Translate

Saturday, August 31, 2019

बयान से बेनकाब होती विचारधारा


इन दिनों एक बार फिर से बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अरुंधति राय चर्चा में हैं। 2011 में दिए उनके एक भाषण के अंश को पाकिस्तानी मीडिया ने भारत को बदनाम करने की नीयत से छाप दिया। पाकिस्तान के हुक्मरानों ने भी उसकी आड़ में भारत को घेरने की कोशिश की। अरुंझति के उस बयान के सामने आते ही सोशल मीडिया पर एक बवंडर सा उठा, जमकर चर्चा शुरू हो गई। भारत और बांग्लादेश के ट्वीटर उपभोक्ताओं ने उनकी लानत-मलामत शुरू की और डबलस्टैंडर्ड हैशटैग के साथ ये मसला ट्वीटर पर ट्रेंड करने लगा। दरअसल 2011 में अरुंधति राय ने एक चर्चा के दौरान घोर आपत्तिजनक बातें कही थीं। ये ऐसी बातें हैं जो सीधे सीधे राष्ट्र के खिलाफ हैं। उनका अंदाज ही भारत को अपमानित करने जैसा था और कहीं से भी ये नहीं लग रहा था कि एक भारतीय बोल रहा हो। भारत के बारे में अरुंधति ने कहा कि वो भारत जैसी जगह के बारे में बात कर रही हैं जहां कश्मीर, मणिपुर, नगालैंड, मिजोरम में तब से युद्ध हो रहे हैं जब से भारत एक संप्रभु राष्ट्र बना। भारत जब गुलामी की बेड़ियों से आजाद हुआ तब से ही वो एक औपनिवेशिक राष्ट्र बन गया। तमाम झंझावातों के बीच हिन्दुस्तान का लोकतंत्र मजबूत और परिपक्व हुआ ये अरुंधति को ना तो दिखा और ना ही वो समझ पाई। अपने जहर बुझे बयान में अरुंधति ने कहा कि वि भारत में 1947 से ही कश्मीर, मणिपुर, नगालैंड, मिजोरम, पंजाब, तेलंगाना, गोवा, हैदराबाद में निरंतर युद्ध जारी है और भारत ने अपने ही आवाम के खिलाफ सेना की तैनाती की और युद्ध किया। अरुंधति का पाकिस्तान प्रेम तब झलक उठा जब वो बोली कि पाकिस्तान ने अपनी सेना को उस तरह से अपने देश की जनता के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जिस तरह से लोकतांत्रिक भारत ने किया। उनका ये वीडियो सामने आते ही भारत और बांग्लादेश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। बांग्लादेश के लोगों ने अरुंधति को 1971 के महीनों में पाकिस्तानी सेना के पूर्वी बंगाल में किए कुकृत्यों की याद दिलानी शुरू कर दी। एक के बाद एक अत्याचार की फेहरिश्त सामने आने लगी। दरअसल अरुंधति जैसे लोग भारत के खिलाफ बोलकर अंतराष्ट्रीय सुर्खियां बटोरते हैं। अरुंधति की इस चर्चा को सुनते हुए मुझे 24 फरवरी 2016 को तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी का लोकसभा में दिया भाषण याद आ गया। स्मृति इरानी के भाषण के पहले तृणमूल कांग्रेस के सांसद डॉ सुगतो बोस ने भाषण दिया था और उनके भाषण पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी मुग्ध थे, तालियां बजा रहे थे। जब स्मृति इरानी के बोलने की बारी आई तो उन्होंने भी सुगतो बोस के भाषण की सराहना की लेकिन सोनिया और राहुल गांधी के सामने बोस की बहन शर्मिला बोस की किताब के कुछ पन्ने खोल दिए थे। जिस सुगतो बोस के भाषण पर कांग्रेसी लहालोट हो रहे थे उन्हीं की बहन इतिहासकार शर्मिला बोस ने एक किताब लिखी थी, द डेड रेकनिंग। उस किताब में शर्मिला बोस ने लिखा है कि बांग्लादेश मुक्ति संग्राम एक भ्रांति है, मिथ्या है, पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी बंगाल के लोगों पर किसी तरह का कोई अत्याचार किया ही नहीं था, जिसको बचाने के लिए इंदिरा गांधी गई थीं। दरअसल अरुंधति ने कोई नया राग नहीं छेड़ा है बल्कि इस तरह के जहर बुझे बयान या लेखन लंबे समय से होते रहे हैं। बहुधा पाकिस्तान के पक्ष में।
अरुंधति तो इतने पर ही नहीं रुकी उसने तो भारत की इस तरह की तस्वीर पेश की जैसे यहां दलितों और अल्पसंख्यकों को सेना की मदद से कुचला जा रहा हो, उनके खिलाफ सेना का उपयोग कर उनका दमन किया जा रहा हो। अरुंधति अपने भाषण में प्रश्न उठाती हैं कि ये कौन लोग हैं जिनके खिलाफ भारत ने युद्ध झेड़ रखा है या युद्ध करना तय किया है। फिर खुद ही उसका उत्तर देती है पूर्वोत्तर में आदिवासियों, कश्मीर और हैदराबाद में मुसलमानों, तेलंगाना में आदिवासियों, गोवा में क्रिश्चियन और पंजाब में सिखों के खिलाफ। इतना बोलते बोलते वो यह भी कह जाती हैं कि ये सब अपर कास्ट हिंदू स्टेट की तरफ से किया जा रहा है। अब इस अंतिम वाक्य से ही उनका एजेंडा साफ हो जाता है। ये सीधे-सीधे समाज को बांटनेवाला बयान है, देश के खिलाफ वहां की जनता को उकसानेवाला बयान है। जब वो ये बात कह रही थीं तब वो भूल गईं थीं कि उस वक्त देश को तीन अल्पसंख्यक समुदाय के लोग ही चला रहे थे, मनमोहन सिंह जो उस वक्त देश के प्रधानमंत्री थे वो सिख समुदाय से आते हैं, सत्ताधारी दल कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी क्रिश्चियन और उनके राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल मुसलमान। क्या तब किसी कोने से ये आवाज आई थी कि बहुसंख्यक हिंदुओं के देश में तीन सबसे ताकतवर शख्सियत जो सत्ता चला रहे थे वो अल्पसंख्यक समुदाय के थे। नहीं। आज भी इस तथ्य को रेखांकित करना इस वजह से आवश्यक हो गया क्योंकि अरुंधति के बयान को पाकिस्तान अपने हक में प्रचारित करने में लगा है। अरुंधति जिन माओवादियों और अलगाववादियों को भारत की आवाम मान रही हैं उनकी आस्था भारत में कभी नहीं रही। वो भारत को तोड़ने का सपना देखते रहे और किसी भी संप्रभु राष्ट्र को अपने देश की संप्रुभता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने का अधिकार है। अब भी अरुंधति के पक्ष में लेख लिखे जा रहे हैं लेकिन उनके समर्थक ये भूल गए हैं कि भारत में कभी भी माओवादियों या नक्सलियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल नहीं किया गया।
दरअसल अरुंधति जैसे लोगों की, उन जैसे लेखकों की बुनियाद ही भारत वोध पर टिकी है। वो वैश्विक मंचों पर जाकर भारत में हो रहे तमाम तरह के कथित अत्याचारों पर, कथित मानवाधिकार हनन पर भाषण देती रही हैं। उनके समर्थन में लेख लिखनेवाले कुछ लोग अभी हाल में प्रकाशित उनकी किताब मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस से उदाहरण देकर उनका बचाव करने की कोशिश करने में लगे हैं। जब ये पुस्तक प्रकाशित हुई थी तो इसको फिक्शन कहकर प्रचारित-प्रसारित किया गया था, बुकर प्राइज के लिए उसको फिक्शन कैटेगरी में ही नामित भी किया गया था। अब उनके समर्थक उस उपन्यास को ही तथ्य के तौर पर पेश कर रहे हैं। अगर हम अरुंधति के समर्थकों के तर्कों मान भी लें तो उस किताब में और भी बूहुत कुछ लिखा गया है। अरुंधति का उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ एक लड़के की कहानी से शुरू होता है। घटनाओं के बाद जैसे ही पात्रों के बीच संवाद शुरू होता है वैसे ही लेखक पर एक्टिविस्ट हावी हो जाता है और वो अपनी वैचारिकी का बोझ पाठकों पर लादने लग जाती है। फिक्शन की आड़ लेकर जब अरुंधति कश्मीर के परिवेश में घुसती हैं वो अपने पूर्वग्रहयुक्त नजरिए को सामने रखती नजर आती हैं। कश्मीर के परिवेश की भयावहता का वर्णन करते हुए वो लिखती हैं – ‘मौत हर जगह है, मौत ही सबकुछ है, करियर, इच्छा, कविता, प्यार मोहब्बत सब मौत है। मौत ही जीने की नई राह है । जैसे जैसे कश्मीर में जंग बढ़ रही है वैसे वैसे कब्रगाह भी उसी तरह से बढ़ रहे हैं जैसे महानगरों में मल्टी लेवल पार्किंग बढ़ते जा रहे हैं।‘ कश्मीर की समस्या में उनको जंग नजर आ रहा था। अपनी सैद्धांतिकी को फिक्शन की चाशनी में लपेटकर पेश कर रही हैं ताकि निकल गया तो ठीक है पाठकों के दिमाग में बात घर कर जाएगी और अगर ज्यादा आलोचना हुई तो उसको फिक्शन कहकर पल्ला झाड़ लिया जाएगा। उस उपन्यास का एक पात्र बिप्लब दासगुप्ता एक सरकारी मुलाजिम है, जो जमकर शराब पीता है, और कश्मीर में पदस्थापित है। उनकी हरकतों को भी अरुंधति ने विषय बनाया है। संकेत ये कि सरकारी मुलाजिम ठीक व्यवहार नहीं करते। उस उपन्यास में अरुंधति ने बताया है कि किस तरह परिस्थियों के चलते कश्मीरी युवक आतंकवादी बन जाता है, कहीं भी आतंक की असली वजह पर , उसकी जमीन तैयार करने में पाकिस्तान की भूमिका पर जोर डाला है, ऐसा याद नहीं पड़ता। अब भले ही अरुंधति ने अपने भारतीय सेना की तैनाती को लेकर दिए अपने बयान पर माफी मांग ली है लेकिन जो जहरीली सोच अंदर तक घुसी है उसका क्या किया जा सकता है, इसपर विचार करना चाहिए। मशहूर रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने लिखा था- कम्युनिस्ट विचारधारा एक ऐसा पाखंड है जिससे सब परिचित हैं, नाटक के उपकरणों की तरह उसका इस्तेमाल भाषण के मंचों पर होता है । तो क्या ये माना जाए कि अरुंधति वो पाखंड रच रही थीं और भाषण के मंच का इस्तेमाल कर रही थी।

Wednesday, August 28, 2019

साहित्य की अप्रतिम अमृता


अमृत कौर। सौ साल पहले एक ऐसी शख्सियत का जन्म हुआ था जिसने अपनी लेखनी और अपने व्यक्तित्व से भारतीय साहित्य को गहरे तक प्रभावित किया और दुनिया उसको अमृता प्रीतम के नाम से जानती है। उन्होंने जो जिया उसको ही लिखा । अविभाजित भारत में पैदा हुई अमृता को साहित्य का संस्कार विरासत में मिला। उनके पिता एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक थे और माता शिक्षिका। जब ये बहुत कम उमर् की थीं तो इनकी मां का निधन हो गया और तब ही इन्होंने किताबों को अपना दोस्त बना लिया था। जब उनकी मां का विधन हुआ तो वो ग्यारह साल की थी और अपने पिता के साथ लाहौर चली गई थीं। अमृता को नजदीक से जाननेवालों का मानना है कि मां के असमय निधन की वजह से उनके स्वभाव में विद्रोह के बीज पड़ गए। जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ तो वो लाहौर से दिल्ली आईं। विभाजन की त्रासदी और दर्द ने उनके विद्रोह को और हवा दी। तबतक उऩकी शादी प्रीतम सिंह से हो चुकी थी। लाहौर में रहते हुए अमृता प्रीतम रेडियो में काम करने लगी थी। उनका रेडियो में काम करना उनके परिवार को रास नहीं आ रहा था। एक दिन उऩके एक बुजुर्ग रिश्तेदार ने उनसे पूछा कि तुम्हें रेडियो में कितने पैसे मिलते हैं तो अमृता ने कहा दस रुपए प्रतिमाह। बुजुर्ग ने तपाक से कहा कि वो रेडियो की नौकरी छोड़कर घर में रहा करें और वो उनको हर महीने बीस रुपए दिया करेंगे। अमृता प्रीतम ने साफ मना कर दिया और कहा कि उनको अपनी आजादी और आत्मनिर्भर होना पसंद है। अमृता प्रीतम ने एक जगह लिखा भी है कि कई बार बच्चों के मां-बाप उनको डरा कर रखना चाहते हैं लेकिन वो नहीं जानते कि डरा हुआ बच्चा डरा हुआ समाज का निर्माण करता है। इसी सोच के साथ अमृता सृजन करती थीं। मात्र सत्रह साल की उम्र में इनकी पहली रचना प्रकाशित हो गई थी। फिर ये सिलसिला थमा नहीं था और वो निरंतर लिखकर भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़ियों को चुनौती देती रहीं। उनका लिखा और उनके आजाद ख्याल समाज के ठेकेदारों को चुनौती देते थे, लिहाजा उनका विरोध भी होता था।
अमृता प्रीतम जब जीवित रहीं तो उनकी रचनाओं को लेकर उनके जीवन को लेकर विरोध होता रहा, उनके निधन के बाद उनके प्यार के चर्चे होते रहे, पहले सज्जाद हैदर के साथ, फिर साहिर के साथ और बाद में इमरोज के साथ। यह साहित्य की विडंबना ही कही जाएगी कि अमृता प्रीतम की रचनाओं पर उतना काम नहीं हुआ जितने की वो हकदार थीं। अमृता प्रतीम को ज्ञानपीठ सम्मान मिला, उनको साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला, उनको पद्मश्री से नवाजा गया। दुनियाभर के अन्य सम्मान उनको मिले। उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट बेहतरीन कृति है जिसमें बहुत बेबाकी और साहस के साथ अमृता पाठकों को अपनी जिंदगी के उन इलाकों में लेकर भी गईं जहां आमतौर पर लेखक जाने से हिचकिचाते हैं या जाते ही नहीं हैं। उनके पाठक उनकी रचनाओं से बेइंतहां मोहब्बत करते थे। लेकिन उनके समकालीन लेखकों को उनके साथी रचनाकारों को उनकी कामयाबी रास नहीं आती थी। इन सबसे बेफिक्र अमृता अपने लेखऩ में और इमरोज के साथ प्यार में डूबी रही थीं।
अमृता प्रतीम विभाजन के बाद दिल्ली आ गईं और अपने अंतिम दिनों तक वो हौज खास की अपनी कोठी में रहीं। दिल्ली में उनकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण कालखंड गुजारा, संघर्ष और सम्मान का कालखंड। यहां उनके और इमरोज का प्यार परवान चढ़ा। एक ऐसा रिश्ता जिसपर हजारों पन्ने लिखे गए लेकिन उस प्यार को परिभाषित नहीं किया गया। शुरुआत में जब इमरोज पटेल नगर में रहते थे और उर्दू की मशहूर पत्रिका शमां में काम करते थे तो कई बार अमृता उनके मिलने उनके दफ्तर पहुंच जाती थीं। इमरोज ने दफ्तर में अपने बैठने की जगह के आसपास कई महिलाओँ के चित्र बनाकर रखे हुए थे, वो पत्रिका के लिए भी महिलाओँ के चित्र बनाते थे। एक दिन अमृता ने इमरोज से पूछा कि वो औरतें के चित्र तो बनाते हैं, उनके अपनी कूची से उऩके चेहरे में इस तरह से रंग भर देते हैं कि वो बेहद खूबसूरत दिखाई देती हैं लेकिन क्या कभी वूमन विद ए माइंड चित्रित किया है? इमरोज के पैस कोई जवाब नहीं था। इमरोज ने कला के इतिहास को खंगाला लेकिन उन्हें इस तरह की औरत का कोई चित्र नहीं मिला, तब जाकर उनकी समझ में आया कि अमृता ने कितनी बड़ी बात कह दी, औरतों को सदियों से जिस्म ही समझा गया उनके मन को समझने की कोशिश नहीं हुई। इमरोज और अमृता का जो प्यार था उसमें एक खास किस्म का बौद्धिक विमर्श भी दिखता है जिसको भी व्याख्यायित करने की कोशिश की जानी चाहिए। 1958 का एक प्रसंग है तब इमरोज दिल्ली के पटेल नगर इलाके में रहते थे। दोनों मिलते और पैदल ही घूमा करते इसकी एक बानगी उमा त्रिलोक ने अपनी किताब, अमृता इमरोज में पेश की है। इमरोज ने उनको बताया- हम घूमते रहे, घूमते रहे हलांकि हमें जाना कहीं नहीं था। धरती पर बिखरे फूलों की तरह हम भी उनपर बिखर गए। आसमान को कभी खुली आंखों से देखते तो कभी बंद करके। पुरानी इमारतों की सीढ़ियों पर चढञते उतरते हम एक ऐसी इमारत की छत पर पहुंच गए, जहां से यमुना दिखाई देती थी। अमृता ने मुझसे पूछा क्या तुम पहले किसी और के साथ यहां आए हो? मैंने कहा मुझे नहीं लगता कि मैं मैं कभी भी कहीं भी किसी के साथ गया हूं। हम घूमते रहे और जहां भी दिल चाहा, रुक कर चा पी लेते सबकुछ खूबसूरत था। फिर समय का चक्र चला और इमरोज और अमृता एक साथ रहने लगे। अमृता के दो बच्चे थे जिन्हें इमरोज स्कूटर पर स्कूल छोड़ने जाते थे लेकिन आए दिन पुलिस उनको पकड़ लेती और चालान काट देती थी। फिर दोनों ने तय किया कि वो एक कार खरीद लेते हैं। दोनों ने पांच-पांच हजार रुपए लगाए और दस हजार रुपए में फिएट कार खरीद ली। जब रजिस्ट्रेशन करवाने गए तो दोनों के नाम से रजिस्ट्रेशन का आवेदन दिया। अफसर ने पूछा कि दोनों के बीच रिश्ता क्या है तो उनको बताया गया कि दोनों दोस्त हैं। वो ये मानने को तैयार नहीं था कि एक महिला और एक पुरुष दोस्त भी हो सकते हैं। खैर किसी तरह से रजिस्ट्रेशन संभव हुआ।
अमृता प्रीतम को ज्योतिष पर भरोसा था या नहीं ये कहना मुश्किल है लेकिन इमरोज के साथ रहने के पहले वो एक ज्योतिषी से ये जानने पहुंची थीं कि उनका ये रिश्ता बनेगा या नहीं। उमा त्रिलोक की पुस्तक में इस बात का उल्लेख है कि अमृता की इस जिज्ञासा को सुनने के बाद ज्योतिषी ने आड़ी-तिरछी रेखाएं खींची और कहा कि ये रिश्ता सिर्फ ढाई घंटे का है। गुस्से में अमृता ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। तब ज्योतिष ने और गणना की और कहा कि अगर ढाई घंटे का नहीं है तो ढाई दिन या अधिकतम ढाई साल तक चलेगा। खिन्न मन से अमृता ने कहा था कि अगर ढाई ही करना है तो ढाई जन्म क्यों नहीं। ज्योतिषी के पास कोई उत्तर नहीं था। वो हमेशा ये भी कहा करती थीं कि उनकी कुंडली में सातवें स्थान पर चंद्रमा था बाद में उसकी जगह पर आकर इमरोज बैठ गए। अमृता और इमरोज के प्रेम पत्र भी साहित्य की थाती हैं। एक पत्र की भाषा और भाव दोनों से इसका अंदाज लग सकता है। एक बार इमरोज मुंबई गए तो अमृता ने उनको एक खत लिखा- तुम जितनी सब्जी लेकर दे गए थे, वो खत्म हो गई है, जितने फल लेकर दे गए थे वो भी खत्म हो गए हैं। फ्रिज खाली पड़ा हुआ है। मेरी जिंदगी भी खाली होती हुई लग रही है- तुम जितनी सांस छोड़ गए थे वे खत्म हो रही हैं...  इस तरह के दर्जनों खत हैं जिसमें प्रेम के उन बिंबों का उपयोग किया गया है जो अप्रतिम है।
दिल्ली में रहते हुए अमृता प्रीतम और हिंदी की लेखिका कृष्णा सोबती के बीच ऐतिहासिक विवाद हुआ और मामला अदालत तक पहुंचा था। दरअसल हुआ ये था कि अमृता प्रीतम की एक कृति छपी जिसका नाम था हरदत्त का जिंदगीनामा। उनके किताब को पाठक हाथों-हाथ लेते थे। कृष्णा सोबती को लगा कि अमृता प्रीतम ने अपनी तिताब का शीर्षक उनके चर्चित उपन्यास जिंदगीनामा से उड़ा लिया है। उन्होंने अमृता प्रीतम पर यह आरोप लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया। जब ये विवाद उठा तो देशभर के साहित्य जगत में इसकी खूब चर्चा हुई थी। पक्ष-विपक्ष में लेखकों ने लेख आदि भी लिखे थे। गोष्ठियों में भी इसकी खूब चर्चा होती थी। जब केस चल रहा था तब कई लेखकों ने कृष्णा सोबती को समझाने की कोशिश की थी कि जिंदगीनामा शब्द का प्रयोग पहले भी हुआ है और फारसी में इस शीर्षक से कई पुस्तकें मौजूद हैं। मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने भी तब कहा था कि श्रद्धेय गुरू गोविंद सिंह की जीवनी भी उनके एक शिष्य ने जिंदगीनामा के नाम से लिखी थी जो कृष्णा सोबती के उपन्यास से काफी पहले छपी थी। लेकिन कृष्णा जी केस लड़ने पर अडिग रहीं तब अमृता प्रीतम ने भी ठान लिया कि वो इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाएंगी। ये केस पच्चीस वर्षों तक चला था। कृष्णा जी की बद्धिक संपदा को लेकर संघर्ष करने की जिंद को अमृता ने परास्त किया और इसका फैसला अमृता प्रीतम के पक्ष में आया। लेकिन वो इस फैसले को देख-सुन नहीं सकीं। वो तबतक दुनिया छोड़कर जा चुकी थीं। दिल्ली में अमृता प्रीतम ने ना केवल सृजनात्मक शोहरत हासिल की बल्कि इसी धरती पर उनकी जिंदगी पूर्ण भी हुई।

Saturday, August 24, 2019

बहिष्कार से नहीं संवाद से बनेगी बात


लगभग एक पखवाड़े पहले पटना में रहनेवाले हिंदी के उपन्यासकार रत्नेश्वर ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी, इस समय हिन्दी के कई सुपर हिट गीत लिखने वाले मनोज मुंतशिर के साथ एक शाम। मनोज मुंतशिर ने तेरी गालियां से लेकर तेरे संग यारा, ‘मेरे रश्के-कमर आदि अनेक लोकप्रिय गीत लिखे हैं। इनके गीत अभी क्या हिन्दी और क्या अहिन्दी सबकी जुबान पर चढ़े हुए हैं। कलम श्रृंखला के अंतर्गत चाणक्य होटल में मनोज मुंतशिर मुखातिब थे। कार्यक्रम खत्म होने के बाद कार्यक्रम संयोजक एवं संचालिका अन्विता प्रधान मेरे पास आईं और मुझे धन्यवाद देते हुए कहा- 'आपका धन्यवाद कि आप आए। अन्यथा हिन्दी के एक भी प्रतिष्ठित लेखक का नहीं आना खटकता। अब सवाल यह है कि हिन्दी का ढिंढोरा पीटने वाले, हिन्दी से यश पाने वाले, हिन्दी का पुरस्कार लेनेवाले स्वनामधन्य लेखक इसमें शामिल क्यों नहीं हुए! हिन्दी के गंभीर लेखक हिन्दी सिनेमा को स्तरहीन मानते हैं और उसे अपने साहित्य के बराबर का दर्जा नहीं देते। यह आज से नहीं हमेशा से है। जिस सिनेमा ने हिन्दी को हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही नहीं अहिन्दी आमजन तक पहुंचाने में जबरदस्त भूमिका निभाई। वह हमारे लिए अछूत जैसा क्यों है? हिन्दी के गंभीर लेखकों का अपना महत्त्व है पर भाषा को जन-जन तक पहुंचाने का काम हिन्दी सिनेमा ने उनसे कहीं ज्यादा किया है। अन्यथा संस्कृत के तो एक-से-एक प्रकांड विद्वान हमारे बीच रहे हैं पर वह क्यों आमजन के बीच सिर्फ मंत्रों में सिमट कर रह गई। हिन्दी की सर्वमान्य समृद्धि चाहिए तो सबको समान दर्जा देना ही होगा। अहिन्दी भाषियों की टूटी फूटी हिन्दी के उपहास से भी बचना होगा। अन्यथा ढोल पीटते रह जाएंगे और हिन्दी संस्कृत की राह चल पड़ेगी। रत्नेश्वर की टिप्पणी के उत्तरार्ध से असहमि होते हुए मुझे लगा कि फिल्म को लेकर तथाकथित गंभीर साहित्याकारों के मन में जो उपेक्षा भाव की बात उन्होंने की है उसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है। पटना के कथित गंभीर साहित्यकारों की कलम कार्यक्रम में अनुपस्थिति की रत्नेश्वर की टिप्पणी का वरिष्ठ लेखिका उषाकिरण खान ने प्रतिवाद किया। ठीक किया, लेकिन कलम के हर कार्यक्रम में जिनकी आवश्यक उपस्थिति होती है उन सभी का ना होना रत्नेश्वर की आशंका को पुष्ट ही करता है। मनोज मुंतशिर हमारे दौर के महत्वपूर्ण कवि-गीतकार हैं। उनकी कविताओं का संग्रह जागरण बेस्टसेलर की सूची में शामिल हो चुका है। उनके गीत तो लोकप्रिय होते ही हैं। उनके कार्यक्रम में पटना के कथित गंभीर साहित्यकारों का ना आना साहित्यकारों के अहंकार को भी दर्शाता है। ये ऐसा अहंकार है जो आपको अघोषित बहिष्कार करने के लिए बाध्य करता है। जब आप किसी का बहिष्कार करते हैं तो आप संवाद बाधित करते हैं। संवाद बाधित होने से लोकतंत्र कमजोर होता है। लेकिन विचारधारा विशेष के लेखकों को लोकतंत्र से क्या देना वो तो विदेशों में बैठे अपने आकाओं के इशारे पर साहित्यिक कदमों को भी तय करते हैं। यह अलग बात है कि अब उनके विदेशी आका थोड़े कमजोर हो गए हैं और दिशा निर्देश के साथ धन नहीं भेज पाते हैं तो उनके समर्थक थोड़े उदासीन हो गए हैं। लेकिन अंग्रेजी की एक कहावत है न कि पुरानी आदतें देर से जाती हैं, तो ये भी अबतर पुरानी आदतों से उबर नहीं पाए हैं। मनोज मुंतशिर के कार्यक्रम को लेकर पटना के साहित्यकारों की उदासीनता खेदजनक है। खास तौर पर उन लेखकों की उदासीनता जो बिना नागा कलम के कार्यक्रम में उपस्थित रहते थे। इस तरह की कई टिप्पणी रत्नेश्वर के पोस्ट पर भी है।
आजकल वामपंथियों के प्रिय लेखक अशोक वाजपेयी भी फिल्मों पर या फिल्मी शख्सियतों पर लेखन को दोयम दर्जे का ही मानते रहे हैं, कुमार शाहनी जैसे फिल्मकारों को छोड़कर ।एक सम्मान समारोह में उन्होंने लता पर लिखी किताब के बारे में बेहद हल्की टिप्पणी की थी। यह एक प्रकार का आभिजात्य भी है। एक बार अशोक वाजपेयी ने ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह में अमिताभ बच्चन को बुलाने को लेकर भी तंज किया था। तब भी खासा विवाद हुआ था। लेकिन अशोक वाजपेयी यह भूल जाते हैं कि अमिताभ बच्चन का अभिनय कला में तो अप्रतिम योगदान है ही हिंदी के प्रचार प्रसार में भी वो किसी भी साहित्यकार से अधिक योगदान कर रहे हैं। अमिताभ बच्चन इस बात पर जोर देते हैं कि उनको स्क्रिप्ट देवनागरी में दी जाए जबकि बॉलीवुड में ज्यादातर स्क्रिप्ट रोमन में लिखी जाती हैं। इसी तरह से भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में अमिताभ को बुलाए जाने पर हिंदी के लेखकों ने बहुत अनाप शनाप लिखा था। सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय एक अध्यापक-लेखक ने उस समय लिखा था कि- हिंदी साहित्य में अभिनेता अमिताभ बच्चन के योगदान के बारे में गूगल से लेकर राष्ट्रीय पुस्तकालय तक पर कहीं कोई रचना नहीं मिलेगी । इसके बावजूद उनको मोदी सरकार ने दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन सत्र में आमंत्रित किया ।यह संकेत है कि मोदी जी की निष्ठा साहित्य में नहीं मुंबईया सिनेमा में है। अब इतने विद्वान लेखक को क्या बताया जाए कि ये विश्व हिंदी साहित्य सम्मेलन नहीं था । मैं यह मानकर चलता हूं कि उनको इतना तो ज्ञान होगा ही कि साहित्य और भाषा में थोड़ा फर्क तो है । रही बात अमिताभ बच्चन के हिंदी साहित्य में योगदान की तो ना तो अमिताभ बच्चन ने और ना ही उस वक्त की सरकार ने कभी ये दावा किया था कि बच्चन साहब बड़े साहित्यकार हैं । पर हिंदी के प्रचार प्रसार को लेकर अमिताभ के प्रयास सराहनीय है । वयोवृद्ध फिल्मी गीतकार गुलजार की भी यही पीड़ा है कि हिंदी साहित्य जगत के कथित गंभीर आलोचक और कवि उनको कवि नहीं मानते। गुलजार की ये पीड़ा तो कई बार सार्वजनिक रूप से झलक भी जाती है। दरअसल ये हिंदी के इस तरह के लेखक ये समझ नहीं पा रहे हैं कि हिंदी फिल्मों और टेलीविजन सीरियलों ने उनकी भाषा को कितना विस्तार दिया। मुझे याद है कि 2012 में जोहिनसबर्ग में विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ था। जोहिनसबर्ग में जिस टैक्सी से हमलोग एयरपोर्ट से होटल जा रहे थे उसका ड्राइवर वहां के लोकल एफएम चैनल लोटस पर हिंदी के गाने सुन रहा था। जब मैंने उन, पूछा कि क्या वो हिंदी गाने सनझते हैं तो उसने अंग्रेजी में उत्तर दिया था कि वी डोंट अंडरस्टैंड हिंदी बट वी एंजॉय हिंदी सांग्स। कोई भी भाषा जब किसी दूसरी भाषा के लोगों को आनंद देने लगे तो समझिए कि उस भा। की संप्रेषणीयता अपने उरूज पर है। विष्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मॉरिशस के उस वक्त के कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने भी ये माना था कि हिंदी के प्रचार प्रसार में बॉलीवुड फिल्में और टीवी पर चलनेवाले हिंदी सीरियल्स का बड़ा योगदान है। उन्होंने सभा को हिंदी में संबोधित कर मजमा तो लूटा ही था, वहां मौजूद सभी लोगों का दिल भी जीत लिया था। चुन्नी रामप्रकाश ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया था कि उनकी जितनी भी दक्षता हिंदी में है वो हिंदी फिल्मों और टीवी की बदौलत। लेकिन हिंदी के कथित गंभीर साहित्यकार इस बात को कभी नहीं मानते। उनका तो तर्क ये होता है कि हिंदी सीरियल्स और सिनेमा में उपयोग में लाई जानेवाली भाषा हिंदी का नाश कर रही है। इस तरह की धारणा हिंदी की सबसे बड़ी शत्रु है।
हिंदी सिनेमा एक गंभीर विधा है और सिनेमा पर लेखन रचनात्मक साहित्य की श्रेणी में आता है। सिनेमा के लिए लिखनेवाले भी उतना ही महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं जितना कथित तौर पर गंभीरता से उपन्यास या कविता लिखने वाले हिंदी के लेखक या कवि। हिंदी के प्रचार प्रसार में फिल्मों का बहुत योगदान है । दरअसल फिल्मी कलाकारों को लेकर हिंदी के वामपंथी लेखक कभी संजीदा नहीं रहे । फिल्म वालों को बुर्जुआ संस्कृति का पोषक मानकर उनकी लगातार उपेक्षा की जाती रही । हिंदी फिल्मों के बड़े से बड़े गीतकार को हिंदी का कवि नहीं माना गया जबकि विचारधारा का झंडा उठाकर घूमनेवाले औसत कवियों को महान घोषित कर दिया गया । मनोज मुंतशिर के कार्यक्रम में कथित गंभीर साहित्यकारों का नहीं आना इसी मानसिकता का प्रकटीकरण था। आज जरूरत इस बात की है कि वामपंथी विचारधारा के लेखकों को किसी को भी अस्पृश्य मानने की अपनी मानसिकता से बाहर निकलें, हर तरह की विधा को महत्व दें और हर तरह की विचारधारा के साथ संवाद करें। अस्पृश्यता के सिद्धांत को अपनाकर वामपंथियों ने अबतक अपना बहुत नुकसान कर लिया है और अगर वक्त रहते नहीं चेते तो नुकसान भी नदी के कटान की तरह तेजी से उनकी बची-खुची जमीन को लील जाएगा।

सोबती पर लिखूंगी संस्मरण- मुद्गल


चित्रा मुद्गल हिंदी की वरिष्ठ कथाकार हैं। अपने जीवन में पचहत्तर बसंत देख चुकी चित्रा मुद्गल पिछल छह दशक से सृजनरत हैं। उनको साहित्य अकादमी समेत कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुके हैं। उन्होंने गुजराती और मराठी में भी कविताएं लिखी हैं। ुउन्होंने दिल्ली शहर के अपने अनुभव मुझसे साझा किए। 
सबसे पहले आपको एक दिलचस्प बात बताऊं क्योंकि उसका दिल्ली से गहरा संबंध है। मेरे पिताजी बड़े जमींदार थे, मां प्रतापगढ़ इलाके के बड़े तालुकेदार घराने की थी, दादी अमेठी की बडे परिवार से थीं। ऐस में जब मैंने फरवरी 1965 में अवधनारायण मुदगल से शादी की तो हमारे पूरे खानदान में हंगामा मच गया। किसी के गले ये बात उतर ही नहीं रही थी कि हमारे परिवार की लड़की अपनी मर्जी से शादी कर लेगी वो भी अपनी जाति से बाहर के लड़के से। हमारे घर में हमेशा ये कहा जाता कि जो भी लड़की ऐसी जुर्रत करेगी उसको आंगन के बाहर के ढंके हुए कुंए में डाल दिया जाएगा और कह दिया जाएगा कि पांव फिसलने से कुंए में गिर गई। जब मैंने अवध से शादी की तो मेरे पिताजी बहुत नाराज हुए। मेरे प्रेम विवाह ने उनको अंदर तक हिला दिया था और वो इसको स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। वो इस जुगत में लगे हुए थे कि अवध को किसी तरह से जेल भिजवा दें और फिर मेरी शादी अपनी मर्जी से करवा सकें। वो सोच रहे थे कि जैसे ही अवध जेल जाएगा तो लड़की के सर से मोहब्बत का खुमार उतर जाएगा। हम पिता के सामर्थ्य से डरकर अप्रैल 1965 में मुंबई से दिल्ली आ गए। दिल्ली आकर सबसे पहले सर्वेश्वर भाई साहब के घर पर एक महीना रुके। उसके बाद राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी के साथ भी महीने भर रुके। लोग कहते हैं कि मैं और अवध शादी कर भागकर दिल्ली आ गए थे। ये बात गलत है। हमें भागने  की जरूरत ही नहीं थी। दो महीने में ही हम फिर वापस मुंबई लौट गए थे। बाद में जब मेरे पिता बीमार पड़े और कोमा में जाने के पहले मेरा हाथ पकड़कर मुझसे कहा कि मैं सोचता था कि मां-बाप अपने बच्चों के लिए सुख खरीद सकते हैं पर अब मुझे लगता है कि सुख खरीदा नहीं जा सकता था। ये मेरे लिए बहुत ही भावुक क्षण था।
1979 से लेकर 1982 का दौर मेरे लिए बहुत उथल पुथल का रहा। मेरे पति अवध सारिका पत्रिका में काम करते थे। प्रबंधन ने सारिका को दिल्ली शिफ्ट करने का फैसला लिया। प्रबंधन कमलेश्वर से छुट्टी पाना चाहता था। उनको लगता था कि कमलेश्वर नौकरी तो सारिका की करते हैं लेकिन जुटे फिल्म लिखने में रहते हैं। इसको खत्म करने के लिए सारिका को मुंबई से दिल्ली शिफ्ट कर दिया गया। अवध को सारिका का सहायक संपादक बनाकर दिल्ली भेजा गया। जब हम दिल्ली आए तो लारेंस रोड में रहने लगे। पर मेरा मुंबई आना जाना-लगा रहता था। बच्चों की पढ़ाई थी और मैं भी वहां ट्रेड यूनियन में सक्रिय थी। लारेंस रोड के बाद हमारा नया ठिकाना बना था दरियागंज, वहां भी हम रहे। जब अवध को सारिका का संपादक बनाया गया तो हमें ग्रेटर कैलाश में शिफ्ट करने का विकल्प दिया गया था, पर हमारे दोस्तों ने सलाह दी कि अपने जैसे लोगों के बीच रहना चाहिए। फिर हमलोग मयूर विहार फेज 1 में शिफ्ट कर गए। उस समय मयूर विहार में अदभुत माहौल था। काला जल जैसा कालजयी उपन्यास लिखने वाले शानी के फ्लैट पर हर दिना लेखकों का जमावड़ा लगता था। साहित्यिक अड्डेबाजी होती थी, कहानियों से लेकर दुनिया जहान की बातें होती थीं। शाऩी के घऱ होनेवाली उस बैठक में विष्णु खरे और प्रयाग शुक्ल लगभग नियमित थे, बाद में विजयमोहन सिंह भी आने लगे। शानी की पत्नी मुझे टिफिन में अच्छा खाना बनवाकर भेजती थी। वो मजाक में कहती भी थीं कि बेचारी ठकुराइन को ब्राह्मण से शादी कर घास-फूस खाना पडता है। मयूर विहार में मैंने कई घर बदले लेकिन आजतक वो इलाका छोड़ा नहीं। मैं कृष्णा सोबती जी के पड़ोस में भी लंबे समय तक रही और उनकी कई निजी बातों की साक्षी रही। मेरे नए उपन्यास में इऩ बातों पर लिखने की सोच रही हूं।   
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

Saturday, August 17, 2019

स्वायत्ता की आड़ में अराजकता


हाल ही में ललित कला अकादमी ने अपना स्थपना दिवस समारोहपूर्वक मनाया। दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में भारत सरकार के संस्कृति मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल समेत कला जगत के कई मूर्धन्य उपस्थित थे। अपने संबोधन में ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और प्रतिष्ठित कलाकार उत्तम पचारणे ने संस्कृति मंत्रालय पर अकादमी के कामकाज में बाधा डालने की बात कही। मंत्री की मौजूदगी में कही गई उनकी इन बातों का मंत्री ने नोटिस तो लिया लेकिन बेहद संजीदगी से उन्होंने नसीहत दी कि इल तरह की बातें सार्वजनिक मंच से ना होकर आपसी संवाद के जरिए की जानी चाहिए। बात आई-गई हो गई लेकिन ललित कला अकादमी के अध्यक्ष की बातों से ऐसा लगा कि मंत्रालय और अकादमी के बीच सामंजस्य की कमी है। ये भी लगा कि कुछ तो है जिसकी परदादारी है और वो बाहर आने के लिए बेचैन है। दरअसल ललित कला अकादमी काफी समय से विवादों में रही है। अलग अलग समय पर अलग अलग कारणों से विवाद होते रहे हैं। अब तो अध्यक्ष ने साफ तौर पर कह दिया है कि मंत्रालय और अकादमी के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। तो ऐसे में मंत्रालय और अकादमी दोनों की जिम्मेदारी बनती है कि संवादहीनता और कामकाज की बाधाओं को दूर किया जाए।
दिल्ली के रवीन्द्र भवन में तीन अकादमियां चलती हैं, संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी और साहित्य अकादमी। संगीत नाटक अकादमी अभी हाल में अपने पुरस्कारों को लेकर विवाद में रही। साहित्य अकादमी भी 2015 के बाद काफी चर्चा में रही है। पिछले दिनों इस तरह की खबरें आईं कि साहित्य अकादमी के प्रतिनिधिमंडल को चीन जाने की अनुमति संस्कृति मंत्रालय से नहीं मिली और इसकी वजह से लंबे समय से चीन के साथ चली आ रही विचार-विनिमय की परंपरा बाधित हुई। लेकिन ललित कला अकादमी का मामला इन दोनों अकादमियों से अलग है। इसके पूर्व सचिव सुधाकर शर्मा को लेकर भी काफी विवाद हुआ था। अशोक वाजपेयी जब ललित कला अकादमी के अध्यक्ष थे तो उन्होंने सुधाकर शर्मा को सचिव पद से हटा दिया था। फिर बहाली हुई, फिर हटाए गए। अशोक वाजपेयी का कार्यकाल भी विवादित रहा। उनपर भी कई तरह के आरोप लगे। इन आरोपों की सीबीआई जांच भी कर रही है। गवाहों के बयान आदि भी हो चुके हैं। सीबीआई चार्जशीट की प्रतीक्षा है। अशोक वाजपेयी के बाद के के चक्रवर्ती ललित कला अकादमी के अध्यक्ष बने। इनका कार्यकाल भी विवादित रहा, इनके समय में भी सुधाकर शर्मा को सस्पेंड किया गया। के के चक्रवर्ती भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और उनको बीच में ही हटाकर मंत्रालय ने ललित कला अकादमी को अपने अधीन कर लिया। ललित कला अकादमी के संविधान में ये प्रावधान है कि अगर मंत्रालय को ये लगता है कि वहां गड़बड़ियां हो रही हैं तो वो संस्थान के प्रशासन को अपने अधीन कर प्रशासक नियुक्त कर सकता है। मंत्रालय ने कृष्णा शेट्टी को अकादमी का प्रशासक नियुक्त कर दिया। प्रशासक का काम ललित कला अकादमी का चुनाव करवाकर महा-परिषद और कार्यकारी बोर्ड का गठन करवाना होता है। परंतु शेट्टी अपने कार्यकाल में इसका गठन नहीं करवा पाए। कृष्णा शेट्टी के बाद मंत्रालय ने अपने एक संयुक्त सचिव को प्रोटेम चेयरमैन नियुक्त कर दिया। ललित कला अकादमी के संविधान की किस धारा के अंतर्गत प्रोटेम चेयरमैन बनाए गए इसपर कलाकारों के बीच लंबे समय तक चर्चा होती रही थी। इन सबके बीच मामला कोर्ट में भी गया था लेकिन पता नहीं किन परिस्थितियों में महा-परिषद का चुनाव नहीं हो पाया। समय समय पर मंत्रालय के कई अधिकारियों को यहां का कामकाज देखने की जिम्मेदारी दी गई। थोड़ा वक्त और बीता और उत्तम पचारणे को यहां का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। अकादमी की बेवसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक अबतक महा-परिषद के सदस्यों का चुनाव नहीं हो पाया। जाहिर सी बात है कि जब महा-परिषद का गठन ही नहीं हो पाया तो कार्यकारी बोर्ड कैसे बनती, क्योंकि इसके कुछ सदस्य तो महा-परिषद के सदस्यों के बीच से ही चयनित होते हैं। महा-परिषद के नहीं होने से ललित कला अकादमी के कामकाज में पारदर्शिता नहीं दिखाई देती है। इनमें से ज्यादातर घटनाएं पूर्व संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के कार्यकाल में हुईं। सबसे दिलचस्प तो सुधाकर शर्मा का केस है। वो सचिव पद से कई बार हटाए और बहाल किए गए और आखिरकार जब वो रिटायर हुए तो सस्पेंड ही थे। स्वायत्ता के नाम पर अराजकता के उदाहरण के तौर पर ललित कला अकादमी के क्रियाकलापों को देखा जा सकता है।   
ललित कला अकादमी में इन तमाम विवादों को देखते हुए संसद में 17 दिसंबर 2013 को सस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी समिति रिपोर्ट का स्मरण हो रहा है। संस्कृति संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने अपने 201वें प्रतिवेदन में अकादमियों के संबंध में कहा था, हमारे संस्थापकों ने संस्कृति को राजनीति से दूर रखने के लिए इन्हें स्वायत्ता दी थी, परंतु आज ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीति इसमें पिछले दरवाजे से गुपचुप तरीके से प्रवेश कर गई है। इन संस्थाओं के संस्थापकों को लेखकों और कलाकारों क समुदाय की एकता पर दृढ़ विश्वास था और आज वे इन संस्थाओं को बाधित करनेवाली समस्याओं का पूर्वानुमान नहीं लगा पाए। इसके परिणामस्वरूप प्रक्रिया में पारदर्शिता परिणाम से संबंध में जवाबदेही का अभाव है। वस्तुत: पारदर्शिता और जवाबदेही के बिना उसकी स्वयत्ता एक दोधारी हथियार बन गई है जिसका कोई भी अरनी सुविधानुसार उपयोग कर सकता है। प्रशासनिक शब्दावली में जवाबदेही का अर्थ नियंत्रण नहीं है बल्कि वह जिम्मेदारी है जिसके लिए स्वयत्तता का प्रयोग किया जाना है।....संकट की यह स्थिति संस्कृति मंत्रालय की उदासीनता, ध्यान नहीं देने और कभी कभी असाहयता वाली भूमिका के कारण और भी गंभीर हो जाती है। मंत्रालय द्वारा उनके कार्यों में जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए कोई तंत्र मौजूद नहीं है।संसद की इस समिति ने अध्यक्ष और सचिव के बीच कार्य विभाजन को स्पष्ट करने पर भी बल दिया था क्योंकि इनके गठन के दस्तावेजों इन दोनों के अधिकारों की सीमा अस्पष्ट थी। इसका नतीजा यह होता था कि कई बार अध्यक्ष ऐसी शक्तियों का उपयोग करने की चेष्टा करते थे जो उनको प्राप्त नहीं होती है और वो रोजमर्रा के कामकाज में सीधे हस्तक्षेप करने लगते थे। ललित कला अकादमी में तो स्थिति बहुत विषम है। वहां तो लंबे समय से महा-परिषद या कार्यकारी परिषद है ही नहीं लिहाजा अराजकता ज्यादा है। अध्यक्ष के निर्देशों के कार्यान्वयित करवाने में किसी प्रकार की चूक या नियमों के उल्लंघन के लिए सचिव जिम्मेदार होते हैं इस वजह से बहुधा दोनों के बीच तनातनी चलती रहती है। ललित कला अकादमी के सचिव के बार-बार सस्पेंड होने की वजह ये भी हो सकती है। संगीत नाटक अकादमी में भी सचिव पर गाज गिरी ही थी। वहां की सचिव रही हेलेन आचार्य का मामला तो कोर्ट-कचहरी तक गया था। इस समिति ने सरकार को इन अकादमियों के संविधान में स्पष्टता लाने के लिए एक हाई पॉवर समिति बनाने को कहा था। समिति बनी भी। उसने मई 2014 में अपनी रिपोर्ट भी दे दी। रिपोर्ट में ललित कला अकादमी के अध्यक्ष का कार्यकाल पांच वर्ष से तीन वर्ष तक करने की सिफारिश की गई। साथ ही अध्यक्ष को लगातार दो कार्यकाल देने पर भी आपत्ति जताई गई थी। हाई पवॉर समिति कि सिफारिशों के आधार पर ललित कला अकादमी के नए नियमों को मंत्रालय ने 26 अप्रैल 2018 को अधिसूचित कर दिया जिसका प्रकाशन भारत के राजपत्र में 27 अप्रैल को हो गया। इस बात को भी सालभर से ज्यादा हो गए लेकिन अबतक ललित कला अकादमी के महा-परिषद का गठन नहीं हो पाया है। चेयरमैन ही वहां के सर्वेसर्वा हैं और कोई नियमित सचिव भी नहीं हैं। एक सचिव नियुक्त भी हुए थे लेकिन वो कुछ ही दिनों में इस्तीफा देकर चले गए। जाहिऱ सी बात है कि इन सबकी अनुपस्थिति में चेयरमैन को असीमित शक्तियां मिली हुई हैं।
केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार के दोबारा सत्ता में आने के बाद संस्कृति के क्षेत्र में बड़ी चुनौती है। अकादमियों की वजह से जिस तरह से विवाद उठ रहे हैं उसके पीछे कई वजहें हैं। कुछ संस्थानों में निदेशक ऐऔर चेयरमैन नहीं हैं जैसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे महत्वपूर्ण संस्थान में नियमित निदेशक का पद महीनों से खाली है और चेयरमैन भी नहीं है। अब वक्त आ गया है कि केंद्र सरकार को एक ठोस संस्कृति नीति के बारे में विचार करना चाहिए। संस्कृति नीति के अभाव में इन सांस्कृतिक संस्थानों में तदर्थ आधार पर कामकाज हो रहा है। प्रह्लाद सिंह पटेल अनुभवी हैं और संस्कृति के क्षेत्र में रुचि लेते दिख भी रहे हैं तो उनसे ये अपेक्षा की जा सकती है कि वो देश की संस्कृति-नीति के निर्माण की दिशा में सकारात्मकता के साथ विचार करेंगे। इससे इन संस्थानों के काम-काज में तो पारदर्शिता आएगी ही भारतीय प्राच्य विद्या के संरक्षण और संवर्धन का काम भी गंभीरता से हो सकेगा।   

Thursday, August 15, 2019

दिल्ली विश्वविद्यालय में पनपा प्रेम


इस वक्त हिंदी के सबसे समादृत लेखकों में से एक नरेन्द्र कोहली ने लंबे समय तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। उन्होंने भारतीय पौराणिक चरित्रों पर विपुल लेखन किया है। उनको पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया है। अभी वे केंद्रीय फिल्म प्रमाणण बोर्ड के सदस्य हैं। उन्होंने दिल्ली के अपने शुरुआती दिनों को मुझसे साझा किया। 

मैं 1961 में यानि आज से 68 साल पहले जमशेदपुर से दिल्ली आया। मैंने जमशेदपुर के कॉपरेटिव कॉलेज से बीए किया था और एम की पढ़ाई के लिए दिल्ली आया। उस वक्त डाक से ही नामांकन आदि हो जाते थे। मुझे रामजस कॉलेज का छात्रावास मिला था और मैं दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरकर सीधे छात्रावास में रहने चला गया था। उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए के लिए भी किसी कॉलेज में नामांकन होता था और क्लास के लिए पोस्ट ग्रेजुएट विभाग में जाना पड़ता था। 1963 में मैंने एमए पास किया और उसी वर्ष मुझे डी ए वी कॉलेज में सहायक व्याख्याता की नौकरी मिल गई जहां मेरा वेतन सवा तीन सौ रुपए प्रतिमाह था। उस वक्त डीएवी कॉलेज पहाड़गंज थाने के पीछे चला करता था। तब डीएवी कॉलेज ईवनिंग कॉलेज हुआ करता था जो कि मुझे बहुत पसंद नहीं था। मुझे लगता था कि शादी-वादी करनी है और जीवन व्यवस्थित करना है तो किसी और कॉलेज में नौकरी करनी चाहिए। 1965 में मैं गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज, जो अब मोतीलाल नेहरू क़लेज है, में व्याख्याता बनकर आ गया। यहां मेरा वेतन भी करीब साढे चार सौ रुपए प्रतिमाह हो गया था। 1965 में ही मैंने विवाह का इरादा किया। दिल्ली विश्वविद्यालय में मधुरिमा मुझसे एक साल जूनियर थी। उससे विभाग में देखा देखी होती थी, थोड़ी बातचीत, कभी कभार कटाक्ष आदि भी होता था। हम दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित थे,, प्रेम भी करते थे पर प्रपोज नहीं कर पाए थे। जब मेरी मौकरी लग गई और मधु फाइनल इयर में आ गई तो एक दिन हमने तय किया कि अब शादी कर लेनी चाहिए। शादी के बाद हमलोग बंगाली मार्केट इलाके में बाबर प्लेस में रहने आ गए। किसी सरकारी बाबू का घर था जो हमने किराए पर लिया था। ये 1967 की बात है उस वक्त बाबर प्लेस के घर का किराया काफी कम था। दो साल बाद हम ग्रेटर कैलाश वन के एस ब्लॉक में रहने आ गए।
मई 1967 में ग्रेटर कैशाल इलाका काफी खाली था। हर दूसरे घर पर टू लेट का बोर्ड लगा था। उस इलाके में अगर आप किराए का मकान देखने जाते तो मकान मालिक आपकी बांहें पकड़कर अपना घर किराया पर देने को तैयार होते थे। हमने 275 रु प्रतिमाह के किराए पर घर लिया और वहां 17 वर्षों तक रहे। उस वक्त ग्रेटर कैलाश इतना खाली था कि आप अभी कल्पना नहीं कर सकते। हमें शॉपिंग आदि करने के लिए साउथ एक्सटेंशन जाना पड़ता था या फिर लाजपत नगर। हमारे देखते देखते ग्रेटर कैलाश में भीड़ इतनी बढ़ गई क्या कहने। 17 साल बाद जब हमने पीतमपुरा में अपना घर बनाया और किराए का मकान छोड़ा तो ग्रेटर कैलाश का चेहरा पूरी तरह बदल गया था। हम 17 साल तक 275 रु प्रतिमाह के किराए पर ही रहे। मकान मालिक अमेरिका में रहता था और कभी कभार ही किराया बढ़ाने को कहता लेकिन कभी बढ़ाया नहीं। जब हम मकान खाली कर रहे थे तो उस वक्त घर खाली करने का रेट तीन लाख रुपए था जो मकान मालिक अपने किराएदार को देता था। लेकिन मैंने कोई पैसा नहीं लिया क्योंकि मुझे ये अनुचित लगा था।
1983 के नवरात्रों में मैं पीतमपुरा में रहने आ गया था। मैंने कहीं पढ़ा था कि ये इलाका पृथ्वीराज चौहान के नाम पर था और पहले इसका नाम पृथोपुरा होता था जो बाद में पीतमपुरा हो गया। और अब तो डीडीए ने इसका नाम बदलकर मौर्य एंक्लेव कर दिया है। पीतमपुरा में जिस सड़क पर हमारा घर था वहां कोई ट्रैफिक नहीं होता था लेकिन अब तो उस सड़क को पार करने में दस मिनट लग जाते हैं। शादी के पहले हमलोग बहुधा फिल्में देखने जाते थे। हमारा पसंदीदा सिनेमा हॉल रिवोली, रीगल और ओडियन हुआ करता था। लेकिन मुझे नाटक देखना ज्यादा पसंद था। बंद थिएर में मुझे अजूब सी घुटन होती है। और पिछले लगभग 35 साल से मैंने थिएटर में जाकर कोई फिल्म नही देखी। नाटक के समय पर भी यानि शाम में जब उसका मंचन होता है तो ट्रैफिर इतना होता है कि देखने जाने की हिम्मत नहीं होती है। दिल्ली काफी बदल गई है, भीड़ और गाड़ियों ने इस शहर की शक्ल पूरी तरह से बदल दी है।
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)     

Saturday, August 10, 2019

उदार और समावेशी होने से हिंदी बढ़ेगी


भाषा का प्रश्न हमारे देश में रह-रहकर उठता रहता है। यहां भाषा हमेशा से संवेदनशील मुद्दा रहा है। भाषा के सवाल पर देश ने आजादी के बाद हिंसा भी देखी है। अभी हाल ही में नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में हिंदी को प्रमुखता देने की एक खबर से ये विवाद फिर से उठ खड़ा हुआ है। तमिलनाडू के नेता और राज्यसभा सांसद वाइको ने भी हिंदी को लेकर गैर जिम्मेदाराना बयान दिया था। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के चुनाव में भी भाषा की अहम भूमिका होती है। यह अनायास नहीं है कि साहित्य अकादमी के 1954 में गठन के बाद 2013 में, यानि उनसठ साल बाद, हिंदी के लेखक विश्ववनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष चुने गए। इसमें एक और संयोग हुआ था कि विश्वनाथ तिवारी का चुनाव सर्वसम्मति से हुआ यानि वो निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए। ऐसा नहीं है कि पहले हिंदी के लेखकों ने अध्यक्ष बनने की कोशिश नहीं की लेकिन उनको सफलता हाथ नहीं लगी। अशोक वाजपेयी ने भी 1998 में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा था और वो रमाकांत रथ से हार गए थे। उनके पहले शिवमंगल सिंह सुमन भी उपाध्यक्ष पद के लिए चुनावी मैदान में उतरे थे लेकिन उनको भी सफलता नहीं मिली थी। साहित्य अकादमी को करीब से जानने वाले लोग ये कहते हैं कि अकादमी के चुनाव में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक हिंदी के प्रत्याशी के विरोध में एकजुट हो जाते थे। सवाल ये उठता है कि अन्य भारतीय भाषा के प्रतिनिधियों के मन में हिंदी को लेकर विरोध का ये समान-भाव क्यों उत्पन्न होता है। साहित्य अकादमी का उदाहरण सिर्फ इस वजह से दिया जा रहा है क्योंकि इसके सामान्य परिषद में सभी प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। भाषा के प्रतिनिधि भी होते हैं। देशभर के विश्वविद्यालयों के नुमाइंदे भी। साहित्य अकादमी चुनाव के इतिहास पर नजर डालने से ये अंदाज लगता है कि भारतीय भाषाओं के बीच आपसी संबंध कैसे हैं?  एक तरफ तो उनसठ साल तक साहित्य अकादमी में हिंदी का कोई अध्यक्ष नहीं चुना जा सका और जब हिंदी का प्रतिनिधि अध्यक्ष बना तो निर्विरोध। इसका विश्लेषण करने पर यह पता लगता है कि विश्वनाथ तिवारी ने साहित्य अकादमी के अपने उपाध्यक्ष के कार्यकाल में या उसके पहले हिंदी के संयोजक के रूप में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों के बीच एक विश्वास का भाव पैदा किया। विश्वास साथ लेकर चलने का। आज पूरे देश में इस बात की आवश्यकता है कि हिंदी को आगे बढ़कर अन्य भारतीय भाषाओं के बीच एक विश्वास का भाव पैदा करना होगा। दूसरी भारतीय भाषाओं के लोग अगर हिंदी का उपयोग करते हैं और उनसे कुछ गलती होती है या वो थोड़ी हिंदी और थोड़ी अन्य भाषा का उपयोग करते हैं तो उनको प्रोत्साहन देना चाहिए ना कि उनका उपहास करना करना चाहिए। चंद महीने पहले की बात है एक गैर हिंदी भाषी लेखिका-पत्रकार ने हिंदी में लिखना शुरू किया। मात्रा और हिज्जे को लेकर उसका ट्विटर पर इतना उपहास किया गया कि उसने सार्वजनिक रूप से लिखा कि अब वो हिंदी में नहीं लिखेंगी। जबकि होना ये चाहिए था कि हिंदी के लोगों को उदार भाव से उसके हिंदी प्रेम को ना केवल स्वीकार करना चाहिए था बल्कि उत्साहित भी करना चाहिए था। ऐसा ही एक वाकया गैर हिंदी भाषी दोस्त के साथ भी हुआ। वो किसी हिंदी न्यूज चैनल पर विशेषज्ञ के तौर पर गईं और हिंदी में बोलते-बोलते स्वाभिक तौर पर उन्होंने अंग्रेजी में बोलना शुरू किया तो उसको बीच में ही टोक दिया गया। कहा गया कि आप हिंदी में बोलिए। यहां भी होना ये चाहिए था कि उसको हिंदी में बोलने के लिए उत्साहित किया जाना चाहिए था। थोड़ी ही सही लेकिन हिंदी भाषा के उपयोग के लिए तारीफ करनी चाहिए। लेकिन हिंदी के कथित शुद्धतावादियों को बहुधा यह स्वीकार नहीं होता। शुद्धतावादियों अपनी भाषा को लेकर इतने आग्रही हो जाते हैं कि उनको सामनेवाले की भावनाओं का ख्याल नहीं रहता है और वो हिंदी का ही नुकसान कर देते हैं। इस तरह के कई उदाहरण हैं। हिंदी को उसी तरह से आगे बढ़ना चाहिए जिस तरह से अन्य भारतीय भाषा चाहे। हिंदी को थोपने या उसको लादने की कोशिश करने से उसकी स्वीकार्यता में बाधाएं खड़ी होती हैं।
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदी को आगे बढ़ाने में गैर हिंदी भाषी विद्वानों और नेताओं का बहुत अधिक योगदान है। रामधारी सिंह दिनकर ने राष्ट्रभाषा आंदोलन और गांधी जी नामक अपने एक लेख में लिखा है- वीर सावरकर जब इंग्लैंड में विद्यार्थी थे तब वहां उन्होंने सशस्त्र क्रांति दल की स्थापना की थी। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने ये लिखा है कि इस दल में अधिकांशत: वो ही छात्र थे, जो भारत से वहां बैरिष्ट्री आदि पास करने गए थे। इसमें मराठी, गुजराती, पंजाबी, बंगाली आदि ऐसे लोग थे जो एक दूसरे की भाषा न जानते थे। इसलिए अंगरेजी में ही सब आपसी व्यवहार बातचीत करते थे। परन्तु, राष्ट्रीयता का उद्रेक उन्हें इस बात पर लज्जित करने लगा। क्यों हम विदेशी भाषा में आपसी बातचीत करें। क्या हमारी अपनी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है? सब ने निश्चय किया कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है और हमलोग आपस में उसी का व्यवहार करेंगे। चिपलूणकर और आगरकर ने, मराठी के प्रति स्वाभिमान रखते हुए, राष्ट्रभाषा के पद पर हिंदी की ही प्रतिष्ठा का समर्थन किया। सन् 1888 के केसरी में भी इस बात का समर्थन किया गया था। सन् 1893-94 में श्री केशवराव पेठे नामक महाराष्ट्रीय सज्जन ने राष्ट्रभाषा नाम की पुस्तक लिखकर अपनी जागरूकता का परिचय दिया। इससे ये साफ होता है कि आजादी के आंदोलन में और आजादी के पूर्व भी गैर-हिंदी भाषी लोगों ने प्रेमपूर्वक हिंदी को अपनाया और बढाया ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां गैर हिंदी प्रदेशों के विद्वानों और नेताओं ने हिंदी को लेकर पूरे भारत को एकजुट करने का उपक्रम आरंभ किया था। लेकिन कालांतर में राजनीति के दबाव में या कहें कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए भाषा को राजनीति के औजार के तौर पर उपयोग किया गया।
अगर हम इतिहास के आइने में भारतीय भाषाओं और हिंदी के संबंधों का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि हिंदी ने किसी भी अन्य भारतीय भाषा का कभी कोई अहित नहीं किया। ना ही उऩके अस्तित्व को कभी चुनौती दी। जबकि स्थिति इसके विपरीत रही है। इसपर सभी भारतीय भाषाओं के लोगों को गंभीरता से विचार करना चाहिए। आज हालत ये है कि देश की सभी भाषाएं अंग्रेजी के दबाव में हैं। सिर्फ दबाव ही क्यों आज भाषा को लेकर जो विवाद चल रहा है उसमें अंग्रेजी का वर्चस्व इतना है कि उसके सामने सभी भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति भी लाचार सी प्रतीत होती है। जबतक भाषा के प्रदेश में अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा तबतक हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को मजबूती नहीं मिल सकती है। अंग्रेजी के पक्षकार ये भ्रम फैलाते हैं कि अगर अंग्रेजी हटाई गई तो हिंदी उसका स्थान ले लेगी और अन्य भारतीय भाषाओं पर हिंदी का आधिपत्य स्थापित हो जाएगा। दरअसल ये पूरे तौर पर एक षडयंत्र का हिस्सा प्रतीत होता है क्योंकि अंग्रेजी को विस्थापित करने का काम भारतीय भाषाओं की एकजुटता के बगैर संभव ही नहीं है। भारतीय भाषाओं के बीच ये विश्वास पैदा करने का काम हिंदी का है। हिंदी के शुद्धतावादियों को भी हिंदी को लेकर उदार होने की जरूरत है। हिंदी में जो शब्द नहीं हैं उनको अन्य भारतीय भाषाओं से लेना चाहिए। भारत सरकार के जो संस्थान हैं उनको इस दिशा में काम करना होगा। केंद्रीय हिंदी संस्थान अपनी क्षमतानुसार काम कर रहा है लेकिन वो नाकाफी है। तकनीकी शब्दावली आयोग को बदलते समय के अनुसार उन शब्दों को हटाना होगा जो हिंदी की बदनामी कर रहे हैं। ऐसे ऐसे शब्द गढ़ दिए गए हैं जो हिंदी को सरल नहीं बनाते हैं बल्कि उसको कठिन बनाते हैं। उपहास का अवसर भी देते हैं।  
आज आवश्यकता इस बात की भी है कि हिंदी के विरोध की जो राजनीति हो रही है उसको भी रेखांकित करते हुए लोगों के बीच ले जाना होगा। देश की सभी भाषाओं के बीच इस राजनीति ने जो शंका का वातावरण बना दिया है उसको रोकने के लिए बड़े कदम उठाने की जरूरत है। कुछ लोग इऩ दिनों फिर से हिंदी को हिंदुत्व की भाषा कहकर उसको सांप्रदायिक भी बनाना चाहते हैं। ऐसी कोशिशें पहले भी हो चुकी हैं जो सफल नहीं हुई। एक बार फिर से इस तरह की कोशिशों को विफल करना होगा। जो लोग हिंदी को हिन्दुत्व से जोड़ते हैं वो भूल जाते हैं कि जायसी रहीम और रसखान हिंदी के ही कवि थे। हिंदी तो समान रूप से हिंदू और मुसलमान सभी के घरों की भाषा है। इसको बनाए रखने और मजबूत करने से हिंदी का भला होगा।

Saturday, August 3, 2019

लेखक संघों की सियासत का स्याह चेहरा


कम्युनिस्ट पार्टियों से संबद्ध लेखकों के अपने-अपने संगठन हैं। सीपीआई की प्रगतिशील लेखक संघ है, सीपीएम की जनवादी लेखक संघ है, सीपीआई-एमएल की जन संस्कृति मंच है। इन लेखक संगठनों की स्थापना चाहे जिस भी उद्देश्य से हुई हो लेकिन पिछले कई वर्षों में ये अपने अपने राजनीतिक दलों के बौद्धिक प्रकोष्ठ बनकर रह गए हैं। जो इनका पितृ-संगठन जो करता है ये उसके पीछे-पीछे चलते हैं। बहुधा अपने राजनीतिक दलों की नीतियों को बौद्धिक जामा पहनाने का काम भी करते हैं। एक और संगठन है जिसका नाम है दलित लेखक संघ। ये दलित लेखकों के हितों को लेकर चलने का दावा करता है लेकिन इसके ज्यादातर कार्यक्रम जनवादी लेखक संघ से संबद्ध ही नजर आते हैं। इस संगठन में पिछले दिनों काफी विवाद हुआ था जिसके बाद भारतीय दलित लेखक संघ की स्थापना हुई जिसके अध्यक्ष इन दिनों अजय नावरिया हैं। उसके बाद एक अंबेडकरवादी लेखक संगठन भी बना जो अभी ठीक से सक्रिय भी नहीं हो पाया है। इन लेखक संगठनों के बारे में बताने की वजह इनका एक साझा बयान है। ये बयान 29 जुलाई 2019 को जारी किया गया। पहले ही बताया जा चुका है कि लेखकों के हितों से अधिक इनको अपने राजनीतिक आकाओं की चिंता रहती है लिहाजा इनका साझा बयान भी राजनीति की बिसात का एक मोहरा है। लेखक संगठन है, जाहिर है कुछ पढ़े लिखे लोग इसके साथ जुड़े हैं, लेकिन जो बयान जारी हुआ है उसकी भाषा से घृणा की बू आती है। लेखकों के संगठन के बयान में अगर घृणा नजर आए तो समझ लीजिए कि उसमें कोई ना कोई राजनीतिक हित है। इनके साझा  बयान का एक हिस्सा देखिए- लेखक-कलाकार हमेशा से सत्ता के विरोध में रहे हैं, लेकिन मोदीराज में सत्ता के विरोध का विरोध एक स्थायी रुझान बनता जा रहा है| जब 2015 में लेखकों-कलाकारों-वैज्ञानिकों ने अपने पुरस्कार लौटा कर सत्ताधारी दल की असहिष्णुता का विरोध किया तो एक हिस्सा, भले ही इस हिस्से के लोगों का कद अपने-अपने कार्यक्षेत्र में उतना बड़ा न हो, उनके विरोध में उठ खड़ा हुआ| जब 23 अक्टूबर 2015 को प्रो. कलबुर्गी की शोकसभा की मांग के साथ लेखक-कलाकार साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक के मौक़े पर अपना मौन जुलूस लेकर पहुंचे, तब वहां भी भाजपा समर्थक लेखकों-कलाकारों का एक जमावड़ा इनके विरोध में मौजूद पाया गया जिसमें नरेन्द्र कोहली जैसे औसत दर्जे के लोकप्रिय लेखक को छोड़ दें तो कोई प्रतिष्ठित नाम नहीं था|’  चार लेखक संगठनों का ये बयान नरेन्द्र कोहली को औसत दर्जे का लोकप्रिय लेखक कह रहा है। लेखक संगठनों के बयान से ये अपेक्षा की जाती है कि वो शब्दों के चयन में सावधान रहें। नरेन्द्र कोहली इस वक्त हिंदी के सबसे समादृत लेखक हैं जिनकी व्याप्ति समाज के हर वर्ग में है। वो हिंदी के इकलौते लेखक हैं जिनके लेखन के, जिनकी कृतियों के लाखों मुरीद हैं। अब जरा उन नामों को देख लिया जाए जो इन चार लेखक संगठनों की नुमाइंदगी करते हैं। इस साझा बयान पर जिनके हस्ताक्षर हैं। जनवादी लेखक संघ से मुरली मनोहर प्रसाद सिंह हैं, प्रगतिशील लेखक संघ से राजेंद्र राजन हैं, जन संस्कृति मंच से मनोज कुमार सिंह और दलित लेखक संघ से हीरा लाल राजस्थानी हैं। आज इनसे ये पूछा जाना चाहिए कि मुरली मनोहर प्रसाद सिंह की हिंदी जगत में एक लेखक के रूप में कितनी स्वीकार्यता या प्रतिष्ठा है। दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे मुरली बाबू शिक्षक राजनीति करते रहे और कभी कभार कोई किताब आदि छप जाती थी। उनका हिंदी साहित्य को क्या और कितना योगदान है ये पाठकों के सामने आना शेष है। औसत तो दूर की बात इनको लेखक के रूप में कौन जानता है? दूसरा हस्ताक्षर है प्रगतिशील लेखक संघ के राजेन्द्र राजन का। उनके लेखकीय योगदान के बारे में किसी को कुछ नहीं पता। जन संस्कृति मंच के मनोज कुमार सिंह हैं, उनका लेखकीय कर्म और संस्कृति के लिए किया जानेवाला कार्य भी अभी पाठकों या दर्शकों के समक्ष नहीं है। चौथे हैं हीरालाल राजस्थानी जो दलित लेखक संघ के नुमाइंदे के तौर पर इस साझा बयान पर उपस्थित हैं। हीरालाल राजस्थानी दिल्ली में चित्रकारी सिखाते हैं, क्या लिखते हैं या साहित्य में किस विधा में सिद्धहस्त हैं इसके बारे में अभी जानकारी सार्वजनिक होना शेष है। ये चारो मिलकर नरेन्द्र कोहली को औसत लेखक करार दे रहे हैं। है न आश्चर्य की बात। किसी को भी किसी का अपमान करने का हक नहीं है, इस वजह से इन चार लोगों के बारे में किसी प्रकार का विशेषण इस्तेमाल नहीं करूंगा लेकिन इनको सोचना चाहिए कि जिस नरेन्द्र कोहली को ये औसत कह रहे हैं उनके पासंग बराबर भी इनका लेखकीय योगदान होता तो इनकी बातों को गंभीरता से लिया जा सकता था।      
इस साझा बयान की भाषा ऐसी है जो इन लेखक संगठन से जुड़े लोगों के पढ़े लिखे होने पर भी संदेह पैदा करती है। या हो सकता है कि हाशिए पर चले जाने की कुंठा से ऐसी ही भाषा उपजती हो। अब जरा इस भाषा को देखिए जो साझा बयान का हिस्सा है, जब 49 नामचीन कलाकारों-बुद्धिजीवियों ने, जिन पर यह देश गर्व और भरोसा करता है, प्रधानमंत्री मोदी के नाम खुला पत्र लिखा है तो जवाब में प्रधानमंत्री ने नहीं, उनके 62 निर्लज्ज समर्थकों ने पत्रोत्तर लिख भेजा है| यह पत्रोत्तर अडूर गोपालकृष्णन, मणि रत्नम, अनुराग कश्यप, आशीष नंदी, अपर्णा सेन, सुमित सरकार, श्याम बेनेगल, शुभा मुदगल जैसे लोगों द्वारा उठाये गए एक भी सवाल का जवाब नहीं देता, बस पलट कर कुछ और सवाल उठाते हुए यह साबित करने की बेहद लचर कोशिश करता है कि मूल पत्र में आयी शिकायतें राजनीतिक पक्षधरता से निकली हैं|’  मोदी के समर्थक हुए तो आप निर्लज्ज हो गए और अगर आपने उनका विरोध किया तो महान हो गए। अब ये लोग खुद तय करें कि निर्लज्जता क्या है।
अब जरा बात प्रगतिशील लेखक संघ की कर ली जाए। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से एक सज्जाद जहीर की पुत्री और वरिष्ठ लेखिका नूर जहीर ने प्रगतिशील लेखक संघ के अंदर की बजबजाहट को उघाड़ को सामने रख दिया है। मामला ये है कि प्रगतिशील लेखक संघ का एक सम्मेलन पूर्व पुलिस अधिकारी और लेखक विभूति नारायण के सौजन्य से आयोजित हो रहा है। विभूति नारायण राय ने लेखिकाओं को लेकर एक टिप्पणी की थी जिसपर काफी बवाल मचा था। बाद में विभूति नारायण राय पर सवाल उठानेवाले ज्यादातर लेखक उनके शरणागत हो गए थे, कुछ को तो उन्होंने उपकृत भी किया लेकिन अब एक बार फिर से नूर जहीर ने उस प्रश्न को उठाकर प्रगतिशील लेखक संघ को कठघरे में खड़ा कर दिया है। नूर जहीर कहती हैं, प्रगतिशील लेखक संघ में बीस साल से बढ़ते हुए पुरुषवाद को देख रही हूं, यह भी जानती हूँ कि पुरुषवाद अकेले नहीं पनपता, जातिवाद और सांप्रदयिकता उसके हाथ मे हाथ डाले चलतीं हैं। ऐसे मे अगर कुछ लेखक या लेखिकाएं बिगाड़ नहीं करना चाहती और चुप्पी बनाए रखतीं हैं तो यह उनका निजी मामला है। मैंने खुद कभी फायदा या नुकसान को देखकर स्टैंडनहीं लिया है । एक सवाल और एक अपने तजुर्बे की बात कह रहीं हूँ, पहला ये कि ऐसा क्या मिल रहा है एक पैतृक्तावादी पुरुष को जोड़े रखने से ? नाम, पैसा, यश, सहूलियतें? और दूसरे पुरुषवाद एक बीमारी है जिसे यदि फैलने से नहीं रोका गया तो वह चुप्पीधारियों को भी नहीं छोड़ेगी। अब ये तो नूर जहीर ही जानें या फिर प्रगतिशील लेख संघ के लोग जानें कि वहां पिछले बीस साल से किस प्रकार का पुरुषवाद बढ़ रहा है? अगर किसी संगठन के संस्थापक की बेटी और सम्मानित लेखिका को उस संगठन के बारे में इतनी तल्ख टिप्पणी करनी पड़ रही हो तो ये तय करना आसान है कि निर्लज्जताकहां है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब इन लेखक संगठनों से जुड़े एक कवि ने हिंदी कवयित्री अनामिका को लेकर बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। इन्हीं लेखक संगठनों से जुड़े एक लेखक ने वाराणसी में अपनी पत्नी के साथ सरेआम अभद्रता की थी लेकिन इन संगठनों के कार्ताधर्ताओं ने मुंह पर पट्टी बांध ली थी। ये जब नैतिकता आदि की बात करते हैं तो खोखले लगते हैं। ये लेखक संगठन अब राजनीति की ऐसी दुकान बन गए हैं जिनके मालिक का दीवाला निकल चुका है और वहां काम करनेवाले कर्मचारीनुमा लेखक अच्छे दिन की आस में अपने मालिक की सेवा किए जा रहे हैं।
आमतौर पर मैं कविताएं कम पढ़ता हूं। लेकिन इन लेखक संगठनों के साझा बयान को पढ़ने के बाद धूमिल की एक कविता की चंद पंक्तियां याद आ गईं- वे सब के सब तिजोरियों के दुभाषिये हैं/ वे वकील हैं/ वैज्ञानिक हैं/ अध्यापक हैं/ नेता हैं/ दार्शनिक हैं/ लेखक हैं/ कवि हैं/ कलाकार हैं/ यानी कि- कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।