Translate

Monday, July 27, 2015

सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म के खतरे

क्या आतंकवाद और आतंकवादियों का कोई मजहब होता है । क्या कातिलों का कोई धर्म होता है । हमारा संविधान तो यह नहीं कहता है, लेकिन संविधान की शपथ लेकर लोकतंत्र के मंदिर में बैठनेवाले चंद लोग आतंक और कातिल को भी धर्म और मजहब के खांचे में फिट कर अपनी राजनीति की गोटियां सेट करते हैं । ताजा मामला है मुंबई के सीरियल धमाकों के गुनहगार याकूब मेमन को फांसी दिए जाने का । अबतक मुंबई धमाकों का ये गुनहगार अपराधी था, जैसे ही इसकी फांसी की खबर आई वो मुसलमान हो गया । हैदराबाद से लोकसभा के लिए चुने गए और एमआईएम के असदुद्दीन ओबैशी ने कहा कि याकूब को इस वजह से फांसी दी जा रही है कि वो मुसलमान है । उन्होंने राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदले जाने का हवाला दिया । उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अगर फांसी दी जानी है तो उन सभी को सजाए मौत दी जानी चाहिए जिनको अदालत ने ये सजा दी है । उनका ये बयान बेहद आपत्तिजनक और लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ और गैरसंवैधानिक है । दो समुदाय को बांटनेवाला तो है ही । ये वही ओवैशी हैं जिनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन पर हमला किया था । ये ओवैशी वही हैं जिन्होंने लगातार हिंसा की बात की है । दरअसल इनकी राजनीति का आधार ही दो समुदायों के बीच नफरत है । हैरानी तो तब हुई जब शरद पवार की पार्टी एनसीपी के राज्यसभा सांसद माजिद मेमन ने भी महाराष्ट्र सरकार पर राजनीतिक और सांप्रदायिक वजहों से याकूब को जल्द फांसी देने का आरोप लगया । माजिद मेमन काफी सुलझे हुए वकील हैं, जब वो इस तरह की बातें करते हैं तो एक गलत तरह का संदेश जाता है । माजिद मेमन को यह मालूम है कि याकूब की फांसी पर सुप्रीम कोर्ट मुहर लगा चुका है । याकूब ने फांसी से बचने के लगभग सभी न्यायिक विकल्प आजमा लिए हैं । बावजूद इसके इस तरह का माहौल बनाया जा रहा है कि याकूब आतंकवादी ना हो । इस तरह आवाजों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से तथाकथित प्रगतिशील ताकतों का भी समर्थन मिलने लगा है ।
याकूब के बहाने से फांसी की सजा पर ही सवाल उठाए जाने लगे हैं । देश के सभ्य होने की दुहाई दी जाने लगी ।फांसी की सजा को बर्बर और मध्यकालीन कहा जाने लगा । फांसी की सजा को कानून प्रक्रिया अपनाते हुए किसी की हत्या की संस्कृति को बढ़ावा देने वाला करार दिया जाने लगा है । अचानक से एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट और मानवाधिकार याद आने लगे हैं । इस तरह की मुहिम प्रकरांतर से ओवैशी जैसे लोगों का समर्थन है । आज याकूब की फांसी की सजा पर छाती कूटनेवालों को उन परिवारों के दर्द का एहसास नहीं है जो 1993 के बम धमाकों में मारे गए थे । उनके मानव अधिकारों की चिंता के लिए न्याय के ये कथित ध्वजवाहक कभी भी सामने नहीं आए । क्या आपको याद पड़ता है कि कि जब बिहार के महावीर महतो और परशुराम धानुक को 1983 में फांसी दी गई थी तो इस तरह के सवाल उठाए गए थे । यह दोहरा रवैया हमारे लोकतंत्र के लिए घातक है । इस तरह की बातें करके हम समाज में दो समुदायों के बीच वैमनस्यता फैलाते हैं और प्रकरांतर से एक दूसरे को आमने सामने खड़ा कर देते हैं । राष्ट्र की अवधारणा की सोच पर इस तरह की बयानबाजी एक हमला है । इस खतरनाक प्रवृत्ति को समय रहते रोका जाना या फिर उसका जवाब दिया जाना आवश्यक है । जब समाज को बांटने पर बयानबाजी हो रही हो और उसको एरोगैंट सेक्यूलरिज्म का साथ मिलता है तो सांप्रदायिकता का जन्म होता है । हमारे देश ने शाह बानो केस के दौरान ये देखा है । मुसलमानों को लुभाने के लिए राजीव गांधी ने अगर तलाक और गुजारा भत्ते के मसले पर सिविल लॉ के उपर शरीया लॉ को तवज्जो देनावाला संविधान संशोधन ना किया होता तो नब्बे के दशक में सांप्रदायिकता का फैलाव नहीं होता ।

याकूब की फांसी को मजहब से जोड़नेवाले ये भूल जाते हैं कि आजाद भारत में अबतक जितनी फांसियां दी गई हैं उसका धार्मिक आधार पर वर्गीकरण एक अलग ही तस्वीर पेश करता है । हाल में प्रकाशित एक सर्वे के मुताबिक अबतक जितने लोगों को फांसी दी गई है उसमें सिर्फ पांच फीसदी मुसलमान हैं । इस तरह के आंकड़ें पेश करना बेहद पीड़ादायक है, क्योंकि हमारा संविधान, हमारा कानून , हमारे लोकतंत्र की मूल अवधारणा  किसी भी अपराधी को मजहब के आधार पर नहीं देखता । जब मजहब की आड़ में झूठ फैलाया जा रहा हो तब तथ्यों को सामने रखना जरूरी हो जाता है । दरअसल हमारे देश में एरोगैंट सेक्युलरिज्म को सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म का साथ मिलता है । मुसलमानों के मसले पर शोर मचानेवाले अन्य धर्म के मसले पर खामोश हो जाते हैं । इससे सांप्रदायिक ताकतों को फलने-फूलने का अवसर मिलता है । बहुसंख्यक लोगों के मानस में ये बात डाली जाती है कि मुसलमानों के मसले पर आसमान सर पर उठाने वाले अन्य धर्मों के मसले पर खामोश रहते हैं । आज हमारे बौद्धिक वर्ग से ये अपेक्षा की जाती है कि वो इस तरह का संदेह का वातावरण बनाकर सांप्रदायिकता की जड़े मजबूत करने के बजाए वस्तुनिष्ट होकर अपनी राय रखें और कानून के फैसले का सम्मान करना सीखें । 

Sunday, July 26, 2015

साहित्य में नई वर्ण व्यवस्था

हमारे देश में पिछले दो तीन वर्षों में लिटरेचर फेस्टिवल की संख्या में खासा इजाफा हुआ है । अब तो देशभर के अलग अलग शहरों में अलग अलग लिटरेचर फेस्टिव या साहित्य उत्सव मनाया जाता है । कई अखबारों ने भी साहित्य को ध्यान में रखते हुए अपने अपने लिट फेस्ट शुरू कर दिए हैं । परंतु ज्यादातर लिटरेचर फेस्टिवल में अंग्रेजी हावी रहती है, अंग्रेजी के लेखकों को प्राथमिकता दी जाती है । अच्छी बात यह हुई है कि अब हिंदी समेत कुछ अन्य भारतीय भाषाओं ने अपनी भाषा में साहित्योत्सव शुरू कर दिया है । सतह पर देखने ये साहित्य महोत्सव पाठकों को ध्यान में रखकर आयोजित किए जाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि इनका उद्देश्य और मंशा साहित्य और समाज के सवालों से टकराने का है । वरिष्ठ लेखक आपस में साहित्य की समकालीन समस्याओं से लेकर नई लेखकीय प्रवृत्तियों पर चर्चा करते हैं । माना यह जाता है कि इससे उस भाषा के पाठक संस्कारित होंगे । होते ही हैं । परंतु हाल के दिनों में इन लिटरेचर फेस्टिवल में सितारों और गंभीर लेखकों के बीच का फर्क मिट सा गया है । जिस तरह से प्रकाशकों को यह लगता है कि फिल्मी सितारों, राजनेताओं, सेलिब्रिटी पत्रकारों की किताबें छापने से उनको लाभ होगा उसी तरह से अब इन साहित्यक मेला आयोजकों को भी अपने बीच सितारों से लेकर पूर्व और वर्तमान राजनेताओं को लाने की होड़ लगी रहती है । देशभर के कई लिटरेचर फेस्टिवल में गुलजार साहब स्थायी भाव की तरह मौजूद रहते हैं, हिंदी के कवि के तौर पर । भले ही उन साहित्यक मेलों में केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी या विनोद कुमार शुक्ल हों या ना हों । गुलजार को बुलाने के पीछे की मंशा उनकी बेहतरीन कविताएं सुनने की अवश्य रहती होंगी लेकिन भीड़ जुटाना और पाठकों को आकर्षित करना भी एक मकसद रहता है । इसके अलावा अब तो फिल्मी सितारों को भी लिटरेचर फेस्टिवल में बुलाने का चलन शुरू हो गया है । अमिताभ बच्चन से लेकर शर्मिला टैगोर तक को इन साहित्यक महोत्सवों में बुलाया जाने लगा है । लिटरेचर फेस्टिवल से जुडे लोगों का कहना है कि सितारों के आने से भीड़ अवश्य जुट जाती है लेकिन इन मेलों के मूल उद्देश्य, साहित्य पर गंभीर चिंतन, की पूर्ति नहीं हो पाती है । कई बार तो इन सितारों की खातिरदारी या लेटलतीफी की वजह से सत्रों को छोटा भी करना पड़ता है या अन्य सत्रों को रद्द भी करना पड़ता है । मेले के आयोजन से जुड़े लोगों का कहना है कि साहित्योत्सवों में आनेवाले सितारों पर जितना पैसा खर्च होता है उसका असर लेखकों पर पड़ता है और यह सिर्फ भारत में होता है ऐसा नहीं है । पूरी दुनिया में लिटरेचर फेस्टिवल में सितारों की चनक नहसूस की जा सकती है । बेस्टसेलर उपन्यास चॉकलेट की लेखक जॉन हैरिस ने भी एक बार कहा था कि कई लिटरेचर फेस्टिवल इन सितारों के चक्कर में लेखकों पर होनेवाले खर्चे में भारी कटौती करते हैं । आयोजकों को लगता है कि सितारों के आने से ही उनको हेडलाइन मिलेगी । उन्होंने कहा था कि हाल के दिनों में लिटरेचर फेस्टिवल की संख्या में इजाफा हुआ है लेकिन लेखकों को इससे बहुत फायदा नहीं हुआ है ।  
जब हमारे देश में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत हुई थी तब शायद ही किसी को अंदाजा रहा हो कि ये फेस्टिवल अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाने के बाद अंतराष्ट्रीय स्तर पर विश्व के अलग अलग देशों में आयोजित होगा । जयपुर में आयोजित ये लिटरेचर फेस्टिवल साल दर साल मजबूती से साहित्य की दुनिया में अपने को स्थापित कर रहा है । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में भी सितारों और विवादों की खासी भूमिका रही है । सितारों की चमक से जयपुर लिटरेटर फेस्टिवल चमकता रहता है । आपको वहां फिल्म से जुडे़ जावेद अख्तर, शबाना आजमी, शर्मिला टैगोर, गुलजार आदि किसी ना किसी साल पर किसी ना किसी सेशन में अवश्य मिल जाएंगे । प्रसून जोशी भी । यहां तक कि अमेरिका की मशहूर एंकर ओपरा विनफ्रे भी यहां आ चुकी हैं । इन सेलिब्रिटी की मौजूदगी में बड़े लेखकों की उपस्थिति दब जाती है । इन लिटरेचर फेस्टिवल में प्रसिद्धि की एक वर्ण-व्यवस्था दिखाई देती है । इसको साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है । यह सिर्फ जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में ही नहीं बल्कि दुबई के लिट फेस्ट से लेकर एडिनबर्ग इंटरनेशनल बुक फेस्टिवल में देखा जा सकता है । लेखकों में भी सेलिब्रिटी की हैसियत या फिर मशहूर शख्सियतों की किताबों या फिर उनके लेखन को गंभीर साहित्यकारों या कवियों पर तरजूह दी जाती है । यह सब किया जाता है पाठकों के नाम पर । लंदन में तो इन साहित्यक आयोजनों में मशहूर शख्सियतों को लेखकों की बनिस्पत ज्यादा तवज्जो देने पर पिछले साल खासा विवाद हुआ था । यह आवश्यक है कि इस तरह के साहित्यक आयोजनों की निरंतरता के लिए मशहूर शख्सियतों का उससे जुड़ना आवश्यक होता है क्योंकि विज्ञापनदाता उनके ही नाम पर राशि खर्च करते हैं । विज्ञापनदाताओं को यह लगता है कि जितना बडा नाम कार्यक्रम में शिरकत करेगा उतनी भीड़ वहां जमा होगी और उसके उत्पाद के विज्ञापन को देखेगी, लिहाजा आयोजकों पर उनका भी दबाव होता है । परंतु सवाल यही है कि क्या इस तरह के आयोजनों में साहित्य या साहित्यकारों पर पैसे को तरजूह दी जानी चाहिए । कतई नहीं । अगर उद्देश्य साहित्य पर गंभीर विमर्श है, अगर उद्देश्य पाठकों को साहित्य के प्रति संस्कारित करने का है तब तो हरगिज नहीं । हां अगर उद्देश्य साहित्य के मार्फत कारोबार करना है तो फिर इस तरह से लटके झटके तो करने ही होंगे ।
अब अगर हम जयपुर लिटरेटर फेस्टिवल को ही लें तो यह साफ हो गया है कि आठ नौ साल के अंदर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ने विश्व के साहित्यक पचल पर अपना एक स्थान बना लिया है । इसको विश्व में लोकप्रिय बनाने में इसके आयोजकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी और वी एस नायपाल से लेकर जोनाथन फ्रेंजन तक की भागीदारी इस लिटरेचर फेस्टिवल में सुनिश्चित की गई । अब इस लिटरेचर फेस्टिवल को आयोजकों ने विश्व के अन्य देशों में ले जाने का फैसला किया । इस क्रम में पहले लंदन में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित किया गया । इस साल मई में लंदन के साउथबैंक सेंटर में दो दिनों तक लेखकों ने साहित्य और राजनीति के सवालों से मुठभेड़ की । जयपुर लिटरेटर फेस्टिवल को आयोजित करनेवाले लेखक द्वय नमिता गोखले और विलियम डेलरिंपल ने लंदन में भी सफलतापूर्व इसका आयोजन किया जिसमें कई भारतीय लेखकों ने भी शिरकत की । जयपुर की तरह लंदन का दो दिनों के फेस्टिवल में मुफ्त में प्रवेश नहीं था बल्कि एक निर्धारित शुल्क लेकर श्रोताओं को प्रवेश दिया गया । लंदन में सफलतापूर्वक आयोजन के बाद अब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल अमेरिका जा रहा है । आठारह लेकर बीस सितंबर तक तक अमेरिका में अब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन होगा । आयोजकों का दावा है कि अमेरिका में होने वाले इस लिटरेचर फेस्टिवल में करीब सौ से ज्यादा लेखक शामिल होंगे । कोलोराडो में आयोजित होनेवाले इस फेस्टिवल में लेखकों के साथ विमर्श के अलावा राजनीति और पर्यावरण की चिंताओं पर भी बात होगी । इसका मतलब यह है कि ये लिटरेचर फेस्टिवल लगातार अपना दायरा बढाता जा रहा है । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में एक खास बात यह है कि इसमें विमर्श पर भी तवज्जो दी जाती है । लेकिन जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने यह साबित कर दिया कि हमारे देश में साहित्य का बहुत बड़ा बाजार है । उसने यह भी साबित कर दिया कि साहित्य और बाजार साथ साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकते हैं । साबित तो यह भी हुआ कि बाजार का विरोध करनेवाले नए वैश्विक परिवेश में कहीं ना कहीं पिछड़ते जा रहे हैं । पिछड़ते तो वो पाठकों तक पहुंचने में भी जा रहे हैं । इसके विरोध में तर्क देनेवाले यह कह सकते हैं कि यह अंग्रेजी का मेला है लिहाजा इसको प्रायोजक भी मिलते हैं और धन आने से आयोजन सफल होता जाता है । सवाल फिर वही कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में हमने कोई कोशिश की? बगैर किसी कोशिश के अपने ठस सिद्धातों पर यह मान लेना कि हिंदी में इस तरह का भव्य आयोजन संभव नहीं है, गलत है । आसमान में सूराख हो सकता है जरूरत इस बात की है कि पत्थर जरा तबीयत से उछाली जाए ।    विवादों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को खासा चर्चित किया । आयोजकों की मंशा विवाद में रही है या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन इतना तय है कि विवाद ने इ, आयोजन को लोकप्रिय बनाया । चाहे वो सलमान रश्दी के कार्यक्रम में आने को लेकर उठा विवाद हो या फिर आशुतोष और आशीष नंदी के बीच का विवाद हो, सबने मिलकर इस फेस्टिवल को साहित्य की चौहद्दी से बाहर निकालकर आम जनता तक पहुंचा दिया । नतीजा यह हुआ कि साहित्य का ये फेस्टिवल धीरे धीरे मीना बाजार, यह शब्द इस स्तंभ में कई बार इस्तेमाल किया जा चुका है, बन गया । आयोजकों को स्पांसरशिफ से फायदा हुआ तो इस पेस्टिवल का दायरा और इसका प्रोडक्शन बेहतर होता चला गया ।
 

पचहत्तर के जगूड़ी

पिछले दिनों वरिष्ठ कथाकार और उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल से उनके शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास हलाला पर बात हो रही थी । उस उपन्यास पर बात होते होते मेवात की सांस्कृतिक विरासत पर जब बात होने लगी तो मोरवाल जी ने वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी की कवितागुंडा समय की कुछ पंक्तियां सुनाई- नहीं होकर भी मैं हूं इस गुंडा समय में /जितना मैं भागता जाता हूं/उतनी ही फैलती जाती है आग/जितना मैं वापस आता हूं /उतना ही जला हुआ पाता हूं आस-पास । मोरवाल की चिंता में मेवात की साझा सांस्कृतिक विरासत का छीजना था । कुछ इसी तरह का इशारा लीलाधर जगूड़ी भी अपनी कविता में करते हैं । कवि और उपन्यासकार दोनों की रचनाओं की चिंताएं लगभग समान हैं । मोरवाल के उपन्यास बाबल तेरा देस में हो या फिर काला पहाड़ वहां सामाजित तानेबाने पर बढ़ रहे दबाव पर चिंता दिखाई देती है । यह संयोग ही था कि जब हमारी बातचीत में लीलाधर जगूड़ी की कविताओं का प्रसंग आया तो उसके दो दिन बाद ही दिल्ली में शनिवार को जगूड़ी साहब के पचहत्तर साल पूरा होने के मौके पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ । लीलाधर जगूड़ी अपने समय के बेहद महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि बहुपठित और समादृत कवि भी हैं । एक जुलाई उन्नीस सौ चालीस में धंगड़, टिहरी में पैदा हुए लीलाधर जगूड़ी ने कविता के अलावा नाटक भी लिखे हैं । जगूड़ी जी को साहित्य अकादमी समेत कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं । शंखमुखी शिखरों पर, ईश्वर की अध्यक्षता में, खबर का मुंह विज्ञापन से ढंका है समेत ग्यारह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । यह हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि इस वक्त भी लीलाधर जगूड़ी सृजनकर्म में लगे हैं ।
जगूड़ी की कविताओं में अन्य विशेशताओं के अलावा जो एक बात मुझे बहुत आकृष्ट करती है वो है उनकी समसामयिक विषयों पर टिप्पणी । जैसे खबरें कविता में वो लिखते हैं जो अच्छे दिन की कामना में /खराब जीवन जिए चले जाते हैं /जो उस जीवन से बाहर चला जाता है /उसकी खबर आती है /कहीं कोई शर्म से मरा /बताया यह गया उसमें साहस नहीं था /घबराहट थी! कुंठा थी!कायरता थी !/विपदाग्रस्त पीड़ित या मृत व्यक्ति की/असफलता दिखाई जाती है मौत में भी/घबराना खबर है/शर्म कोई खबर नही । यह कविता आज के संदर्भ में भी कितनी सटीक है । इसमें कवि पूरे समाज को कसौटी पर कसता हुआ व्यंग्यात्मक लहजे में चोट करता है । घबराना खबर है लेकिन शर्म कोई खबर नहीं है यह दो पंक्ति आज के हमारे समाज की बदलती मनोदशा पर सटीक टिप्पणी है । आज जब हम अच्छी और बुरी कविता के बीच के खत्म होते जा रहे भेद को लेकर गाहे बगाहे चिंता प्रकट करते हैं तो ऐसे समय में लीलाधर जगूड़ी की कविताएं हमें बताती हैं कि अच्छी कविता क्या होती है । कविता क्या है शीर्षक अपने लेख में नामवर सिंह ने विजयदेव नारायण साही के हवाले से कहा है कि- छायावादी काव्य रचना की प्रक्रिया जहां भीतर से बाहर की ओर है उसी तरह से नयी कविता की रचना प्रक्रिया बाहर से भीतर की ओर है । लीलाधर जगूड़ी की कविताओं में हम इस बाहर से भीतर की ओर को रेखांकित कर सकते हैं । लीलाधर जगूड़ी की कविताओॆ में यथार्थ चित्रण इतना गहरा होता है कि उसमें जादुई तत्व डालने की आवश्यकता ही नहीं होती । उनका यथार्थ बोध उन्हें हिंदी के तमाम कवियों से अलग खड़ा करता है । ईश्वर उन्हें दीर्घायु बनाएं ।  

Saturday, July 18, 2015

साहित्य पत्रिकाओं की दुनिया

जब से बड़े संस्थानों से साहित्यक पत्रिकाएं निकलनी बंद हो गई तब से, या यों कहें उनके प्रकाशन जारी रहने के वक्त से ही लघु पत्रिकाओं के अस्तित्व को लेकर हिंदी साहित्य में चिंता जताई जाती रही है । लघु पत्रिकाओं के आर्थिक स्त्रोंतों पर भी हिंदी जगत में जोरशोर से चर्चा होती रही है । व्यक्तिगत आर्थिक प्रयासों से निकलनेवाली इन साहित्यक पत्रिकाओं को लेकर हिंदी जगत में खासी इज्जत रही है । होनी भी चाहिए । कई बार इन पत्रिकाओं में बेहतरीन साहित्य पढ़ने को मिल जाता है । अभी हाल ही में मशहूर कथाकार ज्ञानरंजन के संपादन में निकलनेवाली पत्रिता पहल का सौवा अंक बाजार में आया है । हिंदी साहित्य में इस अंक को लेकर खूब ढोल नगाड़े बजाए जा रहे हैं । बजाए भी जाने चाहिए क्योंकि सौ अंक का निकलना अपने आप में एक उपलब्धि तो है ही । लेकिन जिस तरह से पहल के इस अंक में लेखकों के परिचय छपे हैं उसपर कुछ विवाद हुआ है । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है । पहल के अलावा हाल ही में दो और पत्रिकाओं ने हिंदी जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा है । अभी हाल ही में जोधपुर से हसन जमाल के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका शेष का सतहत्तरवां अंक आया है । हर बार की तरह इस बार भी शेष में श्रेष्ठ रचनाओं की भरमार है । दो जबानों की किताब के नारे के साथ यह त्रैमासिक पत्रिका निकलती है । हसन जमाल साहब की जिद और जुनून की वजह से पत्रिका निकलती है और मेरे जानते देवनागरी में उर्दू के बेहतरीन रचनाओं के ये पत्रिका हिंदी के पाठकों का परिचय करवाती है । दिलचस्प बात यह है कि इस पत्रिका में छपता है- शेष उर्दू ज़बान के लिए उर्दू लिपि का हामी है । उर्दू के लिए देवनागरी का वकालत करनेवाले उर्दू ज़बान के खैरख्वाह नहीं हैं । लिपियां ज़बानों पर थोपी नहीं जाती हैंष लिपियां ज़बानों की हमजाद होती हैं । बाबजूद इस मत के शेष में कईऐसी रचनाएं मिल जाती हैं जो मूलत उर्दू में लिखी गई प्रतीत होती हैं । कहना नहीं होगा कि हसन जमाल साहब ने शेष को समकालीन हिंदी जगत की एक जरूरी किताब बना दिया है ।
कृष्ण बिहारी हिंदी के बेहतरीन कथाकारों में से एक हैं लेकिन हिंदी साहित्य ने उनकी कहानियों को उस तरह से नोटिस नहीं लिया जिसके वो हकदार हैं । मैं भी उनकी कहानियों से अपरिचित था लेकिन कुछ दिनों पहले वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र राव की के संस्मरणों की किताब आई थी । उस किताब में कृष्ण बिहारी की लेखन प्रतिभा को राजेन्द्र राव ने बेहद संजीदगी से याद किया है । उसके बाद मैंने उनकी कहानियां खोज कर पढ़ी । अभी हाल ही में लखनऊ से प्रज्ञा पांडे के सौजन्यसे कृष्ण बिहारी के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका निकट का अंक देखने का युयोग मिला । यह पत्रिका नौ वर्षों से निकल रही है । इसके मई अगस्त अंक में पढ़ने को बहुत कुछ है । कहानियों में मुझे आकांक्षा पारे की कहानी कठिन इश्क की आसान दास्तां ने प्रभावित किया । हिंदी से हास्य व्यंग्य लगभग गायब होता जा रहा है लेकिन निकट पत्रिका के इस अंक में साहित्य मसाला के नाम से एक स्तंभ है जिसमें मेला घुमनी के नाम से कुछ बेहद मजेदार टिप्पणियां हैं । इस तरह की टिप्पणियां साहित्य जगत को सजीव बनाए रखती हैं । यह पूरा अंक पठनीय है । इसी तरह से कथाकार अनंत कुमार सि्ंह के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका जनपथ का नया अंक भी मेरे सामने है । जनपथ का जून अंक पहले की अंकों की तुलना में कमजोर है । दो सह संपादक, तीन संपादकीय सहयोगी और पांच विशेष सहयोगी और सात संरक्षक होने के बावजूद इस अंक में चंद्रकिशोर जायसवाल और अरुण अभिषेक की रचनाओं के अलावा बढ़ने लायक कुछ भी नहीं हैं । संपादक को निर्ममता के साथ रचनाओं को छांटना भी उतना ही जरूरी होता है जितना कठोरता के साथ स्वीकार करना ।

इतिहास लेखन का धुंध !

हाल के दिनों में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन को लेकर खासा बवाल मचा है । केंद्र में नई सरकार के गठऩ और फिर भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से लेकर अन्य संस्थाओं में में नई नियुक्तियों को लेकर इस बात पर खूब विमर्श हो रहा है कि सरकार भारत के इतिहास को बदलना चाहती है । पहले भी जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी तब भी इस तरह के आरोप उछले थे और इस बार भी उछल रहे हैं । भारत के इतिहास के पुनर्लेखन को सांप्रदायिकता से जोड़ने का खेल फिर से शुरू हो गया है । तर्कों के आधार पर बात होनी चाहिए कि क्यों नहीं प्राचीन भारत से लेकर मध्यकालीन भारत और आधुनिक भारत का इतिहास फिर से लिखा जाना चाहिए । इतिहास पुनर्लेखन के खिलाफ बात करनेवालों का एक ही तर्क होता है कि यह पुराने धर्मनिरपेक्ष लेखन को दरकिनार करने की साजिश है । तर्क तो यह भी दिया जाता है कि जबरदस्ती हिंदू राजाओं और हिंदू शासकों के बहाने से हिंदू धर्म को बढ़ावा देने के लिए इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश की जाती रही है । इन तर्कों के समर्थन में सबसे आसान होता है राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को शामिल करना । बहुधा यह कहा जाता है कि संघ के इशारे पर ही सरकार पाठ्यक्रमों में पठाए जानेवाले इतिहास को बदलने की कोशिश कर रही है । यही तर्क तब भी दिए गए थे जब अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री बने थे । जब मशहूर इतिहासकार बिपान चंद्रा की अगुवाई में चल रहे शोध टूवर्ड्स फ्रीडम का प्रजोक्ट रोक दिया गया था । तब भी इन्हीं तर्कों के सहारे उस वक्त की सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई थी । दरअसल इतिहास लेखन पर जिस तरह से राजनीति होती है और जिस तरह से पक्ष विपक्ष एक दूसरे के आमने सामने आ जाते हैं उसमें असली मुद्दा दबकर रह जाता है । तर्क राजनीतिक बयानबाजी का शिकार होकर रह जाती हैं । एक पक्ष इतिहास लेखन की बात करता है या फिर उसको फिर से लिखवाने की मंशा जाहिर करता है तो विरोधी उनपर सांप्रदायिकता या धर्म विशेष का पक्षधर होने का आरोप लगाना शुरू कर देते हैं । बजाए इन आरोपों में उलझने के पाठ्यपुस्तक इतिहास पुनर्लेखन की जरूरतों के बारे में और पूर्व की गलतियों या कमियों को सामने रखना चाहिए । किस तरह से पूर्व के इतिहासकारों ने कुछ पक्षों की जानबूझकर या फिर अज्ञानतावश अनदेखी कर दी उसके बारे में जनता को बताना चाहिए । होता यह है कि विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की हिंदूवादी छवि की आड़ में तर्कों को दूसरी दिशा में मोड़ देते हैं । नतीजा यह होता है कि इतिहास लेखन की खामियों की ओर ध्यान नहीं जा पाता है और सारा हल्ला गुल्ला सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के भंवर में फंस जाता है । भारतीय इतिहास लेखन को देखें तो पाते हैं कि इसमें कई तरह की खामियां हैं । हमारे अबतक के इतिहास लेखकों ने इस बात पर खासा जोर दिया कि भारत पर कौन कौन से आक्रमणकारी आए, किसने हमारे देश को कितना लूटा, किसने कितने लोगों की हत्या की आदि आदि । मोटे तौर पर छात्रों को आक्रमणकारियों और युद्ध का इतिहास पढाया जाता है । क्या इतिहास लेखन में सिर्फ युद्ध का ही उल्लेख होना चाहिए । क्या किसी देश में बाहर से आए उन कारोबारियों का उल्लेख नहीं होना चाहिए जिन्होंने हमारे देश को, हमारे समाज को गहरे तक प्रभावित किया । आक्रमणकारियों का इतिहास लिखने में हम यह भूल जाते हैं कि पारसी और यहूदी कारोबारियों का भी हमारे देश के इतिहास में क्या स्थान है । क्या हमारे अबतक के इतिहासकारों ने उनके बारे में, उनके योगदान के बारे में सोचा । नहीं सोचा । अब अगर हम इससे थोड़ा अलग हटकर बात करें तो सवाल यह भी उठता है कि क्या किसी भी देश का इतिहास सिर्फ उसके शासकों के इर्द गिर्द घूमता है । इस सवाल से मुठभेड़ करते हुए मशहूर इतिहासकार रामशरण शर्मा की अगुवाई में कई इतिहासकारों ने हाशिए के लोगों को भी इतिहास लेखन के केंद्र में रखा । यह ठीक कदम था । सबाल्टर्न का इतिहास लिखा गया । फिर से वही सवाल उठता है कि क्या किसी देश का इतिहास सिर्फ राजा और प्रजा, शासक और शासित या फिर राजा के जुल्म और प्रजा की जुल्म सहने की दास्तां होती है या फिर इससे इतर भी कुछ होता है । हमारे देश के इतिहास लेखकों ने दरअसल अपना दायरा काफी छोटा रखा । इतिहास की किताबों में मुख्य रूप से आक्रमणकारियों, राजाओं और बाद में मार्क्सवादी इतिहासकारों की वजह से आम लोगों को इतिहास का अंग माना गया और उसके आधार पर ही इतिहास लेखन किया गया । कभी हमने यह सोचने की कोशिश की क्या हमारे इतिहास में नदियों की धारा बदलने का कोई प्रभाव पड़ा । नदियों की धारा बदलने से एक तरफ जहां गांव खत्म हुए वहीं दूसरी तरफ जमीन के बाहर आने से वहां नए गांव बसे । इन सब का जिक्र हमारी इतिहास की किताबों में क्यों नहीं है । यह सवाल तो उठाया ही जाना चाहिए और इसके आधार पर शोध करते हुए इतिहास को दुरुस्त भी किया जाना चाहिए ।
अब हम उन तर्को को सामने रखते हैं जिसके आधार पर इतिहास पुनर्लेखन पर सांप्रदायिक होने के आरोप लगते हैं । भारतीय विज्ञान का इतिहास लिखते वक्त क्या हमने अपनी गौरवशाली परंपरा की अनदेखी नहीं की । गणित से लेकर आयुर्वेद तक में भारत की जो उपलब्धियां रहीं उसको जानबूझकर या फिर एक साजिश के तहत अनदेखा नहीं किया । जिस देश में वैदिक गणित का लंबा इतिहास रहा है उसको दरकिनार किया गया । जब इस तरह के इतिहास लेखकों पर सवाल उठे तो पुष्पक विमान जैसी मिथकीय चीजों को आगे कर उसका मजाक उड़ाया गया । अपनी कमी को ढंकने के लिए इस तरह की बात फैलाई गई कि प्राचीन भारत में विज्ञान की बात करनेवाले पुष्पक विमान और राक्षसों के हवा में उड़ने आदि की बात करते हैं। पौराणिक विज्ञान की बात करनेवाले कुछ अज्ञानी किस्म के बाबाओं ने भी अनजाने इन तर्कों को बढ़ाया और मूल प्रश्न दबे रह गए । अब अगर हम ऐतिहासिक चरित्रों की बात करें तो वहां भी वस्तुनिष्ठता के साथ लेखन का साफ आभाव दिखता है । जिन चरित्रों को उभारना था, चाहे वो अशोक हो या अकबर उनके सिर्फ अच्छे कारनामों को आगे किया गया । सम्राट अशोक के चरित्र को अहिंसा का पुजारी और महान शासक के तौर पर गढ़ने में कलिंग युद्ध में उनकी सेना के द्वारा किए गए नरसंहार को भी उनके हृद्य परिवर्तन से जोड़ दिया गया है । बगैर किसी ऐतिहासिक सबूत के यह बात गढ़ी गई कि अशोक को उस नरसंहार के बाद बेहद अफसोस हुआ था । ठीक है हम एक मिनट को इतिहास के इस अध्याय को मान भी लें लेकिन क्या इतिहास कल्पना के आधार पर लिखा जानेवाला फिक्शन है या इतिहास सबूतों और शिलालेखों पर मिले अवशेषों और संकेतों पर लिखा जाता है । यह बात अब तक सामने नहीं आई है कि किस शिलालेख या किस दस्तावेज में अशोक के इस हृ्दय परिवर्तन की चर्चा है । बस एक कहानी प्रतिपादित कर दी गई जो पीढ़ियों से पढाई जा रही है । क्या इस बात की जरूरत नहीं है कि इस कहानी की पड़ताल की जाए ।
भारत में इतिहास लेखन में एक और बात मुख्य रूप से देखने को मिलती है जहां इतिहासकार तथ्यों में अपनी राय को जोड़ते हुए उसका विश्लेषण करता है । ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत के इतिहासकारों ने इस पद्धति का उपयोग किया है । पूरी दुनिया के इतिहासकार इतिहास लेखन के वक्त तथ्यों के साथ अपनी राय आरोपित करते चलते हैं । लेकिन भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस छूट का बेजा इस्तेमाल किया और बहुधा तथ्यों पर अपनी राय को हावी कर दिया । क्या इस बात की आवश्यकता नहीं है कि इतिहासलेखन में इतिहासकारों की राय को तथ्यों से अलग कर देखा जाए । तथ्यों की व्याख्या आवश्यक है लेकिन व्याख्या के बोझतले तथ्यों को दबा देना अपराध है । अंत में हम बात करते हैं इतिहास पुनर्लेखन पर लगनेवाले सांप्रदायिकता के आरोप की । दरअसल अगर हम देखें तो यह तर्क भी गलत है । हम पूरे परिदृश्य पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि दक्षिण भारत से लेकर उत्तर पूर्व तक के राजाओं को उतनी अहमियत नहीं दी गई जितनी मध्य और उत्तर भारत के शासकों को दी गई । क्या सिर्फ मध्य और उत्तर भारत के शासकों पर विस्तार से लिखकर भारत के इतिहास को समझा जा सकता है । क्या अशोक और अकबर की तुलना में हमारे इतिहास में चोल वंश से लेकर सातवाहन या फिर अहोम राजवंश के बारे में कितना मिलता है । इन तर्कों की कसौटी पर इतिहास लेखन को कसने की जरूरत है तो फिर सारे धुंध खुद ब खुद साफ होते चले जाएंगे ।  

Thursday, July 16, 2015

लिटरेचर फेस्टिवल का बढ़ता दायरा

जब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत हुई थी तब शायद ही किसी को अंदाजा रहा हो कि ये फेस्टिवल अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाने के बाद अंतराष्ट्रीय स्तर पर विश्व के अलग अलग देशों में आयोजित होगा । जयपुर में आयोजित ये लिटरेचर फेस्टिवल साल दर साल लोकप्रियता की नई ऊंचाइयां हासिल कर रहा है । इस फेस्टिवल के सफल होने में साल दर साल होनेवाले विवादों की भी महती भूमिका है । विवादों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को खासा चर्चित किया । आयोजकों की मंशा विवाद में रही है या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन इतना तय है कि विवाद ने इ, आयोजन को लोकप्रिय बनाया । चाहे वो सलमान रश्दी के कार्यक्रम में आने को लेकर उठा विवाद हो या फिर आशुतोष और आशीष नंदी के बीच का विवाद हो, सबने मिलकर इस फेस्टिवल को साहित्य की चौहद्दी से बाहर निकालकर आम जनता तक पहुंचा दिया । नतीजा यह हुआ कि साहित्य का ये फेस्टिवल धीरे धीरे मीना बाजार, यह शब्द इस स्तंभ में कई बार इस्तेमाल किया जा चुका है, बन गया । आयोजकों को स्पांसरशिफ से फायदा हुआ तो इस पेस्टिवल का दायरा और इसका प्रोडक्शन बेहतर होता चला गया । आठ नौ साल के अंदर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल विश्व में जाना पहचाना फेस्टिवल हो गया । इसको विश्व में लोकप्रिय बनाने में इसके आयोजकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी और वी एस नायपाल से लेकर जोनाथन फ्रेंजन तक की भागीदारी रही। भारत के दर्शकों की रुचि को ध्यान में रखकर कभी गुलजार तो कभी जावेद शबाना, तो कभी राहुल द्रविड़- राजदीप सरदेसाई तो कभी शर्मिला टैगोर की उपस्थिति सुनिश्चित की जाती रही । इसका फायदा भी मिला । अब जब यह लिटरेचर फेस्टिवल एक मुकाम हासिल कर लिया है तो इसको आयोजकों ने इसको विश्व के अन्य देशों में ले जाने का फैसला किया । इस क्रम में पहले लंदन में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित किया गया । इस साल मई में लंदन के साउथबैंक सेंटर में दो दिनों तक लेखकों ने साहित्य और राजनीति के सवालों से मुठभेड़ की । जयपुर लिटरेटर फेस्टिवल को आयोजित करनेवाले लेखक द्वय नमिता गोखले और विलियम डेलरिंपल ने लंदन में भी सफलतापूर्व इसका आयोजन किया जिसमें कई भारतीय लेखकों ने भी शिरकत की । जयपुर की तरह लंदन का दो दिनों का फेस्टिवल में मुफ्त प्रवेश नहीं था बल्कि एक निर्धारित शुल्क लेकर श्रोताओं को प्रवेश दिया गया । लंदन में सफलतापूर्वक आयोजन के बाद अब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल अमेरिका जा रहा है । आठारह लेकर बीस सितंबर तक तक अमेरिका में अब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन होगा । आयोजकों का दावा है कि अमेरिका में होने वाले इस लिटरेचर फेस्टिवल में करीब सौ से ज्यादा लेखक शामिल होंगे । कोलोराडो में आयोजित होनेवाले इस फेस्टिवल में लेखकों के साथ विमर्श के अलावा राजनीति और पर्यावरण की चिंताओं पर भी बात होगी । इसका मतलब यह है कि ये लिटरेचर फेस्टिवल लगातार अपना दायरा बढाता जा रहा है । विमर्श से लेकर आयोजन तक का । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने यह साबित कर दिया कि साहित्य का भी बहुत बड़ा बाजार है । उसने यह भी साबित कर दिया कि साहित्य और बाजार साथ साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकते हैं । साबित तो यह भी हुआ कि बाजार का विरोध करनेवाले नए वैश्विक परिवेश में कहीं ना कहीं पिछड़ते जा रहे हैं । पिछड़ते तो वो पाठकों तक पहुंचने में भी जा रहे हैं । इसके विरोध में तर्क देनेवाले यह कह सकते हैं कि यह अंग्रेजी का मेला है लिहाजा इसको प्रायोजक भी मिलते हैं और धन आने से आयोजन सफल होता जाता है । सवाल फिर वही कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में हमने कोई कोशिश क्या ? बगैर किसी कोशिश के अपने ठस सिद्धातों के यह मान लेना कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में इस तरह का आयोजन संभव नहीं है, गलत है । आसमान में सूराख हो सकता है जरूरत इस बात की है कि पत्थर जरा तबीयत से उछाली जाए । 

Wednesday, July 15, 2015

सच का सामना का साहस !

अभी पिछले दिनों मैं अपने ट्वीटर अकाउंट को देख रहा था तो मैंने पाया कि कुछ लोगों ने मुझे ब्लॉक कर रखा है । मुझे हैरानी तब हुई जब मैंने देखा कि ब्लॉक करनेवालों की फेहरिश्त में अलग अलग विचारधारा के नेता, एक्टिविस्ट और हमारी पत्रकार बिरादरी के सदस्य भी हैं । आश्चर्य तब और ज्यादा हुआ जब मैंने देखा कि विश्व प्रसिद्ध लेखक सलमान रश्दी ने भी मुझे ब्लॉक कर रखा है । मैं सोच में पड़ गया कि सलमान रश्दी ने मुझे क्यों ब्लाक किया । नैतिकता के उच्च मानदंडों की बात करनेवाले दो तीन नेताओं ने तो मुझे इस वजह से ब्लॉक किया है कि उनको मेरे सवालों से दिक्कत थी । मेरे सवाल उनको सार्वजनिक तौर पर असहज कर रहे थे । सलमान रश्दी ने जब मुझे ब्लॉक किया तो मुझे हैरानी इस वजह से हुई कि वो तो लेखकीय स्वतंत्रता के लिए जाने जाते हैं । उन्होंने अपनी पोजिशनिंग इस तरह की बनाई है लेखकीय स्वतंत्रता के लिए उन्हें कितना झेलना पड़ा । झेलना भी पड़ा है । उनको जिसके बारे में वो बहुधा बताते भी रहते हैं । अपनी किताब जोसेफ एंटन में उन्होंने इस पर विस्तार से लिखा भी है । मैंने जोसेफ एंटन की विस्तृत समीक्षा लिखी थी उसमें अन्य बातों के अलावा मैंने ये कहा था कि उसको थोडा और कसने की जरूरत है और उस उपन्यास में उबाऊ होने की हद तक विस्तार दिया गया है । खैर जोसेफ एंटन की समीक्षा लिखे जाने तक हमारा ट्विटर संवाद था, बहुधा एकतरफा । मैंने अपनी लिखी समीक्षा के लिंक उनको टैग भी किए थे । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जब सलमान रश्दी के भारत आने को लेकर विवाद हुआ था,  तब भी मैंने सलमान रश्दी के पक्ष में स्टैंड लिया था। देशभर के कई अखबारों में लंबे लंबे लेख लिखे थे । उस वक्त भी ट्विटर पर उनके साथ जुड़ाव था, मैं उनको फॉलो करता था । मुझे लगता है गड़बड़ी की शुरुआत, रश्दी और भालचंद नेमाड़े के बीच हुए विवाद में मेरे स्टैंड को लेकर हुआ । भालचंद नेमाडे को जब ज्ञानपीठ पुरस्कार देने का एलान किया गया था तब सलमान रश्दी ने एक घोर आपत्तिजनक ट्वीट किया था- ग्रम्पी ओल्ड बास्टर्ड, जस्ट टेक योर प्राइज ऐंड से थैंक्य यू नाइसली । आई डाउट यू हैव इवन रेड द वर्क यू अटैक । दरअसल नेमाडे ने मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान सलमान की किताब मिडनाइट चिल्ड्रन को औसत कृति करार दिया था । सलमान के गाली गलौच भरे ट्वीट के खिलाफ मैंने जनसत्ता में एक लेख लिखा था ताक पर मर्यादा, जो इसी वर्ष पंद्रह फरवरी को प्रकाशित हुआ था । अपने उस लेख में मैंने सलमान रश्दी के आपत्तिजनक ट्वीट के बहाने से उनके कृतित्व पर भी अपने विचार रखे थे । ट्वीट पर तो उनको जवाब दिया ही था, जनसत्ता का लिंक भी टैग कर दिया था । लेकिन कभी भी मैंने सलमान रश्दी की तरह भाषिक मर्यादा का उल्लंघन कभी नहीं किया, हां उनकी कृतियों को तर्क की कसौटी पर अवश्य कसा । उनके ट्वीट को भाषा की मर्यादा की हदों से बाहर जानेवाला करार दिया । अब एक बात मेरी समझ से परे है । इतना बड़ा लेखक, जो वर्षों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक बना हो वो अपनी कृतियों के खिलाफ, अपने भद्दे ट्वीट्स के खिलाफ कुछ भी सुनने का माद्दा नहीं रखता है । दरअसल अब मुझे लगने लगा है कि सलमान रश्दी के तरह के जो लेखक हैं उनको अपने खिलाफ सुनना अच्छा नहीं लगता है । रचनात्मकता के उस दौर में जब कलम नपुंसक होने लगती है और उसके पुंसत्व पर सवाल खड़े करते लेख या टिप्पणी प्रकाशित हो तो लेखक बिलबिलाने लगता है । यही बिलबिलाहट लेखक को दूसरे की राय को ब्लॉक करने के लिए उकसाती है । जब कोई काम प्रतिक्रिया में या बदले की भावना से किया जाता है तब उस वक्त हर इंसान मतिभ्रम का शिकार हो जाता है । मतिभ्रम होने की स्थिति में इसी तरह के काम होते हैं जैसा कि सलमान रश्दी ने किया । आदर्श स्थिति तो वह होती जिसमें मेरे तर्कों पर बहस होती और वो अपने तर्क रखते । संभव है कि वो इतने बड़े लेखक हैं कि मुझ जैसे अदने शख्स से बहस नहीं करना चाहते हों । ये उनका फैसला हो सकता है, इसमें मुझ समेत किसी को भी आपत्ति नहीं । आपत्ति तो इसमें भी नहीं कि उन्होंने ट्विटर पर ब्लॉक कर दिया, लेकिन सवाल तब उठते हैं जब ऐसा किसी खास मकसद और मंशा से किया गया हो । मकसद साफ है और मंशा भी । सलमान रश्दी में अपना सार्वजनिक आलोचना सहने की क्षमता नहीं है ।
दरअसल यह एक प्रवृत्ति है । इस प्रवृत्ति के शिकार वैसे सभी लोग होते हैं जिनको लगता है कि वो आलोचनाओं से परे हैं । इस तरह के लोगों को यह भी लगता है कि समाज में उनका जो स्थान है वो इतना पवित्र है कि उसपर उंगली नहीं उठाई जा सकती है । नैतिकता के जिस पायदान पर वो खड़े हैं वहां तक सवालों की पहुंच नहीं हो सकती है । लिहाजा जब उनको लगता है कि असहज करनेवाले सवाल उनतक पहुंचने लगे हैं तो वो इसी तरह के कदम उठाते हुए खुद को एक्सपोज कर देते हैं । अन्ना आंदोलन के दौरान जब किरण बेदी के टिकटों के मसले पर उनसे सवाल पूछे गए थे तो उन्होंने भी ट्विटर पर व्लॉक कर दिया था । इसी तरह से मधु किश्वर को भी जब लगा कि असहज करनेवाले सवालों में वो घिर रही हैं तो उन्होंने भी ब्लॉक करने का रास्ता अख्तियार किया । लेकिन इन सारे लोगों में एक साझा सूत्र दिखाई देता है अपने को आलोचना से उपर देखने, रखने का । इस तरह के लोग हमेशा से लोकतंत्र की भी दुहाई देते हैं, लोकतांत्रिक होने का दावा भी करते हैं लेकिन अपने तौर तरीकों में लोकतांत्रिक होने में उनको तकलीफ होती है । यह उसी तरह का मामला है कि क्रांति की चाहत हमेशा पड़ोसी के घर में होती है । यह भी सचाई है कि सोशल साइट्स पर गाली गलौच होती है, हर तरह के अपशब्द कहे जाते हैं, भद्दी टिप्पणियां की जाती हैं । उनको ब्लॉक करने का हक होना चाहिए । लेकिन जब आप सार्वजनिक जीवन में हैं तो आपको अपनी रचनात्मक आलोचना तो सुननी ही होगी । आपके बयानों के आलोक में उठ रहे सवालों या सच का समाना तो करना ही होगा । मर्यादा में रहते हुए अगर आपकी टिप्पणियों की धज्जियां उड़ेंगी तो उसको झेलना ही होगा अन्यथा अभिव्यक्ति की आजादी की ध्वजा लहराने वाले सलमान रश्दियों की बातें खोखली लगेंगी ।    

Sunday, July 12, 2015

बेस्टसेलर की बिक्री पर विवाद

शिवा ट्राएलॉजी लिखकर लेखन की दुनिया में अपनी पहचान और धमक कायम करनेवाले अंग्रेजी के बेस्टसेलर लेखक अमिष त्रिपाठी की नई किताब सिऑन ऑफ इच्छवाकु को लेकर एक नया विवाद खड़ा हो गया है । विवाद किताब को लेकर नहीं, किताब के चरित्र को लेकर नहीं, किताब के कथानक को लेकर नहीं बल्कि उसके बेचे जाने के करार को लेकर हुआ है । विवाद इतना बढ़ गया कि पूरा मामला दिल्ली हाईकोर्ट जा पहुंचा । इस किताब के प्रकाशक वेस्टलैंड ने फ्लिपकार्ट पर कॉपीराइट और आईटी एक्ट के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया है । प्रकाशक का आरोप है कि बगैर उसकी इजाजत के फ्लिपकार्ट अपने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर अमिष का नया उपन्यास बेच रहा है । हाईकोर्ट ने इस मामले में फ्लिपकार्ट को नोटिस भेजकर चार अगस्त तक अपना जवाब दाखिल करने का हुक्म दिया है । फ्लिपकार्ट का तर्क है कि वो सिर्फ ग्राहकों और विक्रेता को खरीद फरोख्त के लिए मंच मुहैया करवाता है और अगर कोई पुस्तक विक्रेता उसके मंच पर किताबें बेचना चाहता है तो वो उसको रोक नहीं सकता है । दरअसव अमेजन ने अमीष त्रिपाठी और उनके प्रकाशक वेस्टलैंड के साथ उसकी इस किताब को बेचने का एक्सक्लूसिव करार किया हुआ है । आईपीएल के मैचों के दौरान अमेजन ने अमीष त्रिपाठी की इस किताब को लेकर टीवी पर आक्रामक तरीके से प्रचार और मार्केटिंग की थी, लेकिन जब किताब बिक्री के लिए उपलब्ध हुई तो वो एमेजन के अलावा फ्लिपकार्ट पर भी बिक्री के लिए उपलब्ध थी । दरअसल अगर हम देखें तो हाल के दिनों में अंग्रेजी के बेस्टसेलर लेखकों या फिर मशहूर शख्सियतों की किताबों को लेकर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर बिक्री को लेकर विवाद होते रहे हैं । चंद महीनों पहले जो तर्क अमेजन दे रहा था वही तर्क अब फ्लिपकार्ट दे रहा है । इसी स्तंभ में चेतन भगत की किताब हाफ गर्ल फ्रेंड को लेकर उठे विवाद पर विस्तार से चर्चा की गई थी । हाफ गर्ल फ्रेंड के लिए उसके प्रकाशक ने ऑनलाइन बेवसाइट फ्लिपकार्ट से समझौता किया था। तब उस करार के मुताबिक प्रकाशक ने फ्लिपकार्ट को यह अधिकार दिया था कि पहले कुछ दिनों तक चेतन भगत की किताब सिर्फ फ्लिपकार्ट के ऑनलाइन बुकस्टोर पर ही मौजूद रहेगी । बदले में फ्लिपकार्ट ने भी प्रकाशक को एकमुश्त साढे सात लाख प्रतियों का ऑर्डर दिया था । चेतन भगत के उपन्यास की प्रीबुकिंग ही जमकर हुई । इस एक्सक्लूसिव करार की वजह से भारत में चेतन के लाखों प्रशंसकों ने फ्लिपकार्ट के ऑनलाइन स्टोर से जाकर किताब खरीदी थी । लेकिन उस वक्त अमेजन ने भी कुछ इसी तरह का तर्क दिया था कि उनकी कंपनी तो विक्रेताओं और क्रेता के बीच मंच प्रदान करती है, लिहाजा वो किसी को चेतन की किताब बेचने से रोक नहीं सकती । उस वक्त भी चेतन की किताब के प्रकाशक और अमेजन के बीच विवाद हुआ था । इसके बाद भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की किताब द ड्रामेटिक डिकेड, द इंदिरा गांधी इयर्स को लेकर भी सामने आई । जिस प्रकाशक ने चेतन भगत की किताब की बिक्री के लिए फ्लिपकार्ट से समझौता किया था उसी ने प्रणब मुखर्जी की किताब के लिए अमेजन से समझौता किया । उस करार के मुताबिक किताब जारी होने के इक्कसी दिन तक यह सिर्फ अमेजन पर उपलब्ध रहनी थी । मतलब यह कि इक्कीस दिनों तक अगर कोई पाठक प्रणब मुखर्जी की यह किताब एक्सक्लूसिव तौर पर इसी बेवसाइट से खरीद सकता था । उसके बाद यह देशभर के पुस्तक विक्रेताओं के पास पहुंचेगा । इसका नतीजा यह हुआ था कि प्री बुकिंग के दौर में ही महामहिम की किताब लोकप्रियता के लिहाज से चेतन भगत और सचिन तेंदुलकर की किताब के बाद तीसरे पायदान पर पहुंच गई थी । तब भी इस तरह के सवाल उठे थे । ऑनलाइन बिक्री को लेकर अभी हमारे देश में नियम कानूनों में कई सूराख हैं जिसका फायदा इस तरह की कंपनियां उठाती रही हैं और मामले अदालतों में जाते रहे हैं । ऑनलाइन किताबों की बिक्री को लेकर तो हाल के दिनों में तनातनी काफी बढ़ी है । भारत में किताबों के दुकानों के कम होने की वजह से ऑनलाइन पर किताबों की खूब बिक्री होती है । आनलाइन कंपनियों का खर्च भी कम होता है लिहाजा वो किताबों के दुकानों की तुलना में पाठकों को आकर्षक छूट भी देते हैं । किताबों के मूल्य भी बिक्री या प्रीबुकिंग के हिसाब से तय किए जाते हैं । जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की किताब की प्री बुकिंग शुरू हुई थी तो उसपर छूट कम थी लेकिन जैसे जैसे किताब रिलीज होने की तारीख पास आने लगी तो ऑनलाइन स्टोर ने इसके मूल्य में भी कमी करनी शुरू कर दी थी ताकि पाठकों को आकर्षित किया जा सके । किताब पर छपे मूल्य पांच सौ पचानवे की बजाय प्रीबुकिंग में इसका मूल्य चार सौ छियालीस रुपए रखा गया था । रिलीज वाले दिन इस किताब का मूल्य घटाकर तीन सौ निन्यानवे कर दिया गया । यह बिक्री का अपना गणित भी है और मुनाफा का अर्थशास्त्र भी है । ऑनलाइन किताबों की खरीद बिक्री का एक और भी पक्ष है । इस तरह के करार से किताबें भी वहां बिक्री के लिए पहले उपलब्ध होती हैं और बेवसाइट्स को वहां जिट करनेवाले एकल ग्राहकों की वजह से हिट्स भी ज्यादा मिलते है । ऑनलाइन कंपनियों के लिए हिट्स का खासा महत्व है और कंपनी के वैल्यूएशन से लेकर फंडिंग तक में इस आंकड़े का इस्तेमाल किया जाता है । इस वजह से भी वहां रिटेल खरीद को प्रोत्साहित किया जाता है । कोई भी ग्राहक किसी भी चर्चित किताब की सिर्फ एक ही प्रति खरीद सकता है । अगर किसी को दो या उससे अधिक किताबें चाहिए तो उसे उतने ही ग्राहक प्रोफाइल या अकाउंट बनाने होंगे । यह बाजार में थोक बिक्री के आसन्न खतरे के मद्देनजर किया गया है । इससे दो फायदे होते हैं । पहला तो किताबों की बिक्री बढ़ती है दूसरे ऑनलाइन स्टोर के मार्फत किताबों की दुकान तक चर्चित कृतियों के पहुंचने पर रोक लगती है ।
दरअसल हमारे देश में ऑनलाइन बिक्री के लिए अभी तक कोई तय प्रक्रिया नहीं है । दस जुलाई को डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन ने केंद्र सरकार के सात विभागों और फ्लिपकार्ट और अमेजन के प्रतिनिधियों के साथ लंबी बैठक की । 15 जुलाई को केंद्रीय वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस बाबत राज्यों की एक अहम बैठक बुलाई है । उस बैठक के बाद ई कॉमर्स को लेकर कोई दिशा निर्देश तय किए जा सकते हैं । हो सकता है कि तब इस तरह के विवाद ना उठें । अब अगर हम देखें तो ऑनलाइन बुक स्टोर्स पर बढ़ते ग्राहक संख्या और इस तरह के मार्केटिंग की रणनीति से किताबों की दुकानों की बिक्री पर असर पड़ने लगा है । भारत में कम हो रही किताबों की दुकान के लिए बिक्री का यह नया प्लेटऑर्म और एक्सक्लूसिव करार एक गंभीर चुनौती के तौर पर सामने आ रहा है । बदलाव की इस बयार में ऑनलाइन स्टोर्स की एक्सक्लूसिविटी पुस्तकों की दुकान में पूंजी लगानेवालों को भी हतोत्साहित कर रही है । चेतन और प्रणब मुखर्जी की किताबों के रिलीज के वक्त देश के कई बुक स्टोर्स ने ने कड़ा रुख अख्तियार किया था और ऐसा करनेवाले प्रकाशकों को उनकी अन्य किताबे नहीं बेचने की धमकी दी थी । उनका तर्क था कि ऑनलाइन कंपनियों के साथ करार करके प्रकाशक पाठकों के साथ छल करते हैं । उन्होंने धमकी दी थी कि अगर कोई प्रकाशक बेस्टसेलर के लिए ऑनलाइन बुक स्टोर का चुनाव करता है तो उसको फिर सारी किताबें वहीं बेचनी चाहिए । ये नहीं हो सकता है कि चर्चित शख्सियतों और लेखकों की किताबें ऑनलाइन बेची जाएं और कम चर्चित और गंभीर किताबें दुकानों के माध्यम से बेची जाएं । कई पुस्तक विक्रेताओं ने प्रकाशकों को पत्र लिखकर विरोध जताया था भविष्य में ऐसा नहीं करने की सलाह दी थी । अमिष त्रिपाठी और चेतन भगत की किताबों की मार्केटिंग के बरक्श अगर हम हिंदी प्रकाशन की दुनिया को देखें तो अब हालात कुछ उत्साहजनक नजर आने लगे हैं । हिंदी के प्रकाशक अब बाजार का इस्तेमाल करने पर विचार करने लगे हैं । कइयों ने अपनी किताबें ऑनलाइन स्टोर्स पर उपलब्ध भी करवा दी है । लेकिन हिंदी के प्रकाशकों इन ऑनलाइन बुक स्टोर से उस तरह से राफ्ता कायम नहीं हो सका है । हिंदी के प्रकाशकों को बाजार के इस खेल में पूरी तरह से शामिल होना पड़ेगा । यह धारणा गलत है कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की किताबें नहीं बिकती हैं । एक अनुमान के मुताबिक चेतन भगत और अमिष त्रिपाठी की किताबों के हिंदी अनुवाद की बिक्री, कुल बिक्री का पैंतीस फीसदी रहा है । इंटरनेट के फैलाव और सरकार के डिजीटल इंडिया स्कीम को प्राथमिकता के बाद इंटरनेट का घनत्व बढ़ेगा । जैसे जैसे देश में इंटरनेट का फैलाव होगा ऑनलाइन बिक्री के प्लेटफॉर्म की अहमियत बढ़ती जाएगी ।
 

Sunday, July 5, 2015

किसानों के नेता कहां गए ?

भूमि बिल पर बीजेपी और कांग्रेस दोनों किसानों के हितैषी होने का दावा कर रहे हैं । एक का दावा है कि आजादी के बाद से जमीन अधिग्रहण को लेकर किसानों के साथ अन्यास हो रहा था लिहाजा उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून बनाया । दूसरे दल का दावा है कि यूपीए सरकार ने जो भूमि अधिग्रहण कानून बनाया उसमें कई खामियां हैं लिहाजा जब बीजेपी की सरकार बनी तो उसने अध्यादेश की जरिए कानून की खामियों को दूर करने की कोशिश की । किसानों के हितैषी होने के दावे और प्रतिदावे के बीच जो एक बात गौण है वो यह है कि किसानों की आवाज कौन है । भूमि बिल पर मचे घमासान के बीच यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आई है कि इस वक्त देश में कोई देशव्यापी अपील वाला किसान नेता नहीं है । आजादी के बाद से इस देश में हर वक्त पर कोई ना कोई या कई किसान नेता ऐसे रहे हैं जिनकी एक आवाज पर देशभर के किसान खड़े हो जाते थे । कई किसान नेताओं ने तो भूमि सुधार के लिए बहुत काम किया और किसानों का दिल जीता ।  भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है और अब भी है लिहाजा यहां किसानों के नेता होते रहे हैं । यहां तक कि स्वतंत्रता आंदोलन में भी गांधी ने चंपारण के नील किसानों के हक की लड़ाई लड़ी थी । उसके बाद स्वामी सहजानंद ने किसानों को एकजुट करने का काम किया था । स्वामी सहजानंद सरस्वती ने अपनी आत्मकथा में लिखा है जिसका हक छीना जाए या छिन गया हो उसे तैयार करके उसका हक उसे वापस दिलाना यही तो मेरे विचार से आजादी की लड़ाई और असली समाजसेवा का रहस्य है । आजादी के बाद भी कई किसान नेता हुए जिनकी एक आवाज पर देश का किसान एकजुट हो जाता था । बाद में इस देशव्यापी नेतृत्व में क्षरण हुआ और प्रदेशों के किसान नेता होने लगे । जैसे उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह, हरियाणा में चौधरी देवीलाल आदि । कालांतर में इसमें भी कमी आती गई और आखिरी किसान नेता के तौर पर महेन्द्र सिंह टिकैत को याद किया जा सकता है । शरद जोशी को भी किसान नेता के तौर पर माना जाता है । पर सवाल यही उठता है कि एक कृषि प्रधान देश में किसान नेता की कमी क्यों कर हो गई । किसानों की इतनी बड़ी आबादी और वोट बैंक होने के बावजूद देश में किसान नेता का नहीं होना समाजशास्त्रीय विश्लेषण की मांग करता है ।
देश में किसान नेताओं की कमी की कई वजहें हो सकती हैं । लेकिन हमें इसकी जड़ में जाना होगा । अखिल भारतीय किसान सभा का पहला अधिवेशन स्वामी सहजानंद की अध्यक्षता में ग्यारह अप्रैल उन्नीस सौ छत्तीस में लखनऊ में हुआ था । उस वक्त उसके महासचिव एनजी रंगा थे । यह क्रम उन्नीस सौ चवालीस तक चलता रहा । अध्यक्ष और महासचिव बदलते रहे । उसके बाद नवें अधिवेशन तक आते आते हमारे देश के कम्युनिस्टों की महात्वाकांक्षा अलग तरीके से हिलोरें लेने लगीं और कम्युनिस्ट नेतृत्व और सहजानंद में मतभेद हो गया। सोशलिस्ट और फॉर्वर्ड ब्लॉक के सदस्यों ने किसान सभा छोड़नी शुरू कर दी । यहां से ही देश में किसान आंदोलन में बिखराव के सूत्र देखे जा सकते हैं । लेकिन किसानों को नेतृत्व मिलता रहा चाहे वो गुजरात में इंदुलाल याज्ञनिक हों या आँध्रप्रदेश के सी राजेश्वर राव हों । आजादी के बाद यह चला रहा । बिनोवा भावे ने भी अपने भूदान आंदोलन की बदैलत काफी हद तक किसानों का भरोसा जीता था पर उनकी कोई राजनीति नहीं थी । सत्तर और अस्सी के दशक में हमारे देश में कई किसान आंदोलन हुए और उन दिनों किसानों के साथ खड़े होने या किसानों के हितैषी होने के लिए नेताओं के बीच होड़ लगी रहती थी । उन्हीं दिनों चौधरी चरण सिंह और देवीलाल किसान राजनीति के क्षितिज पर चमके । ये वो वक्त था इन नेताओं की बात राष्ट्रीय फलक पर सुनी जाती थी । लेकिन हमारे देश में राजनीति की धुरी बहुधा जाति, धर्म, संपद्राय, क्षेत्रीय अस्मिता रही है । बाद में इन चारों के गठजोड़ अलग अलग तरीके से मजबूत होते चले गए । जाति और क्षेत्रवाद ने राजनीति को एक ऐसी दिशा दी जिसमें राष्ट्रीय नेता कमजोर होने लगे या जो भी राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित हो रहे थे उन्होंने भी क्षेत्रवाद और जातिवाद का दामन थाम लिया ।
दरअसल अगर हम नब्बे के दशक के बाद बाद के राजनीतिक स्थितियों का विश्लेषण करते हैं तो किसान नेता के नेपथ्य में जाने की स्थितियां साफ हो जाती हैं । भारतीय राजनीति के लिहाज से नब्बे के दशक की शुरुआत काफी अहम रही है । उस समय भारतीय समाज में एक साथ कई बदलाव हो रहे थे । राम मंदिर आंदोलन की वजह से समाज में जबरदस्त ध्रुवीकरण हो रहा था । उसी वक्त हमारा देश पिछड़ों की राजनीति का गवाह बना । वी पी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण लागू कर दिया । नतीजा यह हुआ कि समाज में एक बार फिर से अगड़ों और पिछड़ों के नाम पर ध्रुवीकरण हो गया । मंडल और कमंडल की राजनीति ने समाज को गहरे तक प्रभावित किया । उसका नतीजा यह हुआ कि भारतीय राजनीति में नए तरह के नेतृत्व का उदय हो गया । यह वही वक्त था जब लालू नीतीश जैसे नेता भारतीय राजनीति के क्षितिज पर धूमकेतु की तरह उभरे । किसानों के नेता जाति के नेता के तौर पर पहचाने और मजबूती पाने लग गए । चरण सिंह और देवीलाल किसानों की बजाए जाटों के नेता हो गए, लालू और मुलायम यादवों के नेता हो गए, रामविलास पासवान दलित नेता हो गए तो नीतीश कुमार पिछड़ों के नेता के तौर पर स्थापित होने लगे । सामाजिक ध्रुवीकरण के बीच समुदाय और जाति प्रमुख होने लगे । यही वह दौर था जब भारत में अर्थव्यवस्था के बंद दरवाजे खुलने लगे थे । बाजार के खुलने का असर किसानों पर भी दिखाई देने लगा था । अन्न के न्यूनतम समर्थन मूल्य में जोरदार वृद्धि देखने को मिली । 1991 से लेकर 2004-05 तक की अवधि में धान और चावल के समर्थन मूल्य में क्रमश: 173 और 193 फीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई । अर्थव्यवस्था के खुलने का अनाज के समर्थन मूल्य पर ये असर बाद के वर्षों में भी जारी रहा । 2006-07 में चावल के समर्थन मूल्य में पचहत्तर फीसदी तो 2008-09 में चौवन फीसदी बढ़ोतरी हुई । अनाज के समर्थन मूल्य में वृद्धि होने से किसानों को लगा कि सरकारें उनके हित में काम कर रही हैं, लिहाजा किसान नेता अप्रासंगिक होते चले गए । इसके अलावा जो एक और कारक रहा वो ये कि ज्यादातर किसान नेताओं ने चुनावी राजनीति से परहेज किया लिहाजा उनका जनता से सीधा जुड़ाव उस तरह से नहीं हो पाया कि वो लंबी पारी खेल सकें । लेकिन भूमि बिल पर मचे घमासान के बीच इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि देश के किसानों ती आवाज कोई संगठन या नेता उठा सके । इस वक्त तो स्थिति यह है कि मैदान खाली है और किसानों ने नेता होने का दावा हर दल के नेता ठोंक रहे हैं । ये स्थिति कृषि प्रधान देश के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती है ।  

शहरी विस्थापन और द्वंद्व का आख्यान

जानकीदास तेजपाल मैनशन । यह नाम है मशहूर उपन्यासकार अलका सरावगी के नए उपन्यास का । उपन्यास के नाम और कवर को देखकर लगता है कि यह उपन्यास किसी हवेली के इर्द गिर्द घूमता होगा । उपन्यास पढ़ने के बाद भी यही लगता है । यह उपन्यास कोलकाता के सेंट्रल एवेन्यू पर पहले सीना ताने और कालांतर में विकास की आड़ में खेले जा रहे खेल के आगे सर झुकाए खड़े जानकीदास तेजपाल मैनशन के इर्द गिर्द ही चलती है । इस उपन्यास के कथानक के कई छोर हैं और केंदीय कथा के साथ साथ कई उपकथाएं भी चलती हैं । कई बार पाठक इन उपकथाओं के साथ चलते हुए खुद को भ्रमित महसूस करते हैं लेकिन उनका यह भ्रम कहानी के आगे बढ़ने के साथ दूर होता जाता है । एक ऐतिहासिक इमारत के बहाने उपन्यासकार ने सत्तर के दशक के बाद भारतीय समाज में आए बदलाव को, पीढ़ियों के द्वन्द को, बदलते सामाजिक मूल्यों को, छीजते आपसी विश्वास को, रिश्तों में पनपते अविश्वास को,विकास की वजह से हो रहे विस्थापन को, धन कमाने की होड़ में कुछ भी कर गुजरने की तमन्ना को, एक ही इमारत में रह रहे लड़कियों की यौनाकांक्षा को, पत्रकारिता में आ रहे ह्रास को, नेता, पुलिस उद्योगपति गठजोड़ को समेट लिया है । लगभग पौने दो सौ पन्नो के इस छोटे से उपन्यास में लेखिका ने इन तमाम विषयों को सिर्फ उठाया ही नहीं है बल्कि उनके साथ लगभग न्याय भी किया है । इस किताब पर अशोक सेक्सरिया ने बेहद सटीक लिखा है जो सतह पर दिखता है, वह अवास्तविक है । कलकत्ता के सेंट्रल एवेन्यू पर जानकीदास तेजपाल मैनशन नाम की अस्सी परिवारों वाली इमारतसतह पर खड़ी दिखती है, पर उसकी वास्तविकता मेट्रो की सुरंग खोदने से ढहने और ढहाए जाने में है । अंग्रेजी में एक शब्द चलता है अंडरवर्ल्ड, जिसका ठीक प्रतिरूप हिंदी में नहीं है । अंडरवर्ल्ड गैरकानूनी ढंग से धन कमाने, सौदेबाजी और जुगाड़ की दुनिया है । इस दुनिया के ढेर सारे चरित्र हमारे जाने हुए हैं, पर अक्सर हम नगीं जानते कि वे किस हद तक हमारे जीवन को चलाते हैं और कब अपने में शामिल कर लेते हैं । तब अपने को बेदखल करने की पीड़ा दूसरों को बेदखल करने में आड़े नहीं आती है ।‘  अशोक जी ने अपनी छोटी सी टिप्पणी में पूरे उपन्यास को समेट लिया है जहां उसका नायक जयगोविन्द अपने विस्थापन की पीड़ा को बेहाला की एक विधवा की जमीन खाली करवाते वक्त नहीं याद रखता है । तभी तो उपन्यास की अंतिम पंक्ति है बेदखल होना बेदखल करना दोनों एक साथ होते ही हैं । यह तो जीवन का शाश्वत सत्य है । और इसी शाश्वत सत्य को अपनी इस उपन्यास में अलका ने कथा के रूप में पिरोया है । अशोक सेक्सरिया अपनी टिप्पणी में जिस जुगाड़ की बात करते है, कुछ वैसी ही टिप्पणी लगभग ढाई दशक से ज्यादा वक्त भारत में गुजारनेवाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक जॉन इलिएट ने अपनी किताब इंप्लोजन में किया है । उन्होंने भारतीय राजनीति और समाज में जारी जुगाड़ और चलता है की मानसिकता को उजागर किया है ।  इन सबको देखते हुए ही लगता है कि आजादी के बाद नेहरू जी ने अपने पहले भाषण में ट्रायस्ट विद डेस्टनी कहा था जो सत्तर के दशक के बाद ट्रायस्ट विद रियलिटी यानि यथार्थ से मुठभेड़ में तब्दील हो गया । चलता है और जुगाड़ की मानसिकता ने तो भारतीय समाज में अपनी जड़ें इतनी गहरी कर लीं कि कानून भी बहुधा उसके सामने बौना लगता है ।
जानकीदास तेजपाल मैनशन की शुरुआत बेहद रोचक तरीके से होती है और उपन्यास के कई पन्नों में मैनशन का पखाना प्रसंग बहुत लंबा चलता है । इस प्रसंग को पढ़ते हुए मुझे अभी हाल ही में रिलीज हुई अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण अभिनीत फिल्म पीकू की याद ताजा हो गई । इस फिल्म में अमिताभ बच्चन भी पूरे वक्त तक पखाने की चर्चा करते रहते हैं । एक जगह उबकर दीपिका उनसे कहती भी है कि कलर शेडकार्ड लेकर कमोड पर बैठा करो । ठीक उसी तरह इस उपन्यास में भी एडवोकेट साहब और उनके बेटे का सुबह फारिग होने का लंबा प्रसंग है । जब जयगोविन्द अमेरिका जाता है तो वहां भी कमोड उसको पहले काफी परेशान करता है । पखाने के इसी प्रसंग में उस परिवार की एक जवान लड़की अंधेरे में उपन्यास के नायक को अंदर खींचना चाहती है, नतीजा यह होता है कि नायक अंधेरे में उधर का मुंह नहीं करता है । इस उपन्यास में पाठक को सबकुछ मिलेगा । जयगोविन्द जब अमेरिका जाने की सोचता है तो उसकी मां का मनोविज्ञान, जब अमेरिका चला जाता है तो उसके पिता की मनोदशा, अमेरिका से लौटकर आने के बाद समाज में उसको लेकर सोच, अमेरिका में रह रहे उसके बेटे की कोलकाता और भारत को लेकर सोच सब एक दूसरे से गुंथे हुए हैं । दरअसल मेट्रो बनाने को लेकर जानकीदास मैनशन को तोड़ा जाना है, वहां रहनेवाले अमूमन सभी परिवार उस हवेलीनुमा मकान को छोड़कर जा चुके हैं लेकिन जयगोविन्द और उसकी पत्नी वहां डटे रहते हैं । वहां रहने की जद्दोजहद ही उपन्यास के नायक को नेता बना देता है । इसी नेतागिरी के चक्कर में उसकी एक पत्रकार से मुलाकात होती है जो मूलत: और अन्तत: धंधेबाज है । इलाके के गुंडे से उसका पाला पड़ता है जिसको वो बहुत कुशलता के साथ साध लेता है । इन सारे घटनाक्रम के बीच उसकी पतिव्रता पत्नी है । जो खुद इंजीनियर है लेकिन अपनी पति की खातिर पूरी तरह से समर्पित है । दीपा के इस चरित्र के बहाने अलका ने उस दौर की ज्यादातर स्त्रियों की मनोदशा को भी सामने रखा है । अगर हम समग्रता में इस उपन्यास को देखें तो इसमें शेयर घोटाला भी है, नक्सलबाड़ी भी है, नक्सलियों से मोहभंग भी है । किस तरह से नक्सलियों के चंगुल से छूटने की तमन्ना रखनेवाले साथी को अपनी जान का डर सताता है वह भी है  । पहले नक्सली और बाद में पूंजीपति बनने की कहानी भी है । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि अलका सरावगी का यह उपन्यास शहरी विस्थापन का आख्यान तो है ही, इसमें सत्तर के दशक के बाद समाज में आ रहे बदलावों को भी बेहद सूक्षम्ता के साथ पकड़ते हुए लेखिका ने पूरी व्यवस्था को एक्सपोज किया है । शहरी मध्यवर्गीय परिवार के अंदर जारी द्वंद्व को भी अलका ने उघाड़ा है । हम यह कह सकते हैं कि काफी दिनों बाद हिंदी में इस तरह के छोटे से उपन्यास में समाज का बड़ा फलक सामने आया है । बस एक सौ बयासी पृष्ठ के उपन्यास की कीमत चार सौ रुपए अखरती है ।

संगीत कला की दुर्दशा क्यों ?

हमारे यहां लंबे समय से कहा जाता है कि कलाएं सरकारी संरक्षण में ही फलती फूलती और विस्तार पाती है । हमारे देश में इसका एक लंबा इतिहास भी रहा है । कलाओं को राजा- रजवाड़ों ने ने खूब सहेजा । राजा के दरबार में कलाकार, संगीतज्ञ आदि को संरक्षण मिलता था । आजादी के बाद जब रजवाड़े खत्म हुए तो कलाकारों और कलाओं को संभालने का जिम्मा भारत सरकार पर आ गया । भारत सरकार में अलग से संस्कृति मंत्रालय का गठन हुआ । कला अकादमियां बनाईं गईं । हमारे देश का संस्कृति मंत्रालय हर साल कलाकारों को फेलोशिप देती है लेकिन वह राशि पर्याप्त नहीं है और ना ही पर्याप्त है फेलोशिप की संख्या । फिर उसमें जिस तरह से चयन होता है वह भी बहुधा सवालों के घेरे में आता रहता है । इतने विशाल देश में जिसकी इतनी समृद्ध विरासत हो वहां कलाओं को सहेजने का काम बहुत गंभीरता से हो नहीं रहा है । साहित्य और कला अकादमियों का हाल सबके सामने है । ये अकादमियां चंद अफसरों या फिर विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की जमींदारी बन गई है जहां कलाकारों के बजाए उन अफसरों और अकादमी के सदस्यों का भला होता है । ललित कला अकादमी में पिछले दिनों जिस तरह से भ्रष्टाचार के गंभीर मसले सामने आए उससे तो साफ हो गया है कि कला के विकास के नाम पर उस संस्था में लंबे वक्त से लूट चल रही थी । स्वायत्ता का ढोल पीटनेवालों ने उसकी आड़ में ललित कला अकादमी में जमकर मलाई काटी । कलाकार बेचारा गरीब रहा । अब जब भारत सरकार ने ललित कला अकादमी को अपने अंदर ले लिया है तो एक बार फिर से स्वायत्ता पर शोर मचना शुरू हो गया है । स्वायत्ता के नाम पर छाती कूटनेवालों ने कभी इस बात को लेकर हल्ला मचाया या कोई आंदोलन किया कि लेखकों को या फिर कलाकारों को इन अकादमियों से मदद नहीं मिलती हैं । ललित कला अकादमी से कई ऐतिहासिक पेंटिग्स गायब हो गईं उसपर तो कभी हो हल्ला नहीं मचा । हमें बेहद संजीदगी से ये सवाल उठाना चाहिए कि क्या स्वायत्तता की आड़ में लूट की इजाजत दी जा सकती है । साहित्य अकादमी का हाल भी सबके सामने है । अभी हाल ही में साहित्य अकादमी की आम सभा के सदस्यों की एक बैठक गुवाहाटी में हुई । लगभग आधे घंटे की बैठक के लिए देशभर से लोग जुटे लेकिन उस बैठक में क्या निकला ये शोध का विषय है । इस तरह की बैठकों पर जितना पैसा खर्च होता है उसमें कई लेखकों को आर्थिक सुरक्षा दी जा सकती है । लेखकों के हितों को लेकर कई सार्थक योजनाएं बनाईं जा सकती हैं ।  इस बात की गंभीरता से पड़ताल होनी चाहिए कि हमारे देश में कलाकारों और साहित्यकारों की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी क्यों है । सरकार को भी इस दिशा में व्यापक विमर्श के बाद एक ठोस और नई सांस्कृतिक नीति बनानी चाहिए जिसमें कलाकारों और साहित्यकारों के आर्थिक सुरक्षा का ध्यान रखा जाना चाहिए । इस वक्त तो हालात यह है कि कई कलाकार गुमनामी में अपनी जिंदगी शुरू करते हैं और गुमनामी में ही उनकी जिंदगी खत्म हो जाती है । भारत कला और संगीत को लेकर भी बहुत समृद्ध है लेकिन उस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को सहेजने और फिर उसको बढ़ाने में हम लगभग नाकाम रहे हैं । जबतक किसी भी विधा में आर्थिक सुरक्षा नहीं होगी उस तरफ नए लोग अपना कदम नहीं बढ़ाएंगे और जबतक किसी भी विधा से नए लोग नहीं जुड़ेंगे तबतक उस विधा को लंबे वक्त तक जिलाए रखना मुश्किल होगा ।
संगीत हमारे समाज में बच्चे के जन्म से लेकर शवयात्रा तक का अंग है, अलग अलग रूप में , अलग अलग ध्वनियों के साथ। जीवन में संगीत की इस अहमियत को हम नहीं समझ पा रहे हैं, लिहाजा संगीतकारों को उचित सम्मान तो कभी कभार मिल भी जाता है लेकिन उनको आर्थिक सुरक्षा नहीं मिल पाती है । इन्हीं स्थितियों की अभिव्यक्ति बिस्मिल्ला खां और दिनकर के कथऩ में मिलती है । भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान को जब एक बार कोई पुरस्कार मिला था तो उन्होंने कहा था कि सम्मान और पुरस्कार से कोई फायदा नहीं होता है इसकी बजाए धन मिल जाता तो बेहतर होता । बाद में बिस्मिल्लाह खां को भारत रत्न मिला लेकिन उनकी और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति उनके जीवनकाल तक बहुत बेहतर नहीं हो पाई। बनारस में उनसे मिलने जानेवाले उनकी मृत्यु के कई साल बाद तक उनकी आर्थिक बदहाली और कला के इस महान साधक की पीड़ा के बारे में बातें करते रहते थे । देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान पानेवाले शहनाई के जादूगर की पीड़ा सबके सामने है लेकिन उसको लेकर क्या किया गया ये सोचनेवाली बात है । कुछ इसी तरह की बात रामधारी सिंह दिनकर के बारे में भी कही जाती है । उनको जब साहित्य के सबसे बड़े पुरस्कारों में से एक भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था तब उन्होंने संभवत : अपनी डायरी में लिखा था या किसी से कहा था कि चलो पुरस्कार की राशि से उनकी घर की एक लड़की का ब्याह हो जाएगा । भारत रत्न बिस्मिल्ला खां और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के बयान में शब्दों का हेरफेर हो सकता है लेकिन भाव लगभग समान हैं । एक पुरस्कार में धन की आकांक्षा कर रहा है तो दूसरा पुरस्कार में धन मिलने से इस वजह से खुश है कि घर की एक बेटी का ब्याह हो जाएगा । एक भारत रत्न से सम्मानित कलाकार और दूसरा ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी से सम्मानित राष्ट्रकवि । यह सोच कल्पना से परे है कि जब इतने बड़े कलाकार और लेखक की यह स्थिति है तो मंझोले और छोटे कलाकारों, लेखकों की आर्थिक स्थिति कैसी होगी । क्या हमारी भाषा, हमारी संस्कृति, हमारी कला, हमारे कलाकार इतने समर्थ नहीं हो पा रहे हैं कि वो अपने हुनर के बूते एक सम्मानित जिंदगी जी सकें । हम लाख अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की बात करें, हम लाख इस बात का ढिंढोरा पीटें कि हमारी संस्कृति हमारी भाषा, हमारी कला विश्व में श्रेष्ठ है लेकिन अगर ये श्रेष्ठ कला कलाकारों को सम्मान से जीने लायक माहौल और धन मुहैया नहीं करवा पाती है तो फिर उसका कोई अर्थ रह जाता है क्या, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है ।
हाल के दिनों में संगीतकारों की मदद के लिए कुछ निजी प्रयास शुरू हुए हैं । इन्हीं प्रयासों में से एक है मुंबई की संगीतम संस्था का एक प्रयास रहमतें । इस कार्यक्रम में देशभर के पचास जरूरतमंद कलाकारों को एक लाख रुपए का जीवन बीमा करवा कर दिया जाता है । पिछले साल मुंबई में आयोजित इस कार्यक्रम में जितना पैसा इकट्ठा किया गया वो संगीतकार ख्य्याम और गजल गायक राजेन्द्र मेहता को दिया गया । इसके अलावा कई जरूरतमंद और युवा कलाकारों को भी संगीतम मदद करता है । अच्छी बात यह है कि युवा कवयित्री स्मिता पारिख और सोरभ दफ्तरी के इस प्रयास में गायक हरिहरन, भजन सम्राट अनूप जलोटा और गजल गायक तलत अजीज का सहयोग हासिल है । इस तरह के निजी प्रयासों को स्वागत किया जाना चाहिए । इस साल भी मुंबई में जगजीत सिंह की याद में आयोजित होनेवाले कार्यक्रम रहमतें से होनेवाली आय से कलाकारों की मदद की जाएगी । देशभर के जरूरतमंद कलाकारों की सूची विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाती है । स्मिता और सौरभ दफ्तरी के इस साझा प्रयास की तरह की इस मुहिम को देशभर में फैलाने की जरूरत है । अब अगर हमें बिहार की मधुबनी पेंटिंग को बचाना है तो उसके कलाकारों को आर्थिक मदद तो देनी होगी । अगर उस कला को वैश्विक मंच देना है तो उसके लिए राज्य सरकारों के अलावा निजी कारोबारी संस्थाओं को भी अपने सामाजिक दायित्व के निर्वाह के तहत आगे बढ़कर काम करना होगा । अगर भारत में संगीत और कला को आगे बढ़ाकर कलाकारों को आर्थिक रूप से मजबूत करना है तो इसके लिए सरकार, निजी संस्थाएं और कारोबारी समूहों को साझा तौर पर काम करना होगा । इसके अलावा ललित कला अकादमियों और साहित्य अकादमी को अफसरों और गैर साहित्यकारों कलाकारों के चंगुल से मुक्त करना होगा । संस्कृति मंत्रालय को निजी प्रयासों को प्रोत्साहित करना होगा, अकादमियों में जारी मनमानी पर रोक लगानी होगी । ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी को कलाकारों के हितों के लिए काम करनेवाली संस्था के तौर पर पुनर्स्थापित करना होगा । संस्कृति नीति को इस तरह से बनाना होगा कि नए कलाकारों को प्रोत्साहन मिले और पुराने कलाकारों को आर्थिक सुरक्षा मिल सके । अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो यह एक बेहतर स्थिति होगी वर्ना भारत रत्न से सम्मानित कलाकार भी मुफलिसी में जिंदगी बिताने और गरीबी में मर जाने को अभिशप्त रहेगा ।