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Sunday, December 30, 2018

शब्द की सत्ता स्थापित करता पुस्तक मेला


प्रसिद्ध फ्रेंच दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र की आत्मकथा का नाम है द वर्ड यानि शब्द। सार्त्र की इस आत्मकथा में शब्द सिर्फ अक्षरों का समुच्चय नहीं है, बल्कि वो शब्द की महत्ता को स्थापित करने का एक उपक्रम भी है। शब्द की महत्ता किसी भी ताकतवर सत्ता को हमेशा चुनौती देती है, लिहाजा दुनियाभर के तानाशाहों ने शब्द की महत्ता को खत्म करने की कोशिशें की। हिटलर ने भी जब द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फ्रांस पर कब्जा किया था तो सबसे पहले उसने भी शब्द की सत्ता पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश की। इस कोशिश में उसने फ्रांस के मशहूर प्रकाशन गृह गालीमार के अधिग्रहण का अध्यादेश जारी कर दिया। उसके बाद ही उसने फ्रांस के बैंक के अधिग्रहण का फरमान जारी किया था। इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं जहां सत्ता ने शब्द की सत्ता खत्म करने की कोशिश की। जहां-जहां लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुईं वहां शब्द की सत्ता को खत्म करने की कोशिश नहीं हुई। शब्द की सत्ता यानि पुस्तकों की मजबूत उपस्थिति। हमारे देश में लोकतंत्र की जड़े इतनी गहरी हैं कि शब्द-सत्ता लगातार मजबूत हो रही है। कई बार तो पुस्तकों को लेकर उस शहर के बौद्धिक चरित्र तक को जानने-समझने में मदद मिलती है। कहा भी गया है कि किसी भी शहर की बौद्धिक पहचान इस बात से होती है कि वहां कितने पुस्तकालय हैं। तकनीक के प्रभाव में और पुस्तकों के ई-फॉर्मेट में उपलब्ध होने की वजह से और जिंदगी में बढ़ती आपाधापी से पुस्तकालयों का आकर्षण भले हो थोड़ा कम हो गया है, लेकिन छपे हुए शब्दों को लेकर आकर्षण अब भी कायम है। कुछ सालों पहले जब इंटरनेट का फैलाव हो रहा था और कह जाने लगा था कि पुस्तकें खत्म हो जाएंगी तो ऐसी ही एक चर्चा के दौरान वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी ने बेहद दिलचस्प बात कही थी। अरुण माहेश्वरी के मुताबिक इंटरनेट और सोशल मीडिया के फैलाव ने किताबों के पक्ष में एक सकारात्मक माहौल बनाया। पाठकों को सोशल मीडिया पर पुस्तकों के बारे में तत्काल जानकारी मिल जाती है जिससे एक उत्सकुकता का वातावरण बनता है। पाठक पुस्तक तक पहुंचना चाहते हैं। इस बात की तस्दीक देशभर में लगनेवाले पुस्तक मेलों में उमड़नेवाली भीड़ करती है। दिल्ली में भी विश्व पुस्तक मेला के दौरान जिस तरह से पुस्तक प्रेमियों का जमावड़ा होता है वो छपे हुए शब्द की महत्ता को लेकर आश्वस्त करता है।
पूरी दुनिया में पुस्तक मेलों का बहुत लंबा और समृद्ध इतिहास और समाज में पुस्तक संस्कृति बनाने और उसको मजबूती देने में भी अहम भूमिका रही है। भारत में भी छोटे-छोटे असंगठित पुस्तक मेलों का आयोजन होता था लेकिन संगठित तरीके से पुस्तक मेले का आयोजन 1970 के दशक में शुरू हुआ जब दिल्ली और कोलकाता में पुस्तक मेला का आयोजन शुरू हुआ। 1972 में पहली बार दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला आयोजित किया गया। उसके बाद हर दो साल पर दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया जाने लगा। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला की प्रतीक्षा देशभर के पुस्तक प्रेमी करते हैं। 9 दिनों के इस पुस्तकोत्सव में देशभर के पुस्तक प्रेमी जुटते भी हैं। 2012 से विश्व पुस्तक मेला के आयोजक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने इस आयोजन को प्रतिवर्ष करने का फैसला लिया और तब से ये सालाना उत्सव की तरह आयोजित हो रहा है। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला का आयोजन प्रगति मैदान में होता है। पिछले साल और इस वर्ष वहां निर्माण कार्य की वजह से मेले के आयोजक राष्ट्रीय पुस्तक न्यास को जगह कम मिल रही है। इसकी वजह से मेले में शामिल होनेवाले प्रकाशकों और वहां पहुंचनेवाले पुस्तकप्रेमियों को दिक्कत हो रही है। पाठकों को निर्धारित हॉल तक पहुंचने में दिक्कत होती है। पिछले वर्ष तो तमाम दिक्कतों के बावजूद पुस्तक प्रेमी बड़ी संख्या में मेले में पहुंचे थे। राष्ट्री पुस्तक न्यास के अध्यक्ष प्रोफेसर बल्देव भाई शर्मा को उम्मीद है कि इस वर्ष भी पाठकों की संख्या बढ़ेगी। उन्होंने कहा कि न्यास इस बात को लेकर प्रतिबद्ध है कि वहां पहुंचनेवाले पुस्तकप्रेमियों को निराश नहीं होना पड़े और वो आराम से मेलास्थल तक पहुंच जाए।
2016 में प्रकाशित खबरों को आधार माना जाए तो उस वर्ष 9 दिनों में 12 लाख पुस्तक प्रेमी विश्व पुस्तक मेला में पहुंचे थे। 2019 का पुस्तक मेला भी 5 जनवरी से लेकर 13 जनवरी तक दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित है। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला ने पिछले पैंतालीस साल में अपने आयोजन और लोगों की भागीदारी के बूते पर पूरी दुनिया में एक खास पहचान बनाई। इस पुस्तक मेला को फ्रैंकफर्ट बुक फेयर और लंदन बुक फेयर के समकक्ष माना जाने लगा। इस प्रतिष्ठा की वजह भारत में पुस्तकों का बढ़ता बाजार भी है। हिंदी और भारतीय भाषाओं का बाजार लगातार बढ़ रहा है। अब तो गूगल जैसी कंपनियां ने भी अपना ध्यान हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की सामग्री पर केंद्रित किया हुआ है। बाजार के मानकों ने भले ही पुस्तक मेलों को अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलवाई हो लेकिन पुस्तकों की गुणवत्ता और विषयों की विविधता ने पाठकों का दिल जीता।
आगामी विश्व पुस्तक मेले को लेकर हिंदी और अंग्रेजी के प्रकाशकों ने काफी तैयारी की है। प्रकाशकों से बातचीत के आधार पर जो एक तस्वीर बनती है वो बेहद दिलचस्प है। साहित्यिक रुझान के पाठकों के अलावा अगर बात करें तो ज्यादातर पाठकों की रुचि विवादित पुस्तकों में होती है। इसके अलावा इन दिनों जीवनियों और आत्मकथाओं की ओर भी पाठकों का रुझान रेखांकित किया जा सकता है। इन सबसे इतर आम पाठकों की रुचि धार्मिक प्रतीकों की कहानियों में या फिर पौराणिक चरित्रों में बढ़ी है। इसको ध्यान में रखकर प्रकाशक किताबें लिखवा भी रहे हैं और बाजार का मूड भांपते हुए कई युवा और स्थापित लेखक इन चरित्रों और विषयों पर लिख भी रहे हैं। यह अनायास नहीं है कि विश्वामित्र से लेकर घटोत्कच तक पर पुस्तकें प्रकाशित हो रही है। ऐतिहासिक चरित्रों पर भी खूब लिखा जा रहा है और पाठकों द्वारा पसंद भी किया जा रहा है। विश्व पुस्तक मेला का एक और महत्व है कि वहां भारतीय भाषा में उपलब्ध पुस्तकें एक छत के नीचे मिल जाती हैं। हिंदी की लगभग अप्राप्य और धरोहर हो चुकी पुस्तकें वहां बहुधा मिल जाती हैं। सबसे बड़ी बात ये कि देशभर के लेखकों और प्रकाशकों को आपस में मिलने जुलने का अवसर भी मिलता है। कुल मिलाकर अगर हम देखें तो दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला एक ऐसे मंच के तौर पर स्थापित हो चुका है जहां कारोबारी समझौते और करार तो होते ही हैं लेखकों और पाठकों के बीच संवाद का एक मजबूत सेतु भी तैयार होता है।


Saturday, December 29, 2018

युवाओं की सराहना का हो नया साल


एक दिन बाद नया वर्ष शुरू होगा। नववर्ष में तरह-तरह के संकल्प लिए जाएंगे।बुरी आदतों को छोड़ने का संकल्प, अच्छी आदतों को अपनाने का संकल्प। इन संकल्पों में एक संकल्प को शामिल करना आवश्यक है, पुरानी पीढ़ी के लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों का नई पीढ़ी के लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों के उत्साहवर्धन का संकल्प। नई पीढ़ी की प्रतिभा को पहचानने और उसको सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हुए महत्वपूर्ण अवसरों पर चिन्हित करने का संकल्प। इस संकल्प की वकालत मैं इस वजह से कर रहा हूं क्योंकि इस वर्ष जितने भी आयोजनों में गया, उसमें ज्यादातर में पुराने लेखक और कलाकार नई पीढ़ी को कोसते नजर आए। साहित्य में भी जब नई वाली हिंदी की बात होती है तो ज्यादातर पुरानी पीढ़ी के लोग उसकी आलोचना में जुट जाते हैं। बगैर इस ओर ध्यान दिए कि ये कोई नई-पुरानी हिंदी है ही नहीं, ये तो बस मार्केटिंग का एक नुस्खा है। प्रकाशक ने हिंदी किताबों की भीड़ से अपनी किताबों को अलग दिखाने के लिए ये जुमला गढ़ा जो चल गया। इसी तरह से फिल्मों से जुड़े बुजुर्गों और खुद को संजीका फिल्म जानकार बताने वालों को सुनिए तो लगातार ये कहा जाता है कि पुराने जमाने के गाने कितने अच्छे होते थे और अब को अश्लीलता की सारी हदें पार हो गई हैं, गीतों का स्तर काफी गिरा है, कुछ भी ऊलजलूल लिखा जा रहा है आदि-आदि। जबकि स्थिति ऐसी है नहीं। अगर हम पुराने फिल्मी गानों की तुलना अब के गानों से करें तो पुराने गानों में भी अश्लीलता होती थी। अश्लीलता से भी अधिक महिलाओं के शरीर का वर्णन और प्रेम की स्थितियों का आपत्तिजनक वर्णन खुलेआम किया जाता था। ये तब की बात है जब हमारे देश में नैतिकता की खूब दुहाई दी जाती थी। फिल्मों से लेकर समाज तक में।
अगर हम आजादी के पहले की फिल्मों को देखें तो उसमें भी इस तरह के शब्द होते थे जो अश्लील और द्विअर्थी होते थे। 1944 की एक फिल्म थी मन की जीत जिसके एक गाने का वाक्य देखा जा सकता है। मोरे जुबना का देखो उभार, पापी जुबना का देखो उभार/जैसे नदी की मौज, जैसे तुर्कों की फौज/ जैसे सुलगे से बम, जैसे बालक उधम/जैसे गेंदवा खिले, जैसे लट्टू हिले, जैसे गद्दर अनार। इस गीत को लिखा है मशहूर शायर-गीतकार जोश मलीहाबादी ने और इसको गाया है जोहराबाई अंबालेवाली ने। अब इस गीत में प्रयोग किए गए शब्द को लेकर कुछ कहने की या उसकी व्य़ाख्या करने की आवश्यकता है क्या। जो लोग दबंग टू में करीना कपूर के एक आइटम नंबर को लेकर परेशान हो रहे थे उनको ये गीत सुनना और देखना चाहिए। दबंग टू के इस गीत के बोल थे अंगडाइयां लेती हूं मैं जोर जोर से, उह आह की आवाज आती है हर ओर से। उस समय से तर्क भी दिए गए थे कि गीतकार ने सारी मर्यादाएं तोड़ डाली हैं, आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया है। तब भी पुराने गीतों को बेहतर बताया गया था। उस वक्त भी लोग 1970 की फिल्म जॉनी मेरा नाम का गीत भूल गए जिसको आनंद बक्षी ने लिखा था और आशा भोंसले ने गाया था। उस गीत के बोल थे हुस्न के लाखों रंग कौन सा रंग देखोगे../आग है ये बदन, कौन सा अंग देखोगे। ये गीत पद्मा खन्ना पर फिल्माया गया था जो पूरे गीत के दौरान अपनी मादक अदाओं के साथ नृत्य करती हैं और जैसे जासे फिल्म में गाना आगे बढ़ता है वैसे-वैसे वो अपने कपड़े भी उतारती चलती हैं।
ये सिर्फ एक फिल्म या एक गाने की बात नहीं है, उस दौर में कई फिल्मों में इस तरह के गीत लिखे और फिल्माए गए थे जिसको लता मंगेशकर से लेकर आशा भोंसले तक ने अपनी आवाज दी थी। 1968 की फिल्म इज्जत का एक गाना है जिसे साहिर लुधयानवी ने लिखा था जिसके बोल हैं- जागी बदन में ज्वाला, सैंया तूने क्या कर डाला। इसमें आगे की पंक्ति है, मना मना कर हारी, माने नहीं मन मतवाला। और आगे लिखा गया अब से पहले हाल न ऐसा देखा था, अरे सोलह साल में, साल ने ऐसा देखा था। इसी वर्ष एक और फिल्म आई थी साथी। इसका एक गीत है जिसे मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा था और लता मंगेशकर ने अपनी जादुई आवाज में इसको गाया था। जरा इस गीत की पंक्तियों पर ध्यान दिया जाए और फिर उसके बारे में विचार किया जाए। गीत की पंक्तियां हैं- मेरे जीवन साथी, कली थी मैं तो प्यासी, तूने देखा खिल के हुई बहार। गीतकार आगे कहता  है, मस्ती नजर में कल के खुमार की/मुखड़े पर लाली है पिया तेरे प्यार की। गीतों में सिर्फ प्रणय निवेदन ही नहीं होता था बल्कि नायक नायिका के बीच के संबंधों को जीवंत कर दिया जाता था। गीतकार स्थितियों की कल्पना कर उसको शब्दों में पिरो देता था। लगा मंगेशकर और आशा भोंसले ने जमकर ऐसे गाने गाए थे जिनको अश्लीलता के बेहद करीब के कोष्टक में रखा जा सकता है। लिखा भी उस दौर के मशहूर गीतकारों ने।
1967 में एक फिल्म आई थी अनीता। जिसके गीत राजा मेंहदी अली खान ने लिखे थे और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने संगीत दिया था। इस गाने को लता मंगेशकर ने गाया था और उसको बोल हैं, कैसे करूं प्रेम की मैं बात, कैसे करूं मैं प्रेम की बात, हाय ए ना बाबा ना बाबा, पिछवाड़े बुड्ढा खांसता। इसमें ही आगे की पंक्ति है, काहे जोरा-जोरी मेरा घूंघटा उतारते, देख ये तमाशा दैया तारे आंखे मारते। इसमें अन्य पंक्तियां भी इसी तरह की हैं और हर स्थिति के बाद कहा जाता है कि ये कैसे करें पिछवाड़े बुड्ढा खांसता। इसके पहले 1964 में एक सुपर हिट फिल्म आई थी संगम जिसमें राज कपूर, राजेन्द्र कुमार और वैजयंतीमाला जैसी चोटी के अभिनेता और अभिनेत्री ने काम किया था। फिल्म भी सुपरहिट रही थी। उसमें हसरत जयपुरी का लिखा और लता मंगेशकर की आवाज में गाया एक गाना है, मैं क्या करूं राम मुझे बुड्ढा मिल गया। इसमें नायिका कहती हैं मैंने जो उठाया घूंघट बुड्ढा गुस्सा खा गया, अब क्या होगा अंजाम मुझे बुड्ढा मिल गया। इस तरह के सैकड़ों गाने हैं चाहे वो 1971 की फिल्म दुश्मन का गाना हो जिसे आनंद बक्षी ने लिखा था और लता मंगेशकर ने गाया था। इसके बोल थे, हो बलमा सिपहिया हाय रे...शाम को पकड़ा हाथ सबरे तक ना छोड़ा रेया फिर 1977 में आई फिल्म अब क्या होगाका गीत है मैं रात भर ना सोई रे नादान बालमां जिसमें आगे की पंक्तियां हैं कि घोड़ा पकड़कर कर रोई, खंभा पकड़कर रोई ने बेईमान बालमां। शत्रुध्न सिन्हा और बिंदू पर इस गाने को फिल्माया गया था। ये तो उस दौर की बात है अगर 1970-80 के दौर में भी देखें तो इस तरह के गाने लिखे गए। 1982 में विधाता फिल्म आई थी उसमें सात सहेलियां खड़ी खड़ी वाला जो गाना है उसके बोल भी द्विअर्थी हैं। इस गीत को भी आनंद बक्षी ने ही लिखा था।
कहने का आशय इतना है कि जब हम नई पीढ़ी को किसी परंपरा को भ्रष्ट या नष्ट करने का दोषी ठहराते हैं तो हम अपने दौर को भुला देते हैं। नई पीढ़ी या युवा पीढ़ी में भी सृजनात्मकता की कमी नहीं है, वो भी बेहद सधे हुए अंदाज में अपनी परंपरा को ही आगे बढ़ाते हैं। कला साहित्य और संस्कृति में परंपरा बहुत महत्वपूर्ण होती है। इसमें कई बार ये होता है कि उत्साह में लेखक, कलाकार थोड़ा आगे बढ़ जाते हैं । आगे बढ़ना भी चाहिए। प्रयोग करने भी चाहिए। अपने तरीके से अपनी बात कहनी भी चाहिए क्योंकि अगर सृजन लीक से हटकर प्रयोग नहीं करेगा तो सृजनात्मकता उभर कर सामने नहीं आएगी। युवाओं को खुलकर खेलने का मौका मिलना चाहिए, हर बात पर हर रचना पर, हर कृति पर टोका-टाकी होने से रचनात्मकता बाधित होने का खतरा रहता है। वरिष्ठों का काम टोकना है पर खारिज करना उचित नहीं होगा। टोकना भी देश काल और परिस्थिति के हिसाब से हो तो बेहतर होगा। नया साल युवाओं का ऐसा सृजनात्मक साल हो जिसमें उनको अपने वरिष्ठों और बुजुर्गों का साथ मिले, वरिष्ठ अपने कनिष्ठों को सही राह दिखाएं इसी कामना के साथ आप सबों को नए वर्ष की अग्रिम शुभकामनाएं।

Wednesday, December 26, 2018

अहंकार से सृजनात्मकता पर असर


गंगा प्रसाद विमल हिंदी के अजातोशत्रु लेखक हैं और हिंदी समाज में उनकी जबरदस्त लोकप्रियता है। विमल को अकाहनी आंदोलन का जनक भी माना जाता है। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्लाय में लंबे समय तक अध्यापन किया और फिर भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक रहे। बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र के विभागाध्यक्ष भी रहे। इन्होंने विपुल लेखन किया है और देश-दुनिया के कई संस्थाओं से पुरस्कृत भी हुए हैं। बातचीत पर आधारित ये संक्षिप्त टिप्पणी।  

मैं 24 अगस्त 1964 को दिल्ली आ गया था और उसी दिन दिल्ली कॉलेज ज्वाइन किया था। दिल्ली कॉलेज अब जाकिर हुसैन कॉलेज के नाम से जाना जाता है। उस वक्त वो अजमेरी गेट के एक पुराने से हेरिटेज बिल्डिंग में हुआ करता था। उस वक्त दिल्ली कॉलेज के प्रिसिंपल मिर्जा महमूद बेग थे जिन्होंने डॉ नगेन्द्र की असहमति के बावजूद मेरा चयन किया था। वो समय ऐसा था जब दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों के हिंदी विभाग में डॉ नगेन्द्र की मंजूरी के बगैर पत्ता नहीं हिलता था। जब मैं दिल्ली कॉलेज में नौकरी करने लगा तो करोलबाग में एक फ्लैटनुमा घर किराए पर लिया जिसमें अपने साथियों रवीन्द्र कालिया और प्रयाग शुक्ल के साथ रहता था। हमारे घर पर ढेर सारे साहित्यकारों का आना जाना होता था। बड़े लोगों के आमे के कारण हमारे फ्लैट पर भी साहित्य जगत का जमावड़ा लगता था। एक बार खबर फैल जाती थी कि द्विवेदी जी करोलबाग पहुंच रहे हैं तो बहुत सारे लेखक वहां पहुंच जाते थे। उस वक्त ना तो अब जितनी औपचारिकता थी और ना ही संकोच।
जब मैं करोलबाग मे रहता था तो तब भी वो बड़ा बिजनेस सेंटर हुआ करता था। बहुधा लेखिकाएं करोलबाग आती थीं दुपट्टा आदि खरीदने। मेरे मित्र मुझे मजाक में कहते थे कि तुम भी किसी को दुपट्टा दिलवा लाओ लेकिन तबतक मेरा प्रेम परवान चढ चुका था, जिससे बाद में मेरी शादी हो गई। हजारी प्रसाद द्विवेदी, रमेश कुंचल मेघ जैसे बड़े लेखक भी हमारे फ्लैट पर आते थे और हमें गुड्डा-गुड़िया समझ कर प्रेम किया करते थे, इसी हिसाब से हमारे साथ व्यवहार करते थे। हमलोग कनॉट प्लेस के रिवोली में फिल्म देखने जाया करते थे। मुझे याद है कि मैंने रिवोली में तीसरी कसम फिल्म देखी थी, कमलेश्वर को भी साथ ले जाकर दिखाया था। उसके बाद फिल्म पर अपने कमेंट लिखकर फणीश्वर नाथ रेणु जी को भी बताया था।
जब मैं दिल्ली आया था तब और उसके बाद के कई सालों तक यहां का सहित्यिक माहौल बहुत ही हर्षोत्पादक था। उस वक्त हमारा डेरा-बसेरा कनॉट प्लेस का टी हाउस हुआ करता था। रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त से लेकर शिवमंगल सिंह सुमन तक और श्रीकांत वर्मा जैसे दिग्गज टी हाउस नियमित आते थे। ये सभी बड़े लेखक नए लेखकों से बहुत प्रेम करते थे और उनमें शब्द के प्रति अटूट विश्वास था। इन बड़े लेखकों की दिल्ली में बहुत कद्र थी समाज से लेकर सत्ता के गलियारों तक में। नई कहानी की तिकड़ी के सर्वप्रिय लेखक मोहन राकेश के अलावा राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर भी यहां बैठकी किया करते थे। बाहर के लेखक भी जब दिल्ली आते थे तो एक चक्कर टी हाउस का जरूर लगाते थे। निदा फाजली से हमारी दोस्ती टी हाउस में ही हुई थी। उस समय दिल्ली का जो साहित्यिक माहौल साझेदारी का था। हिंदी, उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक साथ मिल बैठकर अपनी अपनी भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है इसपर चर्चा करते थे। इस वक्त दिल्ली विश्वविद्यालय का माहौल भी बहुत अच्छा था औकर साहित्यकारों में अहंकार नहीं था। उसके बाद की पीढ़ी में बहुत अहंकार आ गया। स्वार्थों और हितों के टकराहट की वजह से क्षेत्रीयतावाद का भी उभार हुआ, जिसने ज्यादातर लेखकों की साहित्यिक समझ को कुंद कर दिया। रचनाओं में भाषिक उर्जा का ह्रास होता चला गया। इसका दुष्प्रभाव ये हुआ कि हिंदी में साहसपूर्ण तरीके से अपनी बात कहनेवाले कम होते चले गए। अशोक वाजपेयी बेहद प्रतिभाशाली लेखक थे लेकिन वो भी अष्टछापी होकर रह गए। लेकिन मैं आशावादी हूं और मेरा मानना है कि साहित्यिक माहौल से नकारात्मकता और चाटुकारिता ख्तम होगी।

Sunday, December 23, 2018

फिल्मों में ‘आधी दुनिया’ का सच


पिछले दिनों मनोरंजन की एक अंतराष्ट्रीय बेवसाइट ने टॉप टेन स्टार ऑफ इंडियन सिनेमा की सूची प्रकाशित की। इस सूची में शीर्ष पर दीपिका पादुकोण थीं और दूसरे नंबर पर शाहरुख खान। इस खबर के आम होते ही कई विद्वानों ने इसको फिल्म इंडस्ट्री में महिला सशक्तीकरण से जोड़कर देखा। कइयों ने तो यहां तक कह दिया कि दीपिका पादुकोण की 2018 में एक ही फिल्म आई, बावजूद इसके वो लोकप्रियता में एक नायक को पछाड़कर शीर्ष पर पहुंची। इसके पहले भी हिंदी सिनेमा में महिलाओं के बढ़ती धमक को रेखांकित करने का उपक्रम चल पड़ा था। इस बात पर खूब लिखा जाने लगा कि हिंदी फिल्मों में फिल्म निर्माण से लेकर अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ती जा रही है। बोल्ड विषयों पर फिल्मों के निर्माण से लेकर उनके निर्देशन के क्षेत्र में बढ़ते प्रभाव को चिन्हित किया जाने लगा। चाहे वो राज़ी फिल्म की सफलता के बाद मेघना को या फिर विवादों के बाद लिपस्टिक अंडर माय बुर्का की निर्देशक अंलकृता श्रीवास्तव को या फिर निल बटे सन्नाटा और बरेली की बर्फी की सफलता के बाद अश्विनी अय्यर तिवारी को फिल्मों में महिलाओं के सशक्त होने के प्रतीक के तौर पर दिखाया जाने लगा। जब ये चर्चा होती है तो इनके अलावा जोया अख्तर की चर्चा भी की जाती है। जोया ने जिंदगी ना मिलेगी दोबारा जैसी बेहद सफल और अच्छी फिल्म का निर्देशन किया उसके बाद भी चंद फिल्मों का निर्देशन किया लेकिन वो निरंतरता कायम नहीं रख पाईं। उनकी सहयोगी रीमा कागती को भी आंशिक सफलता ही मिली। इन सबके काफी पहले 1998 में महेश भट्ट ने तनुजा चंद्रा को फिल्म दुश्मन में मौका दिया था। लेकिन तनुजा चंद्रा भी निर्देशक के तौर पर अपने करियर में निरंतरता कायम नहीं कर पाईं।  ये सभी महिला फिल्म निर्देशक बॉलीवुड के रिच बॉय क्लब जैसा कोई समूह नहीं बना पाईं। बॉलीवुड में रिच बॉय क्लब उन निर्माताओं और निर्देशकों का छोटा सा समूह है जो हिंदी फिल्मों को लगभग चलाता है। इस समूह के ज्यादातर सदस्यों के पिता बड़े फिल्म निर्माता-निर्देशक रहे हैं। मुंबई की फिल्मी दुनिया से जुड़े लोग इस विशिष्ट समूह के सदस्यों को जानते हैं।
हिंदी में अगर फिल्मों की दुनिया को देखें तो ये अपने शुरुआती दौर से पुरुष प्रधान रहा है। राज कपूर के परिवार की महिलाओं के फिल्मों में काम करने को लेकर लंबे समय तक अघोषित सा प्रतिबंध था। काफी अरसे बाद करिश्मा कपूर ने फिल्मी दुनिया में कदम रखा। हिंदी फिल्मों में लंबे समय तक नायिकाओं को फूल पत्ती के बराबर माना और चित्रित किया जाता रहा। तीन साल पहले कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल में सिनेमा पर आयोजित एक सत्र में बेहद दिलचस्प वाकया हुआ। इस सत्र में राजेश खन्ना के जीवनीकार और फिल्म अध्येता गौतम चिंतामणि, शशि कपूर पर पुस्तक लिखनेवाले असीम छाबड़ा और राजेश खन्ना पर ही एक और किताब लिखनेवाले यासिर उस्मान शामिल थे। इस सत्र को फिल्म समीक्षक मयंक शेखर संचालित कर रहे थे। इस सत्र में स्टारडम के वैश्विक फिनोमिना पर बात हो रही थी। बात होते होते हिंदी फिल्मों में स्टारडम पर चली आई। अब ठीक से याद नहीं है लेकिन उस वक्त किसी वक्ता ने यह कह दिया था कि बॉलीवुड में स्टार तो अभिनेता ही हो सकते हैं और किसी भी अभिनेत्री को स्टारडम हासिल नहीं है। श्रोताओं के बीच इस बात को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। सभी एक सुर में इस बात का विरोध करने लगे थे। श्रोताओं की प्रतिक्रिया को देखते हुए लगभग सभी वक्ता बैकफुट पर आ गए थे और सफाई देने लगे थे। श्रोताओं के लिए वो एक भावनात्मक मसला था जो यथार्थ से कोसों दूर था। बॉलीवुड हमेशा से पुरुष प्रधान रहा है, सिर्फ अभिनेता और अभिनेत्रियों के स्टारडम और मेहनताना की बात क्यों की जाए, पर्दे के पीछे भी अहम भूमिका निभानेवाले ज्यादातर पुरुष ही हुआ करते थे। अगर हम फिल्म संगीत के क्षेत्र को ही देखें तो हमें दो-तीन ही नाम नजर आते हैं। एक सरस्वती देवी का नाम लिया जाता है जिन्होंने 1930 और 40 के दशक में फिल्मों में संगीत दिया था। इन्हें हिमांशु राय ऑल इंडिया रेडियो से बांबे टॉकीज में लेकर आए थे। सरस्वती देवी ने 1935 की फिल्म जवानी की हवा में संगीत दिया लेकिन उनको पहचान मिली 1936 की फिल्म अछूत कन्या से। सरस्वती देवी पारसी परिवार से थीं और उस वक्त इस बात को लेकर उनके समुदाय में काफी विरोध भी हुआ था कि लड़की कैसे इस पेशे में आ गई है। सरस्वती देवी के दौर मे नरगिस की मां जद्दनबाई ने भी कुछ फिल्मों में संगीत दिया था लेकिन अगर हम गंभीरता से विचार करें तो सरस्वती देवी के बाद उषा खन्ना पर नजर आकर टिकती है। उस पाए की संगीतकार अबतक बॉलीवुड में कोई नहीं आया।  
फिल्मों से इतर अगर हम बात करें, तो मनोरंजन की दुनिया का दूसरा हिस्सा यानि टेलीविजन पर भी पुरुषों का ही साम्राज्य था। लेकिन टी वी की दुनिया में 2000 में एक बदलाव दिखा। ये वो दौर था जिसमें अभिनेता जितेन्द्र की बेटी प्रोड्यूसर बनकर मनोरंजन की दुनिया में दस्तक दे रही थी और बालाजी टेली फिल्मस की स्थापना हो चुकी थी। बालाजी टेलीफिल्म्स ने दो हजार में एक सीरियल पेश किया जिसने मनोरंजन की दुनिया को पूरी तरह से बदल दिया। क्योंकि सास भी कभी बहू थी की शुरुआत हुई, समृति ईरानी रातों रात स्टार बन गईं। इसमें वीकानी परिवार की बहू की अदाकारी को लोगों ने खूब पसंद किया। कहा जाता है कि रामायण और महाभारत क बाद इसी सीरियल को सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली थी। एकता कपूर का के फॉर्मूला बेहद हिट साबित हुआ। दर्शकों की नब्ज पर एकता का हाथ था और उनके सीरियल की नायिकाएं विद्रोही भी होती थीं लेकिन वो घरपरिवार को साथ लेकर भी चलती भी थीं। एक तरफ क्योंकि सास भी कभी बहू थी में विरानी परिवार की बहू थी तो दूसरी ओर कसौटी जिंदगी की में कोमलिका की बिंदास अदाएं दर्शकों को लुभा रही थीं। ये वो दौर था जब लगा कि मनोरंजन की दुनिया में एक महिला ने अपनी मेहनत के बल पर जगह बनाई। बालाजी टेलीफिल्म्स ने बाजार का रुख किया और कंपनी दो हजार में शेयर बाजार में सूचीबद्ध हुई। एकता कपूर ने फिल्में भी बनाईं। एकता कपूर के दौर में जिस तरह से स्मृति ईरानी को शोहरत मिली उसके पहले पल्लवी जोशी भी अपने सीरियल्स और फिल्मों के बदौलत लोकप्रिय हो रही थीं। टीवी पर शांति, तारा जैसे धारावाहिक दर्शकों को पसंद आ रहे थे। मनोरंजन की दुनिया में एकता कपूर की कामयाबी की इस कहानी के अलावा या समानंतर कोई दूसरी कहानी दिखाई नहीं देती जहां कोई महिला प्रोड्यूसर ने अपने दम पर इस पुरुष प्रधान समाज में अपनी पहचान ही नहीं बनाई बल्कि अपने मानदंड भी तय किए। एकता को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। इस वर्ष जागरण फिल्म समिट में उन्होंने अपने संघर्षों के बारे में विस्तार से बताया था। इस बात को भी रेखांकित किया गया था कि जैसे जैसे वो सफल होती गईं उनके नाम के साथ सनकी और गुस्सैल जैसे विशेषण जोड़े जाने लगे। उनके बारे में तरह तरह के किस्से फैलाए जाने लगे थे लेकिन इन सबसे बेखबर वो अपने काम में लगी रहीं।  
फिल्मों और टीवी की दुनिया में पुरुषों का प्रभाव साफ तौर पर दिखता है जहां किसी महिला निर्देशक को प्रतिभा के बावजूद काम नहीं मिलता है। अगर महिला निर्देशक है तो उसको धन जुटाने में एड़ी चोटी को जोर लगाना पड़ता है, बावजूद इतनी मेहनत के उनको कोई प्रोड्यूसर नहीं मिलता है। फायनेंसर भी पुरुषवादी मानसिकता से इस कदर जकड़ा होता है कि उसको लगता है कि महिला उसके निवेश पर उतना रिटर्न लाकर नहीं दे सकती है जितना की पुरुष निर्देशक। पुरुष प्रधान इस दुनिया में महिला निर्देशकों को प्रोड्यूसर के अलावा वितरक मिलने में भी दिक्कत होती है। फिल्म बन भी जाती है तो उसको रिलीज करने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। इस दौरान प्रतिभाशाली महिलाओं को तरह-तरह से संकेत दिए जाते हैं कि वो पुरुषों के साथ कारोबारी साझेदारी कर ले, अन्यथा इस दुनिया में लंबे समय तक टिके रहना मुश्किल होगा। फिल्मी दुनिया में पुरुषों का कितना दबदबा है, इसका अंदाज हाल ही में प्रधानमंत्री के मुंबई दौरे के वक्त भी मिला। प्रधानमंत्री से मिलने पहुंचे फिल्म इंडस्ट्री के लोगों की जब तस्वीर जारी हुई तो उसमें कोई महिला प्रतिनिधि नहीं थी।    

Saturday, December 15, 2018

ज्ञानपीठ पुरस्कार पर नाहक विवाद


अंग्रेजी के लेखक अमिताव घोष को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने पर सोशल मीडिया के विवादवीरों ने आसमान सर पर उठा लिया है। उनके तर्क और संवेदना यह हैं कि भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ कृतियों की कमी हो गई क्या जो अंग्रेजी के लेखक को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा की गई। विवाद उठानेवालों का तर्क है कि ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना है और ज्ञानपीठ ने अंग्रेजी के लेखक को सम्मानित करके भारतीय भाषाओं का अपमान किया है। भारतीय भाषाओं के लिए उमड़े इस प्रेम का सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन संवेदना जब तर्क और तथ्य पर भारी पड़ते हैं तो निष्कर्ष गलत होते हैं। यह सही है अंग्रेजी भारतीय भाषा नहीं है लेकिन भारतीय संविधान में उसको सहयोगी राजभाषा का दर्जा हासिल है। वो हिंदी के साथ-साथ भारतवर्ष की राजभाषा है। अंग्रेजी को साहित्य अकादमी से भी मान्यता प्राप्त है। साहित्य अकादमी भी संविधान की आठवीं अनुसूचि की बाइस भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और राजस्थानी को मान्यता देती है और उन भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत करती है। इसलिए अंग्रेजी को लेकर शोरगुल मचानेवालों को इन तथ्यों पर विचार करना चाहिए। रही बात भारतीय ज्ञानपीठ की तो उसने तीन साल पहले ही अंग्रेजी को सम्मानित करने का मन बना लिया था। तब ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रवर समिति ने फैसला कर ज्ञानपीठ द्वारा स्वीकृत भाषाओं में अंग्रेजी को भी जोड़ दिया था। उस वक्त ज्ञानपीठ की प्रवर समिति की तरफ से कहा गया था कि भारत के बहुत सारे लेखक अंग्रेजी भाषा में पुरस्कार देने के पक्षधर हैं। हलांकि बहुत सारे लोगों का तर्क है कि ज्ञानपीठ ने बाजार के दबाव में और अंतराष्ट्री मंचों पर प्रतिष्ठा और मान्यता हासिल करने के लिए अंग्रेजी को जोड़ा है। ये तो आनेवाले समय में ही पता चल पाएगा जब भारतीय भाषा और अंग्रेजी के लेखक को दिए जानेवाले पुरस्कार के अनुपात का आकलन होगा।
अमिताव घोष अंग्रेजी के उन बेहद महत्वपूर्ण लेखकों में से हैं जिन्होंने अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई। कोलकाता में जन्मे अमिताव घोष ने पहले दून स्कूल और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से सेंट स्पीफन कॉलेज और दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स से पढ़ाई की। उन्होंने एक पत्रकार के रूप में अपना करियर शुरू किया। इन दिनों अमिताव घोष अमेरिका में रहते हैं। उनकी चर्तित कृति दे शैडो लाइन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। भारत सरकार ने भी उनको पद्मश्री से सम्मानित किया है। वो रॉयल सोसाइटी ऑफ लिटरेचर के फेलो नामित किए जा चुके हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में द सर्किल ऑफ रीजन’, ‘द कलकत्ता क्रोमोसोम’, ‘द ग्लास पैलेस’, ‘द हंगरी टाइड’, ‘रिवर ऑफ स्मोकऔर फ्लड ऑफ फायर प्रमुख हैं. अमिताव फिक्शन से इतर भी अन्य विषयों पर लेखन करते हैं। 


बौद्धिक समाज से विमर्श का चक्रव्यूह



तीन राज्यों के चुनावी नतीजों के कोलाहल और मुख्यमंत्रियों के चयन की गहमागहमी के बीच साहित्य और राजनीति के बीच घटी एक महत्वपूर्ण घटना लगभग अलक्षित रह गई। माना यह जाता है कि बुद्धिजीवी किसी विचार से प्रेरित होकर उसके करीब जाते हैं, कोई मार्क्सवाद से प्रभावित होता है तो उसका झुकाव कम्युनिस्ट पार्टियों की तरफ होता है। किसी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा में विश्वास होता है तो वो भारतीय जनता पार्टी की ओर दिखाई देता है। इसी तरह से पूंजीवाद से लेकर समाजवाद तक से बुद्धिजीवी प्रभावित होते रहे हैं और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उससे जुड़ी विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को समर्थन करते रहे हैं। इस तरह के सैकड़ों उदहरण भारतीय राजनीति में हैं जब साहित्यकार, कलाकार या रंगकर्मी विचारधारा विशेष से प्रभावित होकर दलों के साथ खड़े नजर आए हैं। पर इस तरह के उदाहरण कम हैं जब राजनीतिक दल बुद्धिजीवियों को अपने पाले में लाने और सीधे सक्रिय राजनीति में उतरने के लिए उनसे सार्वजनिक रूप से अनुरोध करते हों। लेकिन अभी हाल ही में ऐसा हुआ, नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल युनाइटेड के महासचिव पवन वर्मा ने पटना के छोटे-बड़े और मंझोले सभी लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को एक आमंत्रण भेजा। पवन ने अपने पत्र में लिखा कि वो और उनके दल के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों, कवियों आदि से मिलना चाहते हैं। इसमें ये साफ तौर पर लिखा था कि ये एक विशेष कार्यक्रम के तौर पर आयोजित किया जा रहा है। ये बैठक 2 दिसंबर को आयोजित की गई थी। फिर अचानक इसकी तिथि बदल दी गई और बताया गया कि सिमरिया में जारी सांस्कृतिक आयोजन की वजह से तिथि में बदलाव करके 13 दिसंबर कर दिया है। हलांकि इसमें भी कुछ लोगों का कहना है कि चुनाव नतीजों की तारीखों की वजह से ये बदलाव किया गया। उनका तर्क है कि सिमरिया में आयोजित सांस्कृतिक महोत्सव इतना अहम नहीं था कि उसके लिए किसी कार्यक्रम की तिथि आगे बढ़ाई जाए। खैर ये अलग विषय है, इसपर चर्चा फिर कभी।
बदली हुई तिथि को जब ये कार्यक्रम हुआ तो पटना के बड़े साहित्यकारों में शुमार आलोक धन्वा, अरुण कमल, ह्रषिकेश सुलभ, उषाकिरण खान, अवधेश प्रीत, अनिल विभाकर शामिल नहीं हुए। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय या राज्य-स्तरीय पहचान रखनेवाले एक दो लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को छोड़कर इस बैठक में शामिल नहीं हुए। यह तो है इस आयोजन की पूर्व-कथा। लेकिन कार्यक्रम के दौरान जिस तरह से वहां उपस्थित युवाओं ने सकारात्मक आक्रामकता के साथ अपनी बात कही उससे पता चला कि बिहार के कलाकारों में भी अभी सत्ता से सामने सच कहने का साहस बचा हुआ है। मंच पर जदयू के महासचिव पवन वर्मा और जदयू के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर थे। शुरुआत पवन वर्मा ने की और इस कार्यक्रम का मकसद बौद्धिक समाज से संवाद की शुरुआत बताया। उसके बाद प्रशांत किशोर ने अपनी बात रखी। प्रशांत ने इस बात से ही शुरुआत की कि उनका लक्ष्य अगले दो सालों में एक लाख लोगों को सक्रिय राजनीति में लाना है। वहां मौजूद लोगों के मुताबिक प्रशांत ने साफ किया कि वो लोगों को चुनावी राजनीति के माध्यम से मुखिया, जिला परिषद सदस्य,विधायक, सांसद आदि बनाना चाहते हैं। प्रशांत किशोर की इस बात का ये मतलब निकलता है कि राजनीति की वैसी पाठशाला जहां उपरोक्त पदों के लिए योग्य व्यक्ति तैयार किए जा सकें। जदयू उपाध्यक्ष ने कहा कि उनका उद्देश्य राजनीति में अच्छे लोगों को लाना है। यहां तक सब ठीक चल रहा था लेकिन प्रश्नोत्तर के दौर में युवा रंगकर्मी और अपने प्रखर विचारों के लिए मशहूर अनीश अंकुर ने बहुत बुनियादी सवाल खड़े कर प्रशांत किशोर को असहज कर दिया। अनीश ने सरकार और संस्कृतिकर्मियों, लेखकों और कलाकारों के बीच अविश्वास को रेखांकित किया। इसके अलावा उन्होंने प्रशांत किशोर की राजनीति की पाठशाला को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। उनका तर्क था कि बगैर संगठन में काम किए, बगैर जनता को जाने विधायक-सांसद बनने की बात एक तरह का प्रलोभन है। उन्होंने कड़े शब्दों में प्रशांत किशोर की बातों को मूर्खतापूर्ण करार दे दिया। इसके बाद असहज प्रशांत किशोर अपने तमाम उत्तर में मूर्खतापूर्ण पर सफाई देते रहे। हिंदी भवन को प्रशासनिक गुलामी से मुक्त करवाने को लेकर भी कोई ठोस उत्तर नहीं आया। करीब दस साल पहले पटना में हिंदी भवन का निर्माण करवाया गया था जिसको फणीश्वरनाथ रेणु भवन नाम दिया गया। पहले इसमें एक प्रबंधन संस्थान चला, फिर उसमें बाढ़ राहत सामग्री रखी जाने लगी इसके बाद वहां जिला कार्यालय बना दिया गया। इस बात को लेकर पटना के हिंदी प्रेमियों में बहुत क्षोभ है।
इसी तरह का एक महत्वपूर्ण वाकया है। पिछले साल जब पटना पुस्तक मेला का आयोजन हुआ था जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कमल के फूल में रंग भरे थे जो काफी चर्चित रहा था। उस दौरान मुख्यमंत्री ने आयोजकों को इस वर्ष अंतराष्ट्रीय स्तर का पुस्तक मेला आयोजित करने की अपील की थी। नीतीश कुमार ने ये भरोसा भी दिया था कि आयोजन में बिहार सरकार आयोजकों को हर संभव मदद करेगी। उस वक्त जो खबरें छपी थी उसके मुताबिक नीतीश ने कहा था कि पटना पुस्तक मेला ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। 2018 में इसका आयोजन अंतराष्ट्रय स्तर का होना चाहिए, इसमें राज्य सरकार आयोजकों को पूरा मदद करेगी। लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। अंतराष्ट्रीय पुस्तक मेला तो दूर की बात इस वर्ष सामान्य पुस्तक मेला भी आयोजित नहीं हो पाया। देश का दूसरे सबसे बड़े पुस्तक मेले का पच्चीसवां संस्करण आयोजित नहीं हो पाया। बताया जा रहा है कि आयोजकों ने मुख्यमंत्री कार्यालय से संपर्क की कोशिश की लेकिन वो संभव नहीं हो पाया। बिहार सरकार से मदद तो दूर की बात संयोग ऐसा कि जहां पुस्तक मेला आयोजित होता है उसका किराया भी बढ़ा दिया। ज्ञानभवन में आयोजन का किराया पहले एक लाख रुपए प्रतिदिन था। अब इसमें बदलाव कर दिया गया है एक दिन के लिए डेढ़ लाख रुपए कर दिया गया है और एक दिन  अधिक लेने पर ढाई लाख रुपए कर दिया गया है। पटना पुस्तक मेला चूंकि करीब दस दिनों का आयोजन होता था, लिहाजा आयोजन स्थल का किराया पच्चीस लाख रुपए तक जा पहुंचा। इतना महंगा किराया देख-सुनकर आयोजकों ने हाथ पीछे खींच लिया और पटना की पहचान पुस्तक मेले का आयोजन नहीं हो सका। पिछले साल बिहार सरकार के संस्कृति विभाग ने पुस्तक मेले के आयोजकों को किराए की राशि अनुदान के तौर पर दी थी।
ये सारी बातें उस बैठक के दौरान उठीं जिसका उत्तर प्रशांत के पास नहीं था। एक कुशल राजनेता की तरह एक समिति बनाकर सुझाव देने का प्रस्ताव देकर प्रशांत ने अपना पल्ला झाड़ा। दरअसल बौद्धिक जगत से संवाद करने के लिए आयोजनकर्ताओं को भी सतर्क रहना होता है और आसन्न प्रश्नों को भांपकर खुद को तैयार करना होता है। पवन वर्मा लेखक हैं, उनको लेखकों की संवेदनाओं का पता होना चाहिए था। वो बिहार के मुख्यमंत्री के सांस्कृतिक सलाहकार रह चुके हैं, लिहाजा उन्हें कम से कम पटना की सांस्कृतिक नब्ज का पता तो होना चाहिए था। प्रशांत किशोर तो नई तरह की राजनीति के लिए जाने जाते हैं जहां आंकड़ों और लक्ष्य के आधार पर हर तरह की रणऩीति बनाई जाती है, कई बार सफलता भी  मिल जाती है तो कई बार रणनीति औंधे मुंह गिरती भी है। लेकिन साहित्य और संस्कृति में आंकड़ों के आधार पर राजनीति नहीं हो सकती। वहां जातिगत समीकरणों के आधार पर भी रणनीति नहीं बनाई जा सकती है, बहुधा लेखकों, कवियों और कलाकारों को प्रलोभन देकर राजनीति में लाया भी नहीं जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पवन वर्मा के सामने अशोक वाजपेयी का मॉडल रहा होगा, उनको लगा होगा कि जिस तरह से बिहार विधानसभा चुनाव के पहले अशोक वाजपेयी ने पुरस्कार वापसी अभियान चलाकर देशभर में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ माहौल बनाया था, उसी तरह से लोकसभा चुनाव के पहले पटना के साहित्यकारों के साथ बैठकर नीतीश कुमार के पक्ष में माहौल बनाया जा सकता है। पर ऐसा हो नहीं पाया। उल्टे लेने के देने पड़ गए। एक तो वरिष्ठ लेखक कलाकार बैठक में पहुंचे नहीं, दूसरे कला और संस्कृति को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया गया। जदयू में आपराधिक छवि वाले नेताओं से लेकर कला और भाषा अकादमियों की बदहाली पर सवालों की ऐसी बौछार हुई कि पवन और प्रशांत दोनों कार्यक्रम खत्म होने की बात करने लगे। कार्यक्रम खत्म भी हुआ लेकिन अनीश ने जिन सवालों को उठाया था उनके ठोस उत्तर सरकार को देने चाहिए, हलांकि प्रशांत ने कहा कि वो ठोस करके ही अगली बार बुद्धिजीवियों की बैठक में आएंगे। देखना होगा कि कला संस्कृति को लेकर बिहार सरकार कितनी गंभीर हो पाती है।

Thursday, December 13, 2018

दिल्ली के दिल में ज्ञान का खजाना


दिल्ली के बीचों बीच, कई एकड़ में फैला परिसर, परिसर में हरियाली के बीच विचरते मोर, पंक्षियों का गूंजता कलरव और उसके बीच की इमारत में एक भव्य पुस्तकालय। ये है इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का बेद समृद्ध पुस्तकालय, जहां दो लाख से अधिक किताबें और पुरानी पत्र-पत्रिकाएं हैं। दिल्ली के मानसिंह रोड पर स्थित इंदिरा गांधी कला केंद्र की लाइब्रेरी का नाम कलानिधि संदर्भ पुस्तकालय है। कलानिधि के विभागाध्य डॉ रमेश गौड़ के मुताबिक इस केंद्र की स्थापना 1987 में हुई लेकिन दो वर्ष के बाद जब यहां गतिविधियां शुरू हुई तो उस वक्त ही ये पुस्तकालय अस्तित्व में आया। लगभग तीस साल में इस पुस्तकालय में इतनी महत्वपूर्ण सामग्री जुटा ली गई कि ये आम पाठकों और शोधार्थियों के लिए उपयोगी हो गया। इस पुस्तकालय के कर्ताधर्ताओं ने एक अलग ही राह निकाली और मशहूर हस्तियों की व्यक्तिगत लाइब्रेरी को तोहफे के रूप में स्वीकार करने की योजना बनाई। नतीजा यह हुआ कि इस पुस्तकालय में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, सुनीति कुमार चटर्जी, कपिला वात्यास्यायन, श्याम बेनेगल, ठाकुर जयदेव सिंह, कृष्ण कृपलानी, देवेन्द्र स्वरूप जैसे विद्वानों की पुस्तकें यहां पहुंच गईं। अभी इस पुस्तकालय ने नामवर सिंह और इंद्रनाथ चौधुरी के साथ करार किया है और जल्द ही इन दोनों की पुस्तकें भी यहां उपलब्ध होंगी। इसके अलावा इस पुस्तकालय में 18 वीं शताब्दी में प्रकाशित करीब चार हजार पुस्तकें हैं जिनको डिजीटाइज किया जा चुका है। यहां हिंदी के अलावा सभी भारतीय भाषाओं की पुस्तकें उपलब्ध हैं। हिंदी की ऐतिहासिक पत्रिकाएं जैसे सरस्वती, चांद मतलावा आदि के अंक भी देखे जा सकते हैं।  
इस पुस्तकालय में पांडुलिपियों का भी खजाना है। देशभर के 52 पुस्तकालयों से इन पांडुलिपियों की माइक्रो फिल्म बनाकर यहां पाठकों के लिए उपलब्ध करवा दिया गया है। इन पांडुलिपियों में गणित, अंतरिक्ष विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र जैसे विषयों की पांडुलिपियां मौजूद हैं। इसके अलावा इस लाइब्रेरी में एक लाख के करीब स्लाइड्स हैं जो देशभर की विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं की झलक देख सकते हैं। अगर किसी पाठक को देश भर के स्मारकों या ऐतिहासिक इमारतों की तस्वीरें देखनीं हों तो उनके स्लाइड्स भी इस लाइब्रेरी में देखे जा सकते हैं। कलानिधि संदर्भ पुस्तकालय अपने आप में अनोखा पुस्तकालय है क्योंकि यहां किताबें तो हैं ही इसके अलावा यहां एक सांस्कृतिक आर्काइव भी है। इस आर्काइव में आडियो- वीडियो का एक अलग सेक्शन है जिसमें भी 33 महत्वपूर्ण हस्तियों के निजी संग्रह की सारी मह्वपूर्ण चीजें उपलब्ध हैं। इस सेक्शन को अभी डीटाइज किया जा रहा है और जल्द ही इस काम को पूरा कर लिया जाएगा। दिल्ली के मध्य में स्थित इस लाइब्रेरी के बारे में प्रचार-प्रसार नहीं होने की वजह से बहुत कम लोगों को इसके बारे में जानकारी है। यहां तमाम तरह के समाचारपत्र और पत्रिकाएं भी नियमित तौर पर आती हैं, इसके अलावा इनका एक विशेष सिस्टम जे स्टोर है जहां कोई भी आधिकारिक व्यक्ति कला और मानविकी से जुड़ी दुनिया भऱ की सामग्री को देख-पढ़ सकता है।
ये लाइब्रेरी सोमवार से शनिवार तक सुबह नौ बजे से रात आठ बजे तक खुलती है। यहां एक बेहतरीन रीडिंग रूम भी है और सदस्यों के लिए इंटरनेट और कंप्यूटर की मुफ्त सुविधा भी उपलब्ध है। इस पुस्तकालय की सदस्यता एक सप्ताह तक के लिए मुफ्त है। उसके बाद पांच सौ रुपए वार्षिक शुल्क लिया जाता है और अगर कोई आजीवन सदस्यता लेना चाहे तो उसको पाचं हजार रुपए देने होंगे। सदस्यता फॉर्म के साथ भारत सरकार से मान्यता प्राप्त फोटो पहचान पत्र और दो फोटो और निर्धारित शुल्क जमा करवा कर सदस्यता ली जा सकती है। यह पुस्तकालय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के प्रसासनिक भवन की पहली मंजिल पर स्थित है। मेट्रो का सबसे नजदीकी स्टेशन केंद्रीय सचिवालय स्टेशन है।    

Saturday, December 8, 2018

अल-वार पर बहस से खुलती राजनीति


पिछले दिनों अभिव्यक्ति का उत्सव जागरण संवादी लखनऊ में संपन्न हुआ। ये उत्सव तीन दिनों तक लखनऊ के मशहूर संगीत नाटक अकादमी के लॉन में आयोजित था। अभिव्यक्ति के इस उत्सव में विचारों पर मंथन हुआ था जिसमें राजनीति से लेकर धर्म जैसे विषय थे। 30 नवंबर से 2 दिसंबर 2018 तक तीन दिनों तक चले इस समारोह के पहले दिन कुछ लोग संवादी के सत्रों के दौरान मोदी सरकार को लेकर चाय के स्टॉल पर चर्चा कर रहे थे। पक्ष-विपक्ष में बातें हो रही थीं। विधानसभा चुनाव के नतीजों पर कयास लगाए जा रहे थे। मोदी सरकार के कामकाज को लेकर बात हो रही थी तो अचानक एक सज्जन ने आरोप उछाला कि सरकार ने तो कला संस्कृति तक को नहीं बख्शा, अपने लोगों को फिट तो किया ही, दूसरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को बढावा दिया और जिसने उस विचारधारा से अलग जाकर कोई काम किया या करना चाहा उसकी राह में बाधा खड़ी की गई। तल्ख अंदाज में उन्होंने मोदी सरकार के मंत्रालयों को भी कठघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया। सर्द शाम के बीच संवाद का तापमान बढ़ने लगा था।कुछ लोग मोदी सरकार के पक्ष में और कुछ विपक्ष में बातें कह रहे थे। मोदी सरकार पर असहिष्णुता के आरोप भी उछले। इस गर्मागर्म बहस को सुन रहा एक शख्स अचानक सामने आया और बोला कि मोदी सरकार पर चाहे जो आरोप लगा लो लेकिन इसपर अपने विरोधी विचारधारा को रोकने या बाधा डालने का आरोप गलत है। उसने कहा कि मौजूदा हुकूमत ना तो विरोधियों के काम में बाधा डालती है और ना ही असहिष्णु है।
मोदी सरकार की आलोचना करनेवाले ने उस शख्स की बात हंसी में उड़ा दी और कहा कि आपको कुछ पता नहीं है, लिहाजा आप खामोश रहें। इतना सुनते ही सामनेवाले ने मोबाइल पर अपना फेसबुक खोला और कुछ दिखाने की कोशिश करने लगा। उसने एक पोस्ट दिखाई जिसमे लिखा था हमारी पहली शॉर्ट फिल्म आबा, जिसने बर्लिनाले, राष्ट्रीय पुरस्कार समेत कई पुरस्कार जीते, के बाद दूसरी शॉर्ट फिल्म अल-वार न्यूयॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई। इसके बाद उसकी स्क्रीनिंग गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के व्यूइंग रूम में हुई। अल-वार फिल्म से जुड़े सभी लोगों को बधाई। उसने दावा किया कि ये पोस्ट फिल्म के निर्माता ने लिखी है। मोबाइल पर ये पोस्ट दिखाने के बाद वो शख्स थोड़ा आक्रामक हो गया। उसने कहा कि आप लोगों को मालूम है कि ये फिल्म अलवर में कथित रूप से मॉब लिंचिंग का शिकार हुए शख्स पहलू खान और नोएडा में भीड़ की हिंसा का शिकार अखलाक की हत्या की घटना को केंद्र में रखकर बनाई गई है। ऐसी फिल्म को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के दौरान गोवा में दिखाया गया।
वो इतने पर ही नहीं रुका उसने वहां मौजूद लोगों को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के व्यूइंग रूम के बारे में भी बताना शुरू कर दिया। उसने कहा कि गोवा में आयोजित होनेवाले इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया के पहले चार दिनों के लिए राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम फिल्म बाजार का आयोजन करता है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, सूचना और प्रसारण मंत्रालय से संबद्ध संस्था है। फिल्म बाजार के व्यूइंग रूम' का उद्देश्य वैसी फिल्मों को दिखाना होता है जिसको पूरा करने के लिए धन चाहिए, दुनिया भर में बिक्री और वितरण को लेकर बातें हो सके, करार हो सके, अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में फिल्मों की स्क्रीनिंग हो सके। व्यूइंग रूम में फिल्मों से जुड़े महत्वपूर्ण लोग आते हैं, जिसमें फाइनांसर, वितरक, फिल्म फेस्टिवल के निदेशक आदि शामिल होते हैं। यहां पर विशेष व्यवस्था के तहत कंप्यूटर पर फिल्में दिखाई जाती हैं। यहां फिल्म को दिखाने के लिए एक विशेष सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया जाता है जिसके मार्फत अगर सेल्स एजेंट, वितरक या निवेशक, फिल्म निर्माता या निर्देशक से संपर्क करना चाहें तो कर सकते हैं। फिल्म बाजार के इस रूम में निवेशक उन फिल्मों को वर्गीकृत करके भी देख सकते हैं जिनको फिल्म पूरा करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। व्यूइंग रूम में सिर्फ फिल्मों के खरीदार, निवेशक, वर्ल्ड सेल्स एजेंट और फिल्म फेस्टिवल्स के प्रोग्रामर को आने की इजाजत होती है।
शाम ढलने लगी थी और हल्की ओस से वातावरण नम होने लगा था लेकिन वो शख्स जिस तरह से पूरे वाकए को बता रहा था सभी उसको ध्यान से सुन रहे थे। मोदी सरकार के जो दो तीन आलोचक वहां खड़े थे और बड़े जोर शोर से आलोचना कर रहे थे वो भी खामोशी से उनकी बातें सुन रहे थे। उसने चुनौती भरे अंदाज में कहा कि अगर आप लोगों को मेरी बात पर भरोसा नहीं हो तो फिल्म बाजार की वेबसाइट पर जाकर देख लीजिएगा, जहां संस्था ने एलान किया हुआ है कि 2018 में फिल्म बाजार के व्यूइंग रूम के लिए 222 एंट्री आई थी। इस सूची में अल-वार का नाम भी शॉर्ट फिल्म की श्रेणी में है। और अगर मोदी सरकार असहिष्णु होती या फासीवादी होती तो अल-वार फिल्म को अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रमोट करने का मंच नहीं मिलता। इतना कहकर वो चुप हो गया।
इन बातों को सुनने के बाद मोदी सरकार की आलोचना करनेवाले ने उनसे पूछा कि ये पूरी कहानी बताकर वो साबित क्या करने चाहते हैं। तपाक से उत्तर आया कि साबित कुछ नहीं करना चाहते हैं बस, इतना बताना चाहते हैं कि मोदी सरकार के पिछले साढे चार साल के कार्यकाल में असहिष्णुता को लेकर जो हल्ला मचाया गया है वो बिल्कुल निराधार है। सरकार पर फासीवाद को बढ़ावा देने का जो इल्जाम लगाया जाता है वो बेबुनियाद है। मोदी सरकार कला संस्कृति के मामले में बहुत उदार है क्योंकि अगर वो इन मामलों में उदार नहीं होती तो अखलाक और पहलू खान की हत्या पर बनी फिल्म को वैसे आयोजन में शायद जगह नहीं मिलती जिसका आयोजन सूचना और प्रसारण मंत्रालय करता है।
मोदी सरकार पर हमलावर लोगों के चेहरे को देखकर यह नहीं लग रहा था कि मामला शांत होनेवाला है। उस शख्स ने प्रति तर्क देना शुरू कर दिया। उसने पिछले साल गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के दौरान फिल्म एस दुर्गा को इंडियन पैनोरमा से बाहर करने पर हुए विवाद का उदाहरण दिया। उसने आरोप लगाया कि उस वक्त मंत्रालय और स्टीयरिंग कमेटी हर तरह से इस फिल्म को रोकना चाहती थी क्योंकि सरकार इस फिल्म के मूल नाम से खफा थी और उसको लगता था कि इससे हिंदुओं की भावना आहत हो सकती है। मामला इतना बढ़ गया था कि विरोधस्वरूप उस वर्ष के इंडियन पैनोरमा के अध्यक्ष सुजय घोष ने इस्तीफा दे दिया था। फिल्मकार केरल हाईकोर्ट पहुंच गए थे। बावजूद इसके फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो सका था। इसी सिलसिले में उसने इसी दौरान न्यूड फिल्म को लेकर उठे विवाद को भी रेखांकित किया। तर्क-वितर्क इतना रोचक हो गया था कि कुछ और लोग वहां जमा हो गए। अब बारी उस शख्स की थी जो मोदी सरकार को उदार साबित करना चाह रहा था। उसने बेहद संजीदगी से पूरा किस्सा बताया कि किस तरह से फिल्म एस दुर्गा के फिल्मकारों ने सेंसर सर्टिफिकेट में एस के बाद तीन बॉक्स बनाकर फिल्म को प्रचारित करने का नया तरीका निकाला था, जिसका पता चलने पर सेंसर बोर्ड ने उसके सर्टिफिकेट के पुनरावलोकन की बात करते हुए पूर्व में जारी सर्टिफिकेट रद्द कर दिया था। जिसे केरल हाई कोर्ट ने उचित ठहराया था। उसने मोदी सरकार की आलोचना कर रहे व्यक्ति से अनुरोध किया कि कृपया समग्रता में किस्सा बयान किया करें ताकि जनता अपनी राय बना सके।
ये बातचीत फिल्मों से होते हुए कला संस्कृति तक जा पहुंची, जिसमें दोनों पक्षों में फिर से बहस शुरू हो गई। मोदी के आलोचक एक उदाहरण देते थे तो उनके समर्थक अन्य उदाहरण के साथ अपनी बात रखते थे। इतने सारे उदाहरण आए कि आखिरकार मोदी की आलोचना कर रहे शख्स ने हथियार डाल दिए। इस पूरी बहस को सुनते हुए मेरे दिमाग में पुरस्कार वापसी विवाद से लेकर अब तक के सारे विवाद एक-एक करके सामने आते चले गए। इस स्तंभ में कई बार सरकार की उदारता की चर्चा की गई लेकिन अल-वार फिल्म को लेकर जिस तरह से उस शख्स ने अपनी बात रखी तो वाकई ये लगा कि सिर्फ कला संस्कृति ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों में भी सरकार का दखल होता नहीं है। ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक तरीके से लोग आवेदन देते हैं और नियम-कानून के तहत उनको प्रदर्शन आदि की अनुमति मिल जाती है। अभी साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की घोषणा हुई है। उसमें भी पुरस्कार वापसी अभियान का अंग रहे और उस दौर में महाराष्ट्र उर्दू साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाने की घोषणा करनेवाले रहमान अब्बास को उनके उपन्यास पर अकादेमी पुरस्कार देने का एलान हुआ है। 

Saturday, December 1, 2018

राहुल की व्याख्या पर राजनीति का तड़का


एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त देश भर में सवा तीन सौ से अधिक लिटरेचर फेस्टिवल हो रहे हैं, जिनको लिट फेस्ट या साहित्योत्सव भी कहा जाता है ।अमूमन सभी लिटरेटर फेस्टिवल में साहित्य को केंद्र में रखकर इसकी विभिन्न विधाओं और प्रवृत्तियों पर चर्चा होती है। इस मायने में दैनिक जागरण का लखनऊ में आयोजित जागरण संवादी इन तमाम साहित्योत्सवों से अलग है। जागरण संवादी जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि ये संवाद करनेवालों का मंच है। इसमे साहित्य की विधाओं और प्रवृत्तियों पर भी बात होती है लेकिन ये इससे अलग हटकर विचार और विमर्श पर केंद्रित आयोजन होता है। साहित्य से जुड़े लोग भी साहित्यिक विमर्शों पर मंथन करते हैं। इस वर्ष लखनऊ के संगीत नाटक अकादमी परिसर में तीस नवंबर से 2 दिसबंर तक आयोजित इस उत्सव में भी विचार केंद्रित कई सत्र बेहद दिलचस्प रहे। कई नए स्थापनाएम और मान्यताएं भी चर्चा के दौरान सामने आई। उत्तर प्रदेश की रचनात्मकता पर केंद्रित एक सत्र में साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और हिंदी के वरिष्ठ लेखक विश्वनाथ तिवारी, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि लीलाधर जगूड़ी और उपन्यासकार शैलेन्द्र सागर ने अपनी बातें रखीं। इस सत्र का संचालन युवा कथाकार राहुल नील कर रहे थे। सत्र में अपने आरंभिक वक्तव्य में लीलाधर जगूड़ी ने संचालक के नाम की बेहद दिलचस्प व्याख्या कर दी। उन्होंने संचालक राहुल से पूछा कि उनको अपने नाम का अर्थ पता है। राहुल ने जब उनको अपने नाम का अक्थ बताना शुरू ही किया था कि जगूड़ी ने उनको रोकते हुए कहा कि राहुल का एक और अर्थ होता है और वो है बाधा। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए लीलाधर जगूड़ी ने महात्मा बुद्ध से जुड़ा एक किस्सा बताया। उन्होंने कहा कि जब जब सिद्धार्थ के पिता को जब इस बात का एहसास हुआ कि उनके बेटे सिद्धार्थ का सांसारिकता से मोहभंग होने लगा है तो उन्होंने उनका विवाह यशोधरा से करवा दिया। ज्ञान प्राप्ति के पहले गौतम बुद्ध का नाम सिद्धार्थ था। विवाह के बाद यय़ोधरा गर्भवती हुईं और तान का जन्म हुआ तो ये खुशखबरी सिद्धार्त को सुनाई गई कि आपोक बेटा हुआ है। लीलाधर जगूड़ी ने बताया कि जातक में इस बात का उल्लेख है कि बेटे के जन्म की खबर सुनकर सिद्धार्थ ने कहा राहुलो जात: । इसका अर्थ है कि बाधा हो गई। जगूड़ी के अनुसार उस वक्त से ही राहुल को एक मुहावरे की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा जिसका अर्थ है कि सोचे हुए काम में बाधा या जो रास्ता है उसमें बाधा। बात आई गई हो गई लेकिन बाद में श्रोताओं ने जगूड़ी जी को घेरा। उनमें से ही एक ने जगूड़ी जी की बात को आगे बढ़ाते हुए इसको ज्योतिष से जोड़ दिया। उनके मुताबिक राहु शब्द से राहुल बना है। ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक जब किसी व्यक्ति पर राहु लग जाता है तो वो बाधाकारक हो जाता है। किसी काम को बनने में वो स्पीड ब्रेकर की तरह आ जाता है काम की गति को धीमा कर देता है या सोचे गए काम को पूरा नहीं होने देता है। दक्षिण में भी राहु कालम का अर्थ यही होता है। जागरण संवादी के मंच पर लीलाधर जगूड़ी ने राहुल शब्द की व्याख्या संचालक से संदर्भ में की लेकिन वहां इसके राजनीतिक अर्थ निकाले जाने लगे। सोशल मीडिया पर भी इस व्याख्या को लेकर बहस शुरू हो गई। ट्वीटर पर हर कोई इसको राहुल गांधी से जोड़कर देखने लगा। पक्ष और विपक्ष में टिप्णियां आने लगीं। किसी पूछा कि राहुल किसी बाधा कांग्रेस की या भारतीय जनता पार्टी की। किसी ने लिखा कि भारत की राजनीति में राहुल काल कभी ना आए। तो कोई जगूड़ी को नसीहत देने लगे। इस बीच जगूड़ी का फोन भी घनघनाने लगा और उनके कुछ मित्रों ने उनको राहुल गांधी पर इस तरह की टिप्पणी करने के लिए निशाने पर ले लिया। जगूड़ी सफाई देने लगे कि उन्होंने तो संचालक राहुल नील को उसके नाम का अर्थ समझाया था उनका आशय राहुल गांधी से कतई नहीं था। यह महज संयोग है कि जागरण संवादी के मंच पर इस सत्र के संचालक का नाम और भारतीय राजनीति में प्रमुख विपक्षी दल के अध्यक्ष का नाम राहुल है। लेकिन जिस तरह से इसको लेकर राजनीति शुरू हो गई है उसने बेहद दिलचस्प मोड़ ले लिया है। दरअसल देश में जब राजनीति अपने चरम पर हो और राज्यों के चुनाव चल रहे हों और चंद महीनों के बाद लोकसभा के चुनाव आनेवाले हों तो इस तरह की टिप्पणियों को राजनीति से जोड़कर देखा ही जाएगा।
संस्कार और संस्कृति वाले सत्र में भी मशहूर नृत्यांगना, राज्य सभा की सांसद पद्म विभूषण सोलन मानसिंह ने लखनऊ की धरती पर बेहद बेबाकी से अपनी बातें रखीं। उन्होंने शुभारंभ के समय दीपक जलाने को लेकर भी एक दिलचस्प बात कही। उनका कहना था कि शुभ अवसर पर दीपक को जलाया नहीं जा बल्कि वो प्रकट होती है। लेकिन जब वो अपनी रौ में आईं तो उन्होंने अपने तमाम कड़वे अनुभवों को साझा किया। उन्होंने पूरा किस्सा बयान किया कि किस तरह से उनको अमेरिका में आयोजित विश्व हिंदू सम्मेलन में जाने के पहले रोकने की कोशिश की गई। किस तरह से उस वक्त की कांग्रेस की सरकार ने उनको वीजा मिलने में बाधाएं खड़ी कीं। किन परिस्थितियों में उनको संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद से हरकिशन सिंह सुरजीत के इशारे पर हटाया गया। कैसे संगीत नटक अकादमी के दफ्तर में जांच एजेंसियों को इस आदेश के साथ भेजा गया कि सोलम मानसिंह के खिलाफ सबूत जमा करें। चार दिनो तक एजेंसी के अधिकी संगीत नाटक अकादमी की फाइलों को छानते रहे लेकिन उनको कुछ मिला नहीं। ये सब बातें बहुत ही बेबाकी से संवादी के मंच पर कही गईं। इसी तरह से शोभा डे ने अपने सत्र में भी अपने विचारों को उन्मुक्त होकर सामने रखा। सत्तर साल की शोभा डे से जब संजोय रॉय ने मी टू के बारे में सवा पूछा तो उन्होंने साफ तौर पर ये कहा कि उनको पूरी जिंदगी के दौरान इस तरह की कोई बात झेलनी नहीं पड़ी लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि कि ऐसा नहीं होता होगा। उन्होंने खुलकर कहा कि अगर किसी भी महिला के साथ किसी भी तरह की ज्यादती होती है तो वो उनके साथ हैं। सबसे दिलचस्प यह रहा कि लखनऊ के श्रोताओं ने शोभा डे को पहली बार हिंदी में बात करते हुए सुना। संचालक लगातार अंग्रेजी में उनसे सवाल पूछ रहे थे और वो सभी प्रश्नों के उत्तर हिंदी में दे रही थीं। संगीत नाटक अकादमी के लॉन में शाम की हल्की ठंड के बीच शोभा डे को हिंदी में सुनना में बेहद आनंद से भरा था। लखनऊ के श्रोताओं ने उनको हिंदी में बोलने के लिए ध्नयवाद भी दिया। यही तो संवादी का उद्देश्य भी है कि सभी भाषाओं के लोग एक मंच पर इकट्ठे होकर हिंदी में संवाद करें। जागरण संवादी का आयोजन दैनिक जागरण की मुहिम हिंदी हैं हम के तहत होता है।  
इसी तरह से एक और विचारोत्तेजक सत्र रहा जब संगीत के अध्येता यतीन्द्र मिश्र ने लोकगायिका मालिनी अवस्थी से संगीत के अच्छे दिनों के बारे में सवाल पूछा। मालिनी अवस्थी ने संगीत मे जारी वर्ण व्यवस्था को रेखांकित किया और कहा कि शास्त्रीय संगीत की परंपरा में लोकगीत को वर्णव्यवस्था में निचले पायदान पर रखा जाता था लेकिन अब ये वर्जनाएं टूटी हैं और लोकगीत को भी पर्याप्त महत्व मिलने लगा है। इस संदर्भ में उन्होंने मध्यप्रदेश में आयोजित होनेवाले तानसेन संगीत समारोह का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा दो साल पहले तानसेन संगीत समारोह के कर्टन रेजर में उनको लोकगीत गाने के लिए आमंत्रित किया गया था। उनके ऐसा कहने का मतलब था कि तानसेन संगीत समारोह में पहले सिर्फ शास्त्रीय संगीत के कलाकारों को ही आमंत्रित किया जाता था । उन्होंने जोर देकर कहा कि ये दौर संगीत के लिए अच्छे दिन लेकर आया है क्योंकि संगीत मे सदियों से चली आ रही वर्ण व्यवस्था टूटने लगी है। विचार के इस महामंच पर इस तरह से खुलकर बेबाकी से एक कलाकार अपनी ही बिरादरी के बारे में बात कर रही थी और वहां की विसंगतियों को देश के सामने रख रही थीं। साहित्योत्सवों की भीड़ के बीच संवादी इन वजहों से ही अलग दिखाई देता है और पांच साल के छोटे से अंतराल के बीच हिंदी समाज में अपने लिए एक मजबूत स्थान बना पाने में कामयाब रहा है। यह इस वजह से भी संभव हो पाया है कि संवादी में विचारधारा और विचारों की अस्पृश्यता बिल्कुल नहीं होती है, हर विचारधारा और मत को मानने वाले लोग खुलकर इस मंच पर अपनी बात कहते हैं, बिना किसी रोक टोक के ।     

भारतीय विद्या के ग्रंथों का खजाना

दिल्ली में कई ऐसे पुस्तकालय हैं जिनका गौरवशाली इतिहास रहा है। इन पुस्तकालयों में दुर्लभ ग्रंथों और प्राचीन लिपि में हस्तलिखित पांडुलिपियां भी हैं, जो हमारे देश की ज्ञान परंपरा को संजोए है। ऐसी ही एक लाइब्रेरी है केंद्रीय पुरातात्विक पुस्तकालय, जो दिल्ली के तिलक मार्ग पर ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मुख्यालय धरोहर भवन में है। इस पुस्तकालय की स्थापना शिमला में 1902 में हुई थी। लॉर्ड कर्जन ने सर जॉन मार्शल को ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का महानिदेशक नियुक्त किया था, उसके बाद मार्शल ने पुस्तकालय शुरू करने के लिए एक निश्चित राशि आवंटित की थी। काफी दिनों तक शिमला में चलने के बाद इस पुस्तकालय को दिल्ली लाया गया। 1960 तक ये पुस्तकालय कर्जन रोड, जो अब कस्तूरबा गांधी मार्ग के नाम से जाना जाता है, की एक इमारत में रहा। उसके बाद इसको विज्ञान भवन के पास की एक इमारत में शिफ्ट किया गया और फिर जनपथ स्थित नेशनल ऑर्काइव के भवन से ये पुस्तकालय चलता रहा । इस वर्ष इसको तिलक मार्ग के धरोधर भवन में स्थायी ठिकाना मिला है। इस पुस्तकालय में डेढ लाख से अधिक पुस्तकें हैं। इनमें से बीस हजार से अधिक ऐसी पुस्तकें, पांडुलिपियां, फोटो और चित्र हैं जिनको धरोहर की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस पुस्तकालय में खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपि में लिखे कुछ दुर्लभ ग्रंथ और अभिलेख भी हैं। खरोष्ठी लिपि भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक है जो दाएं से बाएं की ओर लिखी जाती हैं। सम्राट अशोक के काल के कई दस्तावेज और अभिलेख इस लिपि में मिलते हैं।
इन दुर्लभ और लगभग अप्राप्य ग्रंथों के अलावा यहां प्रचुर मात्रा में प्राचीन तिब्बती साहित्य की पांडुलिपियां, नक्शे आदि उपलब्ध हैं। इसके अलावा यहां इतिहास, पुरातत्व, स्थापत्य कला, साहित्य, संस्कृति, भारतीय प्राच्य विद्या, भूगर्भशास्त्र और बुद्ध धर्म से संबंधित ग्रंथों की भरमार है। यहां कई भाषाओं में पुस्तकें उपलब्ध हैं जिनमें हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी, उर्दू, फ्रेंच और जर्मन प्रमुख हैं। रूसी भाषा की भी कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। इतना ही नहीं अगर आपकी रुचि सूफी दर्शन में है तो आपके लिए भी वहां तेरहवी सदी में लिखी गई कई पुस्तकें मिल सकती है। सूफी संतों की कई जीवनियां भी अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। अगर आप प्राचीन और ऐतिहासिक यात्रा के संदर्भों को जानना चाहते हैं तो उस तरह की पुस्तकें भी यहां मिल सकती हैं। लगभग पूरी दुनिया की समुद्र से यात्रा करनेवाले जॉन फ्रांसिस के अनुभव भी पुस्तकाकार इस पुस्तकालय में हैं। यहां आपको विभिन्न शहरों की ऑर्कियोलॉजिकल रिपोर्ट के अलावा एएसआई के डीजी की सालाना रिपोर्ट भी एक जिल्द में मिलेंगे जिसमें धरोहरों के बारे में प्रामाणिक जानकारी है। आम लोगों के अलावा ये पुस्तकालय उन शोधकर्ताओं के लिए बेहद अहम है जो इतिहास के अलावा इस देश की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत पर शोध कर रहे हैं। इस पुस्तकालय की किताबों के डिजीटाइजेशन का काम भी शुरू हो चुका है। अबतक 12261 पुस्तकों को डिजीटाइज किया जा चुका है।
पाठकों की सुविधा के लिए यहां एक आरामदायक रीडिंग रूम भी है जहां बैठकर पाठक पुस्तकें और पत्रिकाएं पढ़ सकते हैं।अगर आप किसी पुस्तक के अंश फोटो कॉपी करवाना चाहते हैं तो एक रुपया प्रति पेज की दर से फोटो कॉपी की सुविधा उपलब्ध है। 24 तिलक मार्ग पर स्थित धरोहर भवन के अपर बेसमेंट में ये पुस्तकालय है। इस पुस्तकालय में कोई सदस्यता शुल्क नहीं लिया जाता है, आप अपना प्रामाणिक पहचान पत्र लेकर वहां जाइए और पुस्तकालय की सुविधाओं का लाभ उठाइए। पुस्तकालय का समय सुबह 9.30 से लेकर शाम 6 बजे तक है और ये सोमवार से शुक्रवार तक खुला रहता है।    

Saturday, November 24, 2018

विरोधियों को मदद करती सरकार


साहित्य, कला और संस्कृति को लेकर इस देश में बहुधा विवाद होते रहते हैं। कोई कार्यक्रम हो जाए तो विवाद, कोई कार्यक्रम टल जाए तो विवाद। कोई नियुक्ति हो जाए तो विवाद, कोई नियुक्ति ना हो पाए तो विवाद। किसी संस्थान में कोई अध्यक्ष चुन लिया जाए तो विवाद और ना चुना जाए तो विवाद। इन विवादों में ज्यादातर तर्क आरोप की शक्ल में सामने आते हैं। दो हजार चौदह में जब से नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तब से साहित्य-संस्कृति के विवादों में आरोपों को विचारधारा से भी जोड़ा जाने लगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडा को बढ़ाने का आरोप लगना भी तेज हो गया। इसके पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने थे तब भी इस तरह की बात हुआ करती थी। अब तो हालत ये हो गई है कि कोई भी छोटा-मोटा विवाद भी हो तो उसमें प्रधानमंत्री को घसीट लिया जाता है। कोई कार्यक्रम चाहे किसी भी वजह से स्थगित हो उसकी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर डाल दी जाती है। बात इतने पर ही नहीं रुकती है, आरोप लगाने वाले इसको फासीवाद से जोड़ देते है। कोई इसको अघोषित इमरजेंसी बता देता है। मतलब हालात यह है कि जिसके मन में जिस तरह की बात आती है उसी तरह के आरोप लगा देता है, तथ्य, आधार और स्तर की परवाह किए बगैर।
जबकि साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र पर नजर डालें तो मौजूदा केंद्र सरकार बेहद उदार दिखाई देती है। अब अगर हम कृष्णा और सोनल मानसिंह के कार्यक्रम रद्द होने के मसले को ही देखें तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। इन लोगों के कार्यक्रम की आयोजक स्पिक मैके नाम की एक संस्था थी। ये संस्था सालों से भारतीय शास्त्रीय संगीत और कला के क्षेत्र में काम कर रही है। इस ताजा विवाद के बाद इस संस्था पर भी सवाल उठे। इनको केंद्र सरकार और इनके उपक्रमों से मिलनेवाली आर्थिक मदद को लेकर भी प्रश्न खड़े किए गए। कुछ लोगों की राय इस तरह की भी सामने आई कि इस पूरे विवाद में स्पिक मैके की परोक्ष भूमिका थी, लिहाजा केंद्र सरकार को उनको आर्थिक मदद देने पर पुनर्विचार करना चाहिए। इस विचार को संस्कृति मंत्रालय ने बिल्कुल तवज्जो नहीं दिया। बताया जा रहा है कि कुंभ के सिलसिले में कार्यक्रम करने के लिए इस संस्था को डेढ़ करोड़ से अधिक की राशि देने का फैसला किया गया है।संस्कृति मंत्रालय इतनी उदार है कि उनको अपने क्षेत्रीय सांस्कृति केंद्रों से ज्यादा भरोसा स्पिक मैके पर है। देशभर में सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक कार्यलय हैं, संगीन नाटक अकादमी है, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र है, कई अन्य संस्थान हैं लेकिन निजी संस्थान स्पिक मैके पर ही संस्कृति मंत्रालय को भरोसा है। इस भरोसे की क्या वजह है वो साफ नहीं है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में भारतीय रूपंकर कला के इतने बेहतरीन कार्यक्रम आयोजित होते हैं और वो भी नियमित होते हैं लेकिन कला केंद्र से भी स्पिक मैके को तीन साल में एक करोड़ चालीस लाख रुपए दिए गए हैं। इतना ही नहीं बल्कि स्पिक मैके को कार्यक्रमों के आयोजन के लिए विभिन्न मंत्रालयों और सार्वजविक उपक्रमों से लाखों का अनुदान मिलता है। अगर मौजूदा सरकार बदले की भावना से काम करती या अगर इस सरकार की नीतियां अपनी विचारधारा से इतर विचारवालों को तंग करना होता तो इतनी उदारता से स्पिक मैके को अनुदान नहीं दिया जाता। स्पिक मैके के मंच पर तो मोदी सरकार से विरोध रखनेवाले कलाकारों को आमंत्रित किया ही जाता रहा है। दरअसल ये सरकार कलाकार को कलाकार की नजर से देखती है।
संस्कृति मंत्रालय तो इस मामले में बेहद उदार है। वो पहले भी साहित्यिक पत्रिका हंस के आयोजनों को आर्थिक मदद करती रही है जहां मंच पर घोषित मोदी विरोधी लोग बैठते थे और सरकार को कोसते थे। वो दृष्य कितना मनोहारी और समावेशी होता है जब वक्ता के पीछे बोर्ड पर लिखा होता है, संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से आयोजित, और वक्ता उस बोर्ड के आगे खड़े होकर नरेन्द्र मोदी और फासीवाद को कोसते हैं। देश में इमरजेंसी जैसे हालात को लेकर गरजते हैं। पर यह कितनी हास्यास्पद बात है कि संस्कृति मंत्रालय के आर्थिक सहयोग से सजे मंच पर खडे होकर आप कह रहे हैं कि देश में इमरजेंसी जैसे हालात हैं। दरअसल इस तरह के आरोप लगानेवालों को इमरजेंसी जैसे हालात का अंदाज ही नहीं होता है। अगर इमरजेंसी जैसे हालात होते तो सरकारी मदद वाले मंच से सरकार के विरोध के बोल नहीं गूंजते। इमरजेंसी के दौर में अनुदान देने के पहले मंच पर बैठनेवालों की सूची मांगी जाती थी। सूची से संतुष्ट होने के बाद ही धन जारी किया जाता था। सूचना के अधिकार के तहत संस्कृति मंत्रालय से प्रश्न पूछकर यह पता लगाया जा सकता है कि क्या कभी इस मंत्रालय ने वक्ताओं या मंच पर परफॉर्म करनेवाले कलाकारों के नाम को देखकर धन दिया। शुरुआत में तो संस्कृति मंत्रालय ने कई ऐसे कार्यक्रमों को आर्थिक मदद दी जिसमें धुर वामपंथी शामिल होते रहे हैं। मोदी सरकार पर इस तरह के आरोप लगानेवालों को संस्कृति मंत्रालय के कामकाज को देखना चाहिए।
संस्कृति मंत्रालय तो इतनी उदार है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और आमसभा के सदस्यों के चुनाव के समय भी सिर्फ अपनी राय ही दे पाई। आम सभा के सदस्यों ने तो सस्कृति मंत्रालय की राय को ठुकरा दिया। संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने मंत्रालय की तरफ से एक उम्मीदवार को नामित किया था और आमसभा से उनको वोट देने को कहा था लेकिन उस उम्मीदवार की हार हो गई। मंत्रालय ने कुछ नहीं किया, साहित्य अकादमी के कामकाज में किसी तरह की बाधा खड़ी नहीं की। अगर किसी तरह की असहिष्णुता होती तो यहां उसका असर तो दिखता। साहित्य अकादमी ही क्यों अगर हम संगीत नाटक अकादमी की बात करें तो वहां भी समावेशी माहौल है। संगीत नाटक अकादमी की जो समिति है उसमें कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर को इसी सरकार ने नामित किया। नक्सली होने का आरोप झेल रहे एक शख्स के रिश्तेदार को संगीत नाटक अकादमी ने पुरस्कृत किया। कहीं कोई विरोध या कहीं किसी तरह की हलचल तक नहीं हुई। इसी तरह से आरोप लगता है कि नियुक्तियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इशारे पर नियुक्तियां होती हैं। यह भी मिथ्या आरोप है। ऐसे ऐस शख्सियतों को सरकार ने अहम जिम्मेदारी दी है जो घोषित तौर पर मोदी और संघ के विरोधी रहे हैं। इस स्तंभ में समय समय पर ऐसे लोगो के बारे में लिखा जाता रहा है, जिसको दोहराने का कोई अर्थ नहीं है।
असहिष्णु तो मोदी के पहले की सरकारें थीं। यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि जब 2004 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा और कांग्रेस की अगुवाई में वामपंथियों के समर्थन से सरकार बनी तो साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में क्या हुआ था। 2005 में संगीत नाटक अकादमी के अद्यक्ष के पद से सोनल मानसिंह को बर्खास्त कर दिया गया था। यह पहली बार हुआ था कि राष्ट्रपति के आदेश से संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष को पद से हटाया गया। उस दौर के अखबारों को देखकर इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि सोनल मानसिंह को वामपंथी दलों के दबाव में हटाया गया था। इसी तरह से तत्कालीन सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष अनुपम खेर को हटा दिया गया था। तब पार्टी के पत्र पीपल्स डेमोक्रेसी में हरकिशन सिंह सुरजीत ने लेख लिखकर अनुपम खेर को हटाने की बात की थी और खेर को संघ का आदमी करार दिया था। इस तरह के कई वाकए उस दौर में हुए थे लेकिन तब की सरकार को किसी ने असहिष्णु नहीं कहा था। इस वक्त की यूपीए सरकार पर किसी कोने अंतरे से फासीवाद को बढ़ावा देने का आरोप नहीं लगाया गया था। जब आप कोई काम करें और उसके लिए आपको जिम्मेदार ना ठहराया जाए और जब आप वो काम ना करें तो उसके लिए आपको जिम्मेदार ठहराया जाए। यह किस तरह का मैनेजमेंट है इसको समझने की जरूरत है। दरअसल ये पूरा खेल अर्थ से जुड़ा है। जब तक अनुदान मिलता रहता है वामपंथ से जुड़े संगठन या उस विचारधारा के खुद को करीब माननेवाले खामोश रहते हैं और जहां आर्थिक मदद में कटौती होने की आशंका दिखाई देती है तो फासीवाद का शोर मचने लगता है ताकि सरकार पर दबाव बने और इस तरह के आरोपों से बचने के लिए आर्थिक मदद में कटौती नहीं हो सके। आजाद भारत की ये इकलौती और पहली सरकार है जो उन संगठनों को मदद करती है जिसके मंच पर से उसके सबसे बड़े नेता की व्यक्तिगत और वैचारिक दोनों आलोचना की जाती है।

Saturday, November 17, 2018

राजनीति का औजार बनती कला


साहित्य और कला को राजनीति का औजार नहीं बनाया जाना चाहिए लेकिन हमारे देश में स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। हमारे यहां साहित्य और कला को दशकों से राजनीति के औजार के तौर इस्तेमाल किया जाता रहा है। होता यह है कि जब किसी राजनीतिक दल की साख छीजती है तो उसको किसी सहारे की जरूरत होती है तो वो साहित्य कला की ओर देखने लगता है। साहित्य और कला से मजबूत सहारा और क्या हो सकता है? इससे साख कायम होती है। इसके सैकड़ों उदाहरण हिंदी साहित्य और भारतीय कला जगत में मौजूद हैं जब कला को राजनीति औजार के तौर परर इस्तेमाल किया गया। हाल ही में संगीत से जुड़े एक और मसले पर जमकर राजनीति हुई। कर्नाटक संगीत के गायक टी एम कृष्णा इस राजनीति के औजार बने या उन्होंने इस राजनीति को आगे बढ़ाने में मदद की इसपर बात करना बहुत आवश्यक है। आवश्यक यह भी है कि कला के नाम पर अपनी राजनीति करनेवालों से सवाल पूछे जाएं।
दरअसल ये पूरा मामला दिल्ली में एक आयोजन से जुड़ा है। दिल्ली के इस आयोजन में टी एम कृष्णा के साथ सोनल मानसिंह का भी कार्यक्रम तय और विज्ञापित किया गया था। इस कार्यक्रम की आयोजक स्पिक मैके नाम की संस्था थी और प्रायोजक एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया था। जब ये कार्यक्रम विज्ञापित हुआ तो इसको लेकर सोशल मीडिया पर विमानन मंत्रालय की आलोचना शुरू हो गई। आलोचना का आधार यह था कि मोदी विरोधी को एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया कैसे प्रोयजित कर रही है। इस आलोचना को वाम दलों से सहानुभूति रखने या खुद को उस विचारधारा के करीब पानेवाले लोगों ने दक्षिणपंथी ट्रोल का हमला करार दिया। विरोध करने का हक सबको है, उसको ट्रोल कह देना अन्यायपूर्ण है। यह सब चल ही रहा था कि एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने इस कार्यक्रम से अपना हाथ खींच लिया।
एयरपोर्ट अथॉरिटी के इस कदम के बाद अभिव्यक्ति की आजादी के चंद झंडाबरदारों को इसमें एक अवसर नजर आया। अवसर अपनी राजनीति चमकाने का, अवसर अपने राजनीतिक आकाओं को राजनीति की जमीन और औजार देने का। अब जिस तरह के ट्वीट को लेकर इन लोगों ने कार्यक्रम के विरोधियों को दक्षिणपंथी ट्रोल करार दिया था उससे ज्यादा आक्रामक तरीके से सरकार पर कुछ लोगों ने हमले करने शुरू कर दिए पर मैं अपने इस लेख में उनको वामपंथी ट्रोल नहीं कहूंगा। क्योंकि संवाद में या लेखन में शब्दों के चयन में बहुत सावधान रहने की जरूरत होती है। शब्द लेखक की मानसिकता को उजागर करते चलते हैं। इस पूरे मसले पर स्तंभकार रामचंद्र गुहा भी अति उत्साह में ऐसे शब्दों का प्रयोग कर बैठे जो उनके इतिहासकार होने के दावे पर ही प्रश्नचिन्ह लगा गया। रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में यह लिखा दिया कि कृष्णा को दिल्ली में गाने से रोकना असभ्य दुनिया का परिचायक है। रामचंद्र गुहा के ट्वीटर हैंडल पर उन्होंने अपने परिचय में खुद को लोकतंत्र का इतिहासकार बताया है। अब वो कैसे इतिहासकार हैं इसको उनके उपरोक्त शब्दों के चयन से समझा जा सकता है। एक कार्यक्रम के रद्द होने से दुनिया को असभ्य करार देना अतिवाद है। आगे भी अपने उस लेख में गुहा ने कृष्णा को अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर महान संगीतज्ञ करार दिया है। हो सकता है कृष्णा उतने ही महान हों, जितना राम गुहा उनको साबित करने में लगे हैं। लेकिन मुझे याद है कि कुछ अरसा पहले कृष्णा ने एक पत्रिका में महान गायिका सुबुलक्ष्मी के बारे में एक लेख लिखा था। उस लेख में कृष्णा ने लक्ष्मी के बारे में अनर्गल, आधारहीन बातें की थीं और उनपर घटिया व्यक्तिगत लांछन भी लगाए थे। कृष्णा ने वो लेख तब लिखा था जब सुबुलक्ष्मी का निधन हो चुका था और आरोपों पर सफाई देनेवाला कोई था नहीं।
गुहा को कृष्णा महान कलाकार लगते हैं, इसी तरह कुछ लोगों को कृष्णा की महानता पर तब शक हुआ था जब वो मुंबई हमले के गुनहगार आतंकवादी अजमल कसाब के मानवाधिकार को लेकर चिंतित हुए थे। दरअसल गुहा जैसे इतिहासकार लगातार अपना गोलपोस्ट बदलते रहते हैं, जब जैसी बहे बयार, पीठ तब वैसी कीजिए के सिद्धांत पर चलते रहते हैं। इस वजह से प्रचुर मात्रा में लेखन करने के बावजूद उनको एक इतिहासकार के रूप में मान्यता मिलना शेष है। अब भी स्थापित इतिहासकार गुहा को कोशकार ही कहते हैं। साख के लिए शब्दों के चयन में सावधान रहना बेहद आवश्यक है।
कृष्णा का मोदी विरोध जगजाहिर है, वो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के खिलाफ भी लगातार बोलते लिखते रहे हैं। उनकी प्राथमिकताएं भी जगजाहिर हैं। अब अगर उनकी इस विचारधारा के आधार पर उनका कार्यक्रम स्थगित किया जाता तो चंद महीने पहले राजस्थान में उनका कार्यक्रम कैसे हो पाता। वहां भी तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और प्रायोजक भी संभवत: सरकार ही थी। हिंदी में तमाम ऐसी प्रत्रिकाएं छपती हैं जिनमें भारतीय जनता पार्टी की राज्य सरकारों के बड़े बड़े विज्ञापन होते हैं और उसके संपादकीय में मोदी सरकार की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। संस्कृति मंत्रालय ने कई ऐसे कार्यक्रमों को प्रोयजित किया है और उनको आर्थिक मदद दी है, जहां मंच से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जमकर आलोचना की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश को बांटने वाला संगठन तक करार दिया गया। अगर सरकार किसी कार्यक्रम को इस आधार पर रोकती तो इस तरह के आयोजनों को या इन पत्रिकाओं को कोई आर्थिक मदद नहीं मिल पाती। कृष्णा का कार्यक्रम राजस्थान में नहीं हो पाता।दूसरी बात यह कि दिल्ली का कार्यक्रम सिर्फ कृष्णा का नहीं था, इसमें अन्य कलाकार भी थे। उसमें से एक कलाकार सोनल मानसिंह भी थीं जिनको कि मोदी सरकार ने राज्यसभा में मनोनीत किया है।
स्पिक मैके के कार्यक्रम के रद्द होने में दिल्ली की केजरीवाल सरकार को एक अवसर नजर आया। ये अवसर भी राजनीति का भी था और अपनी सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार के तौर पर स्थापित करने का भी। आनन फानन में यह तय किया गया कि कृष्णा का कार्यक्रम उसी तिथि को दिल्ली में आयोजित किया जाएगा जिस तिथि का कार्यक्रम रद्द हुआ। उसके बड़े बड़े विज्ञापन छपे और कार्यक्रम को आवाम की आवाज का नाम दिया गया। विज्ञापनों में कृष्णा की तस्वीर के साथ दिल्ली के उपमुख्यमंत्री की भी बड़ी सी तस्वीर छपी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी जनता से इस कार्यक्रम में आने का अपील की। लेकिन इसमें भी राजनीति हो गई क्योंकि दिल्ली सरकार ने सिर्फ कृष्णा को आमंत्रित किया और सोनल मानसिंह और अन्य कलाकारों को छोड़ दिया। क्या सोनल और अन्य कलाकारों ने कोई गुनाह किया था। या कला भी अब राजनीति के खांचे में बंटकर प्रदर्शित की जाएगी। कला के राजनीति का पिछलग्गू बनने का यही सबसे बड़ा नुकसान दिखाई देता है।
इस मसले पर जो राजनीति हो रही है उसमें देश के प्रधानमंत्री तक को घसीट लिया गया है। दरअसल चार राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं और चंद महीनों के बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं। अब आने वाले दिनों में इस तरह के मसलों को और हवा देकर मौजूदा मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश होगी। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले जिस तरह से असहिष्णुता के मुद्दे पर पुरसाकर वापसी का अभियान चालाया गया था, उसी की तर्ज पर कुछ करने की कोशिश होगी। इस बात के पुख्ता संकेत एक डेढ़ साल पहले से मिलने शुरू हो गए, जब दिल्ली में एक खास विचारधारा के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का जमावड़ा हुआ था और ये घोषणा की गई थी कि पूरे देशभर में गोष्ठियों और कार्यक्रम किए जाएंगे ताकि कथित तौर पर सांप्रदायिक शक्तियों को मात दी जा सके। जुटान के नाम से दिल्ली में आयोजित इस गोष्ठी में जिस तरह के भाषण इत्यादि हुए थे उसने भी उनके इरादे साफ कर दिए थे।दरअसल अगर हम देखें तो वामपंथी विचारधारा के लेखक हमेशा से ये काम करते रहे हैं। लेखक संगठनों की भमिका उनकी स्थापना के बाद से इस तरह से बदलती चली गई कि वो अपने राजनीतिक दलों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह से काम करने लगे। साहित्यिक लेखन भी राजनीति दलों की उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाने लगा। हिंदी कविता इस तरह से नारेबाजी की शक्ल में लिखी जाने लगी कि पाठक उससे दूर होने लगे। मशहूर अमेरिकी कवि गिंसबर्ग ने कहा भी था कि कविता कभी भी पार्टी लाइन को अभिव्यक्त करने का माध्यम नहीं हो सकती है। रात को सोते समय जब कोई शख्स अपनी निजी सोच को सार्वजनिक करने के बारे में सोचता है तो कविता आकार लेने लगती है। अमूमन कवि से अपेक्षा भी यही की जाती है। लेकिन ज्यादातर हिंदी कविता इसके उलट पार्टी लाइन पर चलती रही और पाठकों से दूर होती चली गई। कला को राजनीति के औजार के तौर पर इस्तेमाल करनेवालों को चिन्हित करना जनता को बताना बेहद आवष्यक है।