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Saturday, January 29, 2011

वर्धा में दो दिन

बेहद सर्द सुबह थी, कोहरा इतना घना था कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था । मैं बात कर रहा हूं जनवरी के पहले हफ्ते की जब अचानक से दिल्ली में सर्दी कम हुई थी और कोहरा घना हो गया था । मुझे वर्धा जाना था और उसके लिए नागपुर तक की प्लाइट लेनी थी जो दिल्ली एयरपोर्ट से सुबह सवा पांच बजे उड़ती थी । जाहिर तौर पर मुझे घर से तड़के साढ़े तीन बजे निकलना था । टैक्सी लेकर घर से निकला तो कार की लाइट और कोहरे के बीच संघर्ष में कोहरा जीतता नजर आ रहा था । इंदिरापुरम का इलाका कुछ खुला होने की नजह से कोहरा और भी ज्यादा था । एक जगह तो हमारी गाड़ी डिवाइडर से टकराते -टकराते बची । सामने कुछ दिख नहीं रहा था अंदाज से गाड़ी चल रही थी । लेकिन वर्धा के गांधी आश्रम को और महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय को देखने की इच्छा मन में इतनी ज्यादा थी कि वो कोहरे पर भारी पड़ रही थी। किसी तरह चलते चलाते हम हवाई अड्डे तक पहुंचने वाले थे लेकिन ड्राइवर के सुझाव पर हम हवाई अड्डे के ठीक पहले चाहरदीवारी से घिरे गांव मेहरमपुर में घुस गए। हवाई अड्डे के पहले इतनी बड़ी बस्ती जिसका हमें आजतक एहसास भी नहीं था । लेकिन वो पूरी बस्ती तो सुबह चार सवा चार बजे पूरी तरह से जगमगा रही थी । कई चाय की दुकान और कूरियर कंपनी के कर्मचारी अपने काम में तन्मयता से लगे थे उनको देखकर लग रहा था कि ना तो उन्हें ठंड का एहसास था और ना ही कोहरे का भय । हमने भी वहां रुककर चाय पी । उस हाड़ कंपा देनेवाली ठंड में चाय पीने का आनंद ही कुछ और था । इच्छा थी उस बस्ती को घूमकर वहां की जिंदगी को देखता लेकिन हवाई यात्रा की घंटे भर पहले पहुंचने की मजबूरी की वजह से संभव नहीं हो पाया ।
लगभग सवा घंटे की उड़ान के बाद जब सुबह सवा सात बजे नागपुर हवाई अड्डे पर उतरा तो बेहद शांत हवाई अड्डा शहर के मिजाज का भी एहसास करा रहा था । थोड़ी देर वहां रुकने के बाद वर्धा के लिए रवाना हो गया क्योंकि सुबह ग्यारह बजे से वहां दो दिनों का राष्ट्रीय सेमिनार होना था जिसमें भाग लेने के लिए वक्त पर पहुंचना जरूरी था । नागपुर से तकरीबन डेढ़ घंटे में वर्धा पहुंचा । विश्वविद्यालय कैंपस में घुसते ही सामने फादर कामिल बुल्के अंतराष्ट्रीय छात्रावास दिखा । वहीं हमारे रुकने का इंतजाम था और पत्रकारिता के उत्साही छात्र हमारे स्वागत के लिए खड़े थे । वहीं हमारी मुलाकात जनमोर्चा के संपादक और बुजुर्ग पत्रकार शीतला सिंह और वरिष्ठ लेखक गंगा प्रसाद विमल जी से हुई । विमल जी सुबह की सैर से लौटकर आए थे और शीतला सिंह छात्रावास के बाहर धूप सेंक रहे थे । सुबह वहां भी ठीक-ठाक ढंड थी लेकिन लोग बता रहे थे कि दिन में मौसम गर्म हो जाता है । शीतला सिंह से गपशप करते हुए पुराने हिंदुस्तानी प्रदीप सौरभ से मुलाकात हो गई । खुले आकाश के नीचे बैठकर ढंड में धूप का आनंद लेना दिल्ली में तो कभी नसीब नहीं हुआ इसलिए छात्रों के बार-बार कमरे में जाकर आराम करने की सलाह को नजरअंदाज करते हुए वहीं बैठा रहा । कुछ देर बाद पत्रकारिता विभाग के युवा और उत्साही प्रोफेसर और अध्यक्ष अनिल के राय अंकित भी आ गए जो इस कार्यक्रम के संयोजक थे । उनसे गपशप करने के बाद विश्विद्यालय के दिल्ली केंद्र प्रभारी मनोज राय के साथ मैं कैंपस घूमने निकल गया । हम वहां भी गए जहां बैरकनुमा चार कमरों से विश्वविद्यालय शुरू हुआ था । सड़क के आमने सामने विश्वविद्यालय के दो कैंपस हैं । लेकिन अभी मुख्य कैंपस में ही ज्यादा हचलचल और चहल पहल थी क्योंकि विश्वविद्यालय के तमाम अधिकारियों के दफ्तर और आवास इसी कैंपस में है । पूरे विश्वविद्यालय कैंपस के चारो ओर रिंग रोड बन बनाकर उसे सुरुचिपूर्ण तरीके से एक आकार दिया जा रहा है । उपर एक जगह गांधी हिल है जहां पहाड़ी के हिस्से को एक छोटे पार्क के तौर पर विकसित किया गया है जिसमें गांधी के तीन बंदरों की मूर्तियों के अलावा गांधी की घड़ी और उनका चश्मा भी है । पहाड़ी के उपर, पानी की कमी के बावजूद गांधी हिल पर तमाम फूल पौधे लहलहा रहे थे । छात्रों ने बताया कि कुलपति की व्यक्तिगत रुचि की वजह से ही यह हो पाया ।
नियत समय पर हमलोग विश्वविद्यालय के हबीब तनवीर सभागार में पहुंचे और बाबू विष्णुराव पराड़कर को नमन कर कार्यक्रम शुरू हुआ । बनारस से आए विद्वान प्रोफेसर राममोहन पाठक और कोलकाता विश्वविद्यालय की पत्राकरिता विभाग की प्रोफेसर ताप्ती बसु का भाषण हुआ । बोझिल से कार्यक्रम में गर्मी आई जब हरिभूमि के संपादक हिमांशु द्विवेदी ने जोशीले अंदाज में ये साबित करने की कोशिश की पत्रकारिता भी कारोबार है और पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए पाठक भी जिम्मेदार हैं । हिंमाशु ने कहानियां, चुटकुले और शेर सुनाकर खूब तालियां बटोरी लेकिन बाद में जब गंगा प्रसाद विमल और कुलपति विभूति नारायण राय बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने हिमांशु के भाषण की धज्जियां उड़ा दी । जोश में विमल जी ने तो सारे संपादकों और पत्रकारों को बिचौलिया करार दे दिया । कुलपति ने भी डंके की चोटपर कहा कि पत्रकारिता और किसी व्यवसाय की तरह नहीं है, जब भी मीडिया की आजादी पर हमला हुआ है तो पूरा समाज उसके खिलाफ खडा़ हो गया । इस वजह से मीडिया से समाज की अपेक्षा भी है लेकिन जोश में कुलपति ने भी मीडिया संपादकों को भ्रष्ट करार दे दिया । जिसपर बाद में उन्होंने, अगले दिन जब ये मुद्दा उठा, तो सफाई देते हुए कहा कि उन्हें मिसकोट किया गया । दो सत्रों में यह विमर्श हुआ । दोनों सत्रों में बजुर्ग प्रोफेसर और पत्रकारों ने विमर्श किया जिनकी बातें सुनकर मैं बहुत ज्यादा निराश हुआ, पत्रकारिता कहां से कहां चली गई लेकिन वो लोग अब भी मिशन की लकीर पीट रहे हैं । मुझे लगता है कि पत्रकारिता पर बात हो तो युवा पत्रकारों को ज्यादा मौका मिलना चाहिए क्योंकि विश्वविद्यालय के बुजुर्ग प्रोफेसर ना तो नई तकनीक से अवगत हैं और ना ही मीडिया में पिछले दशक में आए बदलाव से । ऐसे में पत्रकारिता के छात्रों को हम नैतिकता और मिशन की घुट्टी तो पिला देते हैं लेकिन व्यावहारिकता छूट जाती है । अनिल के राय अंकित युवा विभागाध्यक्ष हैं और उम्मीद करता हूं कि भविष्य में इस तरह के सेमिनार में युवाओं को भी बराबरी का मौका देंगे इससे एक तो छात्रों को नई तकनीक और माहौल में काम करने का तरीका और दबाव दोनों का पता चलेगा ।
अगले दिन टीवी पर केंद्रित सत्र था जिसकी अध्यक्षता कोलकाता विश्वविद्यालय की पत्रकारिता विभाग की अध्यक्ष ताप्ती बसु थी और वक्ता थे वरिष्ठ पत्रकार और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव एन के सिंह, जी न्यूज के एंकर और राजनीतिक संपादक पुण्य प्रसून वाजपेयी, आगरा विश्वविद्यालय पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष गिरिजा शंकर शर्मा और मैं । एन के सिंह ने बीज वक्तव्य में जोर देकर इस बात को कहा कि आज समाज के हर क्षेत्र में मूल्यों में गिरावट देखी जा सकती है चाहे वो राजनीति हो, कार्यपालिका हो या फिर विधायिका । एन के ने तर्कपूर्ण तरीके से अपनी बात रखते हुए कहा कि मूल्यों के क्षरण की समस्या हमारे लोकतांत्रिक वयवस्था में खामी की वजह से है । मैंने पूर्ववर्ती वक्ताओं द्वारा पूरी मीडिया को भ्रष्ट और संपादकों को बिचौलिया रहे जाने पर गहरी आपत्ति जताते हुए कहा कि विभूति नारायण राय और गंगा प्रसाद विमल की समाज में एक अहमियत हैं और जब वो बोलते हैं तो समाज पर असर डालते हैं । इस वजह से उन्हें इस तरह के स्वीपिंग रिमार्क से बचना चाहिए । प्रसून ने अपने अंदाज में बोलते हुए गूगल को पत्रकारिता का पर्याय ना मानने की सलाह दी । इसके बाद भी एक सत्र हुआ जिसमें प्रकाश दूबे, विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति अरविंदाक्षन ने अपनी बात रखी । कुल मिलाकर दो दिनों तक चला यह कार्यक्रम बेहद सफल रहा । लेकिन जैसा कि मैं उपर भी कह चुका हूं कि ऐसे कार्यक्रमों में युवा पत्रकारों की भागीदारी इस विमर्श को एक अलग स्तर पर लेकर जाएगी । क्योंकि विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों की जो राय पुरानी पड़ चुकी है और वो अपनी विद्वता के बोझ तले इतने दब चुके होते हैं कि उन्हें जो कुछ नया हो रहा है उसको जानने की रुचि ही नहीं रहती है । दो दिनों तक वर्धा में रहने के दौरान मैं गांधी आश्रम भी गया, गांधी के कमरे हर चीज को देखा-छुआ । अपने स्तंभ में आश्रम के अपने अनुभवों को भी लिखूंगा ।

हंसराज के फैसले का निहितार्थ

कांग्रेस के पूर्व नेता और देश के कानून मंत्री रहे हंसराज भारद्वाज एक बार फिर से विवादों में हैं । कर्नाटक के रा्ज्यपाल के तौर पर उन्होंने सूबे के मुख्यमंत्री वाई एस येदुरप्पा के खिलाफ केस चलाने की इजाजत देकर राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया है । एक जमाने में देश में विकास और गुड गवर्नेंस की मिसाल देनेवाला यह राज्य आज अपने संवैधानिक प्रमुख और सरकार के मुखिया के बीच के विवादों की मिसाल कायम कर रहा है । राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच जारी इस तनातनी में राज्य का प्रशासन और विकास दोनों ठप हो गए हैं । कार्यपालिका के मुखिया के खिलाफ केस चलाने की इजाजत देने के बाद एक बार फिर से राज्यपाल की भूमिका पर सवाल खड़े होने लगे हैं। सवाल इस इजाजत का नहीं है, बड़ा मुद्दा तो वो है जो सतह पर दिखाई नहीं देता । जिस तरह से आनन फानन में कुछ लोगों ने राज्यपाल से मुख्यमंत्री येदुरप्पा के खिलाफ केस चलाने की इजाजत मांगी और हंसराज भारद्वाज ने त्वरित गति से कार्रवाई करते हुए उसकी इजाजत दे दी । उससे राज्यपाल की नीयत और उनकी मंशा दोनों पर सवाल खड़ा होते हैं । संविधान के मुताबिक राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करना होता है लेकिन इस तरह के मामलों में राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह ठुकराकर स्वतंत्र रूप से फैसला लेने का अधिकार प्राप्त है । दो हजार चार में सुप्रीम कोर्ट की एक पांच सदस्यीय खंडपीठ में ऐतिहासिक फैसले में यह कहा था कि भ्रष्टाचार के मामलों में मंत्रिमंडल की सिफारिश को नामंजूर करते हुए राज्यपाल मंत्रियों के गैर कानूनी कामों और भ्रष्ट आचरण के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति दे सकते हैं । मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री के खिलाफ केस चलाने या आरोपी बनाने की इजाजत देने के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि यह निर्णय लेते वक्त राज्यपाल को पूरी स्वतंत्रता है और वह मंत्रिमंडल की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है । जाहिर सी बात है पूर्व कानून मंत्री रहे भारद्वाज को अपने इस अधिकार का बखूबी पता था और उन्होंने इसका इस्तेमाल करते हुए येदुरप्पा के खिलाफ केस चलाने की इजाजत दे दी । उस इजाजत के पहले और बाद के गवर्नर के बयानों पर गौर करें तो उनकी राजनीतिक मंशा साफ तौर पर रेखांकित की जा सकती है । इस देश के संविधान में राज्यपाल से ये अपेक्षा की गई है कि वो दलगत राजनीति से उपर उठकर काम करें लेकिन कर्नाटक के राज्यपाल उससे उपर उठ नहीं सके । भारद्वाज के इस फैसले से देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक गलत परंपरा को मजबूती मिलती है । उसके बाद जिस तरह से देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भारद्वाज का बचाव किया उससे भी यह शक गहरा होता है कि केंद्र के इशारे पर हंसराज भारद्वाज ने येदुरप्पा के खिलाफ मुकदमे को हरी झंडी दिखाई । चंद मामूली आरोपों के आधार पर अगर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के खिलाफ मुकदमा चलाने को मंजूरी दी जाने लगे तो इससे देश के शासन तंत्र में बड़ा बखेड़ा खड़ा हो सकता है ।
अब अगर कल को कोई एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपए के टेलीकॉम घोटाले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ मुकदमा चलाने की कार्रवाई की इजाजत के लिए कुछ लोग राष्ट्रपति के पास पहुंच जाते हैं और इसकी इजाजत मांगते हैं तो क्या राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रोसिक्यूशन को स्वीकृति देंगी । येदुरप्पा के खिलाफ अपने रिश्तेदारों को गैरकानूनी तरीके से जमीन आवंटन के आरोप लगे हैं । उसी तरह प्रधानमंत्री के दामन पर भी टेलीकॉम घोटाले के छींटे तो पड़ ही रहे हैं । कॉमनवेल्थ घोटाले में उस वक्त के केंद्रीय शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी से लेकर दिल्ली की मुख्यमंत्री तक पर घोटाले के परोक्ष आरोप लगे । अगर कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के तरीके से लोकतंत्र चले तो राष्ट्रपति को किसी भी अदने से वयक्ति की शिकायत पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ केस चलाने की अनुमति दे देनी चाहिए । हंसराज भारद्वाज के इस कदम को सही ठहरानेवाले कांग्रेस के नेता छोटे लाभ के लिए बड़े मूल्यों और मानदंडों को भुलाने में लगे हैं ।
दरअसल भारद्वाज कांग्रेस की पुरानी परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं । राज्यपाल के पद का दुरुपयोग 1967 से देश में शुरू हुआ । यह वो दौर था जब देश में एक पार्टी का शासन चल रहा था और विपक्ष बेहद कमजोर था । जब 1967 में गैरकांग्रेसवाद की लहर चली और कई सूबों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनी तो केंद्र की कांग्रेसी सरकार ने राज्यपाल का इस्तेमाल चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने के लिए शुरू कर दिया । इमरजेंसी के बाद जब इंदिरा गांधी दुबारा चुन कर आई तो उन्होंने राजनीतिक तौर पर बदला चुकाने के लिए जनता पार्टी के शासन वाले नौ राज्यों की सरकारों को भंग कर दिया और वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था । आजाद भारत के इतिहासक में इंदिरा गांधी ने राज्यपाल नाम की संस्था का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया और चुनी हुई सरकारों को भंग कर दिया । 1984 में आंध्र प्रदेश में जब एन टी रामाराव ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी उस वक्त ठाकुर रामलाल ने इंदिरा गांधी के हुक्म पर बहुमत होने के बावजूद रामाराव को सरकार नहीं बनाने दिया और उनकी बजाए कांग्रेस के भास्कर राव को सरकार बनाने का न्यौता दे दिया था । जबकि एन टी रामाराव 48 घंटे के भीतर सदन में बहुमत साबित करने को तैयार थे । बाद में चौतरफ दबाव में रामाराव को सरकार बनाने दिया गया था । उसी तरह से जम्मू और कश्मीर की चुनी हुई सरकार के मुखिया फारुख अबदुल्ला को जगमोहन ने बर्खास्त कर दिया । जब राज्यपाल की भूमिका को लेकर देशव्यापी बहस शुरू हुई और सरकार की जमकर आलोचना होने लगी तो राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर सरकारिया कमीशन का गठन हुआ । 27 अक्तूबर 1987 को सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्तियों को लेकर कुछ सुझाव दिए थे जिसपर ज्यादा अमल हो ना सका । सरकारिया आयोग दो एक अहम सुझाव दिये थे – पहला कि घोर राजनीतिक वयक्ति को जो हाल तक सक्रिय राजनीति में रहा हो उसको राज्यपाल नहीं बनाया जाना चाहिए । दूसरा कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो उसके सदस्य को विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्य में राज्यपाल नियुक्त ना किया जाए । कर्नाटक के मामले में कांग्रेस ने दोनों सुझावों की अनदेखी की । केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं पानेवाले कानून मंत्री को खुश करने के लिए कर्नाटक जैसे अहम राज्य का राज्यपाल मनोनीत कर दिया जहां कि भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में सरकार काम कर रही थी । गौरतलब हैं कि ये वही हंसराज भारद्वाज जिनपर कानून मंत्री रहते बोफोर्स तौप सौदे के दलाल क्वात्रोकी के खिलाफ कार्रवाई में ढिलाई बरतने का संगीन इल्जाम लगा था । भारद्वाज अपने इन कार्यकलापों से भारतीय जनता पार्टी की चुनी हुई सरकार को मुश्किल में डालकर कांग्रेस पार्टी और आलाकमान की नजर में अपना नंबर बढा़ना चाहते हैं । हाल तक सक्रिय राजनीति करनेवाले हंसराज भारद्वाज राजभवन के रास्ते एक बार फिर से राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं, इसलिए येदुरप्पा सरकार की राह में रोड़े अटकाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते हैं । लेकिन कानून और संविधान के जानकार हंसराज भारद्वाज यह भूल जा रहे हैं कि इससे कई गलत परपंराओं की नींव डल रही है जो अगर नजीर बन गई तो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा ।

Monday, January 10, 2011

संस्थागत साहूकारों पर लगे लगाम

देश में माइक्रो फाइनेंस कंपनियों की शुरुआत गरीबों की भलाई और उसको रोजगार शुरू करने के लिए सहायता देने के घोषित उद्देश्य से की गई थी । पिछले दशक में भारत में माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के विकास पर नजर डालें तो पाते हैं कि पहला और शुरुआती दौर तो वह था जिसमें गरीबों को उनके छोटे-मोटे काम के लिए कर्ज मुहैया कराने की कवायद शुरू की गई । इस वक्त तक गरीबों की मदद करना और समाज के सबसे निचले पायदान के लोगों के जीवन स्तर को सुधारना मकसद था । लेकिन ज्यों-ज्यों उसका दायरा बढ़ा तो बाजार और कंपनियां इसमें फायदेमंद कारोबार की संभावनाएं तलाशने लगी । नतीजा यह हुआ कि दशक के अंत तक आते आते कई नामचीन और बड़ी कंपनियां इस कारोबार में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कूद पड़ी । इस कारोबार में उनको कम लागत पर ज्यादा मुनाफे की संभावना नजर आने लगी थी । इन कंपनियों ने इस तरह का मॉडल अपनाया जिसमें वो पहले गरीबों को चिन्हित करते,फिर उनको समूहों में इकट्ठा करते ताकि वसूली की एक सामाजिक गारंटी हो,उसके बाद गरीबों को डराकर कर अपने प्रभाव में लेकर ऋण वापसी या ब्याज वसूली की जा सके ।
गरीबी उन्मूलन या फिर गरीबों या किसानों की मदद की आड़ में ये कंपनियां अपने कामकाज को बेहद शातिराना अंदाज में अंजाम देती हैं । समय के साथ उन कंपनियों का अघोषित उद्देश्य सामने आ गया और गरीबों की भलाई की आड़ में खेला जानेवाला खेल खुल गया । आंध्र प्रदेश में माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के वसूली एजेंटों की ज्यादतियों से तंग आकर कई किसानों की खुदकुशी ने देशभर का ध्यान इन कंपनियों के क्रियाकलापों की ओर खींचा । पड़ताल में पता चला कि छोटे ऋण की आड़ में निवेश कर कंपनियां बड़ा लाभ कमा रही हैं । इन कंपनियों का तर्क है कि वो गरीबों को बगैर किसी गारंटी या गारंटीदाता के ऋण उपलब्ध करवाते हैं लिहाजा पैसा डूबने का खतरा बहुत ज्यादा रहता है । इस तर्क को ढाल बनाकर वो ब्याज की दरें उंची रखते हैं । आमतौर पर ये कंपनियां पांच प्रतिशत की दर पर अपना कारोबार करती हैं जो सालाना तकरीबन साठ प्रतिशत के करीब बैठता है । चूंकि ये कंपनिया ब्याज की दरें साप्ताहिक वसूलती हैं इस वजह से गरीबों को बेहिसाब ब्याज दर का एहसास नहीं हो पाता है । इन कंपनियों के कामकाज में कोई पारदर्शिता भी नहीं होती और ये जिन तबकों के बीच काम करती हैं उनको बाजार का यह व्यभिचार समझ में भी नहीं आता । ये कंपनियां व्यक्तिगत ऋण के बजाए तीन चार लोगों के छोटे समूह को कर्ज देती है। अगर समूह का कोई वयक्ति ब्याज चुकाने में नाकाम रहता है तो पूरे समूह पर जुर्माना लगाया जाता है । जुर्माने की यही राशि कंपनियों के मुनाफे को बढ़ा देती हैं ।
दरअसल ये माइक्रो फाइनेंस कंपनियां सूदखोर साहूकार की तरह काम करती है । फर्क सिर्फ इतना होता है कि सूदखोरी के धंधे को संस्थागत रूप दे दिया गया है और साहूकारों की जगह बड़ी कंपनियों ने ले लिया है । एक अनुमान के मुताबिक देशभर में सात करोड़ लोगों ने इन कंपनियों से कर्ज लिया हुआ है । अगर माइक्रो फाइनेंस इंफॉर्मेशन एक्सचेंज के दो हजार नौ के आंकड़ों पर नजर डालें तो हमारे देश में इस वक्त एक सौ उनचास माइक्रो क्रेडिट कंपनियां काम कर रही हैं । इन कंपनियां का सालाना कारोबार बीस हजार सात सौ करोड़ रुपये का है । गणित लगाने पर प्रति वयक्ति कर्ज की औसत रकम साढे छह हजार रुपये बैठती है ।
आंध्र प्रदेश में किसानों की खुदकुशी के बाद यह सवाल भी उठा कि ये कंपनियां अधिकतम कितना ब्याज वसूल सकती हैं । माइक्रो फाइनेंस के अंतराष्ट्रीय विशेषज्ञ और अंतराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसी माइक्रोरेट के संस्थापक डी वी स्टॉफनबर्ग का मानना है कि – ‘ब्याज की दरों को तय करते वक्त स्थानीय परिस्थितियों और लागत पूंजी के खतरे को ध्यान में रखना जरूरी होता है लेकिन बाजार के मौजूदा दर से बीस या तीस फीसदी अधिक ब्याज दर रखना और उसे वसूलना नाजायज है । लेकिन हमारे यहां ये बेलगाम कंपनियां साठ से सत्तर फीसदी तक ब्याज वसूलती हैं । गरीबों के बीच काम करनेवाली इन कंपनियां से यह अपेक्षा की जाती है कि वो धन जुटाने के लिए बाजार से पैसा नहीं उठाएंगी । लेकिन कुछ महीनों पहले हैदराबाद की एक माइक्रो फाइनेंस कंपनी ने आईपीओ के जरिए बाजार से धन जुटाया । इससे एक बात तो साबित हो गई कि बड़ी कंपनियां इस सेक्टर में मुनाफा की ना केवल गुंजाइश देख रही हैं बल्कि निवेशकों को इसका भरोसा भी दे रही हैं ।
अब सवाल यह उठता है कि क्या ये कंपनियां गरीबों की सहायता कर रही हैं या उनका खून चूस कर अपना खजाना भर रही हैं। विभिन्न अध्ययनों के नतीजों से यह पता चलता है कि गरीबों के बेहतरी के नाम पर चलनेवाली ये कंपनियां धन कमाने का आसान जरिया बन चुकी है। आम आदमी की बात करनेवाली सरकार के सामने ये कंपनियां एक बड़ी चुनौती की तरह हैं । वक्त आ गया है कि सरकार इन संस्थागत साहूकारों को काबू में करने के लिए सख्त कानून बनाए नहीं तो खुदकुशी करनेवाले किसानों-गरीबों की संख्या बढ़ती जाएगी और ये इन बेलगाम कंपनियों का खजाना बढ़ता रहेगा ।

Saturday, January 1, 2011

उदय प्रकाश नहीं थे पहली पसंद

इस वर्ष के साहित्य अकादमी पुरस्कारों का एलान हो गया है । हिंदी के लिए
इस बार का अकादमी पुरस्कार यशस्वी कथाकार और कवि उदय प्रकाश को उनके
उपन्यास मोहनदास(वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली) के लिए दिया गया । उदय प्रकाश
साहित्य अकादमी पुरस्कार डिजर्व करते हैं बल्कि उन्हें तो अरुण कमल,
राजेश जोशी और ज्ञानेन्द्रपति के पहले ही यह सम्मान मिल जाना चाहिए था ।
जब मैंने पुरस्कार के एलान होने के दो दिन पहले अपने ब्लाग पर इस बारे
में लिखा तो जूरी के सदस्य मुझसे खफा हो गए । मैंने अपने ब्लाग- हाहाकार-
पर पुरस्कार के चयन के लिए हुई बैठक में जो बातें हुई, जो सौदेबाजी हुई
उसपर लिखा था। पहले मैंने तय किया था कि इस विषय पर अब और नहीं लिखूंगा
लेकिन जब मुझे परोक्ष रूप से धमकी मिली तो मैंने तय किया कि और बारीकी से
सौदेबाजी को उजागर करूंगा । जो कि ना केवल अकादमी के हित में होगा बल्कि
हिंदी का भी भला होगा । इस बार के पुरस्कार के चयन के लिए जो आधार सूची
बनी थी उसमें रामदरश मिश्र, विष्णु नागर, नासिरा शर्मा, नीरजा माधव, शंभु
बादल, मन्नू भंडारी और बलदेव वंशी के नाम थे । हिंदी के संयोजक विश्वनाथ
तिवारी की इच्छा और घेरेबंदी रामदरश मिश्र को अकादमी पुरस्कार दिलवाने की
थी । इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अशोक वाजपेयी, मैनेजर पांडे
और चित्रा मुद्गल का नाम जूरी के सदस्य के रूप में प्रस्तावित किया और
अध्यक्ष से स्वीकृति दिलवाई । लेकिन पता नहीं तिवारी जी की रणनीति क्यों
फेल हो गई- जब पुरस्कार तय करने के लिए जूरी के सदस्य बैठे तो रामदरश
मिश्र के नाम पर चर्चा तक नहीं हुई । बैठक शुरू होने पर अशोक वाजपेयी ने
सबसे पहले रमेशचंद्र शाह का नाम प्रस्तावित किया । लेकिन उसपर मैनेजर
पांडे और चित्रा मुदगल दोनों ने आपत्ति की । कुछ देर तक बहस चलती रही जब
अशोक वाजपेयी को लगा कि रमेशचंद्र शाह के नाम पर सहमति नहीं बनेगी तो
उन्होंने नया दांव चला और उदय प्रकाश का नाम प्रस्तावित कर दिया । जाहिर
सी बात है कि मैनेजर पांडे को फिर आपत्ति होनी थी क्योंकि वो उदय प्रकाश
की कहानी पीली छतरी वाली लड़की को भुला नहीं पाए थे । उन्होंने उदय के
नाम का पुरजोर तरीके से विरोध किया । पांडे जी के मुखर विरोध को देखते
हुए उनसे उनकी राय पूछी गई । मैनेजर पांडे ने मैत्रेयी पुष्पा का नाम
लिया और उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की वकालत करने लगे । मैनेजर
पांडे के इस प्रस्ताव पर अशोक वाजपेयी खामोश रहे और उन्होंने चित्रा
मुदगल से उनकी राय पूछी । बजाए किसी लेखक पर अपनी राय देने के चित्रा जी
ने फटाक से अशोक वाजपेयी की हां में हां मिलाते हुए उदय प्रकाश के नाम पर
अपनी सहमति दे दी । इस तरह से अशोक वाजपेयी की पहली पसंद ना होने के
बावजूद उदय प्रकाश को एक के मुकाबले दो मतों से साहित्य अकादमी पुरस्कार
देना तय किया गया ।
उधर हिंदी भाषा के संयोजक विश्वनाथ तिवारी का सारा खेल खराब हो गया और
रामदरश मिश्र का नाम आधार सूची में सबसे उपर होने के बावजूद उनको
पुरस्कार नहीं मिल पाया । यहां यह भी बताते चलें कि उदय प्रकाश और
रमेशचंद्र शाह दोनों के ही नाम हिंदी की आधार सूची में नहीं थे । लेकिन
यहां कुछ गलत नहीं हुआ क्योंकि जूरी के सदस्यों को यह विशेषाधिकार
प्राप्त है कि वो जिस वर्ष पुरस्कार दिए जा रहे हों उसके पहले के एक वर्ष
को छोड़कर पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित कृति प्रस्तावित कर सकते हैं ।
इस वर्ष दो हजार छह, सात और आठ में प्रकाशित कृति में से चुनाव होना था ।
मैं पिछले कई वर्षों से साहित्य अकादमी के पुरस्कारों में होनेवाले
गड़बडियों और घेरबंदी पर लिखता रहा हूं । वहां कई ऐसे उदाहरण हैं जहां
घेरबंदी कर पुरस्कार दिलवाए गए । जब हिंदी के कवि वीरेन डंगवाल को
उनके कविता संग्रह-दुश्चक्र में स्रष्टा-पर पुरस्कार दिया गया तो उस वक्त
के हिंदी के संयोजक गिरिराज किशोर पर सारे नियम कानून ताक पर रखकर डंगवाल
को पुरस्कृत करने के आरोप लगे थे । गिरिराज किशोर ने वीरेन डंगवाल को
पुरस्कार दिलावने के लिए श्रीलाल शुक्ल, कमलेश्वर और से रा यात्री की
जूरी बनाई । जब नियत समय पर जूरी की बैठक होनी थी उस वक्त कमलेश्वर बीमार
हो गए और श्रीलाल शुक्ल जी को बनारस ( अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही
है तो ) से दिल्ली आना था और किन्हीं वजहों से उनका जहाज छूट गया और वो
नहीं आ पाए । पुरस्कार का एलान करवाने की इतनी जल्दी थी कि से रा यात्री
को कमलेश्वर के पास भेजकर अस्पताल से उनकी राय मंगवाई गई । श्रीलाल
जी से फैक्स पर उनकी राय मंगवाई गई और फिर से रा यात्री और गिरिराज किशोर
ने दोनों की सहमति के आधार पर वीरेन डंगवाल का नाम तय कर दिया
यह उठा कि गिरिराज जी की क्या बाध्यता थी कि वो पुरस्कार की इतनी जल्दी घोषणा कर दें
। अगर आप अकादमी के स्वर्ण जयंती के मौके पर प्रकाशित डी एस राव की
किताब- साहित्य अकादमी का इतिहास देखें तो उसमें कई ऐसे प्रसंग हैं जहां
कि पुरस्कार का एलान रोका गया और बाद में उसको घोषित किया गया ।
वीरेन डंगवाल की प्रतिभा पर किसी को शक नहीं था और ना ही है, वो
हिंदी के एक महत्वपूर्ण कवि हैं, लेकिन जिस तरह से जल्दबाजी में जूरी के
दो सदस्यों की अनुपस्थिति में उनका नाम तय किया गया उस वजह से पुरस्कार
संदेहास्पद हो गया । हलांकि उस वक्त विष्णु खरे, भगवत रावत, विजेन्द्र और
ऋतुराज भी दावेदार थे जो किसी भी तरह से वीरेन डंगवाल से कमजोर कवि
नहीं हैं ।
साहित्य अकादमी में सौदेबाजी का एक भरा पूरा इतिहास रहा है । जब गोपीचंद
नारंग का अकादमी के अध्य़क्ष के रूप में कार्यकाल खत्म हुआ तो उनपर दवाब
बना कि वो दूसरी बार चुनाव नहीं लड़ें । चौतरफा दवाब में उन्होंने चुनाव
तो नहीं लड़ा पर अपने कैंडिडेट को अध्यक्ष बनवाने में कामयाब रहे । जब
हिंदी भाषा के संयोजक के चुनाव का वक्त आया तो गोपीचंद नारंग की पसंद विश्वनाथ
तिवारी थे । लेकिन कैलाश वाजपेयी ने उसमें फच्चर फंसा दिया और वो भी
चुनाव लडने को तैयार हो गए । उस वक्त आपसी समझदारी में यह तय हुआ कि
कैलाश वाजपेयी चुनाव नहीं लड़ेंगे बदले में उनको अकादमी का पुरस्कार दिया
जाएगा । उन्हें यह भी समझा दिया गया कि अगर वो भाषा के संयोजक हो जाएंगे
तो उनको पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । पुरस्कार मिलने के आश्वासन के बाद
कैलाश वाजपेयी ने चुनाव नहीं लड़ा और विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा के संयोजक
बन गए । उन्होंने अपने संयोजकत्व में पहला पुरस्कार गोविन्द मिश्र को
दिया और अगले वर्ष कैलाश वाजपेयी को उनकी कृति हवा में हस्ताक्षर के लिए
पुरस्कार मिला ।
अब वक्त आ गया है कि अकादमी के पुरस्कारों में पूरी
पारदर्शिता बरती जाए और जूरी के सदस्यों के नाम के साथ-साथ उनकी राय को
भी सार्वजनिक किया जाए । पहले तो जूरी के सदस्यों का नाम भी गोपनीय रखा
जाता था लेकिन बाद में उसे सार्वजनिक किया जाने लगा । अब तो अकादमी को
जूरी की बैठक की वीडियो रिकॉर्डिंग भी करवानी चाहिए ताकि पारदर्शिता के
उच्च मानदंडों को स्थापित किया जा सके । मुझे याद है कि जब साहित्य
अकादमी का स्वर्ण जयंती समारोह मनाया जा रहा था तो विज्ञान भवन में
प्रधानमंत्री की मौजूदगी में अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष गोपीचंद नारंग
ने अपने भाषण में नेहरू जी को उद्धृत करते हुए कहा था कि - मुझे विश्वास है
कि प्रधानमंत्री अकादमी के कामकाज में दखल नहीं देंगे । नारंग के इस मत
पर प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने सहमति जताई थी । उस वजह से ही
अकादमी में तमाम गडबड़ियों के आरोप से घिरे गोपीचंद नारंग अपने कार्यकाल
के आखिर तक ड़टे रहे थे । लेकिन जहां स्वायत्ता आती है वहां जिम्मेदारी
भी साथ साथ आती है । यह अकादमी के कर्ता-धर्ताओं का दायित्व है कि जहां
भी संदेह के बादल छाने लगे उसे तथ्यों को सामने रखककर साफ करें ।
पुरस्कारों के मामले में तो यह तभी हो सकता है जब कि चयन से लेकर जूरी की
मीटिंग और उसकी कार्यवाही पूरी तरह से पारदर्शी हो और जो चाहे वो इस बाबत
अकादमी से सूचना प्राप्त कर सके । तभी देश के इस सबसे बड़े साहित्यिक
संस्था की साख बची रह सकेगी ।