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Wednesday, September 28, 2011

वरिष्ठ संपादक की लचर किताब

लंबे समय तक कई अंग्रेजी अखबारों के संपादक रहे एस निहाल सिंह की संस्मरणात्मक आत्मकथा- इंक इन माई वेन- अ लाइफ इन जर्नलिज्म। उसमें देश पर इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए इमरजेंसी पर लिखते हुए निहाल सिंह ने जयप्रकाश नारायण को रिलक्टेंट रिवोल्यूशनरी (अनिच्छुक क्रांतिकारी)कहा है । एक लेखक को शब्दों के चयन में सावधान रहना चाहिए और अगर वो दो दशक से ज्यादा समय तक संपादक रहा है तो यह अपेक्षा और बढ़ जाती है । कोई भी क्रांतिकारी अनिच्छुक नहीं हो सकता । क्रांति का पथ तो वो खुद चुनता है तो फिर अनिच्छा कहां से । आगे निहाल सिंह लिखते हैं कि अगर इंदिरा गांधी बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री को हटाने और बिहार विधानसभा को भंग करने की मांग मान लेती तो जेपी संतुष्ट हो जाते । मुझे लगता है कि निहाल सिंह ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन और उनके विजन को बेहद हल्के ढंग से लिया है और दिल्ली में बैठकर अपनी राय बनाई है । जयप्रकाश नारायण को समझने की भूल अक्सर लोग कर जाते हैं । निहाल सिंह भी उसी दोष के शिकार हो गए हैं । ना तो उन्होंने संपूर्ण क्रांति आंदोन को समझा और ना ही जयप्रकाश के योगदान को । किस तरह से गुजरात के विद्यार्थियों ने उन्हें अहमदाबाद बुलाया था और उनसे मार्गदर्शन की अपील की थी ये सर्वविदित तथ्य है । निहाल सिंह की राय उसी तरह की है कि बगैर दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के अनशन के मूड को महसूस किए लोग अन्ना पर टिप्पणी कर रहे हैं । जयप्रकाश नारायण के बारे में निहाल सिंह की चाहे जो राय हो लेकिन गांधी ने कहा था कि - जयप्रकाश एक फकीर हैं जो अपने सपनों में खोए रहते हैं । इसके अलावा 25 जून 1946 को लिखा कि मैं जयप्रकाश की पूजा करता हूं । इसके बाद कुछ कहने को शेष रहता नहीं है ।

लेखक मोरार जी देसाई से काफी प्रभावित लगते हैं । जब भी उनका कोई प्रसंग उठता है तो लेखक यह बताना नहीं भूलते हैं कि मोरार जी भाई बेहद शुद्धतावादी थे । जब वो प्रधानमंत्री थे तो उस वक्त का एक दिलचस्प प्रसंग है - उस वक्त के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री के सामने ये प्रस्ताव रखा कि विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी और लेखिका नयनतारा सहगल को रोम में राजदूत बना दिया जाए । लेकिन मोरार जी भाई ने कहा कि राजदूत बनने से पहले नयनतारा को मंगत राय से शादी करनी होगी । मंगत राय और नयनतारा उस वक्त लिव इन रिलेशनशिप में थे । नयनतारा ने यह बात मान ली लेकिन दुर्भाग्य से मोरार जी भाई की सरकार ही गिर गई और वो राजदूत बन ना सकी । लेकिन 27 अगस्त 1978 को रविवार के अंक में संतोष भारतीय का एक लेख छपा था जिसमें लिखा गया था- मोरार जी भाई का इतिहास एक अक्खड़ वयक्तिवादी और परंपरावादी शुद्धता के आवरण को ओढे हुए एक जिद्दी आदमी का इतिहास रहा है । संतोष भारतीय ने उस लेख में तर्कों के आधार पर अपनी बात साबित भी की है जबकि निहाल सिंह टिप्पणी करके निकल जाते हैं । शायद निहाल सिंह को यह मालूम हो कि जब जयप्रकाश नारायण देश के अग्रिम पंक्ति के नेताओं में शुमार हो चुके थे उस वक्त मोरार जी भाई अंग्रेजी सरकार में डिप्टी कलेक्टर थे । मोरार जी देसाई से ऑबसेस्ड लगते हैं । क्यों इस बात के संकेत भी इस किताब में हैं लेकिन वो अवांतर प्रसंग है ।

एस निहाल सिंह- पत्रकारिता का एक ऐसा प्रतिष्ठत नाम, एक ऐसा बड़ा संपादक जिसने लंबे समय तक देस विदेश में पत्रकारिता की । कईयों का कहना है कि उनके लिखे को पढ़कर उन्होंने पत्रकारिता सीखी । अपने छात्र जीवन के दौरान मैंने भी द स्टेट्समैन में निहाल सिंह के कई लेख पढ़े थे । स्कूल में हमें यह बताया जाता था कि अगर अंग्रेजी अच्छी करनी है तो स्टेट्समैन के लेख पढ़ा करो । उस जमाने से एस निहाल सिंह और उनके लेखन को लेकर मन में एक इज्जत थी । इमरजेंसी के दौरान उनके और उनके अखबार के स्टैंड के बारे में पढ़कर ये इज्जत और बढ़ गई थी । उनका कुछ भी लिखा हुलसकर पढता था । मैंने निहाल सिंह की किताब इंक इन माई वेन- अ लाइफ इन जर्नलिज्म इस उम्मीद से पढ़नी शुरू की कि उन्होंने आजादी के बाद के देश की राजनीति को परखा होगा और कुछ नए तरीके से उस कालखंड को व्याख्यायित भी किया होगा । पाठकों की भी यही अपेक्षा रही होगी कि निहाल सिंह देश की राजनीति के अपने कुछ ऐसे अनुभवों को लिखेंगे जो अबतक सामने नहीं आए थे । लेकिन पाठकों को इस किताब से घोर निराशा होगी, मुझे भी हुई ।

निहाल सिंह ने अपनी इस किताब को संस्मरणात्मक आत्मकथा बना दिया है जिस वजह से इसका कोई निश्चित स्वरूप नहीं बन पाया है । इस किताब के बहुत से पन्ने उन्होंने अपने, अपने परिवार और अपने परिवेश के बारे में निहायत गैरजरूरी विवरणों से भर दिया है । अब पाठकों को इन बातों से क्या लेना देना कि आपका पहला सेक्स एनकाउंटर किससे हुआ और उसने आपके अंगों की तुलना किन प्रतीकों से की । पाठक की इस बात में क्यों रुचि होगी लेखक बचपन में इतने खूबसूरत थे कि स्कूल के बाहर आइसक्रीम का ठेला लगानेवाला उनको गुलाब (द रोज) कहकर पुकारता था । इस तरह की कई बातें इस किताब में भरी पड़ी है। तकरीबन तीन सौ पन्नों की इस किताब में लगभग डेढ सौ पन्नों में निहाल सिंह के निहायत ही निजी और पारिवारिक प्रसंग हैं । जिसमें उनकी अमेरिका यात्रा, मास्को प्रवास के संस्मरण, खलीज टाइम्स के दौरान उनका रहना सहना, दिल्ली की पार्टियों में शराब और शबाब के किस्से आदि है । किताब के प्राक्कथन में निहाल सिंह लिखते हैं कि कोई भी व्यक्ति जब अपने बारे में लिखता है तो उसे यह विश्वास होता है कि उसका लेखन उसके परिचितों और मित्रों से अलग एक बृहत्तर समुदाय के लिए रुचिकर होगा । इसके अलावा आत्मकथा लेखन में एक और बात होती है कि लेखक जीवन और मृत्यु के अपने दर्शन के बारे में भी अपना मत प्रकट करता है । हो सकता है कि निहाल सिंह ये सोच रहे हों कि उनकी इस आत्मकथा में वृहत्तर पाठक वर्ग की रुचि होगी लेकिन उनकी इस सोच को अगर वस्तुनिष्ठता की कसौटी पर कसेंगे तो कम से कम आधी सोच गलत साबित होती है ।

लेकिन ऐसा नहीं है कि निहाल सिंह की इस आत्मकथा को पूरे तौर पर खारिज कर दिया जाए । जब भी निहाल सिंह अपनी व्यक्तिगत चीजें छोड़कर राजनीति और राजनीतिक घटनाक्रम पर आते हैं तो किताब पटरी पर लौटती नजर आती है । इमरजेंसी की घटनाओं पर निहाल सिंह ने विस्तार से लगभग एक पूरा अध्याय लिखा है । इस अध्याय में निहाल सिंह ने इंदिरा गांधी के बारे में उनके स्वभाव के बारे में कई जगहों पर बेहद संजीदगी से टिप्पणी की है । इंदिरा गांधी के साथ की अपनी मुलाकात का जिक्र भी किया है । जिक्र तो अतुल्य घोष, एस के पाटिल से लेकर बाबू जगजीवन राम तक का है । लेकिन निहाल सिंह की इस किताब में दो अध्याय अहम हैं - द इमरजेंसी और इंदिरा'ज पॉलिटिकल रिबर्थ । अहम इस वजह से कि इसमें लेखक के अपने कुछ विचार सामने आते हैं । इसके अलावा जो अन्य अध्याय है उसमें सामान्य बातें हैं । दूसरी जो कमजोरी इस किताब की है वो कि इसके लेखों में तारतम्यता का अभाव है । लंबे समय तक संपादक रहे निहाल सिंह की किताब को संपादन की सख्त आवश्यकता थी क्योंकि कई जगह घटनाएं गड्ड-मड्ड हैं, आगे-पीछे आती जाती है, जो पाठकों को कंफ्यूज करती है ।

Sunday, September 11, 2011

राजेन्द्र यादव की 'पाखी'

मैं जब स्तंभ लिखने बैठा तो एक बार फिर से राजेन्द्र यादव मेरे ध्यान में आए । लेकिन मैं अभी दो पहफ्ते पहले ही यादव जी के इर्द गिर्द दो लेख लिख चुका हूं । इस वजह से एक बार फिर से उनपर लिखते हुए सोचने को मजबूर हूं कि लिखूं या नहीं लिखूं । दरअसल पहला लेख तो हंस पत्रिका के पच्चीस वर्ष पूरे होने और छब्बीसवें वर्ष में प्रवेश करने पर था और दूसरा लेख दिल्ली में आयोजित हंस के सालाना गोष्ठी पर । लेकिन दोनों के ही केंद्र में राजेन्द्र यादव थे । साहित्य की दुनिया में हर वर्ष का जुलाई और अगस्त का अंतिम सप्ताह राजेन्द्र यादव के नाम ही होता है । जुलाई के अंत में हंस की सालाना गोष्ठी और अगस्त के अंत में राजेन्द्र यादव का जन्मदिन समारोह । इस साल भी हर वर्ष की भांति राजेन्द्र यादव का जन्मदिन दिल्ली में कांग्रेस के युवा सांसद संजय निरुपम के घर के लॉन में मनाया गया । पिछले वर्ष की तुलना में इस बार का आयोजन भव्य था । लोगों की उपस्थिति भी ज्यादा । रसरंजन करते टुन्न होते लोग भी ज्यादा । लेकिन इस बार मैं यादव जी के जन्मदिन समारोह पर नहीं लिख रहा हूं । जिक्र इस वजह से कि जिस पत्रिका पर लिखने जा रहा हूं वो पत्रिका मुझे यादव जी के जन्मदिन समारोह में मिली । पत्रिका का नाम है पाखी जिसके संपादक हैं- प्रेम भारद्वाज । प्रेम भारद्वाज जी से मेरी फोन पर कई बार बात हुई थी लेकिन कभी आमने सामने की मुलाकात नहीं थी । मुझे पता नहीं उन्होंने कैसे पहचाना और बेहद ही गर्मजोशी से मुझसे मिले । मिलने के बाद उन्होंने मुझे पाखी का राजेन्द्र यादव पर केंद्रित भारी भरकम अंक दिया जो कि एक दिन पहले ही लोकार्पित हुआ था । वहां तो कवर पर यादव जी की भव्य तस्वीर ही देख पाया । पाखी के इस अंक का विज्ञापन कई अंकों से संभावित लेखकों के नाम के साथ छप रहा था। इसके अलावा मैत्रेयी जी,भारत भार्दवाज जी से भी कई बार इस प्रस्तावित अंक पर बात हुई थी । यादव जी का वयक्तित्व इतना तिलिस्मी है कि वो मुझे बार बार खींचता है और जब भी उनके बारे में कुछ पढ़ता हूं या उनके आस पास के लोगों से बात होती है तो कुछ न कुछ नया मिल ही जाता है चाहे वो लोगों के अनुभव हो या फिर यादव जी के दिलचस्प कारनामे ।

जन्मदिन की पार्टी से जब घर लौटा तो पाखी को पढ़ना शुरू किया । कई लेख पुराने थे लेकिन नए लेखों की संख्या ज्यादा है । सबसे पहले मैंने संपादकीय पढ़ा। संपादकीय पहले पढ़ने का फायदा यह होता है कि अंक का अंदाजा लग जाता है । पाखी के इस अंक का संपादकीय अद्भुत है । नए तरीके से प्रेम भारद्वाज ने राजेन्द्र यादव के वयक्तित्व को राजकपूर से जोड़कर अनोखे तरीके से व्याख्यायित किया है । प्रेम भारद्वाज लिखते हैं- राज कपूर की पहली निर्देशित फिल्म आग की शुरुआत 6 जुलाई 1947 को होती है । राजेन्द्र यादव की पहली कहानी प्रतिहिंसा भी इसी साल कर्मयोगी में प्रकाशित होती है । आग दोनों में है- रचनात्मकता की । आग का नायक जीवन में कुछ नया कर गुजरना चाहता था । जलती हुई महात्वाकांक्षा उसका ईंधन बनी । क्या यही सच राजेन्द्र यादव का नहीं है । राजू को स्त्री की देह (अनावृत्त स्त्री) पसंद है जिसे चलती भाषा में नंगापन कहा जाता है । ......नंगापन को वह रचनाओं में दिखाता है...थोड़ा ज्यादा उम्र बढ़ने पर स्त्री सौंदर्य के प्रति उसका नजरिया मांसल हो जाता है सत्यम शिवम सुंदरम और राम तेरी गंगा मैली ....हासिल और होना सोना एक दुश्मन साथ ऐसी ही रचनाएं हैं । वह आवारा , छलिया, श्री 420 है । बहुत दिनों बाद नए तरीके से लिखा गया संपादकीय पढ़कर मजा आ गया । प्रेम भारद्वाज को बधाई देने के लिए फोन भी किया लेकिन फोन बंद था । खैर....

आमतौर पर ऐसे विशेषांकों में लेखक की प्रशस्ति करते लेखों को संग्रहित किया जाता है और वह लगभग अभिनंदन ग्रंथ बनकर रह जाता है । लेकिन पाखी का राजेन्द्र यादव पर केंद्रित यह अंक इस दोष का शिकार होने से बच गया । इसमें कई लेख ऐसे हैं जो यादव जी के वयक्तित्व की तो धज्जियां उड़ाते ही हैं उनके लेखन को भी कसौटी पर कसते हैं । पुराने लेखों की चर्चा मैं यहां नहीं करूंगा । लेकिन चाहे वो निर्मला जैन का लेख हो या फिर यादव जी के भाई भूपेन्द्र सिंह यादव या फिर उनकी बेटी रचना के लेख हों सबमें एक ही स्वर है कि यादव जी पारिवारिक वयक्ति नहीं हैं और उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं किया । ये बातें जब बेटी और भाई कहें तो मान लेना चाहिए ।

मैत्रेयी पुष्पा को अबतक राजेन्द्र यादव की पसंदीदा लेखिका माना जाता था । दिल्ली के साहित्यिक हलके में यह बात बार-बार उठती रहती थी कि मैत्रेयी पुष्पा अब यादव जी के खेमे में नहीं रही और उन्होंने अशोक वाजपेयी के कैंप में अपनी जगह बना ली है । अफवाहों को नित नए पंख लगते रहे । लेकिन पाखी के इस अंक में मैत्रेयी पुष्पा ने साफ साफ ऐलान कर दिया है कि उन्हें अब राजेन्द्र यादव से कुछ लेना-देना नहीं । छिनाल विवाद के बाद जिस तरह से मैत्रेयी जी ने विभूति नारायण राय के खिलाफ मोर्चा खोला था उसमें यादव जी के साथ नहीं आने से आहत मैत्रेयी कहती हैं कि राजेन्द्र जी भरोसे को तोड़ा है । विभूति नारायण राय के खिलाफ उस वक्त मैत्रेयी ने मोर्चा खोला हुआ था लेकि साल भर बीतते बीतते हालत यह हो गई कि उनके बड़े से बड़े सिपहसालार ने राय का दामन थाम लिया । विरोध तो हवा में गुम ही गया कुछ तो राय साहब के प्रशंसक तक बन बैठे हैं । सुधा अरोड़ा का साक्षात्कार सामान्य है । दामोदर दत्त दीक्षित और भारत यायावर ने यादव जी को जरा ज्यादा ही कस दिया है । साहित्यिक पत्रकारिता के पच्चीस वर्ष पर प्रेम पाल शर्मा का छोटा लेकिन गंभीर लेख है । प्रेमपाल शर्मा चाहें तो उस लेख को और विस्तार दे सकते हैं, अभी उसमें काफी गुंजाइश है । इस अंक का जो सबसे कमजोर पक्ष है वो है संस्मरण । सभी में लगभग एक जैसी बात हैं और लोग अपने बारे में ज्यादा यादव जी के बारे में कम लिख रहे हैं । भारत भारद्वाज के संस्मरण में मृत्यु को लेकर लेखक और यादव जी का संवाद दिलचस्प है - भारत भारद्वाज पूछते हैं आप नहीं रहेंगे तो जनसत्ता में क्या शीर्षक छपेगा । पहले तुम बताओ । मैंने कहा खलनायक नहीं रहे । उन्होंने प्रतिवाद किया अच्छा और उपयुक्त शीर्षक रहेगा अब खलनायक नहीं रहे । दो रचनाकार अपनी मृत्यु को लेकर इतने खिलंदड़े अंदाज में बात कर रहे हों और मौत के बाद अखबार का शीर्ष तय कर रहे हों, कमाल है । पाखी के इस अंक में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि पिछले बीस सालों से हंस में प्रकाशित लोकप्रिय स्तंभ- समकालीन सृजन संदर्भ अब बंद हो गया है । अब लोग हंस को आगे से खोला करेंगे (काशीनाथ जी समेत कई लेखकों ने मुझसे वयक्तिगत बातचीत में कहा था कि वो हंस को पीछे से खोलते हैं )

पाखी का राजेन्द्र यादव पर निकला तीन सवा तीन सौ पृष्ठों का यह अंक हिंदी के पाठकों के लिए एक थाती है और उसे संभाल कर रखना चाहिए । हिंदी के नए पाठकों के लिए ये एक ऐसे वयक्ति के वयक्तित्व की परतें उघाड़ता है जो नए से नए लोगों को भी लिखने और पढ़ने के लिए लगातार प्रेरित करता है । इस अंके के लिए संपादक- प्रेम भारद्वाज- की मेहनत की जितनी भी सराहना की जाए वो कम है ।

Sunday, September 4, 2011

लोक से दूर लेखक

बचपन से सुनता था कि उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद कहा करते थे कि साहित्य समाज का दर्पण होता है । एक और बात सुनता था कि साहित्य राजनीति के पीछे नहीं बल्कि समाज के आगे चलनेवाली मशाल है । मैं इसे सुनकर यह सोचता था कि अगर साहित्य मशाल हैं तो साहित्यकार उस मशाल की लौ को लगातार जलाए रखने का काम करते हैं । भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का दिल्ली में ऐतिहासिक अनशन खत्म हो गया है । अब तमाम तरीके से लोग उस जन उभार और आंदोलन को मिले व्यापक जनसमर्थन का आकलन कर रहे हैं । यह वो वक्त था जब साहित्य और साहित्यकारों के सामने यह चुनौती थी कि वो साबित करे कि राजनीति के पीछे चलनेवाली मशाल नहीं है । लेकिन अन्ना के आंदोलन के दौरान कमोबेश साहित्यकारों का जो ठंडा या विरोध का रुख रहा उससे घनघोर निराशा हुई । हंस के संपादक और दलित विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव को को अन्ना के आंदोलन में आ रहे लोग भीड़ और उनका समर्थन एक उन्माद नजर आता है । उस भीड़ और उन्माद को दिखाने-छापने के लिए वो मीडिया को कोसते नजर आते हैं । उनका मानना है कि अन्ना के आंदोलन के पीछे व्यवस्था परिवर्तन का विचार कम और एक समांतर सत्ता कायम करने की आकांक्षा ज्यादा है । पता नहीं राजेन्द्र यादव को इसमें समानंतर सत्ता खड़ा करने के संकेत कहां से मिल रहे हैं, जबकि अन्ना हजारे और उनके लोग मंच से कई कई बार ऐलान कर चुके हैं कि वो चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं । अन्ना हजारे ने तो कई बार अपने साक्षात्कार में इस बात को दोहराया है कि अगर वो चुनाव लड़ते हैं तो उनकी जमानत जब्त हो जाएगी । टीम अन्ना भी हर बार व्यवस्था परिवर्तन की बात करती है । दरअसल ये जो सोच है वो अपने दायरे से बाहर न निकलने की जिद पाले बैठे है । राजेन्द्र यादव तो दूसरी शिकायत है कि अन्ना हजारे का जो आंदोलन है वो लक्ष्यविहीन है और जिस भ्रष्टाचार खत्म करने की बात की जा रही है वो एक अमूर्त मुद्दा है । उनका मानना है कि जिस तरह से आजादी का लड़ाई में हम अंग्रेजों की सत्ता के खिलाफ लड़े थे या फिर जयप्रकाश आंदोलन के दौरान इंदिरा गांधी की निरंकुश सत्ता के खिलाफ पूरा देश उठ खड़ा हुआ था वैसा कोई साफ लक्ष्य अन्ना के सामने नहीं है । भ्रष्टाचार के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी जा रही है वह अदृश्य है । करप्शन व्यापक रूप से समाज और नौकरशाही की रग रग में व्याप्त है, उसे खत्म करना आसान नहीं है । एक तरफ तो राजेन्द्र यादव कहते हैं कि ये समांतर सत्ता कायम करने की आंकांक्षा है तो दूसरी तरफ उन्हें कोई मूर्त लक्ष्य दिखाई नहीं देता है । राजेन्द्र यादव को अन्ना का आंदोलन बड़ा तो लगता है लेकिन इसके अलावा उन्हें सबसे आधारभूत आंदोलन नक्सलवाद का लगता है । उनका मानना है कि नक्सलवादी आंदोलन सारे सरकारी और अमानवीय दमन के बावजूद व्यवस्था परिवर्तन के लिए सैकड़ों लोगों को बलिदान के लिए प्रेरित कर रहा है । यादव जी को नक्सलवादी आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लगता है जबकि अन्ना का आंदोलन समांतर सत्ता कायम करने की आकांक्षा । क्या यादव जी यह भूल गए कि भारतीय सत्ता को सशस्त्र विद्रोह में उखाड़ फेंकने के सिद्धांत पर ही नक्सवाद का जन्म हुआ लगभग पांच दशक बाद भी नक्सलवादी उसी सशस्त्र विद्रोह के सिद्धांत के लिए प्रतिबद्ध हैं और उनका अंतिम लक्ष्य दिल्ली की सत्ता पर काबिज होना है । जबकि अन्ना का आंदोलन ना तो कभी सत्ता परिवर्तन की बात करते है और न ही हिंसा की ।

दरअसल राजेन्द्र यादव भी उसी तरह की भाषा बोल रहे हैं जिस तरह की माओवादियों की समर्थक लेखिका अरुंधति राय बोल रही हैं । अरुंधति राय को भी जनलोकपाल बिल में समानंतर शासन व्यवस्था की उपस्थिति दिखाई देती है । अन्ना के आंदोलन में पहले भारत माता की तस्वीर लगाने और उसके बाद गांधी की तस्वीर लगाने और वंदे मातरम गाने पर भी ऐतराज है । ऐतराज तो अन्ना के मंच पर तमाम मनुवादी शक्तियांयों के इकट्ठा होने पर भी है । लेकिन अन्ना के साथ काम कर रहे स्वामी अग्वनवेश और प्रशांत भूषण तो अरुंधति के भी सहयोगी हैं । अरुंधति को इस बात पर आपत्ति थी कि अनशन के बाद अन्ना एक निजी अस्पताल में क्यों गए । इन सब चीजों को अरुंधति एक प्रतीक के तौर पर देखती हैं और उन्हें यह सब चीजें एक खतरनाक कॉकटेल की तरह नजर आता है । पता नहीं हमारे समाज के बुद्धिजीवी किस दुनिया में जी रहे हैं । अन्ना के समर्थन में उमड़े जनसैलाब में दलितो,अल्पसंख्यकों और आदिवासियों को ढूंढने में लगे हैं । बड़े लक्ष्य को लेकर चल रहे अन्ना हजारे के आंदोलन में जिस तरह से स्वत: स्फूर्त तरीके से लोग शामिल हो रहे हैं वह आंखें खोल देनेवाला है । घरों में संस्कार और आस्था जैसे धार्मिक चैनलों की जगह न्यूज चैनल देखे जा रहे थे, जिन घरों से सुबह-सुबह भक्ति संगीत की आवाज आया करती थी वहां से न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों की आवाज या अन्ना की गर्जना सुनाई देती थी। अन्ना के समर्थन में सड़कों पर निकले लोगों के लिए ट्रैफिक खुद ब खुद रुक जाता था और आंदोलनकारियों को रास्ता देता था । ये सब एक ऐसे बदलाव के संकेत थे जिसे पकड़ पाने में राजेन्द्र यादव और अरुंधति जैसे लोग नाकाम रहे । अन्ना हजारे के आंदोलन से तत्काल कोई नतीजा न भी निकले लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे जिसको समझने में राजेन्द्र-अरुंधति जैसे महान लेखक चूक गए ।

लेखकों के अलावा हिंदी में काम कर रहे लेखक संगठनों की भी कोई बड़ी भूमिका अन्ना के आंदोलन के दौरान देखने को नहीं मिली । अगर किसी लेखक संगठन ने चुपके से कोई प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी हो तो वह ज्ञात नहीं है । यह एक ऐतिहासिक मौका था जिसमें शामिल होकर हिंदी के मृतप्राय लेखक संगठन अपने अंदर नई जान फूंक सकते थे । लेकिन विचारधारा के बाड़े से बाहर न निकल पाने की जिद या मूर्खता उन्हें ऐसा करने से रोक रही है । समय को न पहचान पाने वाले इन लेखक संगठनों की निष्क्रियता पर अफसोस होता है ।प्रगतिशील लेखक संघ अपने शुरुआती सदस्य प्रेमचंद की बात को भी भुला चुका है । साहित्य समाज का दर्पण तो है पर आज के साहित्यकार उस दर्पण से मुंह चुराते नजर आ रहे हैं । जब लेखकों के सामने यह साबित करने की चुनौती थी कि साहित्य राजनीति का पिछलग्गू नहीं है तो वो खामोश रहकर इस चुनौती से मुंह चुरा रहे हैं । इस खामोशी से लेखकों और लेखक संगठनों ने एक ऐतिहासिक अवसर गंवा दिया है । ऐसा नहीं है कि हिंदी के सारे साहित्यकार अन्ना के आंदोलन के विरोध में हैं कई युवा और उत्साही लेखकों के अलावा नामवर सिंह और असगर वजाहत जैसे वरिष्ठ लेखकों को अन्ना का आंदोलन अहम लगता है । नामवर सिंह कहते हैं कि अन्ना का आंदोलन समाज को एक नई दिशा दे सकता है,यह सदिच्छा से किया गया आंदोलन है और इसका अच्छा परिणाम होगा । वहीं असगर वजाहत को भी लगता है कि अन्ना का आंदोलन एक नया रास्ता खोल रहा है । नामवर और असगर जैसे और कुछ लेखक हो सकते हैं, होंगे भी लेकिन बड़ी संख्या में जन और लोक की बात करनेवाले लेखक जन और लोक की आंकांक्षाओं को पकड़ने में नाकाम रहे ।