी या हल्का उपन्यास माना जाता रहा लेकिन हिंदी के स्वनामधन्य आलोचक ये भूल जाते रहे कि पूरी दुनिया में जासूसी उपन्यासों की जबरदस्त मांग रही है और उनके लेखक बेहद लोकप्रिय । इस संदर्भ में पाब्लो नेरूदा का एक इंटरव्यू याद आता है । जब पाब्लो नेरूदा से पूछा गया कि अगर उनके घऱ में आग लग जाए तो वो क्या बचाना चाहेंगे । नेरूदा ने फौरन उत्तर दिया कि वो कुछ जासूसी उपन्यासों के साथ घर से निकलना चाहेंगे । पाब्लो नेरूदा का यह वाक्य जासूसी उपन्यास लेखक की महत्ता को समझने के लिए काफी है ।
वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास तो लोकप्रिय होते ही थे उनके कई उपन्यासों पर फिल्में भी बनीं । जिन उपन्यासों पर फिल्में बनीं वो हैं- वर्दी वाला गुंडा, सबसे बड़ा खिलाड़ी और इंटरनेशनल खिलाड़ी प्रमुख हैं । उन्नीस सौ पचासी में उनके उपन्यास बहू मांगे इंसाफ पर शशिलाल नायर के निर्देशन में बहू की आवाज के नाम से फिल्म बनी थी ।  उन्होंने कई फिल्मों की स्क्रिप्ट और सीरियल के लिए भी लेखन किया । वेद प्रकाश शर्मा हर साल दो तीन उपन्यास लिखते थे और हर उपन्यास की शुरुआती डेढ लाख प्रतियां छपती थीं । जब वेद प्रकाश शर्मा का सौवां उपन्यास कैदी नंबर 100 छप रहा था तो प्रकाशकों ने ढाई लाख प्रतियां छापने का एलान किया था । हिंदी साहित्य के तथाकथित मुख्यधारा के लेखकों के लिए यह संख्या कल्पना से परे, किसी दूसरी दुनिया का आंकड़ा लगता है । यह वेद प्रकाश शर्मा की लोकप्रियता का कमाल था जिसकी वजह से प्रकाशकों में आत्मविश्वास था ।
यह वेदप्रकाश शर्मा की भाषा का ही कमाल था कि आज के तमाम खबरिया चैनल उससे अछूते नहीं हैं । दर्शकों के बीच लोकप्रियता की होड़ में न्यूज चैनलों की भाषा को उनके कार्यक्रमों के नाम से समझा जा सकता है जिसपर वेदप्रकाश शर्मा की छाप लक्षित की जा सकती है । चंद बानगी है - लुटेरी दुल्हन, बीबी का नशा, बहू मांगे इंसाफ, साजन की साजिश, हत्यारा कौन, जुर्म, सनसनी, सास बहू और साजिश आदि । किसी भी लेखक के लिए लोकप्रिय होने के बाद यह संतोष की बात होती है कि उसने अपनी भाषा को किस हद तक अपनी लेखनी से प्रभावित किया और कितने लोगों ने उसका अनुसरण किया ।
वेद प्रकाश शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक गांव में हुआ था । उनके उपन्यास लेखन बनने की भी दिलचस्प कहानी है । बात 1972 की थी और वेद प्रकाश शर्मा गर्मी की छुट्टियों में अपने गांव गए थे । वहां उन्होंने खाली समय में लिखना शुरू किया और कई कॉपियां भर दी । जब उनके पिता को पता चला तो उन्होंने उनकी जमकर पिटाई की और बालक वेदप्रकाश की मां से बोले लो अब पहले तो सिर्फ पढ़ता था अब तो लिखने भी लगा है । उस वक्त किसे मालूम था कि कॉपियों में कथा लिखनेवाला अपनी लेखनी से कीर्तिमान स्थापित करेगा । दरअसल अगर हम समग्रता में देखें तो वेद प्रकाश शर्मा साहित्य का पंचमुखी दीपक थे जिनमें प्रतिभा की बाती पांचो दिशाओं में जलती थी । कथित मुख्यधारा के लेखक भले ही उनको लुगदी लेखक माने लेकिन वेदप्रकाश शर्मा को पाठकों का जो प्यार मिला वो अप्रतिम है ।  


Saturday, February 25, 2017

साहित्य, संस्कृति और कला का मिलाप

गुरुवार की सुबह मुंबई के मरीन ड्राइव पर सुबह टहलनेवालों का जमावड़ा लगा था तो किसी यह अंदाज नहीं था कि दिन में जब धीरे-धीरे तापमान बढ़ेगा तो मायानगरी की सियासत का पारा भी उपर जाएगा । बेहद शांत समंदर इस बात का एहसास नहीं होने दे रहा था कि चढ़ते सूरज के साथ मायानगरी मुंबई में कोई सियासी तूफान आनेवाला है जो तमाम कयासों को धवस्त कर देगा, बौद्धिक जुगाली करनेवालों को और राजनीतिक चारा मिलेगा और हेतु-हेतु मदभूत वाली चर्चा को पंख लगेंगे। सबकी जुबान पर एक ही सवाल था कि मुंबईं महानगरपालिका में किसकी सरकार बनेगी । इस उत्सकुता की वजह यह भी थी कि पच्चीस साल बाद बीजेपी और शिवसेना दोनों ने बीएमसी का चुनाव अलग अलग लड़ा था । एक तरफ सियासी उत्सकुकता का वातावरण था तो वहीं मरीन ड्राइव पर ही देशभर के तमाम साहित्यकार, कलाकार और संगीत से जुड़े लोगों का जमावड़ा होने लगा था । साहित्य, कला और संस्कृति के इस उत्सव लिट ओ फेस्ट के तीसरे संस्कण को लेकर मुंबई में हलचल शुरू हो रही थी । सियासी कयासों के बीच लि ओ फेस्ट की फेस्टिवल डायरेक्टर ने जब इसके शुरुआत का औपचारिक ऐलान किया तो समारोह के दौरान भी कई लोग अपने मोबाइल पर बीएमसी के चुनाव नतीजे देख रहे थे लेकिन जैसे जैसे सत्र शुरू हुए तो लोग साहित्य और कला की दुनिया में लौटने लगे । उद्घाटन के बाद पहला बड़ा सत्र खोए वक्त की दास्तां को लेकर था जिसके पैनल में कथाकार, संस्कृतिकर्मी, राजनीति विश्लेषकों ससे लेकर हिंदी के प्रकाशक भी मौजूद थे । यह सत्र बहुत दिलचस्प रहा और इसमें लेखन की परंपरा, विरासत और नए विमर्शों पर खुलकर चर्चा हुई । अरुण महेश्वरी, मीरा जौहरी, संदीप भूतोड़िया, गीताश्री, और अभय दूबे ने खुलकर अपने विचार रखे । खोए वक्त की दास्तां की चर्चा अंतत: सृजनात्मकता के विमर्श पर हावी होने को लेकर हो गई । इसके बाद कई और दिलचस्प सत्र हुए । एक और उल्लेखनीय सत्र रहा -बॉडी शेमिंग यानि महिलाओं को अपने रंग रूप और उनके शरीर को लेकर समाज किस तरह का व्यवहार करता है । आत्मकथा बनाम जीवनी वाला सत्र भी जीवंत रहा जिसमें किरण मनराल के साथ लता मंगेशकर पर बड़ी किताब लिखनेवाले यतीन्द्र मिश्र, मोहम्मद रफी की जीवनी लिखनेवाली सुजाता देव और दारा सिंह पर किताब लिखनेवाली सीमा सोनिक ने अपने विचार रखे लेकिन इसमें दिलचस्प रहा वक्ताओं का अपने अनुभवों को बांटना । फिल्म लेखक आनंद नीलकंठम के साथ मिथक लेखन पर स्मिता पारिख ने बेहद संजीदगी से बात की । इस सत्र में एक बात उभर कर आई कि भारतीय समाज हर तरह के लेखन को लेकर कमोबेश उदार रहता है । छिटपुट घटनाओं को छोड़कर लेखन के खिलाफ ज्यादा विरोध आदि नहीं होता है । यही भारतीय समाज की और भारतीय पाठको की बहुलतावादी संस्कृति और हर तरह के विचारों का स्वागत करने की प्रवृति को पुख्ता करती है । आनंद नीलकंठम ने भी माना कि हमारे मिथकों को लेकर, हमारे पुराने ग्रंथों को लेकर पूर्व में लेखकों ने इतना लिखा है कि आगे के लेखकों को उनमें से किसी ग्रंथ को उठाकर लेखन करने की छूट मिल जाती है । इस सत्र में यह बात भी निकल कर आई कि अगर लेखक की मंशा किसी भी मिथकीय चरित्र को अपमानित करने की ना हो तो पाठक भी उसको उसी परिप्रेक्ष्य में देखता है । इन दिनों तमाम तरह के लिटरेचर फेस्टिवल में मिथकों परर अंग्रेजी लेखन को लेकर खासी चर्चा होती है । अलग अलग सत्रों में अलग अलग अंग्रेजी लेखकों ने भारतीय पुराणों और धर्मग्रंथों में मिथकीय चरित्र को लेकर बेस्ट सेलर लिखे जाने और उसकी वजहों पर सार्थक चर्चा यहां भी हुई । अश्विन सांघी ने माना कि को वो मिथ और हिस्ट्री को मिलाकर मिस्ट्री की रचना करते हैं । उन्होंने भी माना कि कई बार इतिहास और मिथक के बीच आवाजाही करते हुए उनको यथार्थ से मुठभेड़ करना पड़ता है लेकिन अगर लेखकीय ईमानदारी होती है तो इस मुठभेड़ का स्वरूप विद्रूप नहीं होता है ।   
किसी शहर पर मुकम्मल किताब हिंदी में कम लिखा गया है । इन दिनों शहरों को केंद्रित करके कुछ अच्छी किताबें आ रही हैं जिनमें फैजाबाद और लखनऊ को केंद्र में रखकर दो किताबें शहरनामा फैजाबाद और दूसरा लखनऊ प्रकाशित होकर पाठकों के द्वारा पंसद की जा रही है । नदीम हसनैन की पुस्तक दूसरा लखनऊ के बहाने से लखनऊ और वहां की संस्कृति पर अनूप जलोटा, नदीम हसनैन और अभय दूबे ने विमर्श किया । अनूप जलोटा ने लखनऊ के अपने दिनों को बेहद शिद्दत से याद किया और बताया कि मोहब्बत के उस शहर में अब हजरतगंज में कंधों से कंधे टकराते हुए इश्क की दास्तां कम लिखी जाती है लेकिन वहां प्यार कम नहीं हुआ है । अनूप जलोटा ने उर्दू के यूपी में सिमटते जाने पर गहरी चिंता प्रकट की । उन्होंने बेबाकी से कहा कि अगर यूपी में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनती है तो वो वहां जाकर उर्दू को बढ़ावा देने के लिए काम करेंगे और आवश्यकता हुई तो वहां स्थायी रूप से टिककर गालिब और मीर की यादों को जिंदा करेंगे । शाम को संगीत पर एक सत्र में गायक अंकित तिवारी और अनूप जलोटा के साथ सौरभ दफ्तरी ने बेहद ही दिलचस्प बातचीत की । इस सत्र में अंकित तिवारी और अनूप जलोटा के साथ सौरभ दफ्तरी ने भी अपनी गायकी से वहां मौजूद श्रोताओं का मन मोह लिया। सौरभ दफ्तरी की संगीत की समझ चकित करनेवाली थी । एक सत्र में कांग्रेस की पूर्व सांसद प्रिया दत्त ने अदिति महेश्वरी गोयल और  प्रतिष्ठा सिंह से बात करते हुए ईमानदारी से राजनीति सवालों के जवाब दिए । कांग्रेस में नेतृत्व की खोज के सवाल पर उन्होंने माना कि उनकी पार्टी को आत्ममंथन की जरूरत है । प्रिया दत्त भले ही आत्मंथन की बात करें पर इस वक्त कांग्रेस को इंट्रोस्पेक्शन की नहीं बल्कि खुद को रीइनवेंट करने की कोशिश करनी चाहिए । यह मेला इस मायने में भी अनूठा है रहा कि इसमें किशोरों को साहित्यक से जोड़ने की कोशिश की गई । आर्यमन ने एक हाइपर पैरेसेंट्स पर अपनी बात बेहतरीन ठंग से कही ।   
अपने देश में जिस तरह से लिटरेचर फेस्टिवल में सितारों का जमावड़ा लगता है और फिल्म अभिनेता से लेकर स्टार लेखकों को जुटाया जाता है वैसे में यह कल्पना करना थोड़ा मुश्किल है कि किसी लिटरेचर फेस्टिवल जैसे आयोजन में गांव को भी केंद्र में रखा जाएगा । एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त पूरे देश में छोटे-बड़े करीब साढे तीन सौ लिटरेचर फेस्टिवल होते हैं और कमोबेश सभी एक जैसे ही होते हैं । पिछले दो संस्करणों में लिट-ओ-फेस्ट भी उसी राह पर चलता नजर आ रहा था लेकिन तीसरे संस्करण के पहले उसने अपनी नई राह बनाई । अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को समझते हुए लिट-ओ-फेस्ट ने साहित्य, कला और संगीत को गांवों तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया । मुंबई के पास के शाहपुरा जिले के दहीगांव को लिट ओ फेस्ट ने गोद लिया है । लिट ओ फेस्ट इस गांव में शिक्षा को बढ़ावा देने, कौशल विकास, स्वच्छता अभियान आदि के बारे में वहां के लोगों को जागरूक बना रही है । लिट ओ फेस्ट की फेस्टिवल डायरेक्टर स्मिता पारिख के मुताबिक लिटरेचर के साथ-साथ इन लोगों ने लिटरेसी की भी अपना एक अलग महत्व है । इतना खूबसूरत साहित्य सृजन हुआ है उसके पाठक बनाना भी फर्ज हैं । अपनी इसी जिम्मेदारी को समझते हुए लिट ओ फेस्ट ने महानगर के पास के गांव में पाठक तैयार करने का बीड़ा उठाया है । इस योजना को पंख लगाने के लिए दहीगांव में एक पुस्तकालय की स्थापना की जा रही है । लिट ओ फेस्ट से जुड़े प्रकाशकों ने इस पुस्तकालय के लिए किताबें देने का एलान भी किया ।
दो साल पहले मुंबई के मशहूर जे जे कॉलेज ऑफ फाइन आर्ट्स से जो सफर शुरू हुआ था वो सेंट जेवियर्स क़लेज से होते हुए ग्रांट मेडिकल कॉलेज जिमखाना तक पहुंचा । इस लिटरेचर फेस्टिवल की खास बात यह है कि इसके आयोजक नवोदित लेखकों की पांडुलिपियां मंगवाते हैं और फिर उनकी जूरी उनमें से चुनाव कर उसको प्रकाशित भी करवाते हैं । पिछले वर्ष चुनी गई पांडुलिपियों का प्रकाशन और विमोचन हुआ जिसमें बिंदू चेरुन्गात का उपन्यास मेरी अनन्या भी है । मूलत: मलयाली बिंदू ने हिंदी में छोटा पर अच्छा उपन्यास लिखा है । इस वर्ष चुनी गई पांडुलिपियों का एलान भी समारोहपूर्वक किया गया । इस साल भी आमंत्रित पांडुलिपियों में से जूरी ने चुनाव कर लिया है और कश्मीर की कहानियों को चुना गया है । अगर हम समग्रता में विचार करें तो मुंबई में आयोजजित होनेवाले इस लिटरेचर फेस्टिवल ने तीन साल में ही अपनी एक अलग पहचान बनाई है । लिटरेचर फेस्टिवल को गांवों से जोड़ने की अनूठी पहले करके इसके आयोजकों ने अन्य लिटरेचर फेस्टिवल्स के सामने एक मिसाल तो पेश की है, चुनौती भी दी है । क्योंकि अगर शब्द के कद्रदान बचेंगें तभी तो सृजन भी बचेगा और सृजन का उत्सव भी  ।


मर्यादाहीन बयानों से शर्मसार लोकतंत्र

चाहे विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव जब भी चुनाव का दौर लंबा चलता है तो नेताओं की जुबान थकने लगती है । जब जुबान थकती है तो वो फिसलने भी लगती है । जब जुबान फिसलती है तो मर्यादा तार-तार होती है । जब मर्यादा तार-तार होती है तो फिर एक बार दौर शुरू होता है उस चर्चा का जिसमें राजनीतिज्ञों के भाषा के गिरते स्तर पर बात होती है । इन सबके बीच चुनाव खत्म हो जाता है और फिर नेताओं की जुबान लगभग काबू में आ जाती है । जिसके पक्ष में जनादेश होता है और वो जश्न में डूब जाते हैं और जिसको जनता ठुकरा देती है वो आत्ममंथन आदि की बात करते हुए नेपथ्य में चले जाते हैं । चुनाव के दौरान जिस तरह से बदजुबानी का बवंडर उठता है वो भी थम सा जाता है । पाठकों को याद होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान या दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल हुआ था वो अब लगभग वोटरों के मानस पटल से लगभग विस्मृत हो गया है । रामजादे के साथ जिस एक अन्य जादे का प्रयोग हुआ था वह बेहद आपत्ति जनक था । लेकिन यह टीवी का दौर है और नेताओं को लगता है कि टीवी पर उनके भाषणों का वही हिस्सा दिखाया जाएगा जो विवादस्पद होगा । स्वस्थ आलोचना कभी भी भाषा की मर्यादा को नहीं तोड़ती और यह सच है कि जब भाषा की मर्यादा नहीं टूटती तो न्यूज चैनलों में स्पंदन नहीं होता । सारे दिन चलनेवाले न्यूज चैनलों के इस दौर में नेताओं के विवादित या बिगड़े बोल हमेशा प्राथमिकता पाते हैं । बार बार उन्हीं बयानों को दिखाया जाता है । टीवी और सोशल मीडिया के दौर में भाषा अपनी सीमा रेखा का बार बार अतिक्रमण करती है ।  

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जैसे जैसे चरणबद्ध तरीके से खत्म होने की ओर बढ़ रहा है नेताओं की जुबान फिसलने लगी है । अखिलेश यादव ने जिस तरह से गुजराती गधों का जिक किया उससे साफ था कि उनका इशारा किस ओर था ।  अखिलेश यादव ने सदी के महानायक यानि अमिताभ बच्चन से अपील की वो गुजरात के गधों का विज्ञापन नहीं करें । गधों वाली सियासत यहीं नहीं रुकी और बीजेपी के नेताओं ने अखिलेश पर निशाना साधा और कहा कि दरअसल यूपी के लोग बताएंगे कि गुजरात के जंगली गधों और सामान्य गधों में क्या फर्क है, तब अखिलेश को समझ आएगा । यहां भी इशारा साफ था । अब आप ही इस बात का अंदाजा लगाइए कि हमारी सियासत किस तरह से गधे के प्रतीकों के सहारे मजबूती पा रही है । जब नेता गधों की सियासत में करे तो उस पार्टी के अन्य लोगों के हौसले बुलंद हो जाते हैं और अपने नेता से एक कदमआगे बढ़कर अपनी भी उपयोगिता साबित करने में लग जाता है । उत्तर प्रदेश में भी यही हुआ समाजवादी पार्टी के नेता राजेन्द्र चौधरी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह को आतंकवादी बता दिया । उन्होंने बहुत चतुराई से अपना यह बयान एक एजेंसी के कैमरे पर दिया ताकि सभी चैनलों तक एक साथ उनका बयान पहुंच जाए । आजम खान ने तो प्रधानमंत्री मोदी का नाम लिए बगैर उनको रावण तक कह डाला ।  ऐसा नहीं है कि सिर्फ समाजवादी पार्टी के नेताओं की तरफ से ही बदजुबानी की गई हो । बीजेपी के नेताओं ने भी कई बार सियासी लक्ष्मण रेखा लांघी । केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान ने तो मुलायम सिंह यादव के मरने की बात तक कह जाली । संजीव बालियान ने कहा कि मुलायम सिंह यादव हमेशा से सांप्रदायिक राजनीति करते रहे हैं और मैं उनसे कहना चाहूंगा कि अब उनके मरने का वक्त आ गया है । यह कैसी सियासत है जहां नेता एक दूसरे नेता के मरने के वक्त की घोषणा करते नजर आ रहे हैं । संजीव बालियान पहले भी विवादित बयान देते रहे हैं । विनय कटियार ने प्रियंका गांधी की खूबसूरती पर तंज कसते हुए कहा था कि उनसे ज्यादा खूबसूरत नेता हमारे स्टार प्रचारक हैं । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी बीएसपी की नेता मायावती पर जोरदार हमला बोला और उनकी पार्टी को बहनजी संपत्ति पार्टी कह डाला । नरेन्द्र मोदी अपनी चुनावी सभा में इस तरह के बयान पहले भी देते रहे हैं । पिछले चुनाव में उन्होंने शरद पवार की पार्टी एनसीपी को नैचुरली करप्ट पार्टी कहा था । कुछ लोगों का आरोप है कि चुनावी रैलियों के दौरान नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद की मर्यादा और गरिमा भूल जाते हैं । बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने भाषणों में कहा था कि एक शहजादे से मां तो दूसरे से पिता परेशान हैं. और दो शहजादे प्रदेश लूटने आए हैं । राजनीति की इस काली कोठरी में जिस तरह से बयानों के तीर चलते हैं उसकी कालिख से सबका दामन दागदार होता है और दागदार होता है हमारा लोकतंत्र भी । नेताओं के बीच पहले भी भाषा की मर्यादा टूटती रही है । नेहरू जी के शासन काल से लेकर इंदिरा गांधी के दौर तक भी चुनाव के दौरान या उसके बाद भी नेताओं ने एक दूसरे पर कीचड़ उछाले थे । गली गली में शोर है इंदिरा गांधी चोर है जैसे नारे भी इस देश में लगे थे । राजनारायण अपने निम्नतम स्तर के भाषणों और बयानों के लिए के लिए कुख्यात रहे हैं । उनके चुनावी भाषणों में तो कई बार गाली गलौच तक का इस्तेमाल होता था । लेकिन उस दौर में कम लोग भाषा के निम्नतम स्तर पर जाते थे लेकिन अब तो बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा नेता भी अपने बयानों से लोकतंत्र को शर्मसार करता है । यह लोकतंत्र के लिए बहुत बुरा और अफसोस का वक्त है । वक्त तो संभलने का भी है क्योंकि अगर जनता के नुमाइंदे ही भाषाई गरिमा को गिराएंगे तो फिर जनता से क्या उम्मीद की जा सकती है ।  

भारतीय भाषाओं के हक की सिफारिश

क्या यह बिडंबना नहीं है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी देश के उच्च और सर्वोच्च न्यायलयों में भारतीय भाषाओं में काम-काज नहीं हो पा रहा है । कई बार हाईकोर्ट में स्थानीय भाषाओं में सुनवाई और फैसलों का प्रस्ताव सामने आया लेकिन वो योजना परवान नहीं चढ़ पाई और इन अदालतों में अब भी अंग्रजी में ही कामकाज हो रहा है । अब उच्च न्यायलयों में अंग्रेजी के दबदबे को खत्म करने की दिशा में कानून मंत्रालय की संसदीय समिति ने बेहद अहम प्रस्ताव रखा है । संसदीय समिति ने देश के सभी चौबीस उच्च न्यायलों में हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कामकाज करने की सिफारिश की है । संसदीय समिति के प्रस्ताव के मुताबिक संविधान में केंद्र सरकार को इस बारे में फैसला लेने का अधिकार दिया गया है । संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में इस बात पर भी जोर दिया है कि इस मसले पर अदालतों की सलाह लेने की जरूरत नहीं है । संसदीय समिति ने न्यायिक सलाह नहीं लेने पर जोर इस वजह से दिया लगता है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अक्तूबर दो हजार बारह में गुजरात, तमिलनाडू, कर्नाटक, छत्तीससगढ़ पश्चिम बंगाल आदि राज्यों के उच्च न्यायलयों में स्थानीय भाषाओं में कामकाज के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था । सुप्रीम कोर्ट ने उन्नीस सौ सत्तानवे और उन्नीस सौ निन्यानबे के अपने पुराने फैसलों के हवाले से इन प्रस्तावों को खारिज किया था । पिछले दिनों भी इस मसले पर एरक याचिका दायर की गई थी जिसपर उस वक्त के मुख्य न्यायधीश ने याचिकाकर्ता पपर कठोर टिप्पणी की थी । अब संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि अगर संबंधित राज्य सरकारें इस तरह का प्रस्ताव देती है तो केंद्र सरकार संविधान में मिले अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए उसको लागू करने का फैसला ले सकती है । इस मसले पर संविधान में तो प्रावधान है लेकिन उन्नीस सौ पैंसठ में कैबिनेट के एक फैसले से न्यायलयों से इस बारे में सलाह लेने की परंपरा की शुरुआत हुई थी जो अबतक चली आ रही है । अब अगर केंद्र सरकार संसदीय समिति की सिफारिशों को लागू करना चाहती है तो उसको कैबिनेट के फैसले पर पुनर्विचार करना होगा । मौजूदा सरकार को इस मसले पर संजीदा रुख अख्तियार करना होगा ।

अदालतों में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में कामकाज करने का विरोध यह कहकर किया जाता है कि इससे न्यायधीशों को दिक्कत होगी और उच्च न्यायलयों में किसी प्रदेश के जज को किसी भी प्रदेश में स्थानांतरण की प्रक्रिया बाधित होगी । संभव है कि ऐसा हो, लेकिन इसके लिए कोई मैकेनिज्म बनाया जा सकता है ताकि न्यायाधीशों को दिक्कत ना हो और उनके स्थानांतरण को लेकर भी प्रक्रिया बाधित ना हो ।लेकिन न्यायलयों में हिंदी में काम नहीं होने पर कई बार केस मुकदमे में अदालत पहुंचे पीड़ितों को अदालत की भाषा या वहां जारी बहस समझ नहीं आती है और वो मूकदर्शक बने रहते हैं । निर्भया के मामले में भी ऐसा हो रहा था । उसकी मां लगातार सुप्रीम कोर्ट जाती थी और कई बार बगैर कुछ समझे बूझे वहां से वापस हो लेती थी । बाद में उनकी मदद की गई । अगर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को उच्च न्यायलयों में कामकाज की एक भाषा बनाने का फैसला होता है तो इससे भाषा का गौरव बढ़ेगा, साथ ही ज्यादातर पीड़ितों को भी इंसाफ की भाषा समझ में आ सकेगी । अगर अदालतों की बात को छोड़कर भाषा के सवाल पर विचार करें तो हमें लगता है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हम अपनी भाषा को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बना पाए । अब वक्त आ गया है कि भाषा संबंधी ठोस नीति बने और उसको बगैर किसी सियासत के लागू किया जा सके ।  

लिपस्टिक अंडर माई बुर्का पर कैंची !

लीक से हटकर बनने वाली फिल्म को लेकर फिल्म निर्माताओं को लंबे समय से सेंसर बोर्ड से जूझना पड़ता है । संस्कारी सेंसर बोर्ड इस तरह की तकरीबन हर फिल्म में अडंगा डालता ही है । जब से पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अद्यक्ष बने हैं तब से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड खुद को सेंसर बोर्ड बनाने में लगा हुआ है । अब एक बार फिर से प्रकाश झा की फिल्म लिपस्टिक अंडर माई बुर्का को लेकर सेंसर बोर्ड ने आपत्ति जता दी है । लिपस्टिक अंडर माई बुर्का को अलंकृता श्रीवास्तव ने निर्देशित किया है । सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को देखने के बाद प्रकाश झा को यह संदेश दिया है कि इसको सर्टिफिकेट नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इसमें महिलाओं की फैंटेसी और इंटीमेट सेक्सुअल सींस हैं । इसके अलावा सेंसर बोर्ड के इस फिल्म को लेकर यह भीआपत्ति है कि चूंकि यह महिलाओं को केंद्र में रखकर बनाई है लिहाजा इसमें गाली गलौच की भाषा नहीं होनी चाहिए । आपत्ति तो यह भी है कि इस फिल्म में ऑडियो पोर्नोग्राफी भी है और यह समाज के एक वर्ग विशेष को संवेदनहीनता के साथ चित्रित करता है । सेंसर बोर्ड ने अपनी कई धाराओं को गिनाते हुए इस फिल्म को सर्टिफिकेट देने से इंकार कर दिया है । यह फिल्म एक छोटे से शहर की महिलाओं की कहानी है जिसमें कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक शाह, आहना और प्लाबिता ने उनकी आकांक्षाओं को परदे पर अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है । ये चारों महिलाएं अनी जिंदगी में आजादी को तलाशती हैं और उसी तलाश के साथ फिल्म आगे बढ़ती है । स्त्रियों के आकांक्षा का मानचित्र खींचती इस फिल्म में पात्र अपनीबोली-वाणी में बात करते हैं जिसपर सेंसर बोर्ड को आपत्ति है । फिल्म की निर्देश अलंकृता का दावा है कि उनकी फिल्म देश के पितृसत्तात्मक समाज को खुली चुनौती देता है इस वजह से सेंसर बोर्ड को इसको प्रमाणित करने की राह में रोड़ा अटका रहा है । प्रकाश झा ने भी साफ किया है कि वो अपनी इस फिल्म को लेकर अंत तक लड़ेंगे ताकि फिल्मकार की कल्पनाशीलता और समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किया जा सके और उसको कोई रोक ना सके । प्रकाश झा ने सेंसर बोर्ड के इस कदम को अभिव्यक्ति की आजादी से भी जोड़ा है ।
दरअसल प्रकाश झा की फिल्म को लेकर पहले भी सेंसर बोर्ड ने कई आपत्तियां उठाई थीं । प्रकाश झा की फिल्म जय गंगाजल को लेकर भी विवाद उठा था । तब प्रकाश झा ने सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पर आरोप लगाया है कि वो बेवजह उनकी फिल्म से साला और घंटा शब्द हटवाना चाहते हैं । सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष का तर्क था कि साला गाली है और इतनी बार इस गाली को फिल्म में बोलने-दिखाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है जबकि प्रकाश झा का तर्क है कि साला अब आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होता है और वो गाली नहीं रह गया है । संस्कारी सेंसर बोर्ड सी बिनाह पर जय गंगाजल को एडल्ट फिल्म का स्रटिफिरेट देना चाहता था लेकिन प्रकाश झा के मुताबिक वो यू यानि अनरेस्ट्रिक्टेड पब्लिक एक्जीबिशन या फिर यू ए की श्रेणी की फिल्म थी । बाद में प्रकाश झा की अपील पर फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्राइब्यूनल ने बैगर किसी कट के जय गंगाजल को यू ए सर्टिफिकेट दे दिया था ।
हाल के दिनों में सेंसर बोर्ड के कारनामों को लेकर उसके खुद के सदस्य भी खफा नजर आए है । उनका आरोप है कि अध्यक्ष उनकी नहीं सुनते हैं और मनमानी करते हैं । सेंसर बोर्ड में जिस तरह से एडल्ट और यू ए फिल्म को श्रेणीबद्ध करने की गाइडलाइंस है उसको लेकर भी बेहद कंफ्यूजन है । इन दोनों श्रेणियों के बीच बंटवारे को लेकर खासी मनमानी करने की गुंजाइश होती है जिसका लाभ सेंसर बोर्ड उठाता रहा है । बदलाव की आवश्यकता के मद्देनजर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन कर दिया था जिसने अपनी रिपोर्ट भी दे दी है । कई बदलाव भी अपेक्षित हैं लेकिन पता नहीं कहां सरकारी फाइलों में ये रिपोर्ट गुम हो गई है । फिल्मकारों को उम्मीद थी इन सुझावों को लागू कर देने से उनकी सृजनशीलता पर कैंची नहीं चलेगी ।
फिल्मों को सर्टिफिकेट देने और उलपर विवाद का हमारे देश में लंबा इतिहास रहा है । सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952 के तहत सेंसर बोर्ड का गठन किया । 1983 में इसका नाम बदलकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड कर दिया गया । इस एक्ट के तहत समय समय पर सरकार गाइडलाइंस जारी करती रही है । जैसे पहले फिल्मों की दो ही कैटेगरी होती थी ए और यू । कालांतर में दो और कैटेगरी जोड़ी गई जिसका नाम रखा गया यू ए और एस । यू ए के अंतर्गत प्रमाणित फिल्मों को देखने के लिए बारह साल से कम उम्र के बच्चों को अपने अभिभावक की सहमति और साथ आवश्यक किया गया । एस कैटेगरी में स्पेशलाइज्ड दर्शकों के लिए फिल्में प्रमाणित की जाती रही हैं । फिल्म प्रमाणन के संबंध में सरकार ने आखिरी गाइडलाइंस 6 दिसबंर 1991 को जारी की थी जिसके आधार पर ही अबतक काम चल रहा है । इक्यानवे के बाद से हमारा समाज काफी बदल गया । आर्थिक सुधारों की बयार और हाल के दिनों में इंटरनेट के फैलाव ने हमारे समाज में भी बहुत खुलापन ला दिया है । एक जमाना था जब फिल्मों में नायक नायिका के मिलन को दो हिलते हुए फूलों के माध्यम से दिखाया जाता था । छिपकली के कीड़े को खा जाने के दृश्य से रेप को प्रतिबंबित किया जाता था । समय बदला और फिल्मों के सीन भी बदलते चले गए । राजकपूर की फिल्म संगम में जब वैजयंतीमाला ने जब पहली बार बिकिनी पहनी थी तब भी जमकर हंगामा और विरोध आदि हुआ था लेकिन अब वो फिल्मों के लिए सामान्य बात है । फिल्मों में जब खुलेपन की बयार बहने लगी तो एक बार फिर सेंसर बोर्ड का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था और ये दलील दी गई थी कि फिल्मों के प्रमाणन को खत्म कर दिया जाना चाहिए । लेकिन उन्नीस सौ नवासी में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में साफ कर दिया था कि भारत जैसे समाज में फिल्मों के प्रमाणन की जरूरत है । कोर्ट ने कहा था कि ध्वनि और दृश्यों के माध्यम से कही गई बातें दर्शकों के मन पर गहरा असर छोड़ती है । सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद उन्नीस सौ इक्यानवे में एक गाइडलाइन जारी की गई जिसमें भी इस बात पर जोर दिया गया था कि फिल्मों में सामाजिक मूल्यों के स्तर को बरकरार रखा जाए । उस गाइडलाइंस में यह भी कहा गया था कि फिल्मों में हिंसा को गौरवान्वित करनेवाले दृश्यों को मंजूरी ना दी जाए । इस गाइडलाइंस की बिनाह पर ही पहलाज निहलानी प्रमाणन बोर्ड को संस्कारी बोर्ड बना चुके हैं । अब इंतजार श्यामबेनेगल कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का है


Thursday, February 23, 2017

वरुण की किसानों वाली सियासत

कोई भी नेता जब चुनाव के वक्त अपनी शिकायत लेकर जनता के सामने जाता है या फिर किसी पुराने मसले पर उसका ज्ञानचक्षु खुलता है तो जनता के मन में सवाल उठता है कि ये मसला इस वक्त क्यों ?  चुनाव के वक्त ही क्यों ? इस सवाल के उत्तर से देश की अवसरवादी राजनीति की तस्वीर उभरती है । अभी हाल ही में एक ऐसा मामला सामने आया है । भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश से सांसद, केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के पुत्र वरुण गांधी के साथ । उन्हें इन दिनों रोहिता वेमुला की याद सता रही है । खुदकुशी के पहले रोहित वेमुला के पत्र को पढ़कर उनका कलेजा मुंह को आ रहा है । रोहित वेमुला के दुख से इतने पीड़ित हैं कि उनको रोना तक आ रहा है । यह उन्होंने खुद इंदौर में एक कार्यक्रम में स्वीकार किया है । हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी के छात्र रोहित वेमुला ने जनवरी दो हजार सोलह में खुदकुशी की थी । खुदकुशी के सालभर से ज्यादा बीत गए, लेकिन वरुण गांधी ने कभी अपनी पीड़ा का इजहार नहीं किया । संसद से लेकर सड़क तक रोहित वेमुला के मुद्दे पर हंगामा हुआ । पक्ष विपक्ष में वार-पलटवार हुए, धरना प्रदर्शन हुए, लेकिन वरुण गांधी को रोना नहीं आया । अगर उस दौर में उनको रोना आया भी होगा तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपने दुख को प्रकट नहीं किया । वरुण गांधी को सिर्फ रोहित वेमुला की ही याद नहीं आई उन्होंने मध्यप्रदेश के एक स्कूल में दलित छात्रों के साथ मिड डे मील में भेदभाव का मुद्दा उठाते हुए भी चिंता जताई । दलितों के अलावा वरुण को अचानक से किसानों की भी याद आ गई । उन्होंने तो फरार उद्योगपति विजय माल्या को लेकर भी अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि कर्ज नहीं चुका पाने की वजह से पचास हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं लेकिन विजय माल्या नौ हजार करोड़ लेकर चंपत हो गया । वरुण के मुताबिक सरकार ने उसके जिस गारंटर को गिरफ्तार किया है उसके खाते में सिर्फ ग्यारह सौ रुपए हैं । उन्होंने गरीबों के लिए सरकारी कर्जा माफी योजना पर भी सवाल खड़ा किया । अब हम जरा गहराई से वरुण गांधी के उन दोनों बयानों को मिलाकर देखें । वरुण गांधी के बयानों से दलित और किसानों को लेकर उनकी चिंता को साफ तौर रेखांकित किया जा सकता है । अब सवाल यही उठता है कि यूपी के सुल्तानपुर से बीजेपी सांसद को अचानक किसानों और दलितों की याद क्यों सताने लगी । क्यों वो इनके हालात को लेकर इतने व्यथित हो गए कि अपने दुख को उनको सार्वजनिक करना पड़ा ।
हाल के सियासी दौर को परखते हैं । इस वक्त यूपी में विधानसभा चुनाव जारी हैं । तीन चरणों को चुनाव संपन्न हो चुका है और चार चरणों का चुनाव बाकी है । उत्तर प्रदेश के चुनाव में किसानों की कर्जा माफी एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है । कांग्रेस और बीजेपी दोनों किसानों को लेकर चिंतित दिखना चाहते हैं । राहुल गांधी तो चुनाव के ऐलान के पहले ही प्रधानमंत्री से जाकर इस मसले पर मिल भी आए थे । सभी दलों के चुनावी घोषणा पत्र में किसानों को लेकर चिंता और उनके भले के लिए तरह-तरह की योजनाओं का वादा है । दलितों को लेकर मायावती अपनी गोलबंदी मजबूत कर रही है । दलितों में अपना खोया जनाधार हासिल करने के लिए कांग्रेस भी रोहित वेमुला के मसले पर पिछले साल आक्रामक दिखी थी और यूपी में भी गाहे बगाहे उसके नेता रोहिक वेमुला का जिक्र छेड़ देते हैं । विधानसभा चुनावों के इस कोलाहल भरे सियासी समय में बीजेपी सांसद वरुण गांधी जब अपनी ही पार्टी को कठघरे में खड़ा किया तो उन्होंने विपक्ष के हाथ में अपनी पार्टी को घेरने का अस्त्र दे दिया, चाहे या अनचाहे इसका फैसला तो पार्टी के आला नेता करेंगे ।
यूपी विधानसभा चुनाव में वरुण गांधी को भारतीय जनता पार्टी ने हाशिए पर रखा हुआ है । कई दौर के चुनाव प्रचार में उनको स्टार प्रचारकों की सूची से बाहर रखा गया । अब इस बात को समझना होगा कि जो नेता उत्तर प्रदेश की रहनुमाई करने का ख्वाब देख रहा हो, जो नेता उत्तर प्रदेश की सियासत के केंद्र में खुद को रखने के लिए प्रयत्नशील हो और उसको उसकी ही पार्टी परिधि पर भी ना रखे या चुनाव के दौरान उसको लगभग हाशिए पर रखे तो नेता की पीड़ा स्वाभाविक है । वरुण गांधी के साथ यही हो रहा है । लगातार अपने को हाशिए पर धकेले जाने से उनकी पीड़ा बढ़ती चली गई और जब मौका मिला तो उन्होंने अपने बगावती तेवर दिखा दिए । हलांकि बगावती कहना थोड़ी जल्दबाजी है लेकिन संकेत तो ऐसे ही दिए हैं ।

अब अगर हम इस बात का विश्लेषण करें कि बीजेपी ने वरुण गांधी को हाशिए पर क्यों रखा । सरनेम में गांधी, युवा चेहरा, आक्रामक भाषणों के लिए मशहूर वरुण गांधी के साथ बीजेपी ने ऐसा क्यों किया । पिछले दिनों वरुण गांधी पर बेहद संगीन इल्जाम लगे थे और उनकी कुछ आपत्तिजनक तस्वीरें भी सामने आई थीं । इन आरोपों में कितनी सचाई है, या उन आपत्तिजनक तस्वीरों का सच क्या है यह तो जांच एजेंसी और अदालतों का काम है लेकिन राजनीति में दाग का असर लंबे समय तक रहता है । बीजेपी, यूपी में महिलाओं की सुरक्षा और अस्मिता को मुद्दा बनाकर चुनाव मैदान में उतरी है और अगर ऐसे में वरुण गांधी को पार्टी आगे करती तो संभव है वरुण पर लगे आरोप और उनकी आपत्तिजनक तस्वीरें सरेआम उछाली जाती । इस तरह के चुनावी उलझनों या परेशानी से बचने के लिए बीजेपी ने उनको यूपी के चुनावी समर से बाहर रखा । वरुण गांधी को चाहिए था कि उत्तर प्रदेश चुनाव तक अपने को संयमित रखते और अपने उपर लगे आरोपों के कमोजर होने के बाद अपनी सियासी चाल चलते । यूपी चुनाव के बीच उनके ये तेवर उनकी पार्टी में उनके विरोधियों को उनके घेरने का मौका दे सकती है । 

Tuesday, February 21, 2017

परंपरा के नाम पर बंधक लोकतंत्र !

देश की आजादी के सत्तर साल बाद एक राज्य के मुख्यमंत्री को महिलाओं के कानूनी अधिकार दिलवाने की कोशिश करने की वजह से पद छोड़ना पड़ता है । ऐसी ही चिंताजनक घटना हुई है नगालैंड में जहां के मुख्यमंत्री टी आर जिलियांग को प्रचंड बहुमत के बावजूद नगा संगठनों के विरोध की वजह से पद छोड़ना पड़ा । दरअसल जिलियांग चाहते थे कि नगालैंड के स्थानीय निकाय के चुनावों में महिलाओं को तौंतीस फीसदी आरक्षण दिया जाए और उन्होंने इसका ऐलान भी कर दिया । इसकी पृष्ठभूमि यह है कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने नगा महिलाओं के संगठन की अर्जी पर स्थानीय निकायों में महिलाओं को तैंतीस फीसदी आरक्षण को जायज ठहराया था । सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के आलोक में जिलियांग ने एक फरवरी को होनेवाले स्थानीय निकाय के चुनाव में महिलाओं को तैंतीस फीसदी देने की घोषणा कर चुनाव करवाना चाहा था । इस फैसले के बाद से ही वहां हिंसक विरोध शुरू हो गया । नगा होहो और अन्य आदिवासी संगठनों ने सरकार के इस फैसले का विरोध शुरू कर दिया । महिलाओं को चुनाव में आरक्षण दिए जाने के विरोध में नगा संगठन के कार्यकर्ताओं ने ना केवल नगरपालिका के कार्यालय को फूंक दिया बल्कि मुख्यमंत्री के दफ्तर पर भी हमला कर दिया । विरोध की आग में जल रहे नगालैंड में पारंपरिक तौर पर पुरुष प्रधान नागा संगठनों ने मुख्यमंत्री जिलियांग का विरोध शुरू कर दिया और आखिरकार इन संगठनों के दबाव में जिलियांग को पद छोड़ना पड़ा । वह भी तब जब साठ सदस्यीय विधानसभा में जिलियांग की पार्टी नगालैंड पीपल्स पार्टी के छियालीस विधायक हैं और बाकी उनके समर्थक । परंपरा के नाम पर यह लोकतंत्र को बंधक बनाने जैसा है । आज हम इक्कीसवीं सदी में महिलाओं को बराबरी का अधिकार और कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं तो इस तरह की दकियानूसी और परंपरावादी सोच समाज को कठघरे में खड़ा करता है और आधुनिक होने के हमारे दावों की पोल भी खोलता है ।
यह सही है कि आदिवासियों के जो संगठन नगालैंड में महिलाओं को चुनाव में आरक्षण की वकालत कर रहे हैं वो संविधान में वहां की जनता को मिले अधिकारों की अस्पष्टता आड़ ले रहे हैं । इन संगठनों का दावा है कि संविधान आदिवासियों को अपनी परंपरा और रीति रिवाजों के हिफाजत का अधिकार देता है । संविधान के अनुच्छेद तीन सौ इकहत्तर (ए) के मुताबिक- नगालैंड के धार्मिक और सामाजिक परंपराओं के मामलों में संसद का कोई कानून वहां लागू नहीं होता है ।वो अपनी परंपरा के हिसाब से काम करेंगे । इसके अलावा नगा आदिवासियों के लंबे समय से चले आ रहे रूढियों और प्रथाओं के अलावा संपत्ति के मामले भी इसी दायरे में आते हैं । संविधान के इसी अनुच्छेद को ढाल बनाकर नगालैंड में महिलाओं को उनका हक नहीं दिया जा रहा है । नगा आदिवासियों के संगठन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं है और अगर देखा जाए तो उन्नीस सौ चौसठ के पहले विधानसभा चुनाव से लेकर अबतक वहां की विधानसभा में कोई महिला विधायक नहीं चुनी गई है । इससे पता चलता है कि नगालैंड में पितृसत्तात्मक समाज की जड़ें कितनी गहरी हैं । संविधान के उपरोक्त अनुच्छेद की अस्पष्टता और उचित व्याख्या नहीं होने की आड़ लेकर पुरुषवादी सामंती सोच को वैधता प्रदान किया जाता रहा है ।
दरअसल अगर हम देखें तो इस पूरे मसले पर संविधान में भी भ्रम की स्थिति है । एक तरफ तो संविधान अपने अनुच्छेद तीन सौ इकहत्तर (ए) में नगालैंड के अदिवासियों को अपनी परंपरा और रीति रिवाजों के हिफाजत का अधिकार देता है और दूसरी तरफ अनुच्छेद दो सौ तैंतालीस (डी) में महिलाओं के आरक्षण की बात करता है । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि यह संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकारों की राह में बाधा बनकर खड़ा हो जाता है । यहां इस सिद्धांत को लागू करने की भी जरूरत है कि जब भी मौलिक अधिकारों के रास्ते में कोई पारंपरिक कानून अड़चन बनकर खड़ा होता है तो मौलिक अधिकारों को ही तरजीह दी जाती है । संविधान में मिले मौलिक अधिकार से किसी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता है । अब वक्त  गया है कि संविधान में संशोधन करके इस बात को कानूनी जामा पहना दिया जाए । जकरूरत पड़े तो संविधान में संशोधन भी किया जाए । हमारी लोकतांत्रिक प्रकिया में कोई राज्य या कोई संगठन महिलाओं को दरकिनार कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूती नहीं दे सकता है । इस वक्त नगालैंड में अजीब द्वंद की स्थिति है जहां एक तरफ महिलाएं अपना हक मांग रही हैं वहीं दूसरी तरफ आदिवासियों की पंचायतें परंपरा और रूढ़ियों के नाम पर उनको संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने का खुला खेल खेल रहे हैं । नगालैंड में सत्ता से चिपके रहने की चाहत में कोई भी विधायक जातीय संगठनों के इस फैसले के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत नहीं दिखा पाया । नेताओं की सियासी नपुंसकता ने वहां मसले को और उलझा दिया है ।

दरअसल अगर हम महिलाओं के अधिकारों को लेकर अगर वृहत्तर तस्वीर पर नजर डालें तो अब भी कई बाधाएं नजर आती हैं । नगालैंड में तो संविधान की अस्पष्टता विरोध करनेवालों को एक आधार दे रही है लेकिन अन्य प्रदेशों में भी जातीय पंचायतें महिलाओं के मसले को लेकर कितने अनुदार होते हैं ये समय समय पर देखने को मिलता है । समान गोत्र में प्रेम विवाह का विरोध से लेकर ऑनर किलिंग तक में पुरुष सत्ता अपने क्रूरतम रूप में सामने आती है । महिलाओं को बराबरी का हक देने दिलाने की खूब बातें हमारे रहनुमा करते हैं । चुनावों के वक्त नारी शक्ति की बातें फिजां में जोर शोर से गूंजती हैं लेकिन जब कानूनी रूप से उनको हक देने की बात आती है तो पुरुषसत्ता अपना असली रूप दिखाती है । संसद और राज्यों के विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षण का मुद्दा दो दशक से अधिक समय से अटका हुआ है । उन्नीस सौ छियानवे में देवगौड़ा के प्रधानमंत्रित्व काल में इस महिला आरक्षण बिल को लोकसभा में पेश किया गया था । दो साल बाद फिर से अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में इसको लोकसभा में बिल को पेश किया गया लेकिन हंगामे के अलावा कुछ हो नहीं पाया । संसदीय कमेटियों से होते हुए इस बिल को कई बार संसद में पेश किया गया लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में पास नहीं हो पा रहा है । पिछले साल सितंबर में इस बिल को संसद में पेश हुए बीस साल हो गए । ये पास क्यों नहीं हो पा रहा है इसके पीछे की सोच पर विचार करने की जरूरत है । हमारे पुरुष प्रधान समाज के नेता इस तरह का बयान देते हैं कि अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण देने का कानून बन जाता है तो सदन में सीटियां गूंजेगीं । महिला आरक्षण के विरोध को पूरे देश ने देखा था कि संसद किस तरह से एक सांसद की करतूत से शर्मसार हो गया था । अगर हम सचमुच महिला अधिकारों को लेकर संजीदा हैं तो समग्रता में संविधान के तमाम विरोधाभासों को दूर करना होगा ताकि परंपरा के नाम पर लोकतंत्र बंधक ना बने। 

सियासत की विरासत से परहेज क्यों ?

अभी हाल ही में तमिलनाडू में जिस तरह का सियासी ड्रामा हुआ उसपर विराम तो लग गया है लेकिन अंदेशा इस बात का है कि ये विराम अस्थायी है । जयललिता की विरासत को लेकर पनीरसेल्वम और शशिकला के खेमे के बीच जोर आजमाइश के कई दौर अभी बाकी हैं । अम्मा की जगह चिनम्मा आ तो गईं लेकिन उनकी रहनुमाई कई अन्य नेताओं को मंजूर नहीं है । वो तो सुप्रीम कोर्ट ने शशिकला को जेल भेज दिया नहीं तो पलानीस्वामी की जगह वही तमिलनाडू की कमान संभालती । दरअसल यह पूरा खेल जयललिता की राजनीतिक विरासत पर कब्जे को लेकर है । जयललिता ने पार्टी में दूसरे नंबर का नेता बनाया ही नहीं या फिर किसी को इस तरह का दर्जा नहीं दिया । लिहाजा जब उनकी मृत्यु हुई तो एआईएडीएमके में उनकी विरासत को लेकर ड्रामेबाजी शुरू हो गई । दरअसल यह सिर्फ तमिलनाडू की सियासत में नहीं हुआ है । इस तरह के वाकए सभी राजनीतक दलों में देखने को मिलते हैं । हाल ही में इसका नमूना उत्तर प्रदेश में देखने को मिला था जहां मुलायम सिंह यादव की विरासत को लेकर उनके बेटे अखिलेश यादव और उनके छोटे भाई शिवपाल यादव के बीच तलवारें खिचीं थी । उपर से देखने पर ये भले ही अमर सिंह या फिर अन्य मसलों को लेकर अधिकारों की लड़ाई लगे लेकिन दरअसल ये पूरा झगड़ा मुलायम की विरासत पर कब्जे की जंग को लेकर है । अखिलेश को लगता है कि मुलायम सिंह यादव के पुत्र होने की वजह से उनकी सियासी विरासत पर उनका हक है, उधर शिवपाल सिंह यादव लगातार इस बात का संकेत देते रहते हैं कि नेताजी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उन्होंने समाजवादी पार्टी को खड़ा किया है । जहां जहां कुनबा बड़ा है वहां सत्ता का ये संघर्ष भी बड़ा है और हर कोई अपने हिस्से को लेकर सजग और आक्रामक दिखाई देता है । इन दोनों दलों के अलावा अगर दो हजार तेरह और चौदह की देश की राजनीति पर नजर डालें तो उस दौर में भारतीय जनता पार्टी में भी नेतृत्व को लेकर अच्छी खासी मशक्कत हुई थी । नरेन्द्र मोदी अपनी कुशल रणनीति और मजबूत छवि की बदौलत भले ही बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व पर काबिज हो गए लेकिन उस वक्त भी लालकृष्ण आडवाणी के सियासी ड्रामे के बाद । गोवा में पार्टी की बैठक से लेकर लालकृष्ण आडवाणी के खत तक में यह संघर्ष देखने को मिला था । बीजेपी में नेतृत्वन की विरासत को लेकर उठा बवंडर की प्रकृति भले ही तमिलनाडू और उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के तूफान से अलग हो लेकिन दोनों जगह विरासत ही सियासी अखाड़ेबाजी का आधार बनी ।
अभी भले ही एआईएडीएमके में जारी सियासी झगड़े पर डीएमके इपनी राजनीतिक गोटियां सेट करने में लगा है लेकिन अलग अलग मौके पर पांच बार तमिलनाडू में सत्ता संभालने वाले करुणानिधि के कुनबे में भी जो कलह हुआ था उसके पीछे भी वजह तमिल राजनीति के इस पुरोधा की राजीतिक विरासतत ही थी । करुणानिधि के बेटों अड़ागिरी और स्टालिन के बीच विरासत को लेकर जमकर झगड़ा हुआ था । एम के स्टालिन ने बहुत करीने से डीएमके कार्यकर्ताओं के बीच अपने को करुणानिधि के वारिस के तौर पर स्थापित करना शुरू कर दिया था उधर अड़ागिरी मदुरै और उसके आसपास के इलाकों में अपनी ताकत बढ़ाने में जुटे थे । दोनों के बीच के संघर्ष में करुणानिधि ने स्टालिन को चुना और अड़ागिरी पार्टी से बाहर हो गए । पारिवारिक सत्ता संग्राम में भाई भतीजों के बीच भी मलाई बंटती है और कालांतर में वो भी इस संघर्ष में इस या उस पक्ष के साथ हो जाते हैं । ये मुलायम परिवार में भी देखने को मिला और यही करुणानिधि के परिवार में भी रेखांकित किया जा सकता है । आंध्र प्रदेश की राजनीति में भी एन टी रामाराव की विरासत को लेकर उनके परिवार में संघर्ष हुआ था । एन टी रामाराव को तो उनके दामाद ने चंद्रबाबू नायडू ने ही मुख्यमंत्री की कुर्सी से अपदस्थ कर दिया क्योंकि उनको शक था कि एनटीआर अपनी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती को सत्ता सौंपना चाहते थे । उस वक्त एनटी रामाराव के बेटों ने चंद्रबाबू का साथ दिया था लेकिन मुख्यमंत्री बनते ही को नायडू ने सबको किनारे लगा दिया । अब्दुल्ला परिवार के बेटों और दामाद के बीच सत्ता को लेकर विवाद हुआ था । कुछ दिनों पहले जब महागठबंधन ने बिहार विधानसबा चुनाव में बीजेपी को मात देकर सत्ता हासिल की तो लालू यादव के कुनबे में उनके बेटों और बेटी के बीच उपमुख्यमंत्री पद को लेकर मतभेद की खबरें आई थी । एक बेटे को उपमुख्यमंत्री बनाने के बाद दूसरे को मंत्री और बेटी को राज्यसभा में भेजकर इस झगड़े को सुलझाने का प्रयास किया गया लेकिन यहां भी यह कितना स्थायी है यह भविश्य के गर्भ में है ।   इन पार्टियों में इस तरह का झगड़े इस, वजह से भी होते हैं कि ये किसी एक शख्स के इर्दगिर्द चलनेवाले दल हैं और किसी विचारधारा से इनका बहुत लेना देना होता नहीं है । विचारधाराओं के आधार पर चलनेवाली पार्टियों में सत्ता संघर्ष का इतना वीभत्स रूप दिखाई नहीं देता है ।
कांग्रेस में विरासत को लेकर सियासी संघर्ष इस वजह से देखने को नहीं मिलता है क्योंकि इस पार्टी में ज्यादातर एक परिवार के लोग ही नेतृत्व देते रहे । इंदिरा गांधी को नेहरू और शास्त्री के निधन के बाद नेतृत्व के लिए कठिनाई का सामना करना पड़ा था और पार्टी टूटी भी थी । लेकिन परिवार के करिश्मे और इंदिरा गांधी के सियासी कौशल ने उनको स्थापित कर दिया था । कालांतर में जब राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया ने राजनीति में नहीं आने का एलान किया था तब नेतृत्व की विरासत को लेकर एक बार पार्टी में फिर टूटी थी और नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह ने कांग्रेस तिवारी बना ली थी । यह तो इतिहास है कि सोनिया के राजनीति में उतरने के फैसले के बाद सीताराम केसरी के साथ क्या हुआ था । जिस तरह से इन नेताओं की विरासत को लेकर जंग होती है वो कबीलाई सरदारों की जंग की तरह नजर आती है । फर्क सिर्फ इतना है कि कबीलाओं में सत्ता को लेकर हिंसक झगड़े हुआ करते थे लेकिन इस जंग में खून नहीं बहता है । सत्ता को लेकर सियासी दांव पेंच तो उसी तरह के चलते हैं ।
अगर हम इन पारिवारिक पार्टियों में जारी संघर्ष पर नजर डालें और उसके पीछे की वजहों का विश्लेषण करें तो यह साफ तौर पर नजर आता है कि सियासी विरासत के अलावा अकूत संपत्ति पर हक को लेकर भी ये झगड़े होते हैं । जिस तरह से हाल के दिनों में निजी कंपनियों का दबदबा देश में बढ़ा है या उनका कारोबार उन क्षेत्रों में भी फैला है जिनमें पहले सरकारी कंपनियों का एकाधिकार था, उसके बाद से क्षेत्रीय नेताओं पर आय से अदिक संपत्ति के मामले भी बढ़े हैं । राजनीति में पैसों का जो खेल होता है उसके केंद्र में हमेशा से नेता ही होता है और परिवार के लोगों को इसकी जानकारी होती है । राजनीति में पैसों के दबदबे से विरासत को लेकर संघर्ष सामने आता है । विरासत की जंग को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा मिले, हलांकि फिलहाल इसकी कोई सूरत नजर आ नहीं रही है । चुनाव आयोग ही अगर कोई कड़ा कदम उठा सके तो शुरुआत हो सकती है ।


Monday, February 20, 2017

धर्म की आड़ में अपमान क्यों ?

बीते रविवार तो दिल्ली में जश्न-ए-ऱेख्ता खत्म हुआ । उर्दू भाषा के इस उत्सव में काफी भीड़ इकट्ठा होती है । बॉलीवुड सितारों से लेकर मंच के कवियों की महफिल सजती है । प्रचारित तो यह भी किया जाता है कि ये तरक्कीपसंद और प्रोग्रेसिव लोगों का जलसा है । होगा । लेकिन इस बार जश्न-ए-रेख्ता में जो हुआ वह इस आयोजन को और इसके आयोजकों को सवालों के घेरे में खड़ा करता है और यह साबित भी करता है कि इस कथित प्रग्रोसिव जलसे में कट्टरपंथियों का भी जुटान होता है । क्या हमारे देश की यह तहजीब है कि सड़सठ साल के एक बुजुर्ग को चारो ओर से घेर कर हल्ला कर किसी समारोह से जाने के लिए मजबूर कर दिया जाए । जश्न ए रेख्ता में मौजूद लोगों ने पाकिस्तानी मूल के लेखक तारिक फतेह के खिलाफ नारेबाजी की और उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर अपशब्द भी कहे । इस बात की जानकारी खुद तारेक फतेह ने ट्वीट करके दी । आयोजकों की तरफ से भी बाद में जो सफाई आई वो भी आपत्तिजनक है । इस घटना पर खेद प्रकट करने की बजाए उन्होंने साफ किया कि तारिक फतेह को किसी सेशन के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था । आयोजकों को कार्यक्रम के चलते रहने की फिक्र थी लेकिन एक स्कलॉर के अपमान का अफसोस शायद उनको नहीं था । किसी भी कार्यक्रम के आयोजक की ये जिम्मेदारी बनती है कि वो अपने मेहमानों की सुरक्षा और उनके मान के लिए प्रयत्न करे । जश्न-ए-रेख्ता के आयोजकों की तरफ से ऐसा कोई संदेश सामने नहीं आया । इससे भी अफसोसनाक तो प्रगतिशील जमात का तारिक फतेह के समर्थन में नहीं उठना रहा । असहिष्णुता के विरोध में बवंडर खड़ा करनेवाले भी कमोबेश खामोश रहे ।  दरअसल तारेक फतह बलोचिस्तन की आजादी की वकालत करते हैं और इस्लाम के कट्टरपंथियों को तार्किक तरीके से एक्सपोज करते हैं । वो दक्षिण एशिया खासकर पाकिस्तान की करतूतों का हमलावर तरीके से विरोध करते हैं लिहाजा कट्टरपंथियों के निशाने पर रहते हैं । क्या किसी साहित्यक आयोजन में इस तरह का वाकया हमें समाज में बढ़ती असिहुष्णता की ओर इशारा करती है ।
इसी तरह का वाकया हाल ही में समाप्त हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में देखने को मिला था जहां तस्लीमा नसरीन की मौजूदगी पर कुछ मुस्लिम संगठनों ने विरोध प्रकट किया था और नारेबाजी भी की थी । तस्लीमा का विरोध कर रहे चंद मुस्लिम संगठनों के दबाव में आयोजकों ने उनको भविष्य में जयपुर लिट फेस्ट में नहीं बुलाने का एलान किया।  मुस्लिम संगठनों के दबाव में आयोजकों ने अगर तस्लीमा को नहीं बुलाने का फैसला बरकरार रखा तो तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा । तस्मीमा के विरोध और जयपुर लिट फेस्ट के आयोजकों की उनको भविष्य में नहीं बुलाने के आश्वासन पर भी हमारे बौद्धिक समाज में किसी तरह का कोई स्पंदन नहीं हुआ । यह भी एक किस्म की बौद्धिक बेइमानी है जब अभिव्यक्ति की आजादी पर चुनिंदा तरीके से अपनी प्रतिक्रिया देते हैं । जब बौद्धिक समाज या कोई विचारधारा अपने आंकलन में पक्षपात करने लगता है तब यह मान लेना चाहिए कि उसका संक्रमण काल है और वाम विचारधारा के अनुयायी करीब करीब हमेशा इस तरह का ही प्रतिक्रिया प्रदर्शन करते हैं । एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते हमें ये विचार करना होगा कि तस्लीमा या तारेक फतेह के खिलाफ हई घटना छोटी घटना नहीं है और इसको हल्के में नहीं लिया जा सकता है । अब इस बात पर विचार करना होगा कि धार्मिक कट्टरता के खिलाफ किस तरह की रणनीति बनाई जाए क्योंकि कट्टरता ही आतंकवाद की नर्सरी है । कट्टरता के खात्मे के लिए आवश्यक है कि पूरी दुनिया के बौद्धिक इसके खिलाफ एकजुट हों और अपने अपने देशों में आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा दें । इस्लामिक बुद्धिजीवियों पर जिम्मेदारी ज्यादा है । उनको धर्म की आड़ में कट्टरता को पनपने से रोकने के लिए धर्म की गलत व्याख्या पर प्रहार करना होगा । धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ बोलना शुरू करना होगा । हर विचारधारा और धर्म के लोगों को गलत को गलत कहने का साहस दिखाना होगा । हम किसी अन्य धर्म में बढ़ रही कट्टरता का विरोध करना इस तर्क के आधार पर नहीं छोड़ सकते हैं कि यह उनका आंतरिक मामला है । जब बात मानवता और इंसानियत की आती है तो फिर वो मामला किसी का भी आंतरिक नहीं रह जाता है क्योंकि आतंक की तबाही ना तो धर्म देखती है और ना ही रंग वो तो सिर्फ जान लेती है ।
हाल की आतंकवादी वारदातों,चाहे वो बांग्लादेश की आतंकवादी वारदात हो या फिर पेरिस में भीड़ पर आतंकवादी हमला या तुर्की में हुआ आतंकवादी हमला, पर नजर डालें तो खतरनाक प्रवृत्ति दिखती है । इन हमलावरों की प्रोफाइल देखने पर आतंकवाद को लेकर चिंता बढ़ जाती है । आश्चर्य तब होता है जब एमबीएम और इंजीनियरिंग के छात्र भी आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने लगते हैं, हमले करने लगे हैं । रमजान के पाक महीने में बांग्लादेश, पेरिस और मक्का समेत कई जगहों पर आतंकवादी वारदातें हुईं थीं । ढाका पुलिस के मुताबिक बम धमाके के मुजरिम शहर के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले छात्र थे । पूरी दुनिया में इस बात पर मंथन हो रहा है कि इस्लाम को मानने वाले पढ़े लिखे युवकों का रैडिकलाइजेशन कैसे संभव हो पा रहा है । जबतक गलत को गलत कहने का साहस हम नहीं दिखा पाएंगे या फिर तस्लीमा और तारेक फतह के साथ हुई घटना का पुरजोर तरीके से विरोध नहीं करेंगे और उसको धर्म की आड़ देते रहेंगे तो कट्टरता को बढ़ावा मिलता रहेगा । यही कट्टरता कालांतर में मानवता की दुश्मन बनकर खड़ी हो जाती है । तब हम सिर्फ अफसोस कर सकते हैं ।


Saturday, February 18, 2017

मिथकीय लेखक का जाना

हिंदी में इस बात की चर्चा लगभग नहीं के बराबर होती है और एक खास किस्म के लेखक को लुगदी साहित्य लेखक कहकर दरकिनार कर दिया जाता है । ऐसे ही एक लेखक थे वेदप्रकाश शर्मा । लगभग पौने दो सौ उपन्यास लिखनेवाले वेदप्रकाश शर्मा का शुक्रवार को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया । कम ही लोगों को यह बात मालूम होगी कि वेद प्रकाश शर्मा के मशहूर उपन्यास वर्दी वाला गुंडा की करीब आठ करोड़ प्रतिया बिकी थीं । राजीव गांधी की हत्या पर जब यह उपन्यास लिखा गया था तब शुरुआत में ही इसकी पंद्रह लाख प्रतियां छापी गई थीं । हिंदी के पाठकों में इस उपन्यास को लेकर दीवानगी थी । उन्नीस सौ तेरानवे में छपे इस उपन्यास के लिए कई शहरों में पोस्टर और होर्डिंग लगे थे । मेरे जानते किसी राजनीतिक शख्सियत की हत्या पर लिखा गया हिंदी का यह इकलौता उपन्यास है । वेद प्रकाश शर्मा के कई उपन्यासों पर फिल्में बनी जिनमें वर्दी वाला गुंडा, सबसे बड़ा खिलाड़ी और इंटरनेशनल खिलाड़ी प्रमुख हैं । उन्नीस सौ पचासी में उनके उपन्यास बहू मांगे इंसाफ पर शशिलाल नायर के निर्देशन में बहू की आवाज के नाम से भी फिल्म बनी थी । वेद प्रकाश शर्मा हर साल दो तीन उपन्यास लिखते थे और हर उपन्यास की डेढ लाख प्रतियां छपती थीं । जब उनका सौवां उपन्यास कैदी नंबर 100 छप रहा था तो प्रकाशकों ने एलान किया था कि इसकी ढाई लाख प्रतियां छापी जा रही हैं ।

वेद प्रकाश शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक गांव में हुआ था और हाईस्कूल में उन्होंने पहली कहानी लिखी और उनका पहला उपन्यास भी हाई स्कूल में ही पढ़ते वक्त छपा था जिसका नाम था- सीक्रेट फाइल लेकिन यह उपन्यास वेदप्रकाश कांबोज के नाम से छपा था । वेद प्रकाश शर्मा की खासियत थी उनके उपन्यासों के शीर्षक । इस वक्त टेलीविजन चैनलों पर अपराध से लेकर राजनीतिक खबरों में जिस तरह की भाषा और एंकर के पीछे वॉल पर शीर्षक लिखे जाते हैं वो वेदप्रकाश शर्मा की भाषा से बहुत प्रभावित हैं जैसे- लुटेरी दुल्हन, बीबी का नशा, बहू मांगे इंसाफ, साजन की साजिश जैसे उनके उपन्यासों मे टीवी के स्क्रिप्ट राइटर को प्रभावित किया । यह अनायास नहीं है कि जब आमिर खान अपनी फिल्म तलाश का प्रमोशन करने निकलते हैं तो वो सबसे पहले मेरठ जाकर वेद प्रकाश शर्मा से मुलाकात करते हैं । यह अनायास नहीं है कि वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों का उनके पाठकों को इंतजार रहता था । अब वेद प्रकाश शर्मा की परंपरा उनके बेटे शगुन निभा रहे हैं जिनके उपन्यास भी पाठकों के बीच खूब लोकप्रिय हो रहे हैं । 

खुल्लम-खुल्ला से खुलते राज

हाल के दिनों में अपने चंद ट्वीट्स को लेकर खासे चर्चा में आए ऋषि कपूर की आत्मकथा जब बाजार में आई तो उसके नाम को लेकर भी लेकर एक उत्सकुकता का वातावरण बना । पत्रकार मीना अय्यर के साथ मिलकर उन्होंने अपनी जिंदगी के कई पन्नों को खोला । अपने पिता और खुद की प्रेमिकाओं के बारे में खुल कर लिखा है । यह किताब शास्त्रीय आत्मकथा से थोड़ा हटकर है क्योंकि इसमें हर वाकए पर ऋषि कपूर कमेंटेटर की तरह अपनी राय भी देते चलते हैं । ऋषि कपूर  ने साफ लिखा है कि जब उनके पापा का नरगिस जी से अफेयर चल रहा था तब घर में सबको मालूम था लेकिन उसकी मां कृष्णा ने बहुत विरोध आदि नहीं किया या इस विवाहेत्तर संबंध को लेकर घर में लड़ाई झगड़ा नहीं हुआ । जब राज कपूर का वैजयंतीमाला से प्रेम संबंध बना तो कृष्णा अपने बच्चों के साथ राज कपूर का घर छोड़कर होटल में रहने चली गई थीं और बाद में अलग घर में । राज कपूर ने तमाम कोशिशें की लेकिन कृष्णा घर तभी लौटीं जब राज और वैजयंती के बीच ब्रेकअप हो गया । इस पूरे प्रसंग को बताते हिए ऋषि इस बात पर हैरानी भी जताते हैं कि वैजयंती माला ने चंद साल पहले एक इंटरव्यू में अरने प्रेम संबंध से इंकार कर दिया था और कहा था कि राज कपूर ने पब्लिसिटी के लिए ये कहानी गढ़ी थी । ऋषि साफ तौर पर कहते हैं कि वैजयंतीमाला को तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश नहीं करना चाहिए वो भी तब जब राज कपूर अपने बचाव के लिए नहीं हैं ।
इसी तरह से ऋषि ने अपनी गर्लफ्रेंड यास्मीन से अपने संबधों के बारे में बताया है । ऋषि ने माना है कि एक फिल्म पत्रिका में उनके और डिंपल के बीच रोमांस की खबरों ने यास्मीन को उनसे अलग कर दिया । यास्मीन के गम में वो कई दिनों तक डूबे रहे थे और एक दिन होटल में यास्मीन को देखकर शराब के नशे में हंगामा किया था । जबकि उन्होंने साफ तौर पर माना है कि डिंपल से उनको कभी प्यार हुआ ही नहीं था । हलांकि कई सालों के बाद उन्होंने डिंपल के साथ फिर से सागर फिल्म में काम किया था तो उस दौर में नीतू सिंह भी दोनों के बीच के रिश्ते को लेकर सशंकित हो गई थी ।
ऐसा नहीं है कि इस किताब में सिर्फ प्यार मोहब्बत के किस्से ही हैं । इस में ऋषि कपूर ने अपनी असफलता के दौर पर भी लिखा है और माना है कि उस दौर में वो अपनी असफलता के लिए नीतू सिंह को जिम्मेदार मानने लगे थे इस वजह से पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव आ गया था । लेकिन इस किताब का सबसे मार्मिक प्रसंग है जब राज कपूर अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती थे तो दिलीप कुमार उनसे मिलने आए थे । अस्पताल में बेसुध पड़े राज कपूर के हाथ को पकड़कर दिलीप कुमार ने कहा था- राज, अब उठ जा । तू हमेशा से हर सीन में छाते रहे हो, इस वक्त भी सारे हेडलाइंस तेरे पर ही है । राज आंखे खोल, मैं अभी पेशावर से आया हूं और वहां से कबाब लेकर आया हूं जो हमलोग बचपन में खाया करते थे । दिलीप कुमार बीस मिनट तक ऐसी बातें करते रहे थे । ऋषि ने बताया कि दोनों के बीच जबरदस्त प्रतिस्पर्धा रहती थी लेकिन दोनों बेहतरीन दोस्त थे । खुल्लम-खुल्ला में ऋषि ने सचमुच दिल खोल दिया है ।

हिंदी की ताकत का करार


बिहार की राजधानी पटना में आयोजित पुस्तक मेला हाल ही में संपन्न हुआ है । पुस्तक मेलों के लिहाज से देखें तो पटना पुस्तक मेला देश के बड़े पुस्तक मेलों में शुमार होता है । दिल्ली में आयोजित विश्व पुसतक मेला की ही तरह पटना में भी सांस्कृतिक कार्यक्रम और साहित्यक मसलों पर मंथन होता रहता है । पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में आयोजित इस पुस्तक मेले को पूरब का सांस्कृतिक कुंभ कहना गलत नहीं होगा । ग्यारह दिन चलनेवाले इस पुस्तक मेले को लेकर देशभर के साहित्यकारों में उत्सुकता बनी रहती है । सहभागिता को लेकर भी और हाय हुसैन सिंड्रोम को लेकर भी पुस्तक मेला चर्चा में रहता है । इस बार तो इस मेले ने सोशल मीडिया पर भी अपनी जबरदस्त उपस्थिति दर्ज करवाई । इसके पक्ष और विपक्ष में कमेंट्स लिखे गए । कुछ ऊलजलूल आरोप भी लगे । बावजूद इसके यह आयोजन खूब सफल रहा और अपने तेइसवें संस्करण में भी पाठकों का जबरदस्त प्यार इसको मिला। इस बार पटना पुस्तक मेले में दलित साहित्य से लेकर लेखन से गायब होते रोमांस तक की चर्चा हुई । नरेन्द्र कोहली से लेकर स्थानीय लेखकों ऋषिकेश सुलभ और आलोक धन्वा की भागीदारी रही ।  बच्चों को लेकर दिनभर पुस्तक मेले में कार्यक्रम हुए लेकिन इस बार पुस्तक मेले में एक ऐसी साहित्यक घटना घटी जिसकी अनुगूंज काफी लंबे समय तक साहित्य जगत में सुनाई देनेवाली है ।
हिंदी में इस बात को लेकर हमेशा से रोना रोया जाता है कि लेखकों को पैसे नहीं मिलते । हिंदी की किताबों की कम बिक्री को लेकर लेखकों और प्रकाशकों के बीच चिंता देखी जा सकती है । इस बात पर कमोबेश हर गोष्ठी आदि में रेखांकित किया जाता है कि हिंदी में खरीदकर पढ़नेवाले पाठक नहीं हैं । बहुधा प्रकाशकों और लेखकों के बीच संबंध खराब होने की वजह किताबों की रॉयल्टी ही बनती रही है । लेकिन पटना में जो हुआ वो हिंदी में एरर नई मिसाल कायम करनेवाला है । बिहार के सबसे पुराने प्रकाशकों में से एक नोवेल्टी प्रकाशन ने अपने स्थापना के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर अब साहित्यक प्रकाशन के क्षेत्र में कदम रखने का फैसला लिया है । ब्लूबर्ड नाम के नए प्रकाशन की शुरुआत के साथ ही नोवेल्टी प्लेटिनम सीरीज के तहत स्तरीय साहित्यक कृतियों के प्रकाशन की योजना बनाई है । संस्थान ने ऐलान किया कि थोक के भाव से साहित्यक कृतियों के प्रकाशन की बजाए वो साल में एक या दो ऐसी किताबों को छापेगा जिन्हें वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुंचाकर इस मिथक को तोड़ने का प्रयास होगा कि हिंदी में किताबें नहीं बिकती हैं । नोवेल्टी ने अपने इस नए उपक्रम नोवेल्टी प्लेटिनम के तहत पहली किताब चुनी है हिंदी के कथाकार, मीडिया विशेषज्ञ और संस्कृतिकर्मी रत्नेश्वर कुमार सिंह की । उनके उपन्यास रेखना मेरी जान को इस सीरीज के तहत प्रकाशित करने का एलान करते हुए नोवेल्टी ने रत्नेश्वर के साथ एक करोड़ पचहत्तर लाख के अनुबंध की घोषणा भी की । यह किसी भी भारतीय प्रकाशक के लिए किसी एक लेखक को दी जानी वाली अबतक की सबसे बड़ी राशि है । अनुबंध के लिए साइनिंग अमांउट के तौर पर रत्नेश्वर को ढाई लाख का चेक मेले के दौरान हुए प्रेस कांफ्रेंस में सौंपा गया । प्रकाशक ने रेखना मेरी जान की दस लाख प्रतियां बेचने का लक्ष्य रखा है । नोवेल्टी के अमित झा का दावा है कि उन्हें हिंदी की ताकत का एहसास है और उसके हिसाब से ही उन्होंने रत्नेश्वर की किताब को बेचने की रणनीति बनाई है । तीन अप्रैल से इस किताब की ऑनलाइन बुकिंग शुरू हो रही है और पांच अप्रैल से पाठकों के लिए उपलब्ध हो जाएगी । किसी एक किताब के लिए इस तरह की रणनीति और महात्वाकांक्षी लक्ष्य हिंदी में तो कम से कम पहली बार देखने को मिल रहा है । तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए लेखक और प्रकाशक दोनों मिलकर इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जुटे हुए हैं । देशभर के हर शहर में इस उपन्यास को लेकर कार्यक्रम आदि करने की योजना है जिसमें लेखक की मौजूदगी होगी और वो अपने पाठकों से संवाद भी करेंगे ।

अभी कुछ सालों पहले ही अंग्रेजी के एक प्रकाशक ने शिवा त्रैयी पर उपन्यास लिखनेवाले अंग्रेजी के स्टार लेखक अमीष त्रिपाठी के साथ उनके आगामी उपन्यासों के लिए पांच करोड़ रुपए का करार किया था । उस करार में किताब, आडियो बुक और ई बुक्स का वैश्विक अधिकार भी शामिल था । अमिष के प्रकाशक ने उनकी किताबों की बिक्री को आधार बनाकर यह करार करने का दावा किया था । अमिष त्रिपाठी पहले से बेस्टसेलर रहे हैं और अंग्रेजी में किताबों का एक बड़ा बाजार पहले से रहा है । पर फिर भी अमिष त्रिपाठी के उस करार को लेकर बाद में कई विवादित बातें सामने आई थी । लेकिन हिंदी में एक किताब के लिए पौने दो करोड़ का करार परीकथा की तरह लगता है । हिंदी के लेखकों को इस करार पर यकीन करने में मुश्किल हो रही है । रत्नेश्वर का प्रतीक्षित उपन्यास ग्लोबल वार्मिंग को केंद्र में रखकर लिखा गया है । ग्लोबल वार्मिग जैसे बड़े विषय के बड़े कैनवास के बीच इस उपन्यास में एक बेहदद इंटेंस प्रेम कथा भी साथ साथ चलती है । ग्लोबल वार्मिंग जैसे गंभीर विषय के साथ प्रेम को जोड़कर कथा को आगे बढ़ानेवाले रत्नेशवर को उम्मीद है कि पाठकों को यह विषय बहुत पसंद आएगा । आत्मविश्वास से लबालब रत्नेश्वर कहते हैं कि जिस देश में करीब साठ करोड़ हिंदी भाषी हों वहां दस लाख किताबें बिकनी ही चाहिए और इसपर जो लोग सवाल खड़े कर रहे हैं उनको हिंदी की ताकत का एहसास नहीं है । उनको उम्मीद है कि रेखना मेरी जान के प्रकाशन के बाद एक बार फिर से हिंदी की ताकत स्थापित होगी । रत्नेश्वर पौने दो करोड़ रुपए के करार को लेकर उत्साहित तो थे लेकिन दिमाग सातवें आसमान पर नहीं है । एक उपन्यास के लिए पौने दो करोड़ का करार करने वाले पहले हिंदी लेखक बनकर रत्नेश्वर को अपनी जिम्मेदारी का एहसास है। वो कहते हैं कि इस करार के बाद उनसे हिंदी की ताकत को स्थापित करने की साथी लेखकों और पाठकों की अपेक्षा बहुत ज्यादा है । वो इस बात से पूरी तरह से मुतमईन हैं कि उनका उपन्यास हिंदी लेखन में एक कीर्तिमान स्थापित करेगा और उसकी प्रतिष्ठा उसको हासिल होगी । 

संपादक और प्रकाशक की साख पर सवाल

दो हजार सात में जब ओमप्रकाश सिंह के संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली का प्रकाशन हुआ था तो उसके विमोचन के मौके पर नामवर सिंह ने कहा था कि आचार्य शुक्ल के ग्रंथावली पर मैं भी काम करना चाहता था लेकिन ओमप्रकाश सिंह ने बहुत मेहनत के साथ इस ग्रंथावली का संपादन किया है । उन्होंने तब यह भी कहा था कि आचार्य शुक्ल पर यह ग्रंथावली पूर्ण है और इससे अधिक इस पर काम नहीं किया जा सकता है । लेकिन नौ साल में नामवर सिंह अपने कहे को भूल गए । नामवर सिंह के वय को देखते हुए इस विस्मरण पर आश्चर्य भी नहीं होता है। ओमप्रकाश सिंह के संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली के प्रकाशन संस्थान से प्रकाशन के बाद अब नामवर सिंह और आशीष त्रिपाठी के संपादन में राजकमल प्रकाशन ने रामचंद्र शुक्ल रचनावली का प्रकाशन किया है । ऐसा क्यों हुआ इसके बारे में तो नामवर सिंह ही बता सकते हैं लेकिन उनके सह संपादक आशीष त्रिपाठी ने रचनावली के पहले खंड में देहरी के नाम से एक छोटी सी टिप्पणी की है जिसमें एक जगह वो लिखते हैं -  रामचंद्र शुक्ल रचनावली की इच्छा प्रो नामवर सिंह के मन में पांच दशक से भी अधिक समय से बनी रही है । रामचंद्र शुक्ल की जन्मशती के अवसर पर वे ग्रंथावली का प्रकाशन करना चाहते थे । परंतु कतिपय कारणों से यह संभव ना हुआ । जब शुक्ल जी की रचनाएं कॉपीराइट से मुक्त हो गईं तो यह इच्छा फिर से तीव्र हो गई । पर किन्हीं कारणों से यह फिर संभव ना हुआ । अन्तत अब यह संभव हो पा रहा है । एक गहरी रचनात्मक इच्छा की तरह ही इसको देखा जाना चाहिए । इस टिप्पणी के अंत में आशीष त्रिपाठी लिखते हैं कि इस रचनावली के प्रकाशन से आचार्य शुक्ल पर समग्रता से बात करना संभव हो सकेगा, इस बहाने यदि पुन: उनके कार्यों पर चर्चा हो तो हमारा श्रम सार्थक होगा । इस रचनावली के प्रकाशन के बाद आचार्य शुक्ल पर बात तो हो रही है पर यह ना तो समग्रता में हो रही है और ना ही उनके कार्यों पर पुन: चर्चा कृतियों र पर हो रही है । आचार्य शुक्ल पर गलत कारणों से चर्चा हो रही है । चर्चा साहित्यक चोरी के आरोपों और किसी और की रचना को शुक्ल जी की रचना बताकर छापने पर हो रही है ।
दरअसल जैसे ही राजकमल प्रकाशन से रामचंद्र शुक्ल रचनावली छपकर आई तो हिंदी साहित्य को नजदीक से देखनेवालों को लगा कि पहले से मौजूद ग्रंथावली के बाद इसकी क्या जरूरत आन पड़ी । खैर रचनावली के संपादकों में से एक आशीष त्रिपाठी ने अपनी टिप्पणी में इसकी वजह का संकेत कर दिया है कि रामचंद्र शुक्ल की कृतियों के कॉपीराइट से मुक्त होने के बाद इस काम ने जोर पकड़ा । हर प्रकाशक को अपना कारोबार करने का हक है और उससे यह अपेक्षा करनी भी नहीं चाहिए कि वो साहित्य में नैतिकता के मूल्यों का झंडाबरदार बनेगा । राजकमल प्रकाशन भी कारोबारी है और उनको जहां भी कारोबार की संभावना दिखेगी वो उस संभावना को भुनाने का काम करेगा । वैसे अगर आशीष त्रिपाठी देहरी की टिप्पणी में शुक्ल रचनावली के कारणों का खुलासा कर देते तो बात और साफ हो जाती और उनके काम में भी पारदर्शिता रहती ।  
नामवर सिंह और आशीष त्रिपाठी के संपादन में रामचंद्र शुक्ल रचनावली जब छपकर आई तो लोगों ने उसको देखना प्रारंभ किया और दोनों को सामने रखकर उसपर चर्चा शुरू हो गई। इस चर्चा से एक बात निकलकर आ रही है कि ओमप्रकाश सिंह के संपादन में प्रकाशित रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली से कई अंश जस के तस उठाकर रामचंद्र शुक्ल रचनावली में रख दिए गए हैं । नामवर सिंह और आशीष त्रिपाठी के संपपादन में प्रकाशित रामचंद्र शुक्ल रचनावली में अंग्रेजी से अनुदित जो भी लेख छापे गए हैं वो ओमप्रकाश सिंह के संपादन में प्रकाशित रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली से उठाए गए हैं । इन लेखों को उठाते वक्त असवाधनीवश लेखों पर दी गई टिप्पणियों को भी शामिल कर लिया गया है । आरोप है कि यह कार्य साहित्यक चोरी की श्रेणी में आता है जहां बगैर आभार प्रकट किए किसी अन्य पुस्तक से उसका अंश उठा लिया जाता है । इस साहित्यक चोरी के आरोप से नामवर सिंह और आशीष त्रिपाठी को बच नहीं सकते । बच तो रामचंद्र शुक्ल रचनावली के प्रकाशक राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक महेश्वरी भी नहीं सकते । जब राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक महेश्वरी से बात की गई तो उन्होंने जो सफाई दी वो आशीष त्रिपाठी की देहरी में लिखी टिप्पणी जैसी ही है । अशोक महेश्वरी के मुताबिक – अभी विश्व पुस्तक मेला और पटना पुस्तक मेला की व्यस्तता और दिल्ली से बाहर रहने की वजह से मुझे इस प्रकरण की ठीक से जानकारी नहीं है।  रचनावली की मूल योजना के बनने और उसके छपने के बीच एक लंबा अंतराल रहा है। नामवर जी की देखरेख में सामग्री संचयन और संयोजन का काम आशीष त्रिपाठी जी कर रहे थे। समय लम्बा खींचता चला गया और नामवर जी का स्वास्थ्य गिरने लगा। नामवर जी की इस रचनावली को लेकर अधीरता बढ़ती गई। जैसे ही पूरी पांडुलिपि हमें मिली, नामवर जी के जन्मदिन को ध्यान में रख कर उसका प्रकाशन फौरी तौर पर हमने किया। अनूदित सामग्री के बारे में जो आरोप लग रहे हैं, इस बारे में हम रचनावली के संपादकों से बात कर वस्तुस्थिति को समझने की कोशिश कर रहे हैं। उसके बाद ही कोई भी निर्णय लेंगे। हाँ, किसी के साथ अन्याय न हो, इस बात का पूरा ध्यान हमारी तरफ से रखा जाएगा।‘  सवाल यही उठता है कि इस तरह की असावधानी राजकमल जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह से कैसे हो सकती है । इतना वक्त बीत जाने के बाद भी अबतक वस्तुस्थित को समझने की कोशिश करना भी संदेह पैदा करता है । हिंदी साहित्य जगत में राजकमल प्रकाशन की प्रतिष्ठा के मद्देनजर प्रकाशक को फौरन इस साहित्यक चोरी की तफ्तीश करनी चाहिए और समग्रता में अपना पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए । अगर ऐसा हो पाता है तो इस प्रकाशन गृह की साख बढ़ेगी नहीं तो साहित्यक चोरी के आरोप से उनकी साख पर बट्टा लगना तय है । साख का छीजना सबसे खतरनाक होता है कारोबार में भी और साहित्य में भी । यहां एकसवाल मन में यह भी उठता है कि अगर साहित्यक चोरी का मामला बनता है तो ग्रंथावली के प्रकाशक प्रकाशन ओमप्रकाश सिंह ने कोई कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की । 
यह माना जा सकता है कि नामवर सिंह अब उतने सक्रिय नहीं हैं कि वो पुस्तक का प्रूफ आदि देख सकें लेकिन उनके साथी संपादक ने भी कई असावधानियों को जाने दिया है । रचनावली में एक जगह नामवर जी की भूमिकानुमा लेख में छपा है इस पर फिर कभी । नामवर सिंह ने लिखना काफी पहले छोड़ दिया है उनको भाषणों का संकलन आशीष त्रिपाठी लंबे समय से कर रहे हैं । अब अगर उनके भाषण को किसी खंड की भूमिका के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है तो उसमें सावधानी बरतनी चाहिए थी । नामवर जी से पूछकर उसको संपादित किया जा सकता था । वैसे भी अशोक महेश्वरी के मुताबिक नामवर सिंह की देखरेख में इस रचनावली का काम-काज चल रहा था तो उनको भी इस बारे में ध्यान रखना था । आचार्य रामचंद्र शुक्ल रचनावली के आठवें खंड में गोपाल सखा नाम का एक नाटक छपा है जिसके अंत में लिखा है – रामलाल सिंह के सौजन्य से । जबकि गोपाल सखा नाटक को शुक्ल जी का नाटक बताने पर पहले भी विवाद हो चुका है, जब यह नाटक साक्षात्कार पत्रिका में छपा था । इस पूरे विवाद के बाद यह निकलकर आया था कि गोपाल सखा नाटक शुक्ल जी का लिखा हुआ नहीं है । अब उसको एक बार फिर से आचार्य रामचंद्र शुक्ल रचनावली का हिस्सा बनाकर नामवर सिंह और आशीष त्रिपाठी ने वैधता प्रदान करने की कोशिश की है । दोनों संपादक विद्वान हैं और मानकर चलना चाहिए कि उनको गोपाल सखा नाटक पर उठे विवाद और उसके निबटारे की जानकारी होगी । अगर संपादकों के पास इस नाटक के आचार्य रामचंद्र शुक्ल का नाटक होने के बारे में कोई ठोस जानकारी हो तो उनको बताना चाहिए वर्ना हिंदी जगत से माफी मांगनी चाहिए । हिंदी साहित्य के इतिहास से छेड़छाड़ की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती है चाहे वो नामवर सिंह ही क्यों ना हों । अगर तथ्य सामने नहीं आते हैं तो प्रकाशक को फौरन इस नाटक को रचनावली से हटा देना चाहिए । दरअसल हिंदी में रचनावलियों को लेकर बहुत असावधानी से काम होता रहा है । ज्यादातर रचनावलियों और ग्रंथावलियों में असावधानी से ही काम हुआ है । जिससे आनेवाली पीढ़ियां गलत तथ्यों तके आधार पर काम कपने के लिए अभिश्पत हैं । अब अगर नामवर जी के संपादन और राजकमल के प्रकाशन में इस तरह की त्रुटियां रहती हैं तो हिंदी साहित्य के इतिहास का क्या होगा उसका भगवान ही मालिक है ।