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Thursday, June 11, 2020

अंगूठी और समंदर का खामोश अफसाना


कुछ दिनों पहले जब ऋषि कपूर का निधन हुआ था तो मनोरंजन चैनलों पर ऋषि कपूर के पुराने इंटरव्यू सोशल मीडिया पर वायरल हुए। कपिल शर्मा के शो में ऋषि और नीतू सिंह वाला एपिसोड भी खूब चला। उस एपिसोड में जब ऋषि कपूर की प्रेमिकाओं की बात हो रही थी तो कपिल शर्मा ने नीतू सिंह से एक अंगूठी के बारे में पूछा, जब नीतू सिंह ने कहा कि वो उनके पास है तो ऋषि ने कहा कि छोड़ो वो किस्सा यार वो किसी के पास नहीं है वो तो समंदर में है। दरअसल ये बात हो रही थी ऋषि कपूर की उस अंगूठी के बारे में जो उनको उनकी पहली प्रेमिका यासमीन मेहता ने अपने प्रेम की निशानी के तौर पर दी थी। ये एक बेहद साधारण अंगूठी थी लेकिन उसपर एक खास तरह का चिन्ह बना हुआ था। ऋषि कपूर ने अपनी आत्मकथा खुल्लम खुल्ला में लिखा है कि जब वो लोग बॉबी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो डिंपल ने उस अंगूठी को उनकी उंगुली से निकालकर अपनी उंगली में पहन लिया था। फिर डिंपल ने उसको लौटाया नहीं और उस अंगूठी को पहनती रही। बॉबी फिल्म की शूटिंग के दौरान ही राजेश खन्ना ने डिंपल को देखा और उसको अपना दिल दे बैठे। उस समय राजेश खन्ना सुपर स्टार थे और उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। राजेश खन्ना ने डिंपल को प्रपोज किया और दोनों शादी के बंधन में बंध गए। लेकिन इस बीच एक बेहद दिलचस्प किस्सा हुआ। जब राजेश खन्ना ने डिंपल को प्रपोज करने के लिए उनका हाथ अपने हाथ में लिया तो उनको वो अंगूठी दिखाई दी जो डिंपल ने ऋषि की उंगली से उतारकर अपनी उंगली में पहन रखा था। राजेश खन्ना को डिंपल की खूसूरत उंगली में वो अंगूठी नहीं भायी और उन्होंने डिंपल के हाथ से उस अंगूठी को उतारकर जूहू के अपने घर के नजदीक समंदर में उछाल दिया। ऋषि कपूर और यासमीन के प्यार की निशानी जो डिंपल की उंगली में चमकती थी वो समंदर के आगोश में समा गई। उस वक्त फिल्मी गॉसिप छापने वाली पत्रिकाओं में छपा भी था, राजेश खन्ना ने ऋषि कपूरी की अंगूठी समंदर में फेंकी। लेकिन ऋषि ने साफ तौर पर कहा है कि उनको डिंपल से कभी प्यार नहीं था, न ही उनको प्रति आकर्षित थे। हां उन्होंने इतना जरूर माना कि वो डिंपल को लेकर थोड़े पजेसिव थे।
बॉलीवुड सितारों की अंगूठी, उनकी मोहब्बत और समंदर का ये रोमांटिक जिक्र पहली बार नहीं हुआ। इसके पहले देवानंद ने भी अपनी आत्मकथा रोमासिंग विद लाइफ में भी किया है। देवानंद और सुरैया का प्रेम परवान चढ़ रहा था लेकिन सुरैया की नानी को ये पसंद नहीं आ रहा था और उन्होंने साफ तौर पर सुरैया को ये संदेश दे दिया था कि अगर ये प्रेम सबंध आगे बढ़ा तो या तो सुरैया रहेगी या उनकी नानी। लेकिन सुरैया की मां अपनी बेटी और देवानंद के प्यार के पक्ष में थी। जब सुरैया के प्यार पर पहरा लगा था तो उनकी मां ने ही देवानंद और सुरैया को रात साढे ग्यारह बजे के बाद अपने अपार्टमेंट की छत पर मिलने का इंतजाम किया था। देवानंद ने अपनी आत्मकथा में बेहद रोचक तरीके से इस मुलाकात का उल्लेख किया है। उसी मुलाकात में सुरैया ने देवानंद से अपने प्रेम का इजहार किया था और उनसे आलिंगबद्ध होकर आई लव यू कहा था। प्यार के इस मोड़ पर देवानंद इतने खुश थे कि उन्होंने अगले ही दिन मुंबई के झवेरी बाजार से सुरैया के लिए एक एक बेहद खूबसूरत अंगूठी खरीदी। अब समस्या ये थी कि सुरैया तक अंगूठी पहुंचे कैसे। देवानंद फोन करें तो सुरैया की नानी उठाएं और ये फोन रख दें। संपर्क का कोई सूत्र नजर नहीं आ रहा था। अचानक देवानंद को अपने सिनेमेटोग्राफर मित्र दिवेचा याद आए। दिवेचा पहले भी देवानंद और सुरैया के बीच प्रेम-पत्रों के आदान प्रदान का माध्यम बन चुके थे। जब दिवेचा को देवानंद ने फोन किया तो उन्होंने पूछा कि क्या फिर से प्रेम-पत्र पहुंचाना है। एक दिन पहले ही सुरैया से मिल चुके देवानंद ने बेहद खुशी के साथ कहा था कि नहीं इस बार इंगेजमेंट रिंग पहुंचाना है। फिर दिवेचा ने देवानंद की वो अंगूठी सुरैया तक पहुंचा दी। अब देवानंद की खुशी सातवें आसमान पर थी और वो ये मानकर बैठे थे कि उनकी इंगेजमेंट हो गई लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। सुरैया की नानी और उनके रिश्तेदारों ने मिलकर सुरैया पर इतना दबाव बनाया कि वो देवानंद से संबंध तोड़ने पर राजी हो गई। सुरैया जब इस बात के लिए राजी हो गई तो एक दिन वो देवानंद की अंगूठी लेकर समदंर के किनारे पहुंची। उसे अपनी उंगली से उतारा और आखिरी बार देखा, देवानंद के साथ के अपने प्यार को याद किया और फिर अंगूठी को सागर की लहरों पर उछाल दिया। उन लहरों ने देवानंद और सुरैया के प्यार की निशानी को अपने आगोश में ले लिया। फिर समंदर शांत हो गया और सुरैया अपने घर लौट आई।

Thursday, April 30, 2020

प्रेम और विद्रोह का नायक


कहते हैं कि पूत के पांव पलने में दिख जाते हैं लेकिन ऋषि कपूर के पांव तो खाट पर दिखे थे जब उन्होंने बचपन में ही अपने दादा पृथ्वीराज कपूर निर्देशित नाटक पठान में अभिनय किया था। जिसने फिल्मों के सेट पर उसकी शूटिंग के दौरान चलना सीखा हो, जिसके लिए सेट पर लगाए गए सामान खिलौने की तरह हों, जो अपने बचपन में फिल्मों के सेट को ही वास्तविक दुनिया समझता हो उसके लिए फिल्मों में काम करना स्वाभाविक है। ऋषि कपूर का बचपन भी फिल्म श्री 420 और मुगल ए आजम के सेट पर अपने भाई बहनों के साथ खेलते हुए बीता था। मुगल ए आजम के सेट पर वो तलवार से खेलते थे। उन्होंने कहा भी था कि सेट पर तलवारबाजी करना उन्हें बचपन में बहुत पसंद था। फिल्मों और फिल्मकारों के बीच गुजर रहे बचपन से जब किशोरावस्था में पहुंचते हैं तो उनके पिता खुद उनको स्कूल से भगाकर फिल्म में काम करने ले जाने लगे। ये भी एक दिलचस्प तथ्य है कि राज कपूर साहब अपने बेटे को स्कूल से भगाकर फिल्म मेरा नाम जोकर में काम करवाने ले जाते थे। जाहिर सी बात है जो अभिनय उनके रगों में दौड़ था वो इस तरह का वातावरण और सहयोग पाकर निखरने लगा था। तब किसे पता था कि एक ऐसा नायक गढ़ा जा रहा है जो हिंदी सिनेमा के इतिहास में पैंतालीस साल से अधिक समय तक दर्शकों के दिलों पर राज करेगा। अगर हम इसको थोड़ी सूक्षमता के साथ देखें तो पाते हैं कि 1973 में बॉबी के रिलीज होने से लेकर 1998 की फिल्म कारोबार तक यानि पच्चीस साल तक ऋषि कपूर एक रोमांटिक हीरो के तौर पर दर्शकों के दिलों पर राज करते रहे। उसके बाद उन्होंने अपने लिए अलग तरह की भूमिकाएं चुनीं।   
साल 1973 को हिंदी फिल्मों के इतिहास में इस वजह से याद किया जाएगा कि उसने एक साथ हिंदी फिल्मों को एंग्री यंगमैन भी दिया और एक ऐसा हीरो भी दिया जिसकी मासूम रोमांटिक छवि के मोहपाश में दर्शक पचीस साल तक बंधे रहे। 1973 में जब बॉबी फिल्म रिलीज हुई थी तो ऋषि कपूर एक रोमांटिक हीरो के तौर पर स्थापित हो गए थे, इस फिल्म में उनका किरदार युवाओं में मस्ती और मोहब्बत की दीवानगी का प्रतीक बन गया था। इस फिल्म में ऋषि कपूर और डिंपल के चरित्र को इस तरह से गढ़ा गया था कि वो उस दौर में युवाओं की बेचैनी और कुछ कर गुजरने की तमन्ना को प्रतिबिंबित कर सके। किशोरावस्था से जवानी की दहलीज पर कदम रख रहे युवा प्रेमी जोड़े के कास्टूयम को भी इस तरह से डिजायन किया गया था ताकि ऋषि और डिंपल युवा मन आकांक्षाओं को चित्रित कर सकें। जिस तरह से डिंपल के बालों में स्कार्फ और उसके ब्लाउज को कमर के ऊपर बांधकर ड्रेस बनाया गया था या फिर ऋषि कपूर को बड़े बड़े चश्मे पहनाए गए थे उसमें एक स्टाइल स्टेटमेंट था।इस फिल्म के बाद पोल्का डॉट्स के कपड़े खूब लोकप्रिय हुए थे। फिल्म में इन दोनों के चरित्र को टीनएज प्यार और उस प्यार को पाने के लिए विद्रोही स्वभाव का प्रतिनिधि बनाया गया था। ऋषि कपूर और डिंपल की ये सुपर हिट इस फिल्म के बाद जुदा हो गई क्योंकि फिल्म के हिट होते ही डिंपल और राजेश खन्ना ने शादी कर ली थी। ये दोनों फिर करीब बारह साल बाद एक साथ फिल्म सागर में आए। बारह साल बाद भी इस जोड़ी ने सिल्वर स्क्रीन पर प्रेम का वही उत्स पैदा किया और दर्शकों ने दिल खोलकर इस फिल्म को पसंद किया।
ऋषि कपूर अपनी फिल्म बॉबी की सफलता के बाद सातवें आसमान पर थे। 1974 में उनकी और नीतू सिंह की फिल्म आई जहरीला इंसान जो फ्लॉप हो गई लेकिन इस जोड़ी के काम को सराहना मिली। उसके बाद इन दोनों ने कई फिल्मों में साथ काम किया। पर बॉबी जैसी सफलता नहीं मिल पाई। कर्ज को जब अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो वो गहरे अवसाद में चले गए। ऋषि कपूर ने अपनी आत्मकथा खुल्लम खुल्ला में माना है कि उनको कभी भी संघर्ष करने की जरूरत नहीं पड़ी। बहुत कम उम्र में ही बॉबी फिल्म मिल गई और वो बेहद सफल रही। जब असफलताओं से उनका सामना हुआ तो वो लगभग टूट से गए। वो अपनी असफलता के लिए नीतू सिंह को जिम्मेदार मानने लगे थे इस वजह से पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव गया था। यह उस वक्त हो रहा था जब नीतू सिंह गर्भवती थी। तब इस तनाव को दूर करने का बीड़ा राज कपूर ने उठाया और ऋषि को बैठाकर गीता का उपदेश देना शुरू किया। राज कपूर के प्रयासों से ऋषि इस अवसाद से ऊबर पाए। अवसाद के उबरने के बाद ऋषि कपूर ने नसीब और प्रेम रोग जैसी फिल्में की जो बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट रहीं। इसके पहले जब वो अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना के साथ फिल्म अमर अकबर एंथोनी में काम कर रहे थे तो उनके सामने ये चुनौती थी कि दो इतने बड़े अभिनेताओं के सामने अपनी उपस्थिति को बचा भी पाएंगें या नहीं। लेकिन अकबर के रूप में जिस तरह से उन्होंने एक टपोरी चरित्र को निभाया उसने अमिताभ और विनोद खन्ना के समांतर खुद को खड़ा कर लिया।
फिर आया 1989 का साल जब ऋषि कपूर और यश चोपड़ा दोनों ने एक बेहद शानदार और सुपरहिट फिल्म से धमाकेदार मौजूदगी दर्ज कराई। धमाकेदार इसलिए कि सालभर पहले ही यश चोपड़ा की फिल्म विजय में ऋषि ने काम किया था जो फ्लॉप हो गई थी। चांदनी का रोल भी पहले अनिल कपूर को ऑफर हुआ था लेकिन बाद में ऋषि को मिला। ऋषि भी इस रोल को लेकर हिचक रहे थे लेकिन यश चोपड़ा के आश्वसान के बाद मान गए थे। इस फिल्म से ऋषि कपूर की लवर बॉय की इमेज पुख्ता हुई। आज भी दर्शकों को वो दृश्य याद है जब ऋषि कपूर हेलीकॉप्टर से अपनी प्रेमिका श्रीदेवी पर गुलाब की पंखुड़ियां उड़ाता है। लोगों को प्रेम का पाठ पढ़ानेवाला, अपने प्रेम को हासिल करने के लिए विद्रोह करनेवाला नायक अब नहीं रहा। उसके जाने से हिंदी फिल्मों का ये सृजनात्मक कोना सूना हो गया।

Saturday, February 18, 2017

खुल्लम-खुल्ला से खुलते राज

हाल के दिनों में अपने चंद ट्वीट्स को लेकर खासे चर्चा में आए ऋषि कपूर की आत्मकथा जब बाजार में आई तो उसके नाम को लेकर भी लेकर एक उत्सकुकता का वातावरण बना । पत्रकार मीना अय्यर के साथ मिलकर उन्होंने अपनी जिंदगी के कई पन्नों को खोला । अपने पिता और खुद की प्रेमिकाओं के बारे में खुल कर लिखा है । यह किताब शास्त्रीय आत्मकथा से थोड़ा हटकर है क्योंकि इसमें हर वाकए पर ऋषि कपूर कमेंटेटर की तरह अपनी राय भी देते चलते हैं । ऋषि कपूर  ने साफ लिखा है कि जब उनके पापा का नरगिस जी से अफेयर चल रहा था तब घर में सबको मालूम था लेकिन उसकी मां कृष्णा ने बहुत विरोध आदि नहीं किया या इस विवाहेत्तर संबंध को लेकर घर में लड़ाई झगड़ा नहीं हुआ । जब राज कपूर का वैजयंतीमाला से प्रेम संबंध बना तो कृष्णा अपने बच्चों के साथ राज कपूर का घर छोड़कर होटल में रहने चली गई थीं और बाद में अलग घर में । राज कपूर ने तमाम कोशिशें की लेकिन कृष्णा घर तभी लौटीं जब राज और वैजयंती के बीच ब्रेकअप हो गया । इस पूरे प्रसंग को बताते हिए ऋषि इस बात पर हैरानी भी जताते हैं कि वैजयंती माला ने चंद साल पहले एक इंटरव्यू में अरने प्रेम संबंध से इंकार कर दिया था और कहा था कि राज कपूर ने पब्लिसिटी के लिए ये कहानी गढ़ी थी । ऋषि साफ तौर पर कहते हैं कि वैजयंतीमाला को तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश नहीं करना चाहिए वो भी तब जब राज कपूर अपने बचाव के लिए नहीं हैं ।
इसी तरह से ऋषि ने अपनी गर्लफ्रेंड यास्मीन से अपने संबधों के बारे में बताया है । ऋषि ने माना है कि एक फिल्म पत्रिका में उनके और डिंपल के बीच रोमांस की खबरों ने यास्मीन को उनसे अलग कर दिया । यास्मीन के गम में वो कई दिनों तक डूबे रहे थे और एक दिन होटल में यास्मीन को देखकर शराब के नशे में हंगामा किया था । जबकि उन्होंने साफ तौर पर माना है कि डिंपल से उनको कभी प्यार हुआ ही नहीं था । हलांकि कई सालों के बाद उन्होंने डिंपल के साथ फिर से सागर फिल्म में काम किया था तो उस दौर में नीतू सिंह भी दोनों के बीच के रिश्ते को लेकर सशंकित हो गई थी ।
ऐसा नहीं है कि इस किताब में सिर्फ प्यार मोहब्बत के किस्से ही हैं । इस में ऋषि कपूर ने अपनी असफलता के दौर पर भी लिखा है और माना है कि उस दौर में वो अपनी असफलता के लिए नीतू सिंह को जिम्मेदार मानने लगे थे इस वजह से पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव आ गया था । लेकिन इस किताब का सबसे मार्मिक प्रसंग है जब राज कपूर अपने अंतिम दिनों में दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती थे तो दिलीप कुमार उनसे मिलने आए थे । अस्पताल में बेसुध पड़े राज कपूर के हाथ को पकड़कर दिलीप कुमार ने कहा था- राज, अब उठ जा । तू हमेशा से हर सीन में छाते रहे हो, इस वक्त भी सारे हेडलाइंस तेरे पर ही है । राज आंखे खोल, मैं अभी पेशावर से आया हूं और वहां से कबाब लेकर आया हूं जो हमलोग बचपन में खाया करते थे । दिलीप कुमार बीस मिनट तक ऐसी बातें करते रहे थे । ऋषि ने बताया कि दोनों के बीच जबरदस्त प्रतिस्पर्धा रहती थी लेकिन दोनों बेहतरीन दोस्त थे । खुल्लम-खुल्ला में ऋषि ने सचमुच दिल खोल दिया है ।

Sunday, May 22, 2016

नामकरण में साहित्यकारों से परहेज क्यों

अभी हाल ही में केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री मंत्री वी के सिंह ने शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू को पत्र लिखकर दिल्ली के अकबर रोड का नाम बदलकर महाराणा प्रताप के नाम पर करने का अनुरोध किया । यह खबर अभी चल ही रही थी कि ऋषि कपूर ने एक के बाद एक दनादन ट्वीट करके सियासत की दुनिया में सनसनी फैला दी । ऋषि कपूर ने गांधी-नेहरू परिवार पर सीधे हमला बोला और सवाल पूछा कि क्या सिर्फ एक ही परिवार के सदस्यों के नाम पर एयरपोर्ट और सड़कों के नाम रखे जाने चाहिए । साथ ही ऋषि कपूर ने कलाकारों के नाम लिखकर ये प्रश्न खड़ा किया कि उनके नाम पर कोई सड़क, कोई एयरपोर्ट या किसी सरकारी इमारत का नाम क्यों नहीं रखा जाता है । ऋषि कपूर ने चूंकि इसमें गांध-नेहरू परिवार का नाम ले लिया था इस वजह से जो सियासत शुरू हुई उसमें कई बातें दबकर रह गई । ऋषि के ट्वीट्स की भाषा पर भी कई लोगों ने सवाल खड़े किए। यह सब अपनी जगह पर ठीक है लेकिन कपूर ने अपने एक ट्वीट में कलाकारों के नाम पर सड़क, एयरपोर्ट या सरकारी इमारत का नाम नहीं रखने की जो बात की वो कहीं इस राजनीतिक बयानबाजी के कोलाहल में दबकर रह गई । इस सवाल पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए कि किसी राजधानी में हमें कोई प्रेमचंद मार्ग या निराला मार्ग क्यों नहीं मिलता है । किसी एयरपोर्ट का नाम रामधारी सिंह दिनकर या सुमित्रानंदन पंत के नाम पर क्यों नहीं दिखाई देता है । किसी विश्वविद्लाय का नाम मुक्तिबोध या मोहन राकेश के नाम पर क्यों नहीं दिखाई देता है । हमारे समाज में साहित्यकारों को लेकर इस उदासीनता के भाव की वजह क्या है । हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए । क्या इन सड़कों, इन इमारतों या फिर एयरपोर्ट्स के नाम पर सिर्फ और सिर्फ हक नेताओं का ही है । इस बात पर राष्ट्रव्यापी बहस क्यों नहीं होती है कि नामकरण के वक्त साहित्यकारों के नाम पर भी विचार हो । राजधानी दिल्ली में हर छोटे-बड़े-मंझोले नेता के नाम पर सड़क, चौक, फ्लाईओवर आदि है लेकिन अगर सुब्रह्ण्यम भारती और दिनेश नंदिनी डालमिया का नाम छोड़ दिया जाए तो मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी सड़क का नाम किसी भी भाषा के साहित्यकार के नाम पर है । साहित्य अकादमी के भवन का नाम छोड़ दिया जाए तो याद नहीं पड़ता कि किसी सरकारी इमारत का नाम किसी वरिष्ठ साहित्यकार के नाम पर हो । ऐसा क्यों होता है । क्या सत्ता में रहनेवाले लोग ही बारी बारी से अपने नेताओं के नाम पर सड़को इमारतों का नामकरण करते रहेंगे । क्या साहित्यकारों के प्रति हमारी कोई श्रद्धा नहीं है । क्या देश रचनात्मक लेखन करनेवालों का ऋणी नहीं है ।  
दरअस अगर हम देखें तो आजादी के बाद हमारे देश में साहित्यकारों की बहुत इज्जत थी । हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के विद्वानों को राज्यसभा में जगह दी जाती थी । भारतीय भाषाओं के नुमाइंदे तब संसद में हुआ करते थे । बाद में कलाकारों के कोटे से फिल्म अभिनेताओं को जगह दी जाने लगी ।यह गलत भी नहीं है । साहित्यकारों के नाम पर फिल्मों के स्क्रिप्ट लिखनेवाले राज्यसभा पहुंचने लगे । हिंदी का आखिरी साहित्यकार, अगर हम याद करें. जो कि राज्यसभा पहुंचे थे वो थे विद्यानिवास मिश्र । विद्यानिवास मिश्र को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने मनोनीत किया था । उसके बाद तो फिल्मों से, खेल जगत से तो लोग नामांकित होते रहे लेकिन साहित्य को लेकर उदासीनता बनी रही । कालांतर में तो सक्रिय राजनीति कर रह और चुनाव में हारे हुए नेताओं को सरकार राज्यसभा में मनोनीत करने लगी । साहित्य और साहित्यकारों की जगह कम होती चली गई ।
साहित्यकारों को लेकर कुछ नेताओं के मन में किस तरह के विचार हैं यह वी के सिंह के उस बयान से पता चलता है जो उन्होंने पिछले साल भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के ठीक पहले दिया था ।  यह उस सरकार के मंत्री का बयान था जिसके मुखिया यानि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं कवि हैं और उनकी कविता की पुस्तकें प्रकाशित हैं । स्वयं वी के सिंह की बी किताब प्रकाशित है और पाठकों द्वारा पसंद की की जा रही है । हलांकि वी के सिंह ने बाद में सफाई देकर कहा था कि लेखकों को अपमानित करने की उनकी मंशा नहीं थी ।
दरअसल अगर हम विचार करें तो देखते हैं कि साहित्य और राजनीति के बीच खाई गहरी होती जा रही है, साहित्यकारों और नेताओं के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है । सत्तर के दशक के बाद हिंदी में इस प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा था कि लेखकों को नेताओं के साथ मंच शेयर नहीं करना चाहिए । लेखकों ने नेताओं को हेय दृष्टि से देखना शुरू किया था । इनमें वो लेखक ज्यादा थे जो कि अपनी रचनाओं के लिए अजय भवन के संदेशों का इंतजार करते थे । इसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति और साहित्य में दूरियां बढ़ती चली गईं । मुझे याद पड़ता है कि दो एक साल पहले बिहार के सांसद पप्पू यादव की आत्मकथा का विमोचन नामवर सिंह ने किया था तो नामवर सिंह पर जमकर हमले हुए थे । पिछले साल एक कहानी पुरस्कार वितरण समारोह में एक वरिष्ठ साहित्यकार ने इस वजह से आने से इंकार कर दिया था क्योंकि वहां दिल्ली के उपराज्यपाल को भी होना था । राजनेताओं के साथ मंच साझा नहीं करने की प्रवृत्ति ने साहित्य और राजनीति के विचारों की आवाजाही को रोक दिया । आयातित विचारधारा की संस्कृति ने अपनी सोच को आगे बढ़ाने के लिए हर तरह के बैरियर लगाए थे । अपनी संस्कृति को छोड़कर हम बाहर से आई संस्कृति के हिसाब से काम करने लगे थे । तभी तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था – जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगते हैं । जब वे मन ही मन अपने को हीन दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती है । पारस्परिक आदान-प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, किन्तु जहां प्रवाह एकतरफा हो, वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरे जाति की सांस्कृतिक दासी हो रही है । किन्तु सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने लगती है । यह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जोजाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, वह अपनी परंपरा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है ।दिनकर जी की बातों को अगर हम वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखें तो सारी बातें साफ हो जाती है । दिनकर के इस कथन से सूत्र पकड़ने की जरूरत है जब वो एकतरफा प्रवाह की बात करते हैं ।
दूसरी बात यह है कि दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दास्ता को स्वीकार कर लेते हैं तो विकास अवरुद्ध हो जाता है । आत्मविश्वास की कमी हो जाती हैं । अपने सांस्कृतिक विचारों से मार्क्स के विचारों को श्रेष्ठ मानने का नतीजा आज हम सबके सामने है । किसी मार्क्सवादी कवि में ये नैतिक साहस नहीं है जो दिनकर में था । आज कौन सा कवि लिख सकता है कि – मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूं मैं ।  अब यह पंक्ति कहने का साहस कवि को है तो उसके पीछे उसका अपनी परंपराओ पर अपनी संस्कृति पर गर्व और विश्वास की ताकत है । उसका आत्मविश्वास है । अपने समय का सूर्य हूं कहना मामूली बात नहीं है । सवाल यही है कि जिस तरह से हमारे साहित्यकार एक पक्ष में खड़े होते चले गए उसने साहित्य को राजनीति का एक पक्ष बना दिया और जब आप एक पक्ष बन जाते हैं तो दूसरा पक्ष आपका अनदेखी करता ही है । साहित्य और साहित्यकारों की अनदेखी तो दोनों पक्षों ने की । हिंदी के सबसे बड़े लेखक नामवर सिंह ने तो विचारधारा की ध्वजा भी उठाई थी और चुनाव भी लड़ा था लेकिन उस विचारधारा ने कभी भी नामवर सिंह को संसद में भेजने का नहीं सोचा । बंगाल के हर तरह के छोटे मोटे नेता, प्रोफेसर आदि को राज्यसभा में भेजा गया नामवर सिंह के बारे में सोचा भी नहीं गया । आज जरूकत इस बात की है कि हमारे देश में सड़को, इमारतों और एयरपोर्ट के नामकरण के लिए एक नीति और समिति बनाई जानी चाहिए । उसमें साहित्य कला और संस्कृति के नुमाइंदे भी हो जो सरकार को इस बात का सुझाव दें । अगर ऐसा हो पाता है तो अच्छा होगा वर्ना नामकरण को लेकर राजनीतिक वर्ग खासकर सत्ताधारी दल की मनमानी चलती रहेगी और जिस परिवार या वर्ग का उस दल पर वर्चस्व रहेगा वो अपनी मनमानी करता रहेगा । वक्त आ गया है कि आजादी के बाद से हुई गलतियों से सबक लेने की और उसको ठीक करने की योजना पर अमल करने की ।