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Saturday, February 20, 2010

अभिवयक्ति की अराजकता

साहित्य अकादमी के पुरस्कार वितरण समारोह में कुछ हिंदू सगंठनों के विरोध से साहित्यिक जगत में तूफान उठ खड़ा हुआ है । प्रगतिवाद और जनवाद के तथाकथित ठेकेदार इसको लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भगवा हमला करार दे रहे हैं । इन बयानवीर जनवादियों को समारोह के दौरान हुए विरोध प्रदर्शन में फासीवाद की आहट भी सुनाई दे रही है । लेकिन किसी भी विरोध पर हल्ला मचानेवाले ये प्रगितवादी लेखक यह भूल जाते हैं कि विरोध और विवाद के पीछे की वजह क्या है । दरअसल इस विवाद के पीछे पूर्व सांसद और लेखक वाई लक्ष्मी प्रसाद का उपन्यास द्रौपदी है, जिसपर उन्हें इस वर्ष साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है । इस उपन्यास में लक्ष्मी प्रसाद ने द्रौपदी के चरित्र और कृष्ण से उसके संबंधों को कल्पना के आधार पर एक बेहद घिनौना रूप दिया है । भारतीय जनमानस में महाभारत और उसके पात्रों को लेकर सदियों से एक स्थापित मान्यता है । हिंदू जनमानस में द्रोपदी को सम्मान और श्रद्धा की नजर से देखा जाता है । लेकिन लक्ष्मी प्रसाद ने पौराणिक आख्यानों के आधार पर बुनी गई या स्थापित द्रौपदी की छवि को ध्वस्त करने की घृणित कोशिश की है । अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर पौराणिक आख्यानों या फिर धार्मिक चरित्रों के साथ छेड-छाड़ की इजाजत किसी भी लेखक को नहीं है । मिथकों की जड़े लोकमानस में बहुत गहरी और व्यापक हैं इस वजह से रचनाकार से विवेकपू्र्ण सतर्कता अपेक्षित है । हर मिथक और प्रतीक की एक संभावना होती है, उस संभावना की दिशा में ही लेखक को उसका इस्तेमाल करना चाहिए और एक सीमा के बाद उसे विरुपित नहीं किया जाना चाहिए । जिस लेखक को मिथक की विराटता में अपनी क्षुद्रता भरनी हो उसे मिथक का इस्तेमाल सृजनात्मक लेखन में नहीं करना चाहिए ।
सृजनात्मक लेखन में अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जहां धार्मिक प्रतीकों, पौराणिक मिथकों या फिर धार्मिक चरित्रों का इस्तेमाल किया गया है । ईसा, राम, कृष्ण, द्रौपदी, सीता, अहिल्या कर्ण आदि अनेक पात्रों का उपयोग हिंदी के कई लेखकों ने किया है । आधुनिक हिंदी काव्य की दो बड़ी रचनाएं कामायनी और राम की शक्ति पूजा पौराणिक धार्मिक मिथकों को आधार बनाकर मानवीय और राष्ट्रीय संदर्भों में उनकी युगीन व्याख्या करते हैं । शिवाजी सावंत ने अपने उपन्यास मृत्युंजय में कर्ण को समूची पीड़ित, दलित और शोषित जनता का प्रतीक बना दिया है । रांगेय राघव के अलावा भी कई प्रगतिशील लेखकों ने अपने लेखन में पौराणिक और धार्मिक प्रतीकों का उपयोग किया है, लेकिन इन सभी लेखकों ने प्रचलित और स्थापित मान्यताओं के खिलाफ जाकर किसी का भी चरित्र हनन नहीं किया है । तर्कसंगत तरीके से उनके व्यक्तित्व की कमियों को उजागर अवश्य किया है । हर युग में कवियों ने भी पौराणिक मिथकों को नए ढंग से रचा है । तुलसीदास जो रामकथा में पाते हैं वो नरेश मेहता नहीं पाते । सूरदास के यहां जो कृष्णकथा है वो धर्मवीर भारती के यहां नहीं है । अमेरिका में हॉवर्ड फास्ट ने भी पौराणिक और ऐतिहासिक प्रतीकों का उपयोग किया है लेकिन उनके संदर्भ बेहद आधुनिक हैं ।
लेकिन लक्ष्मी प्रसाद की इस कृति के समर्थन में खडे होकर एक बार फिर से इन प्रगतिवादी और जनवादियों का दोहरा चरित्र उजागर हुआ है । अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर कुछ लेखकों ने हिंदू धर्म, उसकी मान्यताएं और उनके देवी देवताओं पर किसी भी तरह की टिप्पणी की स्वतंत्रता ले रखी है । राजेन्द्र यादव कभी हनुमान को आतंकवादी कह देते हैं, एफएम हुसैन भारत माता की नंगी तस्वीर बना देते हैं । जब इनका विरोध होता है तो उसपर छाती पीटते हैं और देश पर संकटकाल की डुगडुगी बजाते हैं । क्या इन लेखकों में हिम्मत है कि वो इस्लाम या मोहम्मद साहब के बारे में कुछ लिख सकें । क्या एम एफ हुसैन में यह हिम्मत है कि जिस तरह की पेंटिंग वो हिंदू देवी-देवताओं की बनाते हैं उसी स्वतंत्रता के साथ वो इस्लाम धर्म से जुड़े पात्रों या चरित्रों का चित्रण कर सकें । सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन ने इस्लाम के खिलाफ लिखने की हिम्मत दिखाई तो आज उनकी स्थिति किसी से छुपी नहीं है । सलमान भारी सुरक्षा के बीच जिंदगी बिता रहे हैं और तसलीमा दर-बदर की ठोकरें खा रही हैं । अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब कि एक डेनिश कार्टूनिस्ट ने पैगंबर साहब का कार्टून बना दिया था । नतीजा यह हुआ कि अल कायदा तक के लोग उसकी जान के पीछे पड़ गए थे । भारत में भी एक पत्रिका के संपादक और उसके मालिक को इस कार्टून को छापने पर जेल की हवा खानी पड़ी थी । तब तो किसी भी प्रगतिशील लेखक को अभिवयक्ति की स्वतंत्रता की याद नहीं आई थी । मेरा सवाल सिर्फ इतना सा है कि ये जो जनवाद और प्रगतिवाद का झंडा बुलंद करनेवाले लेखक और प्रोफेसर हैं वो बार-बार हिंदुओं की सहिष्णुता की परीक्षा क्यों लेना चाहते हैं । इन जैसे दोहरे चरित्र के लोगों की वजह से ही हिंदुओं का मन खट्टा होता है और उनमें कट्टरता बढ़ती है और समाज में वैमनस्यता फैलती है । कोई भी चीज अगर गलत है तो इसका आधार तो समान रूप से हर समुदाय और धर्म के लोगों पर लागू होता है या फिर हिंदुओं के लिए अभिव्यक्ति की आजादी का आधार कुछ और होता है और इन्य समुदाय के लोगों के लिए कुछ और ।
किसी भी कृति में मिथक या धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल वहां तक ही ठीक होता है जहांतक वो मनुष्य के अंतर्जगत को व्याख्यायित कर सके या फिर मनुष्यों के आपसी संवंधों को एक नई दिशा दे सके । अभिव्यक्ति के आजादी के नाम पर अभिवयक्ति की अराजकता की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती है । साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है और प्रगतिशील लेखकों ने ही इस पर दक्षिणपंथी होने का आरोप जड़ा था लेकिन अब वही जनवादी और प्रगतिवादी लेखक और संगठन साहित्य अकादमी के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं । ये तो जनवाद की मौकापरस्ती का एक ताजा नमूना है, इतिहास में इसके सैकड़ों उदाहरण हैं । अब वक्त आ गया है कि इन लोगों और संगठनों को अपने गिरेबां में झांककर आत्ममंथन करना चाहिए । अगर ये समय रहते नहीं चेते तो अभी तो सिर्फ अप्रासंगिक हुए हैं, आनेवाले दिनों में वो इतिहास के पन्नों में भी जगह नहीं पा सकेंगे

Thursday, February 18, 2010

निराशा की किरण

भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है , भारत विकास कर रहा है, आनेवाले कुछ वर्षों में भारत विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगी, विश्व मंच पर भारत की बात गंभीरता से सुनी जाने लगी है, आदि-आदि जाने कितनी बातें पढ़ते सुनते जानते यह लगता है कि देश सचमुच तरक्की कर रहा है, हम मजबूत हो रहे हैं । सरकार भी इस बात का एहसास कराने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती कि देश की जनता खुशहाल हो रही है और सरकार आम आदमी का ध्यान रख रही है । लेकिन देश के प्रधानमंत्री के आवास और कार्यालय से तकरीबन बीस किलोमीटर की दूरी पर औसतन हर दो दिन पर मानसिक रूप से बीमार रोगी बेहतर इलाज और रहन सहन के आभाव में दम तोड़ रहे हैं । राजधानी दिल्ली में मानसिक रूप से बीमार लोगों की आश्रय स्थली आशा किरण में लगातार हो रही मौत से विकास और खुशहाली के सारे दावों की पोल खुल रही है । दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार चाहे लाख दावे करे लेकिन राजधानी में लगभग दो महीने में 26 मंदबुद्धि और मानसिक रूप से कमजोर और बीमार लोगों की मौत ने उनकी सरकार की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए है । दिल्ली सरकार के समाज कल्याण मंत्रालय की यह जिम्मेदारी है कि वो ये सुनिश्चित करे कि मानसिक रूप से बीमार लोगों को पर्याप्त सुविधाएं मिले । लेकिन आशा किरण होम में क्षमता से दुगने मरीज ठूंस दिए गए हैं, और भ्रष्टाचार की वजह से उनके रहन सहन और बीमारी के इलाज की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है । हर मौत के बाद जब सवाल खड़े होते हैं तो जांच की बात कर सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है । देश की राजधानी दिल्ली में मानसिक रूप से बीमार लोगों की यह हालत है तो देश के अन्य इलाकों और सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में इन रोगियों की हालत क्या होगी आप अंदाजा लगा सकते हैं ।
दरअसल ऐसा करके शीला दीक्षित की सरकार संविधान का भी अनादर कर रही है । देश के संविधान की प्रस्तावना भारतवासियों को समानता का अधिकार प्रदान करती है । संविधान साफ तौर पर यह कहता है कि धर्म, जाति, जन्म स्थान, लिंग के आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं किया जा सकता है । राइट टू लिव विद डिगनिटी भी भारतवासी का अधिकार है । और सरकार को इन अधिकारों को सुरक्षित करना है । प्रतिष्ठापूर्वक जीवन के अधिकार की गारंटी सिर्फ भारतीय संविधान ही नहीं बल्कि कई अंतराष्ट्रीय संधियां भी देती है । अस्सी के दशक में मानसिक रूप से बीमार लोगों के अधिकारों को लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर जोरदार मुहिम चली थी । नतीजा यह हुआ कि संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा ने मानसिक रूप से बीमार लोगों को सम्मानपूर्व जीने के अधिकारो को लेकर एक घोषणा पत्र को मंजूरी दी । इस घोषणा-पत्र की धारा पच्चीस के मुताबिक हर व्यक्ति को बेरोजगारी, बीमारी, विकलांगता, बुढापा या फिर कोई ऐसी वजह जिसपर उसका नियंत्रण ना हो, की हालात में जीने के अधिकार की सुरक्षा दी जाएगी । और संयुक्त राष्ट्र के सदस्य होने के नाते हमारे देश पर भी इसे लागू करने की जिम्मेदारी है । लेकिन दिल्ली सरकार देश के संविधान के साथ-साथ अंतराष्ट्रीय मानकों की भी धज्जियां उड़ा रही है ।
मानसिक रोग एक ऐसी ही परिस्थिति है जिसमें बीमार व्यक्ति को यह नहीं पता होता है कि वो क्या और क्यों कर रहा है । उसे एक ऐसे वातावरण की जरूरत होती है जहां वो अपने आपको सहज और सुरक्षित महसूस कर सके । इसी तरह के वातावरण के निर्माण के लिए बनाए गए आशा किरण में इन रोगियों को सिर्फ निराशा की किरण ही नजर आती है । मानसिक रूप से बीमार लोगों को लेकर सरकार बेहद सवंदनहीन रहती है और वोट बैंक की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों को भी इन मंदबुद्धि लोगों की पीड़ा का एहसास तक नहीं होता है । हमारा समाज भी इनके प्रति बहुधा उदासीन ही रहता है और मंदबुद्धि और मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति को परिवार पर बोझ समझा जाता है । उन्हें पागल मानकर मानसिक आरोग्यशाला में भर्ती करवाकर परिवार के लोग जैसे छुटकारा पाना चाहते हैं जबकि उन्हें यह नहीं मालूम कि अगर मानसिक रूप से बीमार मरीज अपने घर में रहेगा तो उसमें सुधार जल्द आने की संभावना बढ़ जाती है । यहां हम याद दिलाते चलें कि रामनाथपुरम के पास दिमागी तौर पर बीमार लोगों के एक हॉस्टल में लगी आग में 25 मरीज जिंदा जल कर मर गए थे, क्योंकि उनकी मानसिक स्थिति के मद्देनजर रात में उन्हें बिस्तर से बांध दिया जाता था । इसलिए जब आग लगी तो लोहे की जंजीर में जकड़े ये मरीज बिस्तर पर ही खाक हो गए ।
आज जरूरत इस बात की है कि सरकार इस तरह के बीमार लोगों के प्रति संवेदनशीव रवैया अपनाए और उन्हें हर तरह की सुरक्षा की गारंटी देने का इंतजाम करे । अगर ऐसा नहीं होता है तो विकास और सामाजिक बदलाव की बात बेमानी और हवाई ही रहेगी ।
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Thursday, February 11, 2010

कांग्रेस का नया अर्जुन

आजादी के बाद के चुनावों में उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के वोट कमोबेश कांग्रेस पार्टी को ही मिलते रहे हैं । सन बानवे में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ और उसका वोट कांग्रेस की झोली से निकलकर मुलायम के पास पहुंच गया । लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के वक्त उत्तर प्रदेश के मुखयमंत्री रह चुके पूर्व भाजपा नेता कल्याण सिंह को अपना सहयोगी बना लिया । लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया कि मुलायम के लिए कल्याण की यह दोस्ती भारी पड़ी । उत्तर प्रदेश में ढाई साल बाद एक बार फिर से विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं और लोकसभा चुनावों में पार्टी की सफलता से उत्साहित कांग्रेसियों की नजर एक बार फिर से मुस्लिम मतदाताओं पर है । पार्टी नेताओं को यह लगने लगा है कि अगर मुसलमानों को एक बार फिर से साध लिया गया तो प्रदेश में मरणासन्न पार्टी को नई संजीवनी मिल सकती है ।
अपनी इसी योजना को लेकर पार्टी के उत्तर प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह आजमगढ़ के संजरपुर पहुंचते हैं । संजरपुर वो कस्बा है जहां के कुछ युवकों पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगता रहा है । वहां पहुंचकर दिग्विजय सिंह को अचानक दिल्ली ब्लास्ट के बाद हुए बटला एनकाउंटर की याद आती है । स्थानीय लोगों का जोरदार विरोध और काले झंडे के बावजूद जब दिग्विजय सिंह को बोलने का मौका मिला तो उन्होंने एक शातिर राजनेता की तरह लोगों की दुखती रग पर हाथ रख दिया । इशारों-इशारों में बटला हाउस एनकांउटर के फर्जी होने की बात कर डाली । दिग्विजय ने कहा कि उन्होंने बटला हाउस एनकाउंटर के फोटोग्राफ्स देखे हैं जिनमें आतंकवादियों के सर में गोली लगी है । उनके मुताबिक दहशतगर्दों के खिलाफ एनकाउंटर में इस तरह से गोली लगना नामुमकिन है । जाहिर है इशारा और इरादा दोनों साफ था । दिग्विजय सिंह को अगर बटला हाउस एनकाउंटर की सत्यता पर संदेह था तो डेढ साल से चुप क्यों थे । संजरपुर पहुंचकर ही दिग्गी राजा को बटला हाउस की याद क्यों आई । आपको याद दिलाते चलें कि दो हजार आठ के सितंबर में दिल्ली के बटला हाउस इलाके में हुए एक एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस के जांबाज सिपाहियों ने दो आतंकवादियों को ढेर कर दिया था । आतंकवादियों से लड़ते हुए उस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के जांबाज इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा शहीद हो गए थे और एक हेड कांस्टेबल बुरी तरह से जख्मी हो गया था । दो साल पहले जब यह एनकाउंटर हुआ था, उस वक्त भी इसपर सवाल खड़े हुए थे । लेकिन बाद में अदालत और सरकारी जांच में ये साबित हो गया कि मुठभेड़ सही था ।
जब दिग्विजय सिंह संजरपुर में ये बयान दे रहे थे उसके दो दिन पहले यूपी एसटीएफ ने दिल्ली समेत कई शहरों में हुए बम धमाकों के आरोपी आतंकवादी शहजाद को धर दबोचा था । शहजाद ने इस सिलसिले में कई सनसनीखेज खुलासे भी किए और यह भी माना कि दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहनचंद शर्मा उसकी ही गोली का निशाना बने । लेकिन एनकाउंटर के फोटग्राफ्स को ध्यान से देखनेवाले कांग्रेस पार्टी के इस वरिष्ठ नेता को शहजाद के बयानों को पढने की फुर्त कहां । इन बातों से बेखबर दिग्विजय ने संजरपुर में बटला हाउस एनकाउंटर को ही संदेहास्पद करार दे दिया । ये इस एनकाउंटर में मारे गए शहीद मोहनचंद शर्मा का अपमान भी है ।
जाहिर था दिग्विजय सिंह के इस बयान के बाद सियासी गलियारों में हड़कंप मचा और भारतीय जनता पार्टी ने दिग्विजय सिंह के बहाने कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधा । आनन फानन में कांग्रेस ने दिग्विजय के बयान से खुद को अलग कर लिया । दरअसल कांग्रेस में अल्पसंख्यकों को लुभाने की यह चाल बहुत पुरानी है । एक जमाने में दिग्विजय सिंह के गुरू और उनके ही प्रदेश के कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह भी इस तरह के राजनीतिक दांव चला करते थे । एक जमाने में जब सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे उस वक्त अर्जुन सिंह ने अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए आरएसएस पर गांधी की हत्या का आरोप जड़ दिया था । जब आरएसएस ने कानूनी कार्रवाई की धमकी दी तो अर्जुन के तेवर नरम पड़े थे और बयान में संशोधन करते हुए कहा था कि संघ ने जो वातावरण तैयार किया था वही गांधी हत्या की वजह बना । लेकिन उस वक्त बयान देते वक्त अर्जुन सिंह यह भूल गए थे कि जस्टिस कपूर की रिपोर्ट, कांग्रेस के नेता डी पी मिश्रा की आत्मकथा और सरदार पटेल के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पत्रों में भी आरएसएस को गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया था । लेकिन अर्जुन सिंह अपने राजनैतिक लाभ के लिए गांधी की हत्या का इस्तेमाल करते रहे । लेकिन आरएसएस के तत्कालीन प्रवक्ता राम माधव ने अर्जुन सिंह को हकीकत का आईना भी दिखाया था । राम माधव ने बताया था कि अर्जुन सिंह के परिवार के संबंध संघ के साथ कितने गहरे रहे हैं और उनके भाई राणा बहादुर सिंह एक जमाने में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के जिला प्रमुख हुआ करते थे । लेकिन इन सबसे बेखबर अर्जुन सिंह ने अल्पसंख्यकों पर डोरे डालना नहीं छोड़ा ।
इसके बाद जब अर्जुन सिंह केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्री बने तो पाठ्य पुस्तकों को भगवा रंग से मुक्त करने की मुहिम के नाम पर भी अपनी राजनीति चमकाते रहे । इसपर भी जमकर विवाद हुआ था । जिसमें बाद में प्रधानमंत्री को दखल देना पड़ा था । अर्जुन सिंह ने एक वक्त अपने वक्तव्यों और सहयोगियों के साथ मिलकर ऐसा समां बांध दिया था कि लगने लगा था कि सेक्युलरिज्म के वो सबसे बड़े पैरोकार हैं । अपन बयानवीरता से उत्साहित अर्जुन सिंह यहीं नहीं रुके थे उन्होंने एक वक्तव्य में संघ और हिंदू महासभा को भारत के विभाजन का जिम्मेदार भी ठहरा दिया था । अर्जुन सिंह ने संघ पर इतिहास को गलत दिशा देने का आरोप भी जड़ा था । अल्पसंख्यकों को लुभाने के चक्कर में सिंह ने कई बचकाने तर्क दिए और यह भूल गए कि विभाजन का असली जिम्मेदार तो जिन्ना थे जिन्होंने द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत का ना केवल प्रतिपादन किया बल्कि उसको मूर्त रूप भी दिलवाया, जिसको कांग्रेस के नेताओं का भी मूक समर्थन प्राप्त था । द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत पर इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है विद्वानों ने जमकर लिखा है ।
अब अर्जुन सिंह अस्वस्थ हैं और पार्टी में उनकी कोई पूछ नहीं रह गई है । कांग्रेस में कोई बड़ा अल्पसंख्यक नेता भी नहीं है जिसपर पार्टी को ये भरोसा हो कि वो अपने समुदाय का वोट पार्टी को दिला सकता है । मौका माकूल देखकर दिग्विजय सिंह ने अपने गुरू अर्जुन सिंह की राह पर चलने का फैसला कर लिया प्रतीत होता है । दिग्विजय सिंह को इसके दो फायदे हो सकते हैं एक तो पार्टी में उसकी पूछ बढ़ जाएगी और दूसरे अगर खुदा ना खास्ते उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कोई फायदा होता है तो पार्टी आलाकमान की नजर में उनका ग्राफ भी उपर चढ़ जाएगा । कांग्रेस पार्टी में अपने प्रतिद्वदियों की राजनीति से राहुल के नाम के सहारे जूझ रहे दिग्गी राजा को अल्पसंख्यकों की पैरोकारी का ये फॉर्मूला बेहतर लगा और संजरपुर पहुंचकर उन्होंने इसकी शुरुआत कर दी । भविष्य में यह देखना और भी दिलचस्प होगा कि अल्पसंख्यकों के किन-किन मुद्दों पर दिग्विजय सिंह अपनी राय देते हैं और कांग्रेस उससे अपना पल्ला झाड़ लेती है । लेकिन दिग्विजय सिंह को यह याद रखना चाहिए कि अर्जुन सिंह के जमाने में राजनैतिक फिजां कुछ और थी और अब का राजनैतिक परिदृश्य अलहदा है । अब मुसलमानों को सिर्फ बयानबाजी से बरगलाना मुश्किल है उन्हें कुछ ठोस करके दिखाना होगा ।