Translate

Saturday, September 26, 2020

कथावाचन का उर्दू संस्करण दास्तानगोई


दो तीन साल पहले की बात है, दिल्ली में एक साहित्यिक समारोह में दास्तानगोई सुनने का अवसर मिला था। दो नामी दास्तानगो मंच पर थे। दोनों ने सफेद अंगरखा और सफेद टोपी पहनी हुई थी। सामने कटोरे में पानी रखा था। उनमें से एक विवादों के भंवर से मुक्त होकर आए थे। दास्तानगोई आरंभ करने के पहले दोनों ने माहौल बनाना शुरू किया। सबसे पहले उन दोनों ने इस विधा के बारे में बताना शुरू किया। बेहद उत्साह और ऊंची आवाज में उन दोनों की जुगलबंदी में ये बताया गया कि दास्तानगोई भारत में ईरान से आई। फिर उन्होंने अमीर खुसरो से लेकर अकबर तक का नाम लिया और कई मिनट तक इस विधा को महिमामंडित करते रहे। तब मेरे दिमाग में ये बात खटकी जरूर थी लेकिन इसपर विचार नहीं किया। बात आई गई हो गई। चंद दिनों पहले फिर एक दूसरे दास्तानगो को सुनने को मिला। उन्होंने भी दास्तानगोई की विधा को ईरान से भारत में आया बताया। ईऱान से आई इस विधा की प्रशंसा में उन्होंने ढेर सारी बातें कहीं, दास्तानगोई के अनूठे फॉर्म को लेकर बड़े बड़े दावे किए जैसे कि ये कोई नई विधा हो या लुप्त होती विधा को पुनर्जीवित किया गया हो। थोड़ी देर के लिए ये माना भी जा सकता है कि उर्दू में ये विधा ईरान से आई होगी। लेकिन इनकी बातचीत में दावा किया जा रहा था कि भारत में ये विधा विदेश से आई। आधारहीन दावा।  

जब दो जगह ये बात सुनी कि दास्तानगोई भारत में विदेश से आई तो लगा कि अज्ञान की धारा बह रही है। हमारे देश में कथावाचन की परंपरा बहुत पुरानी है। हमारे देश में तो कहानी कहने की परंपरा प्राचीन काल से चल रही है। कहानी सुनाने के अलग-अलग तरीके हैं। अलग अलग क्षेत्र में, अलग अलग विधा में, अलग अलग कलाओं में कहानी कहने की अपनी एक परंपरा रही है। अगर हम याद करें तो महाभारत में संजय युद्ध की आंखों देखी धृतराष्ट्र को सुनाते हैं और जबतक युद्ध चलता रहता है तबतक वो हर रोज नियम से युद्ध की आंखोदेखी धृतराष्ट्र को सुनाते रहते हैं। यह कहानी कहने की ही तो कला है। श्रीरामचरितमानस भी तो कथावाचन की शैली में ही है। श्रीरामचरितमानस की इन पंक्तियों पर ध्यान देना चाहिए, उमा कहिउं सब कथा सुहाई/जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई। इसका अर्थ ये है कि शंकर जी पार्वती से कहते हैं कि, हे उमा! मैंने वह सब सुंदर कथा कही जो काकभुशुण्डिजी ने गरुड़जी को सुनाई थी। यहां गौर करने की बात है कि कथा सुनाने या कहने की बात की गई है। बात सिर्फ श्रीरामचरितमानस या महाभारत की नहीं है। सैकड़ों ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं जिससे ये साबित होता है कि भारत में कहानी कहने की परंपरा बहुत पुरानी है। हम संस्कृत नाट्यशास्त्र की बात करें तो वहां जिस सूत्रधार का उल्लेख मिलता है वो क्या करता है। वो भी तो कहानी ही सुनाता है। मंच पर खड़े होकर कहानी सुनाता है। पूर्वोत्तर में भी तकिए पर बैठकर एक व्यक्ति भाव भंगिमाओं के साथ महाभारत की कथा सुनाता है। यह परंपरा बहुत पुरानी है। इसके अलावा अगर हम गुजरात की बात करें तो वहां के माणभट्ट गायक विष्णु कथा को ‘हरिकथाकालक्षेपम’ की परंपरा में सदियों से गाते रहे हैं। राजस्थान में भी ‘कहन’ की परंपरा कितने समय से चली आ रही है इसका आकलन करना मुश्किल है। दादा दादी की कहानियां सुनाने की बात तो हमारे देश के हर घर परिवार में सुनी जा सकती है। राजाओं के दरबार में भांड भी तो किस्सा ही सुनाते थे। यह सूची बहुत लंबी हो सकती है लेकिन यहां मकसद सिर्फ ये बताना है कि दास्तानगोई करनेवाले जब ये कहते हैं कि भारत में ये परंपरा ईरान से आई तो वो गलत दावा करते हैं। चिंता इस बात की कि गलत बात को अगर लगातार बोला जाए और नाटकीय तरीके से सार्वजनिक तौर पर समूह के सामने पेश किया जाए तो कई बार उसको सच मान लिया जाता है। लिहाजा इस तरह की गलत बातों को रेखांकित करना आवश्यक है। गलत बातों को रेखांकित करने के साथ साथ ये बाताना भी उचित होता है कि सचाई क्या है।

दास्तानगोई करने वालों का दावा है कि उनकी विधा इस वजह से अलग होती है कि ये कई दिनों तक चलती है। उनका दावा है कि ईरान में या अमीर खुसरो ने जब दास्तानगोई की थी तो वो कई दिनों तक चली थी। यहां वो फिर भूल कर जाते हैं कि हमारे देश में कथावाचन की जो परंपरा रही है वो अलग अलग फॉर्मेट की रही है। संजय ने तो अठारह दिन तक सुबह से शाम तक धृतराष्ट्र को कथा सुनाई थी। कई बार कथावाचन सात दिन तो कई बार दस दिन तक भी चलती है। राधेश्याम कथावाचक कई दिनों तक राम कथा कहते थे। उनकी शैली अद्धभुत होती थी और वो स्थानीय बोलियों के शब्दों को भी अपनी कथा का हिस्सा बनाते थे। यही काम दास्तानगोई करनेवाले भी करते हैं। वो उर्दू के कवियों या कहानीकारों या लेखकों के किस्सों को संस्मरणों के तौर पर सुनाते हैं। आज के दौर में भी मोरारी बापू कथावाचन ही तो करते हैं और वो भी कई दिनों तक चलता है। मौजूदा दौर में तो दास्तानगोई एकल या युगल परफॉरमेंस की तरह हो गई है। फॉर्मेट और फॉर्म की बात करके दास्तानगोई को विदेश से आई अनूठी विधा के तौर पर स्थापित करने की कोशिशें भले ही की जाएं पर दरअसल वो भारतीय कथावाचन का ही एक रूप है। भाव भंगिमाओं से और वस्त्र से कोई परफॉर्मेंस अलग विधा के तौर पर स्थापित नहीं हो सकती है। नाटककार और निर्देशक सलीम आरिफ से पटना साहित्य महोत्सव के दौरान दास्तानगोई पर एक अनौपचारिक चर्चा हुई थी। चर्चा में उन्होंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही थी। उन्होंने कहा था कि ‘फॉर्म से कंटेंट पैदा नहीं किया जा सकता है, कटेंट से फॉर्म बनाया जा सकता है।‘ दास्तानगोई के साथ यही दिक्कत है कि इसमें फॉर्म से कंटेंट बनाने की कोशिश हो रही है, जो संभव नहीं है। दास्तानगोई को एक विधा के तौर पर स्थापित करने की कोशिशें भी हो रही हैं लेकिन जब आधार ही नहीं होगा तो वो अलग क्या हो पाएगी। वो भारतीय कथावाचन का उर्दू संस्करण है।

आज जब पूरी दुनिया अपनी जड़ों की ओर लौट रही है। अपनी परंपराओं को फिर से अपनाने के लिए आतुर दिखाई दे रही है ऐसे में भारत की कहानी कहने की या किस्सागोई की शानदार परंपरा को नेपथ्य में धकेलने की कोशिश हो रही हैं। ऐसा करनेवाले ये भूल जाते हैं कि भारत में किस्से कहानियां सुनाने की विधा लोकमानस में इस तरह से रची बसी है कि उसको किसी आयातित विधा से चुनौती नहीं दी जा सकती है। अब से कुछ दिनों बाद नवरात्र आरंभ होनेवाला है। देशभर के अलग अलग अलग हिस्सों में रामलीला का आयोजन होगा। अलग अलग तरीके से नौ दिनों तक रामकथा का वाचन या मंचन होगा। दास्तानगोई को अलग विधा मानने या बतानेवालों को रामलीला में जाकर देखना चाहिए कि वहां किस तरह से कथा सुनाई जाती है और कितनी लोकप्रिय है। दास्तानगोई करनेवालों को ये मानना चाहिए बल्कि गर्व से ये स्वीकार करना चाहिए कि ये विधा इसी धरती पर उपजी है, यहीं की है और हम अपनी ही पारपंरिक विधा को नए स्वरूप में आपके सामने पेश कर रहे हैं। संभव है कि तब ये विधा लोकमानस के मन पर अंकित हो सकेगी।  


 

Saturday, September 19, 2020

महानायक के लिए भी सजी थीं थालियां


फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद हिंदी फिल्म जगत लगातार एक के बाद एक विवाद में घिरता जा रहा है। हिंदी फिल्म जगत का ये विवाद पिछले दिनों संसद में भी गूंजा जब गोरखपुर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद और भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता रवि किशन ने ड्रग्स का मामला लोकसभा में उठाया। रवि किशन के अगले दिन अपने जमाने की प्रख्यात अभिनेत्री और अब समाजवादी पार्टी की राज्यसभा सदस्य जया बच्चन ने बैगर किसी का नाम लिए बॉलीवुड को बदनाम करने का आरोप जड़ा। अपने छोटे से वक्तव्य में जया बच्चन ने बेहद हल्की बात कह दी। उन्होंने बॉलीवुड पर सवाल उठानेवालों को निशाने पर लेते हुए कहा कि कुछ लोग जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। अब ‘जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं’ से जया बच्चन एक ऐसा रूपक गढ़ने की कोशिश करती हैं जो उनकी मानसिकता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देता है। इस समय थाली और छेद के रूपक का उपयोग करके जया बच्चन अपनी सामंती मानसिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन कर गईं। मतलब ये कि बॉलीवुड में कोई मालिक है जो छोटे लोगों के लिए थाली सजाता है। परोक्ष रूप से ये बयान रवि किशन और कंगना पर वार था। इन दोनों ने अपनी मेहनत से फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाई किसी ने इनके लिए थाली सजाई हो अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। थाली और छेद का रूपक जया जी और उनके परिवार को कठघरे में खड़ा कर देता है। जया बच्चन फिल्मी दुनिया की बेहद समादृत अभिनेत्री रही हैं, फिर लंबे समय से सांसद भी हैं। उनके पति अमिताभ बच्चन तो सदी के महानायक ही हैं, उनके भारत में करोड़ों प्रशंसक हैं।

जब जया जी राज्य सभा में थाली और उसमें छेद का रूपक गढ़ रहीं थीं तो शायद वो यह भूल गईं कि अमिताभ बच्चन और उनके परिवार के लिए भी थाली कई लोगों ने कई बार सजाई थी। ख्वाजा अहमद अब्बास से लेकर अमर सिंह तक ने। उन्होंने थाली में छेद किया या नहीं ये तो पता नहीं लेकिन थाली के पलट दिए जाने की कहानी कई लोग कहते हैं। फिल्म अभिनेता महमूद का एक बेहद चर्चित साक्षात्कार है जिसमें उन्होंने अमिताभ बच्चन के बारे में, उनके संघर्षों के बारे में बताया है। बात उन दिनों की थी जब अमिताभ बच्चन फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ कर रहे थे। उस फिल्म का निर्देशन ख्वाजा अहमद अब्बास कर रहे थे। उसमें महमूद के छोटे भाई अनवर अली भी काम कर रहे थे। उस दौर में महमूद ने और उनके भाई अनवर अली ने अमिताभ की काफी मदद की थी। उनको अपने घर में रखा। महमूद तो उनको अपना बेटा मानते थे। उसके बाद भी जब अमिताभ की फिल्में फ्लॉप हो रही थीं तब भी महमूद ने अपनी फिल्म ‘बांबे टू गोवा’ में अमिताभ को लीड रोल में लिया। इसमें शत्रुघ्न सिन्हा, अरुणा इरानी के अलावा अनवर अली ने भी काम किया था। इस फिल्म ने औसत से थोड़ा ही बेहतर बिजनेस किया था पर अमिताभ के काम को यहीं से पहचान मिली। महमूद ने उसी साक्षात्कार में बताया कि किस तरह से बाद के दिनों में अमिताभ बच्चन ने उनको भुला दिया। जब महमूद की बाइपास सर्जरी हुई थी तो वो मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती थी। वहीं अमिताभ के पिता हरिवंश राय बच्चन भी अपना इलाज करवा रहे थे। महमूद को इस बात का बेहद दुख था कि एक ही अस्पताल में रहने के बावजूद अमिताभ उनसे मिलने नहीं आए, गेट वेल सून का कार्ड या एक फूल तक नहीं भेजा। महमूद की ‘थाली’ का क्या हुआ?   

फिल्म ‘बांबे टू गोवा’ के बाद अमिताभ को फिल्म ‘जंजीर’ से काफी शोहरत मिली। फिल्म ‘जंजीर’ में अमिताभ बच्चन के चयन की दिलचस्प कहानी है। प्रकाश मेहरा के सामने जब ‘जंजीर’ की कहानी आई तो वो इसको लेकर धर्मेन्द्र और देवानंद के पास गए लेकिन दोनों ने इंकार कर दिया। वो दौर राजेश खन्ना का था और उनका जादू दर्शकों के सर चढ़कर बोल रहा था। ज्यादातर अमिनेता रोमांटिक फिल्में कर रहे थे या करना चाहते थे। ‘जंजीर’ की कहानी अलग हटकर थी। जब प्रकाश मेहरा को धर्मेन्द्र और देवानंद ने मना कर दिया तब फिल्म ‘जंजीर’ लिखनेवाली मशहूर जोड़ी के सलीम खान ने उनको अमिताभ बच्चन का नाम सुझाया था। उन्होंने फिल्म ‘बांबे टू गोवा’ देखी थी और उसमें अमिताभ का फाइट सीन उनको खास पसंद आया था। उसके बाद की कहानी तो इतिहास है। लेकिन जब सलीम खान और जावेद अख्तर की जोड़ी टूटी थी तो इसकी खबर उस वक्त मुंबई के एक समाचार पत्र में छपी थी। अखबार के उसी अंक में अमिताभ बच्चन के हवाले से ये कहा गया था कि वो जावेद अख्तर के साथ हैं। सलीम-जावेद और अमिताभ के अन्य प्रसंग दीप्तकीर्ति चौधरी की किताब, ‘द स्टोरी ऑफ हिंदी सिनेमा’ज ग्रेटेस्ट स्क्रीन राइटर्स’ में देखे जा सकते हैं। इतना ही नहीं इस बात का भी अन्यत्र उल्लेख मिलता है कि बाद के दिनों में प्रकाश मेहरा जब अमिताभ से मिलने की कोशिश करते थे तो लंबी प्रतीक्षा के बाद भी उनको ये सौभाग्य प्राप्त नहीं होता था। वजह का पता नहीं। अमिताभ बच्चन के लिए सफल फिल्मों की ‘थाली’ तो प्रकाश मेहरा ने भी सजाई थी।  

बच्चन परिवार और गांधी परिवार की नजदीकियां और दूरियां भी सबको पता ही हैं उसको फिर से दोहराने की जरूरत नहीं हैं। लेकिन इतना तो कहना ही होगा कि गांधी परिवार या कांग्रेस ने भी बच्चन परिवार के लिए ‘थाली’ तो सजाई थी। हर किसी की जिंदगी में उतार चढ़ाव आते हैं, बच्चन साहब की जिंदगी में भी आए। तब उनकी मदद के लिए अमर सिंह सामने आए थे। संकट के समय बच्चन परिवार के लिए ‘थाली’ तो अमर सिंह ने भी सजाई। जया जी को समाजवादी पार्टी से सांसद बनवाने में भी उनकी भूमिका मानी जाती है। कालांतर में अमर सिंह की ‘थाली’ भी पलट गई और वो बच्चन परिवार से दूर हो गए। दरअसल जया बच्चन उम्र और प्रतिष्ठा के उस पड़ाव पर हैं जहां उनसे इस तरह की हल्की टिप्पणी की बजाय गंभीर और सकारात्मक टिप्पणियों की अपेक्षा होती है। आज बॉलीवुड को लेकर जो भी कहा या लिखा जा रहा है उसपर जया जी जैसी फिल्म जगत की वरिष्ठ और सम्मानित सदस्यों को सामने आकर देश को भरोसा देना चाहिए था। कहना चाहिए था कि अगर वहा नशा या कुछ और गलत हो रहा है तो उससे इंडस्ट्री को मुक्त करने की जरूरत है। ये अपेक्षा तो तब की जा सकती थी जब फिल्म जगत से जुड़े वरिष्ठ लोग सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस दिखा पाते। वरिष्ठ साहस नहीं दिखाते और कनिष्ठ या मानसिक रूप से विपन्न निर्देशक राजनीति करते हैं।

संजय दत्त ड्रग्स की गिरफ्त में आए थे, उसके बाद अन्य आपराधिक गतिविधि के चलते जेल में भी रहे। जब उनको नायक बनाने के लिए फिल्म ‘संजू’ का निर्माण होता है और उस फिल्म में संजय दत्त तीन सौ से अधिक महिलाओं के साथ हम बिस्तर होने की बात कहते हैं तो किसी को गटर की याद नहीं आती। कोई भी इस बात पर आपत्ति नहीं जताता कि इस फिल्म में इस प्रसंग को महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए था। बल्कि इस फिल्म की सफलता को बॉलीवुड ने सेलिब्रेट किया गया। तब फिल्मी दुनिया से जुड़े वरिष्ठ सदस्य उद्वेलित नहीं हुए कि राजू हिरानी ने अपनी फिल्म में महिलाओं को घोर आपत्तिजनक तरीके से पेश किया। अब समय आ गया है कि बॉलीवुड साहस दिखाए। साहस सही को सही और गलत को गलत कहने का। 

Saturday, September 12, 2020

कवरेज से कठघरे में न्यूज चैनल


लगभग चार साल बाद नोएडा के फिल्म सिटी गया। ये वही इलाका है जहां ज्यादातर न्यूज चैनलों के कार्यालय हैं। कोरोना की वजह से फिल्म सिटी में रौनक थोड़ी कम थी। न्यूज चैनल में कार्यरत एक मित्र से कुछ काम के सिलसिले में मिलने गया था। कोरोना की वजह से दफ्तर में बाहरियों के प्रवेश की मनाही थी। इस वजह से हमलोग फिल्म सिटी स्थित एक चाय की दुकान पर बैठकर बातें कर रहे थे। इतने में तीन पुराने सहयोगी चाय पीने उसी दुकान पर आ गए। ये सब अलग अलग चैनलों में काम करते हैं लेकिन चाय साथ ही पीते थे। वहीं खड़े खड़े बातें होने लगीं। मुझे ध्यान नहीं था कि वो दिन गुरूवार था और उसी दिन चैनलों की टीआरपी आती है। टीआरपी रेटिंग पर बातें होने लगी। न्यूज चैनल में लंबे समय तक काम करने की वजह से टीआरपी रेटिंग वाले दिन की अहमियत का पता था। उस दिन होनेवाली बातें भी वही थीं जो चार पांच साल पहले हुआ करती थी। लिहाजा मुझे लगा कि थोड़ी देर में ये बातें खत्म भी हो जाएगी लेकिन मेरे एक मित्र ने दूसरे को रेटिंग को लेकर छेड़ दिया। रिया,सुशांत, कंगना से लेकर चीन और कोरिया के घटनाक्रम केंद्र में आने लगे थे। तबतक मुझे लग रहा था कि हल्की फुल्की बातें हो रही हैं थोड़ी देर में हंसी मजाक करके खत्म हो जाएगी। सब इस वक्त अलग अलग न्यूज चैनलों में काम जरूर कर रहे थे लेकिन एक समय में सभी एक ही न्यूज चैनल का हिस्सा होते थे, गहरे मित्र भी थे। 

जिस मित्र ने दूसरे मित्र को रेटिंग कम होने को लेकर छेड़ा था उसने एक और बात कह दी जिसको लेकर बात बढ़ गई। उसने कह दिया कि ये पुराना फॉर्मूला है कि जो चैनल अपनी स्टोरी को लेकर जितना गिरेगा उसकी टीआरपी उतनी ही बढ़ेगी। ये जुमला सालों से फिल्म सिटी में गूंजता रहा था लेकिन मजाक में। पहले वाले मित्र ने कहा कि यार तुम ज्यादा ज्ञान मत दो। हमें मालूम है कि चैनलों ने टीआरपी के लिए क्या क्या नहीं किया। आज जब तुम्हारे चैनल की टीआरपी कम हो गई है तो तुम स्टोरी का वर्गीकरण करने लगे। जिस चैनल में इन दिनों तुम काम कर रहे हो न उस चैनल को आसमान में साईं बाबा की आंख दिखाई दी थी और घंटों तक वो विजुअल चलता रहा था। जरा याद कर लो । 

हम तीन लोग चुपचाप खड़े होकर उन दोनों की बातें सुन रहे थे। दोनों की बातों में तल्खी बढ़ने लगी थी। बीच बचाव करने की गरज से हम तीन में से एक बोल पडा कि अरे जाने दो भाई, सभी चैनलों ने कभी न कभी, कुछ न कुछ ऐसा चलाया है जो न्यूज चैनल पर नहीं चलना चाहिए था। इतना सुनना था कि आपस में झगड़ रहा हमारा एक साथी उसके उपर ही बिफर गया। कहने लगा कि तुम भी इसके साथ हो गए और ज्ञान देने लगे। वो दिन भूल गए जब तुमने स्वर्ग में सीढ़ी लगाई थी। वो दिन भूल गए जब ‘एरिया 51’ और ‘बारमूडा ट्राइंगल’ जैसे टीआरपी बटोरनेवाले कार्यक्रम लिखा करते थे। बड़े शौक और अकड़ से कॉलर ऊंचा करके उस दौर में घूमा करते थे कि इस हफ्ते नौ बजे की हमारी टीआरपी सबसे अधिक रही। शांति से अपनी बात कह रहा हमारा वो मित्र अपने ऊपर हुए व्यक्तिगत हमले को बर्दाश्त नहीं कर पाया। अब पलटवार करने की बारी उसकी थी। बोला तुम क्या कम हो, आज जहां काम कर रहे हो उस चैनल को देख लोग सबसे पहले तो तुम्हीं लोगों ने ये काम शुरू किया था। प्रिंस जब गड्ढे में गिरा था तो किसने गानेवालों को स्टूडियो में बुलाकर गाना गवाया था। किसने स्टूडियो में हवन और पूजन करवाया था। क्या न्यूज चैनल में ये सब बातें उचित थीं। जिस दिन प्रिंस गड्ढे में गिरा था, दरअसल उस दिन ही न्यूज भी गड्ढ़े में गिरा था। 

हमारा चौथा मित्र जो शांति से सारी बातें सुन रहा था, वो जरा वामपंथी मिजाज का था। बहस बढ़ने लगी तो उसने भी सोचा कि वो क्यों पीछे रहे। उसने कहा कि देखिए दरअसल हमको पूरी गंभीरता से और समग्रता में न्यूज चैनलों की इस समस्या का विश्लेषण करना चाहिए। हमें इस बात को भी रेखांकित करना चाहिए कि कब से न्यूज चैनलों पर खबरों से अलग हटकर कटेंट देने की शुरुआत हुई। वो कौन सी सामाजिक-राजनीति-आर्थिक परिस्थितियां थीं जिनमें उस दौर में चैनलों को इस तरह की चीजें दिखाने को मजबूर किया था। अब तीनों मिलकर उसपर टूट पड़े। ज्यादा समग्रता-वमग्रता की बातें मत करो, जरा सोचो कि न्यूज चैनलों पर आत्मा से बातें करवानेवाले कार्यक्रम क्यों चले थे। एक मुस्लिम महिला के पति के गायब होने के बाद जब उसकी शादी किसी और से हो गई थी और उसके बाद जब उसका पहला पति लौट आया था तो इस घटना का तमाशा क्यों बना था। क्यों सरेआम कैमरे के आगे पंचायत लगावकर निजी रिश्तों को तार तार किया गया था। जब न्यूज चैनलों पर मंदिर का रहस्य से लेकर बिना ड्राइवर की कार और नागिन का इंतकाम चलता था तब तो तुम खामोश रहते थे। अब सैद्धांतिक बातें कर रहे हो। अब सभी एक साथ बोलने लगे थे और मैं सोच रहा था कि यार गलत दिन अपने मित्रों से मिलने आ गया। 

बहस लंबी चलती देख नंदू ने दूसरी बार चाय भेज दी। सबने चाय ली तो मुझे लगा कि अब बात खत्म हो जाएगी, लेकिन उस मित्र ने फिर से बात छेड़ दी जिसके चैनल की टीआरपी इन दिनों बढ़ी हुई थी। उसने वामपंथी मित्र पर तंज कसा कि देखो यहां कोई दूध का धुला नहीं है, तुम्हारे जो आदर्श हैं न उनके चैनल ने ही सबसे पहले एंकरिंग का मजाक बनवाया। बंटी और बबली फिल्म रिलीज होनेवाली थी या हुई थी तो अभिषेक बच्चन और रानी मुखर्जी से एंकरिंग करवाई थी। तब से ही एंकरिंग का तमाशा बनना शुरू हुआ। अब भड़कने की बारी वामपंथी मित्र की थी, वो तो शुरू हो गया और लगा नाम लेकर सबकी बखिया उधेड़ने। उस दौर के संपादकों को बुरा भला कहने। उसकी आवाज भी ऊंची होने लगी थी। बात बिगड़ती देख मैंने कहा कि अब हम सबको चलना चाहिए। एक ने कहा भड़ास सुनते जाओ। वामपंथी मित्र अपेक्षाकृत जल्दी शांत हो गए। सभी इस पर सहमत दिखे कि टीवी न्यूज चैनलों के आरंभिक दिनों में गलतियां हुईं। एक ने तो कह भी दिया कि ‘जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय’। अब मेरे चारों मित्र उन पुराने न्यूज चैनल संपादकों के ज्ञान देने से झुब्ध दिखे जिनके कार्यकाल में खबरों के नाम पर तमाशा हुआ करता था। एक मित्र ने कहा कि क्या ही अच्छा होता कि नैतिकता आदि के प्रश्न उठानेवाले उस दौर के संपादक पहले ये मानते कि उन्होंने गलतियां की थीं। कहते कि न्यूज चैनल अपने शैशवावस्था में थे, गलतियां हुईं। अब तो न्यूज चैनलों की आय़ु बीस साल से अधिक हो गई है, अब जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। ऐसा होता तो पुराने संपादकों के उपदेश में वजन भी आता अन्यथा ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली बात लगती है। मैंने अपने मित्रों से विदा ली। लौटते समय बहुत देर तक सोचता रहा कि इसका क्या हल है? कब कोई खड़ा होगा और कहेगा कि खबरों को खबर की तरह चलाएं और उसकी सुनी भी जाएगी। उत्तर नहीं मिल पाया। 

Saturday, September 5, 2020

प्रमाणन को समकालीन बनाने की दरकार


भारतीय वायुसेना की महिला पॉयलट गुंजन सक्सेना पर बनी फिल्म पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। मामला दिल्ली हाईकोर्ट तक पहुंच गया है। रक्षा मंत्रालय और भारतीय वायुसेना ने दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की थी। हाईकोर्ट ने नहीं माना। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से पूछा कि फिल्म के रिलीज होने के पहले वो अदालत क्यों नहीं आए? अब तो फिल्म की स्ट्रीमिंग नेटफिल्क्स पर हो रही है, ऐसे में उसको बीच में रोकना ठीक नहीं होगा। कोर्ट ने इस केस को एक बेहद ही दिलचस्प मोड़ भी दे दिया है। उन्होंने इस केस में गुंजन सक्सेना को भी पार्टी बनाया और कहा कि कोर्ट उनसे सीधे जानना चाहेगी कि फिल्म पर जो आरोप लग रहे हैं वो सही हैं या गलत? दरअसल इस फिल्म पर आरोप है कि उसने वायुसेना के उस समय के माहौल को महिला विरोधी दिखाया है जिससे वायुसेना की छवि खराब हुई है। वायुसेना का तर्क है कि किसी युद्ध के नायक या नायिकी पर बनाई गई फिल्म को बहुत अधिक काल्पनिक नहीं बनाया जा सकता है, उसका नाटकीय स्वरूप भी पेश करना उचित नहीं होगा। इस फिल्म के निर्माता धर्मा प्रोडक्शंस के वकील हरीश साल्वे ने अदालत में कहा कि ये गुंजन सक्सेना की जिंदगी से प्रेरित है। मतलब कि पूरे तौर पर उनकी जिंदगी पर आधारित नहीं है। फिल्म के निर्माताओं पर ये भी आरोप है कि 2013 के रक्षा मंत्रालय के गाइडलाइंस के हिसाब से इस फिल्म को रिलीज करने के पहले रक्षा मंत्रालय की प्रीव्यू कमेटी को नहीं दिखाया गया। नेटफ्लिक्स ने दावा किया है कि फिल्म के रिलीज होने के पहले न केवल इसकी स्क्रिप्ट भारतीय वायुसेना को दी गई बल्कि इस वर्ष फरवरी में उनको फिल्म भी दिखाई गई थी। ये तो कानूनी दांवपेंच है जिसका निस्तारण अदालत से होगा। लेकिन इन कानूनी दावपेंच से कई प्रश्न उठ खड़े हुए हैं।

फिल्म गुंजन सक्सेना, द कारगिल गर्ल को नेटफिल्कस पर दिखाया जा रहा है। इस फिल्म का प्रदर्शन ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर बदली हुई परिस्थितियों में किया गया। कोरोना की वजह से सिनेमा हॉल के बंद होने की वजह से इसका प्रदर्शन ओटीटी पर हुआ अन्यथा ये सिनेमा हॉल में प्रदर्शित होती। सिनेमा हॉल में प्रदर्शन के लिए इस फिल्म ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र भी हासिल कर लिया था। चूंकि ओटीटी पर फिल्मों के प्रसारण के लिए किसी भी तरह के प्रमाणन की आवश्यकता नहीं है इस वजह से जब नेटफ्लिक्स पर बगैर प्रमाणपत्र दिखाए इसका प्रसारण हुआ। अगर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इस फिल्म को देखकर प्रमाणित किया तो फिर इसको लेकर आपत्ति कैसी? और अगर आपत्ति है तो सवाल उठता है कि क्या केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से इस फिल्म को प्रमाणित करने में चूक हुई? इस फिल्म को प्रमाणित करने के पहले रक्षा मंत्रालय 2013 के गाइडलाइंस का ध्यान रखा गया या नहीं। सवाल तो ये भी उठता है कि रक्षा मंत्रालय के जो दिशा निर्देश हैं वो केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड पर लागू होते हैं या नहीं? क्या केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड उन गाइडलाइंस को मानने के लिए बाध्य है, क्योंकि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड हमारे देश में फिल्म प्रमाणन की वैधानिक संस्था है और ये सिनेमेटोग्राफ एक्ट से संचालित होती है। संसद से पारित सिनेमेटोग्राफी एक्ट, 1952 के तहत सेंसर बोर्ड का गठन किया था। 1983 में इसका नाम बदलकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड कर दिया गया । उसके बाद भी इस एक्ट के तहत समय समय पर सरकार गाइडलाइंस जारी करती रही है। फिल्म प्रमाणन के संबंध में सरकार ने आखिरी गाइडलाइंस 6 दिसबंर 1991 को जारी की थी जिसके आधार पर ही अबतक काम चल रहा है । इक्यानवे के बाद से हमारा समाज काफी बदल गया । आर्थिक सुधारों की बयार और हाल के दिनों में इंटरनेट के फैलाव ने हमारे समाज में भी बहुत खुलापन ला दिया है। ओटीटी की बढ़ती लोकप्रियता ने फिल्मों के प्रदर्शन की पद्धति को ही बदल दिया है। बदले माहौल में जब हम करीब तीन दशक पुरानी गाइडलाइंस के आधार पर सर्टिफिकेट देंगे तो दिक्कतें तो पेश आएंगी ।

सिनेमेटोग्राफी एक्ट की धारा 5 बी (1) के मुताबिक किसी फिल्म को रिलीज करने का प्रमाण पत्र तभी दिया जा सकता है जब कि उससे भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता पर कोई आंच ना आए। मित्र राष्ट्रों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी ना हो । इसके अलावा तीन और शब्द हैं – सार्वजनिक शांति, शालीनता और नैतिकता का पालन होना चाहिए। अब इसमें सार्वजनिक शांति या कानून व्यवस्था तक तो ठीक है लेकिन शालीनता और नैतिकता की व्याख्या अलग अलग तरीके से की जाती रही है। हम अगर इस तरफ न भी जाएं तो इस बात को लेकर विचार तो अवश्य होना चाहिए कि संसद के पारित किसी कानून को किसी मंत्रालय के गाइडलाइंस से संशोधित किया जा सकता है। रक्षा मंत्रालय 2013 के दिशा निर्देशों के मुताबिक अगर कोई फिल्म सेना पर बनाई जाती है तो उस प्रस्ताव को रक्षा मंत्रालय को भेजा जाना चाहिए। फिल्म की शूटिंग खत्म होने के बाद सेना की प्रीव्यू कमेटी को दिखाया जाना चाहिए। इस समिति में रक्षा मंत्रालय और सेना के अधिकारी होते हैं। प्रीव्यू कमेटी से अनुमति मिलने के बाद फिल्म को रिलीज करने के पहले इसको रक्षा मंत्रालय के संयुक्त सचिव (सेना) की अनुमति भी चाहिए। फिल्म बनाने के पहले फिल्म निर्माताओं को ये जानकारी भी देनी होती है कि वो कब तक फिल्म की शूटिंग खत्म कर लेंगे और कब इसको रिलीज करेंगे। इसके अलावा फिल्म की संकल्पना, फिल्म बनाने का उद्देश्य और फिल्म की स्क्रिप्ट भी सेना को देने की अपेक्षा की गई है। इसके अलावा भी फिल्मकारों से ये अपेक्षा की गई है कि वो फिल्म रिलीज कॉपी भी भारतीय सेना का उपलब्ध करवाएंगें। फिल्म निर्माताओं को सेना से संबंधित फिल्म बनाने और सेना के क्षेत्र में शूटिंग करने के लिए बहुत विस्तार से फॉर्म आदि भी भरने के अलावा अन्य औपचारिकताओं का भी प्रावधान है।

अरुण जेटली जब सूचना और प्रसारण मंत्री थी तो उन्होंने श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में फिल्म प्रमाणन में सुधारों के लिए कमेटी बनाई थी। उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। बेनेगल कमेटी ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सेंसर बोर्ड के कामकाज के अलावा फिल्मों को दिए जानेवाले सर्टिफिकेट की प्रक्रिया में बदलाव की सिफारिश की थी। बेनेगल कमेटी ने सुझाव दिया था कि प्रमाणन बोर्ड सिर्फ फिल्मों के वर्गीकरण का काम करे। फिल्म को देखे और उसको किस तरह के यू, ए या फिर यूए सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए, इसका फैसला करे। बेनेगल कमेटी ने ये सिफारिश भी की थी कि फिल्मकार स्वयं बताए कि उनको अपनी फिल्म के लिए किस श्रेणी का प्रमाण पत्र चाहिए। लेकिन इस कमेटी की सिफारिशें लागू नहीं हो सकीं। अब ओटीटी के बाद तो स्थितियां काफी बदल गई हैं और नए सिरे सिनेमैटोग्राफिक एक्ट में बदलाव की आवश्यकता महसूस हो रही है। इसमें सेना और उससे जुड़ी घटनाओं के चित्रण से लेकर अन्य सभी बिंदुओं पर विचार कर उसको एक्ट में शामिल करना चाहिए। ओटीटी पर दिखाए जानेवाले कटेंट को भी इसके दायरे में लाने पर विचार किया जा सकता है। अगर ओटीटी पर दिखाई जानेवाली सामग्री के प्रमाणन की जिम्मेदारी भी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को दी जाती है तो इसके लिए बोर्ड को अपने संसाधन बढ़ाने होंगे ताकि फिल्म और वेब सीरीज निर्माताओं को मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़े।