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Sunday, October 27, 2019

जड़ता पर प्रहार करनेवाला लेखक

राजेन्द्र यादव ने कभी उपेन्द्रनाथ अश्क पर लिखा था कि शायद अपनी पीढ़ी में वो ही अकेले ऐसे हैं, जो उम्र और अवस्था की सारी दीवारें तोड़कर नये से नये लेखक से उसी के धरातल पर मिल सकते हैं, उसके कंधे पर हाथ मारकर हंसी मजाक कर सकते हैं और समान मित्र की तरह सलाह दे सकते हैं-इसलिए भय या श्रद्धा के स्थान पर एक अजीब आत्मीयता का संबंध फौरन स्थापित कर लेते हैं।राजेन्द्र यादव ने जब ये लिखा होगा तो शायद वो ये नहीं जानते होंगे कि वो भी ऐसे ही थे। दोनों में एक बुनियादी अंतर ये था कि अश्क जी दुश्मनों के बिना रह नहीं सकते थे जबकि यादव जी दोस्तों के बिना रह नहीं सकते थे। राजेन्द्र यादव की एक और खूबी ये थी कि वो दूसरे की लेखकीय प्रतिभा को उभारने में बेहद उत्साह के साथ लगे रहते थे। उनको पता होता था कि कौन सा व्यक्ति क्या बेहतर लिख सकता है। उनको बस अंदाज हो जाए फिर तो उसकी जान के पीछे पड़ जाते थे और तबतक शांत नहीं बैठते थे जबतक कि उससे उस विषय पर लिखवा ना लें। उनमें लिखने के लिए प्रेरित करने और लिखवा लेने की अतुलनीय क्षमता थी। यह अनायास नहीं था कि साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादन के बाद उनसे एक बहुत बड़ा लेखक वर्ग जुड़ा था। हंस के प्रकाशन के बाद उनको कई तरह के विशेषणों से नवाजा गया। कई विवादों में घिरे लेकिन निर्विवाद रूप से नए लेखकों के सबसे चहेते लेखक के तौर पर उभरे। हंस को चलाने के लिए भले ही उनको कई तरह के दंदफंद करने पड़ते होंगे लेकिन बावजूद इसके वो अंत तक लेखक ही बने रहे। कोलकाता में जब रहते थे तो एक दिन पता चला कि उनका नौकर भी कहानियां लिखता है फिर तो उसके साथ लगातार बैठकी होने लगी। मन्नू भंडारी के गुस्से का भी असर नहीं पड़ता था और वो नौकर से उसकी कहानियां सुनते और उसपर बात करते और उसको कहानी की टेक्नीक पर ज्ञान भी देते।
हंस के दफ्तर में जिस तरह से या जिस सहजता के साथ वो नए से नए लेखकों के अलावा अपने सहकर्मियों के बात करते थे कि लगता ही नहीं था कि वो इतने बड़े लेखक है। बेहद गंभीर बात करते करते अचानक से इतनी हल्की बात कह जाते थे कि वहां उपस्थित लोग सन्न रह जाते थे। तभी तो मन्नू भंडारी ने लिखा था कि उनके व्यवहार में जाने ऐसा क्या है कि निकट रहनेवाले इनको कभी महान मान ही नहीं पाते हैं। राजेन्द्र यादव की मां भी कुछ इसी तरह का कह करती थी, कैसे लोग अखबारों में तेरा नाम छाप देते हैं, तुझे सभापति बना देते हैं! अब यहां सड़क की सीढ़ियों पर ही बैठा है...! इस तरह की टिप्पणियां उनके बेहद सहज व्यवहार की वजह से आती थी। दूसरी एक बात जिसको मन्नू भंडारी ने ऱेखांकित किया है वो ये कि राजेन्द्र यादव अपनी चीजों को कभी खुला नहीं छोड़ते थे ठीक उसी तरह से अपने मन की बात को कभी खुलकर नहीं करते थे। जब पत्नी का ये अनुभव था तो मित्रों का क्या कहा जा सकता है। कुछ इसी तरह की बात कोलकाता के उनके मित्र मनमोहन ठाकोर ने भी लिखी है कि अगर राजेन्द्र का वश चले तो वो अपनी टूथपेस्ट और ब्रश को भी ताले में बंद करके रखे। मन्नू भंडारी ने माना कि राजेन्द्र का ये स्वभाव उसके व्यक्तिगत जीवन में अविश्वास पैदा करता है। संभवत: मन न खोल पाने की यही गिरह राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी के अलग होने का कारण बनी हो। राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश के बीच काफी गहरी दोस्ती थी लेकिन उनके बीच अविश्वास की एक गहरी रेखा भी थी। इस बाते के पर्याप्त संकेत कमलेश्वर पर लिखे उनके लेख मेरा हमदम मेरा दोस्त में मिलते हैं। वो बहुत खुलकर कमलेश्वर की तारीफ भी करते हैं लेकिन दुश्यंत को उद्धृत करते हुए उनको झूठा भी कह डालते हैं। मोहन राकेश और उनके बीच भी संबंध बेहद गहरे थे पर अविश्वास भी था।
राजेन्द्र यादव विदेशी लेखकों को बहुत पढ़ते थे। मन्नू जी ने कहा है कि विदेशी लेखकों की जीवनियां पढ़-पढ़कर यह धारणा इनके मन में गहरे तक बैठ गई है कि दुहरी जिन्दगी महान लेखक बनने की अनिवार्य शर्त है। और उसमें ये जोडा जा सकता है कि ये दुहरी जिंदगी वो जीवन के अंत तक जीते रहे। वो अपनी दुहरी जिंदगी को सुविधानुसार स्वीकार भी करते थे, छिपाते भी थे। लेकिन स्वीकार-अस्वीकार के इस खेल में एक खिलंदड़ापन भी होता था। विदेशी लेखकों को पढ़ने की ललक उनके मन में अंत तक बनी रही। एमा डोनॉग की किताब रूम जब प्रकाशित हुई थी और उनको जब इस उपन्यास के कथावस्तु के बारे में पता चला था तो वो उसको पढ़ने के लिए मचलने लगे थे। बाद के दिनों में आंख की तकलीफ की वजह से कम पढ़ पाते थे लेकिन मैगनिफाइंग ग्लास लगाकर अपनी रुचि के मोटे-मोटे उपन्यास पढ़ जाते थे। पढ़ने की ये ललक उनके अंदर जीवनपर्यंत बनी रही। इसका ही नतीजा था कि वो अपनी पत्रिका हंस में नित नए प्रयोग करते थे, नए लेखकों से नए और लगभग अछूते विषयों पर लेख लिखवाते थे। कई बार वो चाहते थे कि हंस में विदेशों में प्रकाशित अलग अलग भाषा की बदनाम किताबों पर कोई लिखनेवाला मिले। वो हर तरह के साहित्य को पाठकों को सुलभ करवाना चाहते थे। वो इस बात की परवाह भी नहीं करते थे कि इससे विवाद होगा। विवादों को वो समाज की जड़ता तोड़नेवाले औजार के तौर पर देखते थे, इसलिए प्रयासपूर्वक विवादों को उठाते भी थे। कई बार साहित्यिक विवाद तो कई बार गैर साहित्यिक विवादों को उठाने से भी उनको परहेज नहीं रहा था। उन्होंने हंस के संपादकीयों के माध्यम से कई विवादास्पद मुद्दे उठाए थे। सामाजिक और राजनीतिक विवाद से भी उनको परहेज नहीं था। कई बार वो विवादों में फंसे भी, उनके घर से लेकर उनके दफ्तर के बाहर तक प्रदर्शन आदि भी हुए लेकिन फिर भी विवाद उठाने की आदत से बाज नहीं आए। अपने मृत्यु के कुछ दिन पहले तक भी विवादों में घिरे रहे। इतना विवादप्रिय लेखक हिंदी साहित्य में शायद ही कोई दूसरा हो।


Saturday, October 26, 2019

उत्तरदायी नियमन से बनेगी बात


अमेरिकी संसद की समितियां दुनियाभर के अलग-अलग देशों की समस्याओं और वहां के हालात पर मंथन करती रहती हैं। मानवाधिकार से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी तक पर इन समितियों में विचार होता है। दुनिया के अलग-अलग देशों के प्रतिनिधि को भी इन समितियों की बैठक में बुलाया जाता है और उनको सुना जाता है। हर किसी का पक्ष सुना जाता है। इस तरह की बैठक इस वजह से महत्वपूर्ण मानी जाती है कि इससे किसी देश की छवि पूरी दुनिया में बनती या बिगड़ती है। इस तरह की बैठकों का लाइव प्रसारण होता है और पूरी दुनिया में इसकी कार्यवाही को देखा जाता है। इन बैठकों में हुई चर्चा पर दुनियाभर में चर्चा भी होती है। इसी तरह की एक बैठक पिछले दिनों अमेरिकी संसद की विदेश मामलों की समिति की हुई जिसके केंद्र में दक्षिण एशिया में मानवाधिकार की स्थिति थी । इस समिति की बैठक का एक पूरा सत्र कश्मीर में अनुच्छेद तीन सौ सत्तर के खत्म किए जाने के बाद वहां के लोगों के मानवाधिकार पर था। इस बैठक में इसको लेकर लंबी चर्चा हुई। इस चर्चा में सोमाली अमेरिकन राजनीतिज्ञ इल्हान ओमर भारत के खिलाफ बोलीं। उन्होंने कश्मीरियों के आत्मनिर्णय का मुद्दा उठाया, एनआरसी के मसले पर भारत सरकार को घेरने की कोशिश की। उनके आरोपों का अमेरिका की असिस्टेंट सेक्रेटरी ऑफ स्टेट एलिस वेल्स ने प्रतिवाद किया और कहा कि भारत में लोकतांत्रिक संस्थाएं अपना काम कर रही हैं। एक और वक्ता थीं, लंदन की वेस्टमिनिस्टर विश्वविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर निताशा कौल। निताशा कौल ने अपना वक्तव्य इस बात से शुरू किया कि वो कश्मीरी पंडित हैं, कश्मीर की हैं, भारत में पली बढ़ीं, ब्रिटेन में पढ़ाती हैं और अब अमेरिका में भाषण दे रही हैं। वो विषय पर आतीं इसके पहले उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर सीधा वार किया। संघ को उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक अभिभावक बताया और बहुत जोर देकर इस बात को कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना में भारत का विस्तार भी है जिसको वो अविभाजित भारत कहते हैं और वो भारत का विस्तार दक्षिण एशिया के कई देशों तक करना चाहते हैं। इतना कहते कहते वो संघ को एक मिलिटेंट संगठन करार दे देती हैं। इस क्रम में वो हिटलर का उदाहरण भी देती हैं। उसके बाद वो कश्मीर में मानवाधिकार के हनन पर वो कई उदाहरणों के साथ अपनी बात कहती हैं। उनकी बातों में कुछ तथ्य और सुनी सुनाई बातें होती हैं। अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत है कि इफ यू हैव द फैक्ट, बैंग द फैक्ट एंड इफ यू डोंट हैव द फैक्ट, बैंग द टेबल यानि कि अगर आपके पास तथ्य है तो उसको जोरदार तरीके से पेश करो लेकिन अगर आपके पास तथ्य नहीं है तो फिर नाटकीयता का सहारा लें। निताशा ने भी कुछ कुछ ऐसा ही किया। उनके पास जब तथ्यों की कमी होती थी और वो अपने वक्तव्य को कल्पना के आधार पर गढ़ती थीं तो उसमे नाटकीयता का पुट डालती थीं। अब उनको कौन समझाए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहीं से मिलिटेंट संगठन तो हो ही नहीं सकता। इसके मूल में आक्रामकता है ही नहीं मिलिटेंसी तो बहुत दूर की बात है। संघ के प्रचारकों और पूर्णकालिकों से अगर निताशा कौल मिल लें तो उनको इस बात का एहसास हो जाएगा कि वो किस तरह से और किन परिस्थितियों में काम करते हैं।संभव है उनका भ्रम भी दूर हो सके। खैर ये अलहदा विषय है। इसपर फिर कभी चर्चा होगी। एक वक्ता ने तो यहां तक कह दिया कि भारतीय जनता पार्टी के नेता ने अनुच्छेद तीन सौ सत्तर के हटाने के बाद कश्मीरी लड़कियों से भारत के अन्य सूबों के लड़कों के शादी तक की बात कही। आश्चर्य होता है कि अमेरिकी संसद की समितियों में इस तरह की बातें भी हो सकती हैं जो सोशल मीडिया पर अराजक माहौल में होती हैं।
जब निताशा कौल या इल्हान ओमर जैसी शख्सियत भारत की चर्चा कर रही थीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंसूबों में दक्षिण एशियाई देशों को मिलाकर अविभाजित भारत की बात कर रही थीं या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मिलिटेंट संगठन बता रही थीं तो मेरे दिमाग में अचानक से नेटफ्लिक्स पर प्रसारित एक सीरीज लैला की कहानी कौंध गई। कुछ देर के लिए तो ऐसा लगा कि शायद वक्ताओं ने इस सीरीज को देखकर भारत के बारे में अपनी राय बना ली है। मुझे ये नहीं पता कि निताशा कौल ने या इल्हान ओमर ने लैला सीरीज देखी है या नहीं पर इतना जरूर मालूम है कि नेटफ्लिक्स ओरिजनल एक साथ दुनिया भर के एक सौ नब्बे देश में रिलीज की जाती है। लैला सीरीज नेटफ्लिक्स ओरिजनल है। इसी तरह से एक और सीरीज सेक्रेड गेम्स को तो 26 अलग अलग भाषाओं में डब करके प्रसारित किया जा चुका है। सेक्रेड गेम्स में भी हिन्दुस्तान में रह रहे मुसलमानों को लेकर कई तरह की अवांछित टिप्पणियां की गई हैं। तो एक बार फिर से प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत के बारे में इस तरह की काल्पनिक कहानियों को दिखानेवाले वेब सीरीज के नियमन की कोई व्यवस्था होनी चाहिए। वेब सीरीज के लिए भारत में इस वक्त बहुत ही उत्साहवर्धक समय है। जमकर वेब सीरीज बनाए जा रहे हैं और अब तो हिंदी फिल्मों के सूरमा भी वेब सीरीज के मैदान में कूद पड़े हैं। चाहे वो करण जौहर हों, शाहरुख खान हों या अजय देवगन हों। इन प्लेटफॉर्म पर प्रसारित होनेवाले धारावाहिकों में पूंजी जिन कंपनियों का उसका कंटेंट नियंत्रण स्वाभाविक है। कंपनियों का प्राथमिक उद्देश्य मुनाफा कमाना है। प्रश्न फिर वही उठता है कि क्या मुनाफे के इस गणित में देश की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखना चाहिए या नहीं।
वेब कंटेंट को लकर नियमन की बात लंबे अरसे से हो रही है। नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार आदि पर चलाए गए और अब भी चलनेवाले कंटेंट को लेकर इस स्तंभ में कई बार लिखा जा चुका है। वेब सीरीज पर चलनेवाले कंटेंट को नियंत्रित करना बेहद मुश्किल है लेकिन जो कंपनियां या जो ओवर द काउंटर प्लेटफॉर्म (ओटीटी) इन सीरीज का प्रसारण या निर्माण करवा रही हैं उनसे तो नियमन पर बात की ही जा सकती है। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने भी वेब सीरीज के नियमन या स्व-नियम को लेकर चर्चा शुरू कर दी है। मुंबई में एक दौर की चर्चा हो चुकी है और अब दूसरे दौर की चर्चा होनेवाली है। एक संस्था ने सरकार को स्वनियम की प्रस्तावित रूपरेखा भी दी है। उसके आधार पर अगले दौर की बातचीत होगी। वेब सीरीज के नियमन की चर्चा के दौरान कलात्मक अभिव्यक्ति की बात जरूर उठेगी। यह भी कहा जा सकता है कि नियमन से कलाकार की कल्पनाशीलता बाधित होती है। यह भी कहा जा सकता है कि यथार्थ का चित्रण बाधित हो सकता है। नियमन की चर्चा जोर पकड़ती है तो यह तर्क भी सामने आएगा कि फिल्मों या वेब सीरीज में कमोबेश वही दिखाया जाता है जो समाज में घट रहा होता है। सही है। लेकिन किसी सीरीज से किसी भी देश की प्रतिष्ठा पर आंच आती है या किसी संप्रभु देश की छवि खराब होती है तो उसपर संविधान के दायरे में विचार जरूर किया जाना चाहिए। वेब सीरीज पर नियमन को लेकर कोई ऐसी पद्धति विकसित करनी चाहिए जिससे कि इनको दिखाने वाले प्लेटफॉर्म को उत्तरदायी बनाया जा सके। उत्तरदायी नियमन का लाभ ये हो सकता है कि इसको प्रसारित करने के पहले ये प्लेटफॉर्म सामूहिक या अपने स्तर पर ऐसी व्यवस्था का निर्माण करें जहां इन बातों का ध्यान रखा जा सके। अगर ऐसा होता है तो उत्तरदायी कहानी कहने की पद्धति का विकास हो सकेगा। सरकार को ये भी देखना होगा कि नियमन के नाम पर कंपनियों के हितों की अनदेखी ना हो और कोई भी ऐसा नियम ना बने जिससे किसी एक प्लेटफॉर्म को फायदा हो और दूसरे का नुकसान। वेब सीरीज इस वक्त भारत के लिए एक नया माध्यम है, भारत में इंटरनेट के फैलाव और फोर जी के सस्ता और लोकप्रिय होने से इस माध्यम को लेकर लोगों में उत्सुकता बढ़ी है। इस क्षेत्र में काम कर रही विदेशी कंपनियों को भारत में एक बड़ा बाजार और मोटे मुनाफे की संभावना नजर आ रही है। मुनाफा के लिए काम करने बिल्कुल उचित है लेकिन मुनाफा और उत्तरदायित्व में संतुलन होना आवश्यक है। किसी भी प्रकार का नियमन इस संतुलन को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए। ये संतुलन ऐसा हो कि कलात्मक अभिव्यक्ति भी बाधित ना हो और इसकी आड़ में सेंसरशिप का बीज भी ना डले।

Thursday, October 24, 2019

छात्रों-शिक्षकों का साहित्यिक अड्डा


उन्नीस सौ नब्बे के आसपास की बात होगी, उन दिनों हिंदी साहित्य जगत में लघु पत्रिकाएं बहुतायत में निकला करती थीं। इनमें से ज्यादातर पत्रिकाएं एक विशेष विचारधारा का पोषण और सवंर्धन करनेवाली होती थीं। कम संख्या में छपनेवाली इन पत्रिकाओं की मांग उस विशेष विचारधारा के अनुयायियों के बीच काफी होती थी। उस दौर में अलग अलग शहरों में इन पत्रिकाओं की बिक्री के लिए नियत स्थान हुआ करती थी। वहां साहित्यिक लोग पहुंचा करते थे, पत्र-पत्रिकाएं खरीदते थे और वहीं गपबाजी भी हुआ करती थी। दिल्ली में भी एक ऐसा साहित्यक अड्डा होता था दिल्ली विश्वविद्याल के कला-संकाय के कैंपस में। पटेल चेस्ट की तरफ वाली गेट से घुसते ही बांयी ओर सेंट्रल रेफरेंस लाइब्रेरी के पास खुराना जी की किताबों की एक दुकान थी। उस दुकान पर देश भर में प्रकाशित हिंदी की लघु पत्रिकाएं आया करती थी। खुराना जी की दुकान के पहले चाय नाश्ते की भी एक दुकान थी लिहाजा वहां पहुंचानेवालों के लिए आदर्श स्थिति होती थी। हाथ में चाय का ग्लास लेकर खुराना जी की दुकान पर पहुंच जाते थे। पत्र-पत्रिकाएं देखते थे और फिर आपस में चर्चा भी करते थे। खुराना जी की ये दुकान साहित्य प्रेमी शिक्षकों के साथ साथ छात्रों का भी अड्डा हुआ करता था।
खुराना जी की ये विशेषता थी वो अपने यहां आनेवाले तमाम ग्राहकों को नाम से जानते थे। जानते ही नहीं थे बल्कि उनकी रुचि का भी उनको अंदाज होता था। जैसे ही कोई छात्र या शिक्षक उनके यहां पहुंचता तो वो सीधे उसकी रुचि की पत्रिका या फिर किसी नई पुस्तक के बारे में उसको बताने लगते थे। वो किसी भी पत्रिका या पुस्तक के बारे में इतने रोचक तरीके से बताते थे कि ग्राहक उसको खरीदने के बारे में मन बना ही लेता था। खुराना जी की एक और विशेषता थी कि उनको इस बात का भी अंदाज हो जाता था कि उनका ग्राहक कितने मूल्य तक की पत्र-पत्रिका या पुस्तक खरीद सकता है। पैसों को लेकर वो कभी आग्रही नहीं होते थे और कोई भी ग्राहक चाहे जितने की पुस्तकें या पत्रिकाएं ले जा सकता था और बाद में पैसे खुराना साहब को दे सकता था। उन दिनों खुराना की पुस्तक की दुकान पर रमेश उपाध्याय, उदय प्रकाश, नित्यानंद तिवारी, विश्वनाथ त्रिपाठी जी आदि भी दिख जाते थे। आज के युवा लेखकों में संजीव कुमार, संजीव ठाकुर और रविकांत भी खुराना की दुकान पर नियमित आनेवालों में से थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के इस साहित्यिक ठीहे पर छात्रों का भी जमावड़ा होता था और वो अपनी पसंद की पत्रिकाएँ ले जाते थे इस बात की चिंता किए बगैर कि उनके पास उसको खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे हैं या नहीं। इस ठीहे पर कला संकाय की दीवार से सटाकर कुछ बेंच भी रखे रहते थे जिसपर बैठकर बातें होती थीं। छात्र अपने वरिष्ठ शिक्षकों और लेखकों से किसी भी मसले पर राय ले सकते थे। सेंट्रल रेफरेंस लाइब्रेरी के पास होने की वजह से यहां काफी चहल पहल रहती थी। अपनी दुकान पर आने के पहले खुराना साहब दिल्ली विश्वविद्लाय के छात्रावासों में भी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं पहुंचाया करते थे। उनको पता होता था कि कौन से कमरे में साहित्यिक रुचि के लड़के रहते थे। छात्रावास में पत्रिकाएं पहुंचाने के बाद वो अपनी दुकान खोला करते थे। वर्ष दो हजार के आसपास खुराना साहब की दुकान बंद हो गई। क्यों किसी को पता नहीं चल पाया।  दिल्ली विश्वविद्यालय का ये साहित्यक कोना वीरान हो गया।      

Sunday, October 20, 2019

नर्गिस की वादा खिलाफी से बने डांसर


हिंदी फिल्मों की चर्चा में राजेश खन्ना की सफलता की चर्चा आ ही जाती है और इस बात को रेखांकित किया जाता है कि उनकी लगातार सत्रह फिल्में सुपरहिट रहीं। लेकिन इस बात की चर्चा कम या नहीं के बराबर होती है कि एक सितारा ऐसा भी था जिसने एक के बाद एक अठारह फ्लॉप फिल्में दीं। पांच साल में अठारह फ्लॉप फिल्मों के बावजूद वो फिर से उठ खड़ा हुआ और उसके बाद हिट फिल्मों की झड़ी लगा दी। इस अभिनेता का नाम है शम्मी कपूर। दरअसल शम्मी कपूर जब फिल्मों में आए तब दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद अपने करियर के शिखर पर थे। इस त्रिमूर्ति के दबदबे और अपनी लगातार असफलताओं के बोझ तले दबे शम्मी कपूर को नासिर हुसैन ने अपनी फिल्म तुमसा नहीं देखा में लिया। यहां भी नासिर हुसैन ने एक प्रयोग किया था और असफल फिल्मों के हीरो के तौर पर जाने जानेवाले शम्मी कपूर के साथ उन्होंने एकदम नई हिरोइन अमीता को लिया था। नासिर हुसैन इस बात तो भांप चुके थे कि स्थापित नायिकाओं के साथ शम्मी को दर्शक पसंद नहीं कर रहे थे क्योंकि शम्मी की अठारहल असफल फिल्मों की नायिकाओं में मीना कुमारी, मधुबाला, नूतन और सुरैया रह चुकी थीं। ये प्रयोग सफल रहा और तुमसा नहीं देखा जबरदस्त हिट रहा। इसके बाद अगली फिल्म दिल देके देखो ने तो सफलता के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए थे।
शम्मी कपूर का जीवन शुरू से ही ट्रैजिक भी रहा और दिलचस्प भी। जब वो मां की कोख में पल रहे थे तो पंद्रह दिनों के अंतराल पर उनके दो भाइयों बिंदी और देवी की मौत हो गई थी। पूरा परिवार टूट गया था। दो बच्चों की मौत से टूट चुकी महिला की गोद में समय से पहले पैदा हुआ बेहद कमजोर बच्चा आया, परिवार में कम ही लोगों को उसके बचने की उम्मीद थी। शम्मी कपूर का शैशवस्था इस माहौल में बीत रहा था। घर में लोग शम्मी को छोटा चूहा बुलाते थे। जब को किसी तरह से चौदह साल के हुए तो एक बार उनकी भाभी कृष्णा उनको अपने मायके रीवां लेकर गईं। वहां शम्मी कपूर का स्वास्थ्य काफी सुधरा और शम्मी ने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि रीवां में तैराकी करने से उनके स्वास्थ्य में सुधार के साथ शारीरिक विकास भी हुआ। शम्मी कपूर जब रीवां से मुंबई लौटे तो बदले हुए थे। उनकी शरारतें भी बढ़ती जा रही थीं। स्कूल के बाद कॉलेज पहुंचे लेकिन वहां मन नहीं लगा। शैतानियां बढ़ते देख उनके पिता पृथ्वीराज कपूर ने उनको सत्रह साल की उम्र में 1948 में पृथ्वी थिएटर में पचास रुपए महीने की मौकरी पर रख लिया। यहीं से उनका हिंदी फिल्मों में जाने का रास्ता खुला था।
ये बहुत कम लोगों को पता है कि शम्मी कपूर को शिकार का बहुत शौक था। 1946 में उनकी मुलाकात जोधपुर की महारानी से हुई। महारानी अपने दो बेटों के साथ पृथ्वी थिएटर में नाटक देखने आई थी। शम्मी कपूर उनकी अदाओं और शाही अंदाज से बेहद प्रभावित हुए थे। उनके दोनों बेटों से भी उनकी पहचान हो गई। उनके साथ पहली बार वो शिकार पर गए थे। बाद तो में तो शिकार में इतना मन रमा कि भोपाल के पास के जंगल और तराई तक जाने लगे। शम्मी कपूर ने वेबसाइट पर भोपाल के पास के जंगल में अपने पहले बाघ के शिकार के बारे में विस्तार से लिखा भी था। गीता बाली के साथ शादी के बाद भी ये शौक बरकरार रहा। कई बार तो दोनों मुंबई से देहरादून तक अपनी गाड़ी के शिकार करने चले जाते थे। कार की पिछली सीट पर गद्दा होता था और दोनों में से जो थकता था वो पीछे जाकर सो जाता था। ये बात भी दिलचस्प है कि शम्मी कपूर अपने दोस्त जॉनी वॉकर के साथ शिकार पर जाना सबसे अधिक पसंद करते थे।
शम्मी कपूर के गानों और उनके डांस स्टाइल की बहुत चर्चा होती है। उनके पसंदीदा संगीत सुनने और उसपर नृत्य करने के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। हुआ ये कि एक दिन वो आर के स्टूडियो में नर्गिस के मेकअप रूम के सामने से गुजर रहे थे तो देखा कि नर्गिस रो रही हैं। उनके पास गए और पूछा तो पता चला कि उसके परिवारवालों ने उनको राज कपूर के साथ फिल्म करने से मना कर दिया है। उस वक्त बरसात फिल्म की शूटिंग चल रही थी। नर्गिस फिल्म आवारा में काम करना चाहती थी लेकिन पारिवारिक बंदिश लगी थी। शम्मी ने उनको दिलासा दिलाया और वादा किया कि वो भगवान से प्रार्थना करेंगे कि उनको राज कपूर के साथ काम करने की अनुमति मिल जाए । नर्गिस ने वादा किया कि अगर उनकी प्रार्थना सफल गोती है तो वो शम्मी को किस देंगी। समय गुजर गया, बरसात हिट हो गई। नर्गिस को फिल्म आवारा में काम करने की अनुमति मिल गई। जब शम्मी कपूर को इस बात का पता लगा तो वो फिल्म आवारा के सेट पर पहुंचे और नर्गिस को उनका वादा याद दिलाया। नर्गिस ने शम्मी से कहा कि उनको वादा याद है लेकिन अब शम्मी बड़े हो गए हैं लिहाजा वो वादा नहीं निभा पाएंगीं। नर्गिस ने शम्मी से कुछ और मांगने को कहा। शम्मी ने नर्गिस से एक ग्रामोफोन मांगा, जो नर्गिस ने उसी दिन खरीद कर शम्मी को दे दिया। शम्मी कपूर ने बाद में इस बात को लिखा कि उनके अलबेले डांस स्टाइल के पीछे वो ग्रामोफोन है जो उनको किस के बदले मिला था। हिंदी फिल्मों के देसी काउ बॉय की छवि वाले इस अभिनेता की जिंदगी भी कई बार उनकी छवि से मेल खाती है लेकिन बहुधा उनको इससे दूर ले जाती है।   

Saturday, October 19, 2019

कोसने की नहीं, लिखने की जरूरत


काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के एक कार्यक्रम में गृहमंत्री ने इतिहास लेखन पर बेहद सटीक टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि इस सभागार में सभी विद्वान बैठे हैं। बालमुकुंद जी भी बैठे हैं जो इतिहास संकलन के लिए प्रयास कर रहे हैं। मेरा सबसे आग्रह है कि भारतीय इतिहास का भारतीय दृष्टि से पुनर्लेखन बहुत जरूरी है। मगर इसमें हमें किसी को दोष देने की जरूरत नहीं है। किसी का दोष है, तो हमारा खुद का दोष है कि हमने इस दृष्टिकोण से नहीं सोचा। इतने सारे बड़े-बड़े साम्राज्य हुए, विजयनगर साम्राज्य, हम संदर्भग्रंथ आज तक नहीं बना पाए, मौर्य साम्राज्य हम संदर्भ ग्रंथ नहीं बना पाए, गुप्त साम्राज्य का बड़ा काल खंड, हम संदर्भग्रंथ नहीं बना पाए, मगध का इतना बड़ा आठ सौ साल का इतिहास लेकिन हम संदर्भ ग्रंथ नहीं बना पाए, विजयनगर का साम्राज्य लेकिन हम संदर्भग्रंथ नहीं बना पाए, शिवाजी महाराज का संघर्ष...उनके स्वदेश के विचार के कारण पूरा देश आजाद हुआ। पुणे से लेकर अफगानिस्तान तक और पीछे कर्नाटक तक एक बड़ा साम्राज्य बना हम कुछ नहीं कर पाए। सिख गुरुओं के बलिदानों को भी हमने इतिहास में संजोने की कोशिश नहीं की। महाराणा प्रताप के संघर्ष और मुगलों के सामने हुए संघर्ष की एक बड़ी लंबी गाथा को हमने संदर्भ ग्रंथ में परिवर्तित नहीं किया। शायद वीर सावरकर न होते तो सन सत्तावन की क्रांति भी इतिहास न बन पाता, उसको भी हम अंग्रेजों की दृष्टि से ही देखते रहते। वीर सावरकर ने ही सन सत्तावन की क्रांति को पहला स्वातंत्र्य संग्राम का नाम देने का काम किया वर्ना आज भी हमारे बच्चे उसको विप्लव के नाम से जानते। ये परिवर्तन जो करना है, मैं मानता हूं कि वामपंथियों को, अंग्रेज इतिहासकारों को या मुगलकानीन इतिहासकारों को दोष देने से कुछ नहीं होगा। हमने हमारी दृष्टि को बदलना पड़ेगा। हमने हमारी मेहनत करने की दिशा को केंद्रित करनी पड़ेगी।‘  केंद्रीय गृह मंत्री ने बेहद सटीक बात कही कि अगर किसी की लकीर को छोटी करनी है तो उसके समानांतर एक बड़ी लकीर खींचनी होगी। राजनीति के क्षेत्र में ये काम करके उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया है, भारत और भारतीयता को आगे रखते हुए देश के राजनीतिक परिदृश्य और विमर्श दोनों को बदल दिया, और वो शैक्षणिक जगत से ऐसी ही अपेक्षा कर रहे हैं। इसलिए जब वो दोष देने की बजाए दृष्टि बदलने और मेहनत की दिशा को केंद्रित करने की सलाह देते हैं तो अचानक से बौद्धिक जगत के समक्ष कई चुनौतियां पेश कर देत हैं।
प्रख्यात इतिहासकार पणिक्कर ने पेरू और स्पेन के संदर्भ में एक उदाहरण दिया था। शीशे के किसी गिलास में साफ पानी लो, उसमे दो बूंद स्याही डालकर उसको घोल दो। कुछ समय के बाद लगेगा कि पानी नीला हो गया। प्रबल संस्कृति ने अबल संस्कृति को अपने जैसा बना लिया। फिर गिलास को वैसे ही रहने दो। कुछ देर बाद पता चलेगा कि पानी नीला नहीं है, साफ है पर ठीक पहले जैसा साफ नहीं, इतना कम बदला हुआ है कि उसे साफ कह सकते हैं। नीला रंग तलहटी में बैठ गया है। उन्होंने निष्कर्ष के तौर पर कहा था कि आखिरकार स्थानीय संस्कृति ही प्रबल सिद्ध होती है। पाणिक्कर के इस उदाहरण को अगर इतिहास लेखन के उदाहरण के तौर पर देखें तो यह समझ आता है कि भारतीय इतिहास में भी अगर आयातित विचारधारा रूपी स्याही मिलाकर उसको साफ नहीं रहने दिया गया तो कोई हर्ज नहीं था लेकिन इतिहास के गिलास के शांत रहने दिया जाता ताकि लाल रंग तलहटी में बैठ सके। गिलास को लगातार हिलाया गया ताकि स्थानीय संस्कृति साफ दिखाई नहीं दे सके और बाहर से मिलाया गया रंग ही प्रबल दिखे। भारतीय इतिहास में हमेशा से दो बूंद स्याही मिलाई गई। ये परंपरा जेम्स मिल से शुरू होकर आधुनिक युग के कई इतिहासकारों में दिखाई देती है, दामोदर धर्मानंद कोसंबी से लेकर रोमिला थापर तक में। आधुनिक युग के ज्यादातर इतिहासकारों ने भी मार्क्सवादी औजारों के आधार पर ही भारतीय इतिहास को परखने और उससे निकले निष्कर्षों को ही स्थापित किया। भगवान सिंह ने इस ओर इशारा किया है। उनके दिए एक उदाहरण से इसको समझा जा सकता है। ऋगवेद में राजा शब्द का प्रयोग हुआ है। यह एक विकसित प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़ा पद है। परुंतु ऋगवेद का समाज तो कबीलाई था, यह पाश्चात्य डाक्ट्रिन का हिस्सा है। अत: इसमें राजा का प्रयोग सरदार के लिए किया गया होगा। अब ऐसे समाज को समाने रखकर वैदिक राजा और तंत्र को समझा और समझाया जाने लगा जिनमें लूट या किसी तरीके से जुटाया गया माल सरदार को सौंप दिया जाता है और वह उसी समुदाय में उसका न्यायोचित वितरण करता है। ऋगवेद के गहन अध्ययन से यह पता लगाने का प्रयत्न नहीं किया गया कि उसमें कबीले के सरदारों के लिए कोई शब्द आया है या नहीं या राजा का प्रयोग किन संदर्भों में किनके लिए किया गया है। ऋगवेद में सरदार के लिए वर्षिष्ठ का व्यवहार हुआ है न कि राजा का। बृबु को सरदारों का शिरोमणि या वर्षिष्ठों में मूर्धन्य बताया गया है ( अधि बृबु पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन्नस्थात, उरु: कक्षो न गांग्य:, 6.45.31) अर्थात सरदारों के बीच भी असाधारण प्रभाव रखने वालों के लिए राजा का प्रयोग नहीं होता था।इतिहास लेखन की जो प्रामाणिक पद्धति है उसमें सतर्कता और तटस्थता की अपेक्षा तो होती ही है। क्या हमारे देश में हुए इतिहास लेखन में ऐसा हुआ।
अमित शाह ने साफ तौर पर यही कहा कि दोष देने की बजाए दृष्टि बदलनी होगी। इतिहास लेखन में बदली हुई दृष्टि को देखने का प्रयास तो इतिहासकारों और उन संस्थाओं को ही करना होगा जो इस तरह के काम के लिए बनाए गए हैं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से लेकर तमाम साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं को ये देखना होगा कि इतिहास लेखन में सतर्कता और तटस्थता बरती जा रही है या नहीं। जहां तक बड़ी लकीर खींचने का सवाल है तो उसकी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती है। बुद्धिजीवी वर्ग को ये बीड़ा उठाना होगा। सरकार संस्थाएं बना सकती हैं, उन संस्थाओं की कमान योग्य व्यक्तियों को देकर उनसे यही अपेक्षा की जाती है कि वो इतिहास लेखऩ में सतर्कता और तटस्थता को बरकरार रखें। लेकिन इस अपेक्षा पर खरे उतरने की बजाए हो कुछ और रहा है। इतिहास को लेकर काम कर रही सरकारी संस्थाएं हों या साहित्य कला और संस्कृति के क्षेत्र में काम कर रही स्वायत्त संस्थाएं, ज्यादातर में ठोस काम की जगह कार्यक्रमों ने ले ली हैं। ये संस्थाएं इवेंट मैनजमेंट कंपनी बनती जा रही है। पिछले छह साल में इन संस्थाओं ने कितने ठोस काम किए हैं और कितने कार्यक्रम आयोजित किए हैं इसका अगर आकलन किया जाए तो चौंकानेवाले आंकड़े सामने आ सकते हैं। दिलचस्प भी।
मानव संसाधन मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाली और स्वायत्त संस्थाओं में लगभग हर रोज कोई ना कोई कार्यक्रम हो रहा है, उनका खूब प्रचार प्रसार भी हो रहा है। लेकिन यह बात कभी भी निकल कर नहीं आती कि फलां संस्थान से जुड़े फलां लेखक ने भारतीय इतिहास पर नई दृष्टि से या वैकल्पिक दृष्टि से विचार करते हुए कोई पुस्तक लिखी। ऐसी पुस्तक जिसपर चर्चा हो, जिसको लेकर समाज में कोई विमर्श खड़ा हो सके। बैद्धिक जगत में किसी प्रकार का कोई उद्वेलन पैदा हो। स्थापित मान्यताओं को चुनौती देती हुए कितनी पुस्तकें आई हैं? अगर किसी लेखक ने या इतिहासकार ने इस तरह का कोई काम किया भी तो वो सामने क्यों नहीं आ पा रहा है। सरकारी संस्थाओं का एक दायित्व तो यह भी है कि इस तरह की पुस्तकों को सामने लाने का उपक्रम करे। ज्यादा से ज्यादा भारतीय भाषाओं में उसका अनुवाद हो और उसकी इतनी व्याप्ति हो कि वृहत्तर भारतीय समाज में उस पुस्तक के माध्यम से एक नया विमर्श खड़ा हो। क्या ये मान लेना चाहिए कि इन संस्थाओं में अब भी वामपंथी इतिहासकारों और लेखकों का ही बोलबाला है कि वो वैकल्पिक प्रयासों को सफल नहीं होने दे रहे हैं। या ये मानें कि जिनके पास वैकल्पिक विमर्श खड़ा करने की जिम्मेदारी है वो वामपंथी लेखकों और इतहासकारों को कोसने के काम में लगे हैं। अब जब देश के गृहमंत्री ने साफ तौर पर कहा है तो ये उम्मीद की जानी चाहिए कि इतिहास लेखन के क्षेत्र में कुछ ऐसे काम की शुरुआत हो सकेगी जिसके माध्यम से अबतक छूटे या अधूरे कामों को पूरा किया जा सकेगा। नए विमर्श और नई खोज के आधार पर इतिहास लेखन में अबतक हुई गड़बड़ियों को सुधारा जा सकेगा।                

Wednesday, October 16, 2019

हिंदी फिल्मों की ‘काली’


फिल्म नमक हलाल में स्मिता पाटिल और अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गया बारिश-गीत आज रपट जाए तो आज भी दर्शकों के जेहन में ताजा है । समांतर फिल्म की संवेदनशील नायिका को इस तरह से बारिश में भीगते हुए सुपरस्टार के साथ गाते देख सिनेमा हॉल के आगे की पंक्ति में बैठनेवालों ने जमकर पैसे लुटाए थे । लेकिन इस गाने के पीछे की एक दिलचस्प कहानी दर्शकों को पता नहीं है । मशहूर निर्देशक प्रकाश मेहरा ने जब स्मिता पाटिल को इस फिल्म में साइन किया था तो वो बेहद खुश थीं । उनका उत्साह चरम पर था, फिल्म के दौरान वो सेट पर हमेशा की तरह बेहद खुश रहती थीं और साथी कलाकारों के साथ चुहलबाजियां भी करती थी । जब स्मिता पाटिल पर ये गाना फिल्माया गया था तो उसके बाद वो देर तक रोती रहीं थी । उन्हें मालूम था कि वो प्रकाश मेहरा जैसे बड़े निर्देशक की बड़े बजट की मल्टीस्टारर में काम कर रही थीं लेकिन तब उन्होंने ये नहीं सोचा था कि उसकी उन्हें ये कीमत चुकानी पड़ेगी । ये वही स्मिता पाटिल थी जो अपने बिंदास अंदाज के लिए फिल्म जगत में जानी जाती थी । ये वही स्मिता पाटिल थी जिन्होंने मंथन, भूमिका, अर्थ, मिर्च मसाला जैसी फिल्मों में यादगार भूमिका निभाई थी । ये वही स्मिता पाटिल थी जिन्होंने दूसरी तरफ इंसानियत के दुश्मन , आनंद और आनंद, बदले की आग , अंगारे, कयामत जैसी दोयम दर्जे की फिल्मों में भी काम किया था । इससे आपको अंदाजा हो सकता है कि स्मिता पाटिल के व्यक्तित्व के कितने पहलू थे । उनके अभिनय का रेंज कितना बड़ा था । इस तरह के दिलचस्प किस्सों को पत्रकार और फिल्म समीक्षक मैथिली राव ने अपनी किताब स्मिता पाटिल, अ ब्रीफ इनकैनडेंस्ट ने समेटा है ।स्मिता पाटिल पर लिखी किताब से पाठकों की ये अपेक्षा रहती है कि वो जाने कि वो कौन सी परिस्थितियां थी जिनमें स्मिता पाटिल ने राज बब्बर से शादी की और फिर दोनों साथ नहीं रह सके ।
स्मिता पाटिल की मां विद्यावति की शादी की भी दलचस्प कहानी है। विद्यावति ने सिरपुर में शिवाजीराव का भाषण सुना । उसके बाद विद्या ने शिवाजीराव को एक पत्र लिखा और उनके साथ काम करने की इच्छा जताई । इसके बाद घटनाओं ने नाटकीय मोड़ लिया और विद्यावती और शिवाजीराव की शादी हो गई । शादी के बाद जब शिवाजीराव और विद्या मुंबई आते हैं तो मजदूर नेता अशोक मेहता की कृपा से उनको उस हॉल में रहने की जगह मिलती है जहां ढेर सारे मजदूर रात गुजारते थे । उस कम्यून में विद्या अकेली महिला होती थीं । मुफलिसी के उसी दौर में वो दोनों पुणे लौटते हैं फिर मुंबई वापस आते हैं जहां विद्या अपने परिवार को चलाने के लिए नर्स की नौकरी करती हैं । तब तक वो एक बच्चे को खोने का सदमा झेल चुकी होती हैं और एक बच्ची को जन्म दे चुकी होती हैं । नर्सिंग के दौर में ही स्मिता पाटिल का जन्म होता है और जन्म के वक्त हो हंसती हुई पैदा होती है इस वजह से उसका नाम स्मिता रख दिया जाता है । स्मिता अपने मां बाप की मंझली संतान थी लेकिन अपनी बहनों से बिल्कुल अलग और मस्त मौला थी । स्मिता को याद करते हुए उसके दोस्त कहा करते हैं कि उसकी दोनों बहने प्रैक्टिकल थीं जबकि स्मिता इमोशनल थी । स्मिता के रंग को देखकर उसके दोस्त उसको काली कहा करते थे जिसके जवाब में स्मिता ए हलकट कहकर निकल जाती थी । बचपन से स्मिता राष्ट्र सेवा दल के साथ खूब सक्रिय थी । ये संगठन गांधी जी के सर्व धर्म समभाव के आधार पर गठित की गई थी । दरअसल स्मिता के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे और आजादी के आंदोलन के दौरान जेल भी गए थे । स्मिता की मां कहा करती थी कि समाज सेवा उनके परिवार का स्थायी रोग है जिसका कोई इलाज नहीं है । ये रोग स्मिता में उसके करियर के दौरान भी देखा गया था । जब वो अपने अभिनय के करियर पर टॉप पर थी तब भी वो समाज सेवा के लिए वक्त निकालती थी । फिल्मी दुनिया के अभिनेता और अभिनेत्री अपने करियर के ढलान के दौर में समाज सेवा से जुड़ते रहे हैं लेकिन स्मिता पाटिल ने अपने स्टारडम के दौरान भी उसको नहीं छोडा ।
पुणे की फिजां में ही कुछ बात है कि लोग वहां साहित्य, संस्कृति और कला को लेकर खासे
उत्साहित रहते हैं । उस फिजां का असर स्मिता पाटिल पर भी पड़ा और उसने अभिनय की ओर कदम बढ़ा दिए । उस दौर में कम ही लोगों को ये मालूम था कि स्मिता पाटिल पुणे की मशहूर संस्था फिल्म एंड टेलीविजन संस्थान की छात्रा नहीं है क्योंकि उसका ज्यादातर वक्त वहां पढ़नेवाले उनके दोस्तों के साथ उसके ही कैंपस के इर्द गिर्द बीतता था । मोटर साइकिल से लेकर जोंगा जीप को चलाते हुए स्मिता पाटिल ने टॉम बाय की छवि बना ली थी । अपने दोस्तों के साथ मराठी गाली गलौच की भाषा में बात करना उनका प्रिय शगल था । जब उसके पिता मुंबई आ गए तब भी उसका दिल पुणे में ही लगा हुआ था । वो मुंबई नहीं आना चाहती थी लेकिन परिवार के दबाव में वो मुंबई आ गई । यहां उसने एलफिस्टन छोड़कर सेंट जेवियर में पढाई की । बावजूद इसके उसकी अंग्रेजी अच्छी नहीं थी, स्मिता पाटिल ने जेवियर के माहौल में खुद को ढाला । यहां उसके साथ एक बेहद दिलचस्प वाकया हुआ और वो दूरदर्शन में न्यूज रीडर बन गई । स्मिता की बहन अनीता के कुछ दोस्त पुणे से आए हुए थे जिनमें पुणे दूरदर्शन की मशहूर न्यूज रीडर ज्योत्सना किरपेकर भी थी । उसके एक साथी दीपक किरपेकर को फोटोग्राफी का शौक था और वो स्मिता पाटिल के ढेर सारे फोटो खींचा करते थे, ये कहते हुए कि घर की मॉडल है जितनी मर्जी खींचते जाओ । स्मिता भी उनके सामने बिंदास अंदाज में फोटो शूट करवाती थी । एक दिन अनीता के दोस्तों ने तय किया कि स्मिता की तस्वीरों को ज्योत्सना किरपेकर को दिखाया जाए । एक दिन की बात है क्लास खत्म होने के बाद सबने तय किया कि मुंबई दूरदर्शन के वर्ली के दफ्तर में चला जाए । सब लोग वहां पहुंचे तो दूरदर्शन के दफ्तर के पास एक समतल जगह दिखाई दी तो वहां रुक गए और स्मिता के कुछ फोटोग्राफ्स फैला दिया । संयोग की बात थी कि उसी वक्त मुंबई दूरदर्शन के निदेशक पी वी कृष्णमूर्ति वहां से गुजर रहे थे । वो इनमें से कुछ को जानते थे क्योंकि ये लोग ज्योत्सना से मिलने अकसर दूरदर्शन के दफ्तर में जाया करते थे । कृष्णमूर्ति ने उन सबको इकट्ठे देखा तो रुक कर हाल चाल पूछने लगे । इसी दौरान उनकी नजर स्मिता पाटिल की तस्वीरों पर चली गई । उन्होंने पूछा कि ये लड़की कौन है और वो इससे मिलना चाहते हैं । अब सबके सामने संकट था कि स्मिता को इस बारे में कौन बताए और कौन उसको ऑडीशन के लिए राजी करे । फिर तय हुआ कि अनीता और ज्योत्सना मिलकर स्मिता को ऑडीशन के लिए राजी करेंगे । काफी ना नुकूर स्मिता को दोनों दूरदर्शन के दफ्तर लेकर पहुंची जहां ऑडिशन के वक्त उसने बांग्लादेश का राष्ट्रगान आम सोनार बांग्ला गाया । स्मिता का चुनाव हो गया और वो मराठी न्यूजरीडर बन गई । वो दौर ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का था । सांवली स्मिता, गहराई से आती उसी आवाज, उसकी भौहें और बड़ी सी बिंदी ने स्मिता पाटिल को खुद ही खबर बना दिया। जो लोग मराठी नहीं भी जानते थे वो भी स्मिता पाटिल को खबर पढ़ने के लिए देखने के लिए टेलीविजन खोलकर बैठने लगे थे । स्मिता पाटिल खबर पढ़ते वक्त हैंडलूम की पार वाली साड़ी पहनती थी लेकिन कम लोगों को ही पता है कि वो जींस पैंट पर साड़ी लपेट कर खबरें पढ़ा करती थी । दूरदर्शन के उस दौर में ही श्याम बेनेगल की नजर स्मिता पाटिल पर पड़ी और वहीं से उन्होंने तय किया कि स्मिता के साथ वो फिल्म करेंगे । उस दौर में मनोज कुमार और देवानंद भी स्मिता पाटिल को अपनी फिल्म में लेना चाहते थे । यह संयोग ही है कि स्मिता मनोज कुमार की फिल्म में काम नहीं कर सकी लेकिन जब देवानंद ने अपने बेटे सुनील आनंद को लॉंच किया तो उन्होंने उसके साथ स्मिता पाटिल को ही आनंद और आनंद फिल्म में साइन किया था ।
जब हम स्मिता पाटिल की बात करते हैं तो शबाना आजमी के बगैर वो बात अधूरी रहती है । स्मिता पाटिल और शबाना आजमी में जबरदस्त स्पर्धा थी और लोग कहते हैं कि साथ काम करने के बावजूद उनमें बातचीत नहीं के बराबर होती थी । हलांकि किताब के लांच के वक्त शबाना ने स्मिता पाटिल के बारे में बेहद स्नेहिल बातें की और यहां तक कह डाला कि उनका नाम शबाना पाटिल होना चाहिए था और स्मिता का नाम स्मिता आजमी होना चाहिए था । हलांकि शबाना ने माना था कि दोनों के बीच स्पर्धा थी लेकिन वो उसके लिए बहुत हद तक मीडिया को जिम्मेदार मानती हैं । शबाना ने ये भी स्वीकार किया कि उस दौर में दोनों के बीच सुलह की कई कोशिशें हुईें लेकिन वो परवान नहीं चढ़ सकीं और दोनों के बीच दोस्ती नहीं हो सकी ।
इस बात की क्या वजह थी कि मंथन, निशान, मिर्च मसाला जैसी फिल्मों में काम करनेवाली कलाकार ने बाद के दिनों में कई व्यावसायिक फिल्मों में काम किया था । इस बारे में श्याम बेनेगल कहते हैं कि स्मिता को भी पैसे कमाकर बेहतर जिंदगी जीने का हक था । वो कहते हैं कि सिर्फ स्मिता ने ही नहीं बल्कि शबाना ने भी कमर्सियल फिल्मों में काम किया। इसके अलावा नसीर से लेकर ओमपुरी तक ने भी समांतर सिनेमा से इतर फिल्मों में काम किया । श्याम बेनेगल कहते हैं कि इन वजहों के अलावा स्मिता के दिल में ये बात भी थी कि वो साबित करना चाहती थी कि वो हर तरह की फिल्म कर सकती है और सफल हो सकती है । कुछ लोगों का कहना है कि राज बब्बर से शादी के बाद पैकेज डील के तहत उसको कई कमर्शियल फिल्मों में काम करना पड़ा था जैसे आज की आवाज और अंगारे । मोहन अगासे कहते हैं कि स्मिता पाटिल जीनियस नहीं थी लेकिन बेहद संवेदनशील थी । कुछ इसी तरह की बात ओमपुरी भी करते हैं जब वो एक वाकया बताते हैं । ओमपुरी जब मुंबई में रहते थे तो उनके पास अपना घर नहीं था। जब ये बात स्मिता पाटिल को पता चली तो उसने अपनी मां से कहा कि वो वसंतदादा को बोलकर ओम को एक घर दिलवा दे । उसके बाद वो ओमपुरी को लेकर वसंतदादा के पास भी गई । लेकिन ओमपुरी को घर इस वजह से नहीं मिल सका कि उनको महाराष्ट्र में रहते हुए सिर्फ दस साल हुए थे जबकि उस वक्त ये सीमा पंद्रह साल थी । स्मिता पाटिल एक ऐसी कलाकार थी जिन्हें इक्कीस साल की उम्र में नेशनल अवॉर्ड मिल गया था और इकतीस साल की उम्र में उनका निधन हो गया ।

Saturday, October 12, 2019

चमत्कारिक सफलता के बाद गुमनाम


1981 में राहुल रवैल के निर्देशन में एक फिल्म आई थी, लव स्टोरी। फिल्म जबरदस्त हिट रही थी। इस फिल्म में अपने जमाने के जुबली कुमार कहे जाने वाले राजेन्द्र कुमार के अभिनेता पुत्र कुमार गौरव को लॉंच किया गया था। उनके साथ नायिका की भूमिका में भी एक लड़की विजयता पंडित को लिया गया था जो अबतक फिल्मों की दुनिया में बिल्कुल नई थी। अमिताभ बच्चन की एंग्री यंगमैन की छवि के दबदबे के बीच इस फिल्म ने ताजगी का एहसास करवाया था। इस जबरदस्त सफल फिल्म के बावजूद कुमार गौरव चल नहीं पाए और धीरे-धीरे सिनेमा के परिदृष्य से बाहर हो गए। इसी तरह एक फिल्म आई थी आशिकी उसके हीरो थे राहुल रॉय और नायिका थी अनु अग्रवाल। ये फिल्म भी जबरदस्त हिट रही थी लेकिन इस फिल्म के बाद अनु अग्रवाल या राहुल रॉय इतनी बड़ी हिट नहीं दे पाए और लगभग हाशिए पर चले गए। हिंदी फिल्मों में इस तरह के कई उदाहरण हैं। इस तरह के नायकों को वन फिल्म वंडर कहा जाता है। एक फिल्म में आए, चमत्कारिक सफलता हासिल की और फिर गायब हो गए।
पिछले दिनों इसी तरह की फिल्मों और इसी तरह के नायक-नायिकाओं पर बात हो रही थी। हमारी बातचीत को एक तीसरा मित्र भी सुन रहा था। धीऱे-धीरे वो भी बातचीत में शामिल हो गया। उसने इस चर्चा को पूरी तौर पर साहित्य की ओर कब मोड़ दिया हमें पता ही नहीं चल पाया। फिल्मों में वन फिल्म वंडर की बात आते ही उसने कहा कि ये तो साहित्य में भी होता है वहां भी दर्जनों ऐसे उदाहरण हैं। किसी लेखक की एक किताब आई, उसपर जमकर चर्चा हुई और फिर वो गुमनामी में चले गए। मैंने इसका प्रतिवाद किया और कहा कि ऐसा कम होता है लेकिन तीसरा मित्र मानने को तैयार नहीं था। उसने मेरे प्रतिवाद करते ही कहा कि आपके ही राज्य बिहार के एक कवि हैं, बहुत क्रांतिकारी माने जाते हैं, खूब इज्जत-प्रतिष्ठा भी उन मिलती है, नाम है आलोक धन्वा। आजतक उनका एक ही संग्रह आया है, दुनिया रोज बनती है। वहां खड़े मेरे मित्र ने कहा कि आलोक धन्वा को संग्रह की जरूरत नहीं है तो वो और उत्तेजित हो गए कि बीस साल से कोई संग्रह आया नहीं है, रचनात्मक निरंतरता कोई बात होती है या नहीं। बातचीत में थोड़ा ठहराव आ गया था। मैं हतप्रभ।
बाद बदलने की गरज से मैंने कहा कि अगर आलोक धन्वा को छोड़ देते हैं तो फिर कौन है। उसने मेरी ओर क्रोधित निगाहों से देखा और कहा कि चलिए हम वरिष्ठ लेखकों को छोड़ देते हैं क्योंकि आप असहज हो रहे हैं। आपको समकालीन परिदृष्य के लेखकों के नाम गिनवाते हैं कि कैसे एक संग्रह आया, खूब शोर-शराबा हुआ और अब लेखक का कहीं अता पता नहीं। वो एकदम अपनी रौ में था और किसी की सुनने को तैयार नहीं था। उसने कहा कि 2013 में युवा लेखिका ज्योति कुमारी का एक संग्रह आया था, दस्तखत और अन्य कहानियां। बहुत गाजे-बाजे के साथ उसको छापा गया था। छपने के पहले ही उसके प्रकाशन के अधिकार को लेकर विवाद भी हुआ था। नामवर सिंह ने हस्ताक्षरित शुभकामनाएं दी थीं। कहानी संग्रह के प्रकाशन के दो महीनों के भीतर उसके प्रकाशक ने घोषणा की थी कि उस संग्रह की एक हजार से अधिक प्रतियां बिक गईं। दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में समारोहपूर्वक ये घोषणा की गई थी। इतना बोलने के बाद वो मेरी ओर पलटा और पूछा कि अब बताओ कहां है वो लेखिका? पहले संग्रह के प्रकाशन के छह साल बीतने को आए लेकिन दूसरे संग्रह की कोई खबर हो तो बताया जाए। हम खामोश। कोई जानकारी नहीं होने की वजह से उसकी बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। वो इतने पर भी रुकने को तैयार नहीं था। अब हमलोग भी उसकी सुनना चाह रहे थे क्योंकि उसने ज्योति कुमारी का उदाहरण तो ठीक दिया था। उसने साफ तौर पर हमलोगों के कहा कि वो कई उदाहरण देने जा रहा है और उसको ये अपेक्षा नहीं है कि हममें से कोई चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी का उदाहरण देकर उसकी बात को कमजोर करेगा, क्योंकि गुलेरी जैसी ऊंचाई किसी के पास है नहीं।
हमारा प्रतिवाद कम होने से उसका उत्साह और बढ़ने लगा था। उसने कहा कि ज्योति कुमारी का उदाहरण इसलिए दे रहा है कि वो तत्काल उसके दिमाग में आया। ऐसे लेखकों की एक बड़ी संख्या है जो सोशल मीडिया के दौर में अपनी एक किताब के बूते साहित्यकार, कथाकार, कवि, आलोचक बने हुए हैं। उसने पूछा कि आज से छह सात साल पहले एक विधा आई थी लप्रेक। क्या हुआ उसका? और क्या हुआ उनके लेखकों का। उसने गिरीन्द्र नाथ झा का उदाहरण दिया कि आज से करीब पांच साल पहले उनकी एक किताब आई थी इश्क में माटी सोना। कितना शोर मचा था, इस किताब का भी और इस विधा का भी। लेकिन अब ना तो कोई इस विधा का नाम लेता है और ना ही इस किताब की चर्चा होती है। मैंने कहा कि इतनी तल्खी की जरूरत नहीं है क्योंकि एक तो गिरीन्द्र नाथ झा अच्छे व्यक्ति हैं, दूसरे वो दिल्ली छोड़कर अपने गांव में काम कर रहे हैं। उसने छूटते ही कहा कि हम कृति पर बात कर रहे हैं कृतिकार पर नहीं। लप्रेक के दूसरे अन्य लेखक भी इस विधा में कोई और किताब पेश नहीं कर पाए। मेरे मित्र ने जोर देकर कहा कि आपलोगों को मान लेना चाहिए कि लप्रेक एक असफल प्रयोग था। मैने कहा कि थोड़ा इंतजार करना चाहिए क्योंकि विधाएं बनने में समय लगता है। उसने तपाक से कहा कि इंतजार कर लीजिए लेकिन मेरी बात को याद रखिएगा। मैंने फिर उसको कोंचने की नीयत से बोला कि दो लेखकों के उदाहरण से आप कोई विमर्श खड़ा नहीं कर सकते हैं। वो फिर उत्तेजित हो गया और बोलने लगा, ज्यादा उदाहरण देने से कोई फायदा नहीं है आपलोगों को ये मान लेना चाहिए कि हिंदी के ज्यादातर युवा लेखकों में नैसर्गिक प्रतिभा की कमी है और वो सभी सोशल मीडिया के सहारे मशहूर होना चाहते हैं। मेहनत नहीं करते हैं।
चूंकि उसने अपनी बातचीत का दायरा बढ़ा दिया था इसलिए मुझे भी थोड़ा गुस्सा आने लगा था। मैंने उससे कहा कि ऐसा नहीं है। ढेर सारे युवा हैं जो निरंतर लेखन कर रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं। वो मेरी बात से सहमत नहीं नजर आ रहा था लेकिन चुप था। अबतक बातचीत सुन रहे तीसरे मित्र ने शरारत की और उसको उकसाने के अंदाज में कहा कि लगता है कि तुम्हारे पास भी नाम खत्म हो गए हैं। जो लगभग चुप हो गया था वो फिर से मैदान में आ गया, बोला अभी अशोक वाजपेयी ने युवा सम्मेलन किया जाकर लेखकों की सूची देखो, उनकी उम्र देखो और उनकी रचनाएं देखो आपको स्वयं अंदाज हो जाएगा। एक जमाना था जब हिंदी के लेखक युवावस्था में विपुल लेखन कर रहे थे। व्यंग्यात्मक लहजे में उसने कहा कि आपलोगों ने रांगेय राघव का नाम सुना होगा, भारतेन्दु और प्रेमचंद को जानते होंगे। जरा जाइए उनकी उम्र और रचनाओं की संख्या और स्तर देख लीजिए आपको अंदाज हो जाएगा। रांगेय राघव को 39 साल की आयु मिली और कितना लिखा, प्रेमचंद को 56 साल की उम्र मिली, भारतेन्दु 34 साल की उम्र में चले गए। हम दोनों खामोशी से उसको सुन रहे थे। वो बोले जा रहा था। उसने कहा कि सोशल मीडिया पर जारी शोरगुल की वजह से उसने तीन किताबें पढ़ी है, गौरव सोलंकी का कहानी संग्रह ग्यारहवीं ए के लड़के, हिमांशु वाजपेयी की पुस्तक किस्सा किस्सा लखनउवा और अविनाश मिश्र का नए शेखर की जीवनी। उसकी राय थी कि ये तीनों रचनाएं बेहद कमजोर हैं। मैंने उनसे पूछा कि कैसे आप इस निष्कर्ष पर पहुंचे तो उसने तमाम वजहें गिनाईं। मेरी सहमति नहीं थी लेकिन वो अपनी बात पर कायम था। मैंने ये कहकर जान बचाई कि ना वो भविष्य जानता है और ना ही हम।
इस चर्चा में चाहे मेरे मित्र की उत्तेजना हावी हो लेकिन उसने कई ऐसी बातें कहीं जिनपर हिंदी साहित्य के लोगों को विचार करना चाहिए। करना होगा भी। उसने सोशल मीडिया पर शोर मचाकर स्थापित होने की जिस प्रवृत्ति को रेखांकित किया उसमें दम तो है। ऐसे कई लेखक तो हैं जो अपनी रचनात्मकता की वजह से नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर गिरोहबाजी की वजह से साहित्य की दुनिया में अपने डटे होने का एहसास करवाते हैं। पर हिंदी का साहित्य समाज फेसबुक से कहीं अधिक विस्तृत है। फेसबुक आदि पर तत्काल सफलता मिलती दिख सकती है लेकिन वो स्थायी होगी, इसमें मुझे भी संदेह है।


Friday, October 11, 2019

किरदार को लेकर बेवजह विवाद


कई बार फिल्मों पर उठ रहे विवादों को देखने के बाद लगता है कि ये विवाद आखिरकार हुआ क्यों? इसके पीछे कहीं प्रचार पाने की मंशा तो नहीं है। फिल्म से जब अनुराग कश्यप का नाम जुड़ा हो तो किसी भी तरह के विवाद की उम्मीद की जा सकती है क्योंकि अनुराग इस फन में माहिर हैं। वो किसी भी मसले पर विवाद खड़ा कर सकते हैं। ऐसा ही एक विवाद दीवाली पर रिलीज होनेवाली फिल्म सांड की आंख को लेकर उठा है। इस फिल्म में तापसी पन्नू और भूमि पेडणेकर ने बड़ी उम्र की शूटर दादी के नाम से मशहूर चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर की भूमिका की है। विवाद इस बात को लेकर उठा है कि तापसी और भूमि अपने से अधिक उम्र की महिलाओं के रोल क्यों कर रही हैं। आश्चर्यजनक किंतु सत्य कि इसके पक्ष और विपक्ष में फिल्म इंडस्ट्री के कुछ गंभीर और अगंभीर दोनों तरह के लोगों ने भी अपनी राय और प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। दरअसल ये बेवजह का विवाद है क्योंकि यह एक कलाकार और फिल्मकार के बीच का मसला है कि वो कौन सी भूमिका करना या करवाना चाहता या चाहती है। एक कलाकार के लिए यह तो बेहद चुनौतीपूर्ण है कि वो अपने से अधिक उम्र के व्यक्ति का किरदार कैसे निभाए। युवा होकर अपने से दोगुने उम्र के चरित्र के हिसाब से अभिनय करना और उस चरित्र को जीवंत कर देना चुनौती भरा हो सकता है। हिंदी फिल्मों में जिस तरह से नायिकाएं अपनी छवि और ग्लैमर को लेकर सजग रहती हैं उसमें तो अनी से बड़ी उम्र के किरदार को पर्दे पर उतारना जोखिम भरा भी माना जा सकता है। लेकिन बेहतर कलाकार तो वही जो खतरा और जोखिम दोनों उठाने के लिए तैयार रहे। वैसे भी हिंदी फिल्मों में तो कई बार ऐसा हुआ है कि अभिनेताओं ने अपने से अधिक उम्र के किरदार को अभिनीत किया है और वो किरदार अमर हो गया है। फिल्म मदर इंडिया में नरगिस का किरदार कौन भूल सकता है। जब नर्गिस ने फिल्म मदर इंडिया किया था तो वो तीस साल की भी नहीं हुई थीं। हिंदी फिल्म का अमर किरदार है वो। इसी तरह से सारांश फिल्म में अनुपम खेर ने बुजुर्ग का रोल किया था और उसी रोल ने ना केवल अनुपम को पहचान दी थी बल्कि उनको स्थापित भी किया था। शबाना आजमी और स्मिता पाटिल ने भी बुजुर्ग महिलाओं का रोल किया है।
इस विवाद को देखते हुए एक सवाल मन में उठता है कि इस तरह का बेवजह का विवाद कभी अभिनेताओं को लेकर क्यों नहीं उठता है। राजू हीरानी की फिल्म थ्री इडियट्स में आमिर खान ने छात्र की भूमिका निभाई थी तब तो किसी ने नहीं कहा कि उस दौर में कम उम्र के अभिनेताओं को वो रोल करना चाहिए था। सैकड़ों ऐसी फिल्में बनी हैं जिसमें पचास के आसपास के अभिनेताओं ने कमउम्र के नायक का रोल किया है। सवाल यह उठता है कि इस तरह के विवाद अभिनेत्रियों को लेकर ही क्यों उठते हैं?क्या इसके पीछे भी हमारे समाज में हावी पितृसत्तात्मक सोच है जो महिलाओं को लेकर अब भी सहज नहीं हो पाई है और जब भी इस तरह का कोई चुनौतीपूर्ण कार्य सामने आता है तो किसी ना किसी बहाने से उकी आलोचना शुरू हो जाती है या उसको विवादों के घेरे में ले लिया जाता है। इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश करनी चाहिए।  

बंद गली का आखिरी मकान


मशहूर लेखक धर्मवीर भारती के एक कहानी संग्रह का नाम है बंद गली का आखिरी मकान। भारती के इस कहानी संग्रह की काफी चर्चा हुई। एक जमाने में उस पुस्तक जितनी ही चर्चा हुई थी दिल्ली के दरियागंज इलाके के एक बंद गली के आखिरी मकान की। ये मकान था साहित्यिक पत्रिका हंस का कार्यालय। 1990 के बाद के कई वर्षों में ये मकान दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र बन गया था। अंसारी रोड के इस मकान में हंस के संपादक और अपने जमाने के मशहूर कथाकार राजेन्द्र यादव बैठते थे। यहीं से वो हंस पत्रिका का संपादन किया करते थे। दोपहर बाद दफ्तर पहुंचते थे और उनके दफ्तर पहुंचते ही साहित्यिक रुचि के लेखकों का जमावड़ा शुरू हो जाता था। उस जमाने में तो यहां तक कहा जाता था कि जो लेखक दिल्ली आता था वो एक बार दरियागंज की इस गली में अवश्य आता था। संपादक के कमरे में काम कम अड्डेबाजी ज्यादा होती थी। काम तो पीछे वाले कमरे में सहायक संपादक और बगल वाले कमरे में हंस के सहयोगी स्टाफ करते थे। यादव जी के कमरे में अनौपचारिक गोष्ठियां हुआ करती थी। पूरे देशभर के साहित्याकारों की चर्चा होती थी, कौन क्या लिख रहा है, कौन क्या कर रहा है, कहां क्या सेंटिंग हो रही है आदि आदि। इन विषयों पर खुलकर चर्चा होती थी। इसी बीच कई रचनाकार अपनी रचनाएँ लेकर यादव जी के कमरे में आते जाते रहते थे। राजेन्द्र यादव उनसे उनकी रचनाएँ लेते थे, उनका हाल चाल पूछते और अगर रचनाकार दिल्ली के बाहर का होता तो उसके शहर के बारे में जानकारी हासिल करते।
उन दिनों हिंदी साहित्य में ये चर्चा आम थी कि सभी साहित्यिक साजिशें बंद गली के उसी मकान में रची जाती थी। लेखकों को उठाने गिराने के खेल का ताना-बाना वहीं बुना जाता था। ऐसा नहीं था कि वहां सिर्फ साजिशें ही रची जाती थी, ये राजेन्द्र यादव का एक स्टाइल भी था कि वो इन चर्चाओं से कई रचनात्मक चीजें निकाल लिया करते थे। राजेन्द्र यादव ने जब दलित और स्त्री विमर्श की शुरुआत की थी तो उसके पीछे भी हंस कार्यालय में होनेवाली अनौपचारिक चर्चाओं का बड़ा हाथ था। उन्हीं चर्चाओं में एक दिन मराठी में दलित साहित्य पर चर्चा हो रही थी तो उसी चर्चा में ये बात निकली थी कि हिंदी में दलित लेखन की स्थिति क्या है। विमर्श के माहिर राजेन्द्र यादव ने फौरन उसमें संभावना भांप ली और तत्काल दलित विमर्श की शुरुआत कर दी। हंस के कार्यालय में स्थापित से लेकर नवोदित लेखिकाओं का भी खूब आना जाना होता था। यादव जी अपनी आदत के मुताबिक सबसे हंसी मजाक किया करते थे। लेखिकाओं की एक टोली के साथ की चर्चा से ही स्त्री विमर्श का स्वर प्रसफुटित हुआ था। हिंदी के दो प्रमुख विमर्श दलित और स्त्री विमर्श की शुरुआत अंसारी रोड, दरियागंज की एक गली के आखिरी मकान से हुई थी। इल मकान ने हिंदी साहित्य की ना केवल बहुत सारी घटनाएं देखी बल्कि कई लेखक-लेखिकाओं को सफलता के शिखर पर पहुंचते हुए भी देखा। राजेन्द्र यादव के निधन के बाद हलांकि ये मकान भी है, औपचारिक गोष्ठियां भी होती हैं लेकिन वो वैचारिक या रचनात्मक उष्मा नहीं दिखाई देती है। धीरे-धीरे दरियागंज की गली का ये मकान सृजनात्मक रूप से सूना होने लगा है।

Saturday, October 5, 2019

राजनीति का औजार बनते वेब सीरीज


इन दिनों हमारे देश में वेब सीरीज की जमकर चर्चा हो रही है। एक तरफ तो इस प्लेटफॉर्म ने कलाकारों के लिए अभिनय और कमाई का नया क्षितिज खोला है तो दर्शकों के लिए भी एक ऐसी दुनिया सामने आ रही है जहां किसी तरह की कोई बंदिश नहीं है, पाबंदी नहीं है। कल्पना का खुला आकाश है जहां विचरण करने की पूरी छूट है। निर्माताओं और निर्देशकों के लिए मुनाफे का नया द्वार खुला है। कलाकारों, कहानीकारों, फिल्मकारों को काफी पैसे मिल रहे हैं, कई बार तो अभिनेताओं को फिल्म से ज्यादा पैसे वेब सीरीज में काम करने के लिए मिलने की खबरें आती हैं। ऐसी ही एक खबर सैफ अली खान के बारे में आई थी कि उन्होंने सेक्रेड गेम्स करने के लिए एक फिल्म के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। कला के क्षेत्र में इसको एक सुखद स्थिति के तौर पर देखा जा सकता है। सुखद इसलिए कि कलाकारों को अपनी कल्पना को पंख लगाने का एक प्लेटफॉर्म मिल रहा है जहां उनकी कल्पना की उड़ान को बाधित करने के लिए किसी सेंसर या प्रमाणन की कानूनी बाध्यता नहीं है। कोई सिनेमेटोग्राफी एक्ट उनपर लागू नहीं होता है। लेकिन कई बार ये देखा गया है कि पाबंदी या बंदिश या पाबंदी के कानून आदि की अनुपस्थिति में स्थितियां अराजक हो जाती हैं। इन दिनों जिस तरह के वेब सीरीज आ रहे हैं उसमें कई बार कलात्मक आजादी या रचनात्मक स्वतंत्रता की आड़ में सामाजिक मर्यादा की लक्ष्मण रेखा ना केवल लांघी जाती है बल्कि इस रेखा को मिटाकर नई रेखा खींचने की एक कोशिश भी दिखाई देती है। इस बात पर बहस हो सकती है कि कलाकारों की स्वतंत्रता या उनकी कल्पनाशीलता को किस हद तक छूट दी जा सकती है। रचनात्मक आजादी पर जितनी बहस आवश्यक है उतनी ही व्यापक बहस इस बात पर भी होनी चाहिए कि इस आजादी की सीमा क्या हो। हमारे देश की अदालतों ने कई बार इसको परिभाषित भी किया है, चाहे वो एम एफ हुसैन का केस हो या तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन का केस या फिर एक पुस्तक में गांधी के बारे में लिखी गई भाषा का केस हो।
दो हजार चार में एम एफ हुसैन से संबंधित एक केस में दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जे डी कपूर ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। उस फैसले में साफ तौर पर ये कहा गया था कि अभिव्यक्ति की आजादी को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है जो कि हर नागरिक के लिए अमूल्य है। कोई भी कलाकार या पेंटर मानवीय संवेदना और मनोभाव को अलग अलग तरीकों से अभिव्यक्त कर सकता है। इन मनोभावों को अभिव्यक्ति की किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है। लेकिन कोई भी इस बात को भुला नहीं सकता है कि जितनी ज्यादा स्वतंत्रता होगी उतनी ही ज्यादा जिम्मेदारी भी होगी। अगर किसी को अभिव्यक्ति का असमीमित अधिकार मिला है तो उससे ये अपेक्षा की जाती है कि वो इस अधिकार का उपयोग अच्छे कार्य के लिए करे ना कि किसी धर्म या धार्मिक प्रतीकों या देवी-देवताओं के खिलाफ विद्वेषपूर्ण भावना के साथ उन्हें अपमानित करने के लिए करे। यही बात इन वेब सीरीज पर भी लागू होती है। उन्हें कलात्मक आजादी के नाम पर असीमित अधिकार मिला है तो उनसे अपेक्षा भी अधिक है कि वो कलात्मक आजादी के नाम पर अराजक ना हो जाएं। हमारे देश में जब वेबसीरीज का जोर बढ़ने लगा तो इसपर भी बहस तेज होने लगी।  अगर सूक्ष्मता से इसके कंटेंट को देखें या इनके संवाद पर नजर डालें तो कई बार बेहद आपत्तिजनक बातें सामने आती हैं।
हाल ही में अमेजन के प्राइम वीडियो प्लेटफॉर्म पर एक वेब सीरीज आई जिसका नाम है द फैमिली मैन । ये वेब सीरीज यहां चार भाषाओं में उपलब्ध है। मनोज वाजपेयी इस सीरीज में मुख्य भूमिका में हैं। इस सीरीज को अगर कला की कसौटी पर भी कसें तो कमजोर नजर आती है। बहुत लंबा और उबाऊ। ये अलग विषय है। जिस चीज पर चर्चा होनी चाहिए वो ये है कि इस सीरीज में साफ तौर पर आतंकवाद को जस्टिफाई करने की कोशिश दिखाई देती है। 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक दंगा हुआ, उसमें एक परिवार के कई लोग मारे गए। उसकी प्रतिक्रिया में या उसका बदला लेने के लिए एक मुस्लिम युवक आतंकवादी बन जाता है। हमेशा प्रतिक्रियास्वरूप मुस्लिम युवक को ही क्यों आतंकवादी बनते दिखाया जाता है? दरअसल आतंकवादी बनना एक मानसिकता है उसको धर्म से नहीं जोड़ा जाना चाहिए लेकिन ये एक चलन चल गया है कि मुस्लिमों पर अत्याचार होगा तो वो आतंकवादी बनेगा और हिंदुओं पर अत्याचार होगा तो वो अपराधी बन जाएगा। अब यह भी एक तरह की मानसिक सांप्रदायिकता है। नेटफ्लिक्स पर सेक्रेड गेम्स सीजन टू में एक अपराधी पुलिसवाले को कहता है कि इस देश में मुसलमानों को पकड़ने के लिए किसी वजह की जरूरत नहीं होती। द फैमिली मैन में भी उसी तरह का एक संवाद है जहां एक पात्र कहता है कि मुसलमान हूं इसलिए उठा लाए हो ना। अब ये क्या है? ये कौन सी कलात्मक स्वतंत्रता के दायरे में आता है। क्या ये समाज को बांटनेवाला नहीं है? संवादों के जरिए एक समुदाय विशेष के मन में भारतीय व्यवस्था के खिलाफ जहर नहीं भरा जा रहा है। इस तरह के दर्जनों उदाहरण इन वेब सीरीज को खंगालने पर आपको मिल सकते हैं, जहां व्यवस्था के खिलाफ परोक्ष रूप से एक समुदाय विशेष को भड़काया जा रहा है। इसी तरह से कश्मीर के हालात को लेकर राजनीतिक टिप्पणियां हैं। राजनीतिक टिप्पणियों से किसी को कोई आपत्ति नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए, लेकिन जब वो टिप्पणियां किसी राजनीति का या एजेंडा का हिस्सा हो जाती हैं तो उसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है।
द फैमिली मैन में एक और दिलचस्प प्रसंग है। आतंकवादी के बारे में सूचना देनेवाले तो दस लाख रुपए का इनाम देने की घोषणा है। एक व्यक्ति जानकारी लेकर आता है और अफसर से पूछता है दस लाख दोगे ना? वो कहता है सरकार का फैसला है, जरूर मिलेगा। जानकारी लेकर आया व्यक्ति क्या कहता है जरा सुनिए, पंद्रह लाख देने का भी तो वादा था, वो तो मिला नहीं, उसी चक्कर में मैंने बैंक में खाता भी खुलवा लिया। राजनीतिक फैसलों की आलोचना का, उसका मजाक उड़ाने का अधिकार सबको है लेकिन आतंकवादी के बारे में सूचना देनेवाले को इनाम की घोषणा और एक राजनैतिक रैली में दिए गए बयान को एक साथ रखकर क्या कहना चाहते हैं? इससे वेब सीरीज के निर्माताओं की सोच का पता चलता है। हमारे देश में एक से बढ़कर एक राजनीतिक व्यंग्य लिखे गए लेकिन किसी में इस तरह की तुलना की गई हो, ध्यान नहीं पड़ता।
पहले हिंदू धर्म की कुरीतियों में काल्पनिकता की छौंक लगाकर उसको मुख्य आधार बनाकर पेश करना, फिर समाज को बांटने की बात करना, देश की व्यवस्था के खिलाफ मन में जहर भरना और अब परोक्ष रूप से राजनीतिक टिप्पणियों से मौजूदा सरकार के खिलाफ जनता के मन में अविश्वास पैदा करना ये वो कारक हैं जिसके आधार पर वेब सीरीज को नियमन के दायरे में लाने का आधार तैयार होता है। इसके अलावा हॉट स्टार जैसे प्लेटफॉर्म पर गेम ऑफ थ्रोन्स जैसा सीरीज चला उसकी ओर भी ध्यान जाना चाहिए। जिस तरह से वैश्विक श्रृंखला के नाम पर नग्नता और जुगुप्साजनक हिंसा को दिखाया गया उसपर भी सख्ती से विचार किया जाना चाहिए। विचार तो इस बात पर भी किया जाना चाहिए कि क्या हमारा समाज अभी इस तरह की नग्नता के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए तैयार है। इसके पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि ये फिल्मों से अलग हटकर है और निजी तौर पर देखा जाता है लेकिन क्या इन प्लेटफॉर्म पर कोई इस तरह की व्यवस्था है कि वो देखनेवाले से उनकी पसंद पूछे। उनकी उम्र पूछे। एक बार जिसने सब्सक्रिप्शन ले लिया वो देख सकता है। वेब सीरीज के कोने में छोटा सा अठारह प्लस और हिंसा और भाषा की चेतावनी देकर भयंकर खूनखराबा दिखाना, हर वाक्य में गाली-गलौच और यौनिक दृश्यों का प्रदर्शन उचित प्रतीत नहीं होता। इन सबके पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि ये सीरीज फलां पुस्तक पर आधारित है और उसमें वैसा है इस वजह से वैसा दिखाया गया है। या बातचीत में भी तो गाली का उपयोग होता है आदि आदि। इन फिल्मकारों को ये समझाना होगा कि जीवन को जस का तस उठाकर फिल्मों में नहीं रखा जा सकता है, जीवन जैसा कुछ दिखा सकते हैं। सरकार को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए और अगर स्व-नियमन से बात नहीं बन रही है तो सभी के साथ मिल बैठकर इसको किसी संवैधानिक नियमन के दायरे में लाने पर गंभीरता से आगे बढ़ना चाहिए। अन्यथा कलात्मक आजादी के नाम पर अराजकता बढ़ती जाएगी।