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Monday, December 28, 2015

पुस्तक संस्कृति के लिए जरूरी मेले

साल भले ही सर्दियों में खत्म होता है लेकिन पुस्तक प्रेमियों के लिए पुस्तक मेले उष्मा प्रदान करते रहते हैं । पुस्तक मेलों की शुरुआत नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले से होती है । दिल्ली विश्व पुस्तक मेले से इस साल जो रचनात्मक ऊर्जा और उष्मा साहित्य जगत में पैदा होनी चाहिए थी उसपर भी मौसम का असर दिखा था । साहित्यकारों और लेखकों के बीच पुस्तक मेले में हुए विमर्श की गर्माहट गायब सी दिखी थी । दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले के दौरान नौ दिनों तक अलग अलग विषयों और पुस्तकों के विमोचवन के बहाने से तकरीबन सौ गोष्ठियां और संवाद हुए थे । पुस्तक मेला के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट ने मेला का चरित्र बदलकर साहित्य उत्सव करने की भरसक कोशिश भी की थी। हाल ही में खत्म हुए पटना पुस्तक मेले को देश का दूसरा बड़ा पुस्तक मेला कहा जा सकता है । यह एक तथ्य है कि बिहार में सबसे ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं बिकती हैं । लोग सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यक रूप से बहुत ज्यादा जागरूक हैं । यहां के लोग किताबें पढ़ने के बाद उसपर प्रतिक्रिया भी देने में नहीं हिचकते हैं । बिहार में इस जागरूकता को और फैलाने और नई पीढ़ी की पढ़ने की रुचि को संस्कारित करने में पटना पुस्तक मेला की सकारात्मक भूमिका रही है । पटना पुस्तक मेले के आयोजकों ने पुस्तक मेले को सांस्कृतिक उत्सव में तब्दील कर दिया है । पटना पुस्तक मेला में देशभर के बुद्धिजीवियों की भागीदारी उसको एक व्यापक फलक भी प्रदान करती है । इस साल तो कॉफी हाउस के नाम से एक खास कार्यक्रम भी शुरू किया गया जिसमें पाठकों को संपादकों, फिल्मकारों और साहित्यकारों से रू ब रू होने का मौका मिला । कविता पर गंभीर विमर्श के दौरान वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह और आलोक धन्वा ने मंचों पर कविता की वापसी की जरूरत को रेखांकित किया था 

इस साल पटना पुस्तक मेले को अपने पूर्व सहयोगी नेशनल बुक ट्रस्ट से ही टक्कर मिली । पटना पुस्तक मेले के ऐन पहले ही नेशनल बुक ट्रस्ट ने उसी स्थान पर अपना अलग से पुस्तक मेला लगाया । इसका असर भी दिखा । नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना देशभर में पाठक संस्कृति के विकास के लिए किया गया था लेकिन पटना में आयोजित उनके पुस्तक मेले ने एक स्थापित मेले के अस्तित्व को संकट में डाला । नेशनल बुक ट्रस्ट को करना यह चाहिए कि वो देश के उन हिस्सों में पुस्तक मेले लगाए जहां कि पुस्तकों की पहुंच नहीं है ।  महानगरों और हवाई मार्ग से जुड़े शहरों में तो फिर भी पुस्तकें मिल जाती है लेकिन देश के कोने अंतरे में अब भी पुस्तकें  पहुंच नहीं पाती हैं । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक कार्यक्रम में कहा था कि घर में पुस्तकों के लिए अलग जगह नहीं होती । हर घर में पुस्तकों के लिए अलग जगह हो इसकी लिए जरूरी है पुस्तकों की उपलब्धता को अनबीटी सुनिश्चित करे। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत विश्व का छठा सबसे बड़ा किताबों का बाजार है । उस रिपोर्ट के मुताबिक इस वक्त भारत में किताबों का बाजार इक्कसी हजार छह सौ करोड़ रुपए का है । अनुमान के मुताबिक किताबों का ये बाजार सालाना करीब साढे उन्नीस फीसदी की दर से बढ़ेगा और 2020 तक इस बाजार का आकार तेहत्तर हजार नौ सौ करोड़ तक पहुंच जाएगा । किताबों के बाजार में हिंदी किताबों का शेयर पैंतीस फीसदी है और अन्य भारतीय भाषाओं की किताबों की हिस्सेदारी मात्र दस फीसदी है । पुस्तक मेलों से पुस्तक बाजार में भारतीय भाषाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई जा सकती है । यह बात अभी जारी इलाहाबाद पुस्तक मेले में भी देखी जा सकती है जहां किताबों की जमकर बिक्री हो रही है । उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, कानपुर और लखनऊ के पुस्तक मेले पाठकों के बीच खासे लोकप्रिय रहे हैं और पाठक उनका इंतजार भी करते हैं । जमशेदपुर और रायपुर के पुस्तक मेले भी अपने छोटे कलेवर के बावजूद पाठकों को आकर्षित कर रहे हैं । 

Sunday, December 27, 2015

पुरस्कार वापसी अभियान के नाम साल

वर्ष दो हजार पंद्रह को पुकस्कार वापसी विवाद की वजह से समकालीन साहित्य में याद रखा जाएगा । भारत में बढ़ते असिहुष्णता का आरोप लगाते हुए हिंदी के विवादप्रिय, प्रचारप्रिय लेखक उदय प्रकाश ने इसकी शुरुआत की, लेकिन इसका बड़ा असर तब हुआ जब अशोक वाजपेयी और नयनतारा सहगल ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान कर दिया । इन दोनों के पुरस्कार लौटाने के बाद पुरस्कार वापसी अभियान ने जोर पकड़ा । पंजाब से लेकर कश्मीर और कर्नाटक से लेकर केरल तक के साहित्य अकादमी से पुरस्कृत कई लेखकों ने विरोधस्वरूप पुरस्कार लौटाने का एलान किया। मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने तो एक खबरिया चैनल के शो के दौरान ही नाटकीय ढंग से पुरस्कार लौटाया । पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों का प्राथमिक आरोप ये था कि कन्नड़ के लेखक कालबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी ने उनकी शोकसभा आयोजित नहीं की । जब ये आरोप जोरशोर से उठा तब जाकर साहित्य अकादमी ने बेंगलुरू में आयोजित शोकसभा की तस्वीरें और अखबारों में छपी खबरें जारी की लेकिन तब तकक काफी देर हो चुकी थी । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ने भी संवेदनहीन बयान से लेखकों का गुस्सा भड़का दिया ।लेखकों के पुरस्कार वापसी के विरोध में भी सैकड़ों लेख लिखे गए । सत्ताधारी दल के नेताओं ने इसको बिहार चुनाव से जोड़ने की कोशिश की । वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसके खिलाफ ब्लॉग लिखा लेकिन पुरस्कार वापसी का सिलसिला जारी रहा । लेखकों का आरोप था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी असहिष्णुता के मसले पर खामोश हैं । बाद में प्रधानमंत्री ने अपने लंदन दौरे के वक्त और राष्ट्रपति ने कई बार भारतीय समाज में सहिष्णुता को लेकर बयान दिए  । पुरस्कार वापसी से दबाव में आई साहित्य अकादमी ने कार्यकारिणी की आपात बैठक की और कालबुर्गी की हत्या की निंदा तो की ही पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों के आरोपों का जवाब देने का काम भी किया । इस बीच साहित्य अकादमी के दिल्ली मुख्यालय पर वामपंथी लेखकों ने मुंह पर कालीपट्टी बांधकर विरोध प्रदर्शन किया तो राष्ट्रवादी लेखकों के समूह ने भी पुरस्कार वापसी के खिलाफ प्रदर्शन किया । इस बीच कुछ युवा उत्साही लेखकों ने किताब वापसी अभियान की शुरुआत की और साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटानेवाले लेखकों की किताबें वापस लौटाने उनके घर तक जा पहुंचे । अभी हाल ही में साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी ने लेखकों से पुरस्कार नहीं लौटाने की अपील की और ये भी फैसला किया कि जिन लेखकों ने पुरस्कार राशि के चेक अकादमी को भेजे हैं उनको नहीं भुनाया जाएगा । उसी दौर में कुछ फिल्मकारों ने भी राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाकर लेखकों का समर्थन किया था ।

दो हजार चौदह के दिसबंर में छत्तीसगढ़ सरकार ने रायपुर साहित्य महोत्सव का आयोजन किया था । इस आयोजन को लेकर दो-एक वामपंथी समीक्षकों ने वितंडा खड़ा करने की कोशिश की । वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना और विनोद कुमार शुक्ल की रायपुर साहित्य महोत्सव में उपस्थिति पर सवाल खड़े करते हुए अखबारों और पत्रिकाओं में लेख और जवाबी लेख लिखे गए । तीन चार महीने तक ये विवाद हिंदी साहित्य में गूंजता रहा था । वीरेन्द्र यादव के आरोपों का नरेश सक्सेना ने जोरदार तरीके से जवाब दिया था । इसके अलावा आलोचना पत्रिका के नए संपादक अपूर्वानंद ने पत्रिका के स्वरूप में बदलाव किया तो हिंदी में उसपर सवालिया निशान लगे । आलोचना में समाजशास्त्रीय लेखों की भरमार पर शंभुनाथ ने सवाल खड़े किए थे तो कुछ लोगों ने इसको वाणी प्रकाशन से अभय कुमार दूबे के संपादन में निकलने वाली पत्रिका प्रतिमान की अनुकृति करार दिया । साहित्य अकादमी ने गैंगटोक में भारतीय भाषा के लेखकों और प्रकाशकों के बीच संवाद का एक आयोजन किया था । इस कार्यक्रम में नेशनल बुक ट्रस्ट के चेयरमैन बल्देव भाई शर्मा,वरिष्ठ कवि अरुण कमल, लीलाधर जगूड़ी, उपन्यासकार अखिलेश, वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी के अलावा तमिल और तेलुगू के लेखकों और प्रकाशकों ने हिस्सा लिया था । उस गोष्ठी में बेहद सकारात्मक चर्चा हुई थी । यह वर्ष भीष्म साहनी का जन्म शताब्दी वर्ष था जिसको लेकर कई अहम आयोजन हुए । मशहूर लेखक शानी की रचनावली का विमोचन इस साल की अहम साहित्यक घटना रही ।  

साहित्य जगत का सफरनामा

साल दो हजार पंद्रह विदा होनेवाला है । यह एक ऐसा मुकाम होता है जिसमें हमे पीछे मुड़कर यह देखने की कोशिश रनी चाहिए कि पिछले साल भर में हमने क्या खोया क्या पाया । रचनात्मक दृष्टि से देखें तो दो हजार पंद्रह बहुत उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता है । यह सुनने में अतिशयोक्ति लग सकती है लेकिन इस साल कोई ऐसीमहत्वपूर्ण कृति नहीं आई जिसने साहित्य जगत को एकदम से झकझोरकर रख दिया या उस कृति को पाठकों और आलोचकों ने समान रूप से पसंद किया। कुछ कृतियां अवश्य छिटपुट तरीके से अपनी धमक दिखाने में सफल रहीं लेकिन लंबे वक्त तक उसकी अनुगूंज साहित्य में सुनाई नहीं दी । इस साल कम ही पुस्तकों ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा । कहानी संग्रह में वंदना राग का संग्रह हिजरत से पहले, गीताश्री की कहानियों का संग्रह स्वप्न साजिश और स्त्री, पंकज सुबीर का संग्रह कसाब.गांधी @ यरवदा.in, इंदिरा दांगी का शुक्रिया इमरान साहब, ह्षीकेश सुलभ का संग्रह हलंत, जयश्री राय का संग्रह कायान्तर ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा । निलय उपाध्याय का बिहार के सपूत दशरथ मांझी के जीवन पर आधारित उपन्यास पहाड़ विषय के अलावा शैली को लेकर भी बेहतर रहा । इसी तरह से अलका सरावगी का उपन्यास जानकीदास तेजपाल मैनशन ने भी राजकमल चौधरी के लेखन को आगे बढाने वाला रहा । युवा लेखक प्रभात रंजन की किताब कोठागोई की भी खासी चर्चा रही । हिंदी की तुलना में अंग्रेजी में कई बेहतरीन किताबें आईं । आत्मकथा और जीवनी पर अगर हम देखें तो मशहूर अदाकारा स्मिता पाटिल और व्ही शांताराम की जीवनी को पाठकों ने खूब पसंद किया । वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर ने इमरजेंसी पर एक बेहतरीन किताब लिखी । इसके अलावा जॉन इलियट की किताब इंप्लोजन, ट्रायस्ट ऑफ रियलिटी प्रकाषित हुई । इस किताब में जॉन इलियट ने भारतीय राजनीति परखने की कोशिश की है । पंकज दूबे का उपन्यास इश्कियापा युवा पाठकों को भा रहा है । हां इस बार प्रकाशकों की सूची में बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े विषयों की किताबों ने प्रमुखता से अपनी जगह बनाई । ये कारोबार का हिस्सा हो सकता है लेकिल बगैर पर्याप्त मेहनत के लिखी या बनाई गई इन किताबों का कई स्थायी महत्व नहीं है । जिन प्रकाशकों को इन विषयों पर मूल किताबें नहीं मिल पाईं उन्होंने संघ या बीजेपी से जुड़े लोगों के लेखों और भाषणों की किताबें छापकर कारोबार में बने रहने की जुगत अपनाई ।  
दो हजार पंद्रह को पुरस्कार वापसी विवाद की वजह से समकालीन साहित्य में याद रखा जाएगा । भारत में बढ़ते असिहुष्णता का आरोप लगाते हुए हिंदी के विवादप्रिय, प्रचारप्रिय लेखक उदय प्रकाश ने इसकी शुरुआत की थी लेकिनमजमा लूट लिया अशोक वाजपेयी ने । इसका बड़ा असर तब हुआ जब अशोक वाजपेयी और नयनतारा सहगल ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान कर दिया । इन दोनों के पुरस्कार लौटाने के बाद पुरस्कार वापसी अभियान ने जोर पकड़ा । पंजाब से लेकर कश्मीर और कर्नाटक से लेकर केरल तक के साहित्य अकादमी से पुरस्कृत कई लेखकों ने विरोधस्वरूप पुरस्कार लौटाने का एलान किया। मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने तो एक खबरिया चैनल के शो के दौरान ही नाटकीय ढंग से पुरस्कार लौटाया । पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों का प्राथमिक आरोप ये था कि कन्नड़ के लेखक कालबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी ने उनकी शोकसभा आयोजित नहीं की । जब ये आरोप जोरशोर से उठा तब जाकर साहित्य अकादमी ने बेंगलुरू में आयोजित शोकसभा की तस्वीरें और अखबारों में छपी खबरें जारी की लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी के संवेदनहीन बयान से लेखकों का गुस्सा भड़का दिया ।लेखकों के पुरस्कार वापसी के विरोध में भी सैकड़ों लेख लिखे गए । सत्ताधारी दल के नेताओं ने इसको बिहार चुनाव से जोड़ने की कोशिश की । वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसके खिलाफ ब्लॉग लिखा लेकिन पुरस्कार वापसी का सिलसिला जारी रहा । लेखकों का आरोप था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी असहिष्णुता के मसले पर खामोश हैं । बाद में प्रधानमंत्री ने अपने लंदन दौरे के वक्त और राष्ट्रपति ने कई बार भारतीय समाज में सहिष्णुता को लेकर बयान दिए  । पुरस्कार वापसी से दबाव में आई साहित्य अकादमी ने कार्यकारिणी की आपात बैठक की और कालबुर्गी की हत्या की निंदा तो की ही पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों के आरोपों का जवाब देने का काम भी किया । इस बीच साहित्य अकादमी के दिल्ली मुख्यालय पर वामपंथी लेखकों ने मुंह पर कालीपट्टी बांधकर विरोध प्रदर्शन किया तो राष्ट्रवादी लेखकों के समूह ने भी पुरस्कार वापसी के खिलाफ प्रदर्शन किया । कुछ युवा उत्साही लेखकों ने किताब वापसी अभियान की शुरुआत की और साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटानेवाले लेखकों की किताबें वापस लौटाने उनके घर तक जा पहुंचे । अभी हाल ही में साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी ने लेखकों से पुरस्कार नहीं लौटाने की अपील की और ये भी फैसला किया कि जिन लेखकों ने पुरस्कार राशि के चेक अकादमी को भेजे हैं उनको नहीं भुनाया जाएगा । उसी दौर में कुछ फिल्मकारों ने भी राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाकर लेखकों का समर्थन किया था ।
दो हजार चौदह के दिसबंर में छत्तीसगढ़ सरकार ने रायपुर साहित्य महोत्सव का आयोजन किया था । इस आयोजन को लेकर दो-एक वामपंथी समीक्षकों ने वितंडा खड़ा करने की कोशिश की । वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना और विनोद कुमार शुक्ल की रायपुर साहित्य महोत्सव में उपस्थिति पर सवाल खड़े करते हुए अखबारों और पत्रिकाओं में लेख और जवाबी लेख लिखे गए । तीन चार महीने तक ये विवाद हिंदी साहित्य में गूंजता रहा था । वीरेन्द्र यादव के आरोपों का नरेश सक्सेना ने जोरदार तरीके से जवाब दिया था । इसके अलावा आलोचना पत्रिका के नए संपादक अपूर्वानंद ने पत्रिका के स्वरूप में बदलाव किया तो हिंदी में उसपर सवालिया निशान लगे । आलोचना में समाजशास्त्रीय लेखों की भरमार पर शंभुनाथ ने सवाल खड़े किए थे तो कुछ लोगों ने इसको वाणी प्रकाशन से अभय कुमार दूबे के संपादन में निकलने वाली पत्रिका प्रतिमान की अनुकृति करार दिया । साहित्य अकादमी ने गैंगटोक में भारतीय भाषा के लेखकों और प्रकाशकों के बीच संवाद का एक आयोजन किया था । इस कार्यक्रम में नेशनल बुक ट्रस्ट के चेयरमैन बल्देव भाई शर्मा,वरिष्ठ कवि अरुण कमल, लीलाधर जगूड़ी, उपन्यासकार अखिलेश, वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी के अलावा तमिल और तेलुगू के लेखकों और प्रकाशकों ने हिस्सा लिया था । उस गोष्ठी में बेहद सकारात्मक चर्चा हुई थी । यह वर्ष भीष्म साहनी का जन्म शताब्दी वर्ष था जिसको लेकर कई अहम आयोजन हुए । मशहूर लेखक शानी की रचनावली का विमोचन इस साल की अहम साहित्यक घटना रही ।
एक तरफ जहां पुरस्कार वापसी की धूम रही वहीं इस बार हिंदी के पुरस्कार विवादित नहीं हुए । हिंदी के वरिष्ठ लेखक और प्रेमचंद साहित्य के अध्येता कमल किशोर गोयनका को व्यास सम्मान से सम्मानित किया गया ।मराठी लेखक भालचंद्र नेमाड़े को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया । भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार कविता के लिए बाबुशा कोहली को उसकी पांडुलिपि प्रेम गिलहरी, दिल अखरोट और कहानी के लिए उपासना को प्रदान किया गया । साहित्य अकादमी का हिंदी भाषा के लिए युवा पुरस्कार भोपाल की कथाकार इंदिरा दांगी को दिया गया । इस साल का साहित्य अकादमी पुरस्कार वयोवृद्ध लेखक रामदरश मिश्र को उनके कविता संग्रह आग की हंसी पर दिया गया । इस वर्ष का कथाक्रम सम्मान मशहूर उपन्यासकार कथाकार अखिलेश को दिया गया । इसके अलावा उत्तर प्रदेश सरकार ने एक बार फिर से थोक के भाव से सरकारी पुरस्कार बांटे । हर साल पटना पुस्तक मेले में कविता के लिए दिया जानेवाला पुरस्कार इस बार युवा कवयित्री अर्चना राजहंस मधुकर को दिया गया ।

इस साल को काल के साल के तौर पर भी याद किया जाएगा । इस साल मशहूर साहित्यक हस्तियां एक एक करके दुनिया से चले गए । इस वर्ष इतना बड़ा साहित्यक खालीपन हुआ जिसकी भारपाई मुश्किल है । हिंदी के वरिष्ठ लेखक कृष्णदत्त पालीवाल, अपनी आत्मकथा लिखकर साहित्य जगत को झकझोर देनेवाले दलित लेखक प्रोफेसर तुलसीराम, मशहूर आलोचक विजय मोहन सिंह, वरिष्ठ कवि कैलाश वाजपेयी, वीरेन डंगवाल, सारिका पत्रिका के संपादक अवध नारायण मुदगल, उपन्यासकार महेन्द्र भल्ला, पंजाब के लेखक पुष्पपाल सिंह, वरिष्ठ लेखक कमलेश, नई कविता के दौर के चर्चित रही तिकड़ी में से एक जगदीश चतुर्वेदी का इस वर्। निधन हुआ जोकि साहित्य जगत के लिए बड़ा झटका रहा । वरिष्ठ आलोचक डॉ गोपाल राय, वरिष्ठ कथाकार डॉ महीप सिंह के अलावा समाजवादी चिंतक कृष्णनाथ का निधन भी साहित्य के लिए बड़ी क्षति रही । हिंदी के लेखकों के अलावा तमिल लेखक जयकांतन, जर्मन लेखक गुंटर ग्रास, लाठोर लुत्से, उर्दू के लेखक अब्दुल्ला हुसैन के निधन से भी विश्व साहित्य का कोना सूना हो गया । पत्रकारिता जगत से वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता, प्रफुल्ल बिदबई और चंदामामा पत्रिका के लंबे समय तक संपादक रहे बालशौरी रेड्डी का निधन भी हमें झकझोर गया । मशहूर कार्टूनिस्ट और आम आदमी को अपने स्केच के माध्यम से उकेरने वाले आर के लक्ष्मण भी नहीं रहे । 

Wednesday, December 23, 2015

आतंक से मुक्त हो सोशल साइट्स

देश में इंटरनेट के फैलाव के बाद तेजी से सोशल मीडिया ने अपने पांव-पसारे हैं । शहरों से लेकर गांवों तक में फेसबुक के कंज्यूमरों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है । ट्विटर के यूजर्स भी लगातार बढ़ रहे हैं । प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार के मंत्रियों और विभागों के ट्विटर पर सक्रिय होने की वजह से आम आदमी के बीच भी इस माध्यम को लेकर उत्सुकता बढ़ी है । इसका नतीजा यह हुआ है कि फेसबुक और ट्विटर हमारे देश के गांवों तक अपनी पैठ बनाने में कामयाब हो चुका है । स्मार्ट फोन और इंटरनेट पैक के सस्ता होने से भी फेसबुक की लोकप्रियता में खासा इजाफा हुआ है । डिजीटल क्रांति के इस दौर में ये बेहतर है कि हम भी दुनिया के अन्य देशों की तरह ही सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म का उपयोग करने में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं । लेकिन इस मीडिया के अपने खतरे भी हैं । इन खतरों से सचेत रहने और उसको रोकने की दिशा में भी कदम उठाने की आवश्यकता है । अभी हाल ही में खबर आई कि जयपुर में रहने वाला एक तीस साल का मार्केटिंग मैनेजर खूंखार आतंकवादी संगठन आई एस के संपर्क में था और उसके लिए काम कर रहा था । उसकी गिरफ्तारी के बाद पूछताछ में ये बात सामने आई कि वो देश के युवाओं को सोशल मीडियाके माध्यम से प्रतिबंधिक आतंकवादी संगठन आई एस में भर्ती करने का काम कर रहा था । उसके फेसबुक पर अपनी कई फेक आईडी बनाई हुई थी जिसके मार्फत वो हजारों लोगों के संपर्क में था और आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दे रहा था । वो ना केवल फेसबुक पर सक्रिय था बल्कि व्हाट्स एप और टेलीग्राम जैसे नेटवर्किंग टूल्स का भी इस्तेमाल कर रहा था । वो फेसबुक पर डायरी ऑफ अ मुजाहदीन के नाम से एक पेज भी चला रहा था । इस पेज के माध्यम से वो सिस्टम से खपा युवकों की तलाश कर उसको आतंकवादी बनाने की कोशिश करता था । पुलिस की आगे की जांच में पता चलेगा कि उसके मंसूबे क्या थे लेकिन जो जानकारियां छन कर आ रही हैं उसके हिसाब से उसके मंसूबे बेहद खतरनाक थे । इसी तरह से पुणे की एक सोलह साल की लड़की को आई एस ने अपने चंगुल में ले लिया । कॉंन्वेंट स्कूल की छात्रा को आई एस के श्रीलंका के एक ऑपरेटिव ने पहले अपने चंगुल में फंसाया और फिर उससे फेसबुक और ट्विटर के जरिए उसका ब्रेनवॉश शुरू हो गया । उसके बाद कई मैसेज इस बात की पुष्टि करते हैं कि आई एस ने उस नाबालिग लड़की को सीरिया में आतंकवादी संगठन ज्वाइन करने के लिए राजी कर लिया था और वो चंद दिनों बाद वहां जाने को तैयार हो गई थी । इससे भी खतरनाक बात यह हुई कि जब से वो आई एस के आतंकवादियों के संपर्क में आई तो उसने जीन्स और शर्ट पहनना छोड़कर बुर्का पहनना शुरू कर दिया । ये दो उदाहरण है कि किस तरह से सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर आतंकवादी संगठन हमारे देश में पांव पसार रहे हैं । इस साल फरवरी में केंद्र सरकार ने आई एस पर बैन लगा दिया था और कहा था कि ये आतंकवादी संगठन भारत समेत पूरी दुनिया के युवाओं को दिग्भ्रमित कर रैडिकलाइज कर रहा है । इस प्रतिबंध के बावजूद सोशल मीडिया के जरिए ये आतंकवादी संगठन पूरे देश में सक्रिय है

बावजूद इसके सोशल मीडिया आतंकवादी संगठन आई एस और उसके समर्थकों के पेज को हटाने को तैयार नहीं है । खबरों के मुताबिक पैरिस में हुए आतंकवादी हमले के बाद एक शख्स ने आई एस के पेज को लेकर शिकायत भेजी थी लेकिन फेसबुक ने कहा था कि वो उसके कम्युनिटि स्टैंडर्ड और नीतियों के खिलाफ नहीं है । दरअसल इन फैन पेज पर जाने के बाद वहां सक्रिय लोग विजिटर को आई एस के नियंत्रण वाले बेवसाइटस पर रिडायरेक्टर कर देते हैं । यही हालत ट्विटर की भी है जहां कोई भी खलीफा न्यूज जैसे कई हैंडल सक्रिय हैं जो आई एस की जानकारियां साझा करते रहते हैं । ट्विटर पर आई एस के समर्थकों की पूरी फौज है जिनकी पहचान करना आसान नहीं है लेकिन वो खामोशी के साथ अपने काम को अंजाम देते रहते हैं । कुछ दिनों पहले तक पाकिस्तानी आतंतवादी हाफिज सईद भी ट्विटर पर खासा सक्रिय था बाद में उसके अकाउंट को सस्पेंड किया गया । इसी तरह से यूट्यूब पर आई एस की आतंकवादी करतूतों के कई दिल दहलाने वाले वीडियो मौजूद हैं । इस वक्त हमारे देश को आतंकवादियों से जबरदस्त खतरा है ऐसे में सोशल मीडिया साइट्स की निगरानी आवश्यक है । इसका मतलह यह कतई नहीं है कि इन साइट्स पर किसी भी तरह की सेंसरशिप होनी चाहिए बल्कि सोशल मीडिया पर आतंकवादी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए कोई मैकेनिज्म बनाया जाना चाहिए । दरअसल ये साइट्स पूरी दुनिया में लोग उपयोग करते हैं, लिहाजा आतंकवादी संगठनों के समर्थकों पर नजर रखना काफी मुश्किल काम है । परंतु हमारे देश में फेसबुक पर फेक आईडी बनाकर आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देनेवालों और अफवाह फैलाने वालों पर लगाम लगाने के लिए फोन नंबर या आधार कार्ड नंबर को प्रोफाइल के साथ अनिवार्य किया जा सकता है । मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक दंगों के दौरान फेसबुक का कितना गलत इस्तेमाल हुआ ये पूरी दुनिया ने देखा । कई बार तो अफवाह फैलाने वालों की पहचान हो जाती है लेकिन कई बार जब फेक आई डी विदेश से बनाई जाती है और उसका इस्तेमाल किया जाता है तब उसको ट्रैक करना बहुत मुश्किल होता है । कार्रवाई करना तो लगभग नामुमकिन ही होता है । इसके अलावा इन सोशल साइट्स को भारत में अपने सर्वर लगाने की भी आवश्यकता है । फेसबुक और ट्विटर भारत सरकार के साथ कई महात्वाकांक्षी योजनाओं को आगे बढ़ाने का मंसूबा पाले बैठे हैं लेकिन उनको पहले बारत की इन चिंताओं पर भी ध्यान देना होगा । 

Sunday, December 20, 2015

नियम से उठता विवाद

साल खत्म होने के पहले दिसंबर माह में साहित्य अकादमी पुरस्कार का एलान होने की परंपरा है । अपने उसी परंपरा के निर्वाह में साहित्य अकादमी ने इस वर्ष के पुरस्कारों का एलान कर दिया है । इस वर्ष हिंदी भाषा के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार वरिष्ठतम कवि, कथाकार, उपन्यासकार, निबंधकार रामदरश मिश्र को उनके कविता संग्रह- आग की हंसी - पर दिया गया । रामदरश मिश्र जी नब्बे पार के लेखक हैं और उनको बहुत पहले अकादमी पुरस्कार मिल जाना चाहिए था लेकिन उस वक्त अकादमी में कुछ खास लोगों और विचारधारा का दबदबा था, लिहाजा रामदरश जी की अनदखी होती रही । अब उम्र के इस पड़ाव पर अपेक्षाकृत कमजोर कृति पर जब उनको पुरस्कार देने का एलान हुआ है तो अकादमी के नियमों को लेकर सवाल खड़े होते हैं । रामदरश जी के चयन पर सवाल खड़ा करना उचित नहीं है लेकिन जिस तरह से अकादमी ने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए उनको पुरस्कृत किया उसपर तो प्रश्नचिन्ह लगता ही है । अकादमी पुरस्कार में तमाम गोपनीयता के दावों के बावजूद साहित्यक हलके में इस बात की चर्चा थी कि इस बार का पुरस्कार रामदरश जी को दिया जाएगा। पुरस्कार के एलान के पहले सोशल मीडिया पर ये नाम खुल भी चुका था । दरअसल साहित्य अकादमी की मजबूरी थी कि पुरस्कार वापसी के कोलाहल के बीच वो ऐसे लेखक को पुरस्कृत करे जो पुरस्कार लेने से इंकार ना करे । रामदरश मिश्र इस कसौटी पर खड़े उतरते थे । पुरस्कार वापसी के एलान के बाद से ही अकादमी के कर्ता-धर्ता इस जुगाड़ में लग गए थे कि ऐसे लेखक को पुरस्कृत करने के लिए खोजा जाए जो विवादित ना हो । इस बात की तैयारी आधार सूची बनाने के वक्त से ही शुरू कर दी गई थी । खबर है कि जिस लेखक को आधार सूची बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी उसको पर्याप्त संकेत दे दिए गए थे । फिर हिंदी भाषा के लिए पुरस्कार देने के लिए जूरी बनाते वक्त भी इस बात का ध्यान रखा गया । विश्वनाथ तिवारी के बाद हिंदी भाषा के संयोजक बनाए गए गजलकार माधव कौशिक इसके जूरी में रखे गए । माधव कौशिक अकादमियों के माहिर खिलाड़ी रहे हैं और उनको मालूम है कि कौन सा काम किस तरीके से किया जाता है । माधव कौशिक के अलावा रामजी तिवारी और महेन्द्र मधुकर जूरी के सदस्य बनाए गए जिन्होंने रामदरश मिश्र के नाम पर मुहर लगाई  । जूरी के सदस्यों के नाम को देखकर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि तैयारी कितनी पुख्ता रही थी । साहित्य अकादमी पुरस्कारों और उसके क्रियाकलापों में पारदर्शिता की सख्त आवश्कता है ।

लगभग बानवे साल के रामदरश मिश्र को पुरस्कृत करने के बाद अब लगता है कि साहित्य अकादमी को पुरस्कार के नियमों में परिवर्तन कर कृति के बजाय लेखकों को उनके अवदान पर पुरस्कार देना चाहिए यानि कि लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड । जिस तरह से मृदुला गर्ग को, गोविन्द मिश्र आदि को उनकी कम महत्वपूर्ण कृतियों पर पुरस्कृत किया गया उससे तो यही लगता है । नियमानुसार अकादमी को पिछले तीन साल में चर्चित किताबों पर पुरस्कार देना होता है । विश्वनाथ तिवारी के अध्यक्ष बनने के बाद से उन लेखकों को पुरस्कृत किया जाने लगा है जो प्रतिष्ठित हैं, पूर्व में बेहतर किताबें लिख चुके हैं, जिनकी काफी लंबी उम्र है और जिनकी कोई ना कोई किताब उस दौरान छपी हो । इसके कई फायदे होते हैं । लेखक की उम्र और लेखकीय प्रतिष्ठा के मद्देनजर पुरस्कार के चयन पर विवाद नहीं होता है । दूसरा अकादमी यह भी दिखाने में सफल हो जाती है कि उसने उस लेखक को पुरस्कृत कर दिया जिनकी पूर्व में अनदेखी हुई थी । वक्त आ गया है कि अकादमी के संविधान की पुनर्समीक्षा की जाए । 

साहित्य में अश्लीलता

साहित्य में भाषा का सवाल गाहे बगाहे उठता रहा है । जब भी कोई ऐसी कृति आती है जिसमें भाषा की स्थापित मर्यादा टूटती है तो साहित्य जगत में उसपर व्यपक विचार विमर्श होता है । कृतियों के अलावा भी अगर कोई लेखक या साहित्यकार अपने साक्षात्कार में कथित तौर पर आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करता है तो उसपर भी साहित्यक जगत में प्रतिक्रिया होती है । बहुधा लेख आदि लिखकर तो कभी कभार धरना और विरोध प्रदर्शन भी होते रहे हैं । साहित्यक पत्रिका नया ज्ञानोदय में उस वक्त के महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने अपने साक्षात्कार में छिनाल शब्द का प्रयोग किया था तो मामला सरकार और मंत्री तक पहुंचा था । धरना और विरोध प्रदर्शन तो हुआ ही था और उनको खेद प्रकट करना पड़ा था । अभी कुछ दिनों पहले मराठी के मशहूर लेखक भालचंद नेमाड़े की किताब हिन्दू, जीने का समृद्ध कबाड़ अनुदित होकर प्रकाशित हुआ है । नेमाड़े मराठी के बेहद सम्मानित लेखक हैं और उनको ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है । नेमाडे अंग्रेजी के शिक्षक रहे हैं और लंदन के मशहूर स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में अध्यापन कर चुके हैं । कुछ दिनों पहले उनका सलमान रश्दी से विवाद भी हुआ था । रश्दी ने अपने एक ट्वीट में उनके बारे में लिखा था- ग्रम्पी ओल्ड बास्टर्ड, जस्ट टेक योर प्राइज एंड से थैंक यू नाइसली । आई डाउट यू हैव इवन रेड द वर्क यू अटैक । दरअसल नेमाडे ने एक कार्यक्रम में सलमान रश्दी की किताब मिडनाइट चिल्ड्रन को औसत साहित्यक कृति करार दिया था । नेमाडे ने कहा था कि सलमान रश्दी और वी एस नायपॉल पश्चिम के हाथों खेल रहे हैं । सलमान रश्दी को नेमाडे की बातें नागवार गुजरीं थी और उन्होंने भाषिक मर्यादा को ताक पर रखते हुए गाली गलौच की भाषा में ट्वीट किया था । उसके बाद समकालीन साहित्यक परिदृश्य में उबाल आया था और सलमान रश्दी की जमकर लानत मलामत की गई थी । इस प्रसंग को बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि भालचंद्र नेमाड़े के कहने का वैश्विक साहित्य जगत में असर होता है ।
उनकी ताजा किताब- हिन्दू, जीने का समृद्ध कबाड़, जो मूल कृति का हिंदी अनुवाद है, की खासी चर्चा रही लेकिन उनके इस किताब में कई प्रसंगों में इस्तेमाल किए गए शब्द अलक्षित रह गए । इस किताब के ब्लर्ब पर लिखा है देसी अस्मिता का महाकाव्य यह उपन्यास भारत के जातीय स्व का बहुस्तरीय, बहुमुखी, बहुवर्णी उत्खनन है । यह ना गौरव के किसी जड़ और आत्मुग्ध आख्यान का परिपोषण करता है, न अपने के नाम पर संस्कृति के रगों में रेंगती उन दीमकों का तुष्टीकरण, जिन्होंने भारतवर्षको भीतर से खोखला कर दिया है । यह उस विराट इकाई को समग्रता में देखते हुए चलते हुए देखता है जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं ।ब्लर्ब लेखक का नाम नहीं होने से यह माना जाता है कि लेखक और प्रकाशक दोनों इससे सहमत होंगे और ये पाठकों को कृति की ओर खींचने के लिए लिखा गया है । इस कृति को देसी अस्मिता का महाकाव्य बताया गया है । नेमाड़े जी से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि इस कृति में करीब आधा दर्जन जगहों पर आपने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया है वो किस देसी अस्मिता को प्रतिबिंबित करता है । अगर एक बार को यह मान भी लिया जाय कि इस तरह की भाषा कभी कभार निजी बातचीत में बोली जाती है तो क्या उसको हम अपने देश की संस्कृति के तौर पर पेश कर सकते हैं जिसका दावा भालचंद नेमाड़े करते हैं । एक जगह पुलिस वाले गश्ती के दौरान युवकों को मां की गाली देते हैं जिसको अक्षरश: प्रकाशित कर दिया है । उसी बातचीत के क्रम में लेखक ने लिखा है कि- उसे पारधी लड़कों ने बताया था कि पुलिसवाले थाने ले जाकर गXX में डंडा घुसेड़ते हैं । इसी तरह से एक दूसरा प्रसंग कहार बस्ती की एक औरत का संवाद है । यहां तो हद कर दी गई है । अपने और लड़के की जननांगों के बारे में कहते कहते लेखक का पात्र महात्मा गांधी के जननांगों का हवाला देते हुए उसकी बहन के साथ संबंध बनाने की गाली देने लग जाता है । यह अंश बेहद आपत्तिजनक है और पात्रों की आपसी बातचीत में सहजता से आनेवाली बातचीत से ज्यादा प्रचार पाने के लिए ठूंसा गया प्रसंग अधिक लगता है । गाली में महात्मा गांधी का प्रयोग अबतक साहित्य में नहीं देखा गया था और इस मामले में भालचंद्र नेमाड़े को इसका प्रणेता कहा जा सकता है ।
नेमाड़े को और इस किताब के प्रकाशक, राजकमल प्रकाशन, को लगता है कि हाल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जानकारी नहीं है । इस साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने एक संपादक के खिलाफ आरोप हटाने से इंकार कर दिया था । एक पत्रिका ने उन्नीस सौ चौरानवे में महात्मा गांधी के बारे में एक अश्लील और भद्दी कविता प्रकाशित की थी । सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने साफ तौर पर कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश के ऐतिहासिक आदरणीय महापुरुषों के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देता है । सुप्रीम कोर्ट ने बांबे हाईकोर्ट के फैसले को बरकार रखा था जिसमें संपादक की याचिका खारिज करने की मांग को रद्द कर दिया गया था । इसके अलावा भी सुप्रीम कोर्ट कई मौकों पर इस तरह की टिप्पणी कर चुका है । गांधी हमारे पूरे देश में समादृत हैं और उनको लेकर इस तरह की घोर आपत्तिजनक टिप्पणी भालचंद्र नेमाड़े और उनके प्रकाशक को मुश्किल में डाल सकती है । लगभग साढे पांच सौ पन्नों के इस उपन्यास में नेमाड़े ने भाषा की मर्यादा को तार-तार किया है ।
हिंदी में साहित्यक कृतियों में अश्लीलता के सवाल पर कई बार लंबी लंबी बहसें भी हुई हैं । द्वारका प्रसाद मिश्र की कृति -घेरे के बाहर- की भाषा और उसके विषय को लेकर उसको प्रतिबंधित भी किया गया था जो काफी बाद में प्रकाशित हुआ । अज्ञेय की कृति -शेखर एक जीवनी - भी जब प्रकाशित हुई थी तब भी उसमें भाई-बहन के संबंधों के चित्रण को लेकर खासा हंगामा मचा था । उसी तरह से कृष्णा सोबती को अपने उपन्यास में एक शब्द के इस्तेमाल पर बोल्ड लेखिका करार दे दिया गया था । मृदुला गर्ग के उपन्यास चितकोबरा के प्रकाशन के बाद सेक्स संबंधों और उसके उपन्यासों में चित्रण को लेकर हिंदी साहित्य में खासा विवाद हुआ था । मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास इदन्नमम और अलमा कबूतरी में वर्णित सेक्स प्रसंगों को लेकर अब भी उनकी लानत मलामत की जाती है । शरद सिंह ने अपने एक उपन्यास पिछले पन्ने की औरतों में भी एक प्रसंग में स्त्री के निजी अंगों के बारे में लिखा था जिसको लेकर भी बहस हुई थी । कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा में संबंधों को लेकर विवाद उठा था । हिंदी साहित्य में इस पर लंबे समय से वाद-विवाद होता रहा है कि भाषा कैसी हो । कई लेखक तो अपनी कृतियों में उसी तरह से जबरदस्ती सेक्स प्रसंगों को ठूंसते हैं जिस तरह से कहानी की बगैर मांग के हिंदी फिल्मों में नायक नायिका के बारिश में भीगते हुए गाने फिल्माए जाते हैं । हाल के दिनों में सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कहानी और उपन्यासों में जबरदस्ती सेक्स प्रसंग ठूसने की प्रवृ्ति ने जोड़ पकड़ा है । जिस तरह से फिल्म में काम करनेवाली नायिकाओं को लगता है कि कम कपड़े पहनने से वो जल्द से जल्द स्टारडम हासिल कर लेगी उसी तरह से हिंदी के चंद युवा लेखकों को भी लगता है कि कथित तौर पर बोल्ड प्रसंगों को लिखकर स्थापित हो जाएंगे । अभी हाल ही में हिंदी की एक वयोवृद्ध लेखिका रमणिका गुप्ता की आत्मकथा आपहुदरी प्रकाशित हुई है जिसमें सेक्स प्रसंगों की भरमार है जो जुगुप्साजनक है । पोर्न साहित्य का भी एक सौंदर्यशास्त्र होता है लेकिन रमणिका गुप्ता ने तो पता नहीं क्या लिखा है । उसको परिभाषित करने के लिए वक्त देना वक्त जाया करने जैसा है ।
बावजूद इसके उक्त कृतियों में किसी महापुरुष को लेकर भद्दी टिप्पणी नहीं की गई है । नेमाड़े ने महात्मा गांधी पर तो टिप्पणी की ही है गालियों में भी उन शब्दों को लिख डाला है जो अबतक वर्जित रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भी हैं । काशी का अस्सी में काशी नाथ सिंह ने भी गालियों का इस्तेमाल किया है, राही मासूम रजा ने आधा गांव में गालियों का उपयोग किया है लेकिन इस तरह से नहीं जिस तरह से नेमाड़े ने अपने उपन्यास में किया है । नेमाड़े ने तो फुटपाथ पर पीली पन्नी में बिकनेवाली किताबों की भाषा का इस्तेमाल कम से कम आधे दर्जन जगहों पर किया है ।  नेमाड़े के इस उपन्यास में उन शब्दों के उपयोग के बाद एक बार फिर से ये सवाल खड़ा हो गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लेखकों को कितनी और कहां तक जाने की छूट मिली चाहिए ।  



Monday, December 14, 2015

रॉयल्टी का रगड़ा

असम की एक लेखिका शर्मिष्ठा प्रीतम, जो व्हीलचेयर के सहारे अपनी जिंदगी गुजार रही हैं, ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को खत लिखकर नेशनल बुक ट्रस्ट से छपी अपनी किताब की रॉयल्टी दिलवाने की मांग की है । शर्मिष्ठा ने प्रधानमंत्री को लिखे अपने खत में बताया है कि साल दो हजार चौदह में उनकी किताब प्रकाशित हुई थी, लेकिन करीब डेढ साल बीत जाने के बाद भी उनको ना तो एग्रीमेंट की कॉपी मिली और ना ही रॉयल्टी ।उनका आरोप है कि किताब छपने के पहले ये वादा किया गया था कि एडवांस रॉयल्टी दी जाएगी जिसका उनको अबतक इंतजार है । शर्मिष्ठा का कहना है कि उन्होंने जब भी नेशनल बुक ट्र्स्ट के अफसरों से संपर्क किया तो उनको रटा रटाया जवाब मिला कि कार्यवाही चल रही है । उनका कहना है कि वो आठ साल की उम्र से चल फिर नहीं सकती हैं जिसकी वजह से वो बार बार दिल्ली जाकर इस काम को करवाने की स्थिति में नहीं हैं । यह एक ऐसी स्थिति है जिसका सामना हर भाषा के लेखक को करना पड़ता है । यह स्थिति है नेशनल बुक ट्रस्ट की. जो भारत सरकार यानि कि करदाताओं के पैसे से चलती है । रॉयल्टी के मुद्दे पर विवाद की गूंज गाहे बगाहे हिंदी में भी सुनाई देती रहती है । लेखकों की हमेशा से शिकायत रहती है कि प्रकाशक उनकी किताबों की बिक्री का आंकड़ा सही तरीके से उनके सामने पेश नहीं करते हैं । नतीजा यह होता है कि उनको अपेक्षित रॉयल्टी नहीं मिल पाती है ।  रॉयल्टी का ये झगड़ा बहुत पुराना है लेकिन इसकी तरफ गंभीरता से कभी भी लेखकों और प्रकाशकों ने साथ मिलकर नहीं सोचा ।
दरअसल अगर हम गंभीरता से विचार करें तो ये लगता है कि हिंदी में लेखकों और प्रकाशकों के संबंध बहुत प्रोफेशनल कभी नहीं रहे । ज्यादातर किताबें मौखिक सहमति और लेखक-प्रकाशक संबंधों के आधार पर छपती रही हैं । कई बार एग्रीमेंट हो जाता है पर बहुधा छपने के पहले एग्रीमेंट नहीं होता है । किताब छपने के पहले लेखकों को लगता है कि किसी तरह से बड़े प्रकाशक के यहां से किताब छप जाए । ज्यादातर प्रकाशकों की तरफ से भी एग्रीमेंट को लेकर ढिलाई बरती जाती रही है । हिंदी के एक दो अग्रणी प्रकाशकों ने अब इस दिशा में गंभीरता से काम शुरू कर दिया है और अपने कारोबार को बेहद प्रोफेशनल तरीके से चलाने की राह पर बढ़े है। लेकिन सवाल यही है कि यह एक इतना सरल मुद्दा नहीं है कि एक दो प्रकाशकों के आगे बढ़ने से ये हल हो जाए । हिंदी में लंबे समय से ये समस्या रही है । लोक और जन की बात करनेवाले लेखकों के दबदबे वाले काल में भी इस दिशा में कुछ नहीं सोचा गया । आजादी पूर्व बने प्रगतिशील लेखक संघ से लेकर जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की । अपने अपने संगठनों से संबद्ध लेखकों को आगे बढ़ाने का इन लेखक संघों ने किया लेकिन उनके बुनियादी अधिकारों के लिए कोई लड़ाई उन्होंने नहीं लड़ी । ना तो लेखकों और प्रकाशकों के बीच के एग्रमेंट को बेहतर बनाने की कोशिश की गई और ना ही लेखकों के हितों के लिए प्रकाशकों के साथ बैठक कर हल निकालने की कोशिश की गई । असहिष्णुता के नाम पर मुंह पर पट्टी बांधकर साहित्य अकादमी की परिक्रमा करनेवाले लेखकों को भी कभी अपने अधिकारों की याद नहीं आई । साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटानेवाले लेखकों ने कभी भी अकादमी पर इस बाबत दबाव बनाया हो यह बात सामने नहीं आई । लेखकों के मुद्दे पर लेखक संगठनों की निष्क्रियता और लेखकों के बीच एक दूसरे को लेकर उपेक्षा का भाव इस समस्या के जड़ में है । हिंदी के ज्यादातर लेखकों की सोच बहुत सीमित हो गई है । आवश्यकता है अपने सोच का दायरा बढ़ाने की ।


Sunday, December 13, 2015

कविता में इमरजेंसी जैसे हालात

इन दिनों पूरे देश में साहित्य उत्सवों की धूम है, दिल्ली से लेकर पटना तक, बंगलुरू से लेकर मुंबई तक । दरअसल हर साल दिसंबर  से लेकर फरवरी तक ज्यादातर साहित्यक मेलों का आयोजन होता हैं । इन साहित्यक आयोजनों में विवादों को सायास उठाया जाने लगा है बावजूद इसके कुछ आयोजनों में सार्थक विमर्श भी होते हैं । साहित्यक प्रवृतियों के बारे में वरिष्ठ लेखकों की राय सामने आती है । साहित्य पर मौजूदा या आसन्न खतरों पर बात की जाती है । पटना में जारी पटना पुस्तक मेला के जनसंवाद कार्यक्रम में एक सत्र था- नई सदी की कविताई । इस सत्र में युवा कवियों राकेश रंजन, नताशा, संजय कुंदन, और स्मिता पारिख ने अपनी कविताओं का पाठ किया । लेकिन असली बात हुई कविता पाठ के बाद जब इन युवा कवियों को सुनने के बाद हिंदी के वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा से इस विषय पर बोलने का आग्रह किया गया । आलोक जी ने कविता को लेकर कई गंभीर सवाल उठाए । उन्होंने इशारों में यह सवाल उठाया कि किस वजह से कविता आज पाठकों से दूर होती जा रही है और पाठकों को कविता की ओर लाने के लिए क्या प्रयास किए जाने चाहिए ।  इस संदर्भ में आलोक धन्वा ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिन की कविताओं और उनके मंच पर उसके पाठ करने से पैदा होनेवाले प्रभाव का उल्लेख किया । आलोक धन्वा ने रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविताओं का पाठ भी किया । उन्होंने दिनकर की मशहूर काव्य कृति रश्मिरथी के उस प्रसंग को बताया जहां कर्ण का निकट अंत आ गया था और वो शल्य से कहता है कि घोडों को तेज चलाकर उस जगह पर ले चले जहां कृष्ण और अर्जुन मौजूद हैं । कर्ण के रथ का पहिया रक्त से पंकिल जमीन में इस कदर फंसा गया कि वो कर्ण के निकाले भी नहीं निकल रहा था । अपनी काव्य कृति रश्मि रथी में दिनकर इस स्थिति को यूं कहते हैं महि डोली/ससिल-आगार डोला/भुजा के जोर से संसार डोला/न डोला, किंतु , जो चक्का फंसा था /चला वह जा रहा नीचे धंसा था । इस स्थिति को देखते हुए युद्ध के मैदान में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यही मौका है और कर्ण का वध कर दो । अर्जुन यहां भी तर्क करने लग जाते हैं कि ये उचित नहीं होगा क्योंकि कर्ण विरथ है । कृष्ण एक बार फिर से अर्जुन को समझाते हैं जिसको दिनकर अपनी कविता में यूं वयक्त करते हैं खड़ा है देखता क्या मौन भोले?/शरासन तान, बस, अवसर यही है/घड़ी फिर और मिलने को नहीं है/विशिख कोई गले के पार कर दे /अभी ही शत्रु का संहार कर दे । आलोक धन्वा ने कहा कि दिनकर जब इन कविताओं का पाठ करते थे तो ऐसा प्रतीत होता था कि युद्ध का वो पूरा प्रसंग पाठकों की आंखों के सामने जीवंत हो उठा है । आलोक जी भी जब दिनकर की कविताओं का पाठ कर रहे थे तो पूरे सभागार में सन्नाटा छाया था और कविता रसिक श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे । आलोत धन्वा का मानना था कि जब कविताएं कवियों से सुनी जाती हैं तो उलका एक अलग प्रभाव पाठकों के मन पर पड़ता है । कविता पाठकों को अपने साथ बहाने लग जाती है । उनके मुताबिक कवि और कविता को पाठकों के साथ सीधे संवाद करना चाहिए और यह कविता पाठ से ही संभव है । अपनी बात को मजबूती देने के लिए आलोक धन्वा ने हरिवंश राय बच्चन, जयशंकर प्रसाद आदि की कविताओं को उद्धृत किया । बच्चन की कविताओं की लोकप्रियता की वजह भी उनका पाठ था । आलोक धन्वा के पहले मुंबई की कवयित्री स्मिता पारिख के संग्रह नज्मे इंतजार की का विमोचन करते हुए हिंदी के वरिष्ठतम कवियों में से एक केदारनाथ सिंह ने भी कुछ इसी तरह की बात की थी । केदार जी ने कहा कि कविता लिखे से ज्यादा पढ़े जाने की चीज है । पहले तो वहां मौजूद दर्शकों को लगा कि केदार जी पता नहीं क्या कहना चाह रहे हैं लेकिन बाद में उन्होंने साफ किया कि कवि के लिए कविता लिखना जितना महत्वपूर्ण है पाठकों के लिए उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कवि उन कविताओं का पाठ करे । उन्होंने कहा कि स्मिता की कविताएं मंचों पर पढ़ी जानी चाहिए ।

कविता को लेकर कई वरिष्ठ कवियों और लेखकों ने चिंताएं व्यक्त की हैं । कवि नरेश सक्सेना ने भी कुछ दिनों पहले अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि एक छोटी लाइन और एक बड़ी लाइन लिखकर लोग समझते हैं कि वो कवि हो गए हैं । उनके मुताबिक इस तरह की कविताओं ने छंदशास्त्र को भी निगेट किया । इसी तरह की बात कई वरिष्ठ कवि लेखक अलग अलग मंचों पर अलग अलग तरीके से कह चुके हैं । इन कवियों की चिंताओं के केंद्र में कविता का पाठकों से दूर होते जाना है । केदार नाथ सिंह जब यह कहते हैं कि कविता लिखे से ज्यादा पढे जाने की चीज है तो वो मंच से कविता पाठ की वकालत करते हुए नजर आते हैं । मंच से कविता पाठ की संस्कृति का लगभग खत्म हो जाने का हिंदी कविता को बहुत नुकसान हुआ । साठ के अंतिम वर्षों या सत्तर के दशक की शुरुआत के बाद मंच पर कविता पाठ करनेवालों कवियों को मंचीय कवि कहकर हेय दृष्टि से देखे जाने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा । इसका नतीजा यह हुआ कि बड़े पैमाने पर आयोजित किए जानेवाले कवि सम्मेलनों में बड़े कवियों ने जाना पहले कम किया और फिर बंद कर दिया । क्योंकि माहौल ही ऐसा बना दिया गया कि जो मंच पर कविता पाठ करेगा उसको प्रतिष्ठा नहीं मिल सकती है । इस प्रचार से कुछ तुकबंदी करनेवाले कवियों की पौ बारह हो गई । संजीदगी से कविताई करनेवाले नेपथ्य में चले गए और कविता के नाम पर चुटकुले सुनानेवाले बढ़ते गए । इससे उस दुष्प्रचार को बल मिला कि मंच पर गंभीर कवि कविता पाठ नहीं करते हैं । बहुत दिन नहीं बीते हैं जब हिदी की साहित्यक पत्रिका पाखी में मंचीय कवि कुमार विश्वास का एक साक्षात्कार छपा था तो कविता के मठधीशों और उनके चेलों ने बवाल खड़ा कर दिया था । कुमार को और पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज को इस बावत सफाई देनी पड़ी थी । कुमार ने तो बेहद तल्ख अंदाज में अपनी बात रखी और साहित्यक लॉबियों पर सवाल खड़ा कर दिया । यह ठीक है कि कुमार कई बार तुकबंदियां करते हैं लेकिन उनकी कविताओं ने हिंदी कविता को एक नया पाठक वर्ग तो दिया ही है । हिंदी में मंचीय कवि, लुगदी साहित्य, पॉपुलर कल्चर, पॉपुलर सिनेमा आदि शब्द नकारात्मकता के साथ प्रचारित कर दिए गए । ये शब्द उस दौर में नकारात्मक हुए जिस दौर में हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता, जनवादिता का जोर चल रहा था । इस बात की गंभीरता से पड़ताल होनी चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ कि मंच पर कविता पाठ करनेवाले कवियों को मुख्यधारा का कवि नहीं माना गया, बल्कि उनके मूल्यांकन में भी भेदभाव बरता गया । दिनकर जी जैसे बड़े कवि को प्रगतिशील आलोचकों ने वो स्थान नहीं दिया जिसके वो हकदार थे । निराला के उन लेखों को सायास छुपा दिया गया जो कि उन्होंने कल्याण पत्रिका में लिखे थे । निराला के कल्याण में छपे लेखों को दबा देने के पीछे की मंशा सिर्फ इतनी नजर आती है कि उनका वामपंथ की तरफ के झुकाव को उभार कर स्थापित किया जा सके  । वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र की किताब -पत्रों में समय संस्कृति- से यह बात साफ है कि निराला जी ने कल्याण पत्रिका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के अनुरोध पर कई लेख लिखे थे । उनको सामने आना चाहिए ।   इस तरह की हरकतों या तिकड़मों का नतीजा यह हुआ कि पाठकों के बीच कविता को लेकर एक संस्कार या पढ़ने की संस्कृति का विकास बाधित हो गया । लंबे समय तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया जिसकी वजह से कविता के नए पाठक बनने बंद हो गए । आज हिंदी में कविता की इतनी बुरी गत हो चुकी है कि कोई भी प्रकाशक कविता संग्रह छापने में रुचि नहीं दिखाता है । वरिष्ठ कवियों को भी इस दिक्तत का सामना करना पड़ता है युवाओं की तो बात ही छोड़ दीजिए । कवियों को पैसे देकर अपनी किताबें छपवानी पड़ रही हैं । अब जब कविता को लेकर साहित्य में इमरजेंसी जैसे हालात हो गए हैं तो वरिष्ठ जनों का ध्यान इस ओर गया है जो कि साहित्य में कविता की वापसी के लिए किए जा रहे प्रयत्नों के संकेत के तौर पर देखा जाना चाहिए । लेकिन वरिष्ठ कवियों का इतना कहना भर ही काफी नहीं है उनको मंचों पर जाकर अपनी कविताओं का पाठ कर पाठकों को कविता की ओर वापस लाने का भागीरथ प्रयास करना होगा । अगर वो इस तरह की पहल करते हैं तो युवा कवियों को भी बल मिलेगा और संभव है कि साहित्य में कविता की वापसी हो जाए । 

Saturday, December 12, 2015

सियासी संग्राम में GST की बलि !

नेशनल हेराल्ड केस और जीएसटी में यूं तो प्रत्यक्ष रूप से कोई तार जुड़ता नहीं है क्योंकि एक तो कोर्ट में चल रहा केस है तो दूसरा देश में आर्थिक सुधार के लिए सरकार का एक ऐसा कदम है जिसको संसद की मंजूरी चाहिए । लोकतंत्र में कानूनी मुकदमों और विधायी कार्य के बीच कोई रिश्ता होता नहीं है बल्कि संविधान इस बात को मजबूती से कहता है कि विधायिका और न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से काम करते हैं । लेकिन नेशनल हेराल्ड में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की व्यक्तिगत पेशी से छूट के बाद जिस तरह से कांग्रेस सांसद दोनों सदनों में आक्रामक हुए हैं उससे जीएसटी बिल पर संकट के बादल छा गए हैं । संसद में जारी हंगामे के बीच जीएसटी बिल पर पक्ष और विपक्ष के बीच दूसरे राउंड की बातचीत नहीं हो सकी है । कांग्रेस का आरोप है कि बीजेपी सुब्रह्ण्यम स्वामी के कंधे पर बंदूक रखकर सोनिया-राहुल पर निशाना साध रही है । नेशनल हेराल्ड केस में पैसों की हेराफेरी का आरोप लगाकर स्वामी ने सोनिया और राहुल को केंद्र में बीजेपी की सरकार के आने के पहले ही अदालत में खींचा था । काफी लंबे वक्त तक इस मामले की सुनवाई चली । इस बीच सोनिया, राहुल और अन्य कांग्रेसी नेताओं ने दिल्ली हाईकोर्ट में इस केस में व्यक्तिगत पेशी से छूट के लिए याचिका दायर की । इस याचिका को खारिज करते हुए अदालत ने सोनिया और राहुल को दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत में पेश होने का आदेश दिया । इस आदेश के बाद शुरुआत में कांग्रेस नेताओं के बीच भ्रम की स्थिति दिखाई दी । पहले ये बात सामने आई कि हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाएगी लेकिन अदालत में सोनिया और राहुल ने साफ तौर पर कहा कि वो कोर्ट के सामने पेश होने के लिए तैयार हैं । अब उन्नीस दिसबंर को दोपहर तीन बजे सोनिया-राहुल दोपहर तीन बजे अदालत के सामने हाजिर होंगे । इस पूरे मामले को विस्तार से बताने का मकसद सिर्फ इतना है कि यह एक कानूनी प्रक्रिया है जिसके तहत सोनिया और राहुल को समन किया गया है । लेकिन कांग्रेस को इसमें राजनीति नजर आती है और वो सरकार पर राजनीतिक बदले की भावना का आरोप लगाते हुए संसद को ठप कर देती है । पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद तो यहां तक कह देते हैं कि बीजेपी सरकार गांधी परिवार, बिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम शंकर सिंह वाघेला आदि को जानबूझकर फंसाने की कोशिश कर रही है । कोर्ट के फैसले पर संसद ठप करने की यह पहली घटना है इसके पहले भी ऐसा हुआ है लेकिन कोर्ट के फैसले पर कई अहम बिल के ठप हो जाने की यह संभवत: पहली घटना हो सकती है । जीएसटी ही नहीं बल्कि कई और अहम बिल हैं जिनको संसद की मंजूरी चाहिए जिनमें रियलिटी सेक्टर में सुधार का बिल इस सेक्टर में आई मंदी को दूर करने के लिए बेहद अहम है ।  
जीएसटी पर सरकार और कांग्रेस के बीच बेहतर तालमेल की संभवना बन रही थी और उम्मीद की जा रही थी कि इस सत्र में ये बि पास हो जाएगा । सरकार की तरफ से बनाई गई विशेषज्ञों के पैनल ने सत्रह अठारह फीसदी की स्टैंडर्ड जीएसटी रेट की सिफारिश कर दी थी । इसके अलावा इस पैनल ने सर्विसेज की सप्लाई पर एक फीसदी के अतिरिक्त टैक्स को भी खत्म करने का सुझाव दिया था । ये दोनों कांग्रेस की मांग थी लेकिन कोर्ट के फैसले के बाद चेन्नई से राहुल गांधी ने साफ संदेश दे दिया कि वो सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति पर काम करेंगे । राहुल ने कहा कि सरकार सोचती है कि वो बदले की राजनीति से उनका मुंह बंदकर देगी लेकिन ऐसा होगा नहीं । उन्होंने जोर देकर कहा कि वो सरकार पर दबाव बनाते रहेंगे और अपना काम करते रहेंगे । राहुल के इस बयान से साफ है कि वो किस तरह का दबाव सरकार पर बनाते रहेंगे । लेकिन ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस ने देश की न्यायिक प्रक्रिया को संसद की कार्यवाही से जोड़ दिया है । जिसका असर आर्थिक सुधारों पर पड़ना तय है । जीएसटी बिल पर आए संकट के मद्दनदर मंगलवार को सेंसेक्स में करीब सवा दो सौ प्लाइंट की गिरावट दर्ज की गई जो पिछले तीन महीनों का निम्नतम स्तर रहा । शेयर बाजार में ये गिरावट लास्ट ट्रेडिंग सेशन में दर्ज की गई । आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि संसद में नेशनल हेराल्ड मसले पर जारी हो हल्ले के बीच बाजार में निगेटिव सेंटिमेंट चला गया । इसका असर रुपए की कीमत पर भी देखने को मिला और वो भी करीब ग्यारह पैसे टूटकर दो साल के निम्नतम स्तर पर जा पहुंचा । यह बात समझ से परे हैं कि कांग्रेस संसद को ठप अर्थव्यवस्था को क्या संकेत देना चाहती है । सोनिया गांधी ने संसद भवन के परिसर में संवाददातओं से कहा कि उनको किसी से डर नहीं लगता है क्योंकि वो इंदिरा गांधी की बहू हैं । सोनिया गांधी के इस बयान से साफ है कि कांग्रेस इस पूरे मसले को राजनीतिक तौर पर भुनाना चाहती है । इमरजेंसी के बाद जब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया गया था तो कांग्रेसियों को उसको एक पॉलिटिकल इवेंट बना दिया था । जब जब इंदिरा गांधी शाह कमीशन के सामने पेश होती थी तब तब कांग्रेस के नेता देश को यह संदेश देते थे कि जनता पार्टी की सरकार बदले की भावना से काम कर रही है । इसी तरह से सोनिया ने जब एलान कि उनको डर नहीं लगता तो एक एक करके कांग्रेस के तमाम दिग्गजों ने मंगलवार को प्रेस कांफ्रेंस की और सरकार पर बदले की राजनीति का आरोप जड़ा । यह बहुत मशहूर कहावत है कि हिस्ट्री रिपीट इटसेल्फ और कांग्रेस को लगता है कि इतिहास खुद को दोहराने वाला है । पर कांग्रेस एक और कहावत भूल गई है कि राजनीति में काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती ।

Sunday, December 6, 2015

उपस्थिति से बढ़ेगी साझेदारी

जब से कॉफी हाउस की संस्कृति बंद हुई है तब से साहित्यक समाचार ज्यादातर सोशल मीडिया पर ही नजर आते हैं । साहित्यक गॉसिप से लेकर विवाद तक, गंभीर टिप्पणियों से लेकर फूहड़ कमेंट तक, साहित्यक समाचार से लेकर साहित्येतर कानाफूसी तक सब-कुछ सोशल मीडिया से सामने आने लगा है । कॉफी हाउस में तो बोलकर निकल जाने की सहूलियत थी और उसका उतना विस्तार भी नहीं था लेकिन जितना कि सोशल मीडिया है । यहां आप पोस्ट कर निकल नहीं सकते हैं । सोशल मीडिया पर एक और सहूलियत है कि जैसे ही आपकी पोस्ट को कोई लाइक करता है या उसपर अपनी टिप्पणी देता है तो वो टाइम लाइन पर सबसे उपर आ जाता है । इसका नतीजा यह होता है कि किसी भी तरह की खबर लंबे समय तक सोशल मीडिया पर बनी रहती है । बहुधा तो ऐसा होता है कि साल दो साल पहले की पोस्ट भी अगर किसी ने लाइक कर दी तो वो फौरन टाइम लाइन पर आ जाता है । इसके फायदे और नुकसान दोनों हैं । पायदा ये कि सकारात्मक खबरें वहां आती जाती रहती हैं और नुकसान येकि आरोपों की शक्ल में लिखे गए पोस्ट की भी उपस्थिति बनी रहती है । हाल ही में सोशल मीडिया पर एक खबर देखकर मैं चौंका । ये खबर थी पटना के लेखक रत्नेश्वर से जुड़ी । रत्नेश्वर ने अपनी वॉल पर अपनी किताब के पटना में होनेवाले लोकार्पण समारोह का कार्ड लगाया था । यह कोई अहम बात नहीं थी, हर किताब के लोकार्पण का कार्ड लोग फेसबुक आदि पर शेयर करते ही ही हैं । अब तो ये रिवाज भी हो चला है ।  लेकिन उस कार्ड पर प्रकाशित एक सूचना ने मुझे चौंकाया । मैजिक इन यू नाम की इस किताब की बीस हजार प्रतियों की प्री बुकिंग होने का दावा करते हुए प्रचारित किया जा रहा है । चौंका इस वजह से कि अंग्रेजी में लिखी इस किताब को छापा है कि हिंदी के प्रकाशक प्रभात प्रकाशन ने । इस लिहाज से यह एक बड़ी घटना है कि किसी किताब के लोकार्पित होने के पहले ही बीस हजार प्रतियों की बुंकिंग हो जाना । भारतीय प्रकाशन जगत के लिहाज से यह एक अहम घटना है । इसके पहले चेतन भगत की किताब हॉफ गर्ल फ्रेंड की साल लाख प्रतियों की एडवांस बुकिंग हुई थी परंतु वो बुकिंग एक ऑनलाइन कारोबार करनेवाली बेवसाइट ने की थी जिसके पास उक्त किताब को एक तय समय सीमा तक बेचने का एक्सक्लूसिव अधिकार था । अंग्रेजी के कई प्रकाशकों और लेखकों से मैंने इस बारे में बात कर यह समझने की कोशिश कि प्रकाशन जगत के लिहाज से यह कितनी बड़ी घटना है । प्रकाशकों और लेखकों, दोनों ने बताया कि यह घटना महत्वपूर्ण है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए । दूसरी जिस बात ने मुझे चौंकाया वह ये कि रत्नेश्वर की यह किताब मैजिक इन यू साहित्यक कृति नहीं हैं बल्कि ये किताब आपके अंदर की ताकत को पहचानने और उसको उजागर करने की बात करता है यानि कि यह व्यक्तित्व विकास की  किताब है । इस बात को समझने की आवश्यकता है कि किताब छपने और बाजर में आने के पहले ही उसकी बीस हजार प्रतियों की बुकिंग कैसे हो गई । भारत में जहां किताबों की बिक्री को लेकर रोना गाना मचा रहता है वैसे परिदृश्य में सुदूर बिहार के एक लेखक की लिखी किताब छपने के पहले इतनी लोकप्रिय हो जाए तो आश्चर्य भी होता है और इस बात का संतोष भी होता है कि भारत में किताबों की बिक्री का बड़ा बाजार है । रत्नेशवर पहले हिंदी में लिखते रहे हैं । उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं । पिछले साल नेशनल बुक ट्रस्ट से आई उनकी किताब मीडिया लाइव के भी कई संस्करण हो चुके हैं । एक जमाने में कहानियां लिखनेवाले रत्नेश्वर कालांतर में नॉन फिक्शन की ओर मुड़े । कुछ दिनों पहले एक साक्षात्कार में रत्नेश्वर ने कहा  था कि सैद्धांतिक साहित्य को पाठक पूरी तरह नकार रहे हैं क्योंकि उनमें कहानी से ज्यादा विचार प्रबल होते हैं। उन्होंने माना था कि आजकल मोटे-मोटे उपन्यासों का लेखन भी खूब हो रहा है, पर अधिकांश उपन्यास विवरणात्मक शैली में लिखे जा रहे है वो कहते हैं कि उपन्यास या कहानी किस्सागोई की चासनी में ऐसे लिपटे हों कि पाठक अंत तक बहता चला जाय, आज के अधिकांश उपन्यासों और कहानियों के विवरण शैली को पाठक झेल ही नहीं पाते और उनमें ऊब पैदा होती है। मतलब साफ़ है - शायद आज के साहित्यकार का टारगेट आलोचक और पुरस्कार होते हैं ! जो साहित्य उनके लिए लिखा नहीं गया, ऐसे में भला पाठक आपको क्यों तरजीह देने लगे । वो इस बात पर भी चिंता प्रकट करते हैं कि हिन्दी पढ़ने-जानने वालों की संख्या करीब साठ सत्तर करोड़ है तो हमारे संस्करण तीन चार सौ के क्यों होते हैं । वो सवाल उठाते हैं कि क्या हमारा लक्ष्य उनमें से कम-से-कम सात लाख हिंदी प्रेमियों को पाठक बनाने का नहीं होना चाहिए?  उनका मानना है कि लेखक का दायित्व अच्छा साहित्य लिखना तो है ही उसे पाठकों तक पहुंचाना भी है। अभी हाल ही में रत्नेश्वर ने अपना पहला उपन्यास रेखना मेरी जान लिखकर खत्म किया है और उनका यह उपन्यास भी जल्द ही हिंदी और अंग्रेजी में छपकर बाजार में आने वाला है । देखना यह होगा कि उनके इस उपन्यास को पाठक कैसे लेते हैं । ग्लोबल वार्मिंग को केंद्र में रखकर लिखी गई इस किताब को लेकर प्रकाशक उत्साहित हैं । यह बात समझ से परे है कि किताबों के पाठकों की कमी का रोना क्यों रोया जाता है । क्यों इस बात को प्रचारित किया जाता है कि हिंदी का प्रकाशन व्यवस्या तो सरकारी खरीद की वैशाखी थामे चल रहा है वर्ना तो ये कब का दम तोड़ चुका होता । यह कहा जा सकता है कि अंग्रेजी में किताबों की प्री बुकिंग हुई है लेकिन हिंदी की हालत भी बेहतर है वहां भी यह हो सकता है । दरअसल इस तरह का वातावरण बनाया जा रहा है कि हिंदी में पाठकों की कमी है । इसको निगेट करने की जरूरत है ।
अभी हाल ही में मार्केट सर्वे करनेवाली एक कंपनी नीलसन इंडिया की बुक मार्कट रिपोर्ट 2015 जारी की गई है । नीलसन इंडिया की इस रिपोर्ट में कई ऐसे खुलासे हुए हैं जो प्रकाशन जगत के लिए आंखें खोलनेवाले हैं । सबसे पहले तो इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत विश्व का छठा सबसे बड़ा किताबों का बाजार है । उस रिपोर्ट के मुताबिक इस वक्त भारत में किताबों का बाजार इक्कसी हजार छह सौ करोड़ रुपए का है । नीलसन के अनुमान के मुताबिक किताबों का ये बाजार सालाना करीब साढे उन्नीस फीसदी की दर से बढ़ेगा और 2020 तक इस बाजार का आकार तेहत्तर हजार नौ सौ करोड़ तक पहुंच जाएगा । नीलसन के इस अनुमान का आधार भारत की साक्षरता दर है । उसके मुताबिक भारत की साक्षरता दर 2020 तक नब्बे फीसदी हो जाएगी जो इस वक्त चौहत्तर फीसदी है । इस रिपोर्ट में और भी दिलचस्प आंकड़ें हैं । इसके मुताबिक भारत में अंग्रजी किताबों का बाजार पचपन फीसदी है और अंग्रेजी किताबों का विश्व में ये दूसरा सबसे बड़ा बाजार है । किताबों के बाजार में हिंदी किताबों का शेयर पैंतीस फीसदी है और अन्य भारतीय भाषाओं की किताबों की हिस्सेदारी मात्र दस फीसदी है । नीलसन के इन आंकड़ों में अकादमिक, प्रोफेशनल, स्कूल टेक्सट बुक, के अलावा रचनात्मक साहित्य की किताबें भी शामिल हैं । इतना बड़ा बाजार होने के बावजूद किताबों की बिक्री नहीं होने पर छाती कूटना उचित नहीं है । जरूरत इस बात की है कि किस तरह से किताबों के बढ़ते बाजार में अपनी उपस्थिति और हिस्सेदारी को मजबूत किया जाए । नीलसन की रिपोर्ट के मुताबिक किताबों के बाजार के फैलाव में कई सारी दिक्कतें हैं । इन दिक्कतों में सबसे बड़ी बाधा तो किताबों के डिस्ट्रीव्यूशन श्रृंखला को लेकर है । किताबों के वितरण की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं होने और पुस्तक विक्रेताओं को लंबे समय तक क्रेडिट देने से इस कारोबार में कैशफ्लो कम होता है इस वजह से पूंजीगत समस्या खड़ी हो जाती है । इस अलावा किताबों के कारोबार में जो सबसे बड़ी समस्या है वह ये कि यहां पाइरेसी बहुत ज्यादा होती है । भारत उतना विशाल देश है कि पाइरेसी को रोक पाना लगभग असंभव है । इसका बेहतरीन उदाहरण तसलीमा नसरीन की किताब लज्जा है । इसके प्रकाशन का अधिकार दिल्ली के वाणी प्रकाशन के पास है लेकिन जाने कहां कहां और किन किन भाषाओं में यह किताब प्रकाशित हुई है वो ना तो लेखिका को मालूम है और ना ही प्रकाशक को । पाइरेसी रोकने के लिए जो कानून हैं वह उतने सख्त नहीं हैं लि्हाजा इसको मजबूत करने की जरूरत है । अंत में मशहूर शायर दुष्यंत कुमार की दो पंक्तियां कहना चाहूंगा- कौन कहता है कि आसमान में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो । किताबें बिकेंगी कोशिश तो हों ।


लिटरेचर फेस्टिवल या विवादों का अखाड़ा

हर साल दिसंबर और जनवरी का महीना साहित्यक आयोजनों के लिए सबसे ज्यादा व्यस्त महीना रहता है । इन दो महीनों में पूरे देश में साहित्य उत्सवों का सबसे ज्यादा आयोजन होता है । इसकी कोई खास वजह तो ज्ञात नहीं है लेकिन अंदाजा ये लगाया जा सकता है कि वर्षांत के मौहाल के मद्देनजर ये इन्हीं महीनों में आयोजित किए जाते हैं । हाल में मुंबई से लेकर बेंगलुरू से लेकर दिल्ली और पटना तक इस तरह के आयोजनों की धूम रही है और साहित्यक कैलेंडर के मुताबिक अगले साल फरवरी के शुरुआत तक नियमित अंतराल पर ये आयोजन होते रहेंगे । साहित्यक आयोजनों के बारे में जयपुर लिटरेटर फेस्टविल की निदेशक नमिता गोखले ने कहा था कि ये ऐसा मंच होना चाहिए जहां साहित्य और उसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर गंभीरता से विमर्श हो । दुनियाभर के लेखक और विचारकों के बीच साहित्य पर चिंतन हो जिसका फायदा पाठकों को मिल सके । जयपुर लिटरचेर फेस्टिवल के निदेशक की बात इस वजह से कह रहा हूं कि हमारे देश में लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत और सफलता का श्रेय नमिता, विलियम डेलरिंपल और संजोय को ही जाता है । खैऱ इस लेख का विषय जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफल यात्रा नहीं है । हम बात कर रहे हैं देशभर में लिटरेचर फेस्टिवल की बहुलता और उससे उठने वाले विवादों की । हाल के दिनों में ये देखने को मिला है कि हर तरह के साहित्यक आयोजनों में साहित्यक विमर्श की बजाए विवाद पर ज्यादा जोर रहता है । ऐसा प्रतीत होता है कि आयोजक ये मानने लगे हैं कि इस तरह के आयोजनों की सफलता का मंत्र विवाद है । दिल्ली में हाल ही में आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल में कई विवाद उठे । मसलन कांग्रेस के नेता पी चिदंबरम का सलमान रुश्दी की किताब पर भारत में लगे बैन पर दिया गया बयान । चिदंबरम ने कहा कि सलमान रुश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेस पर लगाई गई पाबंदी उचित नहीं थी । गौरतलब है कि पी चिदंबरम उस वक्त देश के आंतरिक सुरक्षा राज्य मंत्री थे । उस वक्त की राजीव गांधी सरकार ने सैटेनिक वर्सेस पर पाबंदी लगाने का जो फैसला किया था उसके बारे में तथ्य सबको मालूम है कि किस लेखक की संस्तुति पर ऐसा किया गया था । कई किताबों में इसका उल्लेख मिलता है । असहिष्णुता पर देशभर में जारी बहस के बीच चिदंबरम के इस बयान ने एक बार फिर से विवाद को हवा दे दी । उनकी मंशा पर भी सवाल उठे । बहस के दौरान इस बात की तलाश होने लगी कि कांग्रेस के नेता ने ये बयान कहां दिया है । इस तरह से आयोजन को प्रचार मिला । विवाद से प्रचार हासिल करने का लिटरेचर फेस्टविल में चलन हो गया है । इसी तरह से दलित चिंतक और विचारक कांचा इलैया का बयान भी काफी विवादित हो गया । कांचा इलैया ने कह दिया कि अगर सरदार वल्लभ भाई पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री बने होते तो भारत भी पाकिस्तान की राह चलता और देश में लोकतंत्र अबतक खत्म हो गया रहता । भारत की स्थिति भी पाकिस्तान जैसी हो गई होती । कांचा इलैया इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने जोर देकर कहा कि सरदार पटेल ये नहीं चाहते थे कि बाबा साहब भीम राव अंबेडकर भारतीय संविधान लिखें । इलैया के मुताबिक पटेल चाहते थे कि कोई व्यक्ति जो मनुस्मृति को मानता हो वही संविधान लिखे । कांचा इलैया के ऐसा कहने का आधार सिर्फ इतना था कि पटेल हिंदू महासभा के करीब थे । इतिहास के बारे में बातें तथ्यों के आधार पर की जानी चाहिए लेकिन कांचा इलैया तथ्यों के बजाए उसके विश्लेषण और अपनी धारणा के आधार पर बात करने लगे । इलैया के उक्त बयान की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के दौरान कही गई बात थी कि अगर सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होती तो देश की तस्वीर ही कुछ और होती । सरदार पटेल को लेकर इस वक्त की सरकार और भारतीय जनता पार्टी के नेता बेहद संवेदनशील हैं लिहाजा कांचा इलैया के इस बयान पर जमकर बहस हुई । इन विवादों के अलावा इस लिटरेचर फेस्टिवल की चर्चा नहीं हो पाई । दरअसल कल एक मित्र ने कहा कि लिटरेचर फेस्टिवल अब साहित्य के विमर्श का स्थान नहीं बल्कि विवादों का अखाड़ा बन गया है । बेंगलुरू लिटरेचर फेस्टिवल में भी यही हुआ । वह आयोजन भी साहित्येतर कारणों ही चर्चा में रहा । पटना में जारी पुस्तक मेले में हर शाम को जिस तरह से साहित्यक और समसामयिक विषय पर चर्चा होती है वह अपनी तरह का अनूठा है लेकिन वहां भी विवाद खड़े होते रहे हैं । पिछले साल एक लेखक ने कह दिया था कि हिंदी के लेखक तानाशाह होते हैं और उनको पाठकों की फिक्र नहीं होती है । इस वक्तव्य की गूंज साहित्य में साल भर तक सुनाई देती रही थी ।

अब अगर हम इस बात की पड़ताल करें कि इन साहित्यक आयोजनों में ऐसा क्यों होता है । इससे एक बात जो समझ में आती है वह यह कि इनके आयोजकों को लगता है कि विवाद के बगैर लोकप्रियता मुमकिन नहीं है । उनके सामने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का ही उदाहरण होता है । नमिता गोखले के लाख नहीं चाहने के बावजूद जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल लगातार कई सालों तक विवाद में रहा । चाहे वो सलमान रुश्दी के जयपुर आने को लेकर विरोध से उठा विवाद हो या फिर आशुतोष और आशीष नंदी के बीच एक सत्र में दलितों पर की गई टिप्पणी को लेकर हुआ विवाद हो । हर बार मामला कोर्ट कचहरी से लेकर थाने और धरना प्रदर्शन तक पहुंचा है । आशुतोष और आशीष नंदी का विवाद तो सुप्रीम कोर्ट से निबटा ।  इन विवादों की वजह से ही जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पूरी दुनिया में चर्चित हुआ है । जयपुर लिटरेचर फेस्टविल की आयोजक नमिता इस बात पर अफसोस करती हैं कि गंभीर विमर्श हमेशा से एक दो विवादों के बीच दब जाता है लेकिन शायद उनको इस बात का एहसास नहीं है कि देश में आयोजित और लिटरेचर फेस्टिवल विवादों को अपनी सफलता का मंत्र मानते हैं । हमारा मानना है कि विवादों से कोई आयोजन चर्चित तो हो सकता है लेकिन उसकी प्रतिष्ठा के लिए यह आवश्यक है कि वहां गंभीर चिंतन और विमर्श हो । 

Thursday, December 3, 2015

Plyaing with linguistic fire

After Independence, India witnessed many violent protests for linguistic reasons. In 1953, Andhra Pradesh was the first Indian state to be created on the basis of language. After the creation of Andhra Pradesh, Tamil Nadu also witnessed  violent protests against Hindi. It was such a fierce protest that many central leaders and ministers could not muster courage to go to Tamil Nadu at that time. The only leader who had the courage to face anti Hindi-protesters was Indira Gandhi. Mrs Gandhi, who happened to a central minister went to Tamil Nadu and held talks with protesters. Indira Gandhi successfully handled the situation and the violent protests were subsided. Now, a Chief Minister of the Congress party (to which Indira Gandhi belonged) has started playing the language card to get victory in the upcoming assembly elections. This is a dangerous political game being played by Tarun Gogoi of Assam.
In a recent statement, Gogoi said that Hindi speaking leaders of Bharatiya Janata Party (BJP) wanted to invade Assam and its language. Just mind the word INVADE. Gogoi alleged that Hindi speaking leaders of BJP want to corrupt the Assamese pronunciation. In support of his allegation, Tarun Gogoi quoted the Assam BJP in-charge Mahendra Singh. Gogoi alleged that Mahendra Singh mis-pronounced the name of great Vaishnav saint Shrimant Shankardeva as Baba Shankardev. In support of his allegation, Gogoi cited many examples. But, Gogoi didn’t stop here and said that befitting reply would be given to those who want to destroy the Assamese pronunciation. ‘Invade’ and ‘befitting reply’ are the words which needs to be underlined.
This is the statement of a leader who took oath of office under Indian Constitution. Our Constitution doesn’t allow discrimination on the basis of caste, creed, colour and language. How can Chief Minister of a state utter such venomous language? That too of a state where there is a long history of ethnic violence. Hindi-speaking people were targeted and murdered at regular intervals in Assam during Gagoi’s rule. Recently, an eighteen-year-old girl and her father were killed inside their house, just because she was Hindi-speaking. Before that, thirteen Hindi speaking people were murdered in broad daylight. What happened to the murderers of those thirteen people is still unknown. It is fair enough that Gogoi is very sentimental and touchy about state’s language and its pronunciation but that that doesn’t give him the license to spread hatred against those people of the country who speak different language.
Recently, during the debate on Constitution in Parliament, Parliamentary Affairs Minister Venkaiah Naidu raised issue of Gogaoi’s statement but in a counter, the MP son of Gogoi raised the statement of Assam governor. In our country’s polity, it has now become a regular practice to raise the misdeeds of predecessors as counter argument. Now, time has come to negate this thought and practice. Because two blacks never make a white. The statement of Tarun Gogoi is a glaring example of ‘politics of hatred’. Nation has to think about this seriously.
Noted Hindi poet Ramdhari Singh Dinkar once wrote- The question of language is not a cultural question only. In special situations, it connects to Politics and impact the freedom and sovereignty of the country. Dinkar said this when whole of South India was burning on the issue of language. At that time also, politicians were spreading hatred against Hindi. The whole country witnessed the result of that linguistic hatred. Politics based on language was again started by Balasaheb Thackrey of Shiv Sena. Bal Thackrey continued with this politics of hatred for almost three decades. Lately, the voters of Maharashtra started rejecting this type of politics. Even Raj Thackeray wanted to toe that line and failed miserably first in Parliamentary election and then in Assembly election.
In fact, the coming Assembly election of Assam and possible anti-incumbency against present Congress Government forced Gogoi to give such ant-Hindi statement to polarize the Assamese votes. As per the last census, there are almost 59 percent Assamese voters in comparison to 5 percent Hindi speaking voters. But for mere political gain, Tarun Gogoi’s statement is highly objectionable. It seems that after three consecutive terms, people of Assam are not happy with Gogoi.
Sensing discontent among the voters of Assam, the Chief Minister started the dangerous game of linguistic polarization. While speaking about the wrong pronunciation and HINDI INVASION, Gogoi forgets that Hindi has a long history of acceptance in the North-East. There is enough example to show that rulers of North Eastern states used Hindi. Nagri text were inscribed on Manipuri Coins. Gogoi must know that in 1890, Britishers filed a case against Manipuri General Tekendrajit Singh for which all papers were filed in Hindi. Even he recorded his statement in Hindi.

Now, come to the so called progressive writers and thinkers who make hue and cry on the statement of Assam Governor regarding India and Hindus. They kept mum on the statement of Tarun Gogoi, the Congress Chief  Minister of Assam. Many of the self-proclaimed progressive writers who always write against RSS and its so-called divisive politics on the social media are also maintaining stoic silence on Gogoi’s divisive statement. The writers who tried to make ‘intolerance’ a national issue, knowingly avoided Gogoi’s statement. By ignoring Tarun Gogoi’s statement, they have exposed themselves. This breed of writers always create hulla-baloo on any anti-minority statement but maintains silence when it comes to majority. Tarun Gogoi is playing with fire and indirectly provoking anti-Hindi sentiments in Assam, This should be fiercely opposed by all who love their country. Politics of hatred is harmful to our democracy too.