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Saturday, July 26, 2025

बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाए


मई 2013 के अपने संपादकीय में 'हंस' पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने लिखा था, इधर हमारे अशोक वाजपेयी अपने रोजनामचे यानी कभी-कभार (साप्ताहिक स्तंभ) में अक्सर ही बताते रहते हैं कि उन्होंने देश-विदेश की किन गोष्ठियों में भाग लिया और उनकी तुलना में हिंदी कहां कहां और कितनी दरिद्र है। वस्तुत: यह सुनते सुनते मेरे कान पक गए हैं कि हम लोगों में क्या कमी है और हिंदी कहां कहां पिछड़ी हुई है। यह हिंदी वैशिंग मुझे मनोरोग जैसा लगने लगा है। मेरे दफ्तर में आनेवाले ज्यादातर लोग जब हिंदी कविता और कहानियों की कमजोरी और कमियों का रोना रोते हैं तो उसके पीछे भावना यही होती है कि देखिए इन कमियों और कमजोरियों को किस तरह अपनी महान रचनाओं के द्वारा मैं पूरा कर रहा हूं। इस टिप्पणी में उaन्होंने मेरा भी नाम लिया था। राजेंद्र यादव आगे कहते हैं कि यह अशोक और अनंत विजय जैसों की तरह ज्यादा पढ़ने और घूमने से उपजी हुई तकलीफ नहीं, बल्कि एक सुना सुनाया और आत्मप्रचार को सही सिद्ध करने का हथकंडा है। लगता है या तो ये लोग केवल अपने बारे में बोल सकते हैं या हिंदी को लेकर छाती माथा कूटने की लत में लिप्त हैं। कभी-कभी तो मुझे कहना पड़ता है कि हम हिंदुस्तानी या हिंदीवाले का रोदन बंद कीजिए और बताइए कि हमें क्या करना है। लगभग 12 वर्ष पहले यह संपादकीय लिखा गया था। समय का चक्र घूमा, राजेंद्र यादव का निधन हो गया। संजय सहाय हंस के संपादक बने। संपादक बदलने से पसंद नापसंद भी बदले। हंस पत्रिका अलग ही राह पर चल पड़ी। जिस हिंदी वैशिंग को राजेंद्र यादव मनोरोग जैसा मानते थे उसी अशोक वाजपेयी के हिंदी, हिंदी साहित्य और हिंदी समाज के वैशिंग को हंस के जुलाई अंक में छह पृष्ठों में जगह दी गई है। राजेंद्र यादव के निधन के बाद पत्रिका की नीतियों में ये विचलन अलग विमर्श की मांग करता है। इस पर चर्चा फिर कभी। अशोक वाजपेयी के लेख पर विचार करते हैं जिसका शीर्षक है, हिंदी समाज ने आधुनिक हिंदी साहित्य को खारिज कर दिया है? शीर्षक में जो प्रश्नवाचक चिह्न है उसका उत्तर अपने आलेख में खोजने का प्रयत्न किया है। अशोक वाजपेयी का यह लेख सामान्यीकरण और फतवेबाजी का काकटेल बनकर रह गया है। वाजपेयी को अपने द्वारा बनाई चलाई संस्थानों की विफलता और व्यर्थता का तीखा अहसास होता है। अपने इस एहसास में वे हिंदी विश्वविद्यालय को भी शामिल करते हैं जिसके वह पहले कुलपति थे। जिस हिंदी साहित्य की मृत्यु की संभावना अशोक वाजपेयी तलाश रहे हैं, उसी हिंदी साहित्य में एक कहावत है कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे। हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर रहते हुए उसको दिल्ली से चलाना। मित्रों-परिचितों और उनके बेटे बेटियों को विश्वविद्यालय के विभिन्न पदों पर नियुक्त करना। वर्षों बाद उसकी विफलता और व्यर्थता के अहसास में ऊभ-चूभ करके प्रचार तो हासिल किया जा सकता है, लेकिन इससे पाठकों को विमर्श के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता है। साहित्य की मृत्यु की संभावना की जगह आशंका जताते तो उचित रहता। अशोक वाजपेयी हिंदी समाज की व्यापक समझ पर भी प्रश्न खड़े करते हैं। वह कहते हैं कि हिंदी समाज कितना पारंपरिक रहा, कितना आधुनिक हो पाया है, इस पर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है। इसके फौरन बाद अपना निष्कर्ष थोपते हैं कि हमारी व्यापक सामाजिक समझ जितनी आधुनिकता की अधकचरी है, उतनी परंपरा की भी। अब यहां अशोक जी से यह पूछा जाना चाहिए कि वह लंबे समय तक सरकार में रहे, कांग्रेसी मंत्रियों के करीबी रहे, संसाधनों से संपन्न रहे, लेकिन हिंदी समाज की समझ को विकसित करने के लिए क्या किया। दूसरों को कोसने से बेहतर होता है स्वयं का मूल्यांकन करना। यह देखना भी मनोरंजक है कि अशोक वाजपेयी आज के समय में वासुदेवशरण अग्रवाल और हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे मेधा के लेखक ढूंढ रहे हैं। अशोक जी साहित्य में परंपरा की अंतर्ध्वनि भी सुनना चाहते हैं। लेकिन इसके कारण पर नहीं जाते हैं। हिंदी साहित्य में स्वाधीनता के पहले जो भारतीयता या हिंदू परंपरा थी उसको किस पीढ़ी ने बाधित किया। हिंदू या भारतीय परंपरा को खारिज करनेवाले कौन लोग थे। किन आलोचकों ने साहित्य में भारतीय परंपरा की जगह आयातित विचारों को तरजीह दी। हिंदी समाज से अगर भारतीयता की परंपरा नहीं संभली तो क्या हिंदी के साहित्यकारों ने उस पर उसी समय अंगुली उठाई। तब तो उसको प्रगतिशीलता बताकर जय-जयकार किया गया। परंपरा के अधकचरेपन को अशोक वाजपेयी हिंदुत्व के अधकचरेपन से भी जोड़ते हैं। यहां यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि कैसे हिंदी समाज का मानस अधकचरेपन को स्वीकार करने के लिए तैयार किया गया। कैसे भारतेंदु से लेकर जयशंकर प्रसाद तक, कैसे मैथिलीशरण गुप्त से लेकर धर्मवीर भारती तक और कैसे दिनकर से लेकर शिवपूजन सहाय तक के भारतीय विचारों को हाशिए पर डालने का षड्यंत्र रचा गया। योजनाबद्ध तरीके से भारतीय विचारों पर मार्क्सवादी विचार लादे गए। आज अशोक वाजपेयी को हिंदी विभागों में विमर्श की चिंता सताती है, लेकिन जब वह कुलपति थे तो एक दो पत्रिका के प्रकाशन के अलावा हिंदी विभागों को उन्नत करने के लिए क्या किया? ये बताते तो उनकी साख बढ़ती, अन्यथा सारी बातें बुढ़भस सी प्रतीत हो रही हैं। अशोक स्वयं मानते हैं कि डेढ़ दो सदियों पहले उत्तर भारत में उच्च कोटि की सर्जनात्मकता थी। उसका श्रेष्ठ भारत का श्रेष्ठ था। वह साहित्य, चित्रकला, स्थापत्य, संगीत आदि में उत्कृष्टता अर्जित कर सका। यहां भी कारण पर नहीं जाते हैं और ऐसा लगता है कि उनकी अपनी कुंठा इस लेख पर हावी हो गई है। दिनकर बच्चन, पंत, प्रसाद, निराला की तरह अशोक वाजपेयी की कविता किसी भी पाठक को याद है। नहीं है। अशोक वाजपेयी को हिंदुत्व की विचारधारा से तकलीफ है। वह हिंदुत्व की विचाधारा को हिंदू धर्म चिंतन और अध्यात्म से अलग मानते हैं। दरअसल यहां भी वह इसी दोष के शिकार हो जाते हैं। अपने मन के भावों को लच्छेदार भाषा में पाठकों को भरमाते हैं। तर्क और तथ्य हों या न हों। पत्रकारिता को भी वह चालू मुहावरे में परिभाषित करने का प्रयास करते हैं। घिसे पिटे शब्द उठाकर लाते हैं। वह साहित्य के प्रतिपक्ष होने की कल्पना करते तो हैं, लेकिन अपने सक्रिय साहित्यिक जीवन को बिसरा देते हैं। संस्कृति मंत्रालय में रहते हुए साहित्य अकादमी का पुरस्कार लेना कौन सा प्रतिपक्ष रच रहा था। दरअसल अशोक वाजपेयी जिस हिंदी समाज के पतन को लेकर चिंतित हैं, कमोबेश उन प्रदेशों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। उनकी आलोचना करने के लिए उन्होंने साहित्य का मैदान चुना। राहुल गांधी की पैदल यात्रा में शामिल होकर वह अपनी प्रतिबद्धता सार्वजनिक कर ही चुके हैं। इसलिए अशोक वाजपेयी के इस लेख की आलोचनाओं को उसी आईने में सिर्फ देखा ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसका मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए। इस पूरे लेख को पढ़ने के बाद अशोक वाजपेयी के ही दशकों पूर्व अज्ञेय और पंत को निशाना बनाकर लिखे एक लेख का शीर्षक याद आ रहा है, बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये। उस लेख में वाजपेयी ने लिखा था कम से कम हिंदी में तो कवि के बुजुर्ग होने का सीधा मतलब अकसर अप्रसांगिक होना है।   


Saturday, November 18, 2023

हिंदी कहानी पर आत्मुग्धता का खतरा


काफी दिनों के बाद एक साहित्यिक गोष्ठी में जाना हुआ। वहां समकालीन हिंदी कहानी और उपन्यास लेखन पर चर्चा हो रही थी। कार्यक्रम चूंकि हिंदी कहानी और उपन्यास पर हो रही थी इस कारण वक्तों में कहानीकार और उपन्यासकार अधिक थे, टिप्पणीकार कम। एक बुजुर्ग लेखक ने जोरदार शब्दों में हिंदी कहानी से कथा तत्व के लगभग गायब होते जाने की बात कही। साथ ही उन्होंने कहानियों में जीवन दर्शन की कमी को भी रेखांकित किया। इस क्रम में उन्होंने रैल्फ फाक्स को उद्धृत करते हुए कहा कि हो सकता है कि ‘जब जब दार्शनिकों ने कहानियां लिखी हों मुंह की खाई हो, लेकिन यह भी तय है कि उपन्यास बिना एक सुनिश्चित जीवन-दर्शन के लिखा ही नहीं जा सकता।‘ इसके बाद एक युवा उपन्यासकार बोलने के लिए आए। युवा उत्साही होते हैं तो उनके वक्तव्य में भी उत्साह था और उन्होंने उपन्यास में जीवन दर्शन जैसे गंभीर बातों की खिल्ली उड़ाई और कहा कि हिंदी कहानी को इस तरह की बातों से ही नुकसान पहुंचा है। उसके मुताबिक आज का उपन्यास हिंदी के इन आलोचकीय विद्वता से मुक्त होकर आम आदमी की कहानी कहने लगा है। उसने इसके फायदे भी गिनाए और कहा कि जीवन दर्शन आदि की खोज से दूर जाकर हिंदी कहानी ने अपने को बोझिलता से दूर किया। युवा उपन्यासकार ने न केवल हिंदी की समृद्ध परंपरा का उपहास किया बल्कि यहां तक कह गए कि हिंदी कथा साहित्य को अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसों की बौद्धिकता से दूर ही रहने की आवश्यकता है। आश्चर्य की बात है कि जब वो ये सब बोल रहे थे तो सभागार में बैठे कुछ अन्य युवा तालियां भी बजा रहे थे। बाद के कुछ वक्ताओँ ने हल्के स्वर में उनकी स्थापनाओं का प्रतिरोध करने की औपचारिकता निभाई और अन्य बातों पर चले गए।

कार्यक्रम के अगले हिस्से में समकालीन कहानियों के समाचारों पर आधारित होने की बात एक वक्ता ने उठाई। उनका कहना था कि हिंदी के नए कहानीकार अब समाचारपत्रों से किसी घटना को उठाते हैं और उसको अपनी भाषा में थोड़ी काल्पनिकता का सहारा लेकर लिख डालते हैं। उन्होंने नए कहानीकारों पर फार्मूलाबद्ध और फैशनेबल कहानियां लिखने का आरोप भी जड़ा। उनका तर्क था कि जब इस तरह की कहानी पाठकों के सामने आती है तो वो सतही और छिछला प्रतीत होता है। उन्होंने नए कहानीकारों को हिंदी कहानी की परंपरा को साधने और उसको ही आगे बढ़ाने की नसीहत देते हुए कहा कि हिंदी के नए कहानीकारों को अपने पूर्वज कहानीकारों का ना केवल सम्मान करना चाहिए बल्कि उनको पढ़कर कहानी लिखने की कला भी सीखनी चाहिए। ये महोदय बहुत जोश में बोल रहे थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभागार में उपस्थित बहुसंख्यक श्रोता उनकी बातों से सहमत भी हो रहे थे। दो सत्र के बाद कार्यक्रम संपन्न हो गया। लेकिन दोनों सत्रों में वक्ताओं ने जिस प्रकार से अपने तर्क रखे उसको देखकर लगा कि हिंदी में इस समय अतिवादिता का दौर चल रहा है। एक तरफ अपने पूर्वज कथाकारों को नकारने की प्रवृत्ति देखने को मिली तो दूसरी तरफ युवा लेखकों को खारिज करने का सोच दिखा। दोनों ही अतिवाद है। ऐसा नहीं है कि हिंदी कहानी को लेकर इस तरह की गर्मागर्मी पहले नहीं होती थी। हर दौर में इस तरह की साहित्यिक बहसें होती थीं। पहले साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में लेख और टिप्पणियों के माध्यम से इस प्रकार की बहसें चला करती थीं। अब साहित्यिक पत्रिकाओं के कम हो जाने के कारण गोष्ठियों में इस तरह की बातें ज्यादा सुनने को मिलती हैं।

इन दोनों टिप्पणियों को सुनने के बाद मुझे कथाकार राजेन्द्र यादव की याद आ गई। उन्होंने लिखा था कि ‘कभी-कभी होता क्या है कि साहित्य का कोई युग खुद ही एक अजब सा खाली-खालीपन, एक निर्जीव पुनरावृत्ति और सब मिलाकर एक निर्रथक अस्तित्व का बासीपन महसूस करने लगता है। सब कुछ तब बड़ा सतही और छिछला लगता है। उस समय उसे जीवन और प्रेरणा शक्ति देनेवाली दो शक्तियों की ओर निगाह जाती है, एक लोक साहित्य और और लोक जीवन की प्रेरणाएं और दूसरे विदेशी साहित्य की स्वस्थ उपलब्धियां। राजेन्द्र यादव ने तब लिखा था कि अगर इस देश के कथा साहित्य को तटस्थ होकर देखें तो ये दोनों ही प्रवृत्तियां साफ साफ दिखती हैं। उनका मानना था कि उनके समय में भी सतहीपन और झूठे मूल्यों का घपला ही था जिससे उबकर नवयुवक कथाकारों की एक धारा ग्रामीण जीवन और आंचलिक इकाइयों की ओर मुड़ गईं और दूसरी विदेशी साहित्य की ओर। वो उस काल को प्रयोग और परीक्षण का काल मानते थे जिसमें भटकाव भी था लेकिन दोनों धारा में एक सही रास्ता खोजने की तड़प थी। आज की कहानियों पर अगर विचार करें तो यहां न तो कोई प्रयोग दिखाई देता है और न ही किसी प्रकार का कोई परीक्षण। एक दो उपन्यासकार को छोड़ दें तो ज्यादातर उपन्यासकार प्रयोग का जोखिम नहीं उठाते हैं। इस समय जो लोग ग्रामीण जीवन पर कहानियां लिख रहे हैं वो तकनीक आदि के विस्तार से जीवन शैली में आए बदलाव को पकड़ नहीं पाते हैं या पकड़ना नहीं चाहते हैं। इसके पीछे एक कारण ये हो सकता है कि वो श्रम से बचना चाहते हों। लोगों के मनोविज्ञान में आ रहे बदलाव को समझने और उसको कथा में पिरोने की जगह वो ऐसा उपक्रम करते हैं कि पाठकों को लगे कि वो नई जमीन तोड़ रहे हैं। समाज में हिंदू-मुसलमान के सामाजिक रिश्तों में बदलाव आ रहा है। इस रिश्ते के मनोविज्ञान को पकड़ने का प्रयास हिंदी कहानी में कहां दिखाई देता है।

हम अज्ञेय या निर्मल वर्मा की भाषा की बात करें तो उसमें एक खास प्रकार का आकर्षण दिखाई देता है। जिसको एक कथाकार ने उत्साह में बोझिलता बता दिया था दरअसल वो हिंदी भाषा की समृद्धि का प्रतीक है। दरअसल होता यह है कि जब भी हिंदी में कहानियों की भाषा पर बात की जाती है तो वो भी यथार्थ के धरातल पर आकर टिक जाती है। इस तरह की बातें करनेवाले ये भूल जाते हैं कि भाषा केवल स्थितियों और परिस्थितियों को अभिव्यक्त ही नहीं करती है बल्कि पाठकों के सामने चिंतन के सूत्र भी छोड़ती है। वो अतीत में भी जाती है और वर्तमान से होते हुए भविष्य की चिंता भी करती है। आज के कहानीकारों के सामने सबसे बड़ा संकट ये है कि उनकी पीढ़ी का कोई कथा आलोचक नहीं है। इस वक्त हिंदी कहानी पर टिप्पणीकार तो कई हैं लेकिन समग्रता में कथा आलोचना के माध्यम से कहानीकारों और पाठकों के बीच सेतु बनने वाला कोई आलोचक नहीं है। आज के अधिकतर कहानीकार अपने लिखे को अंतिम सत्य मानते हैं और उसपर आत्ममुग्ध रहते हैं। उनको आईना दिखानेवाला न तो कोई देवीशंकर अवस्थी है, न कोई सुरेन्द्र चौधरी और न ही कोई नामवर सिंह। इसके अलावा इस समय कथा का जो संकट है वो ये है कि कहानीकार भी अपने समकालीनों पर लिखने से घबराते हैं। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर आपको सिर्फ प्रशंसात्मक टिप्पणियां मिलेंगी। अच्छी रचनाओं की प्रशंसा अवश्य होनी चाहिए। प्रशंसा से लेखक का उत्साह बढ़ता है लेकिन कई बार झूठी प्रशंसा लेखकों या रचनाकारों के लिए नुकसानदायक होती है। आज हिंदी के युवा कथाकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वो सबसे पहले कहानी या उपन्यास की परंपरा का अध्ययन करें, उसको समझकर आत्मसात करें, फिर अपने लेखन में उसके आगे बढ़ाने का प्रयत्न करें। अगर लेखकों को अपनी परंपरा का ज्ञान नहीं होगा तो उसके आत्ममुग्ध होने का बड़ा खतरा होता है। ये खतरा इतना बड़ा होता है कि वो लेखन प्रतिभा को कुंद कर देता है।

Saturday, November 20, 2021

श्रद्धांजलि के बहाने विवाद को हवा


हाल ही में हिंदी की उपन्यासकार और कहानीकार मन्नू भंडारी का निधन हुआ। कुछ लेखिकाओं ने मन्नू भंडारी को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित किए जानेवाले कार्यक्रमों में मन्नू जी के अवदानों पर चर्चा न करके उसको अपनी भड़ास निकालने का मंच बना दिया। जमकर व्यक्तिगत खुन्नस निकाले गए। इस तरह की बातें की गईं जो न होतीं तो साहित्य की गरिमा बनी रहती। इंटरनेट मीडिया के अराजक मंच फेसबुक पर भी पक्ष विपक्ष में टिप्पणियां देखने को मिलीं। कई बुजुर्ग लेखिकाओं ने मन्नू भंडारी के निधन के बाद चर्चित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा को निशाने पर लिया और परोक्ष रूप से उनको मन्नू जी से विश्वासघात का आरोप तक लगा दिया। आरोप की शक्ल में पेश की गई बातों से ये लग रहा था कि जैसे मैत्रेयी पुष्पा ने राजेन्द्र यादव को बरगला दिया था, जिससे मन्नू भंडारी को बेहद मानसिक पीड़ा हुई थी। आरोपों  को इस तरह से पेश किया गया कि सारी गलती सिर्फ मैत्रेयी पुष्पा की थी और राजेन्द्र यादव बेचारे बहुत ही मासूम थे। उनकी कोई गलती थी ही नहीं, वो तो भटक गए थे। यह सही है कि राजेन्द्र यादव ने मैत्रेयी पुष्पा को अवसर दिया लेकिन अगर मैत्रेयी में प्रतिभा नहीं होती तो क्या वो इतने लंबे समय तक साहित्य में टिकी रह सकती थीं। राजेन्द्र यादव ने दर्जनों प्रतिभाहीन लेखिकाओं को मैत्रेयी पुष्पा से अधिक अवसर अपनी साहित्यिक पत्रिका हंस में दिए। उनकी पुस्तकों पर प्रायोजित समीक्षाएं भी प्रकाशित की लेकिन आज उनमें से कोई भी लेखिका मैत्रेयी जैसी ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाईं। दरअसल जब कोई महिला सफल होती है और वो पुरुषों के साथ काम करती है तो उसको इस तरह के अपमान का विष पीना पड़ता है। मैत्रेयी पुष्पा ने देर से लिखना आरंभ किया लेकिन उनके कई उपन्यास इतने सधे हुए हैं कि वो साहित्याकाश पर छा गईं। उस वक्त भी मैत्रेयी पुष्पा पर तमाम तरह के लांछन लगे थे। राजेन्द्र यादव की भी आलोचना हुई थी लेकिन इतने सालों के बाद अब जब मन्नू भंडारी नहीं रहीं तो उन बातों को एक बार फिर से उभार कर बुजुर्ग लेखिकाएं क्या हासिल करना चाहती हैं, पता नहीं।  मत्रैयी पुष्पा ने अपनी सफाई में कई बातें कहीं जो वो पहले भी अपनी आत्मकथा या राजेन्द्र यादव पर लिखी अपनी पुस्तक में कह चुकी हैं। काफी कुछ मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा में भी लिख दिया है। लेकिन फिर से वातावरण कुछ ऐसा बना कि लगा कि ये लेखिकाएं कुछ नया रहस्योद्घाटन कर रही हैं। 

मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव पति पत्नी थे लेकिन इनके संबंध सहज नहीं थे, ये बात ज्ञात है। इन दोनों ने समय समय पर अपने साक्षात्कारों में इस तरह की बातें भी की थीं जिसको लेकर हिंदी जगत इनके संबधों के बारे में परिचित है। इन दोनों से रचनात्मक लेखन का सिरा काफी पहले छूट गया था। वर्षों बाद जब मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा लिखी तो हिंदी के आलोचकों को उसमें साहस का आभाव दिखा। मन्नू भंडारी अपनी आत्मकथा में राजेन्द्र यादव से आब्सेस्ड दिखती हैं। आज मन्नू भंडारी के निधन के बाद ऐसी बातें हो रही हैं जिनको सुनकर 2009 का साहित्यिक परिदृश्य सहसा याद आ जाता है। इस वर्ष राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी ने अपनी शादी को लेकर या अपने दांपत्य जीवन को लेकर एक साहित्यिक पत्रिका में कई ऐसी बातें कहीं थीं जिसने हिंदी साहित्य जगत को शर्मसार किया था। जहां तक मुझे याद पड़ता है कि 2009 में साहित्यिक पत्रिका कथादेश के मार्च अंक में मन्नू भंडारी ने एक लंबा लेख लिखा था। उस लेख में मन्नू जी ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि सच का सामना करने का साहस हो तभी साक्षात्कार दें। परोक्ष रूप से वो  ये नसीहत राजेन्द्र यादव को दे रही थीं। इस पूरे लेख में मन्नू भंडारी ने ये साबित करने की कोशिश की थी कि राजेन्द्र यादव ने उनकी शादी के विषय में जो गलत बातें की उसको वो ठीक कर रही हैं। यहां यह बताना आवश्यक है कि कथादेश के 2009 के जनवरी अंक में राजेन्द्र यादव का एक लंबा साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने अपनी और मन्नू भंडारी की शादी की परिस्थितियों का उल्लेख किया था। राजेन्द्र यादव के उस साक्षात्कार के उत्तर में मन्नू भंडारी ने लेख लिखा था और किन परिस्थितियों में दोनों की शादी हुई थी इसको अपने हिसाब से हिंदी साहित्य जगत के सामने रखा था। अपने उस लेख में मन्नू भंडारी राजेन्द्र यादव से सच कहने की अपेक्षा करती हैं लेकिन जब उकी बारी आती है तो वो खुद राजेन्द्र यादव की प्रेमिका मीता का असली नाम बताने से कन्नी काट लेती हैं। मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा में उन स्थितियों का भी उल्लेख नहीं किया जिसकी वजह से उन्होंने राजेन्द्र यादव को घर से निकाला था। उसका नाम लेने से भी परहेज कर गईं जिसकी वजह से उन्होंने राजेन्द्र यादव को घर से निकाला था। दोनों ने अपने जीवन काल में जमकर एक दूसरे के बारे में जितना बताया उससे अधिक छिपाया भी। आज से बारह-तेरह वर्षों पहले तक यादव-भंडारी दंपति के बारे में हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में जमकर लिखा जाता था। उस दौर में तो यहां तक चर्चा होती थी कि दोनों कुछ लिख नहीं पा रहे हैं तो अपने दांपत्य के विवादित स्वर को उभार कर चर्चा में बने रहते हैं। लेकिन समय के साथ इस तरह की बातें कम होने लगीं। कालांतर में राजेन्द्र यादव का निधन हो गया और मन्नू भंडारी बीमार रहने लगीं तो इस लेखक दंपति के बीच के विवाद को साहित्य जगत लगभग भूल चुका था। 

मन्नू भंडारी के बहाने हिंदी की चंद बुजुर्ग लेखिका जिस तरह की बातें कर रही हैं उससे तो स्त्री विमर्श के उनके प्रतिपादित सिद्धांतों पर भी प्रश्न खड़े हो रहे हैं। उनके तर्क हैं कि राजेन्द्र यादव ने किसी अन्य स्त्री के चक्कर में मन्नू भंडारी की उपेक्षा की। यहां तक तो इन बुजुर्ग लेखिकाओं के स्त्री विमर्श पर आंच नहीं आती है लेकिन जब एक ऐसे पुरुष से साथ और संबल की अपेक्षा की जाती है जो वफादार नहीं होता है तो फिर प्रश्न तो उठेंगे। क्या स्त्री मुक्ति और स्त्री चेतना की बातें सिर्फ किस्से कहानियों में ही ठीक लगते हैं। क्या सिर्फ कहानियों के पात्र ही क्रांतिकारी फैसले ले सकती हैं क्या सिर्फ कहानियों की शादीशुदा नायिकाएं ही अपने दांपत्य से त्रस्त आकर विकल्प की ओर बढ़ती हैं। अगर इस तरह की बातें सिर्फ किस्से कहानियों तक सीमित हैं तो फिर स्त्री विमर्श की बातें खोखली हैं। दूसरी बात ये कि हमारे यहां मृत व्यक्ति को लेकर स्तरहीन बातें कहने की परंपरा नहीं रही है।व्यक्ति की मृत्यु के बाद तुरंत उसकी आलोचना या उसके संबंधों के बहाने से उसको विवादित करने को हमारे समाज में अच्छा नहीं माना जाता है। लेकिन मन्नू भंडारी की तथाकथित मित्रों ने उनके निधन के तुरंत बाद उनके और राजेन्द्र यादव के बीच के तनावपूर्ण संबंध की बात उठाकर इस परंपरा का ना सिर्फ निषेध किया बल्कि नए लेखकों के सामने एक खराब उदाहरण प्रस्तुत किया। बेहतर होता कि ये बुजुर्ग लेखिकाएं मन्नू भंडारी के साहित्यिक योगदान या अवदान पर चर्चा करतीं। उनकी रचनाओं के बारे में नई पीढ़ी को अवगत करवाती या फिर उसको नए सिरे से व्याख्यायित करने का उपक्रम करतीं। विवादित प्रसंगों की बजाय अगर उनकी संयुक्त कृति एक इंच मुस्कान के लिखे जाने की प्रक्रिया पर चर्चा होती तो उनकी प्रयोगधर्मिता का पता चलता। ये भी पता चलता कि दो अलग अलग व्यक्ति कैसे इतना प्रवाहपूर्ण उपन्यास लिख पाए। काश! ऐसा हो पाता। 


Thursday, June 4, 2020

प्रयोगधर्मा फिल्मकार की कमी खलेगी

बासु भट्टाचार्य जब हिंदी के मशहूर उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु की कृति ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम’ का निर्देशन कर रहे थे तो उनके साथ सहायक निर्देशक के रूप में जुड़े थे बासु चटर्जी। जब बासु चटर्जी ने फिल्म बनाने का फैसला लिया तो उन्होंने चुना हिंदी के उपन्यासकार राजेन्द्र यादव की कृति ‘सारा आकाश’ को। यह महज संयोग था एक प्रयोग इसका तो पता नहीं लेकिन बासु चटर्जी की इस फिल्म को मृणाल सेन की फिल्म ‘भुवन शोम’ के साथ समांतर सिनेमा की शुरुआती फिल्म माना जाता है। हिंदी फिल्मों की दुनिया में जब राजेश खन्ना का डंका बज रहा था, राजेश खन्ना की फिल्मों के रोमांस का जादू जब हिंदी के दर्शकों के सर चढ़कर बोल रहा था, लगभग उसी दौर में हिंदी फिल्मों में समांतर सिनेमा का बीज भी बोया जा रहा था। एक तरफ राजेश खन्ना का सपनों की दुनिया में ले जानेवाला रोमांस था तो दूसरी तरफ आम मध्यमवर्गीय परिवारों का अपने संघर्षों के बीच प्रेम का अहसास दिलानेवाली फिल्में। बासु चटर्जी ने अपनी पहली फिल्म सारा आकाश में इस तरह के प्रेम का ही चित्रण किया। जहां प्रेम तो है पर अपने खुरदरे अहसास के साथ। फिल्म ‘सारा आकाश’ को वो राजेन्द्र यादव के उपन्यास के पहले ही भाग पर केंद्रित कर बना रहे थे और राजेन्द्र यादव से लगातार उसपर ही चर्चा करते थे। राजेन्द्र यादव ने तब एक दिन बासु चटर्जी से कहा था कि यार तुम मेरे उपन्यास पर बालिका वधू सा क्या बना रहे हो? दरअसल राजेन्द्र यादव इस बात को लेकर चिंतित थे कि अगर उपन्यास पहले भाग पर केंद्रित रहा तो उनकी पूरी कहानी फिल्म में नहीं आ पाएगी। लेकिन बासु चटर्जी ने उनको समझा लिया था। बासु चटर्जी ने कई फिल्मों की पटकथा खुद ही लिखी थी क्योंकि वो मानते थे कि निर्देशक कहानी को सबसे अच्छे तरीके से समझ सकता है।
बासु चटर्जी ने फिर मन्नू भंडारी की कहानी ‘ये सच है’ पर ‘रजनीगंधा’ फिल्म बनाई जो दर्शकों को खूब पसंद आई। इस फिल्म में ही अमोल पालेकर और दिनेश ठाकुर जैसे आम चेहरे मोहरेवाले नायकों को लीड रोल देने का साहसी कदम बासु चटर्जी ने उठाया था। इस फिल्म से ही विद्या सिन्हा को अभिनेत्री के तौर पर पहचान मिली। फिर तो वो इस तरह के कई अन्य प्रयोग करते रहे। इसके बाद उन्होंने अमोल पालेकर और जरीना बहाव को लेकर ‘चितचोर’ बनाई। एक और प्रयोग बासु चटर्जी ने अपनी फिल्म ‘शौकीन’ में किया। इस फिल्म में तीन बुजुर्ग अशोक कुमार, ए के हंगल और उत्पल दत्त को लेकर उन्होंने बुजुर्ग मन के मनोविज्ञान को बहुत ही कलात्मक और सुंदर तरीके से दर्शकों के सामने पेश किया। शौकीन में बुजुर्ग मन के उस हिस्से को उभारा गया है जहां रोमांस शेष रह जाता है,अपने मन की करने की ललक बची रह जाती है। बासु चटर्जी ने कई कमर्शियल फिल्में भी की जिनमें अमिताभ बच्चन के साथ ‘मंजिल’ और राजेश खन्ना के साथ ‘चक्रव्यूह’ और अनिल कपूर के साथ ‘चमेली की शादी’ जैसी फिल्में भी शामिल हैं। 
एक निर्देशक के तौर पर बासु चटर्जी बहुत ही सख्त माने जाते हैं। सेट पर वो किसी तरह की अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करते थे। एक फिल्म पत्रिका के संपादक रहे अरविंद कुमार ने बासु चटर्जी के सहायक के हवाले से एक वाकया लिखा है,  ‘दिल्लगी’ की शूटिंग के दिनों की बात है। शिफ़्ट सुबह नौ से चार तक थी। शत्रुघ्न सिन्हा को सुबह आना था वो आए शाम के चार से कुछ पहले। बासु चटर्जी ने किसी तरह अपने को संयमित किया और शत्रुघ्न सिन्हा को बोले “कॉस्ट्यूम पहन आएं।” शत्रुघ्न सिन्हा जबतक तैयार होकर आए इधर बासु चटर्जी और कैमरा निर्देशक मणि कौल में बहस हो रही थी। मणि कह रहे थे, “आधे घंटे में सूरज ढल जाएगा, तो दिन का यह सीन कैसे पूरा कर लेंगे आप?” बासु ने शत्रुघ्न को देखते ही कहा, अब तो पैकअप करना होगा... कल कोशिश करते हैं’ निर्देशक का कठोर और सहज संदेश। अगले दिन शत्रुघ्न सिन्हा ठीक दस बजे सेट पर मौजूद थे। 
बासु चटर्जी ने अपनी दूसरी पारी टीवी के साथ शुरू की थी। अभी हाल ही लॉकडाउन के दौरान जिस सीरियल ‘व्योमकेश बक्षी’ को दर्शकों ने खूब पसंद किया उसे भी बासु दा ने ही बनाया था। इलके अलावा बासु चटर्जी ने ‘रजनी’, ‘दर्पण’ और ‘कक्काजी कहिन’ जैसे टीवी सीरियल का भी निर्माण किया। वो मानते थे कि टी वी का एक्सपोजर बहुत है और उसको बहुत सारे लोग एक साथ देखते हैं। साथ ही वो ये भी कहते थे कि टीवी की इतनी ज्यादा पहुंच है कि कुछ ऐसा बनाना जो एकसाथ इतने सारे लोग को पसंद आए, बड़ी चुनौती है। बासु चटर्जी के निधन से हिंदी सिनेमा ने एक प्रयोगधर्मा वयक्तित्व को खो दिया जिसक जगह की भारपाई जल्दी संभव नहीं। 

Sunday, October 27, 2019

जड़ता पर प्रहार करनेवाला लेखक

राजेन्द्र यादव ने कभी उपेन्द्रनाथ अश्क पर लिखा था कि शायद अपनी पीढ़ी में वो ही अकेले ऐसे हैं, जो उम्र और अवस्था की सारी दीवारें तोड़कर नये से नये लेखक से उसी के धरातल पर मिल सकते हैं, उसके कंधे पर हाथ मारकर हंसी मजाक कर सकते हैं और समान मित्र की तरह सलाह दे सकते हैं-इसलिए भय या श्रद्धा के स्थान पर एक अजीब आत्मीयता का संबंध फौरन स्थापित कर लेते हैं।राजेन्द्र यादव ने जब ये लिखा होगा तो शायद वो ये नहीं जानते होंगे कि वो भी ऐसे ही थे। दोनों में एक बुनियादी अंतर ये था कि अश्क जी दुश्मनों के बिना रह नहीं सकते थे जबकि यादव जी दोस्तों के बिना रह नहीं सकते थे। राजेन्द्र यादव की एक और खूबी ये थी कि वो दूसरे की लेखकीय प्रतिभा को उभारने में बेहद उत्साह के साथ लगे रहते थे। उनको पता होता था कि कौन सा व्यक्ति क्या बेहतर लिख सकता है। उनको बस अंदाज हो जाए फिर तो उसकी जान के पीछे पड़ जाते थे और तबतक शांत नहीं बैठते थे जबतक कि उससे उस विषय पर लिखवा ना लें। उनमें लिखने के लिए प्रेरित करने और लिखवा लेने की अतुलनीय क्षमता थी। यह अनायास नहीं था कि साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादन के बाद उनसे एक बहुत बड़ा लेखक वर्ग जुड़ा था। हंस के प्रकाशन के बाद उनको कई तरह के विशेषणों से नवाजा गया। कई विवादों में घिरे लेकिन निर्विवाद रूप से नए लेखकों के सबसे चहेते लेखक के तौर पर उभरे। हंस को चलाने के लिए भले ही उनको कई तरह के दंदफंद करने पड़ते होंगे लेकिन बावजूद इसके वो अंत तक लेखक ही बने रहे। कोलकाता में जब रहते थे तो एक दिन पता चला कि उनका नौकर भी कहानियां लिखता है फिर तो उसके साथ लगातार बैठकी होने लगी। मन्नू भंडारी के गुस्से का भी असर नहीं पड़ता था और वो नौकर से उसकी कहानियां सुनते और उसपर बात करते और उसको कहानी की टेक्नीक पर ज्ञान भी देते।
हंस के दफ्तर में जिस तरह से या जिस सहजता के साथ वो नए से नए लेखकों के अलावा अपने सहकर्मियों के बात करते थे कि लगता ही नहीं था कि वो इतने बड़े लेखक है। बेहद गंभीर बात करते करते अचानक से इतनी हल्की बात कह जाते थे कि वहां उपस्थित लोग सन्न रह जाते थे। तभी तो मन्नू भंडारी ने लिखा था कि उनके व्यवहार में जाने ऐसा क्या है कि निकट रहनेवाले इनको कभी महान मान ही नहीं पाते हैं। राजेन्द्र यादव की मां भी कुछ इसी तरह का कह करती थी, कैसे लोग अखबारों में तेरा नाम छाप देते हैं, तुझे सभापति बना देते हैं! अब यहां सड़क की सीढ़ियों पर ही बैठा है...! इस तरह की टिप्पणियां उनके बेहद सहज व्यवहार की वजह से आती थी। दूसरी एक बात जिसको मन्नू भंडारी ने ऱेखांकित किया है वो ये कि राजेन्द्र यादव अपनी चीजों को कभी खुला नहीं छोड़ते थे ठीक उसी तरह से अपने मन की बात को कभी खुलकर नहीं करते थे। जब पत्नी का ये अनुभव था तो मित्रों का क्या कहा जा सकता है। कुछ इसी तरह की बात कोलकाता के उनके मित्र मनमोहन ठाकोर ने भी लिखी है कि अगर राजेन्द्र का वश चले तो वो अपनी टूथपेस्ट और ब्रश को भी ताले में बंद करके रखे। मन्नू भंडारी ने माना कि राजेन्द्र का ये स्वभाव उसके व्यक्तिगत जीवन में अविश्वास पैदा करता है। संभवत: मन न खोल पाने की यही गिरह राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी के अलग होने का कारण बनी हो। राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश के बीच काफी गहरी दोस्ती थी लेकिन उनके बीच अविश्वास की एक गहरी रेखा भी थी। इस बाते के पर्याप्त संकेत कमलेश्वर पर लिखे उनके लेख मेरा हमदम मेरा दोस्त में मिलते हैं। वो बहुत खुलकर कमलेश्वर की तारीफ भी करते हैं लेकिन दुश्यंत को उद्धृत करते हुए उनको झूठा भी कह डालते हैं। मोहन राकेश और उनके बीच भी संबंध बेहद गहरे थे पर अविश्वास भी था।
राजेन्द्र यादव विदेशी लेखकों को बहुत पढ़ते थे। मन्नू जी ने कहा है कि विदेशी लेखकों की जीवनियां पढ़-पढ़कर यह धारणा इनके मन में गहरे तक बैठ गई है कि दुहरी जिन्दगी महान लेखक बनने की अनिवार्य शर्त है। और उसमें ये जोडा जा सकता है कि ये दुहरी जिंदगी वो जीवन के अंत तक जीते रहे। वो अपनी दुहरी जिंदगी को सुविधानुसार स्वीकार भी करते थे, छिपाते भी थे। लेकिन स्वीकार-अस्वीकार के इस खेल में एक खिलंदड़ापन भी होता था। विदेशी लेखकों को पढ़ने की ललक उनके मन में अंत तक बनी रही। एमा डोनॉग की किताब रूम जब प्रकाशित हुई थी और उनको जब इस उपन्यास के कथावस्तु के बारे में पता चला था तो वो उसको पढ़ने के लिए मचलने लगे थे। बाद के दिनों में आंख की तकलीफ की वजह से कम पढ़ पाते थे लेकिन मैगनिफाइंग ग्लास लगाकर अपनी रुचि के मोटे-मोटे उपन्यास पढ़ जाते थे। पढ़ने की ये ललक उनके अंदर जीवनपर्यंत बनी रही। इसका ही नतीजा था कि वो अपनी पत्रिका हंस में नित नए प्रयोग करते थे, नए लेखकों से नए और लगभग अछूते विषयों पर लेख लिखवाते थे। कई बार वो चाहते थे कि हंस में विदेशों में प्रकाशित अलग अलग भाषा की बदनाम किताबों पर कोई लिखनेवाला मिले। वो हर तरह के साहित्य को पाठकों को सुलभ करवाना चाहते थे। वो इस बात की परवाह भी नहीं करते थे कि इससे विवाद होगा। विवादों को वो समाज की जड़ता तोड़नेवाले औजार के तौर पर देखते थे, इसलिए प्रयासपूर्वक विवादों को उठाते भी थे। कई बार साहित्यिक विवाद तो कई बार गैर साहित्यिक विवादों को उठाने से भी उनको परहेज नहीं रहा था। उन्होंने हंस के संपादकीयों के माध्यम से कई विवादास्पद मुद्दे उठाए थे। सामाजिक और राजनीतिक विवाद से भी उनको परहेज नहीं था। कई बार वो विवादों में फंसे भी, उनके घर से लेकर उनके दफ्तर के बाहर तक प्रदर्शन आदि भी हुए लेकिन फिर भी विवाद उठाने की आदत से बाज नहीं आए। अपने मृत्यु के कुछ दिन पहले तक भी विवादों में घिरे रहे। इतना विवादप्रिय लेखक हिंदी साहित्य में शायद ही कोई दूसरा हो।


Friday, October 11, 2019

बंद गली का आखिरी मकान


मशहूर लेखक धर्मवीर भारती के एक कहानी संग्रह का नाम है बंद गली का आखिरी मकान। भारती के इस कहानी संग्रह की काफी चर्चा हुई। एक जमाने में उस पुस्तक जितनी ही चर्चा हुई थी दिल्ली के दरियागंज इलाके के एक बंद गली के आखिरी मकान की। ये मकान था साहित्यिक पत्रिका हंस का कार्यालय। 1990 के बाद के कई वर्षों में ये मकान दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र बन गया था। अंसारी रोड के इस मकान में हंस के संपादक और अपने जमाने के मशहूर कथाकार राजेन्द्र यादव बैठते थे। यहीं से वो हंस पत्रिका का संपादन किया करते थे। दोपहर बाद दफ्तर पहुंचते थे और उनके दफ्तर पहुंचते ही साहित्यिक रुचि के लेखकों का जमावड़ा शुरू हो जाता था। उस जमाने में तो यहां तक कहा जाता था कि जो लेखक दिल्ली आता था वो एक बार दरियागंज की इस गली में अवश्य आता था। संपादक के कमरे में काम कम अड्डेबाजी ज्यादा होती थी। काम तो पीछे वाले कमरे में सहायक संपादक और बगल वाले कमरे में हंस के सहयोगी स्टाफ करते थे। यादव जी के कमरे में अनौपचारिक गोष्ठियां हुआ करती थी। पूरे देशभर के साहित्याकारों की चर्चा होती थी, कौन क्या लिख रहा है, कौन क्या कर रहा है, कहां क्या सेंटिंग हो रही है आदि आदि। इन विषयों पर खुलकर चर्चा होती थी। इसी बीच कई रचनाकार अपनी रचनाएँ लेकर यादव जी के कमरे में आते जाते रहते थे। राजेन्द्र यादव उनसे उनकी रचनाएँ लेते थे, उनका हाल चाल पूछते और अगर रचनाकार दिल्ली के बाहर का होता तो उसके शहर के बारे में जानकारी हासिल करते।
उन दिनों हिंदी साहित्य में ये चर्चा आम थी कि सभी साहित्यिक साजिशें बंद गली के उसी मकान में रची जाती थी। लेखकों को उठाने गिराने के खेल का ताना-बाना वहीं बुना जाता था। ऐसा नहीं था कि वहां सिर्फ साजिशें ही रची जाती थी, ये राजेन्द्र यादव का एक स्टाइल भी था कि वो इन चर्चाओं से कई रचनात्मक चीजें निकाल लिया करते थे। राजेन्द्र यादव ने जब दलित और स्त्री विमर्श की शुरुआत की थी तो उसके पीछे भी हंस कार्यालय में होनेवाली अनौपचारिक चर्चाओं का बड़ा हाथ था। उन्हीं चर्चाओं में एक दिन मराठी में दलित साहित्य पर चर्चा हो रही थी तो उसी चर्चा में ये बात निकली थी कि हिंदी में दलित लेखन की स्थिति क्या है। विमर्श के माहिर राजेन्द्र यादव ने फौरन उसमें संभावना भांप ली और तत्काल दलित विमर्श की शुरुआत कर दी। हंस के कार्यालय में स्थापित से लेकर नवोदित लेखिकाओं का भी खूब आना जाना होता था। यादव जी अपनी आदत के मुताबिक सबसे हंसी मजाक किया करते थे। लेखिकाओं की एक टोली के साथ की चर्चा से ही स्त्री विमर्श का स्वर प्रसफुटित हुआ था। हिंदी के दो प्रमुख विमर्श दलित और स्त्री विमर्श की शुरुआत अंसारी रोड, दरियागंज की एक गली के आखिरी मकान से हुई थी। इल मकान ने हिंदी साहित्य की ना केवल बहुत सारी घटनाएं देखी बल्कि कई लेखक-लेखिकाओं को सफलता के शिखर पर पहुंचते हुए भी देखा। राजेन्द्र यादव के निधन के बाद हलांकि ये मकान भी है, औपचारिक गोष्ठियां भी होती हैं लेकिन वो वैचारिक या रचनात्मक उष्मा नहीं दिखाई देती है। धीरे-धीरे दरियागंज की गली का ये मकान सृजनात्मक रूप से सूना होने लगा है।

Thursday, July 4, 2019

हिंदी विभागों में रचनात्मक लेखन


हिंदी के मशहूर कथाकार और साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादक राजेन्द्र यादव हमेशा कहा करते थे कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग प्रतिभाओं की कब्रगाह हैं।  उनकी इस भावना का हिंदी के कई साहित्यकार समर्थन भी करते रहे हैं। यादव जी कहा करते थे कि विश्वविद्यालय और कॉलेजों के हिंदी विभागों में रचनात्मक लेखन करनेवाले लोग कम होते जा रहे हैं और जो हैं वो भी बेहद शास्त्रीय किस्म का लेखन कर रहे हैं। हो सकता है ऐसा कहने के लिए उनके पास अपनी वजहें हों लेकिन उनके वक्तव्य के पहले भी और बाद में भी कम से कम दिल्ली विश्वविद्लय के हिंदी विभाग से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों के हिंदी विभागों में भी कई रचनात्मक लेखक हुए। एक दौर था जब दिल्ली के जाकिर हुसैन कॉलेज के हिंदी विभाग में गंगाप्रसाद विमल, सुधीश पचौरी, कमलकिशोर गोयनका और प्रताप सहगल जैसे लेखक शिक्षण कार्य कर रहे थे। उसी कॉलेज के अंग्रेजी विभाग में भीष्म साहनी भी पढ़ाते थे। नरेन्द्र कोहली जैसे हिंदी के शीर्ष लेखक भी दिल्ली विश्वविदयालय के कॉलेज के हिंदी विभाग में पढ़ा चुके हैं। यह सूची बहुत लंबी है। मौजूदा दौर में भी दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों के हिंदी विभागों में कई लेखक हैं। इनमें से कुछ लेखकों की कृतियां तो इतनी लोकप्रिय हैं कि वो दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में भी शामिल हो चुकी हैं।
दिल्ली के देशबंधु कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर संजीव कुमार हिंदी की युवा पीढ़ी के शीर्ष आलोचकों में शुमार किए जाते हैं। उन्होंने कहानी पर कई अच्छी आलोचनात्मक टिप्पणियां लिखी हैं। संजीव कुमार ने अनुवाद का काम भी किया है। संजीव कुमार ने कहानी भी लिखी है। उनको आलोचना के लिए दिया जानेवाले प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी सम्मान भी मिल चुका है। संजीव कुमार ने जैनेन्द्र और अज्ञेय का सृजनात्मक मूल्यांकन भी किया है। संजीव कुमार की अभी हाल ही में कहानी आलोचना पर एक किताब भी आई है।
जाकिर हुसैन इवनिंग कॉलेज में हिंदी के चर्चित लेखक प्रभात रंजन भी हिंदी पढ़ाते हैं। मनोहर श्याम जोशी पर अभी प्रभात रंजन की संस्मरणात्मक पुस्तक पालतू बोहेमियन प्रकाशित होकर चर्चित हो रही है। इसके पहले प्रभात रंजन ने मुजफ्फरपुर की बाइयों को केंद्र में रखकर कोठागोई ने नाम से एक औपन्यासिक कृति की रचना की थी। प्रभात रंजन जमकर अनुवाद भी करते हैं। उनकी अनूदित पुस्तक आई डू व्हाट आई डू, जिसके लेखक रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन हैं, दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की अनुवाद श्रेणी में अपना स्थान बना चुकी है।
दिल्ली विश्वविद्लय के सत्यवती कॉलेज में हिंदी के शिक्षक प्रवीण कुमार ने अपनी रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप किया है। उनकी कृति छबीला रंगबाज का शहर दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की कथा श्रेणी में अपना स्थान बना चुकी है। उनकी इस कृति की खूब चर्चा भी हुई थी। मशहूर कथाकार काशीनाथ सिंह ने इसपर लिखा था-दूसरे शहर झख मारें बिहार के इस अलबेले छबीला रंगबाज के शहर के आगे, इसे लंबी कहानी कहूं या लघु उपन्यास, जितना ही जबरदस्त है उतना ही मस्त
इसी तरह किरोड़ीमल कॉलेज में हिंदी विभाग से संबद्ध प्रज्ञा ने भी हाल के दिनों में एक कहानीकार के तौर पर अपनी पहचान बनाई है। उनकी कहानी मन्नत टेलर्स को पाठकों ने खूब सराहा। इसी नाम से उनका एक कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। दिल्ली विश्वविद्यालय के ही श्रद्धानंद कॉलेज के हिंदी विभाग में कार्यरत उमाशंकर चौधरी ने भी अपनी कहानियों से हिंदी जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा। उनका हाल ही में एक उपन्यास आया है, अंधेरा कोना। बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस उपन्यास को लेकर पाठकों में उत्सुकता है।       

Saturday, June 22, 2019

विवाद के क्षितिज को छेकते अशोक


एक थे राजेन्द्र यादव। हिंदी में कहानियां लिखते थे। हंस पत्रिका के संपादक थे। नामवर सिंह उनको विवादाचार्य कहते थे। राजेन्द्र यादव को विवादों में मजा आता था। उनके पास खबरों में बने रहने की कला थी। वो तब दुखी होते थे जब बहुत दिनों तक उनका नाम मीडिया में नहीं उछलता था, अखबारों में नहीं छपता था। खबरों में बने रहने की उनकी ख्वाहिश पर बात होती थी तो तो वो हरिशंकर परसाईं का एक व्यंग्य सुनाया करते थे- एक नेता एक दिन अपने घर के बाहर तलवार लेकर खड़ा था। उसके परिवार वालों ने पूछा कि क्या हुआ? नेता जी बोले कि आज गला काटना है। अब परिवार वाले और पड़ोसी उनको रोकने लगे। वो इनसे यह कहते हुए छिटक कर भागे कि गला काट कर ही दम लूंगा। आगे-आगे नेताजी और उनको रोकने के लिए परिवारवाले और पड़ोसी। सब यही पूछ रहे थे कि गला क्यों काटना चाहते हैं? अगर किसी से कोई भूल-चूक हो गई है तो उसको सुधार लिया जाएगा। नेताजी रुके और बोले कि जिस गले में सप्ताहभर से कोई माला नहीं पहनाई गई हो उसको तो काट ही डालना चाहिए। किसी तरह समझा-बुझाकर नेताजी को रोका गया। यादव जी ये किस्सा सुनाकर कहते कि यार अगर सप्ताह भर से किसी लेखक का नाम अखबारों में नहीं छपा, किसी पत्रिका में उसकी साहित्यिक या गैर-साहित्यिक गतिविधियों के बारे में नहीं छपा तो लेखक को हिमालय पर चले जाना चाहिए। राजेंद्र यादव अपने जीते जी भी और मृत्यु क बाद भी विवादों में बने रहे, चर्चा के केंद्र में रहे। एक बार विवाद उठाने के चक्कर में बुरे फंसे थे जब उन्होंने भगवान हनुमान को पहला आतंकवादी बता दिया था। उनके खिलाफ प्रदर्शन आदि को देखते हुए दो सुरक्षाकर्मी लगा दिए गए थे। वो रात को भी उनके साथ ही रहते थे और उनके फ्लैट में ही बंदूक लेकर सोते थे। राजेन्द्र यादव जी जैसे स्वछंद जीवन जीने वाले के लिए ये सुरक्षाकर्मी स्थायी बाधा थे। उन्होंने मिन्नतें करके सुरक्षकर्मियों को हटवाया था।
यादव जी के निधन के बाद हिंदी साहित्य में विवाद कम हो गए। नानवर जी अलग तरीक़े से चर्चा में बने रहते थे वो किसी भी कृति को सदी की महानतम कृति बता देते थे या फिर कुछ ऐसा कह या कर देते थे जिससे विवाद हो जाता था। पर वो यादव जी से अपेक्षाकृत कम विवादों में रहते थे। इन दोनों से अलग रविंद्र कालिया अपने काम से विवाद उठाते थे। जिस भी पत्रिका का वो संपादन करते थे उसको संपदित करने के तौर तरीकों से विवाद खड़ा करते थे। एक पत्रिका में उन्होंने लेखकों का परिचय इस तरह से देना शुरू किया था जिससे विवाद हो गया था।पत्रिका चर्चित हो गई। अगले अंकों से परिचय लिखने का विवादित तरीका वापस लेना पड़ा। इसी तरह से युवा लेखन के नाम पर उन्होंने जितने लेखकों को छापा उनकी रचनाओं को लेकर भी सवाल उठे थे, बहसें हुई थीं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय के एक लेख के एक शब्द को लेकर भारी विवाद हुआ था। धरना प्रदर्शन भी हुए थे, कुलपति को मानव संसाधन विकास मंत्री ने तलब भी किया था। मामला राष्ट्रपति तक भी पहुँचा था।
इन तीन लेखकों के अलावा बचे अशोक वाजपेयी। 2014 के पहले अशोक जी को लेकर, उनके वक्तव्यों को लेकर भी काफी विवाद होते रहे, भारत भवन को लेकर भी उनके दंभ और बड़बोलेपन पर भी सवाल खड़े होते थे। दंभ इसलिए कि हिंदी के लेखकों को हवाई जहाज पर चढ़ाने की बात उन्होंने ही की थी। बाद के दिनों में अशोक वाजपेयी गलत वजहों से विवादों में रहे। 2014 के पहले तक अपने स्तंभ के ज़रिए छोटे-मोटे विवाद उठाते थे। जब तक राजेंद्र यादव, नामवर सिंह और रविंद्र कालिया जीवित रहे विवादों को हवा देने के मामले में अशोक वाजपेयी चौथे नंबर पर ही रहे। यादव जी, कालिया जी और नामवर जी के निधन के बाद हिंदी में अशोक वाजपेयी के कद का कोई लेखक बचा नहीं ना ही अशोक वाजपेयी जितना साधन संपन्न लेखक। तो अब वो विवादाचार्य के सिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए प्रयासरत हैं। अशोक वाजपेयी के पास रजा फाउंडेशन और सोबती-शिवनाथ फाउंडेशन की आर्थिक शक्ति है, लिहाजा कई वरिष्ठ और कनिष्ठ लेखक उनके इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं। एक कुशल राजनेता की तरह अशोक वाजपेयी को मालूम है कि किसको कितना और क्या देना है और बदले में क्या करवाना है। कुछ लोग तो बेवजह उनकी नजर में आने के लिए लाठी भांजते रहते हैं। 2014 के बाद अशोक वाजपेयी साहित्येतर कारणों और विवादों की वजह से चर्चा में रहे। 2015 में उन्होंने पुरस्कार वापसी अभियान की अगुवाई की है और उसके बाद सहिष्णुता- असहिष्णुता के मुद्दे पर सेमिनार और गोष्ठियों करके ख़ुद को चर्चा के केंद्र में बनाए रखा। एक ज़माने में अशोक वाजपेयी वामपंथियों के बेहद खिलाफ़ हुआ करते थे लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान में वामपंथियों ने उनका साथ दिया या उन्होंने लिया यह कहना मुश्किल है। हलांकि मुझसे एक बातचीत में उन्होंने यह स्वीकार किया था कि वो वामपंथियों के साथ नहीं गए बल्कि वामपंथी उनकी छतरी के नीचे आए। अब मंगलेश डबराल और असल जैदी जैसे घोषित वामपंथियों को भी बात साफ करनी चाहिए कि किस विचार बिंदु पर वो और कलावादी अशोक वाजपेयी साथ हुए थे। 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान के वक्त कलावादी लेखक और वामपंथियों का जो अवसरवादी गठजोड़ बना था उससे भी साहित्यिक जगत में कोई आंदोलन खड़ा नहीं हो सका।
अभी अशोक वाजपेयी ने एक साहित्यिक पत्रिका को नामवर सिंह को केंद्र में रखकर एक इंटरव्यू दिया है। उसमें उन्होंने कई विवादित बातें कही हैं। एक बात फिर से उन्होंने दोहराई कि नामवर सिंह सत्ता को साधते नजर आते थे। उदाहरणों के साथ परोक्ष रूप से यह भी बताने की कोशिश की है कि नामवर सिंह का नेताओं के साथ उठना बैठना था और वो उनसे लाभ लेने की जुगत में रहते थे। अब ये बातें कहने की नैतिकता अशोक वाजपेयी में शेष नहीं है। नामवर जी से कम नेताओं के साथ उनके संबंध नहीं है। अर्जुन सिंह से लेकर नीतीश कुमार तक से। साहित्य जगत में यह बात सभी को मालूम है इसलिए उसको दोहराने का ना तो कोई अर्थ है ना ही औचित्य। बस तुलसीदास की पंक्ति याद की जा सकती है पर उपदेस कुसल बहुतेरे। अशोक वाजपेयी ने एक ऐसा प्रसंग उठाया है जिसपर हिंदी के लेखकों और कवियों को संवाद करना चाहिए। नामवर सिंह को याद करते हुए उन्होंने एक निजी बातचीत का हवाला दिया। अशोक जी ने कहा कि- कविता पर उनसे बात होती तो मैं पूछता कि आप हिंदी का सबसे बड़ा कवि किसे मानते हैं।उनका कहना था कि वो तुलसीदास को हिंदी जाति का सबसे बड़ा कवि मानते हैं। उनका आलोचकीय आकलन था कि कबीर भी बड़े कवि हैं पर तुलसी में भाषा की जैसी विविधता है, प्रसंगों की जैसी बहुलता और जीवन छवियां हैं वे कबीर में नहीं हैं। इसी प्रकार उन्होंने मुझसे पूछा था इस समय हिंदी के कौन सबसे अधिमूल्यित यानि ओवर एस्टिमेटेड पोएट हैं तो मैंने कहा था केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण। वे तुरन्त सहमत हुए थे। इस पोस्ट को पढ़ते हुए मेरे मन में ये प्रश्न उठा कि क्या अशोक जी ने ये बात पहले भी सार्वजनिक रूप से कहीं कही या लिखी है। कुछ लेखकों ने बताया कि वो पहले भी ऐसा कह चुके हैं लेकिन कईयों का कहना है कि अशोक वाजपेयी कुंवर नारायण के बारे में ऐसा पहले कहते नहीं सुने गए। दूसरी बात ये भी समझ नहीं आई कि नामवर सिंह केदरानाथ सिंह को एपने समय का ओवर एस्टिमेटेड कवि मानते थे। हो सकता है कि पहले इसपर चर्चा हुई हो पर ये चर्चा साहित्य के केंद्र में कभी पहुंची नहीं। याद भी नहीं पड़ता कि कभी अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ में इस तरह की चर्चा की हो। अभी वाग्देवी प्रकाशन बीकानेर से उनकी तीन पुस्तकें अपने समय में, समय के इर्द गिर्द और समय के सामने प्रकाशित हुई हैं। ये उनके अखबारी लेखन और तात्कालिक टिप्पणियों का संग्रह है। अशोक वाजपेयी ने एक पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि वो सच को खुली आंखों से देखकर कहने की हिम्मत रखता हूं। पर अपने सच पर सन्देह भी करता हूं। किसी की भी तानाशाही नहीं हो सकती, अपने सच की भी नहीं। उनको अपने सच के अलावा अपने लेखन पर भी संदेह करने की जरूरत है, उसको भी खुली आंखों से देखने की जरूरत है क्योंकि कई बार उनका लेखन या उऩका वचन मुंदी आंखों से लिखा या दिया प्रतीत होता है। जरूरत तो इस बात की भी है कि उनके सिपहसालार भी सच को खुली आंखों से देखें, आंखें मूंदकर नहीं।

Saturday, June 15, 2019

सकारात्मक के साथ सृजन का दौर


पिछले दिनों एक साहित्यिक जमावड़े में आज के लेखकों के आचार-व्यवहार पर चर्चा हो रही थी। बहस इस बात पर हो रही थी कि साहित्य में निंदा-रस का कितना स्थान होना चाहिए। साहित्यकारों के बीच होनेवाले गॉसिप से लेकर एक दूसरे को नीचा दिखाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी चर्चा होने लगी। वहां मौजूद सबलोग इस बात पर लगभग एकमत थे कि साहित्य में नकारात्मकता ने सृजनात्मकता का काफी नुकसान पहुंचाया। साहित् में नकारात्मकता को बढ़ावा देने के लिए फेसबुक को जिम्मेदार ठहरानेवाले भी मुखरता के साथ अपना पक्ष रख रहे थे। दरअसल ये हमेशा से होता आया है कि जब एक जगह कई साहित्यकार मिलते हैं तो गॉसिप और निंदा पुराण का दौर चलता ही है। साहित्यक जमावड़े में रसरंजन की तरह ये भी एक अनिवार्य तत्व है। कई लेखकों ने इस बारे में लिखा भी है लेकिन बहुत कुछ अलिखित रह गया है। हिंदी के मशहूर उपन्यासकार-नाटककार मोहन राकेश ने 19 जुलाई 1964 को अपनी डायरी में लिखा- कल शाम सी सी आई में चले गए, भारती, गिरधारी, राज और मैं। हम लोग पहले गए, राज बाद में आया। भारती के साथ ज्यादा साहित्यिक राजनीति की ही बातें होती रहीं। वात्स्यायन के बंबई आने का किस्सा, जो पहले बार-बार वे लोग सुना चुके हैं, वह फिर से सुनाने लगा, तो उसे याद दिला दिया कि यह माजरा नया नहीं है। ज्यादा बातें हुईं- दिल्ली के छुटभैयों के बारे में, टी-हाउस, कॉफी हाउस के बारे में, उन कहानीकारों के बारे में जिनसे वक्तव्य नहीं मंगवाए गए। उनके बारे में जिन्होंने वक्तव्य नहीं भेजे। एक मजाक हुआ। राज से गिरधारी ने कहा तुम्हारे मुंह से शराब की गंध आती है। तुम्हारे मुंह से तुलसीपत्र की गंध आती है राज ने उससे कहा और फिर बोला, और ये जो दो चले जा रहे हैं, उनके मुंह से प्रेमपत्र की गंध आती है। इसपर भारती रुककर बोला क्यों गलत बात कहते हो? राकेश के मुंह से तो हमेशा त्यागपत्र की गंध आती है। भारती मतलब धर्मभारती और वात्स्यायन माने अज्ञेय जी। मोहन राकेश की डायरी के इस अंश में कई तरह के संकेत निकल रहे हैं। पहली ही पंक्ति में कहा गया है कि सबसे ज्यादा बात साहित्यिक राजनीति की हुई। इसका मतलब है कि उस दौर में भी साहित्य में खूब राजनीति होती थी। जब राजनीति होगी तभी को बातें होगीं। फिर वात्स्यायन के मुंबई (उस वक्त का बंबई) आने का किस्सा भी फिर शुरू हुआ था। कोई ऐसा किस्सा जरूर रहा होगा जिसको साहित्यिक जमावड़े में बार-बार दोहराया जाता होगा। उस किस्से को इतनी बार दोहराया जा चुका था कि उस दिन उस किस्से को बीच में ही रोक दिया गया। अगर बार-बार दोहराया जाता होगा तो वो होगा भी दिलचस्प। मुंबई में बैठकर दिल्ली के लेखकों के बारे में भी बातें होती रही थीं। जाहिर सी बात है कि जिस अंदाज में उस प्रसंग को लिखा गया है उससे इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि या तो निंदा पुराण का पाठ हुआ होगा या फिर जमकर गॉसिप।
इसके अलावा एक और चीज जो लेखकों के बीच देखने को मिलती थी वो थी ईर्ष्या। इसके बारे में तो सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं लेकिन मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव का उदाहरण देना इस वजह से उचित लगता है कि ये दोनों काफी गहरे मित्र भी थे। हिंदी की नई कहानी त्रयी के दो मजबूत स्तंभ थे। तीसरे कमलेश्वर थे। मोहन राकेश को जब अगस्त, 1959 में उनके नाटक आषाढ़ का एक दिन के लिए संगीत नाटक अकादमी की ओर से सर्वश्रेष्ठ नाटक का अवॉर्ड देने की घोषणा हुई तो मोहन राकेश ने लिखा कि यादव का व्यवहार फिर कुछ अजीब सा लगा। न जाने क्यों मुझे छोटा बतलाकर या समझकर उसे खुशी होती है।मोहन राकेश साफ-साफ कह रहे हैं कि उनके पुरस्कार मिलने से राजेन्द्र यादव को अच्छा नहीं लगा। बात सिर्फ यादव और राकेश की नहीं है। उपेन्द्र नाथ अश्क और महादेवी के बीच जिस तरह का शीतयुद्ध चलता था वो जगजाहिर है। दिनकर ने भी अपनी डायरी में एक समकालीन कवि-सांसद के ईर्ष्या भाव को उजागर किया ही है। बावजूद इन सबके उस दौर में ज्यादातर रचनाकर अपने समकालीनों पर लिखते भी थे, उनकी अच्छी रचनाओं की तारीफ भी करते थे। राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर के बीच चाहे जितनी ईर्ष्या रही हो लेकिन वो तीनों एक दूसरे को काफी प्रमोट करते थे। एक दूसरे के बारे में ग़ॉसिप भी करते थे लेकिन सार्वजनिक मंचों पर एक दूसरे की तारीफ करते थे, लेख लिखकर एक दूसरे की रचनाओं को स्थापित करते थे।
उस वक्त के साहित्यिक माहौल और अब के साहित्यिक माहौल में थोड़ा अंतर आ गया है। ईर्ष्या अब भी है, निंदा-पुराण का पाठ अब भी होता है, लेकिन सार्वजनिक रूप से अपने समकालीनों की तारीफ करने की प्रवृत्ति का ह्रास हुआ है। आज के ज्यादातर लेखक-लेखिकाओं में अपने समकालीनों को लेकर एक अजीब किस्म का भाव देखने को मिलता है जिसका फेसबुक पर बहुधा प्रकटीकरण भी हो जाता है। इसके अलावा गॉसिप में एक आवश्यक दुर्गुण चरित्र हनन का शामिल हो गया है जो कि चिंताजनक है। अगर हम इस पर गंभीरता से विचार करें तो इस तरह की प्रवृत्ति पिछले दस साल में ज्यादा बढ़ी है। आज से दस-पंद्रह साल पहले लेखन की दुनिया में आए रचनाकारों के साथ तकनीक की घुसपैठ भी साहित्य में बढ़ी। फेसबुक साहित्यकारों के बीच लोकप्रिय हुआ। वैसे लेखक जो फेसबुक को एक बुराई के तौर पर देखते थे अब दिनभर वहीं पाए जाने लगे। फेसबुक ने कई लेखकों को अहंकारी बना दिया। उनकी रचनाओं पर सौ पचास लाइक्स और कमेंट आने से वो खुद को प्रेमचंद या मन्नू भंडारी समझने लगे। बढ़ते अहंकार ने उनकी रचनात्मकता को प्रभावित किया। कुछ वाकए तो ऐसे भी सामने आए जिनमें लेखकों या लेखिकाओं ने अपने समकालीन लेखक या लेखिका के चरित्र पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कीचड़ उछाला। फेक आईडी के आधार पर एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई। फेसबुक ने निंदा-पुराण और गॉसिप के तंत्र को विकसित होने के लिए एक ऐसा मंच दिया जो बेहद उर्वर साबित हुआ। यहां मोहल्ले के छुटभैये दादाओं की तरह साहित्यिक गिरोह बने, उनके सरगना बने और फिर अपने साथियों को निबटाने का खेल खेला गया। अब भी खेला जा रहा है, यह स्थिति साहित्य सृजन के लिए बेहतर नहीं कही जा सकती है। फेसबुक की व्यापक पहुंच की वजह से इस तरह के गिरोहों का आतंक भी बढ़ा। 
अब अगर हम एकदम नई पीढ़ी की बात करें तो उसमें एक खास किस्म की सकारात्मकता दिखाई देती है। सत्य व्यास, दिव्य प्रकाश दूबे, अंकिता, विजयश्री तनवीर की नई वाली हिंदी की टोली से लेकर खुद को गंभीर लेखन की परंपरा के मानने वाले प्रवीण कुमार, उमाशंकर चौधरी जैसे लेखकों के सार्वजनिक व्यवहार से साहित्य में सकारात्मकता का एहसास होता है। ये सभी लोग फेसबुक पर सक्रिय हैं लेकिन वहां एक दूसरे की रचनाओं पर खुश होकर टिप्पणियां करते हैं, चर्चा करते हैं। नई वाली हिंदी की जो टोली सोशल मीडिया पर है वो आपस में खूब चुहलबाजी करती है, मजाक मजाक में ही अपनी और अपनी पीढ़ी के अन्य लेखकों की कृतियों का प्रमोशन भी करती चलती है। इस टोली के किसी सदस्य को कभी नकारात्मक टिप्पणी करते हुए नहीं देखा गया है। यही इस पीढ़ी की ताकत है और इनको अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से अलग भी करती है। इसी वजह से उनकी व्यापक स्वीकार्यता भी है, ऐसा प्रतीत होता है। इनका एक अपना पाठक वर्ग बना है जो इनके नाम से पुस्तकों की खरीद करता है। पाठकों को इन लेखकों की साहित्येतर टिप्पणियों में जो सृजनात्मकता देखने को मिलती है उसके आधार पर ही वो इनकी कृतियों तक जाने का मन बनाते हैं। नई वाली हिंदी की इस पीढ़ी के ठीक पहले वाली पीढ़ी के कई लेखकों ने नकारात्मकता को अपनी पहचान बनाई। उसकी वजह से पूरी पीढ़ी को नुकसान हुआ। फेसबुक पर हमेशा नकारात्मक बातें, सिद्धांत और विचारधारा की आड़ में गाली-गलौच उनकी पहचान बन गई। उनके व्यक्तित्व के साथ वो नकारात्मक पहचान चिपक गई। अब इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि उदारीकरण के स्थायित्व प्राप्त कर लेने के बाद साहित्य में इस तरह की नकारात्मकता क्यों बढ़ी और फिर उसके बाद की जो पीढ़ी आई उसने खुद को सकारात्मकता के सांचे में डालकर पाठकों के बीच लोकप्रियता हासिल की। हिंदी साहित्य के अध्येताओं के लिए इसके कारणों की तलाश करनी चाहिए। क्या पता कुछ दिलचस्प निष्कर्ष निकल आए।  


Saturday, March 25, 2017

राजेन्द्र यादव होने की चाहत

कई सालों से यह कहा जाता रहा है कि दिल्ली देश की साहित्यक राजधानी भी है । चंद सालों पहले तक यह भी कहा जाता था कि नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी इस राजधानी के सत्ता केंद्र हैं । इन्हीं चर्चाओं के बीच रवीन्द्र कालिया नया ज्ञानोदय के संपादक बनकर दिल्ली आए तो वो भी एक सत्ता केंद्र के तौर पर देखे जाने लगे थे हलांकि वो इस बात से लगातार इंकार करते थे । राजेन्द्र यादव जी और रवीन्द्र कालिया जी का निधन हो गया । नामवर जी अपनी बढ़ती उम्र की वजह से उतने सक्रिय नहीं हैं और अशोक वाजपेयी की सत्ता से दूरी उनको केंद्र से उठाकर परिधि तक पहुंचा चुकी है। ऐसी स्थिति में देश की कथित साहित्यक राजधानी में कोई सत्ता केंद्र रहा नहीं, छोटे-छोटे मठनुमा केंद्र बचे हैं लेकिन वो लेखकों के बड़े समुदाय को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं । सेमिनार, गोष्ठियों में बुलाकर उपकृत भर कर सकने की क्षमता इन मठाधीशों के पास है । हिंदी में जो तीन चार साहित्यक पत्रिकाएं निकल रही हैं उनमें से भी सत्ता केंद्र बनने की ललक किसी संपादक में दिखाई नहीं देती है । नया ज्ञानोदय के संपादक लीलाधर मंडलोई पत्रिका को संजीदगी से निकाल रहे हैं और विवाद आदि से दूर ही रहते हैं । कथादेश के संपादक हरिनारायण जी पत्रिका के शुरुआती दौर से ही पत्रिका की आवर्तिता को लेकर ही संघर्षरत रहे हैं और वहां जो भी लोग जुड़े हैं वो सभी लगभग मध्यमार्गी रहे हैं, लिहाजा पत्रिका नियमित निकालकर ही संतुष्ट नजर आते है । अब रही साहित्यक पत्रिका हंस की बात तो राजेन्द्र यादव के निधन के बाद संजय सहाय ने उसका जिम्मा संभाला । अपने संपादकीय में वो लगातार हमलावर और आक्रामक दिखते हैं लेकिन अमूमन सभी संपादकीयों में उनकी पसंद और नापसंदगी दिखने लगती है, विचारधारा के स्तर पर विरोध कम दिखता है । इसके अलावा संजय सहाय की अगुवाई में जो अंक निकल रहे हैं उसमें ज्यादातर में योजना का अभाव दिखता है । सामान्य कहानी, कविता, लेख , स्तंभ आदि आते रहते हैं और छपते रहते हैं । संजय जी के सामने यादव की विरासत एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ी है और उस चुनौती से मुठभेड़ करना आसान नहीं है, इस बात को वो स्वीकार भी कर चुके हैं । अभी हंस का एक विशेषांक निकला है रहस्य रोमांच, भूत-प्रेत आदि पर । संपादकीय संयोजन में कोई खास छाप यह अंक नहीं छोड़ पाई ।  
प्रेम भारद्वाज के सापंदन में पाखी में बहुधा एक स्पार्क दिखता है, यादव जी की तरह साहित्य की जमीन पर विवाद उठाने की ललक भी दिखाई देती है । कई बार तो विवाद उठाने में सफल भी होते रहे हैं । अभी हाल ही में अल्पना मिश्र के साक्षात्कार पर साहित्य जगत में काफी हलचल दिखी । जिस तरह के प्रश्न और उत्तर थे वो पत्रिका की विवाद उठाने की मंशा को साफ कर रहे थे । पाखी में इल तरह के प्रयोजनों से यह सवाल उठता है कि क्या कोई साहित्य में राजेन्द्र यादव होना चाहता है । फेसबुक पर इस बारे में सवाल और कई दिलचस्प उत्तर भी पोस्ट किए जा चुके हैं । इस सिलसिले मुसाफिर कैफे जैसी चर्चित कृति के युवा लेखक और दिल्ली की साहित्यक राजनीति से दूर मुंबई में रहनेवाले दिव्य प्रकाश दूबे की बात का स्मरण हो रहा है । मुंबई में एक साहित्यक बैठकी के दौरान दिव्यप्रकाश जी ने कहा था कि हिंदी में कई लेखक इस वक्त राजेन्द्र यादव होना चाहते हैं । ज्यादातर लेखकों के मन के कोने-अंतरे में ये ख्वाहिश पलती रहती है और वो हमेशा राजेन्द्र यादव होने की फिराक में लगे रहते हैं । संभव है दिव्य ने ये बातें मजाक में कही हों लेकिन दिल्ली के कई लेखकों पर यह बात लागू होती है । लेखक राजेन्द्र यादव तो होना चाहते हैं लेकिन उनके अंदर वो आग, वो साहस, वो सक्रियता, वो आकर्षण, वो नवाचारी स्वभाव कहां हैं । इसके अलावा नए लोगों को आगे बढ़ाने की कला भी तो नहीं है ।            
राजेन्द्र यादव के छिहत्तरवें जन्मदिन पर जब भारत भारद्वाज और साधना अग्राल के संपादन में हमारे युग का खलनायक नाम की पुस्तक का प्रकाशन हुआ था तब उसके शीर्षक पर हिंदी जगत चौंका था लेकिन यादव जी ने खूब मजे लिए थे । यह राजेन्द्र यादव का जिगरा था कि उन्होंने इस शीर्षक को भी इंज्वाय किया था । इस पुस्तक के संपादक भारत भारद्वाज ने लिखा था -  राजेन्द्र यादव के लेखन का रेंज ही बहुत बड़ा नहीं है, उनकी दिलचस्पी और रुचि का रेंज भी । इन्होंने विश्व साहित्य का अधिकांश महत्वपूर्ण पढ़ रखा है , ठीक है कि वो सार्त्र भी होना चाहते हैं और अपनी दुनिया में अपने लिए एक सिमोन भी तलाश करते रहते हैं । घर-बार भी इन्होंने छोड़ा, यह छोटी बात नहीं है । हमें देखना यह है कि अपनी जिंदगी में कितनी छूट इन्होंने ली ।अब इसमें सिमोन और सार्त्र वाली बात ही यादव जी के बाद की पीढ़ी के लेखकों को आकर्षित करती है । राजेन्द्र यादव होने की चाहत पालने वाले कई लेखक सार्त्र तो होना चाहते हैं, सिमोन की तलाश में मंडी हाउस से लेकर साहित्यक गोष्ठियों में नजर भी आते हैं , लेकिन उनमें यादव जी वाला साहस नहीं है । राजेन्द्र यादव जी ने जो किया वो खुल्लम खुल्ला किया, प्यार किया तो डंके की चोट पर, फलर्ट तो वो खुले आम करते ही रहते थे । जब मन्नू जी ने उनको घर से निकाला था तब भी उन्हें किसी तरह का कोई मलाल नहीं था, बल्कि वो उस अप्रिय प्रसंग को भी अपनी आजादी के तौर पर देखते थे । 
उनकी जिंदगी के आखिरी दिनों में जब एक अप्रिय प्रेम प्रसंग आया तो भी वो डरे नहीं, लड़ाई झगड़े के बाद जब पंचायत बैठी तो हंस के दफ्तर में उन्होंने अपनी पुत्री और वकीलों के सामने स्वीकार किया कि वो प्रेम में हैं और उसी लड़की से प्रेम करते हैं । किस शख्स में इतनी हिम्मत होती है कि वो बुढ़ापे में सार्वजनिक तौर पर समाज के सामने अपने प्रेम को स्वीकार करने का साहस दिखा सके । यहां तो लोग जवानी में अपने प्रेम को छिपाते घूमते हैं । सार्त्र बनने के लिए इसी तरह के साहस और समाज से टकराने के जज्बे की जरूरत होती है । लेकिन दिल्ली में मौजूद हिंदी के लेखक बगैर इस साहस और जज्बे के राजेन्द्र यादव बनना चाहते हैं । मुझे याद आता है कि करीब दस-बारह साल पहले एक पत्रिका में राजेन्द्र यादव के पंज प्यारे के नाम से किसी ब्रह्मराक्षस का लेख छपा था जिसमें उनके शिष्यों की सूची थी । जिसमें संजीव, शिवमूर्ति, प्रेम कुमार मणि,भारत भारद्वाज आदि के नाम थे । इस सूची का भी कोई लेखक भी यादव जी वाला साहस नहीं दिखा पाया । अगर हम राजेन्द्र यादव की शख्सियत पर विचार करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि यह उनके व्यक्तित्व का वो हिस्सा है जो उनकी ही वजह से प्रचारित हुआ और उनको बदनामी भी दिलाया । लेकिन राजेन्द्र यादव को अपना छपा हुआ नाम और फोटो देखकर बहुत खुशी होती थी और वो इसके लिए कई तरह के जोखिम उठाने को तैयार रहते थे।

राजेन्द्र यादव बनने के लिए समकालीन साहित्यक परिदृश्य पर पैनी नजर होनी चाहिए । ऐसी नजर जो नए से नए और पुराने से पुराने लेखकों से बेहतर लिखवाने का उपक्रम कर सके । यादव जी को यह भी मालूम होता था कि किस लेखक में क्या लिखने की क्षमता है और एक संपादक के लिए इस दृष्टि का होना बेहद आवश्यक है । इसके अलावा एक संपादक के तौर पर राजेन्द्र यादव ने कई घपले भी किए । उन्होंने कहानीकारों की खूबसूरत तस्वीरें छापनी शुरू की,खासकर महिला कथाकारों की । उनको लगता था कि पाठक कहानीकारों की तस्वीरों को देखकर हंस खरीद लेंगे । यह परंपरा आज भी कायम है । हंस के माध्यम से यादव जी ने लेखकों को उठाने और गिराने का खेल भी खूब खेला । जैसे मैत्रेयी पुष्पा और संजीव की कृतियों की कई कई समीक्षाएं एक साथ छापकर उसको स्थापित करने की चाल चलते थे । इतना ही नहीं वो तो समीक्षाओं में लेखक को बगैर बताए अपनी तरफ से जोड़ भी देते थे । यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है जब उन्होने मेरे एक लेख के अंत में कुछ ऐसा जोड़ दिया जो बिल्कुल वांछित नहीं था । गिराने का खेल इस तरह होता था कि जिसको वो पसंद नहीं करते थे या जो उनके दरबार में मत्था नहीं टेकता था उसकी नोटिस भी नहीं लेते थे । यहां सिर्फ एक अपवाद काम करता था कि रचना अगर उनको पसंद आ जाए तो फिर किसी की नहीं सुनते थे । राजेन्द्र यादव बनने की चाहत रखने के लिए जोखिम उठाने के लिए तैयार रहना होगा, तभी सार्त्र की सिमोन की तलाश पूरी होगी ।  

जिन्दगी जो जिया वो लिखा

चंद सालों पहले तक हिंदी में यह परंपरा थी कि जो लेखक कहानी, कविता, उपन्यास आदि से विमुख होने लगते थे वो संस्मरण और आत्मकथा की ओर मुड़ते थे । लेकिन पिछले कई सालों से यह प्रवृत्ति बदली है । यह महज संयोग है या योजनाबद्ध तरीके किया गया, पता नहीं, लेकिन धीरेन्द्र अस्थाना के साठ वर्ष पूरे होते ही उनकी आत्मकथा जिन्दगी का क्या किया प्रकाशित होकर पाठकों के हाथों पहुंच गई है । धीरेन्द्र अस्थाना अपनी पीढ़ी के सर्वाधिक प्रतिभाशाली रचनाकारों में से एक हैं लेकिन वो लंबे समय तक दिल्ली में रहने के बावजूद दिल्ली की साहित्य की राजनीति को समझ नहीं पाए और ना ही उसका हिस्सा बन पाए, प्रचार प्रसार से भी दूर रहे । जिन्दगी का क्या कियाएक कथाकार की आत्मकथा नहीं है । इसमें एक पत्रकार का संघर्ष है, एक पुत्र का अपने पिता से लगातार चलनेवाला विद्रोह है, अपनी पत्नी के साथ जिंदगी को जीने और उसको खूबसूरत बनाने की कोशिशें हैं, फिर अपने पुत्र की बेहतरी के लिए एक पिता की तड़प है और इन सबके बीच है एक कहानीकार का अपने अंदर के लेखक को बचाकर रखने की जद्दोजहद । हिंदी में ज्यादातर आत्मकथा जितना बताते हैं उससे कहीं ज्यादा छुपाते हैं । खुद को कसौटी पर कसने का साहस हिंदी के आत्मकथा लेखकों में लगभग नहीं के बराबर है लेकिन धीरेन्द्र अस्थाना ने वो साहस दिखाया है । ऐसा नहीं है कि धीरेन्द्र अस्थाना ने कुछ भी नहीं छुपाया है, लेकिन अपेक्षाकृत वो अधिक खुले हैं । खुद को भी जिंदगी और परिवार की कसौटी पर कसा है । अपने पिता और परिवार को लेकर उनके मन में जो था उसको बगैर किसी लाग लपेट के लिखा है । नौकरी छूटने पर परेशान होकर शराब पीने और फिर अपनी पत्नी पर हाथ उठाने की स्वीकारोक्ति भी इस आत्मकथा में है ।
मेरठ में पैदा होनेवाले धीरेन्द्र अस्थाना की जिंदगी ने देश के कई शहरों में अपना पड़ाव डाला । मेरठ से लेकर आगरा, शामली, देहरादून, मुंबई , दिल्ली और फिर आखिकार मुंबई में आकर जिंदगी खूंटा गाड़कर बैठ गई । धीरेन्द्र अस्थाना की आत्मकथा में आगरा में उनके प्रेम के बीच में पिता का बाधा के तौर पर उपस्थित होने का वर्णन बेहद रोचक है । बाग में प्रेमिका की गोद में सर रखकर बैठे नायक का पिता अचानक से वहां उरस्थित हो जाए तो फिर क्या हालत हो सकती है यह कल्पना करिए । उनके इस गुण को देखते हुए बाद के दिनों में राजेन्द्र यादव कहा भी करते थे धीरेन्द्र के मरने के बाद कई शहरों में उनकी प्रेमिकाओं के पत्र और पुत्र दोनों मिलेंगे ।
लेकिन दिल्ली और मुंबई की जिंदगी में धीरेन्द्र् अस्थाना ने जो संघर्ष किया है वह संघर्ष बगैर उनकी अर्धांगिनी ललिता अस्थाना के असंभव था । अपनी इस आत्मकथा के बहाने धीरेन्द्र अस्थाना ने दिल्ली और मुंबई की सामाजिकता का भी आंकलन किया है । प्रसंगवश वो बताते हैं कि दिल्ली की पानी में ही अजनबियत के तत्व तैरते रहते हैं । जबकि मुंबई वाले पांच सात साल बाद भी मिलें तो आत्मयीता से भरपूर होते हैं । धीरेन्द्र अस्थाना की इस आत्मकथा में मुंबई में उनकी पहली पारी का बेहद सुंदर चित्रण है तो दूसरी पारी में खुद को एडजस्ट करने की दास्तां है । कुल मिलाकर अगर देखें तो जिन्दगी का क्या किया धीरेन्द्र अस्थाना की एक ऐसी रचना है जो हिंदी की इस विधा में अपना एक अलग स्थान बनाएगी, अगर आलोचकों ने ईमानदारी से इसका मूल्यांकन किया तो

Saturday, January 21, 2017

पीढ़ियों के विस्थापन के संकेत !

हाल ही में खत्म हुए दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले को पाठकों की बढ़ती संख्या, नोटबंदी के दौरान मुद्रा की कमी के बावजूद बेहतर बिक्री और युवाओं की बढ़ती भागीदारी के लिए तो याद किया ही जाएगा लेकिन एक और साहित्यक घटना हुई जिसको भी रेखांकित किया जाना आवश्यक है । इस बार के पुस्तक मेले में वरिष्ठतम और उस पीढ़ी के बाद की पीढ़ी के लेखकों की धमक भी कम महसूस की गई । पहले तो यह होता था कि नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, निर्मला जैन जैसी वरिष्ठतम पीढ़ी की लेखिकाओं को लेकर पुस्तक मेले के हिंदी मंडप में खासा उत्साह रहता था । हर लेखक चाहता था कि उनकी किताब का विमोचन इन्हीं महानुभावों के करकमलों से संपन्न हो । याद आता है  वो दौर जब नामवर सिंह को एक पुस्तक मेले के दौरान राजेन्द्र जी विमोचनाचार्य ही कहते रहे थे । उस दौर में हर लेखक की इच्छा होती थी कि वो नामवर सिंह जी से अपनी किताब का लोकार्पण करवाए और किताब पर उनके दो शब्द लेखक के लिए अमूल्य थाती की तरह होते थे । नामवर जी के बाद राजेन्द्र यादव और अशोक वाजपेयी लेखकों की पसंद हुआ करते थे । पुस्तक मेले का अतीत इस बात का गवाह है कि इन लोगों ने एक एक दिन में दर्जनों किताबों का मेलार्पण किया था । नामवर सिंह तो कई किताबों का विमोचन एक साथ कर देते थे और अपनी विद्धवता की वजह से सारी किताबों पर एक साथ बोल भी जाते थे । कहानीकारों में राजेन्द्र यादव को लेकर एक खास किस्म का उत्साह देखने को मिलता था । दावे के साथ तो यह नहीं कही जा सकता है कि उनके द्वारा संपादिक पत्रिका हंस की वजह से वो लेखकों की पसंद थे या कोई अन्य वजह, लेकिन वो थोक के भाव से लोकार्पण करते थे ।  इन दोनों के अलावा अशोक वाजपेयी से सत्ताशीर्वाद की आकांक्षा रखनेवालों से लेकर एक खास समूह के लेखक उनसे अपनी किताबों का विमोचन करवाते थे । रवीन्द्र कालिया जी के दिल्ली आने के बाद वो भी विमोचनों में नजर आने लगे थे ।
लेकिन हाल ही में संपन्न हुए पुस्तक मेले में यह पीढ़ी लगभग समारोहों से दूर ही नजर आई । नामवर जी ने भले ही पुरानी नई कविता पुस्तकों के सेट का विमोचन किया, इसके अलावा भी एक दिन दो चार किताबों के विमोचन उन्होंने किया लेकिन पुस्तक मेले में एक ही प्रकाशक के स्टॉल पर । मेले में उनको लेकर एक खास किस्म की उदासीनता भी देखने को मिली । यह बात भी थी कि वो अपनी बढ़ती उम्र और स्वास्थय की वजहों से ज्यादा विमोचन नहीं कर पाए । यादव जी और कालिया जी अब रहे नहीं । बचते हैं अशोक वाजपेयी तो उनको लेकर मेले में कोई खास उत्साह देखने को नहीं मिला । लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर इन लोगों ने विमोचन नहीं किया तो फिर किताबें इतनी भारी संख्या में जारी कैसे हुईं और फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया साइट्स इस तरह के समारोहों की तस्वीरों से भरे कैसे । यहां यही रेखांकित करने की जरूरत है कि इस मेले में नई पीढ़ी ने अपनी ही पीढ़ी के लेखकों से अपनी किताबों का विमोचन करवा लिया और उसपर चर्चा भी करवा ली । मैत्रेयी पुष्पा और चित्रा मुद्गल मे करीब दर्जन भर किताबों का विमोचन किया होगा लेकिन युवा लेखकों ने अपने साथियों के साथ सैकड़ों किताबों का विमोचन किया । क्या इसको पीढ़ी के विस्थापन के तौर पर देखा जाना चाहिए । क्या अब नई पीढ़ी ने एलान कर दिया कि पुरानी पीढ़ी का सम्मान है लेकिन वो अपनी किताबें के लिए उनका मुंह नहीं जोहेगी । यह हर दौर में होता रहा है है लेकिन हिंदी में इस बार बहुत दिनों बाद हुआ । यह सिर्फ विमोचन के स्तर पर नहीं हुआ रचनात्मक स्तर पर नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी को विस्थापित कर दिया । पुरानी पीढ़ी की जितनी किताबें छपी उनसे कहीं ज्यादा नई पीढ़ी के लेखकों की किताबें छपीं। इसपर पहले भी विचार किया जा चुका है नई पीढ़ी के लेखकों की किताबें छपने में किस तरह के जुगाड़ लगाए गए थे । पर छपे तो ।
यही हाल कविता को लेकर भी देखने को मिला । इस बात को रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि हिंदी के स्थापित कवियों के संग्रह मेले के दौरान प्रकाशित नहीं हुए । जैसा कि उपर कहा चुका है नामवर जी ने कई कवियों के संग्रहों का विमोचन किया लेकिन वो ज्यादातर पुराने संगहों के नए संस्करण थे । मेले के दौरान हलाला जैसा उपन्यास लिखनेवाले भगवानदास मोरवाल ने एक ल्कुल नई पहल की । उन्होंने अपनी टीम से मेले के दौरान करीब चार पांच दिनों तक एक सर्वे करवाया था दिसके नतीजों की सूचना वो फेसबुक पर साझा करते थे । मोरवाल जी द्वारा करवाए गए सर्वे के मुताबिक - मेले से हिंदी कविता लगभग पूरी तरह अनुपस्थित है. प्रकाशकों के स्टाल्स पर एक के बाद एक ,कहानी संग्रह और उपन्यासों के लोकार्पण और उन पर चर्चा कराई जा रही है ,या हो रही है वहां कविता एक तरह से उपेक्षित-सी रही है. हिंदी के बड़े कवि कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेय, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल , लीलाधर जगूड़ी, उदय प्रकाश,कृष्ण कल्पित , अनामिका, सविता सिंह , नरेश सक्सेना , लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप का कोई कविता संग्रह मेले में नहीं आया । इसके अलावा भी संजय कुंदन, पवन करन, संजय चतुर्वेदी, कात्यायनी , अनीता वर्मा जैसे उनके बाद की पीढ़ी के कवियों के संग्रह भी प्रकाशित नहीं हुए । इस सर्वे के मुताबिक लगभग यही स्थिति फेसबुक से उपजे युवा कवि-कवयित्रियों की भी रही। चर्चा हुई भी होगी तो उस तरह नहीं जिस तरह मंचीय कवियों और ग़ज़लों के नाम पर लोकप्रिय शायरी को प्रोत्साहित किया जा रहा है । अगर इस सर्वे के नतीजों को सही माना जाए तो कविता के लिए ये स्थिति उत्साहजनक तो नहीं ही कही जाएगी । कविता एक ऐसी विधा है जो साहित्य को हमेशा से नये आयाम देती रही है अगर उसपर किसी तरह की आंच आती है तो यह गंभीर बात होगी । हिंदी के कवियों को इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या वजह है कि प्रकाशन जगत के इस सबसे बड़े आयोजन में स्थापित कवियों की अनुपस्थिति दर्ज की गई । क्या पुराने कवि अपने समय से पिछड़ गए उसको पकड़ नहीं पा रहे हैं । दूसरी बात ये भी देखने को मिली कि छोटे छोटे कई प्रकाशकों की सूची के नए प्रकाशनों में कविता संग्रहों को अच्छी खासी जगह मिली हुई है । संभव है कि ये प्रकाशन जगत की नई इकोनॉमी की वजह से हो । मोरवाल जी द्वारा कराए गए सर्वे के आधार पर इस बात पर तो विचार किया ही जा सकता है कि क्या ये नतीजा भी पीढियों के विस्थापन का संकेत दे रहा है ।
हिंदी साहित्य में युवा पीढ़ी को लेकर बहुत शोर मचा था अब भी मच रहा है । युवा लेखन को लेकर भी कई तरह की बातें होती रहती हैं । कई लेखक तो युवा लेखन को उम्र के खांचे में बांटने का विरोध करते हैं और उनका कहना है कि लेखन का युवा होना जरूरी है लेखक का नहीं । इस तर्क के आदार पर ही हिंदी में पचास के करीब के लेखक या उसके पार के लेखक भी अबतक युवा ही माने जा रहे हैं । युवा उत्सवों और समारोहों में आमंत्रित भी किए जा रहे हैं। बावजूद इसके इस पीढ़ी के सामने एक तरीके के पहचान का संकट था । समारोहों से लेकर फेसबुक आदि पर यह पीढ़ी लाख घोषणा करे कि उनको किसी से किसी तरह के समर्थन आदि की दरकार नहीं है । आलोचकों की जरूरत नहीं है लेकिन उनके मन के कोने अंतरे में कहीं यह बात गहरे धंसी है कि उनकी पीढ़ी के लेखन को ढंग से रेखांकित नहीं किया जा रहा है । हमारा मानना है कि पुस्तक मेले में जिस तरह के वरिष्ठतम पीढ़ी के विस्थापन देखने को मिला वह इस पीढ़ी के लेखकों का गुस्सा भी हो सकता है । उनके मन में इस तरह की बात तो बैठती ही जा रही है कि पुरानी पीढ़ी के लेखक उनके लेखन पर गंभीरता से लिखते/ बोलते नहीं हैं । संभव है कि पुस्तक मेले में उनके इसी गुस्से का प्रकटीकरण देखने को मिला हो । अब जब एक तरीके से पीढ़ियों का विस्थापन के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं तब यह देखना और दिलचस्प होगा कि कथित तौर पर युवा पीढ़ी के लेखक आगे भी इनसे आशीर्वाद लेने के लिए पंक्तिबद्ध या करबद्ध होते हैं या नहीं ।अगर अपनी रचनाओं के लिए ये अब भी वरिठतम पीढ़ी से प्रमाणपत्र की अपेक्षा रखते हैं तो फिर मेले में जो उपेक्षाभाव दिखा था वह अस्थायी माना जाएगा और हो सकता है कि यह भी मान लिया जाए कि वो पीढ़ियों का विस्थापन ना होकर अपना क्षोभ प्रकट करने का एक तरीका था ।