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Saturday, May 31, 2014

हिंदी के भी अच्छे दिन !

हमारे देश, खास हिंदी भाषी राज्यों से और हिंदी प्रेमियों की तरफ से यह बात लगातार उठाई जाती रही है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाएं । यह एक बड़ी विडंबना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की अधिसंख्यक जनता द्वारा बोली जानेवाली भाषा राष्ट्रों के संगठन में मान्यता प्राप्त नहीं है, जबकि अरबी जैसी कई अन्य भाषाओं को संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्यता प्राप्त है । आजादी के बाद से ही उठ रही इस मांग को लेकर सरकारें समय समय पर बयान देती रही हैं । सरकार के उन बयानों से जो भावर्थ निकलता रहा है वह यह है कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए भारत सरकार गंभीरता से प्रयासरत है । अटल बिहारी वाजपेयी ने जब संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में अपना संबोधन दिया था तब से इस मांग ने और जोर पकड़ा था । एनडीए की सरकार के दौरान हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में इस तरह का प्रसातव भी पारित किया गया था । लेकिन हाल ही में विदेश मंत्रालय ने सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में बताया है कि सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए कोई प्रस्ताव नहीं भेजा है । विदेश मंत्रालय की दलील है कि अगर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा का आधिकारिक दर्जा मिल जाता है तो एक अनुमान के मुताबिक सरकार को हर साल तकरीबन बयासी करोड रुपए या उससे अधिक खर्च करने होंगे । विदेश मंत्रालय का मानना है कि अगर भारत इस तरह का प्रस्ताव करता है तो संयुक्त राष्ट्र के नियमों के मुताबिक उसको वित्तीय सहायता देनी होगी । यह वित्तीय सहायता अनुवाद और हिंदी में दस्तावेजों को छपवाने में आने वाले खर्च के मद्देनजर देना होगा । उन्नीस सौ तिहत्तर में संयुक्त राष्ट्र में पारित एक प्रस्ताव के मुताबिक किसी भाषा को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रस्तावक राष्ट्र को उस भाषा के अनुवाद करवाने , उसे छपवाने आदि पर आनेवाले खर्च का वहन करना होगा । भारत सरकार के विदेश मंत्रालय का यह तर्क गले नहीं ऊतर रहा है । देश की राजभाषा को अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और मान्यता दिलवाने के लिए बयासी करोड़ सालाना खर्च का तर्क बेमानी है । सिर्फ बयासी करोड़ या मान लिया जाए कि सौ करोड़ सालाना के खर्च से बचने के लिए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के तौर पर प्रस्तावित नहीं करना देश के करोड़ों हिंदी भाषियों के लिए झटके की तरह है । हिंदी प्रेमियों के अलावा किसी देश की भाषा को अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता उस देश के गौरव के साथ जुड़ा होता है । भारत जैसे विशाल देश के लिए हिंदी के गौरव के लिए सौ करोड़ सालाना खर्च करना बहुत मामूली काम है । हर साल हिंदी दिवस के मौके पर सरकार के विभिन्न विभाग और सार्वजनिक उपक्रम की कंपनियां करोड़ों फूंक देती हैं और उससे कुछ हासिल नहीं होता है । हिंदी दिवस के अवसर पर होनेवाली रस्म अदायगी में ही अगर कटौती कर दी जाए तो सौ करोड़ से ज्यादा की बचत संभव है ।
केंद्र में सरकार के बदलने और शपथ ग्रहण के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत ज्यादातर मंत्रियों ने हिंदी में शपथ ली, यहां तक उत्तर पूर्व से आनेवाले गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने भी शपथ ग्रहण के दौरान हिंदी भाषा को अपनाकर एक मिसाल पेश किया है। मोदी मंत्रिमंडल के शपथग्रहण समारोह और मोदी के हिंदी भाषा के प्रति रुझान को देखते हुए इस बात की उम्मीद जगी है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की मान्यता प्राप्त भाषा के तौर पर मान्यता दिलवाने के लिए केंद्र सरकार बयासी करोड़ रुपए सालाना खर्च करने को तैयार हो जाएगी । विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का भी हिंदी के प्रति अनुराग सार्वजनिक तौर पर ज्ञात है । सुषमा स्वराज ज्यादातर वक्त संसद में भी हिंदी में ही बोलती रही हैं और उनकी हिंदी है भी बेहतरीन । प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की संयुक्त कोशिश से अगर यह संभव होता है तो हिंदी भाषा के अलावा हिंदी प्रेमियों के लिए भी यह गौरव का क्षण होगा । नरेन्द्र मोदी प्रतीकों को लेकर खासे सजग रहते हैं और माना जाता है कि प्रतीकों की राजनीति में उनको महारथ हासिल है । प्रतीकों के माध्यम से जनता को संदेश देने का उनका अपना एक खास अंदाज है ।  अब अगर भारत के प्रधानमंत्री प्रतीकात्मक तौर पर भी अगर हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवाने के लिए बयासी करोड़ का फंड आगामी आम बजट में रखवाने का उपक्रम करते हैं तो हिंदी को सालों बाद उसका देय हासिल हो पाएगा । हिंदी के फैलाव के लिए की जा रही कोशिशों को बल भी मिलेगा ।
दो हजार बारह में जोहानिसबर्ग में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में पहली बार इस आशय का प्रसातव पास किया गया कि संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए समयबद्ध योजना पर काम किया जाएगा । जोहानिसबर्ग विश्व हिंदी सम्मेलन को आयोजित हुए लगभग डेढ़ साल बीत गए हैं । अब विदेश मंत्रालय का खर्चे की बिनाह पर इससे इंकार विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान पारित प्रस्ताव का अपमान भी है । जोहानिसबर्ग में विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान जब प्रस्ताव पारित हो रहा था तब उस वक्त की विदेश राज्यमंत्री परनीत कौर वहां मौजूद थीं । बावजूद उसके विदेश मंत्रालय का ये रवैया समझ से परे है । दरअसल विदेश मंत्रालय में हिंदी को लेकर एक खास किस्म की उदासीनता का वातावरण है । वहां अंग्रेजी का बोलबाला है । अब सुषमा स्वराज के कैबिनेट मंत्री और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह के विदेश राज्यमंत्री बनने के बाद यह आस जगी है कि अंग्रेजी का बोलबाला खत्म तो नहीं होगा लेकिन हिंदी को भी तवज्जो मिलेगी । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश के आजाद होने के फौरन बाद हरिजन में लिखे एक लेख में कहा था- मेरा आशय यह है कि जिस प्रकार हमने सत्ता हड़पने वाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका उसी तरह हमें सांसकृतिक अधिग्रहण करनेवाली अंग्रेजी को हटा देना चाहिए । इस आवश्यक परिवर्तन में जितनी देरी हो जाएगी, उतनी ही राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती चली जाएगी ।  आजादी के सड़सठ साल बाद भी महात्मा गांधी के उस कथन पर अमल नहीं हो सका । मंत्रालयों से अभी तक हम अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म नहीं कर पाए हैं नतीजा है कि हिंदी को अब तक उसका देय नहीं मिल पाया है । तकरीबन हर मंत्रालय में हिंदी को दोयम दर्जा हासिल है । कहने को वो राजभाषा अवश्य है लेकिन अगर हम अंग्रेजी के बरक्श उसको खड़ा करके देखते हैं तो बहुत ही निराशाजनक तस्वीर हमारे सामने उभरती है । एक ऐसी तस्वीर जिसको देखकर हिंदी प्रेमियों का सर शर्म से झुक जाना चाहिए ।

दरअसल आजादी के बाद माहौल कुछ ऐसा बना कि हिंदी को अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषा के दुश्मन की तरह पेश कर दिया गया । अंग्रेजी के लोगों ने सुनियोजित तरीके से यह बात फैलाई कि अगर हिंदी का वर्चस्व बढ़ा तो अन्य भारतीय भाषा खत्म हो जाएगी । नतीजा यह हुआ कि अन्य भारतीय भाषा के लोगों ने हिंदी का विरोध शुरू कर दिया, उनको हिंदी में अपना दुश्मन नजर आने लगा । जब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश हुई तो देश के कई राज्यों में हिंसक विरोध हुए । हिंदी के इस विरोध ने अन्य भाषाओं को अंग्रेजी के करीब पहुंचा दिया । जो हिंदी देश की संपर्क भाषा हो सकती थी उसको अंग्रेजी ने अन्य भारतीय भाषाओं की सम्मिलित ताकत से पछाड़ दिया । अन्य भारतीय भाषओं को हिंदी को गले लगाकर सहोदर भ्राता की तरह से प्रेम करना होगा । इस दिशा में साहित्य अकादमी की एक भूमिका हो सकती है लेकिन अकादमी में जिस तरह से काम काज हो रहा है उससे बहुत उम्मीद तो नहीं जगती है । साहित्य अकादमी में हर भारतीय भाषा के प्रतिनिधि होते हैं उनके साथ मिल बैठकर ये माहौल बनाया जा सकता है । इसके लिए अकादमी के आकाओं को पहल करनी होगी । अगर ऐसा होता है तो हिंदी के साथ साथ अन्य भारतीय भाषाओं को भी ताकत मिलेगी । इसके अलावा अगर सरकारी स्तर पर मोदी सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवाने के गंभीर प्रयास करती है तो हिंदी को विश्व भाषा का दर्जा हासिल होगा । हिंदी अब बाजार की भाषा बन चुकी है । बाजार ने उसको अपना लिया है आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश की सरकार हिंदी को तहेदिल से अपनाए और उसके विकास और संवर्धन के लिए होनेवाले खर्च को उसकी राह का रोड़ा नहीं बनने दे । अगर मोदी की अगुवाई वाली सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनवाने में कामयाब हो जाती है तो जिस तरह से लोग अब भी अचल बिहारी वाजयेपी को याद करते हैं उसी तरह से मोदी भी इतिहास में दर्ज हो जाएंगे । 

Monday, May 26, 2014

कबीर बानी से बुनी कविताएं

हिंदी साहित्य जगत पर रचनात्मकता के संकट की बहुत बातें होती रहती हैं । नब्बे के दशक में राजेन्द्र यादव ने अपनी पत्रिका हंस के माध्यम से लेखन पर महसूस किए जा रहे इस संकट पर लंबी बहस चलाई थी । हंस में चलाई गई उस बहस से कुछ हासिल हुआ हो या नहीं लेकिन कुछ लेखकों ने नहीं लिख पाने पर अपनी सफाई पेश कर दी थी । दरअसल हिंदी में लेखऩ पर संकट से ज्यादा जरूरी बहस होनी चाहिए कि कविता, कहानी, उपन्यास के अलावा अन्य विषयों पर हिंदी में संजीदगी से कोई कृति क्यों नहीं रची जा रही है । आज अगर हम हिंदी साहित्य के इतिहास और वर्तमान पर नजर डालें तो वहां साइंस फिक्शन, संगीत, कला, खेल,गीत, भारतीय संगीत, हेत्थ फिक्शन आदि पर बेहद कम किताबें नजर आती हैं । हिंदी के कउच लेखकों ने अवश्य इन विषयों पर विषयों पर मुकम्मल किताब लिखने का साहस दिखाया लेकिन उनकी संख्या इतनी कम है कि वो एक विधा के तौर पर हिंदी में स्थापित नहीं हो सकी । फिल्मों को लेकर हिंदी साहित्य के इतिहास में एक खास किस्म की उदासीनता दिखाई देती है । भारतीय फिल्म जगत में एक से बढ़कर एक कलाकार हुए, एक से बढ़कर एक संगीतकार हुए, एक से बढ़कर एक गीतकार हुए और लता मंगेशकर से लेकर मुहम्मद रफी जैसे गायक हुए । फिल्मों से जुड़े इन महान शख्सियतों पर हिंदी में इतनी कम सामग्री उपलब्ध है कि एक आलोचक ने सही टिप्पणी की थी कि फिल्मों के मुतल्लिक हिंदी में एक खास किस्म का सन्नाटा नजर आता है । फि्लमी दुनिया से कलाकारों के व्यक्तित्व, उनके संघर्ष और उनके योगदान को परखते हुए किताबों की भारी कमी है । जो है भी वो बेहद चालू किस्म की सुनी सुनाई बातों पर लिखी गई हैं । कुछ किताबें अवश्य छपकर सामने आई लेकिन ज्यादातर तो विभिन्न पत्र पत्रिकाओॆं में छपे लेखों के संग्रह ही हैं । मुझे लगता है कि हिंदी में प्रगतिशीलता के जोर और साहित्य पर वामपंथियों का कब्जा इस सन्नाटे के लिए जिम्मेदार है । प्रगतिशील समुदाय फिल्म, गीत-संगीत, नृत्य आदि को उल्लास, वैभव, हर्ष का प्रतीक मानता रहा है । वामपंथी विचारधारा इसको सर्वहारा के खिलाफ और अभिजात्य वर्ग का पोषक मानते रहे हैं । जब विचारधारा ही खिलाफ हो तो उसकी सुबह शामआरती उतारनेवाले अनुयायी तो उस दिशा में झांकने भी नहीं जाएंगें । उनके लिए तो कुमार गंधर्व और बिस्मिल्लाह खान पर लिखना भी गुनाह था, अमिताभ और ओमपुरी तक तो इनकी सोच ही नहीं पहुंच पाई । ज्ञानपीठ के एक कार्यक्रम में अमिताभ बच्चन को बुलाने पर बेवजह का विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई थी। लिहाजा लंबे समय तक वामपंथ के प्रभाव में रहा हिंदी का साहित्य समाज इन विषयों को अछूत मानता रहा । जिसने लिखने की कोशिश की उनपर वामपंथी लेखकों ने जमकर हमले किए और उन्हें साहित्य से खारिज करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । नतीजा यह हुआ कि हिंदी लेखन इन विषयों में पिछड़ता चला गया । गाहे बगाहे कोई गंभीर किताब इन विषयों पर आती रहती है । जैसे दो हजार छह में पंकज राग ने धुनों की यात्रा- लिखी । धुनों की यात्रा हिंदी फिल्म के संगीतकारों पर पर केंद्रित अहम किताब है जिसमें 1931 से लेकर 2005 तक के संगीतकारों की सृजनात्मकता को सामने लाया गया है । कुछ किताबें मधुप शर्मा ने भी लिखी हैं । संभव है कि कुछ और गंभीर किताबें प्रकाशित हुई हों लेकिन हिंदी साहित्य में फिल्म और उससे जुड़े लेखन को साहित्य की मुख्यधारा में अब तक जगह नहीं मिल पाई है और ना ही लेखक को प्रतिष्ठा । इसके अलावा हिंदी के युवा रचनाकारों में यतीन्द्र मिश्र गंभीरता से संगीत और संगीतकारों पर काम कर रहे हैं ।यतीन्द्र मिश्र ने श्रम पूर्वक गुलजार की रचनात्मकता को हिंदी में एक नए सिरे से परिभाषित करते हुए पेश किया है । इसके अलावा यतीन्द्र मिश्र ने गिरिजा देवी, सोनल मानसिंह और बिस्मिल्लाह खान पर मुक्कमल किताब लिखी जिसकी हिंदी साहित्य में उतनी चर्चा नहीं हो पाई नतीजे में लेखक को वो यश नहीं मिल पाया जिसके वो हकदार थे । इसके अलावा यतीन्द्र फिल्मों पर भी गंभीरता से काम कर रहे हैं लेकिन यतीन्द्र मिश्र मूलत: कवि हैं जो अपनी कविता में भी तरह तरह के प्रयोग करते रहते हैं ।

अभी हाल ही में यतीन्द्र मिश्र का ना कविता संग्रह विभास आया है । यह कविता संग्रह कबीर की कविताओं और उनके शब्दों को नए युग के मुताबिक परिभाषित करने की कोशिश है । लेखक के मुताबिक यह कविताएं एक हद तक कबीप की वाणी को समकालीन अर्थों में नए सिरे से खोजने और अभिव्यक्ति के लिए एक नया बेहद रतने की कोशिश में लिखी गई है । अठासी पन्नों की इस किताब में कुछ पचास कविताएं संकलित हैं । इस किताब की विशेषता यह है कि कबीर और कविता के पांच विशेषज्ञों की छोटी छोटी टिप्पणी के आधार पर पांच खंड बनाए गए हैं । यतीन्द्र ने अपनी इस किताब में कबीर के शब्दों और मुहावरों को आधुनिक संदर्भों में पेश किया है । इस संग्रह में एक कविता है बाजार में खड़े होकर । इसमें कवि ने कबीरा खड़ा बजार के शब्दों से एक नया मुहावरा गढ़ा है । कवि कहता है कभी बाजार में खड़े होकर /बाजार के खिलाफ देखो/उन चीजों के खिलाफ/जिन्हें पाने के लिए आए हो इस तरफ/जरूरतों की गठरी कंधे से उतारकर देखो/कोने में खड़े होकर नकली चमक से सजा/तमाशा-ए-असबाब देखों । यहां कवि सीधे सीधे बाजारवाद पर हमला करता है और तंज करते हुए बाजार के खिलाफ खड़े होने की चुनौती भी देता है । इन कविताओं में कबीरियत साफ तौर पर देखी जा सकती है । इसी तरह से अगर इस संग्रह की अन्य कविताओं को भी देखें तो हमें कबीर के लेखन और फक्कडपन का आस्वादन होता है । कुछ कविताएं बेहद गूढ़ और गद्य की तरह लिखी गई हैं लेकिन कविता के सारे गुणों से लैस । जैसे भला हुआ मोरी गगरी फूटी या शामिलबाजे के विरुद्ध । कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि यतीन्द्र मिश्र का यह संग्रह हिंदी में कविताओं की बाढ़ के बीच चट्टान की तरह सर उठाकर खड़ा है और आलोचकों को उसे व्याख्यायित करने की चुनौती दे रहा है । यतीन्द्र की इन कविताओं के बारे में चित्रकार मनीष पुष्कले की टिप्पणी बेहद सटीक है इन कविताओं में कबीर मात्र विषय नहीं हैं, यतीन्द्र यहां बेहद रोचकता से अपनी भाषा की ऐसी माटी गढ़ पाते हैं जिसमें कबीर की कबीरियत और यतीन्द्र की काबिलियत स्वत: प्रगट होती है । लिंडा हेस की टिप्पणी भी गौर करने लायक है- बानी कबीर का सूत था जिससे वो दुनिया बुनते थे । मैं सिर्फ इसमें यह जोड़ना चाहता हूं कि उसी वाणी से यतीन्द्र ने कविताएं बुन दी हैं । 

Sunday, May 25, 2014

जनवाद की शवसाधना

लोकसभा चुनावों में दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत और वामपंथी दलों की ऐतिहासिक हार के बाद हिंदी साहित्य जगत का एक खेमा सदमे में था । कुछ लेखक खीज मिटाने के चक्कर में इन दिनों फेसबुक जैसे सोशल साइट्स पर अपनी और अपनी विचारधारा की डफली बजाते घूम रहे हैं । उनकी टिप्पणियों में थोड़ा क्षोभ ज्यादा खिसियाहट दिखाई दे रही है । इस बीच खबर आई कि ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति को कथित हिंदू संगठनों की धमकी के बाद सुरक्षा प्रदान कर दी गई है । इस खबर के सामने आने के बाद जनवाद की शवसाधना कर रही जनवादी लेखक संघ को इसमें संभावना नजर आई और आनन फानन में इस मृतप्राय लेखक संगठन ने एक बयान जारी कर विरोध जता दिया । खबरों के मुताबिक अपने बयान में जनवादी लेखक संघ ने कहा है कि आम चुनावों के परिणाम के आते ही अनंतमूर्ति को डराने धमकाने की जो हरकतें सामने आई हैं वो निंदनीय है । उनके मुताबिक ये हरकतें असहमति के अधिकार के प्रति इन राजनीतिक शक्तियों की असिष्णुता का परिचायक है । असहमति का अधिकार लोकतंत्र के सबसे बुनियादी उसूलों में से एक है । इस अधिकार पर हमला लोकतंत्र की बनियाद पर हमला है । यू आर अनंतमूर्ति जैसे कद्दावर लेखक को किसी भी प्रकार की धमकी या उनको डराने धमाकाने की कोशिशों की ना सिर्फ निंदा की जानी चाहिए बल्कि ऐसी कोशिशों के लिए जिम्मेदार लोगों और संगठनों को सलाखों के पीछे होना चाहिए । इस पूरे विवाद के पीछे अनंतमूर्ति का एक बयान है जो उन्होंने चुनाव के पहले दिया था जिसमें कथित तौर पर उन्होंने कहा था कि अगर मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो वो देश छोड़ देंगे । हलांकि बाद में उन्होंने सफाई दी थी ।
यू आर अनंतमूर्ति एक बड़े लेखक हैं और उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था है लिहाजा मोदी की जीत के बाद उन्होंने स्वीकार किया- मेरा मानना है कि मोदी युवाओॆं के बीच खासे लोकप्रिय थे और देश के युवा चीन, अमेरिका की तरह मजबूत राष्ट्र चाहते थे । अनंतमूर्ति के मुताबिक यही राष्ट्रीय भावना मोदी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में सहायक रही । अनंतमूर्ति का बुनियादी विरोध मजबूत राष्ट्रवाद से है । उनका मानना है कि राष्ट्रवाद की आड़ में झूठ को फैलाया जा सकता है और यही उनके विरोध की वजह भी है । यू आर अनंतमूर्ति को इसका हक भी है क्योंकि वो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिक हैं और यहां का संविधान उन्हें अपने विचार रखने और उसके पक्ष में खड़ा होने की इजाजत देता है । लेकिन उन लोगों का क्या जिनकी आस्था भारतीय संविधान से ज्यादा लाल किताब में है, एक विचारधारा में है । इस तरह के लोग एक अवसर की तलाश में रहते हैं जिसका फायदा उठाकर वो दुनिया में अपने होने की दुंदुभि बजा सकें । हिंदी के इन बयानवीर लेखक संगठनों को बजाए बायान जारी करने के लेखकों के हितों में कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए । देशभर की अकादमियों में फैली अव्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करनी चाहिए । लेखकों-प्रकाशकों के बीच बढ़ती खटास को कम करने से लेकर रायल्टी और करारनामे के मसले पर कदम बढ़ाने चाहिए । यह इनका मूल काम होना चाहिए लेकिन सिर्फ अभिवयक्ति की आजादी के पक्ष में खड़े होने और कागजी विरोध जताने की आदत का त्याग करना होगा । हमारे देश का लोकतंत्र इतना मजबूत है कि कोई भी शख्स हमसे हमारे बुनियादी और संवैधानिक अधिकार नहीं छीन सकता है । इसके लिए बुक्का फाड़ने की जरूरत नहीं है ।  
 

Thursday, May 22, 2014

हनक की ललक में डूबी लुटिया

लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस में राहुल गांधी को हार की जिम्मेदारी से बाचने की कवायद तेज हो गई है । हार के कारणों के लिए कमेटी गठित करने से लेकर मनमोहन सिंह पर ठीकरा फोड़ने की तैयारियों के संकेत नेताओं के बयान से मिलने लगे हैं । चुनाव के दौरान ही पार्टी के दिग्गज नेता लगातार सार्वजनिक रूप से इस बात को स्वीकारने लगे रहे थे कि सरकार की उपलब्धियों को जनता तक नहीं पहुंचा पाना भूल थी । यह विचित्र बात है कि कोई भी पार्टी चुनाव के बीच अपनी गलतियों को ठीक करने के बजाए उसको स्वीकार करने लगे । हम इन स्वीकारोक्तियों और लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक हार को सूक्ष्मता से परखने की कोशिश करें तो राजनीति की एक अलहदा तस्वीर नजर आती है । वह तस्वीर है के कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दफ्तर और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के दफ्तर के बीच अपने आपको असर्ट करने की जंग । सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बीच किसी भी तरह का कोई मतभेद नहीं है बल्कि भारतीय राजनीति में दोनों एक दूसरे के पूरक के तौर पर काम करते हुए कांग्रेस को मजबूत कर रहे हैं । समस्या की शुरुआत होती है दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद । कांग्रेस की उस जीत का सेहरा राहुल गांधी के सर बांधा गया था । लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में पार्टी की बेहतरीन सफलता का श्रेय भी राहुल गांधी को ही दिया गया था । दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव में जीत के बाद ही सोनिया गांधी ने तय किया था कि पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंप दी जाए । सोनिया की इस इच्छा और उसके कार्यान्व्यन की उनकी चाहत के बाद राहुल गांधी के दफ्तर में काम करनेवाले उनके सिपहसालारों की महात्वाकांक्षा हिलोरें लेने लगी । अब यहीं से कांग्रेस के दो दफ्तरों का टकराव शुरू होता है । एक सत्ता केंद्र कांग्रेस अध्यक्ष का दफ्तर था ही जिसे सीपी ऑफिस के नाम से जाना जाता है दूसरा सत्ता केंद्र भी उभरा जिसे आरजी ऑफिस कहा जाने लगा । सोनिया गांधी ने जब राहुल गांधी को कमान दी तो कांग्रेस उपाध्यक्ष के दफ्तर के लोगों ने असर्ट करना शुरू कर दिया । उनके सामने सीपी ऑफिस की हनक का मानक था । सोनिया के साथ और उनके दफ्तर में पार्टी के पुराने लोग थे जो पारंपरिक तरीके से राजनीति करते थे वहीं राहुल के दफ्तर के लोग बिल्कुल नए और आधुनिक तरीके की पॉवर प्वाइंट राजनीति करनेवाले थे । जाहिर सी बात है टकराव तो होना ही था। वही हुआ । असर्ट करने के क्रास फायर में पार्टी फंस गई ।
अब अगर हम थोडा़ पीछे जाएं तो आरजी ऑफिस के लोगों ने दो हजार दस में हुए बिहार विधानसभा चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया और वहां के सारे फैसले लेने लेगे । बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरजी ऑफिस के फैसलों में कांग्रेस प्रेसिंडेट ऑफिस को शामिल नहीं किया गया और स्वतंत्र रूप से फैसले होते चले गए । सोनिया के साथ काम करनेवाले पुराने पीढ़ी के नेताओं की जब पूछ घटी तो वो लोग साइलेंट मोड में चले गए । यह वही दौर था जब कांग्रेस पार्टी ने लालू यादव से नाता तोड़ा था और अकेले दम पर बिहार में चुनाव लड़ने का फैसला किया था । आरजी ऑफिस का दावा था कि इससे पार्टी अपने बूते पर बिहार में खड़ी हो पाएगी । हुआ इसका उल्टा ।  जब नतीजे आए तो कांग्रेस को पिछले चुनाव से भी सीटें मिलीं । लालू यादव जैसा मजबूत सहयोगी भी खो दिया । बिहार की हार से भी आरजी ऑफिस के लोगों ने सबक नहीं लिया उनकी ख्वाहिश सिर्फ ये थी कि सीपी यानि कांग्रेस प्रेसिंडेंट ऑफिस जैसी हनक उनके ऑफिस को भी मिले, चाहे वो सरकार हो या पार्टी। इसी हनक की चाहत में आरजी ऑफिस में तैनात लोगों ने अपने आप तो असर्ट करना जारी रखा । इस बीच आरजी ऑफिस में झोला झाप एनजीओ के लोगों का बोलबाला हो गया । उनके विचारों को तरजीह मिलने लगी । आरजी ऑफिस से जारी बयानों और राहुल के भाषणों में झोला छाप नीतियों का प्रभाव साफ तौर पर दिखने लगा था । बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस और सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के रूप में आई । अन्ना आंदोलन से निबटने में सरकार और कांग्रेस शुरुआत से ही गलतियां करती चली गई । पहले आंदोलन के दबाव में ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन कर दिया गया । सरकार और कांग्रेस के लोग इस बात को नहीं भांप पाए कि कमेटी के गठन से आंदोलन मजबूत हुआ । कमेटी की बैठकों से कुछ हासिल नहीं होने से आंदोलनकारियों को सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा करने का मौका मिला । यह वही दौर था जब सोनिया गांधी बीमार थी और विदेश में इलाज करवा रही थी । पार्टी चलाने के लिए कुछ लोगों की कमेटी अवश्य बनी थी पर कांग्रेस पर आरजी ऑफिस पूरी तरह से हावी था । सारे फैसले सोनिया के निवास यानि दस जनपथ की बजाए राहुल के घर यानि बारह तुगलक लेन से होने लगे । इस प्रक्रिया में चाहे अनचाहे सोनिया गांधी की टीम के लोग दरकिनार होते चले गए । आंदोलन से निबटने की कांग्रेस की रणनीति का हश्र सबके सामने है । इस आंदोलन के दौरान पार्टी की किरकिरी से प्रणब मुखर्जी जैसे नेता भी खिन्न हो गए थे । सरकार और पार्टी के आकलन में हुई गलती का बेहतरीन नमूना था जब सरकार के नंबर दो के मंत्री प्रणब मुखर्जी बाबा रामदेव को रिसीव करने एयरपोर्ट चले गए । अन्ना आंदोलन के बाद एक बार फिर से आरजी ऑफिस ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को अपनी हनक स्थापित करने का मौका समझा । पूरा चुनाव राहुल गांधी और ब्लैकबेरी और आईपैड से लैस उनकी टीम की अगुवाई और देखरेख में चला । टिकट बंटवारे से लेकर प्रभारियों की नियुक्ति आरजी ऑफिस से हुई । खुद राहुल गांधी ने पूरे सूबे में ताबड़तोल रैलियां की । एक बार फिर वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी । उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान प्रणब मुखर्जी की लगभग डेढ दर्जन रैलियां लगी थी लेकिन अचानक एक दिन सारी रैलियां रद्द कर दी गई । नतीजा एक बार फिर सिफर । उत्तर प्रदेश में पार्टी का सूपड़ा साफ । कहीं ना कहीं तो रणनीति में कोई चूक रही होगी ।

कांग्रेस अध्यक्ष ऑफिस से ज्यादा हनक साबित करने की आरजी ऑफिस के कारकुनों के फैसलों के बीच प्रधानमंत्री कार्यालय में एक तीसरा गुट काम कर रहा था जिसे पीएमओ और योजना आयोग का आशीर्वाद प्राप्त था । सरकार के राहुल गांधी ऑफिस की बढ़ती चाहत और वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करने के उनके फैसले के बाद पीएमओ भी सान्नूं की यानि हमें क्या वाले मोड में चला गया । खास करके दागी नेताओं वाले अध्यादेश को फाड़ कर डस्टबिन में डाल देनेवाले राहुल के सार्वजनिक बयान के बाद । लोकसभा चुनाव में भी पहले दो चरणों तक तो आरजी ऑफिस हावी रहा लेकिन जब उस ऑफिस में प्रियंका गांधी पहुंची तो फिर सबको साथ लेकर चलने की कवायद शुरू हुई लेकिन तबतक काफी देर हो चुकी थी । 

Monday, May 19, 2014

राजनीति, महिला और विद्रूपता

राजेन्द्र यादव को अपने जीवन काल में इस बात का अफसोस था कि राजनीतिक हत्या पर हिंदी में कोई उपन्यास नहीं लिखा गया । वो हमेशा कहते थे कि हिंदी के उपन्यास लेखक राजनीति की बजबजाती दुनिया पर तो लिख लेते हैं लेकिन राजनेताओं के हत्या के इर्दगिर्द रचना करने का साहस उनमें नहीं है । उन्होंने एक बार कहा था कि वेद प्रकाश शर्मा इकलौते हिंदी के लेखक हैं जिन्होंने वर्दी वाला गुंडा नामक उपन्यास लिखा जो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या पर आधारित है । लेखक ने प्लॉट अवश्य वहां से उठाया है लेकिन उसमें कल्पना के आधार पर काफी घटनाओं और स्थितियों का समावेश किया है । राजेन्द्र यादव की इस बात से असहमति का कोई आधार नहीं है साथ ही इस बात से भी अलग राय नहीं हो सकती है कि राजनीति को केंद्र में रखकर कई उपन्यास लिखे गए । श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी से लेकर विभूति नारायण राय के तबादला तक भारतीय समाज में राजनीति के खेल पर से पर्दा हटाने की कोशिश की गई है । प्रेमचंद के जमाने में गांव के लोग अपनी सारी बदमाशियों के बावजूद कुछ मूल्यों पर डटे रहते थे लेकिन वही गांव जब श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास राग दरबारी में चित्रित होता है तो उसका स्वरूप बदल चुका होता है ।  राजनीति की गंदगी गांव के जिंदगी में इस तरह से रच बस गई कि पंचायतों और ग्रामसभाओं के चुनाव में उस तरह के तमाम हथकंडे और दंद-फंद अपनाए जाने लगे जो प्रदेश और देश की राजनीति में अपनाए जाते थे । उससे आगे बढ़ते हुए विभूति नारायण राय के उपन्यास तबादला में तो वो राजनीति और घिनौने रूप में उपस्थित होती है । यह उपन्यास मूलत उत्तर प्रदेश के सर्वजनिक निर्माण विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानी है जिसमें तबादला तंत्र को प्रभावित करनेवाले राजनेताओं अफसरों और दलालों की साठगांठ का वर्णन है । सरकारी तंत्र के विद्रूप के अलावा इस उपन्यास में स्त्री शोषण का भी एक आयाम है । यही आयाम अब रजनी गुप्त के नए उपन्यास ये आम रास्ता नहीं है के केंद्र में है । रजनी गुप्त के इस उपन्यास में शीर्षक के नीचे कोष्ठक में लिखा है राजनीति के चक्रव्यूह में स्त्री । इससे पाठकों को इस बात का अंदाज हो जाता है कि उपन्यास की कहानी क्या कहती है ।

इस उपन्यास की केंद्रीय पात्र मृदु है जो पिछड़े वर्ग से आती है और अपने पति और दो बच्चों के साथ खुशी-खुशी पारिवारिक जीवन बिता रही होती है । उसकी जिंदगी में बेहद अहम मोड़ तब आता है जब वो एक दिन एक व्यूटी कांटेस्ट में चुन ली जाती है । घरेलू महिला होने के बावजूद मृदु के जीने का सलीका अन्य महिलाओं से अलहदा है । वो बिंदास है, वो खूबसूरत है, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती है और समाज के लिए कुछ करना भी चाहती है । इस उपन्यास में लेखिका ने साफ तौर पर इस बात को उकेरा है कि राजनीति के दलदल में महिलाओं के लिए खुद को बचा लेना लगभग असंभव सा है । इस उपन्यास से यह ध्वनित होता है महिलाओं को अगर राजनीति में ऊपर चढ़ना है तो उन्हें अपने शरीर को पायदान की तरह इस्तेमाल करना होगा । यह बात पात्रों के बीच होनेवाली बातचीत और स्थितियों से कई बार स्पष्ट होती है । एक अंग्रेजी पत्रिका में हिंदी की मशहूर लेखिका रमणिका गुप्ता, जो कि खुद लंबे समय तक राजनीति में रही हैं, ने माना था कि किस तरह से राजनेता महिलाओं के साथ व्यवहार करते हैं । किस तरह से खूबसूरत महिलाओं को अपने आपको बचाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है जो ज्यादातर नाकाम रहती है । अपने इस उपन्यास में रजनी गुप्त ने राजनीति की इस विद्रूपता को उजागर तो किया ही है लेकिन इसके साथ एक महात्वाकांक्षी पति के नापाक इरादों को भी उघाड़ कर रख दिया है । मृदु का पति अपनी तरक्की के लिए अपनी खूबसूरत पत्नी का इस्तेमाल करना चाहता है । वो अच्छी पोस्टिंग के लिए उसे मंत्री और आला अधिकारियों के पास भेजता है लेकिन मृदु अपने दृढ स्वभाव और दबंगई की वजह से बच कर निकल आती है । अपने पति की इस नीच हरकत से वो प्रतिक्रयावादी हो जाती है और पति की नाराजगी मोल लेकर राजनीति की ओर कदम बढ़ा देती है । वहां उसे एक नेता मिलता है जिसके साथ लांग ड्राइव पर जाना और उसकी नजदीकी उसे अच्छी लगती है । लेकिन नियति का चक्र कुछ ऐसा चलता है कि वो सबकुछ छोड़छाड़ कर पीड़ित लड़कियों के आश्रम में पहुंच जाती है । डेढ सौ पन्ने के इस छोटे से उपन्यास में कई कथाएं एक साथ चलती हैं । राजनीति के अलावा यह उपन्यास उसके दोनों बेटों के मनोभावों और पिता के बहकावे में आकर मां के साथ बदतमीजियों की दास्तान भी कहता है । मां के लिए अपने संतान की तड़प स्वाभाविक है लेकिन पिता अपनी चालों से इसको और बढ़ाता रहता है । इस उपन्यास में कई ऐसे विषय हैं जिसको पाठक हाल की घटनाओं से जोड़कर देख सकते हैं । लेकिन एक लेखक के लिए यही तो सफलता है कि वो किस तरह से अपने आसपास घट रही घटनाओं को अपनी रचना का विषय बनाकर समाज को झकझोरता है । रजनी गुप्च के इस उपन्यास में राजनीति के अलावा किशोर मन के मनोविज्ञान का भी चतित्रण है । किशोर मन का यह मनोविज्ञान रजनी के पिछले उपन्यास कुल जमा बीस का विषय भी रहा है । कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि रजनी गुप्त का यह नया उपन्यास इस विषय को स्पर्श करने का एक सार्थक प्रयास है । 

Sunday, May 18, 2014

बादशाहत बचाने की बेचैनी

लोकसभा चुनाव के बाद देश में नए जनादेश के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेन्द्र मोदी देश के अगले प्रधानमंत्री होंगे । इस जनादेश ने सिर्फ देश की सियासी तस्वीर बदलेगी बल्कि इसका असर साहित्य और संस्कृति पर भी पड़ना तय है । भारतीय जनता पार्टी की इस जीत तक हमारे देश में कमोबेश सभी साहित्यक और सांस्कृतिक संस्थाओं पर वामपंथी सोच और विचार वाले लेखकों, साहित्यकारों और विश्वविद्यालय शिक्षकों का कब्जा है । सरकारी पैसे से चलनेवाली इन संस्थाओं में स्वायत्ता के नाम पर उन्हीं का एजेंडा चलता रहा है । देश में बदले सियासी हालात में इन संस्थाओं के सत्ता समीकरण पर भी असर पड़ेगा ही। वामपंथी दलों और कांग्रेस से उनकी वफादारी का सुख भोगनेवाले लोग जो इन संस्थाओं में लंबे समय से कायम हैं उनके माथे पर लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद से शिकन है । अगर हम देश की इन साहित्यक संस्थाओं के इतिहास पर नजर डालते हैं तो सबसे पहले साहित्य अकादमी पर नजर जाती है । उन्नीस सौ चौवन में जब साहित्य अकादमी का गठन किया गया था तो जवाहर लाल नेहरू उसके पहले अध्यक्ष बनाए गए थे । नेहरू को एक लेखक के तौर पर अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया था प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं । यह वह दौर था जब हमारे देश के राजनेता पढते लिखते थे । कालांतर में साहित्य अकादमी एरक खास विचारधारा के लोगों के हाथों में चली गई । जब इमरजेंसी में प्रगतिशील लेखक संघ ने इंदिरा गांधी का समर्थन कर दिया तो उसके बाद तो कांग्रेस ने इस तरह के संस्थाओं को वामपंथी बुद्धिजीवियों के हवाले कर दिया । सत्तर और अस्सी के दशक में इन वामपंथियों ने योजनाबद्ध तरीके से इन संस्थाओं पर कब्जा किया और अपने समर्थकों को आगे बढ़ना शुरू कर दिया । विरोधियों को चुनचुन कर इस तरह के संस्थाओं से निकालना शुरू किया । अभी अभी साहित्य अकादमी ने अपने साठसाल पूरे होने के मौके पर डी एस राव के संपादन में एक कॉफी टेबल बुक का प्रकाशन किया है । प्रोडक्शन के लिहास से इस शानदार किताब में साहित्य अकादमी के उद्देश्यों और बाद के दिनों में उसके क्रियाकलापों के बारे में कई दिलचस्प टिप्पणियां हैं । इस किताब को शुरू से लेकर अंत तक पलटने और पढ़ने के बाद यह बात साफ हो जाती है कि साहित्य अकादमी का स्तर कैसे उत्तरोत्तर गिरता गया ।

वामपंथी साहित्यकारों और कथित विचारकों में एक और दुर्गुण यह भी है कि वो दूसरी विचारधारा की आवाज को दबाने के लिए किसी भी हदतक जा सकते हैं । विश्वविद्यालयों में पीएचडी देने से लेकर नौकरी तक में ये खेल खुलकर खेला जाता है । मैं बहुधा इसे वामपंथी फासीवाद कहता हूं । इस तरह की फासीवादी विचारधारा के पोषकों को दिल्ली दरबार में सत्ता परिवर्तन से फर्क पड़ सकता है । वाराणसी के चुनाव में धुर मोदी विरोधी तीस्ता शीतलवाड़ के नेतृत्व में या कह सकते हैं उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर इन धुर वामपंथियों ने अपने इरादे तो साफ कर ही दिए थे । करीब दो दर्जन साहित्यकारों ने मोदी के खिलाफ चुनाव प्रचार किया और इस तरह का माहौल बनाने की कोशिश की कि मोदी के आने से लेखकों और बुद्धिजीवियों पर खतरा बढ़ जाएगा । यह हताशा और निराशा अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए नहीं बर्ना अपनी मलाईदार कुर्सियां और साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं से लाभ लेने के खत्म होने के डर से उपजा था । वाल्टेयर ने एक बार कहा था कि वो हजारों चूहों के कुतरे जाने से खत्म होने की बजाए एक शेर के निगल जाने से खत्म होने को पसंद करेंगे ।  

Wednesday, May 14, 2014

सर्वे की कसौटी पर खबरिया चैनल

लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण की वोटिंग खत्म होने के साथ ही देशभर के तमाम खबरिया चैनलों पर एक्जिट पोल या पोस्ट पोल के नतीजे आने शुरू हो गए । अलग अलग चैनल तो अलग अलग सर्वे करनेवाली एजेंसियां और अलग अलग नतीजे । हर चैनल अपने अपने विषेशज्ञों की राय से इस या उस गठबंधन को चुनाव बाद मिलनेवाली संभावित सीटों का एलान कर चुका है । अमूनन हर चैनल भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन को बहमुत देता नजर आ रहा है । अपवाद के तौर पर एक न्यूज चैनल है जो एनडीए को तकरीबन ढाई सौ सीट दे रहा है । लेकिन इसके उलट एक और चैनल एनडीए को साढे तीन सौ सीटें देने पर तुला हुआ है । तुर्रा यह कि हर चैनल अपने सर्वे के सबसे सटीक और सबसे विश्वसनीय होने का दावा भी करता चल रहा है । लगता है कि न्यूज चैनल यह मानकर बैठे हैं कि जनमानस की स्मृति कमजोर होती है और उसे दो हजार चार और दो हजार नौ के सर्वे याद नहीं हैं । लिहाजा सटीक और विश्वसनीय का डंका पीटने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है । उन्हें यह भी याद नहीं है पिछले दो लोकसभा चुनाव के दौरान तमाम एक्जिट पोल के नतीजे धरे रह हए थे । दो हजार चार के लोकसभा चुनाव के दौरान देश में फील गुड का वातावरण तैयार किया गया था । ऐसा माहौल था कि देश उन्नति के पथ पर तेजी से दौड़ रहा है और देश की इस तीव्र उन्नति का फायदा जनता को हो रहा है । अर्थवय्वस्था भी दहाई के आंकड़ें को छूने को बेताव दिख रही थी । इन तीव्रताओं और बेताबियों का भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने भी फायदा उठाना तय किया, लिहाजा तय समय से पहले लोकसभा चुनाव का एलान कर दिया गया । फील गुड फैक्टर और शाइनिंग इंडिया की पृष्ठभूमि में देश में चुनाव होने लगे । एक तरफ अटल बिहारी वाजपेयी जैसा तपा तपाया नेता, जिसके ओजस्वी भाषण की जनता दीवानी थी । लोग घंटों तक उनके भाषणों का इंतजार करते थे । दूसरी तरफ उन्नीस सौ छियानवे के बाद देश की सत्ता से बाहर कांग्रेस । वही कांग्रेस जिसके बारे में नब्बे के दशक के अंत में राजनितिक पंडितों ने यह भविष्यवाणी कर दी थी कि उसका अंत हो गया है । वही कांग्रेस जिसने सीताराम केसरी के पार्टी अध्यक्ष रहते विभाजन और नेताओं का पलायन दोनों झेला था। बाद में सोनिया गांधी के नेतृत्व में पार्टी अपने आपको मजबूत करने की कोशिश कर रही थी । उस वक्त कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार हो चुकी थी । वाजपेयी जी बनाम सोनिया गांधी के इस जंग में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का पलड़ा भारी दिख रहा था । दो हजार चार के चुनाव के बाद न्यूज चैनलों से सर्वे दिखाने शुरू कर दिए थे । कमोबेश सभी सर्वे में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता में वापसी करता दिख रहा था । न्यूज चैनलों और अखबारों के सर्वे में एनडीए को दो सौ नब्बे तक सीटें दी गई थी । कुछ चैनलों ने थोड़ी सावधानी बरतते हुए ढाई सौ सीटें दी थी लेकिन इससे कम कोई भी नहीं गया था । इन्ही न्यूज चैनलों और अखबारों ने कांग्रेस को सहयोगियों के साथ एक सौ उनहत्तर से लेकर दो सौ पांच सीटें दी थी । दो हजार चार में जब मतगणना शुरू हुआ था तो ट्रेड मिल पर दौड़ते हुए स्वर्गीय प्रमोद महाजन का फुटेज और वहीं से दिया गया इंटरव्यू लोगों का अब भी याद है । उन्होंने सुबह सुबह सुबह दावा किया था कि एनडीए की सत्ता में वापसी हो रही है । उनके अति आत्मविश्वास का कारण पिछले दो तीन दिनों से दिखाए जा रहे एक्जिट पोल के नतीजे थे । लेकिन जैसे जैसे दिन चढ़ता गया तस्वीर बदलती चली गई और एनडीए एक सौ नवासी और कांग्रेस अपने सहयोगियों के साथ दो सौ बाइस के आंकड़े तक पहुंच गया । तमाम एक्जिट पोल के नतीजे धरे के धरे रह गए । सभी सर्वे और भविष्यवाणी बेमानी साबित हुए थे । तकरीबन यही हाल दो हजार नौ के लोकसभा चुनाव के नतीजों के वक्त हुआ था । तमाम खबरिया चैनल और अखबारों ने दोनों गठबंधन को लगभग बराबर-बराबर सीटें मिलने का अनुमान लगाते हुए सर्व दिखाए थे । यह अवश्य था कि सभी सर्वे में यूपीए को ज्यादा सीटें दी गई थी । लेकिन तब भी नतीजे तो गलत ही साबित हुए थे । एनडीए की सीटें एक सौ उनसठतक सिमट गई तो यूपीए दो सौ बासठ तक जा पहुंची । यहां एरक बार फिर से इन सर्वे और एक्जिट पोल के नतीजों पर सवाल खड़े हुए थे ।  
इस बार के लोकसभा चुनाव खत्म होने और वोटों की गिनती के बीच तमाम न्यूज चैनलों पर आए इन सर्वे को देखने के बाद यह लगता है कि पूरे देश में बीजेपी या ज्यादा सटीक तरीके से कहें तो नरेन्द्र मोदी की लहर है । इन खबरिया चैनलों के सर्वे के मुताबिक मोदी लहर पर सवार होकर बीजेपी एक बार फिर रायसीना हिल पर कब्जा जमाने जा रही है वहीं दस साल तक रायसीना हिल्स पर राज करनेवाली कांग्रेस आजादी के बाद के सबसे बुरे दौर से गुजरती दिख रही है । इन चुनाव बाद सर्वे के नतीजों से तो यही लगता है कि कांग्रेस इस चुनाव में अबतक का सबसे खराब प्रदर्शन करने जा रही है । इन सर्वे में एक और बात जो रेखांकित करने योग्य है वह यह कि अलग अलग चैनलों पर इस सर्वे का सैंपल साइज अलग अलग है । अबतक दिखाए गए सभी सर्वे में सैंपल साइज बहुत ज्यादा बड़ा नहीं है । सैंपल साइज का आकार उतना महत्व नहीं रखता है लेकिन इसमें सबसे जरूरी यह होता है कि उसमें किन लोगों की नुमाइंदगी है । भारत में जब भी चुनाव होता है तो उसमें जाति और धर्म की अहम भूमिका होती है । इसलिए अगर सैंपल साइज में इस फैक्टर को नजरअंदाज कर दिया जाता है तो उसके गलत होने का खतरा बढ़ जाता है । इसी तरह से अगर सैंपल साइज बीस बाइस हजार का भी है और उसमें ग्रामीण और शहरी वोटरों का अनुपात गड़बड़ाता है तो नतीजों पर असर पड़ता है ।
भारत में चुनावी सर्वेक्षण बहुत पुरानी अवधारणा नहीं है । पश्चिम में यह अवधारणा बहुत पुरानी है और वहां इस वजह से सटीक होती है कि आबादी कम है और जाति धर्म संप्रदाय का ज्यादा झोल नहीं है ।  कई देशों में तो दो दलीय व्यवस्था होने से भी सर्वे के गलत होने के चांस कम होते हैं । भारत में यह अवधारणा साठ के दशक में आई जब उन्नीस सौ साठ के चुनाव में पहली बार दिल्ली की एक संस्था मे सर्वे किए थे । लेकिन इक्कीसवीं सदी के एन पहले जब भारत का आकाश प्राइवेट न्यूज चैनलों के लिए खुला तो फिर इस तरह के सर्वे की मांग बढ़ गई । हाल के दिनों में जिस तरह से न्यूज चैनलों की बाढ़ आ गई उसके बाद तो चुनाव के दौरान सर्वे की भी सुनामी आ गई । कई छोटी बड़ी एजेंसियां सर्वे के इस मैदान में उतर गई । जब मांग बढ़ी को सर्वे में एक तरह का खेल भी शुरू हुआ । हाल ही में सरवे करनेवाली एक एजेंसी के कुछ लोग कैमरे पर इस खेल को स्वीकारते नजर आए थे । कई ऐसी एजेंसियां भी मैदान में आ गई हैं जो अपना सर्वे मुफ्त में न्यूज चैनलों के मुहैया करवाती हैं और उनकी एकमात्र शर्त होती है कि उनके नतीजों को बगैर किसी फेरबदल के प्रसारित किया जाए । अब इसके पीछे का मोटिव तो साफ तौर पर समझा जा सकता है । इस बार के चुनाव नतीजों में कांग्रेस, बीजेपी और अन्य दलों के साथ साथ मीडिया की साख का भी फैसला होना है । राजनीतिक दलों के भविष्य के साथ साथ मीडिया के भविष्य का फैसला भी होगा ।

लोकतंत्र के माथे का कलंक

केंद्र में भले ही नई सरकार बनने जा रही है, लेकिन सोलहवें लोकसभा के लिए तकरीबन दो महीने तक चले प्रचार के दौरान लोकतंत्र के मर्यादा की चूलें हिल गई । एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप और सियासी हमले ने सारी सीमाएं तो़ड़ दीं । नेताओं के बयानों ने समाज और कानून की परंपराओं की धज्जियां उड़ा दी । चुनावी रण में पार्टियां अपनी बुनियादी मुद्दों से भटककर व्यक्तिगत मुद्दों पर केंद्रित हो गई । जाति, धर्म, संप्रदाय आदि के आधार पर जमकर बयानबाजी हुई । देश ने जवाहरलाल नेहरू के उस प्रसिद्ध कथन को भुला दिया कि - हम चाहे किसी भी धर्म के हों सभी भारत माता की संतान हैं और हमारे अधिकार समान हैं । हम किसी भी तरह की सांप्रदायिकता और संकीर्ण सोच को बढ़ावा नहीं दे सकते हैं । कोई भी देश तबतक महान नहीं हो सकता जबतक कि वहां की जनता अपने कार्य और सोच में संकीर्ण हो ।  ये संकीर्ण सोच हर पार्टी के नेताओं के बयान में दिखा । गिरिराज सिंह जैसे नेता मोदी विरोधियों को पाकिस्तान जाने को कहते हैं तो कांग्रेस का एक प्रत्याशी मोदी की बोटी-बोटी काटने की बात कहता है  संवैधानिक पद पर बैठी राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे तक कह देती हैं कि बोटी किसकी कटेगी ये चुनाव नतीजे के बाद पता चलेगा । अब अगर आप गौर करें तो ये तीनों नेता इस तरह के हैं जिनके बयान बहुधा आते नहीं हैं । चुनाव के वक्त धर्म और संप्रदाय आधारित इन बयानों के अपने निहितार्थ हैं । ये बयान सोच-समझकर दिए गए हैं । चुनावों पर गहरी नजर रखनेवाले राजनीति विश्लेषकों का मानना है कि जब पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ध्रुवीकरण की राजनीति की ओर बढ़ने का संकेत करता है तो छोटे नेता बैकाबू हो जाते हैं । मोदी के विश्वस्त सिपहसालार अमित शाह शामली और बिजनौर में कहते हैं - अमित शाह ने कहा था कि आदमी भूखा और प्यासा तो रह सकता है, लेकिन अगर अपमानित हो जाता है तो चैन से नहीं रह सकता है और अपमान का बदला तो लेना पड़ेगा । संकेतों में मुजफ्फरनदर दंगे साफ तौर पर थे । अमित शाह के इस बयान से सूत्र पकड़ते हुए गिरिराज जैसे नेता राजनीतिक लाभ के लिए उछलने लगे । यहां यह बात गौर करने लायक है कि गिरिराज हों, मसूद हों, वसुंधरा हों या फिर अमित शाह ये बयानवीर के तौर पर नहीं जाने जाते हैं । यह साफ है कि ये नेता चुनावी फायदे के लिए समाज को बांटनेवाला बयान देते हैं ।
इन बयानों में ध्रुवीकरण की संभावना देख उत्तर प्रदेश के ताकतवर मंत्री आजम खान भी ने तो सारी हदें पार कर दी । उन्होंने अमित शाह को गुंडा नंबर एक और कातिल कह डाला । फिर कहा कि करगिल में मुसलमानों ने विजय दिलवाई । यह भारतीय राजनीति का इतना निचला स्तर है कि इसकी जितनी भर्त्सना  की जाए वो कम है । फौज का जवान वर्दी पहनने के बाद ना तो हिंदू होता है और ना मुसलमान वो सिर्फ हिन्दुस्तनी होता है । आजम खान शुरू से बयानवीर और विवादों से घिरे रहे हैं और सियासी नफे के लिए पूर्व में भी इस तरह के बयान देते रहे हैं । आजम क्या मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार पर बोलते हुए कहा कि लड़कों से कभी कभार गलतियां हो जाती हैं । मुलायम सिंह यादव जैसे तपे तपाए नेता सोचकर ही इस तरह की बात करते हैं । इसके पीछे भी वोट लेने की मंशा थी क्योंकि संदर्भ मुंबई के बलात्कारियों को फांसी का था और सभी मुजरिम एक समुदाय विशेष के हैं । लोहिया के चेले मुलायम महिलाओं को लेकर बेहद ही दकियानूसी और परंपंरावादी सोच के हैं । संसद में महिलाओं को आरक्षण देने के मुद्दे पर मुलायम ने कहा था कि अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वो संसद में आईं तो वहां जमकर सीटियां बजेंगी ।  अब सवाल यही कि देश का वोटर महिलाओं को लेकर असंवेदनशील मुलायम जैसे नेताओं को अपना रहनुमा चुन सकता है ।
धर्म जाति और संप्रदाय के अलावा इस चुनाव में विरोधियों से बड़ी लकीर खींचने के बजाए नेताओं ने एक दूसरे को नीचा दिखानेवाला बयान दिया । नरेन्द्र मोदी ने जब चुनावी हलफनामे में पत्नी का नाम भरा तो कांग्रेस के नेताओं की बांछे खिल गई । दिग्विजय सिंह से लेकर शोभा ओझा तक ने तो कई दिनों तक इस मुद्दे को हवा दी और मोदी के व्यक्तिगत जीवन पर सार्वजनिक टिप्पणियां करती रही । गुजरात में महिला जासूसी कांड को राहुल ने चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की । उन्होंने अपने हर चुनाव में मोदी पर महिलाओं की जासूसी करवाने का आरोप लगाया । बगैर नाम लिए तो प्रियंका गांधी ने भी चुटकी ली थी और कहा था कि महिला सशक्तीकरण की बात करते हो लेकिन चुपके चुपके हमारे फोन सुनते हो । कांग्रेस के नेताओं के इन बयानों के पीछे की सोच यह थी कि देश का ध्यान मूल मुद्दों और यूपीए सरकार की नाकामियों से भटकाया जाए । सिर्फ कांग्रेस ही नहीं बल्कि अपने पूरे चुनावी कैंपेन के दौरान नरेन्द्र मोदी मां-बेटे की सरकार कहकर सोनिया और राहुल का मजाक उडा़ते रहे । राहुल गांधी को शहजादे कहकर तो लंबे समय से संवोधित कर ही रहे थे । गुजरात महिला जासूसी कांड के बाद जब कांग्रेसियों ने उन्हें साहबजादे कहना शुरू किया तो मोदी ने राहुल गांधी को शहजादे कहना बंद किया । बीजेपी ने जब सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा को लेकर एक फिल्म दामादश्री जारी की तो तिलमिलाई प्रियंका गांधी ने बीजेपी नेताओं को बौखलाया हुआ चूहा करार दे दिया । लालू यादव सरीखे नेता तो मोदी को कातिल कहते ही रहते हैं । अपने चुनाव प्रचार के दौरान जब नरेन्द्र मोदी ने ममता बनर्जी की पेंटिंग्स की बिक्री से मिले करोड़ों रुपयों और सारधा चिट फंड स्कैम पर सवाल खड़े किए तो ममता बौखला गईं । ममता बनर्जी ने मोदी को गधा और हरिदास पाल तक कह डाला । बांग्ला में हरिदास पाल मूर्ख को कहते हैं । दो हजार नौ के चुनाव में भी इस तरह की बयानबाजियां हुई थी । बीजेपी के नेता लालकृषण आडवाणी ने उस वक्त के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को शिखंडी तक कह डाला था तब उस बयान के पीछे की सोच अपनी लौहपुरुष की छवि को मजबूत करना था ।
अब सवाल वही कि क्या मर्यादा में रहकर विरोधियों के आरोपों का जवाब नहीं दिया जा सकता है । नई सरकार बनने के बाद भी हमारी सरकार और हमारे देश के लिए ये सवाल मौजूं हैं । अगर हमें अपने लोकतंत्र को मजबूत करना है तो हमें इन सवालों से टकराना ही होगा, इनपर लगाम लगाने के लिए कदम उठाने ही होंगे । इसका कोई विकल्प नहीं है । इस तरह के बयानों को चुनावी गर्मी में दिए बयान कहकर हल्के में नहीं लिया जा सकता है । इनपर अगर लगाम नहीं लगाया गया तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं क्योंकि वाणी की कटुता बाद में शत्रुता में बदल जाती है और जब सियासी दलों में शत्रुता पनप जाए तो वो लोकतंत्र के लिए खतरनाक संदेश है ।

Tuesday, May 13, 2014

सवालों के घेर में चुनाव आयोग

लोकसभा का चुनाव अपने अंतिम चरण में है । सोमवार को अंतिम दौर का मतदान होगा और बाकी बची इकतालीस सीटों पर वोट डाले जाएंगे । छिटपुट हिंसा की वारदातों को छोड़कर आमतौर पर चुनाव शांतिपूर्वक संपन्न होने के आसार हैं । अपनी इस उपलब्धि पर चुनाव आयोग अपनी पीठ थपथपा सकता है, लेकिन यह चुनाव आयोग का प्राथमिक दायित्व ही नहीं उनका काम भी है । हमारे देश का संविधान चुनाव आयोग को निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए पूरी ताकत देता है । चुनाव के ऐलान होने के बाद से लेकर वोटों की गिनती संपन्न होने तक चुनाव आयोग की मर्जी के बगैर देश में पत्ता भी नहीं हिल सकता है । रोजमर्रा के कामों को छोड़कर तमाम प्रशासनिक और नीतिगत फैसले चुनाव आयोग की पूर्व मंजूरी के बिना पूरे नहीं किए जा सकते हैं । इस लिहाज से अगर देखें तो आचार संहिता के लागू होने के बाद से लेकर चुने हुए प्रतिनिधियों के नोटिफिकेशन तक आयोग के पास असीमित अधिकार हैं । लेकिन इस बार के चुनाव के दौरान देश के चुनाव आयोग पर कई तरह के आरोप लगे । भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी तो खुले आम आरोप लगाया कि चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं है । उन्होंने वाराणसी में अपनी रैली के लिए इजाजत नहीं मिलने के बाद ये आरोप जड़े थे । मोदी के आरोपों के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त ने प्रेस कांफ्रेंस कर सफाई दी थी । साथ ही उन्होंने एलान किया था कि चुनाव आयोग किसी से डरता नहीं है । आरोपों और सफाई के इस दौर के बीच एक चुनाव आयुक्त ने कह दिया कि वाराणसी में मोदी की रैली के आवेदन पर फैसला लेने में संवादहीनता से विलंब हुआ । इससे पता चलता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयोग की सोच अलग है । एक और घटना हुई जिससे चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली पर सवाल खड़े हो रहे हैं । नरेन्द्र मोदी को वोटिंग वाले दिन प्रेस कांफ्रेंस के दौरान अपना चुनाव चिन्ह दिखाने पर चुनाव आयोग ने सख्ती दिखाई और फौरन एफआईआर दर्ज करने का आदेश दियया जिसका उसी दिन शाम तक पालन भी हो गया । लेकिन जब अमेठी में चुनाव के दौरान राहुल गांधी ईवीएम मशीन के पास खड़े नजर आए और मीडिया में उनकी फोटो छपी तो चुनाव आयोग जांच करवाने में जुटा है । राहुल गांधी ने हिमाचल के सोलन में अपने भाषण में कहा था कि अगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई तो बाइस हजार लोग मारे जाएंगे । उसका संज्ञान लेने और फिपर राहुल गांधी को नोटिस भेजने में चुनाव आयोग को हफ्ते भर का समय लग गया । तो इस तरह के दो मानदंड से चुनाव आयोग पर सवाल खड़े हो रहे हैं ।
इसके अलावा भी चुनाव आयोग में सब कुछ सामान्य नहीं है । एक कहावत है कि सत्ता और सरकार अपने इकबाल से चलती हैं । कई सारे काम और बाधाएं तो सिर्फ हनक के बूते पर पार की जा सकती हैं । इस चुनाव में यह साफ तौर पर दिखा कि चुनाव आयोग का इकबाल या उसकी हनक कम हुई है । नेताओं के बयानें और उनपर कार्रवाई नहीं होने से यह बात और मजबूत हुई और नेताओं के खिलाफ नरमी बरतने के आरोप लगे । जिसको जो मर्जी में आया कहता रहा और चुनाव आयोग नोटिस की खाना पूरी करता रहा । अमित शाह के बदला वाले बयान और आजम खान के करगिल में मुसलमानों के जीत दिलाने के बयान के बाद दोनों पर सार्वजनिक भाषणों पर पाबंदी लगाई थी । अमित शाह ने खेद प्रकट किया और उनको माफी मिल गई । आजम खान ने जवाब भेजा और उनका आरोप है कि बगैर उसको देखे उनपर पाबंदी कायम रखी गई । आजम खान खुले आम चुनाव आयोग पर संगीन इल्जाम लगाते घूम रहे हैं । चुनाव आयोग ने गिरिराज सिंह के खिलाफ केस दर्ज करने का आदेश दिया लेकिन उन्होंने भी माफी नहीं मांगी और जमानत पर बाहर घूम रहे हैं । कई ऐसे उदाहरण हैं जिससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता तो तो सवाल उठता ही है उनके फैसले भी संदिग्ध हो उठते हैं । राजनीति विश्लेषकों का मानना है कि नब्बे के दशक और उसके बाद चुनाव आयोग जिस तरह से ताकतवर होकर उभरा था, इस चुनाव के दौरान उसकी ताकत में कुछ क्षरण हुआ है । लोकतंत्र में किसी भी संवैधानिक संस्था का यह क्षरण चिता का कारण है । इस बारे में चुनाव आयुक्तों को तो गंभीरता से सोचना ही होगा देश की जनता को भी यह विचार करना होगा कि जब देश की संवैधानिक संस्थाएं अपने दायित्वों के निर्वहन में कमोजर होने लगें तो क्या किया जाना चाहिए । संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा और गरिमा को बचाने का जिम्मा सिर्फ नेताओं पर नहीं छोड़ा जा सकता है । संवैधानिक संस्था के मुखिया को भी इस तरफ विशेष ध्यान देते हुए उस संस्था की परंपरा और इतिहास को ध्यान में रखते हुए काम करना पड़ेगा । यही अपेक्षा मुख्य चुनाव आयुक्त से भी थी, है भी । समनय उनका भी इतिहास लिखेगा ।

आजादी के बाद भारतीय गणतंत्र का यह सोलहवां संसदीय चुनाव है । चुनाव आयोग के इन असीमित अधिकारों के बारे में देश की जनता को तब पता लगा जब वरिष्ठ नौकरशाह टी एन शेषन देश की नियुक्ति देश के चुनाव आयुक्त के तौर पर की गई थी । टीएन शेषन ने देश की जनता को बताया कि कैसे चुनाव करवाया जा सकता है और संविधान ने चुनाव आयोग को कितने अधिकार दिए हैं जिनका अबतक उपयोग ही नहीं किया जा सका था । चुनाव आयुक्त के तौर शेषन ने ना सिर्फ अपराधियों के खिलाफ मोर्चा खोला था बल्कि नेताओं को भी उनकी हद और सीमा बता दी थी । चुनाव की ड्यूटी लगने को सरकारी कर्मचारी बेहद हल्के में लेते थे लेकिन शेषन ने आने के बाद इसपर लगाम लगाया । उन्होंने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा सतहत्तर को कड़ाई से लागू करवाया था । यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि टी एन शेषन ने ही चुनाव लड़नेवालों के लिए चुनाव खर्च का अलग हिसाब रखने के कानून को सख्ती से लागू करवाने के क्रम में चालीस हजार उम्मीदवारों की जांच की और उनमें से सोलह हजार लोगों के खाते में गड़बड़ी पाई । शेषऩ ने इन सोलह हजार प्रत्याशियों के तीन साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी । चुनाव में काले धन के इस्तेमाल पर रोक की दिशा में बढ़ाया गया यह एक अहम कदम था । चुनाव आयोग के अधिकारों के लिए शेषन से सरकारों से भी पंगा लिया और कई मौकों पर कोर्ट केस भी झेला । कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट को भी दखल देना पड़ा । लोकसभा चुनाव के अलावा शेषन ने राज्यसभा चुनाव में भी एक नियम को सख्ती से लागू करवाया था । उन्नीस सौ पचास के एक कानून के आलोक में शेषन ने नियम बना दिया कि राज्यसभा का प्रत्याशी उस राज्य का निवासी होना चाहिए । शेषन के इस कदम का सियासी दलों ने जमकर विरोध किया था लेकिन उस वक्त शेषन के कडक रवैये ने नेताओं को ढुकने पर मजबूर कर दिया था । टीएन शेषन के कड़े फैसलों ने सरकार को चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने पर मजबूर कर दिया था । शेषन ने अपने कार्यकाल में इतनी बड़ी लकीर खींच दी थी कि उनके बाद के चुनाव आयुक्तों ने भी उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए चुनाव करवाए । बाद में जे एम लिंगदोह शेषन की परंपरा के चुनाव आयुक्त साबित हुए । जुलाई दो हजार दो में कार्यकाल खत्म होने के नौ महीने पहले जब गुजरात विधानसभा भंग कर दी गई थी और चुनाव करवाने की मांग उठी तो लिंगदोह ने साफ मना कर दिया था । लिंगदोह का मानना था कि सांप्रदायिक हिंसा के जख्म इतने हरे हैं कि निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं है । उस वक्त नरेन्द्र मोदी ने चुनाव आयोग पर जमकर हमले किए । केंद्र में बीजेपी की सरकार थी लेकिन लिंगदोह टस से मस नहीं हुए । याद हो कि उस वक्त नरेन्द्र मोदी ने लिंगदोह को उनके पूरे नाम, जेम्स माइकल लिंगदोह, सं संबोधित करना शुरू कर उनपर दवाब बनाने की कोशि्श की थी । शेषन और लिंगदोह की परंपरा को एस वाई कुरैशी ने आगे बढाया और बगैर किसी शोर शराबे के अपने विनम्र पर सख्त अंदाज में अपने कार्.यकाल के सारे चुनाव करवाए । कुरैशी साहब ने मंत्री से लेकर संतरी तक में कोई भेदभाव नहीं किया । अब शेषन से लेकर कुरैशी तक की परंपरा में इस बार विचलन नजर आ रहा है । यह मजबूत परंपरा अगर दरकती है तो लोकतंत्र के लिए संदेश सही नहीं है । 

Sunday, May 11, 2014

रचनात्मकता का राजनीतिक विभाजन

कहते हैं कि बगैर काशी जाए मोक्ष नहीं मिलता है । लेकिन इन दिनों राजनीतिक मोक्ष के लिए तमाम दलों के राजनेता काशी में डटे हुए हैं । काशी यानि बनारस में राजनीतिक मोक्ष की तलाश में पहुंचे नेताओं ने देश की रचनात्मकता को विभाजित कर दिया है । काशी की सियासी जंग में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के कूदने से हिंदी साहित्य के एक वर्ग विषेष के लेखकों को एतराज है । उनका आरोप है कि मोदी के बनारस आने से बनारस का मिजाज बदल जाएगा । देश के कई नामचीन लेखकों ने मोदी को हराने के लिए बनारस में कबीर के नाम तले एक मोर्चा बनाया और भाषण इत्यादि भी हुए। इस मोर्चे में हिंदी के वरिष्ठ उपन्यासकार काशीनाथ सिंह, पूर्व पुलिस अधिकारी और लेखक विभूतिनारायण राय के अलावा ज्यां द्रेज, सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड आदि शामिल थे । पहले यह खबर आई थी कि काशीनाथ सिंह ने कहा है कि मोदी के बनारस से जीतने के बाद वहां के विकास में तेजी आएगी । बीबीसी में काशीनाथ सिंह के इस साक्षात्कार के बाद साहित् जगत में भूचाल आ गया । सोशल मीडिया पर उनकी लानत मलामत होने लगी । बाद में काशीनाथ सिंह ने सफाई दी कि उनके बयान को तोड़ मरोड़कर पेश किया गया है । उसके बाद काशीनाथ सिंह लगातार सक्रिय हैं ताकि पूर्व में उनके हवाले से छपी बातों का उनके क्रियाकलापों से प्रतिकार हो सके । हलांकि उनके विरोधियों का आरोप है कि काशीनाथ सिंह मोदी की तारीफ कर कुछ ऐसा हासिल करना चाहते थे, पुरस्कार या सम्मान, जिससे उन्हें बड़ा कद हासिल हो सके । काशीनाथ सिंह पर इस तरह के आरोप लगानेवालों को काशीनाथ सिंह की प्रतिबद्धता के बारे में पता नहीं है । उधकर साहित्य में एक विशेष विचारधारा के विरोधी रहे लेखकों ने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में बयान जारी कर उनका बनारस से उम्मीदवार होने का समर्थन जताया है ।

ऐसा नहीं है कि यह विभाजन सिर्फ साहित्य में है । मोदी के मुद्दे पर बॉलीवुड में भी दो खेमा हो गया है । महेश भट्ट और जावेद अक्तर सरीखे कलाकार मोदी के विरोध में हैं तो निर्देशक मधुर भंडारकर और गायिका ऋचा शर्मा उनके समर्थन में हैं । हाल ही में दिल्ली में एक कार्यक्रम में प्रख्यात नृत्यांगना सोनल मान सिंह की अगुवाई में कलाकारों और गायकों ने मोदी को समर्थन का एलान किया था । बनारस के प्रसिद्ध गायक छन्नू महाराज तो मोदी के नामांकन के दौरान उनके प्रस्तावक के तौर पर वहां मौजूद ही रहे हैं । स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लेखकों कलाकारों और गायकों का स्वतंत्र मत रखना और उसे जाहिर करना बेहतर स्थिति है । दिक्कत तब होती है जब कुछ खास लेखकों की तरफ से ये अभियान शुरू होता है जिसमें दूसरे को अस्पृश्य साबित करने की तिकड़में शुरू हो जाती है । किसी भी लेखक का जितना मोदी का विरोध करने का हक है, दूसरे लेखक को उतना ही हक मोदी के समर्थन का है । मैं कई बार यह कह चुका हूमं कि विचार को धारा बनाना ठीक है लेकिन उसी धारा में सबके बहने का दुराग्रह विचारधारा के लिए उचित नहीं है और कालांतर में उसके लिए ही घातक सिद्ध होती है । यह लोकतंत्र की खूबसूरती और मैच्योरिटी का प्रतीक है कि किसी भङी व्यक्ति या विचारधारा पर हर तरह के लोग खुलकर अपनी बात रखते हैं, विचारों को अभिव्यक्त करते हैं । विचार की विशेष धारा में ही बहने का दुराग्रह भी तो फासीवाद ही है । हमारे देश की जनता लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर इतनी सजग है कि वो किसी भी प्रकार के फासीवाद का ना केवल पहचान लेती है बल्कि उसकी आहट को भी भांप लेती है । लिहाजा किसी भी प्रकार की फासीवादी चालाकी पनप नहीं पाती है ।  

Sunday, May 4, 2014

प्रियंका- व्यक्तित्व का तिलिस्म

तकरीबन एक पखवाड़े से रायबरेली और अमेठी में अपनी मां और भाई के चुनाव प्रचार में जुटी प्रियंका गांधी हर दिन सुर्खियों में रह रही हैं । प्रियंका गांधी के चुनाव प्रचार में उतरने से लगभग पिछले दस-पंद्रह दिनों से चुनाव प्रचार बेहद दिलचस्प हो गया है । प्रियंका के रायबरेली और अमेठी क्षेत्र में पहुंचने के पहले भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के शानदार भाषण राजनीति का सारा आकाश घेरे हुए थे । नरेन्द्र मोदी के भाषणों में ना केवल विविधता होती थी बल्कि उनके बोलने का आक्रामक अंदाज भी प्रशंसकों को पसंद आता था । सोनिया गांधी की अंग्रेजी स्टाइल में बोली जा रही हिंदी और राहुल के भाषणों में बार बार सूचना के अधिकार से लेकर मनरेगा का जिक्र जनता को ऊबाने लगा था । राहुल गांधी के भाषणों में नयापन नहीं होने से वो जुबानी जंग में पिछड़ते हुए नजर आने लगे थे ।  इस बीच जब प्रियंका गांधी रायबरेली के चुनावी मैदान में प्रचार करने के लिए उतरीं तो ना सिर्फ नरेन्द्र मोदी को जवाब मिलने लगा बल्कि प्रियंका गांधी के बोले हुए शब्द लगातार सुर्खियां भी बनने लगे । हर अखबार और न्यूज चैनल पर प्रियंका के बयान प्रमुखता से छपने और दिखाए जाने लगे । प्रियंका ने अपने खास अंदाज में ना सिर्फ नरेन्द्र मोदी पर हमले किए बल्कि उसने भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा पर भी सवाल खड़े किए । प्रियंका गांधी ने अपने भाषणों में शुद्ध हिंदी और उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल कर मीडिया को अच्छी कॉपी भी दी । जैसे एक भाषण में प्रियंका ने कहा कहा कि महिला सशक्तीकरण की बात करते हो लेकिन हमारे फोन छुप छुप कर सुनते हो । यह बात वो बेहद सहजता से कह गई लेकिन इस बयान ने भाजपा को असहज कर दिया । एक और बयान पर गौर करें- देश छप्पन इंच के सीने से नहीं चलता , इसके लिए दरिया दिल होना चाहिए । यह बयान नरेन्द्र मोदी पर सीधा हमला था जो अपने भाषणों में छप्पन इंच सीने की बात करते रहे हैं । इन दो बयानों को देखने के बाद साफ लगता है कि प्रियंका को इस बात की समझ है कि मीडिया में कैसे बना रहा जाता है । प्रियंका इतने पर ही नहीं रुकी वो नरेन्द्र मोदी को तुर्की बा तुर्की जवाब देने लगी । नरेन्द्र मोदी ने आरएसवीपी यानि- राहुल, सोनिया, वाड्रा मॉडल को उछाला तो प्रियंका ने कहा कि मोदी जनता को मूर्ख समझते हैं और उन्हें एबीसीडी पढ़ाने की कोशिश करते हैं ।  प्रियंका के इन बयानों ने चुनाव के दौरान मीडिया में लीड ले रही भारतीय जनता पार्टी को बैकफुट पर ला दिया । प्रियंका के बयानों के सुर्खियां बनने के बीच के बीजेपी ने दामादश्री नाम की एक 8 मिनट की फिल्म रिलीज कर उसको घेरने की कोशिश की । इस छोटी सी फिल्म में यह दिखाया गया कि किस तरह से हरियाणा और राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा को फायदा पहुंचाया । पूरी फिल्म इस बात के इर्द-गिर्द घूमती है कि कैसे रॉबर्ट वाड्रा ने एक लाख रुपए की पूंजी से शुरुआत कर चंद वर्षों में तीन सौ करोड़ का कारोबार किया । इस फिल्म के बहाने भारतीय जनता पार्टी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी को घेरने की कोशिश की लेकिन परोक्ष रूप से यह प्रियंका के असर को कम करने की कोशिश नजर आई । लेकिन इस फिल्म का नाम दामादश्री होना ही सबकुछ कह गया है । आठ मिनट की इस फिल्म में प्रियंका गांधी का जिक्र ना होना चौंका गया । यह फिल्म उस दौर में रिलीज की गई थी जब प्रियंका लागातार नरेन्द्र मोदी पर हमले बोल रही थी बल्कि इस फिल्म की खबर मिलने पर प्रियंका ने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को बौखलाया चूहा तक करार दे दिया । उन्होंने तो कहा कि वो तो इस तरह के इल्जामों का इंतजार कर रही थी । लेकिन फिर भी बीजेपी के नेता प्रियंका को लेकर खामोश रहे । प्रियंका को लेकर बीजेपी का साफ्ट स्टैंड हैरान करनेवाला है । दरअसल लोकसभा चुनाव के बीच बीजेपी प्रियंका गांधी पर सीधा हमला कर एक और फ्रंट नहीं खोलना चाहती है । भारतीय जनता पार्टी के नेता प्रियंका गांधी पर सीधे हमले से बचते रहे हैं यहां तक कि नरेन्द्र मोदी से भी जब प्रियंका गांधी के कटाक्षों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने भी यही कहा कि वो तो बेटी है और एक बेटी होने के नाते उसका दायित्व है कि वो अपनी मां और भाई की बेहतरी के लिए सारे प्रयास करे । कोई भी नेता रॉबर्ट वाड्रा को लेकर प्रियंका गांधी से सवाल नहीं पूछ रहा है, बीजेपी का हर छोटा बड़ा नेता रॉबर्ट वाड्रा के जमीन सौदों पर राहुल और सोनिया गांधी से जवाब चाहता है । बीजेपी के नेताओं ने प्रियंका को लेकर बस एक ही रणनीति बनाई है कि कोई उनको प्रियंका गांधी नहीं कह कर संबोधित नहीं कर रहा है । भाजपा का हर नेता प्रियंका को मिसेज वाड्रा या प्रियंका वाड्रा कहकर संबोधित करता है । इसके पीछे की सोच यह हो सकती है कि जनमानस को यह संदेश दिया जाए कि प्रियंका का अपनी शादी के बाद गांधी परिवार की विरासत से कोई लेना देना नहीं है और वह अब वाड्रा परिवार की बहू हैं । गांधी परिवार की बागडो़र तो राहुल गांधी के हाथ में । इसी सोच के तहत प्रियंका गांधी पर नरम रहते हुए भाजपा राहुल गांधी पर हमलावर रही है ।

अब अगर हम प्रियंका गांधी के पूरे व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करें तो इस बार के चुनाव प्रचार के दौरान की उनकी मुखरता को सबसे पहले परखना होगा । पिछले दो तीन चुनाव से प्रियंका गांधी अपनी मां सोनिया के लोकसभा क्षेत्र रायबरेली और भाई के लोकसभा क्षेत्र अमेठी में चुनाव प्रचार करती रही हैं । हर बार चुनाव प्रचार के दौरान वो क्षेत्रीय मुद्दों और रायबरेली-अमेठी की सड़कों और बिजली पानी और विकास पर अपने आपको केंद्रित रखती रही हैं । मां और भाई के चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कोई बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा नहीं उठाया था ।  उनके एक बयान से अरुण नेहरू की रायबरेली में जमानत जब्त हो गई थी । प्रियंका ने बस इतना कहा था कि परिवार को धोखा देनेवालों को क्षेत्र की जनता कैसे चुनेगी । इस बार प्रियंका गांधी ने अपनी पुरानी रणनीति को बदलते हुए इन दो लोकसभा क्षेत्रों में चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व और विचारधारा पर हमला बोला वह उनके राजनीति में विस्तारित भूमिका के संकेत तो दे ही गया है । अब यह भूमिका कैसी होगी यह भविष्य के गर्त में छिपा है लेकिन इतना तय हो गया कि उनकी भूमिका होगी । अबतक राष्ट्रीय राजनीति में उनकी कोई ज्ञात भूमिका नहीं रही है । गाहे बगाहे कांग्रेस का कोई नेता उनको पार्टी में लाने की बात करता रहता है । लेकिन इस चुनाव के दौरान प्रियंका गांधी के व्यक्तित्व की जो पूरी की पूरी पैकेजिंग की गई है उसको रेखांकित करने की आवश्यकता है । प्रियंका के करीबियों और उनके लिए रणनीति बनानेवालों को यह पता है कि प्रियंका का व्यक्तित्व करिश्माई है और लोगों को उनमें इंदिरा गांधी का अक्स नजर आता है । इसको ही ध्यान में रखते हुए प्रियंका की छवि निर्मित की गई । खांटी सूती साड़ी और इंदिरा गांधी की ही तरह भाषण देने के बाद लोगों के बीच में घुस जाना उनसे बात करना । विरोधी दल के कार्यकर्ताओं से रुक कर बतियाना आदि आदि । जनता पार्टी के शासन काल के दौरान इंदिरा गांधी जब हाथी पर चढ़कर बेलछी पहुंची थी तो उन्होंने वहां दलितों के साथ बैठकर उनका दुख जाना था । कुछ दिनों पहले प्रियंका गांधी की एक तस्वीर आई थी जिसमें वो एक गरीब महिला के साथ खेत में बैठकर खाना खा रही हैं । अब इस तस्वीर को कमोबेश सारे अखबारों ने मुखपृष्ठ पर प्रमुखता से छापा । संदेश साफ था । इसके अलावा प्रियंका अपने भाषणों में जिस तरह से हिंदी-उर्दू के शब्दों का उपयोग करती हैं वह भी उनको अपने भाई के व्यक्तित्व से अलग करता है । एक ही वाक्य में वो कहती है कि जितना ज़लील करोगे उतनी दृढता से मुकाबला करूंगी । प्रियंका के स्वत:स्फूर्त भाषणों में एक विट होता है जैसे उन्होंने उमा भारती के बारे में पूछे गए सलाव को सिर्फ यह कहकर टाल दिया कि वो बहुत बोरिंग हैं । कुल मिलाकर अगर हम प्रियंका गांधी की सोच. उनके अंदाज और उनके काम करने के तरीके को देखें तो कह सकते हैं कि इस साल के लोकसभा चुनाव ने कांग्रेस को एक नया नेता दे दिया है जो जनता की नब्ज जानती है और सुर्खियों में बने रहने की कला भी उसको आती है । 

अंग्रेजी लेखन पर मेहरबान बॉलीवुड

हाल के दिनों में बॉलीवुड में अंग्रेजी लेखकों के उपन्यासों या उनकी लिखी कहानियों पर फिल्में बनाने के काम में तेजी आई है । निर्माता-निर्देशक अंग्रेजी में लिख रहे युवा लेखकों की रचनाओं या उनकी स्क्रिप्ट को तवज्जो दे रहे हैं । हाल ही में चेतन भगत के उपन्यास पर बनी फिल्म टू स्टेट्स को दर्शकों ने खासा पसंद किया है । चेतन भगत काफी समय से लिख रहे हैं और वो लेखन की दुनिया में एक जाना माना नाम हैं । उनके उपन्यासों पर पहले भी फिल्में बन चुकी हैं लेकिन आमिर खान अभिनीत फिल्म थ्री इडियट्स के बाद चेतन भगत के उपन्यास पर यह फिल्म बनी है । चेतन तो काफी लंबे समय से लेखन की दुनिया में हैं और वो बाजार के स्वभाव को बेहतर तरीके से समझते हैं लिहाजा उनकी किताबें भी हिट होती हैं और उनपर फिल्में आदि भी बन जाती हैं । चेतन भगत के अलावा भी इन दिनों अंग्रेजी में लिखनेवाले कई लेखकों को बॉलीवुड खासा पसंद कर रहा है । युवा लेखिका और ऑलमोस्ट सिंगल जैसा बेस्टसेलर उपन्यास लिखकर प्रसिद्धि पा चुकी अद्वैत काला ने सुपर हिट फिल्म कहानी की कहानी लिखी थी । इसके पहले अद्वैत काला ने अनजाना-अनजानी फिल्म की कहानी भी लिखी थी । दोनों फिल्मों से अद्वैत काला को काफी नाम और यश मिला । चेतन भगत और अद्वैत काला के अलावा भी अंग्रेजी में लिखने वाले कई लेखक हैं जिनपर बॉलीवुड मेहरबान है । यूके राइटर्स फोरम अवॉर्ड जीतेवाले पहले भारतीय युवा लेखक निखिल चांदवाणी भी इन दिनों हैकिंग पर बन रही एक फिल्म की कहानी लिखने में व्यस्त हैं । उनका मानना है कि हाल के दिनों में अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय युवा लेखकों के सामने अपने सपने को पूरा करने के कई आयाम खुले हैं । अंग्रेजी लेखन प्रकाशन की दुनिया के जानकारों का मानना है कि किताबों के प्रकाशन में आसानी होने से नई नई प्रतिभाएं सामने आ रही हैं ।

एक जमाना था जब बासु चटर्जी जैसे निर्देशक ने राजेन्द्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर फिल्म बनाई थी । उसके बाद भी उनकी रचनाएं फिल्मों का आधार बनी । कमलेश्वर ने तो लंबे समय तक हिंदी फिल्मों के लिए कहानियां लिखी । हिंदी के लोकप्रिय लेखक गुलशन नंदा के उपन्यासों पर तो दर्जनों फिल्में बनीं जिसमें झील के उस पार, पाले खां और शर्मीली जैसी हिट फिल्में शुमार हैं । कालांतर में क्या हुआ कि हिंदी के लेखकों से भारतीय फिल्मी दुनिया की दूरी बढ़ती चली गई । अंग्रेजी के लेखकों की रचनाओं पर बॉलीवुड मेहरबान है और उसके आधार पर हिंदी में हिट फिल्में भी बन रही हैं । अब यहां सवाल यही खड़ा होता है कि अंग्रेजी में लिखी गई रचनाओं के बरख्श हिंदी के लेखकों की रचनाएं बॉलीवुड के कर्ताधर्ताओं की पसंद क्यों नहीं बना पा रही हैं । क्यों हिंदी के लेखक वॉलीवुड तक अपनी पहुंच नहीं बना पा रहे हैं । यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि फिछले तीन दशकों में बॉलीवुड की केमिस्ट्री पूरी तरह से बदल गई है अब यह दुनिया सेठाश्रयी नहीं रही । अब फिल्मों में पैसा लगानेवाले से लेकर निर्देशक और अभिनेता, अभिनेत्री सभी अंग्रेजीदां हो गए । ये उस तरह के लोग हैं जिनका हिंदी से दूर दूर तक का वास्ता नहीं है । वो हिंदी से पैसा तो कमाते हैं लेकिन सारा काम अंग्रेजी में करते हैं । यही मूल कारण है कि हिंदी की एक से एक बेहतरीन कृतियां हाशिए पर रह जाती हैं और अंग्रेजी की मामूली रचनाओं पर भी फिल्में बन रही हैं ।