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Monday, March 31, 2014

हिंसक असहिष्णुता, समाजिक चिंता

लोकसभा चुनाव का कोलाहल, किस पार्टी में कौन शामिल हो रहा है , किस पार्टी ने किसको टिकट दिया, कौन सा नेता अवसरवादी और कौन सा नेता मौकापरस्त है, किसने तीन दशक तक एक पार्टी में रहने के बाद महज लोकसभा टिकट नहीं मिलने पर पार्टी छोड़ दी या बदल ली, किस पार्टी का कौन नेता तानाशाह बन गया है, किस पार्टी की प्रासंगिकता खत्म होती जा रही है आदि आदि विषयों पर लगातार चर्चा हो रही है । विशेषज्ञ अपनी अपनी राय से समाज और देश को आप्लावित कर रहे हैं । यह ठीक भी है क्योंकि चुनाव किसी भी लोकतंत्र में एक उत्सव की तरह आता है जो उसमें शामिल लोगों को आनंद देता है । लोकतंत्र के इस उत्सव के आनंद के अतिरेक में हमसे कुछ सामाजिक जिम्मेदारियां छूटती जा रही हैं । समाज के रहनुमाओं की नजर इन मुद्दों की ओर नहीं जा रही है । दो ऐसी घटनाएं घटी जिसपर देशव्यापी बहस होनी चाहिए थी और समाज को उसकी वजह जानने के लिए प्रयत्न करना चाहिए था । राजधानी दिल्ली में गाड़ी पार्क करने को लेकर हुए झगड़े में हत्या हुई । दिल्ली के बवाना इलाके में गाड़ी लगाने को लेकर विवाद इतना बढ़ा कि एक शख्स ने दो सगे भाइयों की गोली मारकर हत्या कर दी । गुस्सा इतना था कि आरोपी ने मृतक शख्स पर गोलियों की बौछार कर दी । पोस्टमार्टम के दौरान मरनेवाले के शरीर से बारह गोलियों के निशान पाए गए । इसी तरह से दिल्ली के ही एक अन्य इलाके में भी पार्किंग के ही विवाद में एक नाबालिग की हत्या कर दी गई थी । यहां भी गुस्सा इतना था कि बदला लेने के लिए उस परिवार के नाबालिग को निशाना बनाया गया और उसकी पीट-पीटकर हत्या की गई । इन दो घटनाओं को मीडिया ने भी उतनी गंभीरता से नहीं लिया । पार्किंग इतना अहम मसला नहीं है कि उसको लेकर हुए विवाद में कत्ल करने तक बात बढ़ जाए, पर ऐसा हुआ । यह कोई मामूली बात नहीं है जिसे नजरअंदाज किया जा सकता है । यह हमारे समाज के असहिष्णुता की ओर बढ़ने का संकेत है । समाज में बढ़ रही इस घातक प्रवृति पर हमारे रहनुमाओं से लेकर आम लोगों को गंभीरता से विचार करना होगा क्योंकि ये ऐसी घटनाएं है जो समाज के किसी भी वर्ग के किसी भी शख्स के साथ घटित हो सकती है ।
अब अगर हम समाज में बढ़ रहे इस तरह के इनटॉलरेंस की पड़ताल करें तो एक वजह जो साफ नजर आती है वह है लोगों के अंदर बढ़ती निराशा और उसके बाद पैदा होनेवाली कुंठा । उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस मजबूत होते दौर में हमारे देश के हर इंसान की उम्मीदें सातवें आसमान पर पहुंच गई हैं, खासकर युवा पीढ़ी में एक खास किस्म की जल्दबाजी है । हासिल करने की जल्दबाजी । उम्मीदों के पूरा नहीं होने या अपेक्षा के भरभराकर ढह जाने की वजह से निराशा का घटाटोप दिलोदिमाग पर छाने लगता है । हासिल करने की इस जल्दबाजी में व्यवधान निराशा को जन्म देती है जो किसी भी शख्स को कुंठित बना देती है । वक्त के साथ ये कुंठा बढ़ती जाती है और यहीं से असहिष्णुता की शुरुआत होती है। निराशा और कुंठा की वजह से हमारे अंदर की संवेदनाएं भी धीऱे धीरे खत्म होने लगी है । किसी भी शख्स के अंदर संवेदना का मर जाना बहुत ही खतरनाक होता है कि क्योंकि संवेदनहीन व्यक्ति किसी भी हद तक जा सकता है । समाज के बदलते स्वरूप की वजह से संयुक्त परिवार का चलन कम होते जा रहा है । इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि व्यक्ति अकेला होता चला गया । संयुक्त परिवार में होता यह था कि लोग अपनी समस्याओं पर परिवार के बड़े बुजुर्गों से सलाह मशविरा करते थे या फिर परिवार के हमउम्र के साथ अपना सुख दुख बांटते थे । अब ये हो नहीं पा रहा है जिसकी वजह से हम कह सकते हैं कि साइकोलॉजिकल कैपिटल का क्षरण होता जा रहा है । इसी मनोवैज्ञानिक ताकत के कम होने की वजह से लोगों के अंदर आक्रामकता बढ़ रही है जो उन्हें हिंसा के रास्ते पर लेकर जा रही है ।

एक और वजह है वह है समाज में नव-धनाढ्य लोगों की बढती तादाद । इन नव धनाढ्य लोगों के मनोविज्ञान की अगर सूक्षमता से परखें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं इनके अंदर पैसे के बल पर कुछ भी कर लेने और उसके बाद बच निकलने की मानसिकता मजबूती पा रही है । नए नए पैसेवाले होने और कहलाने का नतीजा एक नशे की माफिक घर करता जाता है और यह नशा खुद उनके लिए तो खतरनाक होता ही है समाज को भी खतरे में डाल देता है । इसके गंभीर परिणाम होते हैं । समाज में बढ़ते असहिष्णुता और कम होती मनोवैज्ञानिक बल पर हमें गंभीरता से सोचना होगा और हिंसक घटनाओं को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाने होंगे अन्यथा पूरे देश में अराजकता का एक ऐसा माहौल होगा कि उसपर काबू पाने के लिए फिर सरकारों को एसे कदम उठाने होंगे जो लोकतंत्र के हित में नहीं हो सकते हैं । 

Saturday, March 29, 2014

वहीदा के बहाने....

हाल के दिनों में हिंदी लेखन में एक खास किस्म का बदलाव देखने को मिला है । हिंदी के भी कुछ लेखक भारतीय फिल्मों पर, फिल्मों में काम करनेवाले अभिनेताओं, कलाकारों, संगीतकारों और फोटोग्राफर से लेकर निर्देशकों पर लिखने लगे हैं । इसे एक अच्छी शुरुआत का संकेत माना जा सकता है । हिंदी में लंबे समय तक यथार्थवादी लेखन के नाम पर फिल्म लेखन को हेय की दृष्टि से देखा जाता था । विचारधारा विशेष में फिल्म को बुर्जुआ संस्कृति का पोषक और संवाहक माना जाता था लिहाजा उसपर लिखना तो दूर की बात उसके बारे में विचार करना या बोलना भी गुनाह माना जाता था । वामपंथ के प्रभाव में जबतक हिंदी लेखन रहा तबतक फिल्म और संगीत पर लेखन हाशिए पर ही रहा जबकि फिल्म एक खास किस्म की रचनात्मकता को प्रदर्शित करने का एक ऐसा माध्यम है जिसके कई ओर छोर हैं, कई आयाम हैं जिनपर बातचीत होनी चाहिए । एक लंबे कालखंड के बाद वामपंथ से मोहभंग और हिंदी जगत में उसका दबदबा कम होने के बाद हिंदी के लेखकों ने फिल्म और फिल्मी दुनिया पर लिखना शुरू किया । भारत सरकार में अफसर पंकज राग ने धुनों की यात्रा नाम की भारी भरकमन किताब लिखी  जिसे एक तरह से हिंदी में भारतीय फिल्म संगीत का इनसाइक्लोपीडिया कहा जा सकता है । मधुप शर्मा ने भी फिल्म पर कई किताबें लिखी । युवा कवि और संस्कृतिकर्मी यतीन्द्र मिश्र की भी हाल में पेंग्विन प्रकाशन से एक किताब आई है हमसफर, हिंदी सिनेमा और संगीत । यतीन्द्र ने इस किताब में हिंदी सिनेमा के संगीत के इतिहास को केंद्र में रखा है । इस किताब का ब्लर्ब महान गायिका लता मंगेशकर ने लिखा है और पिछले दिनों पटना लिटरेचर फेस्टिवल में गुलजार ने इसको विमोचित किया। इस किताब की खास बात यह है कि इसके साथ एक गाने की सीडी भी है जिसमें कुंदन लाल सहगल से लेकर भूपेन हजारिका और अीमरबाई कर्नाटकी से लेकर अलका याज्ञनिक तक के गीत हैं । किताब के साथ सीडी लगाने का प्रयोग पहले भी हुआ है । यतीन्द्र मिश्र ने श्रमपूर्व शोध के आदार पर इस किताब में कई जानकारियां दी हैं । यतीन्द्र मिश्र इन दिनों लता मंगेशकर भी एक किताब लिख रहे हैं जो उनसे बातचीत पर आधारित होगी । जानकारी के मुताबिक यतीन्द्र मिश्र ने कई घंटे की बातचीत रिॉर्ड कर ली है । अबी अभी इसी तरह से अंग्रेजी की लेखिका नसरीन मुन्नी कबीर ने अपने जमाने की सुपरस्टार रही फिल्म अभिनेत्री वहीदा रहमान से बातचीत के आधार पर एक बेहद दिलचस्प किताब लिखी है कनवरसेशन विद वहीदा रहमान । इसके पहले भी नसरीन मुन्नी कबीर ने गुलजार, जावेद अख्तर, ए आर रहमान से बातचीत के आधार पर किताबें लिखी हैं । नसरीन मुन्नी कबीर की गुरुदत्त पर लिखी किताब खासी चर्चित हुई थी । वहीदा रहमान पर लिखी अपनी इस नई किताब में नसरीन मुन्नी कबीर ने वहीदा रहमान से जुड़ी कई दिलचस्प कहानियां लिखी है । वहीदा रहमान और गुरुदत्त के रिश्तों के बारे में फिल्मी दुनिया में कई तरह की किवदंतियां हैं । नसरीन मुन्नी कबीर से बातचीत में वहीदा रहमान ने बेहद गरिमापूर्ण तरीके से अपने और गुरुदत्त के रिश्तों पर कुछ भी बोलने से इमंकार कर दिया । वहीदा ने कहा कि उन्हें पता है कि वो सार्वजनिक जीवन में हैं लेकिन उनका इस बात में यकीन है कि किसी का भी निजी जीवन हमेशा निजी ही रहना चाहिए । इस किताब में वहीदा ने अपने बचपन, फिल्मी दुनिया में प्रवेश, स्त्यजित रे की फिल्म अभिजन आदि से जुड़ी अपनी यादें ताजा और साझा की हैं । सोलहवां साल फिल्म के दौरान राज खोसला और वहीदा के बीच तनातनी हो गई थी । फिल्म के दौरान एक बार फिर से राज खोसला और वहीदा रहमान के बीच ड्रेस को लेकर झगड़ा हुआ था । विवाद की वजह एक ब्लाउज बना । फिल्म के निर्देशक राज खोसला चाहते थे कि वहीदा सामने से खुला ब्लाऊज पहने लेकिन वहीदा को इस बात पर आपत्ति थी । उनका तर्क था कि किरदार की मांग के मुताबिक नायिका के ड्रेस में खुलापन नहीं होना चाहिए क्योंकि जब नायक उससे पूछता है कि तुम्हारा नाम क्या हा तो नायिका कहती है लाजवंती । यह सुनकर नायक कहता है कि तभी तो तुमको इतनी लज्जा आती है । वहीदा का तर्क था कि फिल्म के संवाद और दृश्य के मुताबिक नायिका का खुले ड्रेस में आना उचित नहीं होगा । वहीदा के इस तर्क पर राज खोसला भड़क गए और चिल्लाते हुए कहा कि अब निर्देशन भी सीखना पड़ेगा । विवाद काफी बढ़ गया और राज खोसला ने तो यहां तक कह डाला कि तुम ना तो मधुबाला हो, ना ही मीना कुमारी और ना ही नर्गिस । अंतत चली निर्देशक की ही लेकिन एक पूरे दिन की शूटिंग इस विवाद की भेट चढ़ गया ।
इसी तरह से वहीदा रहमान और सत्यजित रे के बीच की पहली मुलाकात की भी दिलचस्प कहानी इस किताब में है । सत्यजित रे ने वहीदा रहमान को अपनी फिल्म में काम करने का प्रस्ताव बी के करंजिया के माध्यम से पत्र लिखकर भेजा था । प्रस्ताव मिलने के कुछ दिनों बाद वहीदा और स्तयजित रे के बीच बातचीत हुई । पहली बातचीत में ही सत्यजित रे ने वहीदा से कहा कि वो छोटे बजट की फिल्म बनाते हैं और वहीदा को हिंदी फिल्मों में काम करने के लिए काफी पैसे मिलते हैं । रे ने कहा कि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो वहीदा को साइन कर सकें लेकिन वो चाहते हैं कि वहीदा उनकी फिल्म में काम करें । यह पूरा प्रसंग बातचीत के आधार पर सामने आया है जो सत्यजित रे जैसे जीनियस निर्देशक की मनस्थिति और फिल्म को लेकर उनके कमिटमेंट को सामने लाता है । जरूरत इस बात की है कि हिंदी में भी इस तरह के ज्यादा प्रयास हों। हिंदी फिल्मों के योगदान को बिल्कुल भी खारिज नहीं किया जा सकता है । हिंदी के प्रचार प्रसार में भी हिंदी फिल्मों का बड़ा योगदान है । जोहानिसबर्ग में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान मॉरीशस के मंत्री ने इस बात को स्वीकार किया था कि हिंदी फिल्में और सीरियल्स हिंदी को बढ़ावा दे रही हैं । हिंदी के कर्ताधर्ताओं को फिल्मों पर लिख रहे लेखकों को उचित सम्मान देना होगा और बेवजह के तर्कों के आदार पर खारिज करने की प्रवृत्ति से बचना होगा । इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हिंदी में रचनात्मक लेखन का दायरा बढ़ेगा जो हमारी भाषा के हित में होगा ।

Friday, March 28, 2014

कार्यालय पर हावी वॉर रूम

लोकसभा चुनाव की तैयारियों और राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीति के संदर्भ में जब बात होती है तो एक शब्द बार बार आता है वह है वॉर रूम । चुनावी बिसात पर जीत हासिल करने के लिए कमोबेश सभी राजनीतिक दलों के अपने अपने वॉर रूम हैं । अगर हम देश की दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों को देखें तो यह लगता है कि उनके केंद्रीय कार्यालय महज औपचारिक, दफ्तरी और मीडिया से बात करने की जगह बनकर रह गए हैं । कांग्रेस पार्टी के दफ्तर में तो अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का कमरा ज्यादातर वक्त सुरक्षा कारणों से सील ही रहता है । सुरक्षा कारणों की आड़ में ना तो कांग्रेस अध्यक्ष और ना ही उपाध्यक्ष रोजाना दफ्तर में बैठते हैं या आला नेताओं के साथ बैठक कर रणनीतियां बनाते हैं । कांग्रेस की अहम बैठक या तो सोनिया गांधी के निवास दस जनपथ या फिर राहुल गांधी के दिल्ली के तुगलक लेन स्थित घर पर होती है । कांग्रेस की चुनाव से जुड़ी रणनीतियां दिल्ली के गुरुद्वारा रकाबगंज रोड के पंद्रह नंबर बंगले में बनती है या फिर साउथ एवन्यू के निन्यानबे नंबर के फ्लैट में । नतीजा यह होता है कि चुनाव के माहौल में भी पार्टी के केंद्रीय दफ्तर चौबीस अकबर रोड अहम फैसलों का गवाह नहीं बन पाता है । कांग्रेस में तो इस बार एक जुमला बेहद चल रहा है कि अगर लोकसभा का टिकट लेना है तो भूलकर भी चौबीस अकबर रोड पर मत दिखना । देश के दूरदराज के हिस्सों से दिल्ली आनेवाले कार्यकर्ताओं को कांग्रेस के दफ्तरी टाइप नेताओं या फिर छुटभैये नेताओं से मिलकर वापस लौट जाना पड़ता है । यही हालत भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली के अशोक रोड स्थित दफ्तर का है । वहां पार्टी के सभी अहम पदाधिकारी के कमरे तो हैं, कुछ देर के लिए पार्टी के पदाधिकारी वहां बैठते भी हैं, लेकिन महत्वपूर्ण फैसले वहां नहीं होते हैं । भाजपा के चुनाव से जुड़े सारे अहम फैसले इस बार तो गांधीनगर से ही हो रहे हैं । अब से कुछ दिनों पहले भाजपा ने एक लोदी रोड के एक बंगले में अपना चुनावी वॉर रूम भी बनाया है । यह मोदी के पार्टी के केंद्र में आने के बाद हुआ है । पिछले चुनाव में आडवाणी जी का घर भाजपा की सारी अहम चुनावी गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था । इऩ चुनावी वॉर रूमों की वजह से पार्टी के केंद्रीय दफ्तर की महत्ता लगातार कम होती जा रही है ।
दरअसल अगर हम भारत के लोकतांत्रित इतिहास पर नजर डालें तो राजनीतिक दलों के केंद्रीय कार्यालयों के महत्व के कम होने की शुरुआत को हम इंदिरा गांधी के दौर से देख सकते हैं । उन्नीस सौ इकहत्तर के लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस में संगठन का बोलबाला था लेकिन इंदिरा गांधी ने धीरे-धीरे संगठन को खत्म किया और पार्टी को अपने इर्द-गिर्द घुमाने लगी । इंदिरा इज इंडिया के नारे के बाद तो यह प्रवृत्ति और बढ़ी । कांग्रेस के चाटुकार किस्म के लोग इंदिरा गांधी की गणेश परिक्रमा करने लगे और वो पार्टी के फैसलों को भी प्रभावित करने लगे, इस तरह के लोग इंदिरा गांधी के घर स्थित दफ्तर में बैठा करते थे । इमरजेंसी के बाद हुए उन्नीस सौ अस्सी के लोकसभा चुनाव में तो सारी गतिविधियों का केंद्र इंदिरा गांधी का बारह विलिंगडन क्रिसेंड का छोटा सा बंगला हुआ करता था । तबतक दिल्ली के सात जंतर मंतर रोड का कांग्रेस का दफ्तर जनता पार्टी के कब्जे में जा चुका था । इसकी भी दिलचस्प कहानी है । कांग्रेस का केंद्रीय कार्यलय इलाहाबाद के आनंद भवन में हुआ करता था और तमाम बड़े नेता दिल्ली में होते थे । इसके मद्देनजर मुंबई कांग्रेस कमेटी ने सात लाख रुपए में सात जंतर मंतर का बंगला खरीदकर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को भेंट किया था जिसके बाद कांग्रेस का केंद्रीय कार्यलय इलाहाबाद के आनंद भवन से दिल्ली शिफ्ट हुआ था। ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह रहा जंतर मंतर का ये बंगला कांग्रेस में विभाजन के बाद कांग्रेस संगठन के कब्जे में चला गया । उसके बाद जनता पार्टी, जनता दल से होते हुए इस इमारत का कुछ हिस्सा इन दिनों जेडीयू का के पास है । जब विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे तो यह इमारत हर छोटे बड़े राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था । वी पी सिंह की सरकार गिरने के बाद तीसरे मोर्चे की सरकारों के वक्त भी इस इमारत और दफ्तर की अहमियत बनी रही थी । बाद में कांग्रेस ने राजेन्द्र प्रसाद रोड पर अपना नया दफ्तर बनाया जहां इन दिनों जवाहर भवन है। कालांतर में जैसे जैसे व्यक्ति पार्टी पर हावी होते चले गए तो इन इमारतों की अहमियत खत्म हो गई । राजनीतिक दलों के कार्यलयों की कम होती महत्ता संगठन के गौण और व्यक्ति के महत्वपूर्ण होने की दास्तां हैं । राहुल गांधी और मोदी के इर्द गिर्द घूमनेवाले दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के लिए उनके केंद्रीय कार्यालयों की अहमियत थकान मिटाने और सुस्ताने की एक जगह भर है । लोकतांत्रिक होने का दावा करनेवाले इन दलों ने जिस तरह से लोक और दल को दरकिनार किया है वह किसी भी लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत तो नहीं ही देता है ।

चाल चरित्र और चेहरे की हकीकत

लोकसभा चुनाव के पहले पूरे देश, खासकर उत्तर और पश्चिम भारत में इस तरह का माहौल दिख रहा है या दिखाया जा रहा है कि चुनावी माहौल भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में है । भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में दिख रहे इस माहौल को भांपते हुए कई अवसरवादी और मौकापरस्त नेता भाजपा की गोद में जा बैठे हैं । अपनी गोद में बैठे इन मौकापरस्त नेताओं पर भाजपा काफी लाड़ लुटा रही है । दूसरी पार्टियों को छोड़कर आनेवाले नेताओं को, जो कल तक उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा विरोधी और दो हजार दो के गुजरात दंगों के लिए जिम्मेदार मानते थे, पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया है । राजनीतिक हलकों में तो ये जुमला चल निकला है कि सुबह भाजपा की सदस्यता की पर्ची कटवाओ और शाम को उम्मीदवारी का पत्र लेकर जाओ । इससे तो यही लगता है कि भाजपा के नेता हर कीमत पर इस बार केंद्र की सत्ता पर काबिज होना चाहते हैं । विचारधारा और सार्वजनिक जीवन में शुचिता और उच्च मानदंड की राजनीति की वकालत का का दंभ भरनेवाली भाजपा में सत्ता के आगे विचारधारा गौण नजर आ रही है । सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा ने सिद्धांतों की जो तिलांजलि दी है उसका अंदेशा लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीन दयाल उपाध्याय को नहीं रहा होगा । पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने 22 से 25 अप्रैल 1965 के बीच दिए अपने पांच लंबे भाषणों में उस वक्त की मौजूदा राजनीतिक हालात के मद्देनजर क्रांतिकारी भाषण दिया था । अब से लगभग पांच दशक पहले पंडित जी ने राजनैतिक अवसरवादिता पर बोलते हुए कहा था- किसी भी सिद्धांत को नहीं मानने वाले अवसरवादी लोग देश की राजनीति में गए हैं राजनीतिक दल और राजनेताओं के लिए ना तो कोई सिद्धांत मायने रखता है और ना ही उनके सामने कोई व्यापक उद्देश्य सा फिर कोई एक सर्वमान्य दिशा निर्देश है.....राजनीतिक दलों में गठबंधन और विलय में भी कोई सिद्धांत और मतभेद काम नहीं करता गठबंधन का आधार विचारधारा ना होकर विशुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अथवा सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है पंडित जी ने जब ये बातें 1965 में कही होंगी तो उन्हें इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हीं के सिद्धातों की दुहाई देकर बनाई गई पार्टी पर भी सत्ता लोलुपता इस कदर हावी हो जाएगी । आज हालात यह है कि भाजपा को उन लोगों ने गठबंधन करने में भी कोई परहेज नहीं है जिनपर संगीन इल्जाम हैं । पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ठीक ही कहा था कि गठबंधन का आधार विचारधारा नहीं बल्कि शुद्ध रूप से चुनाव में जीत हासिल करना है । भाजपा जैसी विचारधारा प्रधान पार्टी में बेल्लारी के श्रीरामुलु के आने का क्या आधार है । सुषमा स्वराज जैसी कद्दावर नेता के विरोध के बावजूद अगर पार्टी श्रीरामुलु को गले लगाती है तो उस तर्क को मजबूती मिलती है कि भाजपा सत्ता के लिए किसी भी हद तक जा सकती है और किसी से भी गठबंधन कर सकती है । बेल्लारी के श्रीरामुलु की (कु)ख्याति तो सर्वज्ञात है । कर्नाटक में अपनी सीटें बचाने और उसको और मजबूत करने के लिए भाजपा ने दागी नेता येदुरप्पा के आगे भी घुटने टेक दिए और उनकी सभी शर्तों को मानते हुए उन्हें गाजे बाजे के साथ पार्टी में शामिल कर लिया । येदुरप्पा को पार्टी में शामिल करते हुए यह भी विचार नहीं किया गया कि उनपर लगे आरोपों का क्या हुआ । क्या चुनावी वैतरणी में पार उतरने के लिए भ्रष्ट नेताओं की पूंछ पकड़ना इतना आवश्यक हो गया । येदुरप्पा और श्रीरामुलु तक ही पार्टी नहीं रुकी । बिहार में भाजपा ने रामविलास पासवान की पार्टी के साथ गठबंधन किया और उसके लिए लोकसभा की सात सीटें छोड़ने का एलान कर दिया । अब रामविलास पासवान की पार्टी में दागी नेताओं की लंबी फेहरिश्त है, सूरजभान सिंह से लेकर रमा सिंह तक । सूरजभान सिंह को बेगूसराय में एक हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी और वो चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराए गए थे । लिहाजा उन्होंने रामविलास की पार्टी से अपनी पत्नी वीणा देवी को मुंगेर लोकसभा सीट से टिकट दिलवा दिया । रमा सिंह पर भी कई संगीन धाराओं में कई केस दर्ज हैं और वो भी लोकजनशक्ति पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ेंगे । इन सबके लिए भाजपा के नेता चुनाव प्रचार करेंगे और अगर हालात बने और नतीजे पक्ष में आए तो उनके सहयोग से सरकार भी बनाएंगे । कल तक भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को कातिल से लेकर जाने किन किन विशेषणों से नवाजने वाले कांग्रेस के नेता जगदंबिका पाल को अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने गले लगाकर पार्टी में शामिल किया । यह सूची काफी लंबी है । दरअसल भारतीय जनता पार्टी भले ही पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करे लेकिन उसमें अलग कुछ है नहीं । चुनाव के वक्त या फिर सत्ता हासिल करने के लिए उन्हें किसी तरह के गठजोड़ या गठबंधन से परहेज नहीं रहा है । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के वक्त बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में करोड़ों की गड़बड़ियों के आरोपी रहे बाबू सिंह कुशवाहा को बीजेपी में शामिल करने के उस वक्त के अध्यक्ष नितिन गडकरी के फैसलों पर आडवाणी और सुषमा समेत कई नेताओं ने विरोध जताया था लेकिन तब गड़करी ने किसी की नहीं सुनी थी दरअसल बीजेपी में सिद्धांतों पर सत्तालोलुपता लगातार हावी होती चली गई है । लोकसभा चुनाव के पहले यह और बढ़ गई है । सत्ता हासिल करने की यह ललक पार्टी नेतृत्व के फैसलों को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है । कई मुद्दों पर पार्टी के आला नेताओं के अलग अलग बयान इस बात की मुनादी कर रहे हैं कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में गहरा असंतोष है । यह सही है कि पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वरदहस्त हासिल है जिसकी वजह से वो पार्टी के आला नेताओं को दरकिनार कर अपने हिसाब से फैसले ले रहे हैं ।

दरअसल हम अगर हम इसका विश्लेषण करें तो पाते हैं कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई वरिष्ठ स्वंयसेवकों ने सीधे तौर पर राजनीति में आने की वकालत शुरू कर दी थी । उसके पहले गोलवलकर हमेशा से सावरकर की हिंदू महासभा के साथ गठबंधन के प्रस्ताव को नकारते रहे थे । उन्नीस सौ अड़तालीस में गांधी जी की हत्या के बाद तकरीबन बीस हजार स्वंयसेवकों की गिरफ्तारी और संघ पर पाबंदी ने उसको राजनीति की राह पर चलने के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया था । गांधी जी की हत्या के बाद जब संघ चौतरफा घिर गया था तो उसके बचाव में कोई भी राजनीतिक दल नहीं था । उन्नीस सौ उनचास में संघ से जुड़े विचारक के आर मलकानी ने लिखा था- संघ को राजनीति और विरोधी दलों की गंदी चालों से खुद के बचाव के लिए राजनीति में हिस्सा लेना चाहिए । के आर मलकानी के इस विचार को साथियों के दबाव में गोलवलकर ने स्वीकार कर लिया और दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वरिष्ठ स्वंयसेवकों को जनसंघ में भेजा लेकिन संघ के सीधे तौर पर राजनीति में आने के वो खिलाफ रहे । दीनदयाल उपाधायय जनसंघ को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर स्थापित करना चाहते थे और चुनाव को जनता की राजनीतिक चेतना को उभारने के अवसर के रूप में देखते थे । वो चाहते थे कि जनसंघ कांग्रेस की सत्ता की स्वाभाविक दावेदारी को चुनौती दे सकें । जब नरेन्द्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं तो उसमें पंडित दीनदयाल उपाध्याय की उस ख्वाहिश की झलक भी मिलती है । बाद में जब बालासाहब देवरस राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के अध्यक्ष बने तो संगठन की राजनीति में रुचि और बढ़ी । बाला साहब देवरस ने जयप्रकाश नारायण के इंदिरा हटाओ मुहिम को खुलकर समर्थन दिया । मोरारजी देसाई की सरकार में संघ से जुड़े नेताओं ने पहली बार सत्ता का स्वाद भी चखा । कालांतर में भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ और उसके बाद की बातें इतिहास में दर्ज है । परोक्ष रूप से राजनीति करने और भाजपा में अपने निर्णयों को लागू करवाने वाल संघ हमेशा से इस बात से इंकार करता रहा कि आरएसएस का सक्रिय राजनीति से कोई लेना देना है । उनके तर्क होते थे कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ एक सांस्कृतिक संगठन है और भाजपा के निर्णयों में उनकी कोई भूमिका नहीं होती है । लेकिन हर स्तर पर संगठन महासचिव का पद और उसपर संघ के स्वयंसेवक की नियुक्ति कुळ अलग ही कहानी कहती थी ।  आगामी लोकसभा चुनाव में संघ ने अपना सांस्कृतिक संगठन का चोला उतार कर फेंक दिया और सरसंघचालक से लेकर सरकार्यवाह और स्वयंसेवक तक पूरी ताकत से भाजपा को जिताने में जुट गए हैं । इस वक्त संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों को नरेन्द्र मोदी के रूप में एक नया नायक नजर आ रहा है और सारे लोग उनकी सफलता के लिए प्राणपन से जुटे हैं । मोदी के रास्ते के सारे कांटे संघ साफ करता चल रहा है । इस आपाधापी में और इस बार नहीं तो कभी नहीं के नारों के बीच पार्टी गुरु गोलवलकर से लेकर पंडित उपाध्याय तक के सिद्धांतों को भुला रही है । सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत सत्ता हासिल करने ललक में कहीं पीछे छूटती जा रही है । अवसरवादिता की राजनीति हावी हो रही है सीधे सत्ता हासिल करने की लालसा में संघ भी आंखें मूंदकर नरेन्द्र मोदी के फैसलों पर मुहर लगाता जा रहा है । अब सवाल यही उठता है कि मोहन भागवत ने संघ के क्रियाकलापों में आमूलचूल बदलाव करने की ठान ली है । क्या आनेवाले दिनों में भारतीय राजनीति में स्वयंसेवकों की ज्यादा सक्रिय भूमिका दिखाई देगी । अगर ऐसा होता है तो यह संघ के सिद्धांतो से पूरी तरह से विचलन होगा । विचलन तो चाल चरित्र और चेहरे का भी होगा । 

Saturday, March 22, 2014

मोदी पर किताबों की बाढ़

लोकसभा चुनाव सर पर हैं । सियासी बिसात पर हर तरह की चालें चली जा रही हैं । सियासत के इस खले में प्यादे से लेकर वजीर और बादशाह तक पूरी तरह से मशरूफ हो चुके हैं । सियासत के इस खेल में शामिल हर दल किसी ना किसी तरह से अपनी गोटी फिट करना चाह रहा है । इस बार का लोकसभा चुनाव कई मायनों में अब तक हुए चुनाव से अलग है । इस चुनाव में सोशल मीडिया, राजनीतिक दलों के प्रचार के एक बड़े प्लेटऑर्म के तौर पर उभर कर सामने आया है । भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं और दोनों अपने मतदाताओं से इसके जरिए लगातार संपर्क में रहते हैं । सोशल मीडिया के एक प्लेटफॉर्म ट्विटर पर तो नरेन्द्र मोदी सभी दलों के भारतीय नेताओं से काफी आगे हैं । ट्विटर पर उनके तकरीबन छत्तीस लाख फॉलोवर हैं जबकि अरविंद केजरीवाल के लगभग सोलह लाख फॉलोवर हैं । अभी हाल ही में जारी हुए आंकड़ों के हिसाब से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मेंशनिंग में भी नरेन्द्र मोदी अपने प्रतिद्वदियों राजनेताओं से काफी आगे हैं । गूगल सर्च में भी नरेन्द्र मोदी अपनी बढ़त बनाए हुए हैं । भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया में तो छाए ही हुए हैं लेकिन अगर हम प्रकाशन की दुनिया की बात करें तो वहां भी नरेन्द्र मोदी का ही दबदबा नजर आता है । किसी भी ऑनलाइन बुक स्टोर में आप किताबों के सेक्शन में जाकर नरेन्द्र मोदी सर्च करेंगे तो कम से कम तीन पेज खुलेंगे और आपके सामने मोदी पर लिखी दर्जनों किताबें होंगी । हर भाषा और अलग अलग मूल्य की । यही हाल रेलवे स्टेशन पर मौजूद किताबों की दुकान से लेकर पॉश इलाके की बुक स्टोर का भी है हर जगह पाठकों की रुचि और उनके खर्च करने की क्षमता के मद्देनजर नरेन्द्र मोदी पर लिखी किताबें मौजूद हैं यह भी नहीं हैं कि मोदी पर लिखी किताबें किसी एक भाषा में प्रकाशित हो रही हों हर भाषा के लेखक ने मोदी के इर्द गिर्द किताबें लिखी यहां तक सुदूर दक्षिण में तमिल में नरेन्द्र मोदी की जीवनी छपी है और जानकारों के मुताबिक तनमिल में भी ये किताब खूब बिक रही है । ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ मोदी के प्रशंसकों ने ही किताबें लिखी हैं उनके धुर विरोधियों ने भी मोदी और उनकी राजनीति को केंद्र में रखकर किताबें लिखी हैं । हिंदी के लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने मोदी की की फासीवादी रणनीति को अपनी किताब- नरेन्द्र मोदी और फासीवादी प्रचार कला- में परखा है । मोदी और उनकी नीतियों की आलोचनात्मक किताबें संख्सा के लिहाज से बेहद कम हैं । अब सवाल यही उठता है कि लोकसभा चुनाव के पहले बाजार में मोदी और उनपर केंद्रित किताबों की बाढ़ क्यों गई है
इन वजहों की पड़ताल के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा । लोकसभा चुनाव की आहट को महसूस करते ही नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय फलक पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए यत्न शुरू कर दिए थे । हम मान सकते हैं कि मोदी की सद्भावना यात्रा से इसकी शुरुआत हुई थी । मोदी की टीम ने उनके इमेज मेकओवर को लेकर खासी रणनीति बनाई थी । दो हजार दो में गुजरात में हुए गोधरा कांड और उसके बाद के साप्रदायिक दंगों की वजह से नरेन्द्र मोदी हमेशा से मीडिया के निशाने पर रहे हैं । उनके हर कदम को मीडिया ने कसौटी पर कसा । इसके अलावा मोदी का विवादित व्यक्तित्व, आलोचकों का उनपर तानाशाह होने का आरोप, समर्थकों द्वारा श्रमपूर्वक बनाई गई उनकी विकास पुरुष की छवि और उनके पारिवारिक जीवन के बारे में चल रही किंवदंतियों ने भी लेखकों को उनपर लिखने के लिए कच्चा माल मुहैया करवाया । कई लेखकों ने श्रमपूर्वक नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व और उनके कामों को व्याख्यायित करने का प्रयास किया जिसकी वजह से वो इस शख्सियत को समझने के लिए एक गंभीर प्रयास माना गया । दो हजार हजार तेरह में वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय की किताब नरेन्द्र मोदी द मैन द टाइम्स छप कर आई तो लोगों ने बहुत उत्सुकता से उसको पढ़ा । नीलांजन की इस किताब में भी मोदी के पिता की चाय की दुकान और उनके चाय बेचने का जिक्र है । इस किताब में यह बताया गया है कि किस तरह से मोदी का बचपन कठिनाइयों में बीता । बाद में जब मोदी राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ में आए तो पहले उन्हें हेडगवार भवन में दफ्तर की साफ सफाई का काम दिया गया और जब वहां के लोगों को लगा कि मोदी अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह सफलतापूर्वक कर सकते हैं तो उनको चाय बनाने की जिम्मेदारी दी गई । नीलांजन ने इस किताब में मोदी से जुड़े कई व्यक्तिगत और दिलचस्प प्रसंगों को लिखा है लेकिन मोदी के जीवन का एक लंबा कालखंड इस किताब में नहीं है । इस किताब से नीलांजन मुखोपाध्याय को काफी प्रसिद्धि मिली । बाद में तो मोदी का बचपन में चाय बेचना उनके प्रचार का एक हिस्सा भी बना । कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर की बदजुबानी के बाद मोदी ने पूरे देश में चाय पर चर्चा जैसा कार्यक्रम तक शुरू कर दिया । नीलांजन के किताब छपने के आसपास ही वरिष्ठ पत्रकार किंशुक नाग की किताब- द नमो स्टोरी, अ पॉलिटिकल लाइफ छपकर आई । इस किताब की भी व्यापक चर्चा हुई ।
इन दोनों किताबों की बिक्री ने प्रकाशन जगत को ना सिर्फ चौंकाया बल्कि उन्हें मोदी पर किताबें छापने के लिए उकसाया भी । प्रकाशन के कारोबार से जुड़े लोगो को मोदी पर लिखी किताब में मुनाफे का सौदा नजर आया । नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजी में लिखी किताबों का अन्य भाषाओं में अनुवाद छपने लगे । पिछले कुछ दिनों में हिंदी के प्रकाशक प्रभात प्रकाशन ने नरेन्द्र मोदी पर तकरीबन आधा दर्जन से ज्यादा किताबें छापी । बाल पाठकों को ध्यान में रखते हुए नरेन्द्र मोदी के जीवन पर ग्राफिक उपन्यास- भविष्य की आशा, नरेन्द्र मोदी छापा गया ।प्रभात प्रकाशन के निदेशक पियूष कुमार का दावा है कि मोदी से जुड़ी किताबों की खासी मांग है लिहाजा वो इसको छाप रहे हैं ।
दूसरी वजह है कि लोकसभा चुनाव के पहले देश की जनता में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के बारे में जानने की उत्सुकता भी है । इस पूरे वातावरण को देखते हुए कुछ लेखकनुमा लोगों को भी संभावना नजर आई और वो भी इसको भुनाने में प्राणपन से जुट गए । यहां पाठकों को याद दिलाते चलें कि जब नब्बे के दशक में बिहार के नेता लालू यादव का डंका बजा करता था तो उनपर भी काफी किताबें छपी थी । कई लेखकों ने तो लालू चालीसा तक लिख डाला था । लालू चालीसा लिखकर अपने नेता का ध्यान खींचनेवाले एक शख्स तो चालीसा की महिमा और उसके आशीर्वाद से संसद तक जा पहुंचे थे । तो इस तरह के लोगों को अब नरेन्द्र मोदी में संभावना नजर आई और वो तरह तरह से मोदी पर किताबें लिखने लगे । कई लोगों ने विभिन्न समय पर मोदी पर लिखे अलग अलग लेखों को संपादित कर एक लंबी भूमिका के साथ किताब बना दी और उसे फौरन से बाजार में पेश कर दिया । मोदी की लोकप्रियता को भुनाने और मोदी तक पहुंचने के लिए लोगों को यह रास्ता आसान लगा और वो इसमें जुट गए । प्रकाशक तो बाजार को भुनाने में लगे ही हैं और प्रकाशन जगत के लिए यह शुभ संकेत है कि बाजार को ध्यान में रखकर काम हो रहा है । मोदी की दर्जनों जीवनी छापनेवाले प्रकाशकों को ये याद दिलाना जरूरी है कि भारतीय जनता पार्टी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी की कोई प्रामाणिक जीवनी बाजार में नहीं है । मोदी पर जितनी किताबें बाजार में हैं या फिर जितनी किताबें छपकर आनेवाली हैं उससे यह संकेत तो मिलता ही है कि नरेन्द्र मोदी मौजूदा वक्त के सबसे लोकप्रिय राजनेता हैं जिनके बारे में पाठक सबसे ज्यादा जानना चाहते हैं और इसी चाहत को भुनाकर बाजार मुनाफा भी कमा रहा है । प्रकाशन जगत से जुड़े लोगों का मानना है कि महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी के बाद अगर सबसे ज्यादा जीवनियां किसी भारतीय राजनेता की बाजार में हैं तो वो हैं नरेन्द्र मोदी ।