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Saturday, April 28, 2018

अपने अपने 'देवदास'


हिंदी फिल्मों के इतिहास और हिंदी साहित्य पर नजर डालें तो बहुत दिलचस्प चीजें सामने आती हैं। कुछ लेखकों का फिल्मों का अनुभव बहुत बुरा है। हिंदी के कथा सम्राट प्रेमचंद तो फिल्मों को लेकर बहुत दुखी रहते थे। रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने अपने एक संस्मरण में प्रेमचंद के दर्द को सार्वजनिक किया है- 1934 की बात है । बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था । इन पंक्तियों का लेखक कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल होने आया ।  बंबई में हर जगह पोस्टर चिपके हुए थे कि प्रेमचंद जी का मजदूर अमुक तारीख से रजतपट पर आ रहा है । ललक हुईअवश्य देखूं कि अचानक प्रेमचंद जी से भेंट हुई । मैंने मजदूर की चर्चा कर दी । बोले यदि तुम मेरी इज्जत करते हो तो ये फिल्म कभी नहीं देखना । यह कहते हुए उनकी आंखें नम हो गईं । औरतब से इस कूचे में आने वाले जिन हिंदी लेखकों से भेंट हुई सबने प्रेमचंद जी के अनुभवों को ही दोहराया है ।हिंदी फिल्मों का साहित्य से बड़ा गहरा और पुराना नाता रहा है। कई लेखक साहित्य के रास्ते फिल्मी दुनिया पहुंचे थे। प्रेमचंद से लेकर विजयदान देथा की कृतियों पर फिल्में बनीं। कइयों को शानदार सफलता और प्रसिद्धि मिली तो ज्यादातर बहुत निराश होकर लौटे ।प्रेमचंदअमृत लाल नागरउपेन्द्र नाथ अश्कपांडेय बेचन शर्मा उग्रगोपाल सिंह नेपाली,सुमित्रानंदन पंत जैसे साहित्यकार भी फिल्मों से जुड़ने को आगे बढ़े थे, लेकिन जल्द ही उनका मोहभंग हुआ और वो वापस साहित्य की दुनिया में लौट आए ।
लेकिन इससे इतर या इसका एक दूसरा पक्ष भी है । कुछ ऐसी कहानियां या उपन्यास हैं जिसपर फिल्मकार दशकों बाद आजतक तक फिदा हैं। कहानी की मूल आत्मा को बरकरार रखते हुए उसकी स्थितियों और घटनाओं में परिवर्तन कर नयापन लाने की कोशिश करते हैं। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कृति देवदास फिल्मों के इसी कोष्ठक में है। ये उपन्यास लगभग हर पीढ़ी के भारतीय फिल्मकारों को अपनी ओर खींचता रहा है। यह अकारण नहीं है कि देवदास पर आधारित अबतक छह फिल्में तो सिर्फ हिंदी में बन चुकी हैं। अन्य भारतीय भाषाओं में भी दर्जनों फिल्में इस उपन्यास पर बनी हैं। हिंदी में देवदास पर सबसे पहले फिल्म बनाई प्रमथेस बरुआ ने जिसमें के एल सहगल प्रोटेगनिस्ट की भूमिका में थे। बरुआ ने हिंदी और बांग्ला में इस फिल्म का निर्माण किया था। हलांकि इस बात की चर्चा भी मिलती है कि नरेश मिश्रा ने 1928 में देवदास के नाम से एक मूक फिल्म बनाई थी। बरुआ के बाद विमल रॉय ने भी देवदास पर फिल्म बनाई जिसमें दिलीप कुमार ने यादगार भूमिका निभाई। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि विमल रॉय प्रमथेस बरुआ की फिल्म देवदास के कैमरापर्सन थे। बीस साल बाद जब उन्होंने दिलीप कुमार को लेकर फिल्म बनाई वो दर्शकों को खूब पसंद आई। देवदास में दिलीप कुमार के साथ सुचित्रा सेन और वैजयंती माला थीं। यहां भी एक दिलचस्प कहानी है जो इस फिल्म से जुड़ी है। इस फिल्म में अभिनय के लिए वैयजंयती माला को बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवॉर्ड देने की घोषणा हुई थी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। 
इसके बाद संजय लीला भंसाली ने शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित और एश्वर्या राय को लेकर देवदास बनाई। जिसमें पारो की भूमिका में एश्वर्या राय और चंद्रमुखी की भूमिका माधुरी दीक्षित ने निभाई। संजय लीला भंसाली ने भी कहानी में बदलाव किया था। इसके पहले सत्तर के दशक में गुलजार ने धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी और शर्मिला टैगोर को लेकर देवदास बनाने की कोशिश की थी लेकिन वो फिल्म बन नहीं पाई। अगर वो फिल्म बनती तो प्रथमेश बरुआ की परंपरा जो विमल रॉय के माध्यम से दर्शकों के सामने आई थी वो आगे बढ़ती। विमल रॉय, प्रथमेश बरुआ के कैमरामैन थे उसी तरह से गुलजार भी विमल रॉय के असिस्टेंट थे। इसके बाद से देवदास पर आधारित देव डी बनी जिसमें फिल्मकार अनुराग कश्यप ने स्थितियां बहुत बदल दीं और कहानी को नए संदर्भ दिए लेकिन मूल आत्मा वही रही। अंग्रेजी के एक समीक्षक ने देव डी को बारे में लिखा था कि ये उपन्यास देवदास का लूज एडप्टेशन है।
देवदास उपन्यास पर ताजा फिल्म है दासदेव। इस फिल्म को सुधीर मिश्रा ने निर्देशित किया है और संजीव कुमार ने प्रोड्यूस किया है। यह फिल्म आधारित तो है शरतचंद्र के उपन्यास पर इसको राजनीति की संवेदनहीन भूमि पर नए संदर्भों और स्थितियों के आधार पर पेश किया है। कहानी उत्तर प्रदेश के एक गांव से शुरू होती है और वहीं पर खत्म हो जाती है। दरअसल अगर हम शरतचंद्र के 1917 में लिखे उपन्यास देवदास में इसका नायक अपने प्यार के लिए खुद को बर्बाद करता है। राजनीति की खूनी जमीन पर दासदेव में सुधीर मिश्रा ने देव चौहान के किरदार के माध्यम से इस थीम को मजबूती देने की कोशिश की है। राजनीति की बंजर जमीन पर प्यार की कोमल भावनाओं को रिचा चड्डा और अदिति राव हैदरी ने अपनी जानदार भूमिकाओं से जीवंत कर दिया है। दरअसल अगर हम सूक्ष्मता से देखें तो सुधीर मिश्रा ने अपनी इस फिल्म दासदेव में शरतचंद्र के उपन्यास देवदास और शेक्सपियर की कृति हैमलेट को मिला दिया है और देवदास की कहानी को भी थोड़ा सा उलट दिया है। शरतचंद्र में जहां नायक खुद को बर्बाद करता है वहीं दासदेव का नायक खुद को बर्बाद करने के बाद नाम बदलकर अपने प्यार पारो को पाने में कामयाब हो जाता है। अदिति राव हैदरी ने चांदनी की भूमिका में राजनीति के उस पक्ष को उजागर कर दिया है जहां सत्ता के शीर्ष पर बैठे शख्स का विद्रूप चेहरा सामने आता है। इस फिल्म में जबरदस्त हिंसा है, फिल्म बहुत तेजी से चलती है लेकिन प्रेम की गहराई तब भी कहीं कम नहीं होती, प्रेम का आवेग कहीं बाधित नहीं होता। इस फिल्म में प्रेम की इंटेंसिटी है लेकिन कई बार राजनीतिक षडयंत्रों के बीच वो नेपथ्य में जाती दिखती है, फिर वापस केंद्र में आ जाती है।
इस तरह से अगर हम देखते हैं तो देवदास की मूल कहानी को अपनाते हुए भी कई फिल्मकार उसमें बदलाव करते चलते हैं। नायक द्वारा अपने प्यार को पाने के लिए खुद को बर्बाद करने की थीम पर भी कई फिल्में बनीं। साहित्यकारों को बहुधा शिकायत रहती है कि उनकी रचना के साथ छेड़छाड़ की गई। प्रेमचंद का भी यही दर्द था। लेकिन हमें इस संदर्भ में गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर के कथन को याद करना चाहिए। उन्होंने 1929 में शिशिर कुमार भादुड़ी के भाई मुरारी को लिखे एक पत्र में सिनेमा और साहित्य पर अपने विचार प्रकट किए थे। टैगोर ने लिखा था- ‘कला का स्वरूप अभिव्यक्ति के मीडियम के अनुरूप बदलता चलता है। मेरा मानना है कि फिल्म के रूप में जिस नई कला का विकास हो रहा है वो अभी तक रूपायित नहीं हो पाई है। हर कला अपनी अभिव्यक्ति की स्वाधीन शैली अपने रचना जगत में तलाश लेती है। सिनेमा के लिए सृजनशीलता ही काफी नहीं है उसके लिए पूंजी भी आवश्यक है और सिनेमा में बिंबों के प्रभाव के माध्यम से अभिव्यक्ति को पूर्णता प्राप्त होती है। टैगोर ने आज से करीब नब्बे वर्ष पहले जो लिखा था वो आज भी मौजूं है। कला अपने अभिव्यक्ति की स्वाधीन शैली तलाशती ही है। ध्यान सिर्फ इतना रखना चाहिए कि पूंजी को आवश्यक तो माना जाए लेकिन सिर्फ उसको ही आवश्यक मानने से सृजनशीलता से लेकर बिंबों तक पर असर पड़ने लगेगा। दासदेव में यह तो नहीं दिखाई देता है क्योंकि सुधीर मिश्रा ने बेहद खूबसूरती के साथ कहानी को शरतचंद्र के यहां से उठाते हुए उसको एक नई कल्पनाशीलता में पिरोया है। अब इस बात पर बहस तो हो सकती है कि फिल्मकार किसी कृति में छेड़छाड़ की कितनी छूट ले सकता है। इसपर साहित्य जगत मे लंबी बहसें पहले भी हुई हैं और अब भी की साहित्यक कृति पर फिल्म का निर्माण होता है तो इस मुद्दे पर चर्चा शुरू हो जाती है। जब सत्यजित राय प्रेमचंद की कृति शतरंज के खिलाड़ी पर फिल्म बना रहे थे तब भी यह बहस हुई थी और कहा गया था कि सत्यजित राय ने मूल कथानक के साथ छेड़छाड़ की । जब हिंदी के मशहूर कथाकार विजयदान देथा की कहानी पर पहेली फिल्म बनी थी तब भी उसमें काफी बदलाव किया गया था। वाद विवाद भी हुए थे। अब जब दासदेव में शतरचंद्र और शेक्सपियर को मिला दिया गया है, सुधीर मिश्रा ने फिल्म की शुरुआत में इसका पर्याप्त संकेत भी किया है,तो साहित्य जगत में इसको लेकर क्या प्रतिक्रिया होती है यह देखना दिलचस्प होगा।

Monday, April 23, 2018

‘कोठेवालियां’ और सिनेमा का समाजशास्त्र ·


हिंदी साहित्य में फिल्म पर लेखन को सालों तक गंभीरता से नहीं लिया जाता रहा। हिंदी में साहित्यकारों के एक वर्ग का मानना है कि फिल्में और उससे जुड़ी बातें साहित्य के लिए बहुत हल्की हैं। हिंदी में फिल्मों पर गंभीर लेखन लगभग नहीं हो रहा है। फिल्म समीक्षाओं और छिटपुट लेखन को संकलित कर किताबें बनाने की प्रवृत्ति बढ़ी है, कुछ अपवादों को छोड़कर। जबकि अंग्रेजी में ऐसी स्थिति नहीं है वहां सालों से फिल्म और उससे जुड़ी बातों पर गंभीरता से लिखा जाता रहा है। अंग्रेजी ही क्यों कई अन्य भारतीय भाषाओं में भी फिल्मों पर गंभीर अध्ययन हुआ है चाहे वो मलयालम हो, बांग्ला हो या तमिल हो। कई बार तो अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशित पुस्तकों को देखकर लगता है कि काश हिंदी में भी इस तरह का अध्ययन होता और विद्वान लेखक किसी विषय विशेष पर श्रमपूर्वक पुस्तक लिखते। पिछले दिनों वेंडि डोनिगर की अंगूठी पर केंद्रित किताब द रिंग्स ऑफ ट्रूथ पढ़ते वक्त भी यही बात दिमाग में उठी थी। अभी जब युनिवर्सिटी ऑफ मोंटाना की प्रोफेसर रूथ वनिता की किताब डासिंग विथ द नेशन, कोर्टिजन्स इन बांबे सिनेमा पढ़ी तो एक बार फिर से ये बात दिमाग में कौंधी। रूथ वनिता ने हिंदी फिल्मों में गणिकाओं,नर्तकियों, वेश्याओं, नगरवधुओं, तवायफों और कोठेवालियों जैसे शब्दों तक को परखा है। उनका मानना है कि अन्य विशेषताओं के अलावा कोर्टिजन्स के चरित्रों का चित्रण बांबे सिनेमा को हॉलीवुड से अलग करता है। बहुत सारे शब्दकोशों में कोर्टिजन्स का मतलब वेश्या दिया गया है लेकिन वनिता ने अपनी इस किताब में कोर्टिजन्स का दायरा बढ़ाकर उसको अपने अध्ययन का आधार बनाया है। वनिता ने बांबे फिल्म की उन सभी महिला चरित्रों को अपनी इस किताब में शामिल किया है जो अपनी आजीविका नाच-गाकर चलाती हैं, इतिहास में अलग अलग समय पर पुरुषों का मन भी लगाती रही है चाहे बतिया कर या चाहे मनोरंजन कर। अपनी इस किताब में विनीता ने सिनेमा के अलावा सेक्सुअलिटी की ऐतिहासिकता को प्राचीन भारतीय ग्रंथों के उदाहरणों से भी स्पष्ट किया है। मसलन जब वो वेश्या के बारे में बात करती हैं तो निरुत्तर तंत्र में वर्णित उद्धरणों को पाठकों के सामने रखती हैं। इससे वो सेक्सुअली इंडिपेंडेंट महिला और यौनकर्मी के भेद को स्पष्ट करती हैं। वो तवायफ शब्द के अर्थ बदल जाने को भी रेखांकित करती हैं कि किस तरह तवायफ का अर्थ पहले सिर्फ नाचने गानेवाली होता था जो कालांतर में देह व्यापार से जुड़ गया।
इस पुस्तक में लेखिका ने उन स्थितियों की चर्चा भी की है कि किस तरह से और क्यों बांबे सिनेमा ने कोर्टिजन्स को सेक्स वर्कर चित्रित करना शुरू कर दिया। वो असल जिंदगी की तवायफ को बांबे सिनेमा में तवायफ की भूमिका को मजबूत करनेवाली मानती हैं। उऩका मानना है कि तवायफें प्रशिक्षित नृत्यांगना और गायिका होती थी और उन्होंने ही बांबे फिल्मों में शुरुआती दिनों में एक्टर से लेकर सिंगर, कोरियोग्राफर, म्यूजि डारेक्टर आदि की भूमिका का निर्वाह किया। वो इस बात को भी रेखांकित करती हैं कि बांबे सिनेमा के डीएनए में तवायफ संस्कृति बहुत गहरे तक धंसी हुई थी। फिल्मों में वेश्या के रोल को जिस तरह से हिरोइंस चुनौतीपूर्ण मानती रही हैं उसी तरह से निर्माता और निर्देशक भी वेश्या के इर्द गिर्द फिल्म बनाने को चैलेंज की तरह लेते रहे हैं । भारतीय समाज में वेश्या का चरित्र हमेशा से लोगों को लुभाता रहा है, उनके रहन-सहन से लेकर बात व्यवहार से लेकर उनके जीवन की परतों को देखने समझने की आकांक्षा जनमानस में होती है । हिरोइंस भी इस तरह के रोल को लीक से हटकर मानती रही हैं और उनको भी लगता है कि वेश्या का सफल रोल निभाना उनके करियर का एक अगम पड़ाव हो सकता है,

रूथ वनिता ने इस संबंध में अपनी किताब में नरगिस की मां जद्दनबाई का उदाहरण देती हैं । जद्दनबाई इलाहाबाद की कोर्टिजन दलिपबाई की बेटी थी। जद्दनबाई बांबे सिनेमा में पायनियर की तरह देखी जाती हैं। इसके अलावा वो फातिमा बेगम का नाम लेती हैं और उनको बांबे सिनेमा की पहली महिला निर्देशक करार देती हैं। उन्होंने 1926 में बुलबुल ए परिस्तान नाम की मूक फिल्म बनाई थी। ये भी एक तवायफ के परिवार से थीं। इस तरह के कई अन्य उदाहरण दिए गए हैं। ढाई सौ पन्नों की अपनी इस किताब को रूथ वनिता ने छह अध्याय में बांटा है जिसमें परिवार, ईरास, कार्य, पुरुष सहयोगी, राष्ट्र और धर्म में बांटकर इस विषय की व्याख्या की है। कालखंडों के आधार पर कोर्टिजन्स के बदलते स्वभाव और चरित्र को रेखांकित किया गया है। बदलाव को रेखांकित करते वक्त लेखिका ने उस दौर के फिल्मों के गानों और दृश्यों का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। जैसे तवायफ की जाति आदि के बारे में बात करते हुए वो स्वार्थी (1986) फिल्म के गाने की पंक्ति कोट् करती हैं तवायफ नाम है मेरा, निराली जाति मेरी। इसी तरह जब गरीब परिवार की लड़कियों के कोठे पर आने और उसकी जाति की बात होती है तो मंगल पांडे में हीरा का संवाद पेश करती हैं बिकाऊ लोगों की जाति नहीं होती। अपने तर्क के समर्थन में लेखिका फिल्म खिलौना(1970), बेनजीर(1964), तेरी पायल मेरे गीत(1993) और गाइड(1965) जैसी फिल्मों से उदाहरण देती चलती हैं। इसके अलावा वो दरगाह और मंदिरों के जरिए भी इस पेशे से जुड़ी महिलाओं के बारे में बातें करती हैं।
जैसा कि ऊपर भी संकेत किया गया है कि फिल्मकारों से लेकर कलाकारों तक की इच्छा होती है कि वो कोठे के जीवन को लेकर एक फिल्म जरूर बनाए । हिंदी फिल्मों की परंपरा को देखें तो यहां कोठों को लेकर सैकडों फिल्में बनी हैं । सबसे मजेदार तथ्य तो यह है कि कोठेवाली बनने में नई से लेकर पुरानी अभिनेत्रियों को कभी गुरेज नहीं रहा । कोठेवाली की भूमिका को अभिनेत्रियां चुनौतीपूर्ण मानती रही हैं । रेखा ने भी इस रोल में यादगार भूमिकाएं निभाई हैं। फिल्म बेगम जान में विद्या बालन ने तो करीना कपूर ने चमेली में वेश्या की भूमिका निभाई । इस फिल्म के आठ साल बाद करीना एक बार फिर से वेश्या की भूमिका में दिखी फिल्म तलाश में जिसमें उसके साथ आमिर खान और रानी मुखर्जी भी थे । रीमा बुगती की इस फिल्म में भी करीना ने जोरदार अभिनय किया । करीना के अलावा रानी मुखर्जी ने भी साल दो हजार सात में दो फिल्मों में वेश्या की भूमिका निभाई थी – सांवरिया और लागा चुनरी में दाग सांवरिया में उसको रणबीर से इश्क होता है लेकिन कहानी को कुछ और ही मंजूर था और रणबीर, सोनम के इश्क में डूबने लगता है और रानी को भुला देता है । लेकिन रानी की फिल्म लागा चुनरी में दाग एक बेहतरीन और यादगार भूमिका वाली फिल्म है इसी तरह से दो हजार एक में आई फिल्मचांदनी बार में तब्बू की भूमिका ने उस साल उसकी झोली पुरस्कारों से भर दी थी ।
इक्कसवीं सदी की शुरुआत में कई फिल्में बनीं जिसमें उस दौर की टॉप की हिरोइंस ने वेश्या का रोल निभाया । जैसे दो हजार एक में ही बनी फिल्म चोरी चोरी चुपके चुपके में प्रीति जिंटा वेश्या थी जिसे सलमान खान सैरोगेसी के लिए तैयार करते हैं क्योंकि कारोबरी सलमान और उसकी पत्नी रानी मुखर्जी को बच्चा नही हो रहा था । दो हजार नौ में आई फिल्म देव डी में कल्कि ने भी हाई प्रोफाइल काल गर्ल की भूमिका निभाई थी जो दिन में कॉलेज की छात्रा होती थी और रात में वेश्यावृत्ति करती थी । इस फिल्म में आधुनिक समाज में एक लड़की के वेश्यावृत्ति के धंधे में किस मजबूरी में उतरना पड़ता है इसको फिलमकार ने बेहद सधे अंदाज में पेश किया है कंगना रनावत ने भी दो हजार तेरह में बनी फिल्म रज्जो में मुंबई के रेड लाइट एरिया में रहनेवाली वेश्या का रोल किया था । दो हजार पांच में आई फिल्म नो एंट्री में बिपाशा बसु ने भी एक सेक्स वर्कर का रोल किया था । फिल्म मार्केट में मनीषा कोइराला तो जूली में नेहा धूपिया ने भी वेश्या का रोल किया है ।
अपनी इस किताब की शुरुआत में ही लेखिका ने इस अध्ययन की जो रूपरेखा प्रस्तुत की है उससे ही अंदाज लग जाता है कि ये काम बहुत अहम है। इस पूरे अध्ययन का निष्कर्ष लेखिका यह निकालती हैं कि कोर्टिजन का जो चरित्र भारत में रहा है उसके आधार पर ही आधुनिक भारत में जेंडर और सेक्सुअलिटी की अवधारणा का विकास हुआ है। वनिता का मानना है कि बांबे फिल्मों में जिस तरह से कोर्टिजन्स को दिखाया गया है वो भारतीय फिल्म का विश्व सिनेमा को एक अद्भुत देन है। रूथ वनिता की यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है और इसको पढकर जेंडर और सेक्सुअलिटी को समझ थोड़ी और साफ होती है।








Saturday, April 14, 2018

विश्व हिंदी सम्मेलन की आहट से उठे सवाल


ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन के मॉरीशस आयोजन को लेकर चर्चाएं शुरू हो गई हैं। इसका आयोजन संभवत इस वर्ष अगस्त में किया जाएगा। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की अगुवाई में इस आयोजन को अंजाम दिया जाएगा। सुषमा जी का हिंदी प्रेम जगजाहिर है। हिंदी के वरिष्ठ लेखक नरेन्द्र कोहली ने कई बार सुषमा जी के हिंदी प्रेम को रेखांकित किया है। उनके मुताबिक वो विदेश मंत्री के साथ कई बैठकों में शामिल रहे हैं और हिंदी से संबंधित किसी विषय पर अगर उनके सामने अंग्रेजी में प्रस्ताव या कार्ययोजना आदि आ जाता है तो वो बुरी तरह से नाराज हो जाती हैं। डॉ कोहली के मुताबिक सुषमा जी हिंदी को लेकर इतनी प्रतिबद्ध प्रतीत होती हैं कि अगर बैठक हिंदी या भाषा से संबंधित है तो वो उस बैठक में तबतक आगे नहीं बढ़ाती हैं जबतक कि उनके सामने सारे दस्तावेज हिंदी में नहीं रखे जाएं। सुषमा जी ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने को लोकर भी रुचि दिखाई थी। भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी कहा था कि सरकार कोशिश करेगी। इस दिशा में कोई ठोस प्रगति हो पाई है या नहीं ये तो अभी ज्ञात नहीं हो पाया है लेकिन गाहे बगाहे बयानों से हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने को लेकर पक्ष विपक्ष में चर्चा हो जाती है। अब जबकि विश्व हिंदी सम्मेलन की आहट सुनाई दे रही है तो एक बार फिर से हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने को लेकर बातें होंगी। होगा क्या इसका अंदाज लगाना कठिन है क्योंकि विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजनों में कई बार इस आशय का प्रस्ताव गाजे बाजे के साथ पास होता रहा है। मैं जोहानिसबर्ग में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में शामिल हुआ था। वहां कई अहम प्रस्ताव पारित हुए थे। सबसे अहम और पहला प्रस्ताव तो हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने को लेकर ही हुआ था। विगत में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलनों में पारित प्रस्ताव को रेखांकित करते हुए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्रदान किए जाने के लिए समयबद्ध कार्रवाई सुनिश्चित करने पर बल दिया गया था। पहले भी आयोजित दो विश्व हिंदी सम्मेलनों में इस तरह का प्रस्ताव पारित किया जा चुका है । लेकिन उसका अबतक कोई नतीजा सामने नहीं आया था  जो दूसरा अहम प्रस्ताव पारित हुआ था वो यह था कि दो हिंदी सम्मेलनों के आयोजन केबीच यथासंभव अधिकतम तीन वर्ष का अंतराल हो  अबतक यह व्यस्था थी कि विश्व हिंदी सम्मेलनों के आयोजन के बीच कोई भी अंतराल नियत नहीं था  सरकारों की इच्छा और अफसरों की मर्जी पर विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजनहोता रहा है  अब अगर भारत सरकार ने ये इच्छा शक्ति दिखाई है कि वो अधिकतम तीन वर्षों केअंतराल पर विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन करेगी तो ये संतोष की बात है  अगर यह मुमकिनहो पाता है तो इससे हिंदी का काफी भला होगा  चाहे वो सम्मेलन भारत में आयोजित हों या फिरविदेश में  हिंदी को लेकर वैश्विक स्तर पर एक चिंता और उससे निबटने के उपायों पर विमर्श कीनियमित शुरुआत तो होगी  हिंदी को लेकर सरकारों की नीतियां भी साफ तौर पर सामने  पाएंगी। 
इस वर्ष जब मॉरीशस में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हो रहा है तो ऐसे में मन में एक सवाल और उठता है। वह है मॉरीशस में स्थापिक विश्व हिंदी सचिवालय के कामकाज के बारे में। 1975 में जब नागपुर में विश्व हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ था तब मॉरीशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री व प्रतिनिधि मंडल के अध्यक्ष सर शिवसागर रामगुलाम ने एक विश्व हिंदी केंद्र की स्थापना का विचार पेश किया था। विश्व हिंदी सचिवालय की बेवसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक इस विचार ने दृढ़ संकल्प का रूप धारण किया मॉरीशस में आयोजित द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन में और लगातार कई विश्व हिंदी सम्मेलनों में मंथन के बाद मॉरीशस में विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना का विचार साकार हुआ।  12 नवंबर, 2002 को मॉरीशस सरकार द्वारा विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना व प्रबंधन से संबंधित अधिनियम पारित किया गया। हिंदी का अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रचार तथा हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए मंच तैयार करने के उद्देश्य से सचिवालय की स्थापना हुई।  21 नवंबर, 2003 को नई दिल्ली में मॉरीशस सरकार तथा भारत सरकार के बीच विश्व हिंदी सचिवालय के गठन व कार्य पद्धतियों से संबंधित एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। 11 फरवरी, 2008 को विश्व हिंदी सचिवालय ने आधिकारिक रूप से कार्यारंभ किया। यहां तक तो ठीक है लेकिन अब सवाल उठता है कि इतने लंबे समय तक मंथन के बाद 2008 में जब औपचारिक रूप से इस संस्था ने काम शुरू किया तो दस साल का हासिल क्या है। इस दस साल के हासिल के बारे में बात करते हैं तो हमें बहुत कुछ दिखाई देता नहीं है। इस संस्था को लेकर बहुत उत्साह भारत सरकार में कभी नहीं रहा। इसके शासी निका. की बैठकें तक नियमित नहीं होती हैं। यह जिस उद्देश्य से स्थापित किया गया था उसतक पहुंतने के लिए इस संस्था ने क्या कदम उठाए हैं ये जानने का अधिकार भारत की जनता को है क्योंकि उनकी गाढ़ी कमाई का पैसा इस संस्था में लगता है।
इस संस्था की बेवसाइट पर उपलब्ध जानकारी बहुत निराशाजनक है। अगर आप गतिविधियां और आयोजन खंड में जाकर झांकते हैं तो वहां जो पहली गतिविधि दिखाई देती है वह है मॉरीशल में विश्व हिंदी दिवस, दूसरा है कार्यारंभ दिवस, अंतराष्ट्रीय क्षेत्रीय सम्मेलन, आईसीटी कार्यशालाएं और सचिवालय के प्रकाशन। अगर सचिवालय के प्रकाशन खंड को देखते हैं तो तीन पत्रइका का नाम दिखाई देता है वह है विश्व हिंदी पत्रिका, विश्व हिंदी समाचार और अंतरक्षेत्रीय सम्मेलन स्मारिका है। दरअसल हिंदी के नाम पर ज्यादातर संस्थाएं ऐसी हैं जहां इऩ भाषाओं को लेकर बहुत खास होता दिखता नहीं है। भाषा के लिए ठोस काम की बजाए ऐसी संस्थाओं में आयोजन ज्यादा होते हैं। लगभग सभी सरकारी संस्थाओं में बैठे आकाओं को ये लगता है कि आयोजन करवाने से संस्था सक्रिय नजर आती है। आती भी है क्योंकि इसमें जो लोग शामिल होते हैं वो उस आयोजन के बारे में बातें करते हैं। सोशल मीडिया पर अपनी भागीदारी को प्रचारित करते हैं तो प्रकरांतर से उस संस्था का प्रचार होता है और जनता के बीच उसके सक्रिय होने का संदेश जाता है। जबकि ऐसी संस्थाओ से ये उम्मीद की जाती है कि वो भाषा को लेकर कोई ठोस काम करेंगे। अंग्रेजी में हर साल शब्दकोश का प्रकाशन होता है, उसको अपडेट किया जाता है, उसमें शब्द जोड़े जाते हैं लेकिन हिंदी में ऐसा नहीं हो पाता है। शब्दों को जोड़े जाने का काम तो छोड़ ही दें, हर साल शब्दकोश के प्रकाशऩ की भी व्यवस्था नहीं है। सालों से कोई नया शब्दकोश नहीं निकला है। जबकि इन संस्थाओं से अपेक्षा की जाती है कि वो कम से कम शब्दकोश तो प्रकाशित करें। इन संस्थाओं का करोड़ों का बजट होता है जिसमें से एक बड़ा हिस्सा आयोजनों पर खर्च होता है। प्रकाशन उनकी प्राथमिकता में नहीं है। किशोरीदास वाजपेयी ने हिंदी शब्दानुशासवन जैसी किताब लिखी थी जो अब लगभग अनुपलब्ध है। उसके पुनर्प्रकाशऩ के लिए काम होना चाहिए। ये तो सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसे सैकड़ों महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं जो अब लगभग अनुपलब्ध हैं।
संस्कृति मंत्रालय के कितने उपक्रम हैं जिसके अंतर्गत इस तरह के काम हो सकते हैं, लेकिन सवाल यही कि उसको लेकर एक पहल तो करनी होगी। नौकरशाहों से हम ये अपेक्षा नहीं कर सकते, पर मंत्री से, जनता के नुमाइंदे से ये अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वो आयोजनधर्मिता पर ठोस काम को तरजीह देने की दिशा दिखाएं। केंद्र सरकार को भी राज्य सरकारों के साथ मिलकर इस दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है। अबतक भाषा और संस्कृति सरकारों की प्राथमिकता में नहीं रही है, इसका भी बहुत नुकसान हुआ है। अब वक्त आ गया है कि अगर हमको अपने देश को मजबूत करना है तो शिक्षा, संस्कृति, भाषा को मजबूत करने पर जोर देना होगा। क्योंकि ये तीन विषय राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने में अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं।  इसके अलावा हिंदी समाज को भी जाग्रत होकर सरकार पर दबाव बनाना होगा कि वो इन विषयों को अपनी प्राथमिकता में शामिल करें। विश्व हिंदी सम्मेलन जैसे आयोजनों और विश्व हिंदी सचिवालय जैसी संस्थाओं की सार्थकता तभी होगी जब कि कुछ ठोस हो सकेगा वर्ना ये सिर्फ घूमने फिरने का उपक्रम भर बनकर रह जाएगा। 

Saturday, April 7, 2018

फिल्मों के सामाजिक सरोकार


जॉर्ज बर्नाड शॉ ने 1930 में सिनेमा को लेकर एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही थी। उनके मुताबिक सिनेमा लोगों के दिलोदिमाग को गढ़ेगा और उनके आचरण को प्रभावित करेगा। युवा वर्ग पर उसके दुष्प्रभाव की अवधारणा का उन्होंने निषेध किया था। वो मानते थे कि यह फिल्म पर भी निर्भर करता और युवा मस्तिष्क पर भी। हर कला में अच्छी और बुरी दोनों तरह की शक्ति होती है, जब आप किसी को लिखना सिखाते हैं तो आप उसे फर्जी चेक बनाना भी सिखाते हैं और अच्छी कविता लिखना भी।जॉर्ज बर्नाड शॉ के इस कथन का अचानक स्मरण तब हो उठा था जब पिछले दिनों किसी फिल्म देखने के पहले रानी मुखर्जी अभिनीत फिल्म हिचकी का ट्रेलर आया था। उस ट्रेलर को देखकर साथ बैठे एक दंपति की बातचीत बेहद दिलचस्प थी। ट्रेलर के बाद पत्नी ने सहज भाव से पति से पूछा कि ये हिचकी कैसी है जो इतने जोरों से आती है। पति ने भी उसी सहजता से उत्तर दिया कि अरे यार फिल्म है कुछ भी हो सकता है। बातचीत बेहद सामान्य थी लेकिन जब हिचकी फिल्म देखी तो लगा कि ये एक ऐसी बीमारी पर केंद्रित फिल्म है जिसके बारे में आमजन को ज्यादा पता नहीं है। ये बीमारी है टूरेट सिंड्रोम जिसके बारे में हमारे देश में बहुत ही कम लोगों को पता है । ये एक न्यूरोसाइकेट्रिक समस्या है जो किसी को भी बचपन से ही हो सकती है। कोई भी बच्चा इस न्यूरोसाइकेट्रिक समस्या की चपेट में क्यों आता है इसकी सही वजह का पता नहीं चल पाया है। दरअसल इससे ग्रस्त बच्चों में कंधे के उपर के हिस्से में अचानक मूवमेंट होती है, कोई आंख मिचकाता है, कोई कंधों को हिलाता है और कोई बार-बार नाक सिकोंड़ता है आदि आदि। चूंकि इसके बार मे ज्यादा लोगों को पता नहीं है लिहाजा बच्चों में इस तरह के व्यवहार को लेकर माता-पिता असवाधानी कर जाते हैं। उनको लगता है कि उनके बच्चे बदमाशी में ऐसा कर रहे होते हैं। फिल्म हिचकी के माध्यम से इस समस्या के बारे में समाज को बताया गया है। यह फिल्म ब्राड कोहेन की आत्मकथा फ्रंट ऑफ द क्लास, हाउ टूरेट सिड्रोम मेड मी द टीचर आई नेवर हैड पर आधारित है। विशेषज्ञों के मुताबिक टिक या टूरेट सिंड्रोम के शिकार बहुत कम बच्चे होते हैं। एक अनुमान के मुताबिक पंद्रह सत्रह हजार बच्चों में से एक बच्चे इसके शिकार होते हैं। इस पूरी बात को बताने का मकसद ना तो इस समस्या के बारे में बात करना है और ना ही इस सिड्रोम से ग्रस्त बच्चों का लक्ष्ण बताना उद्देश्य है। उद्देश्य है सिर्फ फिल्म की उस भूमिका को रेखांकित करना जिसमें वो समाज को शिक्षित भी करता है और किसी खास विषय को लेकर जनता को जागरूक भी करता है। हिचकी फिल्म के माध्यम से इसके निर्माताओं ने अपनी उस भूमिका का निर्वाह भी किया है।
इसी तरह से अगर हम देखें तो 2007 में आमिर खान अभिनीत फिल्म आई थी तारे जमीं पर। ये पूरी फिल्म आठ साल के बच्चे ईशान के इर्द गिर्द घूमती है। ईशान डिस्लेक्सिया का शिकार है। इस फिल्म में ईशान पढाई में जब अच्छा नहीं कर पाता है तो उसको उसके माता पिता बोर्डिंग स्कूल में भेज देते हैं जहां वो परेशान होकर खुदकुशी तक करने की सोचता है क्योंकि उसके आसपास का परिवेश बच्चे की समस्या को नहीं समझ पाता है। उसको जिस संवेदनशील व्यवहार की जरूरत होती है वो उसको ना तो अपने परिवार से मिलता है ना ही समाज से और ना ही स्कूल के परिवेश से। जानकारी के अभाव में इस तरह के बच्चों के साथ उनके माता पिता मारपीट करते हैं जो उसके लिए घातक होता है। परिवार के लोगों को लगता है कि बच्चा जानबूझकर पढाई नहीं करना चाहता है लिहाजा पिटाई कर उसपर पढ़ने के लिए दबाव बनाया जाता है।
डिसलेक्सिया के अलावा बहुत सारे बच्चे ऑटिज्म के भी शिकार होते हैं जिन्हें हमारा समाज जागरूकता के अभाव में पागल तक समझने लगता है। जबकि ऐसा होता नहीं है। इस तरह के बच्चों को संवेदना की दरकार होती है और उनके व्यवहार को नियंत्रित कर और उनकी समस्या को समझकर अगर उनके साथ उचित व्यवहार किया जाए तो बहुत हद तक वो ठीक होने लगते हैं। पूरी दुनिया में ऐसे कई उदाहरण है जब डिसलेक्सिया या ऑटिज्म के शिकार बच्चे अपनी जिंदगी में बहुत अच्छा करते हैं। अलबर्ट आइंस्टीन, बिल गेट्स, स्टीव जॉब्स से लेकर मोजार्ट तक इसके उदाहरण हैं। आमिर खान की इस फिल्म तारे जमीं पर के रिलीज होने के बाद हमारे देश में जनता के बीच एक खास तरह की जागरूकता देखने को मिली। डिसलेक्सिया से लेकर ऑटिज्म तक पर बात होने लगी। ऑटिज्म के अलग अलग स्पेक्ट्रम को लेकर लोगों में जागरूकता फैली। बहुत सारे लोगों का, अभिभावकों का, स्कूलों का इस तरह के बच्चों के साथ व्यवहार बदल गया। हमारा समाज अटेंशन डिफसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर की समस्या से जूझ रहे बच्चों के प्रति संवेदनशील होने लगा। उसके पहले से भी इसको लेकर कुछ लोगों में जागृति थी लेकिन इस फिल्म के बाद इसकी व्याप्ति कई गुणा बढ़ गई।
2010 में शाहरुख खान की फिल्म आई माई नेम इज खान। इसमें शाहरुख खान ऑटिज्म के स्पेक्ट्रम पर आनेवाले एस्पर्जर सिड्रोंम का शिकार होते हैं। इस फिल्म में परोक्ष रूप से ये संदेश दिया गया था कि एस्पर्जर सिड्रोंम का शिकार व्यक्ति किसी खास काम में बेहद निपुण हो सकता है। इस फिल्म में शाहरुख खान ने रिजवान खान का चरित्र निभाया है जो किसी भी चीज की मरम्मत कर देने की कला में निपुण होता है। बाद में ये फिल्म अमेरिका चली जाती है और वहां की समस्याओं पर फोकस करती है लेकिन कथानक में उन सारी समस्याओं के साथ साथ एस्पर्जर सिंड्रोम भी साथ चलता रहता है। इस फिल्म ने भी इस समस्या के बारे में जनता को बताया। जागरूकता बढ़ाई। फिल्म एक बेहद सशक्त माध्यम है और मनोरंजन के अलावा समाज के प्रति उसका एक उत्तरदायित्व लोगों के बीच किसी समस्या और उसके समाधान के बारे में जागरूकता फैलाना भी है। तारे जमीं पर के रिलीज के दो साल बाद 2009 में आर बाल्कि ने अमिताभ बच्चन के साथ पा फिल्म बनाई। इस फिल्म में नायक प्रोजोरिया जैसी दुर्लभ बीमारी से ग्रस्त है। प्रोजोरिया एक ऐसा जेनेटिक डिसऑर्डर है जिसमें उससे ग्रस्त बच्चा बहुत कम उम्र में बुजुर्ग दिखने लगता है। इसी तरह से ब्लैक फिल्म में अल्जाइमर को केंद्र में रखा गया है। इस तरह की फिल्में जनता को पसंद भी आती हैं। इस तरह की दुर्लभ बीमारियों को केंद्र में रखकर जितनी भी फिल्में बनी लगभग सभी व्यावसायिक दृष्टि से सफल भी रहीं क्योंकि ये लोगों के दिलों को छूती हैं। इन फिल्मों की माउथ पब्लिसिटी इतनी जबरदस्त होती है कि वो दर्शकों को सिनेमा हॉल तक खींच लाती है।
सत्तर के पहले बनने वाली फिल्मों में बीमारियों का चित्रण लोगों की भवनाओं को ध्यान में रखकर किया जाता था। पहले तो हीरो या फिर उसकी मां या परिवार का कोई अहम सदस्य टीबी का शिकार होता था और बाद में उसको कैंसर जैसी घातक बीमारी होने लगी थी। हिंदी फिल्मों के फिल्मकारों ने टी वी जैसी बीमारी का इस्तेमाल ज्यादातर किसी परिवार के गरीबी के चित्रण के तौर पर किया। इसी तरह से कैंसर जैसी असाध्य बीमारी को भी फिल्मकारों ने इस्तेमाल किया । जैसे हर्षिकेश मुखर्जी ने आनंद या मिली में इस बीमारी को अपनी कहानी में इस तरह से पिरोया कि सिनेमा हॉल में दर्शक सुबकते नजर आए थे। दर्द का रिश्ता में कैंसर की बीमारी से उपजी संवेदना को केंद्र में रखा गया लेकिन उसके बाद के फिल्मकार संवेदना से आगे जाकर समस्याओं को केंद्र में रखकर जनता को संदेश देने लगे।
मूक फिल्मों से शुरू होकर आज तक की हिंदी फिल्मों के बिंब लगातार बदल रहे हैं। रंग और ध्वनि के बदलते प्रयोगों के बीच फिल्मों के विषयों को लेकर भी लगातार नए प्रयोग हो रहे हैं। अब वो दौर खत्म हो गया कि फिल्मों को व्यावसायिक और अव्यावसायिक की श्रेणी में बांटकर विचार किया जाए। हिंदी फिल्मों कला और व्यावसायिक फिल्मों में बंटवारे का दौर भी देखा। उस दौर में कुछ बेहद अच्छी फिल्में बनीं लेकिन वो कारोबार की दृष्टि से अच्छा नहीं कर पाईं। उसका नतीजा यह हुआ कि अच्छी फिल्म बनानेवालों के पास संसाधनों की कमी रही और वो धारा सूख गई। अब जबकि यथार्थपरक फिल्मों के नाम पर कोई अलग खांचा नहीं बचा तो हिंचकी, तारे जमीं पर, माई नेम इज खान, ब्लैक जैसी फिल्में उस कमी को भी पूरा कर रही हैं और अच्छी कमाई कर इस तरह की फिल्में बनाने वालों के हाथ भी मजबूत कर रही हैं।