Translate

Saturday, April 30, 2022

कलाकारों के सम्मान की संस्कृति


पिछले दिनों मुंबई जाने का अवसर मिला । महानगर के अलग अलग हिस्सों से गुजरते हुए सड़कों के नाम ने ध्यान आकृष्ट किया। मुंबई के बांद्रा इलाके से गुजरते हुए सबसे पहले नजर पड़ी एक विशाल पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर। चबूतरा छोटे छोटे सफेद पत्थरों से सजा था। उन पत्थरों के बीच उगे पौधों के बीच कलात्मक तरीके से लिखी गई एक पट्टिका लगी थी। उस पर लिखा था बिमल राय पथ। स्थानीय लोगों ने बताया कि वहां पास ही में भारतीय फिल्मों के महानतम निर्देशकों में से एक बिमल राय का घर हुआ करता था। ये वही बिमल राय हैं जिन्होंने दो बीघा जमीन, मधुमती, देवदास जैसी कालजयी फिल्मों का निर्माण किया था। थोड़ा आगे बढ़ने पर ब्रांद्रा रिक्लमेशन के एक तिराहे पर मशहूर गजल गायक पद्मभूषण जगजीत सिंह का नाम दिखा। बताया गया कि उनकी पांचवीं पुण्यतिथि पर इस तिराहे को जगजीत सिंह की स्मृति में समर्पित किया गया। ब्रांद्रा के ही पाली हिल इलाके में अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री नरगिस दत्त के नाम भी एक सड़क दिखी। फिर तो मुंबई घूमते हुए सड़कों के नाम पर नजर जाने लगी। नरीमन प्वाइंट से उपनगरीय इलाकों की तरफ बढते हुए संगीतकार नौशाद अली मार्ग दिखा। सांताक्रूज इलाके में आर डी बर्मन और खार इलाके में एस डी बर्मन साहब के नाम की पट्टिका दिखी। जुहू इलाके में कैफी आजमी के नाम पर पार्क, हास्य कलाकार महमूद के नाम पर चौक, ख्वाजा अहमद अब्बास के नाम पर एक सड़क। ये सूची बहुत लंबी है। मुंबई में परिचितों ने बताया कि पूरे महानगर में कलाकारों, लेखकों के नाम पर सड़कों और चौराहों का नामकरण किया गया है। अब भी किया जाता है।  

मुंबई में गीतकार, संगीतकार, गायक, अभिनेता, फिल्म निर्देशक आदि के नाम पर बनी सड़कों के नाम देखकर अचानक दिल्ली की सड़कों के नाम याद आने लगे। दिल्ली की सड़कों के नाम याद करने पर बाबर रोड, अकबर रोड, लोधी रोड, औरंगजेब लेन, तुगलक रोड, शेरशाह रोड, शाहजहां रोड, अशोक रोड, हुमांयू रोड, महात्मा गांधी मार्ग, इंदिरा चौक, राजीव गांधी चौक आदि का नाम जेहन में आता रहा। लेखकों आदि के नाम पर सड़कों के नाम याद करने की कोशिश करने लगा। सबसे पहले स्मरण हुआ तमिल लेखक कवि सुब्रह्मण्य भारती मार्ग का,अमृता शेरगिल मार्ग, रविशंकर लेन  का फिर याद आया रूस के प्रसिद्ध लेखक टालस्टाय के नाम बनी सड़क का और हिंदी लेखिका दिनेश नंदिनी डालमिया मार्ग का। ढाई दशक से अधिक समय से दिल्ली में रहने के बावजूद याद नहीं पड़ता कि कहीं प्रेमचंद मार्ग हो, निराला मार्ग हो या भारतीय रंगमंच के दिग्गज इब्राहिम अल्काजी के नाम पर ही किसी सड़क का नाम हो। दिल्ली देश की राजधानी है, यहां तो पूरे देश के बड़े लेखकों, कलाकारों के नाम पर सड़कों के नाम होने चाहिए। दिल्ली में रवीन्द्र नाथ टैगोर के नाम पर कोई सड़क नहीं है लेकिन इजरायल के शहर तेल अवीव में टैगोर स्ट्रीट है। दिल्ली में तेलुगू के महान लेखक वी सत्यनारायण या मलयालम के महत्वपूर्ण लेखकों में से एक जी शंकर कुरुप के नाम पर भी कोई सड़क नहीं है। स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानेवाले मध्यप्रदेश के माखनलाल चतुर्वेदी के नाम भी कोई मार्ग दिल्ली में नहीं है। 

प्रश्न ये उठता है कि दिल्ली और मुंबई में ये अंतर क्यों है? दिल्ली अपने नायकों को लेकर इतनी उदासीन क्यों है और मुंबई अपने लेखकों और कलाकरों को लेकर इतना उदार क्यों है?  इसके पीछे के कारणों को देखने पर ये प्रतीत होता है कि मुंबई मराठों की संस्कृति से प्रभावित रहा और दिल्ली मुगलों की संस्कृति के प्रभाव में रहा। मराठा राजाओं के शासनकाल के दौरान अपने कौशल या अपनी कला से समाज को प्रभावित करनेवालों को सम्मान देने की परंपरा रही है। पूरा समाज उनके प्रति एक ऋणभाव में रहता है। मुगलों के दरबार में भी कला और कलाकारों का सम्मान होता था लेकिन सर्वोच्च सम्मान  बादशाह को ही मिलता था। मुगलिया शासन के दौरान इमारतों और स्मारकों के नाम भी बादशाह या बादशाह के परिवारवालों के नाम पर ही बनाए गए। भारत में मुगल सल्तनत की स्थापना भले ही जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने की लेकिन इस देश में मुगलों की सांस्कृतिक सत्ता का संस्थापक हुमांयू था। जब हुमांयू दूसरी बार दिल्ली की गद्दी पर बैठा तब उसने भारत में फारसी कलाओं को बढ़ाना आरंभ किया था। उसने फारसी वास्तुकला, चित्रकला, स्थापत्य कला को प्राथमिकता देकर भारतीय कलाजगत को नेपथ्य में धकेलने का कार्य किया। उसने इस कार्य के लिए फारस के वास्तुविद, चित्रकार आदि हिन्दुस्तान बुलाए थे। समय के साथ भले ही मुगल सल्तनत का अंत हो गया लेकिन जिस सांस्कृतिक सल्तनत की स्थापना हुमांयू ने की थी वो अब भी किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं दिखता ही रहता है। 

मेरे देश पर मुगलों ने तीन सौ साल से अधिक समय तक शासन किया। उसके बाद अंग्रजी राज स्थापित हुआ लेकिन उसका कालखंड मुगलों की तुलना में कम रहा। भारतीय समाज और संस्कृति को अंग्रेजों ने भी प्रभावित किया लेकिन जिस योजनाबद्ध तरीके से मुगलों ने यहां की संस्कृति को बदलने का कार्य किया वो अंग्रेज नहीं कर पाए। दिल्ली की संस्कृति बादशाहों और शासकों से प्रभावित रही। स्वाधीनता के बाद भी वही हाल रहा। पहले तो कई वर्षों तक सड़कों और इमारतों के नाम अंग्रेजों और मुगल शासकों के  नाम पर रहे। स्वाधीनता के बाद जब सड़कों और इमारतों के नाम आदि बदलने आरंभ हुए तो नेताओं को ही प्राथमिकता मिली। नई दिल्ली का मंडी हाउस इलाका सांस्कृतिक केंद्र माना जाता है लेकिन वहीं पर पास में बाबर रोड है, बाबर लेन है। कलाकारों के नाम पर सिर्फ सफदर हाशमी और तानसेन मार्ग है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में दिल्ली के इस सांस्कृतिक इलाके के गोल चक्कर का नाम किसी भारतीय लेखक या कलाकार के नाम पर किया जाना चाहिए। बेहतर होता कि इंडिया गेट गोलचक्कर से निकलनेवाले मार्गों के नाम भी मुगल बादशाहों की जगह भारतीय समाज के नायकों के नाम पर रख पाते। यह अल्कपनीय है कि जिस बाबर ने हमें गुलाम बनाया, जिस हुमांयू ने हमारी संस्कृति को नष्ट करने का षडयंत्र रचा उन आततायियों के नामों को हम आज भी अपनी यादों में संजोए हुए हैं। जिस तरह से धीरे-धीरे अंग्रजों के नाम हटाकर सड़कों के नाम भारतीय नेताओं के नाम पर रखे गए उसी तरह से मुगलों के नाम पर बने सड़कों के नाम भारतीयों के नाम पर होने चाहिए। दरअसल मुगलों का नाम हटाने को लेकर राजनीति आरंभ हो जाती है और सरकारें बैकफुट पर आ जाती हैं। यह अनायास नहीं है कि दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलकर ए पी जे अब्दुल कलाम तो कर दिया गया लेकिन औरंगजेब लेन का नाम नहीं बदला जा सका। केंद्र सरकार को सड़कों के नामकरण को लेकर एक स्पष्ट नीति बनानी चाहिए। एक ऐसी नीति जिसमें ये प्रविधान हो कि लेखकों और कलाकारों के नाम पर भी सड़कों के नाम रखे जा सकें। अगर हम आनेवाली पीढ़ियों को अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत सौंपना चाहते हैं तो सबसे पहले उनके मानस पर उन कला मनीषियों का नाम अंकित करना होगा। उसका सबसे आसान तरीका है सड़कों और इमारतों का नाम उनके नाम पर रखे जाएं। इससे हमारी सांस्कृतिक विरासत भी संरक्षित होगी और आततातियों के नाम भी धीरे-धीरे इतिहास की पुस्तकों में कैद होकर रह जाएंगे। लेखकों और कलाकारों के सम्मान की सस्कृति भी विकसित होगी।  

Saturday, April 23, 2022

समृद्ध बने प्रधानमंत्री संग्रहालय


हाल ही में दिल्ली के तीन मूर्ति भवन परिसर में प्रधानमंत्री संग्रहालय का शुभारंभ किया गया ।  स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में देश के सभी प्रधानमंत्रियों को याद किया गया। इस संग्रहालय में उन सभी के योगदान को एक स्थान पर देखने समझने का अवसर उपलब्ध करवाया गया। देश की राजधानी दिल्ली में पहले से तीन प्रधानमंत्रियों की स्मृति को सहेज कर रखा गया था। जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद उनके निवास स्थान तीन मूर्ति भवन को ही नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय बना दिया गया था । नई दिल्ली के ही 1, सफदरजंग रोड को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की स्मृति में समर्पित कर दिया गया। ये वही स्थान है जहां इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। नेहरू स्मारक संग्रहालय में नेहरू जी से जुड़ी रखी गई हैं और इंदिरा गांधी स्मृति में उनसे जुड़ी सामग्रियों के अलावा महत्वपूर्ण अवसरों के चित्र आदि हैं। इस भवन में इंदिरा गांधी के पारिवारिक अवसरों के चित्र भी सहेज कर रखे गए हैं। इसके अलावा नई दिल्ली क्षेत्र में ही पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति में भी एक भवन है। इस भवन मे शास्त्री जी से जुड़ी चीजों को रखा गया है। ये भवन नई दिल्ली के 1 मोतीलाल नेहरू पैलेस, मान सिंह रोड के पास स्थित है। ये तीनों भवन बहुत बड़े भूखंड में फैले हैं। इंटरनेट मीडिया पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक इंदिरा गांधी स्मृति की जिम्मेदारी एक निजी ट्रस्ट के पास है जिसकी प्रमुख सोनिया गांधी हैं। लाल बहादुर शास्त्री स्मृति की देखभाल भी एक निजी ट्रस्ट ही करता है।

तीन मूर्ति भवन में प्रधानमंत्री संग्रहालय के शुभारंभ के आसपास इस तरह के समाचार आए कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से जुड़ी चीजें नेहरू-गांधी परिवार से मांगी गई थी, ताकि उनको संग्रहालय में संजा जा सके। नए बने संग्रहालय को गांधी परिवार की ओर से कोई सहयोग नहीं मिल पाया। खबरें तो इस तरह की भी आई थीं कि जिस परिवार ने देश को तीन प्रधानमंत्री दिए उस परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्रियों के संग्रहालय के शुभारंभ के अवसर पर उपस्थित नहीं हो सका था। संस्कृति मंत्रालय के मुताबिक गांधी परिवार को इस समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। सोनिया गांधी परिवार का प्रधानमंत्री संग्रहालय को लेकर उदासीनता के कारण स्पष्ट नजर आते हैं। गांधी-नेहरू परिवार के दो प्रधानमंत्रियों की स्मृति में बड़े-बड़े संग्रहालय बनाए गए लेकिन अन्य प्रधानमंत्रियों को लेकर उपेक्षा भाव बना रहा। यह अकारण नहीं है कि मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, आई के गुजराल और अन्य प्रधानमंत्रियों की स्मृतियों को सहेजने और उनकी उपलब्धियों को प्रदर्शित करने का कोई संस्थागत प्रयास नहीं दिखाई देता है। जबकि इन सभी प्रधानमंत्रियों का किसी न किसी रूप में देश के विकास में योगदान रहा है। नरसिम्हा राव की याद में भी कोई संग्रहालय दिल्ली में हो, ऐसा ज्ञात तो नहीं है। जबकि नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री के तौर पर देश के आर्थिक विकास को एक नई दिशा दी थी। प्रकांड विद्वान थे। कई भाषाओं के ज्ञाता थे। उनकी समृद्ध लाइब्रेरी भी थी। प्रधानमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल स्वाधीन भारत के इतिहास में कई अहम घटनाओं का गवाह रहा है। 

नरसिम्हाराव के निधन के बाद की घटनाओं को अगर याद किया जाए तो परिवार से बाहर के प्रधानमंत्रियों को लेकर उपेक्षा भाव का कारण साफ समझ आता है। 23 दिसंबर 2004 को नरसिम्हा राव का दिल्ली में निधन हुआ। उसके बाद क्या क्या घटा उसके बारे में विनय सीतापति ने अपनी पुस्तक ‘हाफ लायन, हाऊ पी वी नरसिम्हा राव ट्रासफार्म्ड इंडिया’ में लिखा है। नरसिम्हा राव का पार्थिव शरीर उनके मोतीलाल नेहरू वाले सरकारी घर में लाया गया तो उस समय के गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने  उनके पुत्र प्रभाकर को सलाह दी कि अंतिम संस्कार हैदराबाद में किया जाना चाहिए। प्रभाकर ने जब दिल्ली में अंतिम सस्कार की बात की तो शिवराज पाचिल ने बेहद रूखे अंदाज में उनसे कहा कि कोई आएगा नहीं। बाद में उस वक्त के आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी ने भी प्रभाकर को फोन करके हैदराबाद में राव के अंतिम संस्कार की बात की थी और इसके लिए उनको तैयार करने के लिए दिल्ली भी आए थे। ये प्रसंग यहीं खत्म नहीं हुआ था। उस शाम को सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी के साथ राव के अंतिम दर्शन के लिए पहुंची थीं। तब मनमोहन सिंह ने भी प्रभाकर राव से जानना चाहा था कि परिवार का राव के अंतिम संस्कार के बारे में क्या विचार है। प्रभाकर ने सोनिया गांधी की उपस्थिति में मनमोहन सिंह को दिल्ली में अपने पिता के अंतिम संस्कार करने की इच्छा जताई थी। बाद में अहमद पटेल ने भी परिवार को हैदराबाद में राव का अंतिम संस्कार करने के लिए के लिए राजी करने की कोशिश की थी। राव के परिवारवालों पर जब हैदराबाद के लिए दबाव बनने लगा तो उन्होंने दिल्ली में राव का एक भव्य स्मारक बनाने की शर्त रखी थी। राव का पार्थिव शरीर घर में रखा हुआ था और उनके अंतिम संस्कार को लेकर राजनीति हो रही थी। उसी रात को राव के परिवारवालों की तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात करवाई गई। शिवराज पाटिल ने राव के परिवार वालों की मौजूदगी में मनमोहन सिंह को दिल्ली में राव के स्मारक की बात बताई। मनमोहन सिंह ने सुनते ही स्वीकृति दे दी और परिवारवालों को भरोसा दिया कि राव का स्मारक दिल्ली में बनेगा उसमें कोई दिक्कत नहीं है। पूरे प्रकरण के दौरान प्रभाकर राव को महसूस हुआ था कि सोनिया गांधी राव का दिल्ली में अंतिम संस्कार नहीं होने देना चाहती थीं। वो दिल्ली में राव का स्मारक बनाने के पक्ष में भी नहीं थीं। इसका दबाव परिवार पर था। आखिरकार परिवार हैदराबाद में अंतिम संस्कार के लिए तैयार हो गया। लेकिन महत्वपूर्ण बात ये कि सोनिया गांधी दिल्ली में राव के स्मारक को लेकर अनिच्छुक बनी रहीं। राव के प्रति उपेक्षा भाव का असर रहा कि उनका कोई स्मारक दिल्ली में नहीं बन पाया।

यही अनिच्छा और उपेक्षा भाव दिल्ली में अन्य प्रधानमंत्रियों के संग्रहालय बनने की राह में बाधा हो सकती है। नरेन्द्र मोदी ने पार्टी और मत से ऊपर उठकर इस कार्य को किया। अब जब कि दिल्ली में सभी प्रधानमंत्रियों का संग्रहालय एक स्थान पर निर्मित हो गया है तो केंद्र सरकार को एक काम और करना चाहिए। दिल्ली में इंदिरा गांधी स्मृति और लालबहादुर शास्त्री स्मारक का भी प्रधानमंत्री संग्रहालय में विलय करने के बारे में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। सभी लोगों से सलाह मशविरा करके इसको अंतिम रूप दिया जा सकता है। इंदिरा जी को जिस स्थान पर गोली मारी गई थी उसको एक स्वरूप दिया जा सकता है और उस भवन का अन्य उपयोग किया जा सकता है। बाबरी विध्वंस के बाद श्रीरामजन्मभूमि  पर जो लोग अस्पताल और स्कूल खोलने का तर्क दे रहे थे उनको भी इन भवनों के खाली होने से अच्छा लगेगा। संभव है कि वो स्कूल और अस्पताल वाला तर्क फिर से दोहरा दें। लेकिन अगर ऐसा हो पाता है तो इसके दो लाभ होगें। एक तो देश विदेश के पर्यटकों को इंदिरा जी और लालबहादुर शास्त्री से जुड़ी सभी जानकारियां एक जगह पर उपलब्ध होंगी और उनको एक स्थान पर देखने की सहूलियत भी होगी।  तीन मूर्ति भवन में जिस भव्यता के साथ संग्रहालय का निर्माण हुआ है उसमें तकनीक का बेहतरीन उपयोग हुआ है। एक कनमी खटकती है कि सभी प्रधानमंत्रियों से जुड़ी चीजें वहां उपलब्ध नहीं है। अगर इंदिरा स्मृति और शास्त्री स्मारक को वहां शिफ्ट कर दिया जाता है तो ये कमी भी पूरी हो सकती है। 

Saturday, April 16, 2022

हिंदी को देशभाषा बनाने का हो प्रयास


कुछ दिनों पहले ‘द कपिल शर्मा शो’ पर फिल्म आर आर आर के अभिनेता एनटीआर जूनियर, राम चरण, फिल्म के निर्देशक राजामौली और अभिनेत्री आलिया भट्ट आए थे। कपिल शर्मा के शो का नाम भले ही अंग्रेजी में है, इसमें ज्यातार बातचीत हिंदी में ही होती है। दक्षिण भारतीय फिल्मों के दोनों अभिनेता न केवल हिंदी समझ रहे थे बल्कि अच्छी हिंदी बोल भी रहे थे। उस शो में उन दोनों अभिनेताओं को अच्छी हिंदी बोलते देख अर्चना पूरन सिंह ने उनसे जानना चाहा कि उन्होंने इतनी अच्छी हिंदी कहां से और कैसे सीखी जबकि वो दोनों तो दक्षिण भारत में पले बढे हैं। एनटीआर जूनियर ने तपाक से इसका उत्तर दिया कि स्कूल में। उन्होंने कहा कि स्कूल में उनकी प्रथम भाषा हिंदी थी जिससे उनको बहुत मदद मिली। इसके अलावा अब जिस तरह से क्रास पालिनेशन (परागण) मुंबई, हैदराबाद और चेन्नई के बीच हो रहा है, उससे। वो भाषाई परागण की बात कर रहे थे जिसमें देश के अलग अलग हिस्सों में बनने वाली फिल्में अलग अलग भाषाओं में डब होकर रिलीज हो रही हैं। एनटीआर की बात सुनकर आलिया ने एक और दिलचस्प तथ्य बताया कि एनटीआर जूनियर ने पूरी फिल्म में अपने संवाद को अपनी आवाज में ही हिंदी में डब किया है। आलिया के मुताबिक इससे दर्शकों को एक प्रामाणिक अनुभव मिलता है। एक घंटे से अधिक के इस शो में राम चरण और एनटीआर जूनियर ने हिंदी और अंग्रेजी में अपनी बात रखी लेकिन हिंदी समझ सब रहे थे। दक्षिण भारत की फिल्में डब होकर हिंदी में जितनी सफल हो रही हैं उसने वहां की भाषा में बनने वाली फिल्मों को सफलता का नया क्षितिज दिया है। अब वहां बनने वाली कई फिल्में तमिल और तेलुगू के साथ-साथ हिंदी में भी बन रही हैं। हिंदी में बनने वाली कुछ फिल्में भी दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनकर एक साथ सब जगह रिलीज होती हैं।  

उपरोक्त प्रसंग बताने का उद्देश्य ये है कि पिछले दिनों हिंदी को लेकर दक्षिण भारत के नेताओं और अंग्रेजी के पैरोकारों ने अकारण विवाद खड़ा किया। हुआ ये था कि कुछ दिनों पहले गृह मंत्री अमित शाह ने राजभाषा समिति की एक बैठक में कहा था कि ‘हमारे देश में अनेक प्रकार की भाषाएं हैं, कुछ प्रकार की बोलियां हैं। कई लोगों को लगता है कि ये देश के लिए बोझ हैं। मुझे लगता है कि अनेक भाषाएं और अनेक बोलियां हमारे देश की सबसे बड़ी ताकत हैं। …परंतु जरूरत है कि देश की एक भाषा हो। जिसके कारण विदेशी भाषाओं को जगह न मिले। देश की एक भाषा हो, इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए हमारे पुरखों ने हमारे स्वातंत्र्य सेनानियों ने राजभाषा की कल्पना की थी और राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किया था।‘  अपने भाषण में अमित शाह ने ना तो कुछ गलत कहा और ना ही कोई नई बात कही। अमित शाह के वक्तव्य का आशय स्पष्ट है कि हिंदी को संपर्क भाषा के तौर पर मजबूती दी जानी चाहिए और भारतीय भाषाओं को मजबूत किया जाना चाहिए। आज से दो साल पहले भी अमित शाह ने भारतीय भाषाओं को मजबूत करने के लिए आंदोलन करने जैसी बात कही थी। 

जब प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालकिला की प्राचीर से स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की घोषणा की थी उसके बाद भी अमित शाह ने भाषाई आत्मनिर्भरता की बात की थी। उस वक्त गृहमंत्री ने कहा था कि आत्मनिर्भर शब्द केवल उत्पादन के लिए नहीं है, राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए नहीं है बल्कि भाषाओं को लेकर भी आत्मनिर्भर होना होगा। तब जाकर आत्मनिर्भर भारत की कल्पना साकार होगी। बिना भाषाई आत्मनिर्भरता के आत्मनिर्भर भारत अर्थहीन है। उन्होंने उस वक्त स्वाधीनता संग्राम के दौरान तीन ‘स्व’ के महत्ता की भी चर्चा की थी। स्वदेशी, स्वभाषा और स्वराज। इन तीनों को अमित शाह ने स्वाधीनता संग्राम का स्तंभ बताते हुए कहा था कि आजादी मिलते ही स्वराज का सपना पूरा हो गया। स्वदेशी के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने अभियान छेड़ा हुआ है लेकिन स्वभाषा के लिए हम सबको मिलकर खासकर नई पीढ़ी को विशेष रूप से आगे आना होगा। तब उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के वैश्विक मंचों पर हिंदी में बोलने और बात करने को रेखांकित करते हुए कहा था कि अब अपनी भाषा को लेकर किसी लघुता ग्रंथि में रहने की जरूरत नहीं है। तब भी अमित शाह ने भारतीय भाषाओं की बात की थी। हिंदी की अनिवार्यता या उसको किसी अन्य भारतीय भाषा पर थोपने जैसी कोई बात नहीं कही थी। विवाद तब भी हुए थे क्योंकि कई क्षेत्रीय दलों को लगता है कि भाषा एक भावनात्मक मुद्दा है और उसको भुनाकर राजनीतिक लाभ कमाया जा सकता है। आज भले ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री  स्टालिन हिंदी को लेकर आक्रामक हो रहे हैं लेकिन उनको यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले सालों में हुए चुनाव के दौरान उनकी पार्टी डीएमके ने मदुरैई और उसके आसपास हिंदी में पोस्टर लगाए थे। तब उका हिंदी विरोध कहां गया था।

अमित शाह ने जब स्वतंत्रता सेनानियों और पुरखों की बात की थी तो वो ऐतिहासिक तथ्यों को रेखांकित कर रहे थे। स्वाधीनता संग्राम के दौरान हिंदी को लेकर हमारे पुरखों ने अपनी भावनाओं को सार्वजनिक किया था और उसको ताकत देने का प्रयास भी किया था। आज भले ही बंगाल की मुखख्यमंत्री ममता बनर्जी हिंदी का विरोध कर रही हैं लेकिन उनको ये नहीं भूलना चाहिए कि भूदेव मुखर्जी, शारदाचरण मित्र, सुनीति कुमार चटर्जी ने कभी हिंदी का विरोध नहीं किया। बंकिमचंद्र चटर्जी ने कहा था, ‘हिंदी एक दिन भारत की राष्ट्रभाषा होकर रहेगी क्योंकि हिंदी भाषा की सहायता से भारत के विभिन्न प्रदेशों में जो ऐक्य-बंधन स्थापित कर सकेगा वही भारत बंधु कहलाने के योग्य हैं।‘ महर्षि अरविंद ने तो अपने पत्र ‘धर्म’ में स्पष्ट लिखा था कि ‘भाषा-भेष से देश की एकता में बाधा नहीं पड़ेगी। सब लोग अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए , हिंदी को साधारण भाषा के रूप में अपनाकर, इस भेद को नष्ट कर देंगे।‘  उस समय महर्षि अरविंद हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में देख रहे थे। अमित शाह भी महर्षि अरविंद के सोच को लेकर ही आगे चल रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम के कालखंड में हमारे उन पुरखों ने हिंदी को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जो अहिंदी भाषी प्रदेशों से आते थे और जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी। बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर, केशव राव पेठे, वेणीमाधव भट्टाचार्य, शारदाप्रसाद सान्याल, रायबहादुर प्रमदादास मित्र, प्यारी मोहन वंधोपाध्याय, नीलकमल मित्र, सी राजगोपालचारी आदि के नाम इसमें प्रमुख हैं। यह सूची बहुत लंबी है। राजगोपालाचारी जब मद्रास(अब चेन्नई) जाकर राजनीति करने लगे तो उन्होंने हिंदी का विरोध आरंभ किया था, उसके पहले वो हिंदी के प्रबल समर्थक थे। 

आज जब पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है. तो हमें अपने पुरखों की हिंदी को लेकर जो सोच था उसका सम्मान करना चाहिए। राजनीति ने भारतीय भाषाओं के बीच जो वैमनस्यता पैदा की उसको दूर करने का उपक्रम करना चाहिए। इस देश में भाषा के नाम पर पहले ही बहुत हिंसा हो चुकी है, राज्यों का विभाजन हो चुका है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जिस तरह से भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की बात की गई है उससे एक उम्मीद जगती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले वर्ष काशी हिंदू विश्वविद्यालय में महाकवि सुब्रह्णण्य भारती चेयर की स्थापना की घोषणा की थी। जिस भाषाई परागण की बात एनटीआर जूनियर कर रह थे वो इस तरह के कदमों से आगे बढ़ेगा और उसके अच्छे परिणाम सामने आएंगे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कभी कहा था ‘प्रत्येक के लिए अपनी मातृभाषा और सबके लिए हिंदी।‘ यही सोच भारतीय भाषाओं को मजबूत करेगा। 


Saturday, April 9, 2022

संस्थाओं में सुधार समय की मांग


मलयालम फिल्म के एक निर्देशक हैं अदूर गोपालकृष्णन। मलयालम में नई तरह की फिल्म बनाने को लेकर उनकी ख्याति रही है। कई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। पद्मश्री और पद्मविभूषण से भी सम्मानित हैं। देश विदेश की फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। इंटरनेट मीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार इमरजेंसी के दौर (1975-1977) में पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान के निदेशक रह चुके हैं। फिल्मों से जुड़ी कई संस्थाओं की समितियों में भी लंबे समय तक रहे हैं। ये सब बताने का आशय ये है कि अदूर गोपालकृष्णन का फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं के प्रशासन आदि का लंबा अनुभव है। कई बार होता है कि अनुभवों की थाती को लेकर चल रहा व्यक्ति समय के साथ आनेवाले बदलाव की आहट को भांप नहीं पाता है। अदूर गोपालकृष्णन के साथ भी यही होता प्रतीत हो रहा है। वो इन दिनों सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अलग अलग विभागों के पुनर्गठन के फैसले की आलोचना कर रहे हैं। उनको लगता है कि केंद्र सरकार का ये फैसला अनुचित है। उनका मानना है कि इन सभी संस्थाओं को वर्तमान स्वरूप में ही काम करने दिया जाए। दरअसल जब वो इस तरह की बात करते हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि बदलते हुए समय को पहचान नहीं पा रहे हैं। मनोरंजन की दुनिया या उसके प्रशासन से जुड़े तौर-तरीके अब वो नहीं रहे जो उदारीकरण के पहले हुआ करते थे। उदारीकरण और अब महामारी के दौर के बाद मनोरंजन की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है। इस बदले हुए दौर को पहचानना और उसके हिसाब से कार्य करना सरकार का दायित्व है।  

सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्मों से सबंधित कई ऐसे विभाग हैं जिनका गठन उदारीकरण के दौर के पहले हुआ था। फिल्म प्रभाग, बाल चित्र समिति (चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी), फिल्म समारोह निदेशालय, नेशनल फिल्म आर्काइव और राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम। इनके गठन के समय की मांग के अनुसार इन विभागों के दायित्व तय किए गए थे। समय बदला, सिनेमा के व्याकरण से लेकर उसके तकनीक तक में आमूल चूल बदलाव आया। फिल्मों से संबंधित इन सरकारी संस्थाओं में अपेक्षित बदलाव नहीं हो पाया। समय के साथ नहीं चल पाने की वजह से इनमें से कई संस्थाएं अपने मूल उद्देश्यों से भटक गईं। एक ही काम कई संस्थाएं करने लग गईं। चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी, फिल्म समारोह निदेशालय और फिल्म प्रभाग अलग-अलग तरह से फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करते हैं। कोई संस्था बच्चों की फिल्मों का फेस्टिवल आयोजित करती है तो कोई फीचर फिल्मों और कोई शार्ट फिल्म और एनिमेशन को लेकर फिल्मोत्सव आयोजित करती हैं।देश में फिल्म संस्कृति के विकास और दूसरे देशों के साथ सांस्कृतिक आदान प्रदान का कार्यक्रम भी दो संस्थाएं चलाती हैं। फिल्म प्रभाग, चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी और राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम फिल्मों के निर्माण और उसके प्रोत्साहन का कार्य करती हैं। कहने का तात्पर्य ये है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाले विभागों में कामों को लेकर दोहराव है। एक ही मंत्रालय के अलग अलग विभाग एक ही काम करते हैं, जिससे करदाताओं के पैसे का अपव्यय होता है। 

अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तब भारत सरकार की एक समिति ने इन संस्थाओं में युक्तिसंगत बदलाव की सिफारिश की थी। उस समय कोई ठोस निर्णय नहीं हो सका था। कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के दस साल के कार्यकाल में यथास्थिति कायम रही। 2016 में नीति आयोग ने फिल्मों से जुड़ी इन संस्थाओं के क्रियाकलापों का अध्ययन कर उससे संबंधित सुझाव दिए थे। फिर एक समिति बनी। समिति ने सुझाव दिए। लेकिन अमल नहीं हो सका। अब सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने इन विभागों के पुनर्गठन के प्रस्ताव को स्वीकार कर इनके कार्यों को युक्तिसंगत बनाने का आदेश दिया है। इसी क्रम में 30 मार्च को फिल्म समारोह निदेशालय से भारतीय अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आयोजन का काम लेकर फिल्म विकास निगम को सौप दिया गया है। अन्य विभागों को भी पुनर्गठित किया जा रहा है। अदूर गोपालकृष्णन का कहना है कि वो इन संस्थाओं से जुड़े होने की वजह से इनके कामकाज से परिचित हैं। उनका मानना है कि संस्थाओं का विलय करके उसका अस्तित्व समाप्त करने से कला का नुकासन होगा। इस संदर्भ में वो जया बच्चन का उदाहरण देते हैं कि जब वो चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी की अध्यक्ष थीं तो बेहतर फिल्म का निर्माण हुआ था और फिल्म फेस्टिवल भी स्तरीय हुआ था। यहां अदूर गोपालकृष्णन को ये बताना चाहिए था कि उस समय कौन सी ऐसी फिल्म का निर्माण हुआ था जिसने बच्चों की रुचि इस माध्यम में पैदा की थी। क्या अब उन फिल्मों के बारे में किसी को याद है। अगर बनी भी थी तो क्या फिल्म विकास निगम वैसी फिल्में नहीं बना सकता है। अदूर गोपालकृष्णन को ये भी बताना चाहिए कि जब वो पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान के अगुवा थे उस समय वो कितनी बार संस्थान गए थे और उसकी कितनी बैठकों में शामिल हुए थे। उस वक्त उनको अनुपस्थित निदेशक क्यों कहा जाता था। 

2011 में जब नेशनल म्यूजियम आफ इंडियन सिनेमा बनाने की योजना बनी थी तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक सलाहकार समिति का गठन किया था। उस समिति में अदूर गोपालकृष्णन भी सदस्य थे। उसके बाद 2017 में सरकार ने प्रोक्यूरमेंट (खरीद) कमेटी बनाई जिसमें भी अदूरगोपालकृष्णन थे। अदूर गोपालकृष्णनको बताना चाहिए कि सलाहकार समिति ने 2019 तक क्या काम किया। क्या उस वक्त अदूर गोपालकृष्णन ने सरकार को ये सलाह दी थी कि पुणे की फिल्म आर्काइव को ही म्यूजियम बना दिया जाए। नौ वर्षों में सलाहकार समिति की बैठकों पर करदाताओं का कितना व्यय हुआ। बताना तो ये भी चाहिए कि सलाहकार समिति के रहते 2017 में  म्यूजियम की गुणवत्ता में सुधार के लिए नई समिति का गठन क्यों करना पड़ा। जिसके बाद म्यूजियम आकार ले सका। फिल्म विकास निगम ने समांतर सिनेमा या न्यू वेव सिनेमा के नाम पर जिस प्रकार के फिल्मों को वित्तीय सहायता दी उसका भी आकलन किया जाना चाहिए। दरअसल जब फिल्मों और उससे जुड़ी संस्थाओं में सुधार की बात होती है तो एक पूरा इकोसिस्टम उसके खिलाफ हो जाता है। अदूर गोपालकृष्णन उसी इकोसिस्टम के हिस्सा हैं। उन्होंने पहली बार इसका विरोध नहीं किया है । जब से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं और फिल्मों की संस्थाओं पर कुंडली जमाकर बैठे एक विचारधारा विशेष के लोगों को चुनौती मिलने लगी तभी से इस तरह की बातें सामने आने लगी हैं। कहा जाने लगा कि वर्तमान सरकार का फिल्मों के प्रति रवैया नकारात्मक और विध्वंसात्मक है। अब ये लोग संस्थाओं के पुनर्गठन को संस्कृति के संरक्षण और क्षरण से जोड़कर प्रचारित कर रहे हैं। 

अदूर गोपालकृष्णन और उन जैसे लोगों को ये समझना होगा कि तकनीक के आगमन के बाद फिल्मों से जुड़ी पुरानी संस्थाओं के कार्य की समीक्षा आवश्यक है। अगर फिल्म विकास निगम फिल्म बनवाने में सक्षम है या उसके पास फिल्म बनाने या फिल्म निर्माण को प्रोत्साहित करने का मैंडेट है तो फिर दूसरी सरकारी संस्था फिल्म क्यों बनाए। क्यों नहीं फिल्म विकास निगम ही बच्चों की फिल्मों के निर्माण का कार्य करे। क्यों नहीं एक सरकारी संस्था सभी तरह के फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करे। सूचना और प्रसारण मंत्रालय को पुर्नगठन और इन संस्थाओं में प्रशासवनिक सुधार के कार्य को तेज करना चाहिए। मंत्रालय के अधीन आनेवाले विभाग सांग और ड्रामा डिवीजन एवं प्रकाशन विभाग की उपोगिता पर भी पुनर्विचार करना चाहिए। उन्नत तकनीक के इस दौर में इन संस्थाओं के मैंडेट को भी बदले जाने की आवश्यकता है। 


योजनाबद्ध तरीके से किया था नरसंहार


जलियांवाला बाग में अंग्रेजो ने जो नरसंहार किया था, वो मानवता के इतिहास की क्रूरतम घटनाओं में से एक है। औपनिवेशिक शासन के दौरान अंग्रेजों का ये कृत्य इतिहास के एक काले अध्याय के तौर पर दर्ज है। जलियांवाला बाग में जनरल डायर ने जो किया वो किसी तात्कालिक वजह से नहीं किया गया था बल्कि बेहद सोच समझ कर उस नरसंहार को अंजाम दिया गया था। कई इतिहासकारों ने इस बात की चर्चा की है कि 13 अप्रैल 1919 के पंजाब के जलियांवाला में जनरल डायर ने जो कहर बरपाया उसके पीछे 10 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर में हिंसक प्रदर्शन और अंग्रेज औरतों पर हमले रहे। ये ठीक है कि अमृतसर में जो हिंसक प्रदर्शन और आगजनी की घटना हुई उसके बाद शहर को सेना के हवाले कर दिया गया था। लेकिन जलियांवाला बाग में जो नरसंहार जनरल डायर ने किया अगर उसके पहले और बाद की घटनाओं को देखें तो ये स्पष्ट होता है कि अंग्रेजों ने भारतीयों को सबक सिखाने की योजना बना ली थी और उस योजना को जनरल डायर को अंजाम देने का जिम्मा सौंपा गया था। 

जलियांवाला बाग नरसंहार के पहले के इतिहास के पन्ने को पलटते हैं तो अंग्रेजों की भारतीयों के सबक सिखाने के सूत्र स्पष्ट तौर पर दृष्टिगोचर होते हैं। 1918 में अहमदाबाद में मिलों में हड़ताल और उसके मिले जनसमर्थन से अंग्रेजों के कान खड़े हो गए थे। इस बीच 1919 के आरंभ में रालेट एक्ट आ गय़ा। इस कानून में आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के नाम पर भारतीयों के नागरिक अधिकारों पर पाबंदी लगाई गई थी। विश्वयुद्ध के बाद इस तरह के कानून की अपेक्षा नहीं की गई थी। जब ब्रिटिश सरकार ने जल्दबाजी में इस कानून को पारित करवाने की कोशिश की तो उसका उल्टा असर भारतीय जनमानस पर पड़ा। पूरे देश में उसके खिलाफ माहौल बना। महात्मा गांधी ने सत्याग्रह सभा की स्थापना की और स्वाधीनता सेनानियों से गांव-गांव जाकर लोगों को जागरूक करने की अपील की। गुलामी की बेड़ियों को काटने के लिए सत्याग्राह का उपयोग असर दिखाने लगा था। इसी दौर में बड़ी सभाएं होने लगी थीं जिसमें आम लोगों की भागीदारी बढ़ने लगी थी। इस लिहाज से अगर विचार करें तो 1919 का मार्च और अप्रैल का महीना स्वाधीनता आंदोलन के दौर में जनता के राजनीतिक रूप से जागरूक और बरतानिया हुकूम के खिलाफ आम जनता के उठ खड़े होने का दौर था। स्वाधीनता को लेकर चल रहे संग्राम में आमलोगों की बढ़ती भागीदारी से बरतानिया हुकूमत की परेशानी बढ़ने लगी थी और वो इसको दबाने की योजना बनाने लगे थे। 

जब रालेट एक्ट के विरोध में पूरे देश में हड़ताल, विरोध प्रदर्शन होने लगे तो उस वक्त अंग्रेजों ने इसको दबाने के लिए बल प्रयोग किया। लखनऊ,पटना,कलकत्ता(अब कोलकाता) बांबे (अब मुंबई), कोटा और अहमदाबाद में इन विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिए अंग्रेजों ने निहत्थे लोगों पर जमकर लाठियां चलाईं, कहीं कहीं गोलियां भी। इन विरोध प्रदर्शनों की तीव्रता और उसमें जनभागीदारी से उत्साहित होकर गांधी ने 6 अप्रैल को राष्ट्रव्यापी हड़ताल की घोषणा कर दी। लोगों का उत्साह अपने चरम पर पहुंच चुका था । वो गुलामी की बेड़ियां तोड़ने के लिए बेचैन हो रहे थे। उधर अंग्रेज इस जन आंदोलन को दबाने के लिए अपना दमनचक्र तेज कर दिया था। लोगों को जेल में ठूंसा जाने लगा, बिना किसी कारण के गिरफ्तारियां होने लगीं। पूरे देश में इसकी बेहद तीव्र प्रतिक्रिया हुई। इस बीच 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग में लोग विरोध प्रदर्शन के लिए जमा हुए। इस प्रदर्शन को दबाने के लिए जनरल डायर ने जो अपराध किया उसने ब्रिटिश साम्राज्य को कुछ सालों तक भारत पर शासन करने की ताकत भले दे दी लेकिन भारत की जनता इस जख्म को नहीं भूल सकी। जलियांवाला बाग नरसंहार में बहे खून ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन को नई दिशा दे दी।

जलियांवाला बाग नरसंहार के छह महीने बाद उसकी जांच का दिखावा भी बरतानिया हुकूमत ने किया। ब्रिटिश सरकार ने लार्ड विलियम हंटर की अगुवाई में एक कमेटी बनाई और उसको नरसंहार की जांच का जिम्मा सौंपा। इसको हंटर कमीशन के नाम से जाना गया। हंटर कमीशन के सामने जनरल डायर ने जो  बयान दिए उसको देखकर ये लगता है कि एक हजार से अधिक निहत्थे लोगों का हत्यारा कितना बेखौफ था। उसने कहा था कि भीड़ पर गोली चलाने की योजना बनाई गई थी ताकि भविष्य में कोई भी ब्रिटिश सरकार से विद्रोह करने की सोचे भी नहीं। उसने तो यहां तक कहा था कि अगर उस समय हथियारबंद गाड़ियां होतीं तो वो लोगों को कुचलवा देता। इस बयान को अगर जनरल डायर के कृत्य को हाउस आफ लार्ड्स में मिले समर्थन से जोड़कर देखें तो ये स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने एक नरसंहार की योजना बनाई थी। यह अकारण नहीं था कि जब हाउस आफ लार्ड्स जनरल डायर के कारनामे के पक्ष में वोटिंग कर रही थी उसी समय ब्रिटेन की जनता ने जनरल डायर के लिए उस वक्त तीसस हजार पाउंड की राशि जुटाई थी। जलियांवाला बाग नरसंहार ब्रिटिश उपनिवेश का एक ऐसा चेहरा है जिसके लिए अंग्रेजों को पूरी मानवता से क्षमा मांगनी चाहिए। गाहे बगाहे इसकी मांग उठती भी रहती है लेकिन इसके लिए संगठित होकर प्रयास करना चाहिए। 


Friday, April 8, 2022

विभाजन ने बढ़ाया फिल्मकारों का संघर्ष


स्वाधीनता के पहले कलकत्ता (अब कोलकाता) फिल्म निर्माण का एक बड़ा केंद्र हुआ करता था। इसका बड़ा कारण बड़ा बंगाली दर्शक वर्ग था। उनकी रुचि को ध्यान में रखकर बांग्ला में फिल्में बनती थीं जो बहुत अच्छा बिजनेस किया करती थीं। हीरालाल सेन से लेकर बिमल राय तक एक बेहद समृद्ध परंपरा रही है। प्रथमेश बरुआ, नितिन बोस, देवकी बोस जैसे लोगों ने बंगाल में रहकर ही फिल्म निर्माण का शिखर छुआ था। बिमल राय ने अपना करियर कलकत्ता के न्यू थिएटर के साथ आरंभ किया था और बाद में प्रथमेश बरुआ के साथ उनकी फिल्मों में कैमरापर्सन के तौर पर काम किया। कलकत्ता में बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री बहुत अच्छे तरीके से चल रही थी। फिल्मकारों को अच्छा खासा मुनाफा होता था और वो सभी लोग तकनीक पर निवेश कर रहे थे। अच्छे से अच्छा कैमरा और फिल्म निर्माण से जुड़ी मशीनों के आयात पर खर्च किया जाता था। उधर देश में स्वाधीनता का संग्राम भी अपने चरम पर पहुंचने लगा था। हमें स्वाधीनता मिली लेकिन विभाजन की विभीषिका भी साथ ही मिली। विभाजन के बाद की हिंसा चर्चा के केंद्र में रही है। इस हिंसा पर सैकड़ों लेख लिखे गए लेकिन विभाजन ने समाज के अन्य हिस्सों पर जो प्रभाव छोड़ा उसकी चर्चा कम हुई। हिंसा और आर्थिक नुकसान के अलावा विभाजन ने भारत के फिल्म उद्योग को बुरी तरह से प्रभावित किया था, खास तौर पर बंगाली फिल्मी दुनिया को। 

विभाजन के बाद बंगाल का पूर्वी हिस्सा पाकिस्तान को मिला। इस तरह से बांग्ला फिल्मों का बाजार दो देशों में बंट गया। इसने बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री को बुरी तरह से प्रभावित किया। दर्शक संख्या विभाजित होने की वजह से बांग्ला फिल्मों से होनेवाला मुनाफा कम हो गया। इसकी वजह से कालांतर में बंगाली फिल्मों के निर्माण पर भी असर पड़ा। बांग्ला में कम फिल्में बनने लगीं और फिल्मों से जुड़े लोगों को काम नहीं मिलने लगा। कलकत्ता की उस दौर की फिल्म निर्माण की सफल फिल्म कंपनी न्यू थिएटर पर संकट के बादल छा गए। विभाजन की वजह से आर्थिक संकट इतना बढ़ा कि कंपनी अपने कलाकारों को वेतन तक नहीं दे पा रही थी। नई फिल्मों के बनाने का काम भी बाधित हुआ। न्यू थिएटर से जुड़े सभफी फिल्मकारों के साथ साथ बिमल राय भी आर्थिक संकट से प्रभावित हुए थे। उनको भी अपने परिवार की चिंता सताने लगी थी। इस चिंता के साथ बिमल राय बांबे (अब मुंबई) पहुंचे थे। 

बांबे में वो अपने मित्र हितेन चौधरी से मिले जो उस वक्त मशहूर अभिनेता अशोक कुमार के साथ मिलकर फिल्म निर्माण कंपनी बांबे टाकीज चला रहे थे। बिमल राय ने उनके सामने कलकत्ता में फिल्म से जुड़े लोगों की चिंता और न्यू थिएटर की आर्थिक दिक्कतों को रखा और उनसे ये जानना चाहा कि क्या अगर व बांबे आते हैं तो उनको हिंदी फिल्मों में काम मिलेगा। हितने चौधरी ने उनसे कोई वादा तो नहीं किया लेकिन उनके लिए कुछ करने का भरोसा दिया। बिमल राय कलकत्ता लौट गए थे। एक दिन हितेन चौधरी ने बिमल राय के बारे में अशोक कुमार से चर्चा। अशोक कुमार ने ध्यान से उनकी बात सुनी और हितेन चौधरी से बिमल राय को फौरन बाबे बुलाने को कहा। हितेन चौधरी ने बिमल राय को बांबे बुलाया। बिमल राय अपने चार साथियों के साथ कलकत्ता से बांबे आए थे। ये साथी थे ह्रषिकेश मुखर्जी, असित सेन, नबेंदु घोष और पाल महेन्द्र। बिमल राय को  हिंदी फिल्मों में काम मिला। इन लोगों ने काम करना आरंभ किया और बाद की बातें इतिहास हैं। बिमल राय ने ‘दो बीघा जमीन’ से लेकर ‘परिणीता’ से लेकर ‘देवदास’ और ‘मधुमती’ जैसी कालजयी फिल्में बनाईं। आज जब हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हमें इन महान फिल्मकारों की संघर्ष यात्रा का स्मरण करना चाहिए।   


Saturday, April 2, 2022

नष्ट होने के कगार पर सांस्कृतिक धरोहर


जब भी बनारस जाने का अवसर मिलता है तो थोड़ा समय निकालकर वहां के पुस्तकालयों को देखने जरूर जाता हूं। करीब तीन साल पहले बनारस गया था। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के उस समय के कुलपति प्रोफेसर राजाराम शुक्ल ने मनोयोगपूर्वक अपने विश्वविद्यालय का पुस्तकालय दिखाया था। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्लाय की लाइब्रेरी बेहद समृद्ध है। हमने वहां काफी समय बिताकर ग्रंथों और पांडुलिपियों को देखा था। उस पुस्तकालय में पहली बार स्वर्णाक्षरों में लिखी पांडुलिपि देखी थी। पांडुलिपियों और उनके संरक्षण के बारे में बातचीत के क्रम में राजाराम शुक्ल ने उनको बेहतर ढंग से सहेजे जाने को लेकर चिंता जताई थी। संसाधन की कमी की बात सामने आई थी। पांडुलिपियों को एक खास किस्म के कपड़े में लपेटकर रखा जाता है जिसके लिए धन की आवश्यकता थी। उसी समय काशी विश्वनाथ मंदिर के पास के गोयनका पुस्तकालय देखा था। वहां कई दुर्लभ ग्रंथ थे, जो या तो खुली रैक पर रखे थे या फिर अल्मारियों में बंद थे। बेहतर रखरखाव की कमी थी। बताया जा रहा है कि अब गोनका पुस्तकालय को दूसरी जगह शिफ्ट कर दिया गया है। पता नहीं पुस्तकें किस हाल में हैं। बनारस में ही काशी हिंदू विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी है, नाम है सयाजीराव गायकवाड़ ग्रंथालय। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की इस लाइब्रेरी का बेहद समृद्ध इतिहास रहा है। पुस्तकालय की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसकी स्थापना 1917 में की गई थी। कई बार इसकी जगह बदली। 1941 से वर्तमान भवन में पुस्तकालय चल रहा है। इस पुस्तकालय भवन का निर्माण बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने करवाया था। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने 1931 में लंदन प्रवास के दौरान ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी देखी थी। उन्होंने ही बड़ौदा के महाराज को सुझाव दिया था कि काशी हिंदू विश्वविद्लाय के पुस्तकालय की इमारत भी वैसी ही होनी चाहिए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ग्रंथालय से आरंभिक दिनों में प्रख्यात इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार जुड़े रहे थे।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के इस ग्रंथालय की चर्चा इस वजह से की जा रही है कि यहां रखी ऐतिहासिक महत्व की पत्रिकाएँ बहुत बुरी स्थिति में हैं। ग्रंथालय के प्रथम तल पर पत्र- पत्रिकाओं के विभाग में बेहद महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ संग्रहित हैं। इन पत्रिकाओं में सरस्वती, विशाल भारत,माधुरी, कल्पना, विश्वमित्र, कलकत्ता रिव्यू, हिन्दुस्तान रिव्यू, जर्नल आफ इंडियन ट्रेड, इंडियन फाइनेंस जैसी पत्रिकाओं की फाइलें उपलब्ध है। इन पत्रिकाओं का स्थायी महत्व है क्योंकि उसमें उस दौर का पूरा इतिहास है। साहित्यिक पत्रिकाओं में हिंदी साहित्य का स्वाधीनता पूर्व से लेकर बाद के कई दशकों का इतिहास दर्ज है। वित्त और वाणिज्य से जुड़ी पत्रिकाएं इन विषयों में शोध करनेवालों के लिए बेहतरीन सोर्स हैं। समाज शास्त्र की पत्रिकाओं से समाज में हो रहे बदलाव या उसके विकासक्रम को रेखांकित कर सकते हैं। रखरखाव के अभाव में पत्रिकाएं नष्ट होने के कगार पर पहुंच गई हैं। कुछ पत्रिकाओं की जिल्द इतनी खराब हो गई हैं या उनके पृष्ठ इतने जर्जर हो गए हैं कि छूते ही फट जा रहे हैं। पत्रिका खोलकर देखने पर पन्ने हाथ में आ जाते हैं। कई ऐतिहासिक पत्रिकाएं तो फाइलों में रस्सियों से बांध कर खुले रैक पर रखी हुई हैं। नमी और धूल से वो खराब हो रही हैं। पत्रिकाओं को पलटने के बाद उनको संभालना बेहद कठिन है। ग्रंथालय के इस हिस्से में रोशनी भी कम है और अगर वहां की  खिड़की खोलने का प्रयास किया जाए तो उसके भी टूटने का खतरा है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि देश के सबसे समृद्ध पुस्तकालयों में एक में उपलब्ध पत्रिकाओं को नमी और धूल से बचाने का कोई उपाय नहीं किया गया है 

जिस पुस्तकालय का सपना महामना मदनमोहन मालवीय ने देखा और जिसको सर यदुनाथ सरकार ने जतन से संजोया वो आज इस हालत में क्यों पहुंच गया है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय का प्रशासन अपनी धरोहर को लेकर उदासीन क्यों है। ऐसिहासिक महत्व की पत्र-पत्रिकाएं धूल क्यों फांक रही हैं। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार से संबद्ध उच्च शिक्षण संस्थानों में धन की कमी है। इस वित्त वर्ष में केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा के बजट आवंटन को तेरह प्रतिशत बढ़ाकर चालीस हजार करोड़ से अधिक कर दिया है। सयाजीराव केंद्रीय ग्रंथालय की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक वहां एक पुस्तकालयाध्यक्ष, आठ उप- पुस्तकालयाध्यक्ष और पांच सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष कार्यरत हैं। बावजूद इसके पत्रिकाओं का उचित देखभाल न हो पाना हैरान भी करता है और चिंतित भी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय केंद्रीय विश्वविद्यालय है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र में स्थित है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात है कि ये ज्ञान का केंद्र है और देश विदेश के तमाम शोधार्थी यहां शोध करने के लिए आते हैं। जरा सोचिए कि जब शोधार्थी इतनी बड़ी लाइब्रेरी के किसी हिस्से को बदहाल देखते होंगे तो इस ज्ञान केंद्र की कैसी छवि उनके मन में बनती होगी।  सवाल यह उठता है कि हम अपनी समृद्ध विरासत को लेकर इतने उदासीन क्यों रहते हैं। इस उदासीनता की वजह क्या उन लोगों की नासमझी है जो इनके रखरखाव के लिए उत्तरदायी हैं या फिर उनकी लापरवाही है या दोनों। इस बारे में अगर समग्र दृष्टिकोण से विचार करते हैं तो ये लगता है कि उदासीनता की वजह नासमझी और लापरवाही दोनों है। इसके अलावा एक वजह तकनीक के उपयोग को लेकर उत्साही नहीं होना है। अन्यथा आज के डिजीटल युग में पत्रिकाएं इस तरह से नष्ट नहीं हो रही होतीं। उनको डिजीटाइज करके या उनकी माइक्रो फिल्म बनाकर संरक्षित किया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि किसी को इनका महत्व समझ में आए, और वो पहल करके  इनको डिजीटाइज करवा दे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार तकनीक के उपयोग पर जोर दे रहे हैं लेकिन उनके ही निर्वाचन क्षेत्र में स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय में तकनीक के उपयोग को लेकर उदासीनता समझ में नहीं आती। विश्वविद्यालय प्रशासन को तत्काल इन पत्रिकाओं को संरक्षित करने के लिए कदम उठाना चाहिए। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है कि ‘सभी शास्त्रीय भाषाओं और साहित्य का अध्ययन करनेवाले अपने संस्थानों और विश्वविद्यालयों का विस्तार करेगा और उन हजारों पांडुलिपियों को इकट्ठा करने, संरक्षित करने और अनुवाद करने और उनका अध्ययन करने का मजबूत प्रयास करेगा, जिस पर अभी तक ध्यान नहीं गया है। इसी प्रकार से सभी संस्थानों और विश्वविद्यालयों में जिसमें शास्त्रीय भाषओं को और साहित्य पढ़ाया जा रहा है, उनका विस्तार किया जाएगा। अभी तक उपेक्षित रहे लाखों अभिलेखों के संग्रह, संरक्षण, अनुवाद और अध्ययन के दृढ़ प्रयास किए जाएंगे।‘  राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अभिलेखों के संरक्षण पर बल दिया गया है। ज्ञान साम्रगी के संरक्षण के लिए अगर आवश्यकता हो तो जनसहयोग भी लिया जाना चाहिए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में रखी पत्रिकाओं के संरक्षण के लिए निजी क्षेत्र का भी सहयोग लेना पड़े तो लिया जाना चाहिए। निजी कंपनियों से संपर्क करके उनको इस कार्य में निवेश करने के लिए संवाद किया जाना चाहिए। कोई सरकारी नियम इसमें बाधा बनती हो तो उसको तत्काल बदलना चाहिए। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में रखी गई दुर्लभ पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए जिस विशेष कपड़े की आवश्यकता है उसके लिए भी संसाधन उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। पुस्तकें और पत्र पत्रिकाएं को संरक्षित कर हम अपनी संस्कृति को न केवल मजबूत करते हैं बल्कि आनेवाली पीढ़ी को संस्कारित भी करते हैं। पिछले दिनों बिहार के पूर्णिया से समाचर आया था कि वहां के जिलाधिकारी राहुल कुमार ने अनूठी पहल की और जिले के 230 ग्राम पंचायतों में पुस्तकालय खोला है। ये जनसहयोग से संभव हो पाया। अगर जनसहयोग से नए पुस्तकालय खुल सकते हैं तो पहले के पुस्तकालयों का संरक्षण भी संभव है। आवश्यकता है इच्छाशक्ति और पहल की। 

Friday, April 1, 2022

माटी और फिल्म का प्रेम


स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के अवसर पर हमें फिल्म से जुड़े उन लोगों को भी याद करना चाहिए जिन्होंने पराधीन भारत में फिल्म विधा को सशक्त करने में बड़ी भूमिका का निर्वाह किया। मूक फिल्मों के दौर में फिल्मों का छायांकन बेहद कठिन कार्य होता था क्योंकि कैमरा और तकनीक उन्नत नहीं थे। जो उन्नत कैमरा थे उनतक भारतीय फोटोग्राफर्स की पहुंच नहीं थी। ऐसे में उनके सामने चुनौती थी कि विदेश से आनी वाली फिल्मों के मुकाबले स्वदेशी फिल्मों के छायांकन की स्तरीयता बरकरार रखने का। महान फिल्मकार देवकी बोस जब धीरेन गांगुली की ब्रिटिश डोमेनियन कंपनी से जुड़े तो उन्होंने उस कंपनी के लिए कई मूक फिल्मों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस दौरान उनकी मित्रता लखनऊ के मूल निवासी और कैमरापर्सन कृष्ण गोपाल से हुई। कृष्ण गोपाल इतने कुशल कैमरामैन थे कि बहुत कम समय में उन्होंने देवकी बोस का दिल जीत लिया। फिल्म कंपनी में साथ काम करते हुए उन दोनों में गाढ़ी दोस्ती हो गई।

कृष्ण गोपाल की फिल्मों में जाने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। वो पराधीन भारत में लखनऊ में स्वास्थ्य विभाग में काम करते थे। मनमोहन चड्ढा ने अपनी पुस्तक में इस बात का उल्लेख किया है कि कृष्ण गोपाल जब लखनऊ में स्वास्थ्य विभाग में काम कर रहे थे तो उनकी पहचान विभाग में काम करनेवाले कुछ अंग्रेजों से हो गई थी। उनमें से कुछ अंग्रेज शौकिया तौर पर फिल्में बनाया करते थे। 1926 से 1929 के दौर में कृष्ण गोपाल ने अपने विभाग के अंग्रेजों के साथ फिल्में बनाने के काम में जुड़े थे। उसी समय उन्होंने कैमरा चलाना और फिल्मों के लिए छायांकन की तकनीक सीखी थी। जब उन्हें कैमरा चलाना आ गया और उनके काम को प्रशंसा मिलने लगी तो स्वास्थ्य विभाग की नौकरी छोड़ दी। फिल्मों में छायांकन का काम करने के लिए कोलकाता (तब कलकत्ता) चले गए। वहां उनकी मुलाकात धीरेन गांगुली से हुई। उन्होंने उनको ‘ब्रिटिश डोमेनियन कंपनी’ में नौकरी पर रख लिया। वहां रहकर कृष्ण गोपाल ने अपनी  कला को और समृद्ध किया। फिर देवकी बोस की मित्रता और साथ ने ख्याति दिलाई।

कृष्ण गोपाल भले ही कोलकाता पहुंच गए थे लेकिन उनका मन लखनऊ में ही बसा हुआ था। वो चाहते थे कि लखनऊ में भी फिल्में बने। अपनी माटी के प्रेम में वो लखनऊ आ गए। यहां पहुंचे तो उनको पता चला कि लखनऊ की एक कंपनी ‘यूनाइटेड फिल्म कार्पोरेशन’ एक फिल्म बनाना चाहती है। हिंदी सिनेमा का इतिहास में चड्ढा लिखते हैं कि कृष्ण गोपाल ने इस फिल्म के निर्माण के लिए देवकी बोस को कोलकाता से लखनऊ बुलवा लिया। 1930 में देवकी बोस लिखित और निर्देशित फिल्म ‘द शैडो आफ द डेड’ बनकर तैयार हुई। फिल्म दर्शकों को पसंद नहीं आई और निर्माताओं को नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद की घटना बेहद दिलचस्प है। फिल्म कंपनी के मालिकों को लगा कि कृष्ण गोपाल ने ही उनका नुकसान करवा दिया है। उन्होंने कृष्ण गोपाल को लखनऊ में ही रोक लिया। उनसे कहा कि वो लखनऊ छोड़कर तभी जा सकते हैं जब वो कंपनी के नुकसान की भारपाई कर दें। कई जगह उनको बंधक बनाने की बात भी मिलती है। जब देवकी बोस को इस बात का पता चला तो वो बेहद दुखी हो गए। उस समय देवकी बाबू  प्रथमेश बरुआ के साथ काम कर रहे थे। देवकी बोस अपने मित्र कृष्ण गोपाल को छुड़ाने के लिए लखनऊ आए। देवकी बोस की फिल्म कंपनी के मालिकों के साथ लंबी-लंबी बैठकें हुईं। किसी तरह कंपनी मालिक इस बात पर राजी हुए कि कृष्ण गोपाल को लखनऊ छोड़ने की अनुमति तभी मिलेगी जब वो किश्तों में नुकसान की भारपाई की शर्त मान लें । तय हुआ कि जब तक नुकसान पूरा नहीं होगा कृष्ण गोपाल अपने वेतन से एक हिस्सा कंपनी मालिकों को भेजते रहेंगे। किसी तरह से देवकी बोस उनको अपने साथ लेकर लखनऊ से कोलकाता गए। फिल्म और अपनी माटी के मुहब्बत में कृष्ण गोपाल लंबे समय तक अपने वेतन का हिस्सा लखनऊ की उस फिल्म कंपनी के मालिकों को भेजते रहे थे। बाद के दिनों में कृष्ण गोपाल ने देवकी बोस के साथ कई फिल्मों में काम किया और अपने छायांकन से उस दौर के कई महान फिल्मकारों को प्रभावित किया। विदेश से आनेवाली फिल्मों के मुकाबले कृष्ण गोपाल का छायांकन किसी भी तरह से कम नहीं होता था।