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Wednesday, May 31, 2017

तुलसी और कबीर के निकष अलग

क्या यह संभव है कि एक कालखंड में या अलग अलग कालखंड में दो या तीन कवि महान हो सकते हैं? क्या एक कवि को दूसरे कवि के निकष पर कसना और फिर उनका मूल्यांकन करना उचित है ? एक कवि के पदों में से दो एक पदों को उठाकर उसको प्रचारित कर देना और दूसरे कवि के चंद पदों के आधार पर उनको क्रांतिकारी ठहरा देना कितना उचित है? पर हमारे देश के दो महान कवियों के साथ ये सब किया गया। तुलसीदास को नीचा दिखाने के लिए कबीर को उठाने का सुनियोजित खेल खेला गया। उपर जितने भी सवाल उठाए गए हैं अगर हम उनके उत्तर ढूंढते हैं तो यह खेल साफ हो जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक में तुलसीदास को लेकर अपनी मान्यताओं को स्थापित किया था। जब बीसबीं शताब्दी में हजारी प्रसाद द्विवेदी आए तो उनके सामने यह चुनौती थी कि वो खुद आचार्य शुक्ल से अलग दृष्टिवाले आलोचक के तौर पर खुद को स्थापित करें। खुद को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक था कि वो कोई नई स्थापना लेकर आते या पहले से चली आ रही स्थापनाओं को चुनौती देते । द्विवेदी जी के सामने शुक्ल जी की आलोचना थी जिसमें उन्होंने तुलसी को स्थापित किया था। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने माहौल के हिसाब से कबीर की व्याख्या की और उनको क्रांतिकारी कवि सिद्ध किया। इस क्रम में उन्होंने तुलसीदास को प्रत्यक्ष रूप से कमतर आंकने की कोशिश नहीं की, लेकिन तुलसीदास पर गंभीरता से स्वतंत्र लेखन नहीं करके उनको उपेक्षित रखा । कालांतर में हिंदी साहित्य में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्यों का साहित्य पर बोलबाला रहा और उन सब लोगों ने द्विवेदी जी की स्थपना को मजबूत करने के लिए कबीर को श्रेष्ठ दिखाने के लिए अलग अलग तरह से लेखन किया और तुलसी को उपेक्षित ही रहने दिया आ फिर जहां मौका मिला उनको नीचा दिखाने का काम किया। विनांद कैलवर्त ने अपनी पुस्तक- द मिलेनियम कबीर वाणी, अ कलेक्शन आफ पदाज़ में साफ तौर पर लिखा भी है- निहित स्वार्थों ने कबीर को बहुत जल्दी हथिया लिया। सत्रहवीं सदी में गोरखपंथियों और रामानंदियों से लेकर बीसीं शताब्दी में हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे ब्राह्मणों तथा अन्य सामाजिक समूहों तक ने कबीर का इस्तेमाल अपने अपने विचारधारात्मक उद्देश्यों और फायदों के लिए किया। संभव है कि विनांद कैलवर्त की स्थापनाएं अतिरेकी हों लेकिन इस बात से कहां इनकार किया जा सकता है कि कबीर का इस्तेमाल विचारधारात्मक उद्देश्यों और फायदों के लिए किया गया
कबीर को क्रांतिकारी दिखाने और तुलसी को परंपरावादी साबित करने की होड़ में कुछ क्रांतिकारी लेखकों ने तुलसीदास को वर्णाश्रम व्यवस्था का पोषक, नारी और शूद्र विरोधी करार देकर उनकी घोर अवमानना की। रामचरित मानस की एक पंक्ति ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी को पकड़कर तुलसी को कलंकित करने की कुत्सित कोशिश की गई। तुलसीदास की कविता की व्याख्या करनेवाले आलोचक या लेखक बहुधा बहुत ही सुनियोजित तरीके से तुलसीदास के उन पदों को प्रमुखता से उठाते हैं जिनसे उनकी छवि स्त्री विरोधी और वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक की बनती है। तुलसीदास को स्त्री विरोधी करार देनेवाले मानस में अन्यत्र स्त्रियों का जो वर्णन है उसकी ओर देखते ही नहीं हैं। एक प्रसंग में तुलसीदास कहते हैं – कत विधि सृजीं नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं । इसी तरह अगर देखें तो मानस में पुत्री की विदाई के समय के प्रसंग में कहा गया है- बहुरि बहुरि भेटहिं महतारी, कहहिं बिरंची रचीं कत नारी। इसके अलावा तुलसी साफ तौर पर कहते हैं- रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा। इन पदों को आलोच्य पद के सामने रखकर तुलसीदास का मूल्यांकन किया जाना चाहिए । नारी के अलावा जब उनको शूद्रों का विरोधी कहा जाता है तब भी खास विचार के पोषक आलोचक तुलसी के उन पदों को भूल जाते हैं जहां वो रामराज्य की बात करते हुए सबकी बराबरी की बात करते हैं। तुलसी जब रामराज्य की बात करते हैं तो वो चारों वर्णों के सरयू नदी के तट पर साथ स्नान करने का वर्णन करते हैं जिसकी ओर क्रांतिकारी लेखकों का ध्यान जाता नहीं है। वो कहते हैं – राजघाट सब बिधि सुंदर बर, मज्जहिं तहॉं बरन चारिउ नर। यहां यह खेल तुलसीदास तक ही नहीं चला बल्कि निराला को लेकर भी इस तरह का खेल खेला गया। निराला ने कल्याण पत्रिका के भक्ति अंक से लेकर कई अन्य अंकों में जो लेख लिखे थे उनको ओझल कर दिया गया। नई पीढ़ी के पाठकों को इस बात का पता ही नहीं है कि भक्त निराला ने किस तरह की रचना की।

कबीर को ऊपर उठाने के खेल में जिस तरह से तुलसीदास की आलोचना की जा रही थी और जिस तरह से दोनों को सामने रखकर तुलनात्मक बातें हो रही थीं उसी क्रांतिकारी व्याख्या से उत्साहित होकर एक पत्रिका ने तुलसीदास को हिंदू समाज का पथभ्रष्टक साबित करने के लिए लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की थी जो बाद मे पुस्तकाकार भी छपी। बावजूद इसके तुलसी की व्याप्ति भारतीय मानस से जरा भी नहीं डिगी। तुलसीदास के सामने कबीर को सोशल रिवोल्यूशनरी साबित करनेवाले यह भूल गए कि वे वेदांतवादी थे और वैष्णव होने की वजह से एकात्मवाद को बढ़ावा देते थे और सार्वजनिक जीवन में किसी भी तरह के आडंबर के खिलाफ थे। उन्होंने समाज मे व्याप्त आडंबर के खिलाफ चेतावनी के पद लिखे जिसको बार बार उछाल कर कबीर को क्रांति के संवाहक के तौर पर पेश किया गया। लेकिन जब राम उनके पदों में आते हैं तो उसको बिसरा दिया जाता है। वो राम को मानते रहे। राम का नाम कबीर के पदों में बार बार आता है – राम मेरे पियू, मैं राम की बहुरिया हो या राम निरंजन न्यारा के, अंजन सकल पसारा। या फिर दुलहिन गावहूं मंगल चार, हम घरि आए हो राजा राम भरतार। कबीर को राम से अलग करके देखने की गलती बार बार हुई या जानबूझकर की गई इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है। वामपंथी लेखकों ने लगातार रामचरित मानस को धर्म से जोड़कर मूल्यांकन किया और कबीर को क्रांतिकारी समाज सुधारक और कुरीतियों पर प्रहार करनेवाले बताते रहे । यहां उनसे एक चूक हो गई। वो यह भूल गए कि किसी कवि की कृति को अगर धर्मग्रंथ का दर्जा हासिल हो जाए तो वो महान हो जाता है। आज रामचरित मानस की स्थिति क्या है, विचार करिए। लोग उसको मंदिरों में रखते हैं, उसकी पूजा होती है, जन्म मरण के समय उसका परायण होता है। एक कवि के लिए इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। लेकिन वामपंथी बौद्धिकों को इससे घबराहट होने लगी और उन्होंने तुलसीदास को उनके विचारों के आधार पर खारिज करने की लगातार मुहिम चलाई। लेकिन तुलसीदास की कविताई में वो तेज है जिसने अपनी तमाम आलोचनाओं को अबतक धता बताते हुए अपनी लोकव्याप्ति का दायारा और बढ़ाया है।
दरअसल अगर हम देखें तो तुलसीदास के सृजन का जो कालखंड है उसमें भारतीय संस्कृति एक संक्रमण के दौर से गुजर रही थी । अपनी समृद्ध विरासत और संस्कृति के प्रति लोगों की निष्ठा कमजोर हो रही थी या कह सकत हैं कि लगभग खत्म सी होने लगी थी। एक के बाद एक लगातार हो रहे विदेशी आक्रमणों से देश जख्मी था। तुलसीदास के सामने एक कवि के रूप में चुनौती थी कि वो जनता को अपने लोक से जोड़ने वाली कोई रचना प्रस्तुत करें। यह अकारण नहीं है कि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की शुरुआत सरस्वती और गणेश वंदना से की- वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि/ मंगलानां च कर्त्तरौ वन्दे वाणीविनायकौ। तुलसीदास ने जब रामचरित मानस की रचना की तो उन्होंने एक आदर्श राज्य की अवधारणा को राम के माध्यम से प्रस्तुत किया, जिसे रामराज्य कहा गया। राम का चरित्र एक मर्यादा पुरुष के तौर पर पेश किया जहां वो न्याय के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। एक ऐसा राजा जिसकी प्राथमिकता में उसका राज्य उसके परिवार से पहले है। पत्नी के तौर पर जब सीता का चरित्र चित्रण किया तो एक ऐसी आदर्श पत्नी के तौर पर उसको अपनी रचना में पेश किया जो अपने पति के मान-सम्मान के लिए राजसी जीवन छोड़ने में देर नहीं लगाती। लोकोपवाद के छींटे पति पर ना पड़ें इसके लिए अग्निपरीक्षा देने को तैयार हो जाती है। पति के बनवास के वक्त उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलती है।  भाई हो तो लक्ष्मण और भरत जैसा जो आदर्श हैं। और तो और दुश्मन भी बनाया तो रावण को जो उद्भट विद्वान और शिव का उपासक था। तुलसीदास का जो समय था वो कबीर के समय से अलग था। तुलसीदास के सामने देश का सांस्कृतिक संकट था और वो उससे अपनी लेखनी के माध्यम से उस संकट से मुठभेड़ कर रहे थे। दूसरी तरफ कबीर समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार कर रहे थे । इस तरह से देखें तो दोनों कवियों का निकष अलग था । तुलसीदास और कबीर की तुलना करने का उपक्रम ही गलत इरादे से किया गया था।
अस्सी के दशक में राम मंदिर का जब आंदोलन परवान चढ़ा तो हमारे वामपंथी आलोचक दिग्गजों ने राम को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें शुरू कर दीं । उन्होंने ऐसा ताना बाना बुना कि लोक में अभिवादन का जो सबसे लोकप्रिय तरीका था, राम-राम जी, उसको भी सांप्रदायिकता से जोड़ने की कोशिश की। यह अनायास नहीं हो सकता है कि हर हर महादेव कहनेवाले, या राधे राधे कहने वाले, या फिर जयश्री कृष्ण कहनेवाले सांप्रदायिक ना हों और जयश्री राम बोलनेवाले सांप्रदायिक हों। जब इन लोगों ने राम को ही संदेहास्पद बनाने की कोशिश की तो उसकी आंच से तुलसीदास भी बच ना सके। तुलसी को नीचा दिखाने के लिए इन लोगों ने कबीर का सहारा लिया। लेकिन तुलसीदास के बारे में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पंक्तियां ध्यातव्य हैं जिसे डॉ रामविलास शर्मा ने निराला की साहित्य साधना में लिखा है- अंग्रेजी और बांग्ला के अनेक कवियों के नाम गिनाने के बाद एक दिन निराला बोले- इन सब बड़ेन क पढ़ित है तो ज्यू जरूर प्रसन्न होत है पर जब तुलसीदास क पढ़ित है तो सबका अलग धरि देइत है। हमार स्वप्न इहै सदा रहा कि गंगा के किनारे नहाय के भीख मांगिके रही और तुलसीदास कै पढ़ी। महाप्राण निराला के यह कहने के बाद क्या बचता है। क्या कभी किसी ने ये जानने की कोशिश की कि कबीर के महिलाओँ के बारे में क्या विचार थे। अभी यह जानकारी आना शेष है। कबीर महिलाओं को लेकर उतने क्रांतिकारी नहीं हैं जितने वो कुरीतियों के खिलाफ दिखते हैं। बावजूद इसके कबीर की महानता पर कोई शक नहीं लेकिन संदेह तो तब होता है या सवाल तब उठता है जब दो महान कवियों में से एक को सिर्फ इस आधार पर हाशिए पर डालने की कोशिश होती है कि वो भारत को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने का काम करता है। हिंदी साहित्य में इस तरह की बेइमानियां लंबे समय से चल रही हैं और इसने साहित्य का बड़ा नुकसान किया। जितनी जल्दी इस प्रवृत्ति से छुटकारा मिल सकेगा उतनी जल्दी साहित्य का भला होना शुरू हो जाएगा।     


पचास साल बाद खुले राज

किताबों की साज-सज्जा को लेकर भारतीय प्रकाशन जगत में कम ही काम होता है। अंग्रेजी में थोड़ा अधिक और हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अपेक्षाकृत कम। हिंदी में तो बहुधा ऐसा होत है कि लेखक किताबों की साज सज्जा का काम प्रकाशकों पर छोड़ देते हैं । प्रकाशक अपने काम के बोझ तले इतना दबे होते हैं कि वो हर पुस्तक की प्रोडक्शन क्वालिटी पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। कई बार जिल्द खराब होती है तो कई बार आवरण तो कई बार बाइंडिंग इतनी लचर होती है कि पुस्तक हाथ में लेते ही पन्ने अलग होने लगते हैं। कुछ महीनों पहले हिंदी में आई यतीन्द्र मिश्र की किताब लता सुर-गाथा अपने प्रोडक्शन की वजह से भी चर्चा में रही थी। अभी हाल ही में आशा पारिख की आत्मकथा द हिट गर्ल को देखकर संतोष हुआ। इस किताब की साज-सज्जा बेहतरीन है और इसकी प्रोडक्शन क्वालिटी को देखकर ही पाठक पहली नजर में इसकी ओर आकर्षित हो सकता है।
करीब ढाई सौ पन्नों की इस किताब को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है। आशा पारिख की इस आत्मकथा के सहलेखक हैं मशहूर फिल्म समीक्षक खालिद मोहम्मद। खालिद ने इस किताब के लिखने की बेहद दिलचस्प वजह बताई थी। उन्होंने एक दिन आशा पारिख से पूछा कि आपके ऊपर कोई किताब क्यों नहीं आई तो आशा पारिख ने जवाब दिया कि किसी ने आजतक पूछा ही नहीं। आशा पारिख के इस जवाब ने खालिद साहब को किताब लिखने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर दिया और वहीं से बनी इस किताब की योजना। जब किताब प्रकाशित हुई तो इसके कवर पर इस बात को प्रमुखता से प्रचारित किया गया है कि भूमिका सुपरस्टार सलमान खान की है । लेकिन अगर पाठकों को सलमान खान की भूमिका से कोई अपेक्षा है तो वो निराश होगें। सलमान खान ने आशा पारिख की फिल्म यात्रा पर किसी दृष्टि के तहत नहीं लिखा है। बस सलमान खान हैं, उनकी स्टार वैल्यू है, तो लिखवा लिया गया। इस भूमिका से किताब की कोई तस्वीर नहीं उभरती है, ना ही आशा पारिख के संघर्षों के संकेत मिलते हैं। इस किताब की शुरुआत में बड़े नामों ने निराश किया है लेकिन जैसे जैसे पाठक आगे बढ़ता है उसके लिए एक नई दुनिया खुलती ही नहीं बल्कि खिलती भी है।
आशा पारिख पहले नृत्यांगना थी, फिर वो सह अभिनेत्री की भूमिका में आई, फिर उन्होंने बॉलीवुड में अपनी सफलता का परचम लहराया और फिर उन्हें बॉलीवुड की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। इस दौर में वो फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष बनीं। ये सब कुछ तब खुलने लगता है जब स्वयं आशा पारिख इस किताब में प्रकट होती हैं।
किसी भी बॉलीवुड शख्सियत की जब जीवनी या आत्मकथा आती है तो पाठकों को यह उम्मीद रहती है कि उसमें जीवन और संघर्ष के अलावा उस दौर का मसालाभी होगा। आशा पारिख की इस किताब हिट गर्ल में मसाला की चाह रखनेवाले पाठकों को निराशा होगी क्योंकि आशा पारिख ने अपनी समकालीन नायिकाओं, नंदा और साधना आदि से अपनी प्रतिस्पर्धा के बारे में तो लिखा है लेकिन उस लेखन ये यह साबित होता है कि उस दौर में अभिनेत्रियों को बीच अपने काम को लेकर चाहे लाख मनमुटाव हो जाए लेकिन उनके बीच किसी तरह का मनभेद नहीं होता था। यह किताब पूरी तरह से आशा पारिख के इर्द गिर्द घूमती है। आशा पारिख ने अपनी इस किताब में माना है कि वो फिल्मकार नासिर हुसैन के प्रेम में थीं  और इस बात को भी साफ किया है कि उनका प्रेम परवान क्यों नहीं चढ़ सका। आशा पारिख ने जोर देकर कहा कि उन्होंने जीवन में सिर्फ एक शख्स से प्रेम किया और वो थे नासिर हुसैन। नासिर हुसैन और आशा पारिख का साथ बहुत लंबा चला था। नासिर साहब ने ही आशा पारिख को उन्नीस सौ उनसठ में अपनी फिल्म दिल दे के देखो में ब्रेक दिया था। दिल दे के देखो से शुरू हुआ सफर एक के बाद एक सात फीचर फिल्मों तक चला । ये सातों फिल्म सुपर हिट रही थीं । तीसरी मंजिल और कारवां की सफलता ने तो आशा पारिख को सुपर हिट अभिनेत्री की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया था। आशा पारिख ने अपनी किताब में इस बात पर भी प्रकाश डालने की कोशिश की है कि उन्होंने शादी क्यों नहीं की । उन्होंने साफगोई से माना है कि वो नहीं चाहती थी कि उनकी वजह से नासिर साहब अपने परिवार से दूर हो जाएं या उनपर एक परिवार को तोड़ने का ठप्पा लगे। आशा पारिख और नासिर साहब की नजदीकियो के बारे में कभी बॉलीवुड में इस तरह से चर्चा नहीं हुई कि दोनों प्रेम में थे। ना ही उस रिलेशनशिप को लेकर नासिर साहब के परिवार के लोगों ने कभी सार्वजनिक रूप से आपत्ति की। दो हजार दो में नासिर साहब का निधन हो गया और उनके निधन के करीब बारह साल बाद आशा पारिख ने अपनी आत्मकथा में इस राज को खोला। आशा पारिख ने माना है कि बगैर नासिर साहब के चर्चा की उनकी आत्मकथा का कोई अर्थ नहीं था।

Sunday, May 28, 2017

तीन साल में चले अढाई कोस

दो हजार चौदह में केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद साहित्य,संस्कृति और कला के क्षेत्र में बदलाव की आहट सुनाई दी थी। आजादी के बाद पहली बार केंद्र में किसी गैर कांग्रेसी सरकार को जनता ने पूर्ण बहुमत से सत्ता सौंपी थी। बहुमत के अलावा एक और बात जिसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है वह ये कि इस सरकार को बौद्धिक समर्थन के लिए वामपंथियों के आवश्यकता नहीं थी। केंद्र में बनी नई सरकार का वैचारिक धरातल भी कांग्रेस से अलग था। आजादी के बाद से कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े संस्थानों पर वामपंथ की तरफ झुकी विचारधारा लेखकों, कलाकारों आदि का बोलबाला था। दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद यह तय हो गया था कि इन संस्थाओं में भी बदलाव होंगे। हुए भी, लेकिन जिस तरह का बदलाव अपेक्षित था, वो सरकार बनने के तीन साल बाद भी हो नहीं पाया है। सरकार पर आरोप लगे कि वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडे लोगों को चुन चुन कर इन संस्थाओं की कमान सौंप रही है। यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि जब गजेन्द्र चौहान को फिल्म इंस्टीट्यूट पुणे का चेयरमैन नामित किया गया तो खासा हो हल्ला मचा था। गजेन्द्र चौहान की योग्यता पर सवाल उठाए गए। कहा गया कि गजेन्द्र की एकमात्र योग्यता उऩका बीजेपी और संघ से जुड़ा होना है और उन्होंने महाभारत सीरियल में युधिष्ठिर की भूमिका निभाई थी। संभव है कि गजेन्द्र चौहान में उतनी योग्यता नहीं रही हो, लेकिन जो योग्यता को आधार बनाकर गजेन्द्र की आलोचना कर रहे थे उनको अपना अतीत शायद याद नहीं था। वामपंथी मित्रों से योग्यता के आधार पर नियुक्ति की बात सुनना बहुत ही हास्यास्पद लगता है। उन्होंने हमेशा से योग्यता पर प्रतिबद्धता को तरजीह दी है। अपनी विचारधारा में दीक्षित होने वालों को पहले वो सहेजते थे। बहुधा अपने प्रतिबद्ध लेखकों को बड़ा बनाने का सारा उपक्रम करने के बाद फिर नियुक्ति आदि करते रहे थे। पहले किसी लेखक को चुनते थे और उसको पुरस्कार, सम्मान आदि देकर बड़ा बना देते थे और फिर किसी संस्थान को उनके जिम्मे सौंप देते थे। यह इतने योजनाबद्ध तरीके से होता था कि लगे कि सरकार ने प्रतिबद्धता को नहीं बल्कि प्रतिभा को जगह दी है। पर यह कोई नियम नहीं था । कई बार तो मनमाने तरीके से भी नियुक्तियां कर दी जाती थीं। यहां यह स्मरण करना उचित होगा कि मार्च दो हजार नौ में सुरभि बनर्जी को कोलकाता विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त कर दिया गया था। उस वक्त सुरभि बनर्जी जी की ज्ञात योग्यता इतनी थी कि उन्होंने ज्योति बसु की जीवनी लिखी थी। तब किसी कोने अंतरे से इस नियुक्ति को लेकर आवाज नहीं उठी थी । तब योग्यता आदि के बारे में भी सवाल नहीं उठे थे। ना ही सरकार पर किसी तरह का कोई आरोप लगा था। यह तो एक उदाहरण है, इस तरह की ना जाने कितनी नियुक्तियां हुई होंगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आरोप लगानेवाले यह भी भूल जाते है कि उस वक्त नियुक्तियों में अजय भवन के संदेश के क्या मायने हुआ करते थे। या प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की नीतियां और नियुक्तियां कहां से तय होती थीं। ये सब अपने राजनीतिक अकाओं के कृपाकांक्षी हुआ करते थे। कृपा मिलती भी थी।
नरेन्द्र मोदी की सरकार पर दूसरा बड़ा आरोप, जो वामपंथियों का है वो है पाठ्यपुस्तकों आदि में बदलाव करने की योजना पर काम करने का। उनका आरोप है कि मौजूदा सरकार की मंशा देश के इतिहास को बदलने की है। इतिहास के पुनर्लेखन को लेकर विवाद उठाने की कोशिश लगातार की जाती रही है। सवाल यही है कि अगर इतिहास लेखन में एक पक्ष रेखांकित होने से रह गया तो क्या उसको देश के इतिहास में जगह देने की कोशिश करना गलत है। क्या भारतीय चिंतन पद्धति से इतिहास लेखन में कोई बुराई है। सरकार पर इतिहास के भगवाकरण का आरोप लगानेवाले इन मित्रों को पश्चिम बंगाल सरकार के वर्षों पूर्व जारी एक प्रपत्र को देखना चाहिए। पश्चिम बंगाल सरकार की ने अट्ठाइस अप्रैल उन्नीस सौ नवासी को अपने पत्रांक एसवाईएल/89/1 के द्वारा राज्य के सभी माध्यमिक विद्यालयों के प्रधानाध्यापकों को निर्देश जारी किया था। उस निर्देश में लिखा था- मुस्लिम काल की कोई आलोचना या निंदा नहीं होनी चाहिए, मुस्लिम शासकों और आक्रमणकारियों द्वारा मंदिर तोड़े जाने का जिक्र कभी नहीं होना चाहिए। इसके साथ ही यह आदेश भी दिया गया था कि इतिहास की पुस्तकों से क्या क्या हटाना है। क्या यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि उस समय पश्चिम बंगाल में किस विचारधारा या पार्टी की सरकार थी। अब अगर पूर्व में इतिहास के साथ इस तरह की छेड़छाड़ की गई हो तो इतिहास का पुनर्लेखन करने की योजना बनाना कैसे गलत हो सकता है । इतिहास के तथ्यों के साथ इस तरह की अक्षम्य छेड़छाड़ की गई लेकिन फिर भी उस वक्त का बौद्धिक वर्ग खामोश रहा था । क्या राजनीति के आगे मशाल बनकर चलनेवाला साहित्य विचारधारा का पिछलग्गू बन गया था। या प्रत्य़क्ष और परोक्ष फायदे के लिए चुप रह गया था। या राजनीतिक आका के फैसलों पर ऊंगली उठाने की हिम्मत नहीं कर पाए थे ।
दरअसल वामपंथी दलों के शासन काल के दौरान पश्चिम बंगाल के विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों में नियुक्ति आदि में ही नहीं, उनका रोजमर्रा का संचालन भी पार्टी ही करती थी। यहां तक कि किसी विश्वविद्यालय आदि की परीक्षा की तिथि बढ़ानी चाहिए या नहीं, यह भी पार्टी ही तय करती थी। उन्नीस सौ निन्यानबे में कोलकाता के एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार ने इस बारे में विस्तार से आंकलन प्रस्तुत किया था, प्रमाण भी पेश किए थे। अब ये लोग अगर मौजूदा सरकार पर शिक्षा के भगवाकरण और संस्थाओं की स्वयत्ता खत्म करने आदि का आरोप लगाते हैं तो उन आरोपों में नैतिक दम नहीं दिखता है, बल्कि अपनी सत्ता जाने या मनचाहा नहीं कर पाने की खीज दिखाई देती है। आरोपों का असर भी कम होता है।
अब अगर हम इन आरोपों से इतर हटकर पिछले तीन सालों में साहित्यक और सांस्कृतिक संस्थाओं के काम-काज पर नजर डालें तो बहुत ज्यादा फर्क दिखाई नहीं पड़ता है। साहित्य अकादमी में तो चुने हुए अध्यक्ष होते हैं। वहां किसी तरह के बदलाव की ज्यादा गुंजाइश है नहीं । जो भी बदलाव वहां देखने को मिल सकत हैं वो अगले साल होनेवाले सामान्य परिशद के चुनाव में ही देखने को मिल सकते हैं । ललित कला अकादमी में काफी दिनों तक विवाद आदि चला। नई सरकार आने के बाद बर्खास्त किए गए विवादित सचिव सुधाकर शर्मा की बहाली फिर उनको हटाए जाने को लेकर संस्कृति मंत्रालय भी विवादों के घेरे में आया। ललित कला अकादमी इतनी विवादित हो चुकी थी कि जब उसका नियंत्रण सरकार ने अपने हाथों में लिया तो ज्यादा हो हल्ला नहीं हुआ। हर बात को अभिव्यक्ति की आजादी के खतरे से जोड़कर देखनेवाले और सांस्कृतिक संगठनों पर भगवा झंडा फहराने का आरोप जड़नेवाले बयानवीर भी इस मसले पर लगभग खामोश रहे।
दरअसल इन अकादमियों में स्वयत्ता के नाम पर जारी अराजकता को रोके जाने की सख्त आवश्यकता है। साहित्य और कला को लेकर जिस तरह के स्वायत्त संस्था की कल्पना की गई थी उसका इमरजेंसी के बाद क्षरण हो गया। भीष्म साहनी की अगुवाई में प्रगतिशील लेखक संघ ने इमरजेंसी में इंदिरा गांधी का समर्थन किया । जिसके एवज में इंदिरा गांधी ने साहित्यक सांस्कृतिक संस्थाओं को कालांतर में वामपंथियों के हवाले कर दिया। उसके बाद इन संस्थाओं में पुरस्कारो से लेकर विदेश यात्राओं की रेवड़ियां अपने अपनों को बंटने लगी। अभी हाल के दिनों में ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष अशोक वाजपेयी की उस वक्त की विदेश यात्राओं को लेकर कई बातें सामने आई हैं जिसकी भी जांच किए जाने की जरूरत है। साहित्य और कला को लेकर जिस तरह की स्वायत्ता की कल्पना इनकी स्थापना के वक्त की गई थी उसको फिर से स्थापित करने की जरूरत है। यूपीए सरकार के दौरान इन संस्थाओं के कामकाज को लेकर एक हाई पॉवर कमेटी का गठन हुआ था। उसके पहले संसदीय कमेटी ने इन संस्थाओं के क्रियाकलापों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इस रिपोर्ट में कई तरह की गड़बड़ियों की ओर इशारा किया गया था। उस वक्त भी इन संस्थाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही की बात तो हुई थी पर इसपर कितना काम हो पाया यह कम से कम सार्वजनिक तो नहीं ही हो पाया है। इस सरकार के सामने अब चुनौती ये है कि नियक्तियों से आगे जाकर इन संस्थाओं के कामकाज को ठीक करे। यहां व्याप्त गड़बड़ियों पर ऊंगली रखने की जरूरत है। अगर ऐसा हो पाता है तो साहित्य-संस्कृति के लिए बड़ा काम होगा अन्यथा तो सब चल ही रहा है और चलता भी रहेगा। 


Friday, May 26, 2017

बीजेपी मस्त, विपक्ष पस्त

केंद्र में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के तीन साल पूरे हो रहे है। सरकार के उठाए गए कदमों के बारे में सब जगह चर्चा हो रही है लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र में बगैर विपक्ष के बारे में बात किए कोई चर्चा पूरी नहीं होती है। आज जब सरकार ने तीन साल पूरे कर लिए हैं और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में लगातार इजाफा हो रहा है तब विपक्ष के बारे में, उसकी नीतियों और कार्यक्रमों के बारे में विचार करना और जरूरी हो गया है। पारंपरिक आंकलन के मुताबिक किसी भी सरकार के लिए तीन साल के बाद जनता के मोहभंग का काल होता है और विपक्ष उसका ही फायदा उठाते हुए अपनी राजनीति करता है। सत्ता में अपनी वापसी की जुगत लगाता है। पर इस वक्त पारपंरिक राजनीति को नरेन्द्र मोदी का मजबूत नेतृत्व और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की अकाट्य रणनीति ने नकार दिया है। एक के बाद एक विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत से पार्टी के हौसले बुलंद हैं और विपक्ष के हौसले पस्त हैं। प्रमुख विपक्षी दल अपने नेतृत्व की क्षमताओं से जूझ रहा है और अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं की अपनी अपनी महात्वाकांक्षाएं हैं। इस वक्त अगर देखें तो कांग्रेस में भ्रम की स्थिति बनी हुई है, पार्टी ये तय नहीं कर पा रही है कि पश्चिम बंगाल में वो सीपीएम का साथ छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का हाथ पकड़े या फिर सीपीएम के साथ बनी रहे। तृणमूल कांग्रेस के साथ जाने को लेकर कांग्रेस की राज्य ईकाई में विरोध के स्वर उठ रहे हैं। बंगाल में पार्टी के सबसे मजबूत नेताओं में से एक अधीर रंजन चौधरी ने एक तरह से बगावत के संकेत दे ही दिए हैं। ममता बनर्जी भी कांग्रेस अध्यक्ष से मिल रही हैं लेकिन कांग्रेस के नेता मानस भुइंया को अपनी पार्टी से राज्यसभा का उम्मीदवार बनाने का एलान कर पार्टी को झटका भी दे रही हैं ।
कांग्रेस पार्टी में कई स्वयंभू नेता अलग अलग तरीके का बयान देकर पार्टी की मिट्टी पलीद करने में लगे हैं। तीन तलाक के मुद्दे पर कपिल सिब्बल ने जिस तरह से राम का नाम उछाला उसने कांग्रेस की छवि को खासा नुकसान पहुंचाया । कांग्रेस को अब ये समझने की जरूरत है कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का दौर अब लगभग खत्म हो चला है। भारतीय संविधान सबको समान अवसर की बात करता है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस के नेता संविधान की प्रस्तावना को भी भुला बैठे हैं। दूसरे राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने को लेकर जिस तरह से सालों से भ्रम बना हुआ है उसने भी पार्टी के नेताओं के बीच कंफ्यूजन की स्थिति पैदा कर दी है । और जब नेता ही कंफ्यूज रहेगें तो पार्टी का तो भगवान ही मालिक है।
दूसरी तरफ अगर हम क्षेत्रीय दलों की बात करें तो बिहार में सत्ता में सहयोगी लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच सबकुछ ठीक चल रहा है, ऐसा विश्वास के साथ कहना मुमकिन नहीं है। जब लालू यादव के ठिकानों पर छापा पड़ा तो जिस तरह से बीजेपी को नए सहयोगी के लिए लालू ने मुबारकबाद दिया उससे साफ है कि गठबंधन मजबूरी में चल रहा है। नीतीश और लालू यादव स्वाभाविक सहयोगी नहीं है बल्कि सत्ता के लिए साथ हैं। जैसे ही नीतीश कुमार को यह लगेगा कि लालू के बगैर भी उनका काम चल सकता है वो फैसला लेने में एक मिनट की देरी नहीं लगाएंगे। अखिलेश यादव और मायावती अपनी अपनी पार्टी की समस्याओं से जूझ रही हैं। मायावती के सामने पार्टी को बचाने का संकट तो है ही उनके भाई पर अकूत संपत्ति जमा करने का भी आरोप लगा है। अखिलेश के सामने शिवपाल की चुनौती तो है ही, योगी आदित्यनाथ की सरकार तमाम तरह के जांच के आदेश भी दे रही है। बचते हैं नवीन पटनायक। नवीव बाबू को भी बीजेपी से कड़ी टक्कर मिलने की उम्मीद है और उनको तय करना है कि वो विपक्षी दलों की एकता में शामिल हों या नहीं। राष्ट्रवाद के इस दौर में फारुख अब्दुल्ला जिस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं उसमें उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस जिस दल या गठबंधन के साथ जाएगी उसको नुकसान हो सकता है। हरियाणा में चौटाला की पार्टी भी बिखरी हुई है क्योंकि पिता पुत्र दोनों जेल में हैं।
दरअसल विपक्षी एकता की कोशिश कर रहे दलों के बीच भी विश्वास की भारी कमी है। अगर हम दक्षिण के राज्यों की बात करें तो एआईएडीएमके और वाईएसआर कांग्रेस तो बीजेपी के साथ होने को बेताब है। ले देकर बचती है सीपीआई और सीपीएम। सीपीआई का कोई जनाधार बचा नहीं है और सीपीएम भी आंतरिक कलह से जूझ रही है। पार्टी में सीताराम येचुरी को राज्यसभा में तीसरी बार भेजने को लेकर करात गुट और सीता गुट खुलकर आमने सामने आ गए हैं। बंगाल सीपीएम ने खुलकर येचुरी को राज्यसभा का तीसरा टर्म देने का प्रस्ताव पोलित ब्यूरो को भेज दिया है। करात गुट ने ने येचुरी को राज्यसभा में जाने से रोकने के लिए तीन चार तर्क दिए जिसे बंगाल यूनिट ने खारिज कर दिया । अब छह और सात जून की पोलित ब्यूरो की बैठक में इसपर फैसला होना है। सीपीएम को बंगाल से राज्यसभा की इस सीट को जीतने के लिए कांग्रेस की मदद चाहिए होगी। राजनीति मे हमेशा दो और दो चार नहीं होता है। उसी तरह से अगर देखें तो इन दिनों येचुरी विपक्षी एकता को लेकर सोनिया गांधी से कई बार मिल चुके हैं। कुछ लोग इस सक्रियता को राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के समर्थन से जोड़कर भी देख रहे हैं। अगर समग्रता में विपक्ष के हालत पर विचार करें तो यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है लेकिन लोकतंत्र में सबकुछ जनता पर निर्भर करता है और जनता इस वक्त मोदी सरकार के कामकाज से खुश है क्योंकि विपक्ष कोई विकल्प पेश करने में नाकाम रहा है।   

    

मोदी सरकार के तीन साल

किसी भी सरकार के तीन साल पूरे होने के बावजूद अगर उसके शीर्ष नेतृत्व की लोकप्रियता में कोई
कमी नहीं दिखाई देती हो तो यह माना जा सकता है कि जनता सरकार के कामकाज से संतुष्ट है। किसी भी सरकार के सत्ता में आने के तीन साल बाद भी अगर उसपर घोटालों का एक भी बड़ा आरोप नहीं लगे तो यह भी माना जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सफलता मिली है। आजाद भारत के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि किसी प्रधानमंत्री के कार्यकाल के तीन साल पूरा होने पर भ्रष्टाचार के छींटे नहीं उड़े। नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक की सरकारों में साल दो साल के अंदर ही घपले-घोटाले उजागर होने लगते थे। चाहे वो जीप घोटाला हो या फिर बोफोर्स घोटाला। इस कसौटी पर नरेन्द्र मोदी का अगुवाई वाली एनडीए की मौजूदा सरकार को पूरे नंबर मिलने चाहिए। दो हजार चौदह में जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो उसके बाद मशहूर पत्रकार जॉन इलियट ने अपनी किताब- इंप्लोजन, इंडियाज़ ट्रायस्ट विद रियलिटी में लिखा है –नरेन्द्र मोदी आजादी के बाद सबसे मजबूत प्रधानमंत्री के तौर पर उभरे हैं । आजादी के बाद के किसी भी प्रधानमंत्री में इतनी मजबूत प्रतिबद्धता और आगे बढ़ने की ललक नहीं दिखाई देती है जो नरेन्द्र मोदी में दो हजार चौदह के ऐतिहासिक जीत के बाद दिखाई दी । जॉन इलियट दो हजार चौदह के चुनाव के पहले हिंदुस्तान की राजनीति पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि – लोग कांग्रेस के दस साल के शासन से उब चुके थे, उनकी अस्पष्ट नीतियों और सोनिया और राहुल गांधी के नेतृत्व से देश में हताशा का माहौल बनने लगा था । लोग अब एक ऐसा प्रधानमंत्री चाहते थे जो फैसले ले भी और उसको लागू भी करवाए । जो देश की व्यवस्था की खामियों को दूर करे और भ्रष्टाचार पर नकेल कसे । इसके अलावा लोगों की आकांक्षा थी कि वो भारत के आर्थिक तौर पर सफल बनाते हुए विकास के पथ पर आगे बढ़े ताकि देश में रोजगार आदि की संभावनाओं के नए द्वार खुल सके । इन परिस्थितियों में नरेन्द्र मोदी को देश ने केंद्र की सत्ता सौंपी। उनके सामने चुनौतियों का पहाड़ था।
जैसा कि जॉन इलियट ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शुरुआती कदमों से मजबूत इरादों की झलक दे दी थी। जनधन से लेकर अन्य योजनाओं के बारे में काफी चर्चा हो चुकी है लेकिन अगर हम पिछले सालभर के फैसलों पर नजर डालें तो देश में निवेश का माहौल बना है। कर सुधार को लेकर सरकार ने जीएसटी बिल को पास करवा लिया और अब ये बिल लागू होने को है। जीएसटी को कर सुधार के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जा रहा है और इससे ना केवल कर प्रणाली में सुधार होगा बल्कि इससे सभी क्षेत्रों के निवेशकों का भरोसा भी बढ़ेगा। कर सुधार के अलावा सरकार ने देश में विदेशी निवेश को बढ़ावा देने का माहैल भी बनाया। मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रमों की बदौलत ही आज एप्पल जैसी कंपनियां भारत में ही अपने उत्पादों को तैयार कर रही हैं। इसका फायदा देश के विकास दर में भी देखने को मिला। रुपया भी अंतराष्ट्रीय बाजार में स्थिर हो गया है। महंगाई पर लगभग काबू पा लिया गया है और कालाबाजारियों को भी कानून से डर लगने लगा।
इसके अलावा दो और फैसलों पर भी सरकार की दृढ इच्छाशक्ति का पता चलता है, पहला है नोटबंदी और दूसरा पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले साल आठ नवंबर को नोटबंदी का एलान किया था तब विशेषज्ञों ने इस कदम को आत्मघाती बताया था । संसद में भी इसको लेकर कई दिनों तक हंगामा होता रहा था। सरकार पर यह आरोप लग रहे थे कि उसने बगैर तैयारी के नोटबंदी का एलान कर जनता को मुश्किल में डाल दिया है। शुरुआती दिनों में बैंकों के बाहर लग रही लंबी लंबी कतारें और पैसों की किल्लत को लेकर भी खूब शोरगुल मचा था, लेकिन अंतत: नोटबंदी का फायदा सरकार को होता दिखा। लंबी कतारों में खड़े होकर, तकलीफें सहकर भी देश की जनता ने प्रधानमंत्री के इस कदम को भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग माना। नोटबंदी के बाद हुए चुनावों में बीजेपी की जीत को प्रधानमंत्री के इस फैसले पर जनता की मुहर मानी गई।
दूसरा बड़ा फैसला था पाकिस्तान की सीमा में घुसकर आतंकवादियों के ठिकानों को ध्वस्त करना। पिछले साल सितंबर उरी में आर्मी के कैंप पर आतंकवादी हमले के बाद सरकार विरोधियों के निशाने पर थी । इस हमले के चंद दिनों के बाद ही भारतीय सेना ने पाकितान की सीमा में घुसकर आंतकवादियों के ठिकानों को ध्वस्त किया और पाकिस्तानी सेना को भी भारी नुकसान पहुंचाया। यह भारतीय सेना के मनोबल को ऊंचा करने के लिए बहुत आवश्यक था और इसका फैसला लेकर एक बार प्रधानमंत्री मोदी ने फिर से अपने दृढ़ नेता की छवि को मजबूत किया। सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल भी उठे लेकिन जनता ने सवाल उठानेवालों को चुनाव दर चुनाव नकार दिया। बार बार चुनावों की चर्चा इस वजह से कि लोकतंत्र में जनता के मूड को भांपने का यही मापदंड है।

मोदी सरकार के तीन साल बीतने के बाद अब जो सबसे बड़ी चुनौती सरकार के सामने है वो है बेरजगारी के निबटने की। इस दिशा में सरकार को ठोस कदम उठाने की जरूरत है और निजी क्षेत्र को बढ़ावा देकर रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे। ऐसी नीतियां बनानी होंगी कि निजी कंपनियां छोटे शहरों में जाएं। इसके लिए छोटे शहरों में इंफ्रास्ट्रक्टर डेवलप करने होंगे। स्मार्ट सिटी की योजना अकर साकार हो गई तो संभव है कि छोटे शहरों में भी रोजगार के अवसर पैदा हो सकेंगे। कुल मिलाकर अगर हम देखें तो तीन साल का मोदी का कार्यकाल संतोषजनक ही माना जाएगा। 

Saturday, May 20, 2017

हिंदी में मिथकों से परहेज क्यों?

साहित्य जगत में इन दिनों अमिष त्रिपाठी की किताब सीता, द वॉरियर ऑफ मिथिला, को लेकर उत्सुकता का माहौल है। सोशल मीडिया पर भी इस किताब को लेकर लगातार चर्चा हो रही है। पहले केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने लेखक अमिष त्रिपाठी के साथ घंटेभर की बातचीत इस किताब को केंद्र में रखकर की। दोनों की इस बातचीत को फेसबुक पर हजारों लोगों ने देखा। अमिष लगातार अपने पाठकों से सोशल मीडिया से लेकर हर उपलब्ध मंच पर चर्चा कर रहे हैं। कुछ दिनों पहले किताब का ट्रेलर जारी किया गया जिसमें सीता को योद्धा के रूप में दिखाया गया है। ट्रेलर देखकर और पुस्तक के शीर्षक को एक साथ मिलाकर देखने से अमी। ने सीता का जो चित्रण किया होगा उसके बारे में अंदाज लगाया जा सकता है । इन बातों की चर्चा सिर्फ इस वजह से कि लेखक अपनी किताब को लेकर बेहद सक्रिय हैं। हर तरह के माध्यम का उपयोग करके वो अपने विशाल पाठक वर्ग तक इसको पहुंचाने के यत्न में लगे हैं।  अमिष को मालूम है कि इस वक्त हमारे देश में खासकर अंग्रेजी के पाठकों के बीच मिथकीय चरित्रों के बारे में जानने पढ़ने की खासी उत्सकुता है। अंग्रेजी के पाठकों में मिथकों को लेकर जो उत्सकुता है उसने लेखकों के लिए अवसर का आकाश सामने रख दिया है। इस वक्त अंग्रेजी के कई लेखक अलग अलग मिथकीय चरित्रों पर लिख रहे हैं और तकरीबन सबकी किताबों की जमकर बिक्री हो रही है। अमिष की ही सीता पर आनेवाली किताब से पहले जब इममॉरटल ऑफ मेलुहा, नागा और वायुपुत्र प्रकाशित हुई थी तो उसने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। इममॉरटल ऑफ मेलुहा के प्रकाशन को लेकर भी बेहद दिलचस्प कहानी है ।  दो हजार दस में जब ये किताब पहली बार प्रकाशित हुई थी तो उसके पहले प्रकाशकों ने इसको करीब डेढ दर्जन बार छापने से मना कर दिया था। तमाम संघर्षों को बाद जब यह किताब छपकर आई तो इसने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और इतिहास रच दिया। अमिष त्रिपाठी की इन किताबों के पाठक अब भी बाजार में हैं और उनकी लगातार बिक्री हो रही है। अमिष की इन किताबों का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद भी हो रहा है। अमिष त्रिपाठी देश के सबसे प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थान आई आई एम से पढे हैं और वित्तीय क्षेत्र की नौकरी के बाद लेखन में उतरे। लेखन की दुनिया में इतने रमे कि बस लेखक होकर रह गए। इसके पहले भी अशोक बैंकर ने रामायण पर एक पूरी श्रृंखला लिखी थी जो बेहद लोकप्रिय हुई थी। बहुत प्रामाणिकता के साथ कहना मुश्किल है लेकिन बैंकर को अंग्रेजी में मिथकों पर लोकप्रिय तरीके से योजनाबद्ध तरीके से लिखने की शुरुआत का श्रेय दिया जा सकता है।
अंग्रेजी में मिथक लेखन का इतना बड़ा बाजार है इसको सिर्फ अमीष की पुस्तकों की बिक्री से समझना उचित नहीं होगा। अश्विन सांधी ने भी अपने लेखन में मिथकीय चरित्रों को अपने तरीके से व्याख्यायित कर वाहवाही लूटी और देश के बेस्ट सेलर लेखकों की सूची में शामिल हो गए। उनकी कृति सियासकोट सागा, चाणक्या चैंट्स आदि की जमकर बिक्री हुई। पिछले दिनों अश्विन सांघी से मुंबई लिट-ओ-फेस्ट में मुलाकात हुई थी। वहां सांघी ने अपनी पहली किताब छपने की बेहद दिसचस्प कहानी बताई। उन्होंने कहा कि एक दो बार नहीं बल्कि सैंतालीस बार प्रकाशकों ने उनकी किताब को रिजेक्ट किया था और बड़ी मुश्किल से उनकी किताब छप पाई थी। आज अश्विन सांघी अंतराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर और प्रतिष्ठित लेखकों के साथ मिलकर लेखन करने में जुटे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिस लेखक को प्रकाशक जितना नकारते हैं वह उतना ही हिट होता है। अमिष की तरह की अश्विन सांघी भी कारोबार की दुनिया से ही लेखन की दुनिया में आए। एक और शख्स जो साहित्य की दुनिया की परिधि से बाहर था उसने भी भारतीय मिथकीय चरित्रों पर अंग्रेजी में लिखकर खासी शोहरत हासिल की, उनका नाम है देवदत्त पटनायक। देवदत्त पटनायक कुछ मायनों में अमिष और अश्विन से अलग तरह का लेखन करते हैं । देवदत्त पटनायक लोककथाओं या पूर्व में स्थानीय स्तर पर लोककथाओं के आधार पर जो लेखन हो चुका है, उसको अपने शोध का हिस्सा बनाकर प्रामाणिकता के साथ पेश करने की कोशिश करते हैं। इससे उनके बारे में यह धारणा बनती है कि वो अपनी रचनाओं को लोकेल के ज्यादा करीब ले जाते है लेकिन उनके लेखन पर बहुधा सवाल भी उठते हैं। बावजूद उसके वो लोकप्रिय हैं। देवदत्त पटनायक, अमिष त्रिपाठी, अश्विन सांघी के अलावा भी दर्जनभर से ज्यादा अंग्रेजी के लेखक अलग अलग मिथकीय चरित्रों पर लिख रहे है। पौराणिक कथाओं को अपने लेखन का आधार बना रहे है।
अब हमें इस पर भी विचार करना चाहिए कि अंग्रेजी में पौराणिक कथाओं, मिथकीय चरित्रों और प्राचीन ग्रंथों के पात्रों पर लिखकर लेखकों को प्रसिद्धि, पैसा, पहचान और प्रतिष्ठा मिल रही है लेकिन हिंदी में हालात बिल्कुल अलग हैं। अमिष त्रिपाठी रामचंद्र सीरीज में पहले सियोन ऑफ इच्छवाकु लिख चुके हैं और सीता उनकी दूसरी किताब है लेकिन उनको कोई रामकथा लेखक नहीं कहता है। ना ही इससे अमिष की प्रतिष्ठा और आय पर कोई असर पड़ा है। इसी तरह से केरल के इंजीनियर आनंद नीलकंठन ने भी रामायण और महाभारत को आधार बनाकर असुर से लेकर काली तक पर लेखन किया। उनके लेखन को सराहा गया। आनंद की किताबें खूब जमकर बिकीं, देश विदेश की पत्र-पत्रिकाओं ने उनपर उनके लेखन पर लंबे लंबे लेख छापे । लेकिन हिंदी में स्थिति इससे बिल्कुल उलट है। हिंदी में राम पर विपुल लेखन करनेवाले नरेन्द्र कोहली को विचारधारा विशेष के लेखकों और आलोचकों ने रामकथा लेखक कहकर हाशिए पर डालने की कोशिश की। ये तो नरेन्द्र कोहली के लेखन की ताकत और निरंतरता थी कि उन्होंने अपना एक पाठकवर्ग बनाया जिसे विचारधारा से कोई मतलब नहीं था । नरेन्द्र कोहली को कभी भी तथाकथित मुख्यधारा का लेखक नहीं माना गया क्योंकि वो धर्म पर लिख रहे थे और किसी लेखक को मुख्यधारा का मानने या ना मानने का काम जिनके जिम्मे था वो धर्म को अफीम मानते रहे थे । कोहली जी को कभी भी साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य ही नहीं माना गया। एक कार्यक्रम में जब मैंने यह सवाल उठाया तो वहां एक मार्क्सवादी आलोचक ने कहा कि अब यही दिन देखने को रह गए हैं कि कोहली जैसे लेखकों को साहित्य अकादमी मिलेगा। सवाल यही उठता है कि रामायण, महाभारत, विवेकानंद आदि पर विपुल लेखन करनेवाले नरेन्द्र कोहली को अकादमी पुरस्कार के योग्य क्यों नहीं माना गया, इसपर विमर्श होना चाहिए। साहित्य अकादमी के पास भूल सुधार का मौका है।  

नरेन्द्र कोहली जैसे बड़े लेखक को रामकथा लेखक कहने से हिंदी का नुकसान हुआ क्योंकि मिथकीय चरित्रों और पात्रों पर लिखने का काम हिंदी में कम हुआ। उऩ परिस्थितियों और उन लोगों को चिन्हित किया जाना चाहिए जिन्होंने हिंदी का नुकसान किया। नतीजा यह हुआ कि नए लेखकों ने विचारधारा के खौफ में उधर यानि मिथकीय लेखन का रुख ही नहीं किया। भगवान सिंह ने अपने अपने राम लिखा पर उस कृति पर भी अच्छा खासा विवाद हुआ था। रमेश कुंतल मेघ ने विश्व मिथक सागर जैसे ग्रंथ की रचना की है । रमेश कुंतल मेघ ने इस किताब को लिखने में कितनी मेहनत की होगी इसका अंदाज लगाना कठिन है। इस किताब पर हिंदी में ठीक से विचार नहीं हुआ है, आगे होगा इसमे मुझे संदेह है क्योंकि अकादमियों आदि में अब भी उसी विचारधारा वालों का बोलबाला है। फासीवाद-फासीवाद का हल्ला मचाकर वो अपने से अलग विचार रखनेवालों को बैकफुट पर रखते है। यह उनकी रणऩीति है जिसको समझने की जरूरत है। फासीवाद का हौवा खड़ा करके सामनेवाले को रक्षात्मक मुद्रा में लाकर अपना उल्लू सीधा करने की चाल बहुत पुरानी है, लेकिन जानते बूझते भी उसको रोकने का काम नहीं किया जाना भी दुर्भाग्यपूर्ण है। मिथकीय और पौराणिक चरित्रों पर लेखन करने से रोकने की प्रवृत्ति को समझना इसलिए भी आवश्यक है कि इस प्रवृत्ति से हिंदी का, हमारी पारंपरिक चिंतन पद्धति का विकास अवरुद्ध हो गया है। जो काम अंग्रेजी में या जो काम मलयालम में या तमिल में हो सकता है और वहां उसको प्रतिष्ठा मिल सकती है वो हिंदी में क्यों नहीं हो सकता है। हिंदी को अपनी परंपरा से अपनी विरासत से अपने समृद्ध लेखन से दूर करनेवालों ने साहित्य के साथ आपराधिक कृत्य किया है। इस कृत्य को करनेवालो को अगर समय रहते चिन्हित कर उनसे सवाल नहीं पूछे गए तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी के पाठक अपनी विरासत को जानने समझने के लिए दूसरी भाषा का रुख करने लगेंगे। वह स्थिति हिंदी के लिए बहुत विकट होगी और जो नुकसान होगा फिर उसको रोक पाना मुमकिन हो पाएगा, इसमें संदेह है।     

नए विमर्शों की तलाश

इन दिनों अगर हम देखें तो पाते हैं कि साहित्य के दायरे का विस्तार हुआ और कई अन्य तरह का लेखन भी साहित्य के केंद्र में आया । शास्त्रीय तरीके के विधाओं के कोष्टक को कई लेखकों ने विस्तृत किया । सिनेमा,खेल आदि पर लेखन शुरु हुआ । परंतु अब भी कई क्षेत्र हैं जिनपर लिखा जाना शेष है । हिंदी में साइंस फिक्शन की तरफ अभी भी लेखकों की ज्यादा रुचि दिखाई नहीं देती है । 
साहित्य को लेकर हिंदी में लंबे समय से कोई विमर्श भी नहीं हुआ । इसके स्वरूप और प्रकृति को लेकर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । प्राचीन भारतीय विद्वानों ने और पश्चिम के आलोचकोंलेखकों ने भी उसपर लंबे समय तक विचार किया था । उन्होनें साहित्य क्या हैसाहित्य की प्रकृति क्या होकविता क्या है,कहानी कैसी होकहानी और उपन्यास में क्या अंतर होना चाहिएउपन्यास का महाकाव्यत्व क्या होसाहित्य का व्याकरण क्या हो पर अपनी राय रखी थी । समकालीनों से संवाद किया और अपने पूर्ववर्ती लेखकों के विचारों से मुठभेड़ किया था । बेलिंस्की जैसे विद्वान ने तो साहित्य क्या हैइसको केंद्र में रखकर एक मुकम्मल लेख लिखा ही था । गुरवर रवीन्द्रनाथ टौगोर से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी तक ने साहित्य की सामग्री और साहित्य का व्याकरण जैसे लेख लिखे । अंग्रेजी में साहित्य को लिटरेचर कहा जाता हैलिटरेचर का संबंध लेटर यानि अक्षर से है और बहुधा अक्षर में व्यक्त किए गए भावों को साहित्य माने जाने की अवधारणा भी दी गई । इसी के अंतर्गत कृषि साहित्य से लेकर अश्लील साहित्य तक का वर्गीकरण किया गया था । हिंदी में यह अवधारणा बहुत चल नहीं पाई और मुख्य विधाओं को ही साहित्य माना जाता रहा । उसमें से कई युवा लेखकों ने प्रयोग किए । कई युवा साहित्यकारों ने पहले किसी अन्य विधा के लेखक के तौर पर अपनी पहचान बनाई और फिर उन्होंने अपने लिए नया रास्ता चुना और अब उनकी पहचान उस नए रास्ते की वजह से हो रही है ।
उदाहरण के तौर पर देखें तो यतीन्द्र मिश्र का आगमन साहित्य में एक कवि के तौर पर हुआ था और उन्हें कविता का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल सम्मान’ भी मिला था लेकिन अब उनको साहित्य में कवि के रूप में कम और संगीत अध्येता के रूप में ज्यादा जाना जाता है । उन्होंने अक्का महादेवी’ से लेकर लता मंगेशकर’ पर गंभीरता से लिखकर अपनी तो नई पहचान स्थापित की ही साहित्य का दायरा भी बढ़ाया । इसी तरह से एक दूसरा नाम अनु सिंह चौधरी का है । अनु ने पहले अपनी पहचान एक कहानीकार के रूप में बनाई । उनका कहानी संग्रह नीला स्कार्फ’ काफी चर्चित रहा और कहानी की दुनिया में उनको गंभीरता से लिया जाने लगा लेकिन जब से उनकी किताब मम्मा की डायरी’ प्रकाशित हई तो उनकी कहानीकार वाली पहचान नेपथ्य में चली गईं और एक स्त्री के कदम कदम पर संघर्ष को सामने लाने वाली लेखिका के तौर पर पहचाना जाने लगा । इसी तरह से अगर देखें तो रत्नेश्वर सिंह ने पहले अपनी पहचान एक कहानीकार के तौर पर स्थापित की लेकिन बाद में जीत का जादू’ जैसी बेहतरीन किताब लिखकर मोटिवेशनल गुरू के तौर पर खुद को स्थापित किया । रत्नेश्वर को उनकी कहानियों और मीडिया पर लिखी दर्जनों किताब से ज्यादा पहचान जीत का जादू’ ने दिलाई । अब रत्नेश्वर का नया उपन्यास रेखना मेरी जान’ प्रकाशित होने वाली है जिसके लिए प्रकाशक ने उनके साथ पौने दो करोड़ रुपए का कांट्रैक्ट किया है । तो यह स्थिति साहित्य के लिए बेहतर मानी जा सकती है । 

Friday, May 19, 2017

राष्ट्रपति चुनाव बहाना, 2019 निशाना

करीब दो महीने बाद होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए सियासी बिसात बिछने लगी है। पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों में से चार में जीत हासिल करने और दिल्ली म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव में हैट्रिक लगाने के बाद बीजेपी के हौसले बुलंद हैं। वहीं चुनाव दर चुनाव हार के बाद से विपक्ष दलों के हौसले पस्त हैं। इन पस्त हौसलों की वजह से ही अलग अलग सियासी जमीन पर राजनीति करनेवाले दल एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं। आंकड़े बता रहे हैं कि एनडीए को अपने राष्ट्रपति उम्मीदवार को जिताने में कोई दिक्कत नहीं होगी। विपक्ष के उम्मीदावर की हार भी लगभग तय है । बावजूद इसके बीजेपी के विरोधी दल राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी एकता के लिए एड़ी चोटी का जोड़ लगाए हुए हैं । कहा तो यहां तक जा रहा है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए कम्युनिस्टों को बंगाल में अपने चिर प्रतिद्वंदी तृणमूल कांग्रेस के साथ आने में भी अब कोई परहेज नहीं रहा । सोनिया गांधी बीमार होने के बावजूद दिल्ली में विपक्षी दलों के नेताओं के साथ लगातार बैठकें कर रही हैं । ममता बनर्जी ने की लंबी मुलाकात सोनिया गांधी से हुई लेरिन राष्ट्रपतु चुनाव के लिए विपक्ष के साझा उम्मीदवार को लेकर सहमति नहीं बनी है। उधर सीताराम येचुरी ने भी नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारूख अब्दुल्ला और बीजेडी के नेता और ओडिशा के मुख्मंत्री नवीन पटनायक से मुलाकात कर राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के खिलाफ लामबंदी को गति दी है। अबतक नवीन पटनायक कांग्रेस और बीजेपी से समान दूरी बनाए हुए थे लेकिन जब से ओडिशा के स्थानीय निकाय चुनावों में बीजेपी को जबरदस्त सफलता मिली है तो नवीन पटनायक बीजेपी के विरोधवाले पाले में जाते दिखाई दे रहे हैं। अब  भानुमति का कुनबा कैसा बनता है और राष्ट्रपति चुनाव तक क्या शक्ल अख्तियार करता है यह तो वक्त ही बताएगा। प्रणब मुखर्जी के चुनाव के वक्त भी कांग्रेस के विरोध का स्वर उठानेवाले ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव ने आखिर तक राजनीतिक उहापोह बरकरार रखा था वो अभी भी देश की जनता की स्मृति में ताजा है। विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश करना वैसा ही है जैसे अलग अलग दिशाओं में जाने वाले घोड़ेवाले रथ की सवारी करना।
इसके अलावा जो एक बड़ी चुनौती विपक्षी दलों के सामने है वो अपने साझा उम्मीदवार के चयन को लेकर है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे गोपालकृष्ण गांधी,पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार के अलावा शरद पवार और शरद यादव के नाम भी फिजां में, विपक्ष के साझा उम्मीदवार के तौर पर, तैर रहे हैं। गोपालकृष्ण गांधी ने तो माना भी है कि उनसे संपर्क भी किया गया है। गोपालकृष्ण गांधी महात्मा गांधी के पौत्र हैं और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के तौर पर उनका ममता बनर्जी से भी संपर्क बेहतर रहा है। इसके अलावा शरद पवार को लेकर विपक्षी दल इसलिए उत्साहित हैं कि वो मानकर बैठे हैं कि मराठा प्राइड के नाम पर शिवसेना उनका समर्थन कर सकती है। दो हजार सात के राष्ट्रपति के चुनाव में शिवसेना ने कांग्रेस के उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था क्योंकि वो महाराष्ट्र से थीं। उस वक्त शिवसेना ने एनडीए के उम्मीदवार को वोट नहीं दिया था। जेडीयू के नेता शरद यादव का नाम आगे बढ़ा रहे हैं । उनके तर्क का आधार शरद यादव की वरिष्ठता है। राष्ट्रपति चुनाव के नोटिफिकेशन होने के पहले ही विपक्षी दलों के बीच किसी साझे उम्मीदवार के नाम पर सहमति को लेकर जिस तरह की राजनीति चल रही है उससे आनेवाले दिनों के संकेत मिल रहे हैं। संभव है कि चुनाव तक मतभेद खुलकर सामने आ जाएं।

रायसीना हिल्स की इस लड़ाई में बीजेपी का अपर हैंड है क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव की जो प्रक्रिया है,उसमें वोटरों की संख्या के लिहाज से एनडीए को बढ़त हासिल है। राष्ट्रपति चुनाव में लोकसभा और राज्यसभा के चुने हुए सांसद और विधायक वोट डालते हैं। राज्यसभा और लोकसभा के चुने हुए सांसदों की संख्या सात सौ छिहत्तर है और विधायकों की चार हजार एक सौ चौदह। एक सांसद का वोट सात सौ छिहत्तर के बराबर होता है और राज्यों के विधायकों के वोट की गणना जनसंख्या और विधानसभा सदस्यों के अनुपात के हिसाब से तय की जाती है । इस वक्त विधायकों के वोटों की आनुपातिक संख्या पांच लाख उनचास चार सौ आठ है, जबकि सांसदों के वोटों की आनुपातिक संख्या पांच लाख उनचास हजार चार सौ आठ है। इस आधार पर गणना करने से एनडीए के पास कुल वोट पांच लाख बत्तीस हजार सैंतीस हैं और उसको अपने कैंडिडेट को जिताने के सत्रह हजार चार सौ चार वोटों की जरूरत है। राष्ट्रपति चुनाव के नियमों के मुताबिक इलेक्टोरल कॉलेज के वोटों का पचास फीसदी यानि पांच लाख उनचास हजार चार सौ इकतालीस वोट मिलना जीत के लिए आवश्यक है। इसी तरह से अगर आंकड़ों को देखें तो विपक्षी खेमे के पास इलेक्टोरल कॉलेज के तीन लाख इक्यानवे हजार सात सौ उनतालीस वोट हैं। अब तक जिन पार्टियों का रुख साफ नहीं हुआ है उनके वोटों की संख्या एक लाख चौवालीस हजार तीन सौ दो है। दोनों को जोड़ देने के बाद भी यह कुल मत के पचास फीसदी वोट तक नहीं पहुंचता है। अभी कुछ दिन पहले आंध्र प्रदेश की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगन रेड्डी ने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात के बाद एनडीए के उम्मीदवार को समर्थन देने का एलान कर दिया है । इस एलान के बाद एनडीए उम्मीदवार की जीत का रास्ता लगभग साफ हो जाएगा। इन आंकड़ों के बावजूद अगर विपक्षी दल राष्ट्रपति चुनाव के नाम पर एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल वो दो हजार उन्नीस के महागठबंधन की संभावनाओं को तलाश रहे हैं, और इस बहाने से गठबंधन की जमीन तैयार कर रहे हैं। 

Thursday, May 18, 2017

अवसर की ताक में नीतीश कुमार

चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालू यादव औपर उनके बेटे बेटियों के ठिकानों पर छापेमारी हुई। आरोप है कि उनके रेल मंत्री रहते हजार करोड़ रुपए के आसपास बेनामी संपत्ति उनके बेटों और बेटियों के नाम पर की गईं। यह तो जांच के बाद साफ हो पाएगा कि इन आरोपों में कितना दम है लेकिन लालू यादव एक बार फिर से भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह से घिरते नजर आ रहे हैं। पटना में अस्सी लाख की मिट्टी खरीद का आरोप लालू यादव के बेटे पर लगा और उसके बाद तो दानापुर से लेकर दिल्ली तक में बेनामी संपत्ति की बात सामने आने लगी। शेल कंपनियों की मार्फत लेन-देन की बात भी सामने आ रही है। छापेमारी के बाद अब बिहार की गठबंधन सरकार को लेकर भी कयासबाज़ी का दौर शुरू हो गया है। इन अटकलों को लालू यादव के एक ट्वीट ने ही हवा दी जिसमें उन्होंने लिखा कि बीजेपी को नया साथी मुबारक हो। उनका इशारा साफतौर पर नीतीश कुमार की ओर था।
नीतीश कुमार की बीजेपी के साथ नजदीकियों की अटकलें समय समय पर जोर पकड़ती हैं। लेकिन लालू यादव को जल्द ही अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने दूसरे ट्वीट में सफाई दी। पहले ट्वीट और सफाई के बीच एक चतुर राजनेता की तरह उन्होंने नीतीश कुमार को संदेश दे दिया । दरअसल लालू यादव के ठिकानों पर छापेमारी के पहले की घटनाओं को जोड़कर देखें तो एक तस्वीर नजर आती है । संभव है कि ये तस्वीर दूर की कौड़ी हो। छापे के एक दिन पहले एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने एलान किया था कि उनकी सरकार भ्रष्टाचारियों को किसी कीमत पर छोड़नेवाली नहीं है । उस कार्यक्रम में उन्होंने ये भी कहा था कि भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई को लेकर मीडिया सरकार पर राजनीतिक बदले की भावना से काम करने का आरोप ना लगाए।
अमित शाह के इस बयान के पहले पटना में नीतीश कुमार से जब लालू यादव पर लग रहे आरोपों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि अगर लालू यादव पर लग रहे आरोपों में दम है तो केंद्रीय एजेंसी से जांच करा लें। इन बयानों के अगले ही दिन लालू यादव के ठिकानों पर छापेमारी हुई। हो सकता है कि इन बयानों में कोई साझा सूत्र नहीं हो लेकिन इनके निहितार्थ तो ढूंढे ही जाएंगे। इनको जोड़कर देखा ही जाएगा। लालू यादव पहले से ही भ्रष्टाचार के आरोप में सजा काट रहे हैं, लिहाजा इन आरोपों की वजह से वो परसेप्शन की लड़ाई में पिछड़ते नजर आ रहे हैं। लालू यादव भले ही इसको सांप्रदायिकता के खिलाफ अपनी लड़ाई करार दें, लेकिन जनता के मन में शायद ही लालू के बयानों का असर हो। पहले हर बात में लालू यादव सामाजिक न्याय की दुहाई दिया करते थे, इन दिनों वो सांप्रदायकिता को अपनी राजनीति का आधार बनाना चाहते हैं। सामाजिक न्याय इन दिनों नेपथ्य में चला गया है। लालू यादव इस वक्त अपनी राजनीति के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। खुद सजायाफ्ता है, बेटों और बेटी पर संगीन इल्जाम लग रहे हैं। नीतीश कुमार के साथ चलना उनकी मजबूरी है। लेकिन नीतीश कुमार की कोई मजबूरी नहीं है। जब-जब लालू यादव या उनकी पार्टी के लोग नीतीश कुमार को आंख दिखाने की कोशिश करते हैं तो नीतीश कुमार एक महीन राजनीतिक चाल से सबको लाइन पर ले आते हैं। लालू यादव के ठिकानों पर छापे के बाद नीतीश कुमार ने बेहद सधा हुआ बयान दिया है।

नीतीश कुमार के बारे में कहा जाता है कि वो अपनी छवि को लेकर खासे सतर्क रहते हैं। इसके अलावा उनके प्रतिद्वंदी भी ये मानते हैं कि राजनीति में भविष्य को भांपने की कला में वो माहिर हैं। भविष्य को भांपकर ही उन्होंने राजनीति में अपने चिर प्रतिद्वंदी लालू यादव के साथ बिहार विधानसभा चुनाव के पहले गठबंधन कर लिया था। इस गठबंधन का लाभ भी उनको मिला। हो सकता है कि नीतीश कुमार को लग रहा हो कि अब अगले दस साल की राजनीति में बीजेपी का विरोध करके कोई फायदा नहीं है। वो जिस दिन अपने इस आंकलन से कन्विंस हो जाएंगे उस दिन उनको बीजेपी के साथ जाने में कोई संकोच नहीं होगा। दूसरे नीतीश कुमार अगर विपक्ष की राजनीति में अपनी जगह तलाशते हैं तो उनको ज्यादा से ज्यादा नंबर दो की हैसियत मिल सकती है, हलांकि ममता बनर्जी, नवीन पटनायक आदि के रहने से नंबर दो की पोजिशन हासिल करने में भी नीतीश को खासी मशक्कत करनी पड़ सकती है। विपक्षी एकता की धुरी इस वक्त कांग्रेस ही है और राष्ट्रीय पार्टी होने की वजह से उसका दावा भी यही होगा। अब राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्षी एकता कितनी हो पाएगी इसमें भी संदेह है। विपक्षी दलों के नेताओं और पार्टियों के अपने इतने अंतर्रविरोध हैं कि सबको एक साथ लाना लगभग टेढ़ी खीर है। यूपी में मायावती- अखिलेश को साथ लाना, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और वामपंथियों को साथ लाना आसान नहीं है। सबकी अपनी अपनी महात्वाकांक्षा है, सबके अपने अपने एजेंडे हैं, सबके अपने अपने सपने भी हैं। ऐसी परिस्थिति में नीतीश कुमार अगर बीजेपी के साथ जाते हैं तो कम से कम बिहार में उनके लिए किसी तरह की चुनौती नहीं होनेवाली है। दो हजार उन्नीस के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बीजेपी भी चाहेगी कि उसको बिहार में नीतीश कुमार जैसा मजबूत और बेदाग छवि वाला सहयोगी मिले। सारी स्थितियां किसी नए समीकरण की ओर संकेत कर रही है। हो सकता है कि ये आंकलन अभी कालपनिक लगे लेकिन इस वक्त के माहौल में इनको काल्पनिक कहकर खारिज नहीं किया जा सकता है।    

Saturday, May 13, 2017

कुंठा छोड़ो, हिंदी अपनाओ

अभिनेता इरफान खान ने बॉलीवुड में हिन्दी की स्थिति को लेकर जो कहा है वो गंभीर चिंता का विषय है। अपनी फिल्म हिंदी मीडियम को लेकर उत्साहित इरफान खान के मुताबिक देश की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेजी को प्रथामिकता मिलती है। हमारे देश में लोग अंग्रेजी इस वजह से सीखते हैं कि उन्हें दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता साबित करनी होती है। इरफान जोर देकर कहते हैं कि किसी भी भाषा में सिद्धहस्त होना बुरी बात नहीं है, लेकिन जब आप किसी भाषा को सिर्फ इस वजह से सीखने की कोशिश करते हैं कि आप दूसरों पर श्रेष्ठता साबित कर सकें, तो यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण होती है। अंग्रेजी को अन्य भारतीय भाषा की तुलना में प्राथमिकता दिए जाने को वो औपनिवेशिक मानसिकता भी करार देते हैं। इस पृष्ठभूमि में इरफान ने साफ किया कि बॉलीवुड के ज्यादातर अभिनेता अंग्रेजी में सोचते हैं और फिर उसको हिंदी में कार्यान्वयित करते हैं।यहां तक तो ठीक है लेकिन जब हिंदी का सारा कारोबार अंग्रेजी में होने लगे, हिंदी की लिपि बदलने की कोशिश हो तो वह चिंता का सबब बन जाती है। यह तथ्य है कि बॉलीवुड की हिंदी की लिपि देवनागरी नहीं है बल्कि रोमन है। कहा तो यहां तक जाता है कि जब कोई कहानीकार किसी प्रोड्यूसर के पास या फिर अभिनेता के पास लेकर जाता है तो उससे कहानी को देवनागरी में नहीं रोमन में लिखकर देने को कहा जाता है। अभिनेता और अभिनेत्रियों को भी संवाद रोमन में लिखकर दिए जाते हैं। यह स्थिति सचमुच हमें सोचने पर विवश कर देती है।
कुछ दिनों पहले अभिनेता मनोज वाजयेपी ने भी कुछ इसी तरह की बातें की थीं और उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि अगर उनके पास देवनागरी में कहानी नहीं आती है तो वो उसको सुनने या पढ़ने से मना कर देते हैं। लेकिन मनोज वाजपेयी जैसे अभिनेता उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। सवाल यही है कि हिंदी को लेकर बॉलीवुड में उदासीनता का माहौल क्यों है। क्यों देवनागरी को लेकर अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के बीच हिकारत का भाव रहता है। इसकी वजहों को ढूंढने पर जो सबसे बड़ी वजह सामने आती है वह है नए अभिनेताओं का अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों से पढ़ा होना। हिंदी तो वो उतना ही जानते समझते हैं जितना जरूरी होता है। उस भाषा को लेकर उनके मन में किसी तरह का अनुराग नहीं है जिसको बोलने वाले उनको पलकों पर बिठाए रखते हैं, उनको स्टार बनाते हैं। यहां बात सिर्फ पलकों पर बिठाने की नहीं है, यहां तो बात सिनेमा के अर्थशास्त्र की भी है। इन सितारों को करोड़ों की कमाई भी इन्हीं हिंदी भाषी प्रदेशों के दर्शकों से होती है। कारोबारी ईमानदारी भी कहती है कि आप जिस भाषा से कमाई कर रहे हैं उस भाषा के प्रति आपकी एक जिम्मेदारी तो बनती ही है उसको सहेजने, संजोने और संवर्धित करने का फर्ज भी बनता है। लेकिन हमारे सिनेमा के सितारों को भाषा से क्या लेना देना उनको तो मतलब होता है अपने स्टारडम से और अपनी फिल्मों की कमाई से। वो उनको रोमन में संवाद बोलकर भी मिल जाती है।
एक जमाना था जब हिंदी फिल्मों के गानों में खालिस हिंदी की पदावलियों और शब्दालियों का उपयोग होता था। पंडित नरेन्द्र शर्मा का लिखा गाना जिसे लता मंगेशकर की आवाज ने अमर कर दिया उसके शब्दों पर गौर करें- ज्योति कलश छलके/हुए गुलाबी,लाल सुनहरे/रंग दल बादल के। गीतकार की लेखनी यहीं नहीं रुकती है। आगे पंडित जी लिखते हैं-/घर आंगन वन उपवन उपवन/करती ज्योति अमृत के सींचन/मंगल घट ढल के। अब यहां शब्दों के चयन पर गौर फर्माया जाए। इन दिनों अगर कोई ऐसा गीत लिखकर ले जाए तो संगीतकार तो संगीतकार फिल्मकार भी उसे रद्दी के टोकरे में फेंक देगा। संभव है कि अभिनेता और अभिनेत्री भी इसको अपने पर फिल्माने से मना कर दे। लेकिन पंडित नरेन्द्र शर्मा ने जो रच दिया वो आज भी लोग चाव से सुनते हैं। लता मंगेशकर के बेहतरीन गानों में से एक माना जाता है। दो पंक्तियों पर और गौर करने की जरूरत है- पात पात बिरबा हरियाला/धरती का मुख हुआ उजाला/सच सपने कल के। इसी गाने में अंबर, कण जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। तो कहना कि कठिन हिंदी के श्रोता या दर्शक नहीं है यह बिल्कुल गलत है। अब तो फिल्म के गीतों की क्या स्थिति होती जा रही है इसपर कुछ कहना व्यर्थ है। सरकाए ले खटिया से लेकर लड़की पटाए ले मिस्ड कॉल से, जैसे बोल लिखे जा रहे हैं।
इस तरह की हिंदी को लिखनेवाले लगातार ये तर्क देते हैं कि हमारे युवा इसको पसंद करते हैं। बहुक विनम्रतापूर्वक ये सवाल उठाना चाहता हूं कि क्या ऐसा कोई सर्वेक्षण हुआ है जिसमें ये पता चला हो कि हिंदी प्रदेशों के युवा अंग्रेजी मिश्रित हिंदी पढ़ना,देखना, सुनना चाहते हैं। इसका उत्तर है नहीं। युवाओं के कंधे पर बंदूक रखकर हिंदी को जख्मी करने का ये उपक्रम समझ से परे है। बल्कि हमें तो लगता है कि ऐसा करके हम अपने युवाओं को कमतर आंकते हैं। पाठकों को याद होगा कि जब अमिताभ बच्चन कौन बनेगा करोड़पति की हॉट सीट पर बैठते हैं तो वो विशुद्ध हिंदी बोलते हैं और उनके संवाद हर किसी की जुबान पर होते हैं। पंचकोटि जैसे शब्द को लोग समझने लगे। हो सकता है कि ये अमिताभ बच्चन की ताकत हो लेकिन हिंदी को समझने में लोगों को दिक्कत तो नहीं आई। कहीं किसी भी कोने अंतरे से ये आवाज तो नहीं आई कि इतनी कठिन हिंदी क्यों बोली जा रही है या फिर उस कठिन हिंदी वाले कार्यक्रम को भारत के युवाओं ने देखना छोड़ दिया। दरअसल हिंदी को कठिन और आसान के खांचे में बांटने की कोशिश ही गलत है। बोलचाल की हिंदी      और साहित्य की हिंदी को अलग कर देखने की प्रवृत्ति ने भाषा का नुकसान किया। नुकसान तो हर गली मुहल्ले में खुले कांन्वेंटनुमा अंग्रेजी स्कूलों ने भी किया। अब अपनी हिंदी को लेकर लोगों के मानस में एक स्पंदन हुआ है । जरूरत इस बात की है कि हम अपनी भाषा पर गर्व करें, उसको गर्व के साथ अपनाएं और बढ़ाएं। हिंदी को लेकर मन में पलनेवाली कुंठा को दूर भगाएं।     


सांस्कृतिक नीति की आवश्यकता

इन दिनों साहित्य कला जगत में सरकार के एक कदम को लेकर खासी चर्चा है। सरकार ने इन संस्थाओं को कहा है कि वो अपने बजट का तीस फीसदी अपने आंतरिक स्त्रोत से इकट्ठा करें। इस संबंध में साहित्य अकादमी और संस्कृति मंत्रालय के बीच सत्ताइस अप्रैल को एक करार हुआ है। इस करार के मुताबिक साहित्य अकादमी को इस बाबत कोशिश करनी होगी। इसी तरह का करार अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं के लिए प्रस्तावित है । माना जा रहा है कि निकट भविष्य में ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र जैसी संस्थाओं को भी अपनी बजट का तीस फीसदी हिस्सा अपने आंतरिक स्त्रोत से इकट्ठा करना होगा। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसपर गहन विचार-विमर्श के बाद फैसला किया जाना चाहिए था। इस फैसले के दो पक्ष हैं और दोनों पर विचार करते हुए अगर किसी नतीजे पर पहुंचते तो बेहतर होता। साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी में पूर्व में कई तरह की गड़बड़ियां हुई हैं। कई साल पहले साहित्य अकादमी के और अब ललित कला अकादमी के सचिव को उनके पद से हटाया भी जा चुका है। संसदीय समितियों ने इनके कामकाज में भी कई गड़बड़ियां पाई थीं। उसके बाद बनी हाई पॉवर कमेटी ने भी कई तरह की सिफारिशें की थीं। बावजूद इसके इन संस्थानों के बजट में कटौती और उनको संसाधन जुटाने के लिए कहना उचित नहीं है।साहित्य,कला और संस्कृति हमेशा से राज्याश्रयी रही है। बगैर राज्याश्रय के कला-संगीत कभी फला-फूला नहीं है। साहित्य अकादमी ने जो करार संस्कृति मंत्रालय के साथ किया है वो उनकी बेवसाइट पर मौजूद है। उसको ध्यान से पढ़ने के बाद संस्कृति मंत्रालय के इस प्रस्ताव की विसंगतियां समझ में आती हैं। साहित्य अकादमी को सरकार से अलग अलग मदों के लिए अनुदान मिलता है। जैसे वेतन के लिए अलग, कार्यक्रमों के लिए अलग, लेखकों की यात्रा के लिए अलग और सलाना अकादमी पुरस्कारोंम के लिए अलग । अगर सूक्ष्मता से तीस फीसदी संसाधन जुटाने के प्रस्ताव को देखें तो यह प्रस्ताव हास्यास्पद लगता है। अकादमी अपने कर्मचारियों के वेतन का तीस फीसदी किस तरह से और कहां से जुटाएगी? सवाल उठता है कि करार बनानेवालों ने इस बात पर विचार किया या करार पर दस्तखत करनेवालों ने इस बाबत अपनी आपत्ति दर्ज की।
अकादमी लेखकों को हर साल दिए जानेवाले पुरस्कार की राशि का तीस प्रतिशत कहां से लाएगी इस बारे में सोचा जाना चाहिए था। इसका तो एक ही उपाय सूझता है कि ये अकादमियां अपने पुरस्कारों के लिए स्पांसरशिप ढूंढें। कुछ सालों पहले साहित्य अकादमी के पुरस्कार को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने स्पांसर करने का प्रस्ताव किया था, लेकिन लेखकों के विरोध आदि को देखते हुए वो जना परवान नहीं चढ़ सकी थी। साहित्य, कला और संस्कृति की इन संस्थाओं को बाजार की बुरी नजर से बचाकर रखने की कोशिश होनी चाहिए। अगर सरकार इन अकादमियों के खर्चे से अपने को अलग करना चाहती है तो उनको सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी फंड को इन अकादमियो को दिलवाने के लिए आदेश जारी करना चाहिए। निजी क्षेत्र का पैसा जैसे ही इन अकादमियों में लगेगा तो फिर उन कंपनियों की शर्तें भी लागू करनी पड़ेंगी।
दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी कला केंद्र की स्थिति इन अकादमियों से थोड़ी अलग है। दिल्ली के मध्य में इसके पास करीब बीस पचीस एकड़ का परिसर है। इस परिसर का व्यावसिक उपयोग होता रहा है। यहां साहित्यक मेलों से लेकर फूड फेस्टिवल तक आयोजित किए जाते हैं। इन आयोजनों के लिए कला केंद्र अपने लॉन से लेकर हॉल तक किराए पर देती है। उनको इससे आमदनी होती है। बस इस तरह की बुकिंग को बढ़ाना होगा। इसी परिसर में राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का दफ्तर भी है, जो इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को हर महीने लाखों रुपए किराया देती है। तो इंदिरा गांधी कला केंद्र के लिए सरकार से मिलनेवाले अनुदान का तीस प्रतिशत अपने स्त्रोतों से जुटाना मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के पास सौ करोड़ की संचित निधि भी है जिसका ब्याज भी सालों से उनको मिलता रहा है, जो सरकार से मिलने वाले अनुदान के अतिरिक्त होता है। लेकिन साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी के परिसर ना तो बड़े हैं और ना ही उनको किराए आदि से भारी भरकम रकम मिलती है। कला प्रदर्शनी पर अगर टिकट लगाते हैं तो जो थोड़े दर्शक आते हैं वो भी इनसे मुंह मोड़ लेंगे। इसी तरह से संगीत नाटक अकादमी अगर टिकट लगाना शुरू कर देगी तो वहां भी दर्शकों, श्रोताओं को जमा करना बहुत मुश्किल होगा। साहित्य अकादमी अवश्य किताबों का प्रकाशन करती है, लेकिन वो किताबों का मूल्य बाजार के हिसाब से तय नहीं करती है बल्कि पाठकों की सहूलियत के हिसाब से तय की जाती है । इन अकादमियों का उद्देश्य देश में कला, साहित्य और संस्कृति के माहौल का निर्माण करना है और अगर ये व्यावसायिक गतिविधियों में लगकर धन इकट्ठा करने लगेंगी तो फिर मूल उद्देश्य से भटकने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
सरकार में बैठे संस्कृति के कर्ताधर्ताओं को इस पहलू पर विचार करना चाहिए। दरअसल होता यह है कि सरकार में बैठे आला अफसर साहित्य कला और संस्कृति को भी अन्य विभागों की तरह चलाना चाहते हैं। गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है। नीति बनाते समय इन संस्थाओं के उद्देश्यों को समझते हुए उसके असर का भी आंकलन करना आवश्यक होता है। यह सुनने देखने में बहुत अच्छा लगता है कि स्वायत्तशासी संस्थाओं को वित्तीय रूप से भी स्वायत्त होना चाहिए। जब इस सिद्धांत को साहित्य कला और सांस्कृतिक संगठनों पर लागू करने के बारे में फैसला लेने की घड़ी आती है तो भारत सरकार के लोक-कल्णकारी स्वरूप को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
अगर हम देश के अन्य राज्यों की अकादमियों पर गौर करें तो राज्य सरकारों ने उनको लगभग पंगु बना दिया है । इन अकादमियों को राज्य सरकारों ने अपना प्रचार विभाग बना दिया है चाहे वो दिल्ली की हिंदी अकादमी हो या बिहार की संगीत नाटक अकादमी। बिहार की इस अकादमी को तो राज्य सरकार ने इवेंट मैनेजमेंट कंपनी बना दिया है। सरकार को जब कोई कार्यक्रम आदि करना होता है तो वो अकादमी को एक निश्चित राशि अनुदान के तौर पर दे ती है। इस अनुदान के साथ यह आदेश भी आता है कि अमुक कार्यक्रम, अमुक संस्था या अमुक व्यक्ति को दिया जाए। उदाहरण के लिए प्रकाश पर्व के वक्त अकादमी को करीब दो करोड़ रुपए का अनुदान मिला था, साथ ही ये आदेश भी आया था कि ये राशि दिल्ली के भाई बलदीप सिंह से जुड़े अनाद फाउंडेशन को दिया जाए जो कि उस दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करेगी। । ऐसा ही हुआ भी । इसी तरह से आगामी सितंबर अक्तूबर में बिहार में विश्व कविता सम्मेलन का आयोजन किया जाना है। इस आयोजन का बजट तीन करोड़ का है और इसका आयोजन बहुत संभव है कि बिहार संगीत नाटक अकादमी के माध्यम से हो। इस आयोजन को करने का जिम्मा अशोक वाजपेयी या उनकी संस्था को दिया जाना भी लगभग तय है। ऐसी स्थिति में अकादमी के करने के लिए क्या बचता है। दरअसल बिहार सरकार ने ऐसी व्यवस्था बना दी है कि अगर किसी कार्यक्रम में किसी तरह की गड़बड़ी हो तो उसकी जिम्मेदारी अकादमी पर डाल कर निकल लिया जाए। अब अगर विश्व कविता सम्मेलन सफल होता है तो सेहरा अशोक वाजपेयी और बिहार सरकार के सर बंधेगा और अगर किसी तरह की गड़बड़ी होती है तो अकादमी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाएगा।
बिहार में संगीत नाटक अकादमी की दुर्दशा और स्वयत्ता को खत्म करने के खिलाफ किसी भी कोने अंतरे से आवाज नहीं उठती है। कोई जनवादी लेखक संघ, कोई प्रगतिशील लेखक संघ या कोई जन संस्कृति मंच इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता है। इसके राजनीतिक कारण हैं जो बिल्कुल साफ हैं। यहां इनको संस्कृति पर कोई खतरा भी नजर नहीं आता है। बिहार के भी जो क्रांतिकारी लेखक आदि हैं वो भी खामोश हैं।

दरअसल अब वक्त आ गया है कि केंद्र सरकार को एक ठोस सांस्कृतिक नीति बनानी चाहिए । जब इन अकादमियों का गठन हुआ था तब देश की स्थिति अलग थी, अब परिस्थियां काफी बदल गई हैं। बदलते वक्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए यह आवश्यक है कि एक नई सांस्कृतिक नीति बनाई जाए जिसमें इन अकादमियों के काम काज को बारीकी से तय किया जाए, उनके संसाधनों को भी। इस प्रस्तावित नीति पर राष्ट्रव्यापी बहस हो, विचार हो, मंथन हो और फिर किसी नतीजे पर पहुंचा जाए। सांस्कृतिक नीति बनाते वक्त अफसरशाही से ज्यादा इस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की राय को तवज्जो दिया जाना चाहिए ताकि व्यावहारिकता का ध्यान रखा जाना चाहिए।               

नंबर टू के झगड़े में AAP का बंटाधार! ·

आम आदमी पार्टी का झगड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। जो चीजें सामने नहींआ रही थीं वो भी अब सामने आने लगी हैं। अरविंद केजरीवाल पर अपने रिश्तेदारों को आर्थिक फायदा पहुंचाने का आरोप लगा है। एक समय में उनके लेफ्टिनेंट रहे दिल्ली के मंत्री कपिल मिश्रा ने ही केजरीवाल पर पैसों के लेनदेन का आरोप लगाया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ छवि केजरीवाल की सबसे बड़ी पूंजी थी। उनकी ईमानदारी को चौबीस कैरेट का माना जाता था, लेकिन जिस तरह से आरोप लग रहे हैं उससे उनकी बेदाग छवि पर बट्टा लग रहा है। दरअसल कपिल मिश्रा भी उस रणनीति को अपना रहे हैं जोकेजरीवाल अपनाते थे। आरोप लगाकर नेताओं को संदिग्ध बना देना। केजरीवाल ने तो अपनी उस रणनीति को मीडिया के कंधे पर बैठकर सत्ता तक पहुंचा दिया था लेकिन कपिल मिश्रा कहां तक पहुंचा पाएंगे यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है। लेकिन इतनी कम अवधि में दिल्ली में प्रचंड बहुत हासिल करनेवाली पार्टी का ये हश्र होगा इसकीकल्पना तक किसी ने नहीं की थी। एक बार मैंने इनकी पार्टी की गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए ट्वीट किया था कि अनुभवहीनता का कोई विकल्प नहीं होता तो दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को ये टिप्पणी बुरी लगी थी और उन्होंने ट्वीट पर ही उसका प्रतिवाद भी किया था । अब एक बार मनीष जी से आग्रह है कि वो फिर से मेरी टिप्पणी पर दौर करेंगे तो उनको अपनी टिप्पणी तात्कालिकता में की गई प्रतीत होगी। खैर ये अलहदा मुद्दा है।
अब हम इस बात पर विचार करते हैं कि आम आदमी पार्टी में इस तरह की कलह क्यों हो रही है। कई लोगों का मानना है कि कुमार विश्वास पार्टी के संयोजक बनना चाहते हैं और वो कपिल मिश्रा के कंधे पर रखकर बंदूक चला रहे हैं। संभव है कि इस तरह के आंकलन करनेवालों के पास अपने तर्क हों लेकिन मेरा मानना है कि ये लड़ाई पार्टी में नंबर टू की है। कुमार विश्वास को लगता है कि अरविंद केजरीवाल के बाद वो आम आदमी पार्टी के सबसे विश्वसनीय ना भी हों तो सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं। कुमार को सुनने के लिए कवि सम्मेलनों में भीड़ लगती रही है लेकिन राजनीति में उनके कितने समर्थक हैं यह सामने आना बाकी है। कुमार विश्वास और मनीष सिसोदिया दोनों गाजियाबाद के पास के पिलखुआ कस्बे से आते हैं और उनको नजदीक से जाननेवालों का मानना है कि कुमार और मनीष सहपाठी भी रहे हैं। आंदोलन के दौर और उसके पहले दोनों दोस्त भी थे। लेकिन एक पुरानी कहावत है कि सत्ता ना तो दोस्त देखती है और ना ही दुश्मन, उसका अपना ही व्याकरण चलता है। अरविंद केजरीवाल जब दिल्ली के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मनीष सिसोदिया को उपमुख्यमंत्री बनाकर प्रशासनिक कमान सौंप दी। उस वक्त अरविंद केजरीवाल को लग रहा होगा कि पूरे देश को उनकी आवश्यकता है, लिहाजा वो दौरे आदि करेंगे । अरविंद अपनी इसी महात्वाकांक्षा के चलते पंजाब भी गए और गोवा का चुनाव भी लड़ा। पंजाब में प्रमु विपक्षी दल बन पाए तो गोवा विधानसभा चुनाव में पार्टी अपना खाता नहीं खोल पाई। पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान केजरीवाल ने दिल्ली को कम वक्त दिया और पार्टी में नेताओं से भी दूर होते चले गए। दिल्ली पूरी तरह से मनीष के हवाले कर दिया लेकिन आंदोलन के दौर के साथी कुमार विश्वास को कुछ भी नहीं मिला। कुमार को अपेक्षा थी कि पार्टी उनका उपयोग करेगी लेकिन उनकी तो दिल्ली की हिंदी अकादमी में भी ज्यादा नहीं चल पा रही थी। अब कवि मन को जख्मी करने के लिएइतना काफी था। दूसरे जब कुमार विश्वास ने दिल्ली में अपने जन्मदिन की पार्टी रखी तो उसमें बीजेपी के नेताओं समेत दिल्ली के उस वक्त के पुलिस कमिश्नर बस्सी को आमंत्रित कर लिया था। उस जश्न में केजरीवाल साहब को भी आना था लेकिन जब केजरीवाल को वहां उपस्थित मेहमानों का पता चला तो उन्होंने काफिले को इंडिया गेट से ही वापस घर की तरफ मोड़ लिया था । ऐसी चर्चा उस वक्त राजनीतित हलकों में थी। माना जाता है कि कुमार के प्रति अविश्वास वहीं से पनप गया। यह अविश्वास बढ़ता ही गया क्योंकि दोनों के बीच संवाद भी कम होने लगे थे।

फिर राज्यसभा की तीन सीटों को लेकर पार्टी में रणनीतियां बनने लगीं। अगले साल जनवरी में दिल्ली से राज्यसभा की तीन सीटें खाली हो रही हैं। अगर सब सामान्य रहा तो ये तीनों सीटें आम आदमी पार्टी को मिलनी तय हैं। इन तीन सीटों के लिए कम से कम आधे दर्जन दावेदार हैं जिनमें से कुमार विश्वास भी एक हैं। कुमार को यह लगता होगा कि मनीष को उपमुख्यमंत्री का पद मिला तो उनको राज्यसभा तो मिलना ही चाहिए। अपेक्षाएं बढ़ी जा रही थीं लेकिन केजरीवाल अपने पत्ते खोलने को तैयार नहीं थे।इस बीच कुमार विश्वास और बीजेपी की नजदीकियों की खबरें भी फिजां में तैरती रहीं और इन खबरों ने भी पार्टी में अविश्वास को गहरा किया। दरअसल अगर हम देखें तो केजरीवाल जी अपनी पार्टी के लोगों को संभाल कर नहीं रख पा रहे हैं। आंदोलन के जमाने के उनके साथी एक एक करके उनसे अलग होते चले गए चाहे वो शाजिया इल्मी हों, शिवेन्द्र सिंह या फिर प्रशांत भूषण, आनंद कुमार और योगेन्द्र यादव जैसे वरिष्ठ सहयोगी। सवाल यही उठता है कि ऐसा क्यों होता है। ऐसा इस वजह से भी होता है कि इस तरह की पार्टी में जब लोग जुड़ते हैं तो उनका कोई वैचारिक आधार नहीं होता है। वो बस किसी खास मकसद के लिए पार्टी से जुड़ते चलते हैं और वो मकसद पूरा होने और ना होने की दशा में लोगों का मोहभंग होता चलता है। आम आदमी पार्टी के साथ भी कमोबेश वही हो रहा है। दूसरी वजह होती है सत्ता की चाहत। इसके बारे में क्या कहा जाए ये तो साफ ही है। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि आम आदमी पार्टी में नंबर टू होने की इस लड़ाई में कुमार को विजय मिलती है या मनीष बने रहते हैं ।