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Saturday, January 30, 2010

विश्व पुस्तक मेला- सरकारी लापरवाही का नमूना

पंद्रहवीं शताब्दी में जब पुस्तक मेले की शुरुआत हुई थी तो उसके पीछे अवधारणा यह थी कि विश्व के देशों के प्रकाशकों को एक मंच मिले जहां वो किताबों के प्रकाशन अधिकार का सौदा कर सकें । प्रारंभिक अवधारणा में समय के साथ बदलाव आया और कालांतर में इस तरह का मेला पुस्तक प्रेमियों के लिए उत्सव सरीखा बन गया जिस्का वो शिद्दत से इंतजार करने लगे । पश्चिम की यह अवधारणा जब हिंदुस्तान आई तो पुस्तक मेले की जो तस्वीर उभरी उसके केंद्र में सिर्फ पाठक ही थे । किताबों के प्रकाशन अधिकार के कारोबार को ना तो मंच मिला और ना ही प्रकाशकों के स्तर पर इसके के लिए कोई गंभीर कोशिश की गई । भारत में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन नेशनल बुक ट्रस्ट के जिम्मे है और हर दो साल पर दिल्ली के प्रगति मैदान में एनबीटी इसे आयोजित करती है । इस वर्ष भी शनिवार से फरवरी के पहले हफ्ते तक चलनेवाले विश्व पुस्तक मेले की सउरुआत हो चुकी है । भारत में बदले हुए चरित्र के साथ आयोजित होनेवाले विश्व पुस्तक मेले को लेकर पहले प्रकाशकों और पाठकों में खासा उत्साह रहता था । लेकिन समय के साथ लगातार इस उत्साह में कमी आती गई । दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले को मैं लगभग बीस वर्षों से देख रहा हूं । हर बार इसमें पाठकों और प्रकाशकों के उत्साह में ह्रास ही होता दिख रहा है । पुस्तक मेले का आयोजन करनेवाली संस्था पर यह जिम्मेदारी होती है कि वो पाठकों या पुस्तक प्रेमियों के बीच पुस्तक मेले को लेकर जागरुकता या फिर एक उत्साह पैदा करे लेकिन दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले को लेकर एनबीटी ना तो कोई माहौल बना पाई और ना ही लोगों तक इसकी जानकारी पहुंच पाई । कुछ इलाकों में छोटे होर्डिंग लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली । हद तो तब हो गई जब शनिवार से शुरू होनेवाले मेले में दिल्ली के प्रकाशकों को स्टाल आवंटन की जानकारी भी बुधवार को दी गई । दिल्ली के बाहर के प्रकाशकों के हाल का अंदाजा भर लगाया जा सकता है । नेशनल बुक ट्रस्ट ने खुद तो विश्व पुस्तक मेला के प्रचार प्रसार के लिए कुछ किया नहीं प्रकाशकों को भी इतना वक्त नहीं दिया कि वो अपने स्तर पर इसकी जानकारी पाठकों और पुस्तक प्रेमियों तक पहुंचा सकें । पिछले पुस्तक मेले में रूस को अतिथि देश का दर्जा दिया गया था लेकिन उस वक्त एनबीटी की बेहद भद पिटी थी जब रूस के प्रकाशकों ने मेला खत्म होने के पहले ही अपना बोरिया बिस्तर समेट लिया था । एनबीटी के इस रवैये से भारत की खूब भद पिटी थी ।
लेकिन भारत के प्रकाशकों में अब भी विश्व पुस्तक मेले को लेकर उत्साह बचा है और वो हर बार कुछ नया करने की जिद पाले बैठे हैं । कुछ ऐसे प्रकाशक भी हैं जिन्होंने बजाप्ता योजना बनाकर किताबों की तैयारी करवाई। प्रकाशकों के अलावा लेखकों ने भी योजनाबद्ध तरीके से काम किया ताकि उनकी किताबें मेले में रिलीज हो सके । नामवर सिंह हमारे वक्त के हिंदी के सबसे बड़े लेखक हैं । लेकिन उनपर लगातार यह आरोप लगता रहा है कि पिछले सत्ताइस साल से उन्होंने कुछ नहीं लिखा । उनकी आखिरी किताब- दूसरी परंपरा की खोज- सन उन्नीस सौ बयासी में छपी थी । उसके बाद से नामवर सिंह ने अपने आप को वाचिक परंपरा में सिद्ध कर लिया और लेखन से विरक्त हो गए । लेकिन हिंदी में उनके आलोचकों के साथ-साथ इनके प्रशंसकों को भी इस बात का इंतजार रहा कि नामवर शायद लेखन की ओर लौटें । विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर उनका यह इंतजार खत्म होगा । राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से नामवर सिंह की एक साथ छह किताबें प्रकाशित हैं । हिंदी और हिंदीवालों को इसपर सहसा विश्वास नहीं होगा । लोग सोच रहे हैं कि नामवर सिंह के भाषणों का संकलन है । यह आंशिक रूप से सही भी है कि इन छह किताबों में से दो उनके भाषणों का संकलन है लेकिन बाकी चार उनके खुद की लिखी किताबें हैं । विश्व पुस्तक मेले की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है जब पाठकों को एक साथ नामवर सिंह की छह किताबें उपलब्ध है । नामवर सिंह के अलावा एक और आलोचक नंदकिशोर नवल की कविता की किताब प्रकाशित है जिन्होंने सियाराम तिवारी के साथ संयुक्त रूप से प्रकाशन संस्थान ने द्वाभा के नाम से छापा है । नंदकिशोर नवल की आलोचनात्मक दृष्टि और उनका काम उल्लेखनीय है लेकिन मन के कोने अंतरे में कवि होने की लालसा उन्हें बार-बार कविता संग्रह छपवाने की ओर प्रेरित करती है । विश्व पुस्तक मेले के मौके पर जो एक बेहद विस्फोटक किताब प्रकाशित हुई है वह है इंदौर की लेखिका कृष्णा अग्निहोत्री की । सामयिक प्रकाशन, दिल्ली से कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा दो खंडो में प्रकाशित हुई है - लगता नहीं है दिल मेरा तथा और...और...औरत । कृष्णा अग्निहोत्री अपने जमाने की बेहद खूबसूरत और बिंदास लेखिका थी । अपनी इस आत्मकथा में उन्होंने दिल्ली के साहित्यकारों-संपादकों के साथ अपने हर तरह के रिश्तों पर बेहद बेबाकी और साहसपूर्वक लिखा है । कृष्णा जी जिस तरह स्वभाव से विंदास थी वही बिंदासपना इस आत्मकथा में भी रेखांकित की जा सकती है । इसमें स्त्री लेखिका और पुरुष लेखक के संबंधों का जो द्वंद या फिर छल-छद्म है उससे एक बारगी साहित्य जगत में हड़कंप मचना तय है । हिंदी में लेखक-लेखिका संबंधों पर कलम की जगह तलवार लेकर लिखनेवाली कुछ लेखिकाओं को इस किताब से एक नई जीवनी शक्ति मिलेगी और वो फिर से पुरुषों को कठघरे में खड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगी । इन किताबों के अलावा कई प्रकाशकों ने साहित्य से इतर हटकर बेहद उल्लेखनीय किताबें प्रकाशित की है । वाणी प्रकाशन ने अमेरिकी अर्थशास्त्री पॉल कुर्गमैन की किताब का पत्रकार अरविंद मोहन से अनुवाद करवाया है । मंदी के दौर में यह एक अहम किताब साबित होगी । लेकिन किताबों के अलावा जो सबसे बड़ा और अहम सवाल है वो यह कि क्या इस पुस्तक मेले को पाठक तवज्जो देंगे । क्या एनबीटी पाठकों के बीच बाकी बचे दिनों में उत्साह पैदा करने में कामयाब हो पाएगी । अगर ऐसा होता है तो प्रकाशक लेखक के लिए संतोष की बात होगी लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो विश्व पुस्तक मेले के औचित्य के साथ-साथ एनबीटी के कर्ता-धर्ताओं पर भी बड़ा प्रश्न चिन्ह लगेगा ।

Monday, January 18, 2010

नदियों के गुनहगार

नदियों के गुनहगार
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि गंगा इतनी मैली है इस बात का अंदाजा उन्हें नहीं है । क्या उन्होंने ये जुमले भी नहीं सुने कि गंगा मैली हो रही है, गंगा रास्ता बदल रही है, गंगा के किनारों का कटाव हो रहा है , गंगा को बचाना है, गंगा को बचाने के लिए सरकारी स्तर प्रयास किए जा रहे हैं । ये ऐसे जुमले हैं जो वर्षों से सुर्खियां बन रहे हैं लेकिन हालात में कोई बदलाव नहीं आता दिख रहा है । गंगा नदी से देश की आबादी का बड़ा हिस्सा जुडा़ है और वही आबादी उसे बरबाद करने पर तुली है । जाने या अनजाने लोग गंगा को कूड़ेदान की तरह इस्तेमाल करते हैं और व्यक्तिगत और औद्योगिक कचड़े का एक बड़ा हिस्सा गंगा में प्रवाहित कर देते हैं । यही हालत देश की राजधानी से गुरनेवाली नदी यमुना की भी है बल्कि यों कहें कि यहां तो हालत और भी बदतर है । नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में जब दिल्ली आया था तो यमुना में कुछ पानी होता था और कहीं -कहीं साफ पानी के भी दर्शन हो जाते थे लेकिन दो दशकों में यमुना पूरे तरीके से गंदे नाले में तब्दील हो गई है ।
हालात बदतर होते देख प्रधानमंत्री ने भी इसपर चिंता जताई और गंगा को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर भी ठोस उपाय करने के इरादों का इजहार किया । इसी तर्ज पर दिल्ली सरकार ने एक बार फिर यमुना का उद्धार करने की योजना बनाई है । सरकारी स्तर पर नदियों को बचाने के लिए सत्तर के दशक में भी एक मुहिम शुरू हुई थी और उन्नीस सौ चौहत्तर में पर्यावरण संरक्षण कानून और जल ( प्रदूषण और रोकथाम ) कानून बनाया गया था । इस कानून में नदियों को गंदा करने और उसके स्वरूप में बदलाव लाने की कोशिशों को रोकने के लिए दंड का प्रावधान किया था । इस कानून की धाराओं के मुताबिक नदियों के पानी को प्रदूषित करनेवाले को अठारह महीने से छह साल तक की सजा का प्रावधान किया गया था । लेकिन इस कानून के बनने के पच्चीस साल बाद भी किसी को उसके तहत सजा हुई हो और उसे जेल भेजा गया हो ऐसा ज्ञात नहीं है । यह कानून सिर्फ सरकारी अधिकारियों की कमाई का एक जरिया बनकर रह गया है । होता यह है कि सरकारी अधिकारी यह मानकर चलते हैं कि यह कानून सिर्फ प्रदूषण फैलानेवाले फैक्ट्रियों पर लागू होता है और वहां वो सजा का भय दिखाकर मोटी कमाई करते हैं ।
इस कानून के अंतर्गत आम जनता को भी सजा हो सकती है । ऐसे किसी भी शहर में जाइये जहां से कोई नदी गुजर रही हो और आप उसके पुल पर पांच मिनट खड़े हो जाइये, आपको कई भक्त ऐसे मिलेंगे जो पॉलीबैग में फूल,धूप, अगरबत्ती और अन्य पूजा का सामान प्रवाहित करते नजर आ जाएंगे । चाहे वो दिल्ली का निजामुद्दीन पुल हो, लखनऊ में गोमती नदी पर बना लोहिया ब्रिज हो या फिर अयोध्या में राम की पैड़ी के पास का सरयू नदी का पुल हो, सरेआम कानून की धज्जियां उड़ाते लोग आपको नजर आएंगे । लेकिन कानून का पालन करवानेवालों को कानून का सरेआम उल्लंघन दिखाई नहीं देता । दिल्ली में तो हालात इतने बदतर हो गए कि लोगों को रोकने के लिए सरकार ने निजामुद्दीन पुल पर लोहे का पच्चीस फुट उंचा जाल लगवाया । लेकिन फिर भी लोग कहां मानने वाले कहीं जाली तोड़ दी गई तो कहीं उस जाल के उपर से गंदा फेंकने की कोशिश की गई । नतीजा यह हुआ कि जो पुल साफ सुथरा दिखता था वह बेहद गंदा और बदसूरत दिखने लगा ।
नदियों को बचाने की सरकारी नीति और कानून बनाकर इसे नहीं बचाया जा सकता है, जरूरत इस बात की है कि लोगों को जागरूक किया जाए और उन्हें उनके कृत्य से होनेवाले खतरों से आगाह करने की मुहिम चलाई जाए । कानून तो सिर्फ एक हथियार हो सकता है जिससे नासमझ लोगों को डराकर इस प्रवृति को रोका जा सके, ताकि आनेवाली पीढियां हमें नदियों के गुनहगार के तौर पर याद ना करें

Thursday, January 14, 2010

गैर जिम्मेदार पत्रकारिता की हद

तेलंगाना की आग में जल रहे आंध्र प्रदेश में एक खबर ने फिर से आग लगा दी। सूबे के एक स्थानीय न्यूज चैनल ने चार महीने पहले रूस की एक वेबवसाइट पर प्रकाशित खबर को उठाकर अचानक से चलाना शुरू कर दिया। सिर्फ खबर ही नहीं चलाई बल्कि उसपर स्टूडियो में तीन चार लोगों को बिठाकर चर्चा भी शुरू कर दी । कहने का तात्पर्य यह कि उक्त खबर को बड़े स्तर पर चलाया जाने लगा । खबर यह थी कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी की मौत एक हादसा नहीं बल्कि एक वृहत्तर षडयंत्र का हिस्सा थी । न्यूज चैनल की खबर के मुताबिक इस षडयंत्र में देश का एक बड़ा औद्योगिक घराना शामिल था । जैसे ही इस खबर का प्रसारण शुरू हुआ आंध्र प्रदेश के कई इलाकों में हड़कंप मच गया । वाई एस राजशेखर रेड्डी के समर्थक सड़कों पर उतर आए और कई इलाकों में विरोध प्रदर्शन का आगाज हो गया । कुछ ही घंटों में लोगों का गुस्सा उबाल खाने लगा और उस खबर में जिस औद्योगिक प्रतिष्ठान को षडयंत्र के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा था उसके प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे । जबतक सरकारी मशीनरी चेतती तब तक कई शहरों में आगजनी शुरू हो गई । उस स्थानीय चैनल की देखादेखी दो और लोकल चैनलों ने भी इस खबर को प्रसारित करना शुरू कर दिया जिसने गुस्से की आग में घी की तरह काम किया, जिससे बवाल और बढ गया । लेकिन बगैर किसी तरह की जांच पड़ताल के चलाई जा रही इस खबर की आग में पत्रकारिता के तमाम स्थापित मूल्य और मान्यताएं भी जलकर खाक हो गए । एक अनाम सी बेवसाइट पर छपी लगभग चार महीने पुरानी अफवाह को उठाकर खबर की तरह पेश कर एक सूबे को आग में झोंकने की जितनी भी निंदा की जाए कम है । किसी ने भी इस खबर को जांचने और संबंधित पक्ष से बात करने की कोशिश नहीं की । बगैर किसी पक्ष से कोई प्रतिक्रिया लिए इतना बड़ा आरोप लगा देना पत्रकारिता के सिद्धांत के खिलाफ है, जिसकी जमकर निंदा की जानी चाहिए । किसी बेवसाइट की कल्पना को जस का तस उठाकर उससे खबर बनाकर घंटो प्रसारित करने से सूबे में कानून व्यवस्था की समस्या पैदा हो गई । इसके अलावा उस औद्योगिक घराने की प्रतिष्ठा पर भी इससे आंच आई ।

किसी न्यूज चैनल की गैरजिम्मेदाराना खबर के प्रसारण का यह पहला मौका नहीं है । अब से लगभग दो साल पहले दिल्ली में एक राष्ट्रीय चैनल ने भी इस तरह की एक खबर दिखाकर सनसनी फैला दी थी । उस चैनल ने दिल्ली की एक स्कूल की शिक्षिका पर स्टिंग के जरिए उसके सेक्स ट्रेड में शामिल होने की खबर प्रसारित की थी । उस वक्त भी खबर के प्रसारण के साथ ही राजधानी दिल्ली में जबरदस्त हंगामा और आगजनी हुई थी। उत्तेजित भीड़ ने उस स्कूल में घुसकर जमकर तोड़फोड़ की थी और दबाव में आई पुलिस ने शिक्षिका को गिरफ्तार कर लिया था। आनन-फानन में दिल्ली सरकार भी हरकत में आई थी और उस शिक्षिका को नौकरी से हटाने का एलान कर दिया था। बाद में हुई जांच में शिक्षिका पर लगे तमाम आरोप निराधार पाए गए थे । कोर्ट में पहुंचे इस मामले के बाद भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने उक्त चैनल के प्रसारण पर तीन हफ्ते का प्रतिबंध भी लगा था । इन दो वाकयों के अलावा झारखंड की राजधानी से प्रसारित होनेवाले एक लोकल चैनल के संपादक को ब्लैकमेलिंग के आरोप में जेल भी जाना पड़ा था।
इस तरह की गैर जिम्मेदार पत्रकारिता ने एक साथ कई अहम सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या किसी भी न्यूज चैनल को बगैर खबरों की जांच किए उसे प्रसारित करने का अधिकार है। क्या उस न्यूज चैनल के संपादक को इस खबर की पड़ताल नहीं करनी चाहिए थी । खबरों के बाद मचनेवाले बवाल और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की जिम्मेदारी किसकी है। किसी के चरित्र हनन का जिम्मेदार कौन है। क्या भारत सरकार को इसपर काबू करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाना चाहिए । क्या इन चैनलों को लाइसेंस देने के पहले उसे ठोक बजाकर देखा जाता है । टीवी न्यूज चैनलों पर भारत सरकार एक गाइडलाइन बनाकर लगाम लगाने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है । इस माहौल में इस तरह की घटिया हरकतें सरकार के हाथ में प्रेस की आजादी पर लगाम लगाने का औजार मुहैया कराती है । सरकार के इस कदम का पत्रकारों के संगठन लगातार और पुरजोर विरोध कर रहे हैं, उनकी इस मुहिम को इस तरह की घटनाओं से झटका भी लगता है ।
भारत में प्रेस और मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी माना जाता है और उसकी स्वतंत्रता के लिए सभी लोग सजग भी रहते हैं । लॉर्ड डेनिंग ने अपनी प्रसिद्ध किताब रोड टू जस्टिस में कहा है कि प्रेस एक वॉचडॉग है । उसकी जिम्मेदारी है कि वो यह देखे कि हर काम सही तरीके से बगैर किसी दबाव और पक्षपात के हो रहा है। लेकिन कभी कभार यह वॉचडॉग अपनी सीमाओं से आगे चला जाता है जिसके लिए इसे दंडित करना आवश्यक है। भारत के संविधान में प्रेस की आजादी के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है वह भी राइट टू फ्रीडम ऑफ स्पीच और एक्सप्रेशन के अंतर्गत ही आता है। संविधान में अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता असीमित नहीं है । संविधान में इस पर अंकुश लगाने और इसके बेजा इस्तेमाल को रोकने का भी प्रावधान है । हमारे संविधान की अनुच्छेद उन्नीस दो में अभिव्यक्ति की आजादी पर कई वंदिशें भी है । उसके अनुसार अगर इससे देश की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न होता है, समाज में अशांति फैलती है, कानून व्यवस्था भंग होती है, देश की किसी भी अदालत की अवमानना होती है या फिर किसी की अभिव्यक्ति की आजादी से दूसरे व्यक्ति की मानहानि होती है या फिर उससे कोई भी व्यक्ति या समूह को अपराध के लिए प्रवृत्त होता है तो उस स्थिति में अभिव्यक्ति की आजादी की इजाजत नहीं दी जा सकती है। आंध्र प्रदेश के न्यूज चैनल ने जिस तरह की खबर प्रसारित की उससे समाज में अशांति भी फैली, किसी व्यक्ति और संस्था की मानहानि भी हुई और उस खबर के असर में लोगों ने कानून भी तोड़ा । इस वजह से भी उक्त न्यूज चैनल के खिलाफ आपराधिक मामला बनता है । इसकी सजा तो उस न्यूज चैनल को हर हाल में मिलनी चाहिए ताकि प्रेस और मीडिया की निष्पक्षता पर कोई सवाल खड़ा ना हो । साथ ही भविष्य में कोई भी चैनल इस तरह की खबरों को ना दिखाए जिससे की मीडिया की विश्वसनीयता पर गंभीर संकट खडा़ हो जाए ।
लेकिन बड़ा सवाल अब भी मुंह बाए खड़ा है कि इस तरह की हरकतों को रोकने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं। देश में न्यूज चैनलों की बाढ़ आई हुई है और एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त देशभर में लगभग पांच सौ के करीब न्यूज चैनल या तो चल रहे हैं या फिर प्रसारण की तैयारी कर रहे हैं। पत्रकारिता के इस पेशे में ऐसे भी लोग आ रहे हैं जिन्हें ना तो पत्रकारिता की गौरवशाली परंपरा का एहसास है और ना ही उसकी पवित्रता को लेकर कोई प्रतिबद्धता । कोई ठेकेदार है तो कोई बिल्डर तो कोई राजनेता खबरों के इस धंधे में शामिल हो रहा है। उनकी मंशा साफ नहीं है । वो अपने लाभ लोभ के लिए इस धंधे में आ रहे हैं । समाज या फिर उसकी बेहतरी से उनका कोई लेना देना नहीं है ।
देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रेस और मीडिया की आजादी बेहद आवश्यक है । और मीडिया ने इसे साबित भी किया है । ओर जब देशभर में रुचिका को इंसाफ दिलाने के मामले में न्यूज चैनलों और अखबारों की भूमिका की प्रशंसा हो रही है और लोग यह कह रहे हैं कि अगर मीडिया नहीं होती तो राठौर जैसा शक्तिशाली वयक्ति गुनाह कर बच निकलता । वहीं दूसरी ओर आंध्र प्रदेश जैसी घटनाएं मीडिया को शर्मसार करती है जिससे कानून तो निबटेगा ही लेकिन इस तरह के लोगों को चिन्हित करना और उन्हें मीडिया की जमात से बाहर करवाने की महिम चलाना भी मीडिया से जुड़े तमाम संगठनों का काम है ताकि उसकी साख बची रह सके ।

Thursday, January 7, 2010

गरीबों की भी सुन लो

इन दिनों राजस्थान से गरीबों और दलितों को लेकर कुछ चिंताजनक खबरें आ रही हैं । तकरीबन पखवाड़े भर पहले जयपुर के पास केंद्र सरकार की पसंदीदा स्कीम नरेगा में दलितों के साथ भेदभाव की बात सामने आई । आरोप यह लगा कि नरेगा में दलितों को उनके गांव से कई किलोमीटर दूर काम दिया जा रहा है । इस वजह से गरीब दलित परिवारों को इस योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है । दूसरी खबर राजस्थान के ही चित्तौड़गढ़ से आई कि नरेगा में मेहनताना मिलने में हो रही देरी और काम ना मिल पाने की वजह से एक व्यक्ति भुखमरी का शिकार हो गया । आजादी के साठ साल से भी ज्यादा बीत जाने के बाद भी इस तरह की घटनाएं लोकतंत्र को शर्मसार करती हैं । ये दोनों ही वाकए राहुल गांधी के पसंदीदा कार्यक्रम नरेगा से जुड़े हैं । नरेगा को देशभर में लागू करने की जिम्मेदारी भी राहुल के ही पसंदीदा मंत्री सीपी जोशी पर है और सूबे में कांग्रेस की सरकार है जिसके मुखिया अशोक गहलोत हैं । लेकिन बात सिर्फ राजस्थान की नहीं है ऐसी ही खबरें झारखंड और उड़ीसा से भी आ रही हैं । यहां सवाल यह उठता है कि क्या हम हमारा समाज और हमारी सरकार गरीबों पर समुचित ध्यान दे रही है । क्या गरीबी दूर करने के ठोस उपाय किए जा रहे हैं ।
दरअसल हो ये रहा है कि हमारा देश पूंजीवाद और उपभोक्तवाद की राह पर बेहद तेजी से बढ़ रहा हैं और इस राह को चुननेवाली सरकार अपनी इस तेजी में लोगों के प्रति जो सामाजिक जिम्मेदारियां हैं उससे दूर होते जा रही है । गरीबों को अनाज उपलब्ध करने में नाकाम रहनेवाली सरकार अब आम जनता को पानी भी मुफ्त में नहीं देना चाहती । आम आदमी के लिए काम करने का दंभ भरनेवाली दिल्ली की कांग्रेसी सरकार ने तो यह व्यवस्था लागू भी कर दी । जिस देश में लोग भूख से मर रहे हैं वहां सरकार पानी के दाम वसूल कर पानी पीकर जिंदा रहने के अधिकार से भी उसे महरूम कर देना चाहती है । योजनाबद्ध तरीके से गरीबों और किसानों को खाद बीज और अन्य सामनों पर सब्सिडी खत्म कर रही है । दूसरी तरफ उद्योग और उद्योगपतियों को सस्ती दरों पर जमीन और करों में छूट दिया जा रहा है । उद्योग और उद्योगपतियों को छूट देना गलत नहीं है लेकिन मापदंड जब दो हो जाते हैं तो सरकार की नीयत पर सवाल खड़े हो जाते हैं । दस हजार रुपये की कृषि ऋण वसूली के लिए सरकारी अफसर किसानों के घर तक जब्त करने में नहीं हिचकिचाते जबकि उद्योगपतियों से करोड़ों रुपये की ऋण वसूलने के लिए कुछ नहीं कर पाते हैं ।
बहुत दिनों से यह सुन रहा हूं कि भारत और इंडिया के बीच की खाई बढ़ती जा रही है लेकिन अब यह खाई इतनी गहरा गई है कि समाज का एक वर्ग ऐसा है जो यह कहता है कि गरीबी तो नैचुरल फैनोमिना है जिससे निबटना सरकार का काम नहीं है, खुद उस वयक्ति को इस फैनोमिना से निबटना होगा । अगर वह गरीब रहना चाहता है तो कोई भी उसकी मदद नहीं कर पाएगा । ऐसी बातें कहनेवाली जो पीढ़ी है उसके लिए गरीबी तो एक शब्द मात्र है । उसने ना तो कभी गरीबी देखी और ना ही कभी गरीबी महसूस की । अगर आपको इस पीढ़ी को देखना हो तो किसी भी शॉपिंग मॉल के मेगा स्टोर में चले जाइए । कपड़ों और अपनी साज सज्जा पर बेतहाशा खर्च करनेवाले कई युवक –युवतियां नजर आ जाएंगें । जिनके लिए पैसे कोई मायने ही नहीं रखते । हमारे ताकतवर नेताओं, बेशुमार दौलत के मालिक उद्योगपतियों, प्राइवेट सेक्टर में शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारियों के लिए पैसा की कोई अहमियत ही नहीं है ।
इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारे जो नीति नियंता हैं उन्हें भी गरीबों की फिक्र नहीं है । गरीबों की समस्याएं किसी के लिए चिंता का सबब नहीं बनती । उन्हें गरीबों और आम आदमी की याद सिर्फ चुनाव के वक्त आती है । गरीबों को सत्ता की सीढ़ी की तरह इंदिरा गांधी ने भी गरीबी हटाओ का इमोशनल नारा देकर इस्तेमाल किया था और फिर दशकों बाद कांग्रेस ने आम आदमी को लुभाकर सत्ता हासिल की । आम आदमी को साल भर में एक खास अवधि के लिए रोजगार मिले इसके लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लाया गया । इस बात का जोरशोर से प्रचार किया गया कि इस ऐतिहासिक योजना से भारत की गरीबी दूर हो जाएगी । कई चुनाव विश्लेषकों और पंडितों का यह दावा है कि यूपीए-2 की जीत के लिए यही योजना जिम्मेदार है । लेकिन इस योजना में जिस तरह की भयंकर गड़बड़ियों की शिकायतें मिल रही है, जिस पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है उससे तो यही लगता है कि इस योजना का लाभ इसे लागू करनेवालों को ज्यादा हो रहा है । इसके प्रमाण राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश और झारखंड से लेकर उड़ीसा के किसी भी गांव में बगैर ढूंढे आपको मिल सकते हैं । जरूरत इस बात कि है कि देश के हुक्मरान गरीबों के लिए सिर्फ योजना ना बनाएं उसे गरीबों तक पहुंचाने के लिए प्रयास भी करें । दलितों के घर में रात बिताने से उनका उद्धार नहीं होगा, जरूरत इस बात कि देश का हर दलित और गरीब सम्मान के साथ जी सके इसका इंतजाम करने की सार्थक पहल होनी चाहिए ।

Tuesday, January 5, 2010

मरने का तो हक दे दो

मुंबई के केईएम अस्पताल में छत्तीस साल से मौत की आगोश में सो रही अरुणा सौनवाग की वकील ने जब सुप्रीम कोर्ट में अपने क्लाइंट की ओर से इच्छामृत्यु की याचिका दायर की तो माननीय न्यायाधीशों ने उस याचिका को स्वीकार करने से इंकार कर दिया । जब अरुणा के वकील ने अपनी याचिका से इच्छामृत्यु शब्द को हटाकर उसकी जगह अपने मुवक्कलिल की मरनासन्न हालत का हवाला दिया और उसकी दवाएं रोकने की इजाजत मांगी तब जाकर याचिका सुनवाई के लिए स्वीकृत हुई । यह अपनी तरह का अकेला केस नहीं है । समय समय पर बारतीय न्यायपालिका के सामने इस तरह के केस आते रहे हैं । इन केसों का निबटारा भी होता रहा है लेकिन अभी तक हमारे देश में इच्छामृत्यु को कानूनी दर्जा प्राप्त नहीं हो सका है । जब भी इस तरह की कोई याचिका दायर होती है तो इच्छामृत्यु को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ जाती है । ठीक उसी तरह अरुणा सौनवाग की इस याचिका के स्वीकृत होने के बाद एक बार फिर से इच्छामृत्यु पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है । हलांकि हम अगर देखें तो हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में इच्छामृत्यु के कई उदाहरण मिलते हैं । सबसे बड़ा उदाहरण को महाभारत काल में भीष्म पितामह का ही । भीष्म पितामह ने जब मरना तय किया तो उस वक्त सूर्य दक्षिणायण था और सनातन धर्म के मुताबिक जब सूर्य दक्षिणायण हो तो उस वक्त प्राण त्यागना अच्छा नहीं माना जाता । इस धारमिक मान्यता को ध्यान में रखते हुए भीष्म पितामह ने मौत को वरण करने के पहले कई दिनों तक तीरों की शय्या पर अपनी मौत का इंतजार किया था । इसके अलावा जैन धर्म में तो इच्छामृत्यु की एक लंबी परंपरा रही है । साधुओं और साध्वियों के प्राणोत्सर्ग को एक उत्सव की तरह लिया जाता है और उसे धार्मिक मान्यता भी प्राप्त है । जैन धर्म के अनुयायी संथारा या सल्लेखना की इस प्रक्रिया को तपस्या की पराकाष्ठा मानते हैं । उनके मुताबिक अगर कोई जैन साधक या साध्वी अपने प्राण त्यागना चाहता है तो यह तपस्या का सबसे उच्च विंदु है और संथारा लेनेवाले को धर्म में अत्यधिक उच्च स्थान प्राप्त है । अभी-अभी प्रकाशित विलियम डेलरिंपल की किताब – नाइन लाइव्स में एक जैन साध्वी यह स्वीकार करती है कि सल्लेखना या मरना उनके लिए परम आनंददायक कर्म है ।
धर्म और धार्मिक मान्यताओं में इच्छामृत्यु या फिर मर्सी कीलिंग को तो एक तरीके से मान्यता प्राप्त है लेकिन भारतीय संविधान और कानून में इसको अबतक मान्यता नहीं मिल पाई है । इच्छामृत्यु के संबंध में कई मामले देश की अन्य अदालतों में आ चुके हैं, जिसपर माननीय न्यायधीशों ने संविधान के अनुसार फैसला सुनाया है । इस मामले में सबसे अहम जजमेंट ज्ञान कौर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया का जजमेंट है । सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस मामले में फैसाल सुनाते हुए कहा था- संविधान की धारा इक्कीस में जीवित रहने के अधिकार में मौत का अधिकार समाहित नहीं है । ठीक उसी तरह सम्मानपूर्वक जीवित रहने का अधिकार सम्मानपूर्वक मरने का अधिकार नहीं देता । पांच जजों की पीठ ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए यह भी कहा था कि किसी को भी इस तरह की मौत देने के लिए एक कानून की जरूरत है, जो कि ऐसे मामलों पर ना केवल नियंत्रण रखे बल्कि उसपर नजर भी रखे । जाहिर है फैसला सुनाते समय जजों के दिमाग में इसके बेजा इस्तामाल पर रोक लगाने की बात रही होगी । सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद यह बात पूरी तरह साफ हो गई थी कि अगर कोई भी वयक्ति या परिवार अपने किसी रिश्तेदार को इच्छामृत्यु या मर्सी कीलिंग में मदद करता है तो उसके खिलाफ भारतीय दंड विधान की धारा तीन सौ नौ के तहत आत्महत्या करने के लिए उकसाने और मदद करने का आरोप लगेगा ।
लेकिन एक और केस में इच्छामृत्यु को आत्महत्या से अलग बताया गया है । जस्टिस लोढा ने नरेश मारुतराव शेखरे बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में अपने एक लैंडमार्क जजमेंट में इच्छामृत्यु को आत्महत्या से अलग करार दिया था । जस्टिस लोढ़ा के फैसले के मुताबिक आत्महत्या और मर्सी किलिंग दोनों अलग-अलग हैं । उनके मुताबिक आत्महत्या बगैर किसी के सहयोग के किया जानेवाला कृत्य है जिसमें मरनेवाला खुद अपनी जिंदगी खत्म करने का फैसला लेता है । वहीं इच्छामृत्यु या मर्सी कीलिंग में किसी के मरने का फैसला उसके परिवार के लोग या फिर नजदीकी रिश्तेदार डॉक्टरों की सलाह के आधार पर लेते हैं । यह दोनों अवधारणा तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर भी अलग-अलग हैं ।
लेकिन हाल के वर्षों में इच्छामृत्यु पर सरकार और न्यायपालिका भी थोड़ी नरम दिखाई पड़ने लगी है और उस दिशा में भी सोचविचार शुरू हो गया है । इस साल जनवरी में केरल लॉ रिफॉर्म कमीशन ने केरल टरमिनली इल पेशेंट्स ( मेडिकल ट्रीटमेंट एंड प्रोटेक्शन ऑफ प्रैक्टिशनर्श एंड पेशेंट्स ) बिल का प्रस्ताव किया । इस बिल में बेहद दयनीय हालत में जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे गंभीर रूप से बीमार मरीजों, जिनके बचने की उम्मीद लगभग ना के बराबर हो और वो सिर्फ दवाओं और चिकत्सकीय उपकरणों के सहारे जीवित हों, को डॉक्टरों और रिश्तेदारों की सहमति से दवाएं रोककर और मेडिकल उपकरण हटाकर दयनीय जिंदगी से मुक्त करने की वकालत की गई है । केरल लॉ रिफॉर्म कमीशन के चेयरमैन और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज वी आर कृष्ण अय्यर इच्छामृत्यु की जोरदार वकालत करते नजर आते हैं और कहते हैं कि जीवन पवित्र है लेकिन असह्नीय दर्द और पीड़ा, जिससे छुटकारा की कोई उम्मीद नहीं, किसी के जीवित रहने पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा देता है । यहां जस्टिस अय्यर के विचारों से असहमत होने का कोई कारण नजर नहीं आता । अगर कोई गंभीर रूप से बीमार हो और जिंदगी और मौत के बीच झूलते हुए उसका बचना नामुमकिन हो तो उसके परिवार या रिश्तेदार को यह अधिकार होना चाहिए कि उसे मुक्त करने का फैसला लिया जा सके ।
लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने भी दो हजार आठ में अपनी रिपोर्ट में इच्छामृत्यु के पक्ष में अपनी राय जाहिर की थी । रिपोर्ट ने संविधान में प्रदत्त जीवित रहने के अधिकार की व्याख्या करते हुए कहा कि किसी भी वयक्ति की प्राकृतिक मौत तक उसे सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है । इस की व्याख्या करते हुए लॉ कमीशन ने सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार में सम्मानपूर्वक मरने के अधिकार को भी शामिल माना । लेकिन उस रिपोर्ट में यह बात साफ की गई थी कि इस अधिकार में अप्राकृतिक मौत कतई नहीं है । इसमें साफ तौर पर यह व्याख्यायित किया गया कि अगर कोई व्यक्ति बेहद बीमार है और उसके जीने की उम्मीद बिल्कुल क्षीण हो चुकी है, लेकिन मरने के पहले वो असह्नीय तकलीफ और दर्द से गुजर रहा है तो उसे इससे मुक्ति के लिए मौत की प्रक्रिया को तेज करने की इजाजत दी जा सकती है । क्योंकि यह प्रक्रिया किसी की जान लेना नहीं है बल्कि सिर्फ सम्मानपूर्नक मरने की प्रक्रिया का एक हिस्साभर है ।
इच्छामृत्यु पर ना केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में बहस चलती ही रहती है । विदेशों में तो अब भी इस विषय पर गहन विचार-विमर्श जारी है । लेकिन अबतक सिर्फ नीदरलैंड में इच्छामृत्यु को कानूनी जामा पहनाया जा चुका है और वहां मर्सी कीलिंग कानूनन जायज है । नीदरलैंड में इस काम के लिए मौत के मुहाने पर खड़े मरीज का डॉक्टर एक अन्य डॉक्टर की मदद लेता है और गंभीर यंत्रणा झेल रहे मरीज को उसके परिवार या रिश्तेदार की सहमति के आदार पर जिंदगी से मुक्त कर देता है । चूंकि इस काम में डॉक्टरों की मदद ली जाती है इसलिए डॉक्टरों के इस कृत्य पर वहां विशेषज्ञों में दो राय है । एक वर्ग डॉक्टरों की यह कहकर आलोचना करता है कि यह डॉक्टरी पेशे के खिलाफ है । उनका तर्क है कि पेशा शुरू करने के पहले डॉक्टरों को एक शपथ दिलाई जाती है जिसमें उन्हें यह वादा करना पड़ता है कि – किसी को खुश करने के लिए मैं कोई ऐसी दवा नहीं लिखूंगा जिससे किसी मरीज की जान जाए या फिर कोई ऐसा काम नहीं करूंगा जो किसी मरीज की मौत का कारण बने । इस शपथ के आधार पर ही मर्सी कीलिंग में मददगार बबनेवाले डॉक्टरों की आलोचना होती है । तो यह एक ऐसा विषय है जो दुधारी तलवार की तरह है, जिसपर बेहद सावधानीपूर्व चलने की जररूत है । भारत में सरकार को चाहिए कि इस विषय पर एक ड्रॉफ्ट पेपर तैयार कर राष्ट्रव्यापी बहस करवाई जाए और जो कुछ ठोस निकले उसपर अमल किया जाए । क्योंकि अब हमारे यहां भी वक्त आ गया है कि इच्छामृत्यु पर सरकार कोई फैसला ले क्योंकि अरुणा सौनवाग जैसे कई मरीज सालों से अपनी मौत का इंतजार कर रहे हैं और उनके इस इंतजार में उनके रिश्तेदार भी हर रोज मर रहे हैं ।