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Friday, April 26, 2013

ट्विटर का अराजक गणतंत्र

पिछले एक दशक में देश में तकनीक का फैलाव काफी तेजी से हुआ है । हर हाथ को काम मिले ना मिले हर हाथ को मोबाइल फोन जरूर मिल गया है । घर में काम करनेवाली मेड से लेकर रिक्शा चलानेवाले तक अब मोबाइल पर उपलब्ध हैं । किसी भी देश के लिए यह एक बेहतर स्थिति है जहां समाज के सबसे निचले पायदान पर रहनेवालों को भी तकनीक का फायदा मिल रहा है । तकनीक के इस विस्तार से उनकी हालात में भी सुधार हुआ । कुछ दिनों पहले एक कार्यक्रम के दौरान हिंदी की वरिष्ठ लेखिका और महिला अधिकारों को लेकर अपने लेखन में बेहद सजग मैत्रेयी पुष्पा ने तकनीक की ताकत पर प्रकाश डाला था । मैत्रेयी ने कहा था कि आज गांव घर की बहुओं की ज्यादातर समस्याएं मोबाइल फोन ने हल कर दी हैं । बहुएं घूंघट के नीचे से फोन पर अपनी समस्याओं के बारे में अपने मां बाप को या फिर शुभचिंतकों को अपनी व्यथा बता सकती हैं । मैत्रेयी ने इसे स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में लगभग क्रांति करार दिया । मैत्रेयी पुष्पा की बातों में दम है । हो सकता है कि कुछ लोगों को ये समस्या का सरलीकरण लगे लेकिन महिलाओं की हालात को मोबाइल फोन ने बेहतर बनाया है साथ ही उनके हाथ में ताकत भी मिली है । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है ।
मोबाइल फोन की क्रांति के बाद जो विकास हुआ वह था इंटरनेट का फैलाव । तकनीक के विकास ने आज लोगों के हाथ में इंटरनेट का एक ऐसा अस्त्र पकड़ा दिया जो उनको अपने आपको अभिव्यक्त करने के लिए एक बड़ा प्लेटफॉर्म प्रदान करता है, बगैर किसी रोक टोक के । स्मार्ट फोन के बाजार में आने और उसकी कीमत मध्यवर्ग के दायरे में आने से यह और फैला । थ्री जी सेवा ने इसे और फैलाया । हाथ में इंटरनेट के इस औजार ने सोशल मीडिया पर लोगों की सक्रियता बेहद बढ़ा दी है । पहले तो ऑरकुट हुआ करता था जो नेट यूजर्स के बीच खासा लोकप्रिय था । बाद में सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक ने जोर पकड़ा और हर वर्ग के लोगों के बीच फेसबुक पर होने की होड़ लग गई । सोशल नेटवर्किंग साइट सोशल स्टेटस साइट में तब्दील हो गया । महानगरों के अलावा छोटे शहरों में फेसबुक पर होना अनिवार्य माना जाने लगा । जो लोग यह कहकर फेसबुक की खिल्ली उड़ाते थे कि फोन पर बात नहीं कर सकते वो वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर बात करेंगे वो लोग भी अब फेसबुक पर घंटों गुजारते हैं । दरअसल किसी भी नई तकनीक को पहले इस तरह की विरोध का सामना करना ही होता है और बाद में लोगों की आदतों में शुमार हो जाता है । जब अस्सी के दशक में कंप्यूटर आया था तो पहले उसका जमकर विरोध हुआ था । वामपंथियों और समाजवादियों ने इस बात को लेकर खासा बवाल मचाया था कि कंप्यूटर से बेरोजगारी बढ़ेगी । लोगों के हाथों से काम छिन जाएगा आदि आदि ।
हम बात कर रहे थे सोशल मीडिया साइट्स की । सोशल मीडिया साइट् फेसबुक ने लोगों को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की आजादी दी । वहां किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं थी लिहाजा वह हुआ जिसका अंदाजा फेसबुक की कल्पना करनेवालों को नहीं रहा होगा । अभिव्यक्ति की जो आजादी मिली उसका कई लोगों ने, जिसकी संख्या भारत में बहुत ज्यादा थी, बेजा फायदा उठाया और राजनीतिक से लेकर व्यक्तिगत तक कई तरह की आपत्तिजनक बातें और फोटोग्राफ्स फेसबुक पर पोस्ट होने लगे । फेसबुक पर ऐसी भाषा भी लिखी जाने लगी जिसको पढ़ा नहीं जा सकता था । देश की राजनीतिक शख्सियतों के बारे में भद्दी और अनर्गल पोस्ट शुकु हो गए । फेक आईडी बनाकर लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़कानें की कोशिशें भी खूब हुई । दोस्ती और सामाजिक मेल मिलाप के लिए बनाई गई साइट का इस्तेमाल अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने और अपमानित करने के लिए किया जाने लगा । अराजकता इस हद तक बढ़ गई कि सरकार को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा । सरकार के हस्तक्षेप के इरादे का पता चलते ही अभिव्यक्ति के आजादी के पैरोकार खड़े हो गए नतीजे में सरकार को अपने पैर वापस खींचने पड़े । कुछ कानून बने हैं जो इस तरह की बातों को रोकने में सक्षम हैं लेकिन जिसके बारे में कुछ कहा जा रहा हो वो अगर शिकायत ही नहीं करेगा तो कार्रवाई लगभग मुमकिन नहीं है । फेसबुक से निकलकर यह वायरस अब ट्विटर पर पहुंच गया है ।
ट्विटर पर अब राजनीकित विरोधी एक दूसरे को निबटाने में जुट गए हैं । इसका बेहतरीन नमूना दिखा था पिछले महीने जब राहुल गांधी एक उद्योग संगठन के कार्यक्रम में बोल रहे थे तो ट्विटर पर पप्पू नाम से उनके विरोधियों ने हैस टैग लगाकर लिखना शुरू कर दिया । इसका नतीजा यह हुआ कि ट्विटर पर पप्पू ट्रेंड करने लग गया । कांग्रेस से जुड़े लोगों ने आरोप लगाया कि यह भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों की करतूत है । चंद दिनों बाद ही गुजरात के मुख्यमंत्री भी भाषण देने दिल्ली पहुंचे । तब अचानक से ट्विटर पर फेंकू ट्रेंड करने लगा । इस बार आरोप लगाने की बारी भारतीय जनता पार्टी की थी । उन्होंने कांग्रेस पर आरोप जड़ा कि फेंकू के पीछे उनकी पार्टी के लोग हैं । लेकिन तबतक तो सोशल नेटवर्किंग साइट पर राहुल गांधी पप्पू और नरेन्द्र मोदी फेंकू हो चुके थे । यह लड़ाई इतने पर ही नहीं रुकी । अभिव्यक्ति की आजादी अराजकता में बदल गई । दोनों पार्टियों से जुड़े उत्साही कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने ट्विटर पर सोनिया गांधी, राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी और उनके संगठनों के बारे में आपत्तिजनक बातें लिखनी शुरू कर दी । उत्साह इतना बढ़ता चला गया कि बात गाली गलौच तक पहुंच गई । कांग्रेस पार्टी का आरोप है कि बीजेपी ने सोशल मीडिया पर काम करने के लिए एक पूरा सेल बना रखा है जो इस तरह की आपत्तिजनक बातें लिखता है । लेकिन बीजेपी इस बात से इंकार करती रही है । इस बीच इस तरह की खबरें भी आई कि कांग्रेस पार्टी ने भी सोशल मीडिया को लेकर एक भारी भरकर ग्रुप बनाया । यहां तक तो ठीक है लेकिन खुद को कांग्रेस का समर्थक होने का दावा करनेवाले एक इतिहासकार इन दिनों ट्विटर पर बेहद गंदी और बेहूदी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं । महिलाओं के लिए बेहद आपत्तिजनक बातें लिख रहे हैं जिसकी सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है । इतिहासकार महोदय का तर्क है कि फासीवाद से निबटने के लिए गाली गलौच की आक्रामकता जरूरी है । अपने इस तर्क के समर्थन में वो मोजार्ट का नाम भी लेते हैं । उधर संघ और मोदी समर्थक भी कम नहीं है वो भी उसी अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करते हैं । इस सबके बीच कुछ संवेदनशील लोग हैं जो ट्विटर पर इस तरह की गाली गलौच के बीच अपनी संवेदना बचाए हुए हैं ।
इस बीच एक सर्वे आया कि सोशल मीडिया इस बार दो सौ से ज्यादा लोकसभा क्षेत्रों पर प्रभाव डालेगी । इस खबर ने भी राजनीतिक दलों के कान खड़े कर दिए । आज हालात यह है कि ट्विटर पर आने और ट्विटरबाज बनने की होड़ लगी है चाहे वो नेता हो या अभिनेता । लेकिन साथ ही अब इस बात का भी वक्त आ गया है कि इन सोशल मीडिया बेवसाइट्स को लेकर कोई नीति बने जहां अराजकता की कोई जगह ना हो । अभिव्यक्ति की आजादी बहुत अच्छी बात है, सबको होनी चाहिए लेकिन जब यह आजादी अराजकता में बदलती है तो उसपर रोक भी लगाई जानी चाहिए । आज फेसबुक और ट्विटर एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं कि उनके लिए किसी तरह की गाइडलाइंस की सख्त जरूरत महसूस होने लगी है । इन साइट्स के लिए गाइडलाइंस जितनी जल्दी बन जाएं उतना अच्छा है वर्ना वर्चुअल की दुनिया की जंग एक दिन हकीकत बन जाएगी और अभिव्यक्ति की यह आजादी अराजकता के गणतंत्र में तब्दील हो जाएगा और तब हम फिर सरकार के हाथों में पाबंदी लगाने का हक दे देंगे जो कि लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं होगा ।

Sunday, April 14, 2013

सेक्स और साहित्य

पिछले साल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में लेखिका अलका पांडे से उनकी किताबों पर बात हो रही थी । अलका पांडे ने अंग्रेजी में न्यूज एज कामसूत्र फॉर वूमन नाम से एक किताब लिखी थी । उन्होंने जो अनुभव बताए वो बेहद चौंकाने वाले थे । अलका जी बताया कि उनकी किताब के बाद उन्हें इरोटिक लेखक मान लिया गया । पार्टियों में उनसे अजीबोगरीब सवाल पूछे जाने लगे । उनको सेक्स क्वीन तक कहा गया । उसी तरह से मैत्रेयी पुष्पा पर भी अपने उपन्यासों में सेक्स प्रसंगों को लिखने के लिए लानत मसलामत की गई थी । उसके पहले मृदुला गर्ग के उपन्यास चितकोबरा को लेकर भी शुद्धतावादियों और नैतिकतावादियों ने कई सवाल खड़े किए थे । ऐसा नहीं है कि इस तरह के सवाल सिर्फ हिंदी लेखन में ही उठते रहे हैं । कुछ महीनों पहले बयालिस साल की पूर्व टेलीविजन स्क्रिप्ट राइटर ई एल जेम्स की पहली किताब फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे जब प्रकाशित हुई तो उसको लेकर इंग्लैंड और अमेरिका में भी जमकर बवाल मचा । कुछ आलोचकों ने तो इसे मम्मी पॉर्न का खिताब दे डाला है तो कुछ इसको वुमन इरोटिका लेखन के क्षेत्र में क्रांति की तरह देख रहे हैं। अमेरिका में इस बात को लेकर बहस छिड़ी हुई है कि इस किताब को पुस्तकालयों के लिए खरीदा जाए या नहीं। लंदन में कई पुरातनपंथी आलोचक इस किताब को पोर्नोग्राफी बताकर इसे खारिज करने पर उतारू हैं लेकिन जिस तरह से इस किताब की बिक्री हो रही है उसने तमाम आलोचनाओं को ध्वस्त कर दिया है। अमेरिका की एक टेलीविजन शो में तो एक एंकर ने इसे रैप फैंटेसी करार दे दिया। उधर कई फेमिनिस्ट लेखक-लेखिका भी इस उपन्यास के पक्ष में उठ खड़े हुए हैं और उन्हें लगता है कि इस उपन्यास ने महिलाओं के सेक्सुअल डिजायर पर अबतक पड़े पर्द को हटा दिया है, लिहाजा उस पर्दे के पीछे लेखन करनेवालों को तकलीफ हो रही है। ई एल जेम्स के पक्ष में खड़ी फेमिनिस्ट लेखिकाओं की दलील है कि इस किताब के बाद से महिलाओं को और खुलकर अपनी सेक्सुअल डिजायर के बारे में बात करने का साहस मिलेगा। सेक्सुअल डिजायर पर लिखना या फिर महिलाओं के इनर डिजायर पर लिखना हमेशा से दुधारी तलवार पर चलने जैसा होता है। जेम्स की इस किताब के साथ भी यही हो रहा है। डिक्शनरी में पोर्नोग्राफी का जो मतलब है वह यह है कि जिस लेखन को पढ़ने के बाद किसी की सेक्साकांक्षा में बढ़ोतरी ( मैटेरियल प्रोड्यूस्ड टू स्टीमुलेट सेक्सुअल एक्साइटमेंट) होती है। लेकिन लेखिका इस बात को लेकर लेखिका को सख्त आपत्ति है। उनका कहना है कि यह उपन्यास एक प्रेम कहानी है। उनके मुताबिक सेक्स प्रेम का अनिवार्य अंग है और जो भी प्रेम करते हैं वो सेक्स भी करते हैं। लेकिन यूरोप और अमेरिका में अबतक किताब और ई बुक के रूप में पचास लाख से ज्यदा प्रतियों के बिक जाने के बाद तमाम आलोचनाएं बेमानी हो गई हैं। यूनिवर्सल एंड फोकस ने उनसे पचास लाख डॉलर में उपन्यास पर फिल्म बनाने का अधिकार खरीदा है।
यह उपन्यास नायिका अनाशटेशिया और उसके प्रेमी ग्रे के इर्द गिर्द घूमता है। दोनों के बीच जिस तरह से प्यार की पींगे बढ़ रही होती है उससे यह तय हो जाता है कि ग्रे ही अन्ना का कौमार्य भंग करेगा। कौमार्य भंग करने के इस पल को दोनों विशेष बनाना चाहते हैं। वह अना के हाथ कुर्सी से हत्थे से बांधकर उसके साथ सेक्स करना चाहता है। जब अना को उसके BDSM (Bondage-discipline, dominance-submission, sadism-masochism) यानि कष्ट देकर सेक्स का आनंद लेने की प्रवृत्ति का पता चलता है तो पहले तो वो कुछ देर के लिए हिचकती है लेकिन फिर उसकी बात मान लेती है।
अमेरिका और यूरोप में इस बात को लेकर बहस चल रही है कि क्या ये सामान्य है। इस बात को लेकर भी बहस शुरू हो गई है कि क्या फीमेल इरोटिका या महिलाओं के इनर डिजायर पर इतनी खुलकर बात हो सकती है। आलोचक इस किताब को रूपर्ट कैंपबेल के स्नीरिंग लिप एंड हॉर्समैन थाईज, डायरीज ऑफ अनीस नैन, एरिका जांगस के फीयर ऑफ फ्लाइंग और नैंसी फ्राइड के उपन्यासों से आगे की कृति मान रहे हैं।
अभी हाल में ही सत्रह किताबें लिखकर मशहूर हो चुकी लेखिका और भारतीय अंग्रेजी महिला लेखन की स्टार राइटर शोभा डे की नई किताब ‘’सेठजी’’ छपकर आई है। शोभा डे के लेखन में सेक्स एक अनिवार्य तत्व की तरह आता है । तकरीबन तीन सौ पन्नों के इस उपन्यास में भी शोभा डे ने सेक्स के भरपूर प्रसंग डाले हैं। सेठजी की महिला पात्र अमृता को जब उसका पुराना प्रेमी उत्तेजना के अंतरंग क्षणों में छोड़ता है तब जिस तरह से वो अपने आप को बाथरूम में रिलैक्स करती है, इसका वर्णन बेहद घटिया है । इस तरह के कई प्रसंग और अंतरंग क्षणों के वर्णन इस किताब में है। शोभा डे के इस तरह के लेखन के मद्देनजर ही ब्रिटेन के प्रख्यात साहित्यकार रेजीनॉल्ड मैसी ने अभी हाल ही में अपने भारत दौरे के दौरान कहा था कि- लोगों के भाग्य उदय होने के अलग-अलग कारण होते हैं। मशहूर लेखिका शोभा डे भारत में एक बड़ा नाम है लेकिन उनके मशहूर होने की प्रमुख वजह उनके द्वारा रचा जाने वाला अश्लील साहित्य है। वे एक खूबसूरत महिला हैं, स्टाइलिश हैं, लेकिन मैं उन्हें गंभीर लेखक नहीं मानता।‘’ इस तरह के विवाद और विमर्श अंग्रेजी में खूब होते हैं लेकिन भारत में जहां कालिदास दशकों पहले अभिज्ञान शाकुंतल लिख गए वहां इन मसलों पर खुलकर चर्चा नहीं होती है तो क्या इसे हम हिंदी का पिछड़ापन मानें ?

 

 

Saturday, April 13, 2013

खत्म होते पुस्तक बाजार


अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली के दरियागांज इलाके में रविवार को फुटपाथ पर लगनेवाले किताबों के बाजार में गया था । वहां जाकर पता चला कि बाजार का स्वरूप काफीबदल गया है । पहले वहां सिर्फ किताबें बिका करती थी लेकिन अब उन किताबों की दुकान के आगे स्टेशनरी और पुराने कपड़ों ने उनको नेपथ्य में डाल दिया है । दरअसल जब से लाल किले के पीछे लगनेवाले चोर बाजार को बंद किया गया है तब से ही वहां से हटाए गए दुकानदारों ने इस ओर रुख किया और जगह की कमी की वजह से वो किताबों के समांतर एक और लाइन लगाने लग गए । नतीजा यह हुआ कि किताबें पीछे चली गई । दिल्ली गेट से शुरू होकर जामा मस्जिद के गेट नंबर एक तक जानेवाली सड़क तक दरियागंज की इस किताब बाजार में तकरीबन दो दशक से जा रहा हूं । तब वहां एक लोहे का पुल भी हुआ करता था जो अब विकास और सौदर्यीकरण की भेंट चढ़ चुका है । मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब उन्नीस सौ तिरानवे में दिल्ली आया था तो पहली बार किसी रविवार को अपने मित्रों के साथ उस बाजार में गया था । तब वह किताब बाजार काफी समृद्ध हुआ करता था । देश विदेश की हिंदी अंग्रेजी की तमाम किताबें वहां मिल जाया करती थी । बाजार शुरु होते ही आपको सबसे पहले आपको साइंस और अन्य विषयों की की किताबें दिखाई पड़ेंगी । गोलचा सिनेमा हॉल के पास पुराना सिक्का बेचने वाले के पास आते आते आपको सोशल साइंस और अन्य विषयों की किताबें दिखने लगती थी । फुटपाथ पर लगनेवाले इस बाजार में व्यक्तिगत लाइब्रेरी से निकाल कर कबाड़ी को बेच दी गई पुरानी किताबें, प्रकाशकों के यहां से चोरी से लाई गई किताबें और पुस्तकालयों से उड़ाई गई किताबें बिका करती थी । मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैंने दास कैपिटल की प्रति सात रुपए में इसी बाजार से खरीदी थी । उस किताब पर दिल्ली विश्वविद्यालय के मशहूर हिंदू कॉलेज की लाइब्रेरी की मुहर लगी थी । इसके अलावा हिंदी के एक प्रसिद्ध आलोचक को लेखकों द्वारा समर्पित कई किताबें भी इस बाजार में दिखाई देती थी । उसपर लिखा समर्पण देखकर एकबारगी यह लगा था कि हिंदी के वरिष्ठ लेखक कितने कठोर होते हैं जो प्यार और आदर से दी गई किताबों को भी कबाड़ में बेच देते हैं । बात में यह धारणा और पुष्ट हो गई जब उन आलोचक को भेंट की गई किताबें नियमित अंतराल पर उस बाजर में दिखाई देने लगीं ।  

रविवार को लगने वाले इस किताब बाजार में मोलभाव का बेहद अलग मनोविज्ञान काम करता है । अगर आपको कोई किताब पसंद आ गई और आपने अपनी प्रसन्नता जाहिर कर दी तो समझ लीजिए कि आपको उस किताब की मंहमांगी कीमकत अदा करनी होगी । इस तरह के बाजार में तो ग्राहकों को अपनी प्रसन्नता जाहिर ही नहीं करनी होती है । अगर कोई किताब पसंद भी आ जाए तो उसको बस यूं ही अनमने ढंग से उठाकर दाम पूछना होता है । कहने का मतलब यह कि फुटपाथ पर चलनेवाले किताबों के इस बाजार के नियम कानून बाजार के नियम कानून से भिन्न होते हैं । वहां के दुकानदारों और ग्राहकों के बीच एक अलग ही तरह का रिश्ता होता है । दरअसल फुटपाथ पर लगनेवाले इस तरह के किताब बाजार देश के अनेक छोटे बड़े शहरों में लगते रहे हैं । मुंबई के फ्लोरा फाउंटेन से लेकर कोलकाता के गरियाहाट और गोलपार्क के बीच फुटपाथ से लेकर अहमदाबाद के एलिस ब्रिज से लेकर मद्रास रेलवे स्टेशन के ठीक बगल की एक इमारत में पुरानी किताबों का बाजार रविवार को सजा करता था । कोलकाता के किताब बाजार में तो मार्कसवादी साहित्य की ही धूम रहा करती थी । कोलकाता का कॉलेज स्ट्रीट को तो ज्ञान का पुंज ही माना जाता था । कहा जाता था कि वहां हर तरह की किताबें मिल जाया करती थी । अस्सी के दशक में कोलकाता और मुंबई की फुटपाथी दुकानों को देखा था । कोलकाता की इन दुकानों पर वामपंथी और मार्क्सवादी साहित्य बहुतायत में मिला करती थी । 1987 में मैक्सिम गोर्की का कालजयी उपन्यास मां की प्रति वहीं से खरीदी थी । अस्सी के ही आखिरी दशक में मुंबई के फ्लोरा फाउंटेन के फुटपाथ पर किताबों की दुकानों पर घंटों बिताया था । दिल्ली और कोलकाता की तुलना में वहां किताबों की कीमत में ज्यादा मोलभाव नहीं होता था । वहां फुटपाथी दुकानों के मालिक आपसे किताबों पर विमर्श कर सकते थे, इस विषय से जुड़ी अन्य किताबों के बारे में आपको जानकारी दे सकते थे । कहने का मतलब यह है कि वहां के दुकानदारों की किताब और उसके विषयों को लेकर समझ दिल्ली के फुटपाथी किताब बेचनेवालों से बेहतर थी । कोलकाता में तो दुकानदारों पर भी लाल रंग ही चढ़ा रहता था । वो बातचीत में हमेशा बुर्जुआ से लेकर क्रांति की डींगें हांका करते थे ।

एक और चौंकानेवाली बात जो इस बार दरियागांज के इस किताब बाजार में महसूस हुई वह यह कि अब वहां हिंदी की बहुत कम किताबें उपलब्ध हैं । तकरीबन बीस साल पहले दरियागंज की इन पटरियों पर आपको विश्व क्लासिक्स के साथ साथ हिंदी की अहम कृतियां भी मिल जाया करती थी । चाहे वो निराला की कोई कृति हो या फिर जयशंकर प्रसाद या रेणु की किताब । हंस का साहित्य संकलन जो बालकृष्ण राव और अमृतराय के संपादन में संभवत 1957 में निकला था की प्रति भी 1994 में मुझे वहीं से मिली थी । हंस के उस अंक में रामकुमार का जार्ज लुकाच से मुलाकात पर बेहद रोचक संस्मरण छपा था । मैक्सिम गोर्की की कालजयी कृति मां भी वहीं से खरीदी थी। सारिका और धर्मयुग के पुराने अंकों के अलावा नई कहानियां का प्रवेशांक भी मुझे वहीं से मिल पाया था । नई कहानियां को वह प्रवेशांक मेरी व्यक्तिगत लाइब्रेरी से कहीं गुम हो गया है लेकिन उसका स्कैन किया गया कवर अब भी मेरे पास है । इसके अलावा आजादी के बाद निकले कई साहित्यक पत्रिकाओं के अंक भी आसानी से दरियागंज में उपलब्ध थे । लेकिन समय के साथ साथ हिंदी की पुरानी पत्रिकाएं फुटपाथ से गायब होते चली गई । और अब तो हालात यह है कि एक दो दुकानों को छोड़कर हिंदी की किताबें भी नहीं मिल पा रही हैं । फुटपाथ से हिंदी की किताबें गायब होने के पीछे क्या वजह हो सकती है । यह किस ओर इशारा करती है , इसके क्या निहितार्थ हैं इस बारे में विचार करना आवश्यक है । वहां लंबे समय से हिंदी की किताबें बेचनेवाले अजीज अहमद से पूछने पर पता चला कि हिंदी की किताबों में रुचि लेनेवाले ग्राहकों की संख्या में कमी आई है । उन्होंने एक और चौंकानेवाली बात बताई । उनका कहना था कि पहले दिल्ली के विश्वविद्यालयों के छात्र हिंदी और वैचारिक किताबों की खोज में यहां आते थे लेकिन अब यहां आनेवाले छात्रों की संख्या में कमी आई है और जो छात्र यहां आते हैं वो अंग्रेजी की हल्की फुल्की किताबें खरीदने में रुचि रखते हैं । उन्होंने साफ तौर पर बताया कि यह बाजार है और यहां मांग के अनुसार ही उपलब्धता होती है । अहमद के इस बयान के बाद यह सवाल खड़ा हो गया कि क्या सचमुच देश की राजधानी के युवाओं की रुचि हिंदी साहित्य में कम हुई है । अगर यह संकेत मात्र भी है तो यह हिंदी जगत के लिए बेहद चिंता की बात है । उससे भी चिंता की बात है इन बाजारों का सिमटना । दिल्ली में किताबों के रविवारीय बाजार के अलावा कोलकाता में भी गरियाहाट वाले बाजार को बंद करवा दिया गया । एलिस ब्रिज के नीचे लगनेवाले बाजार में भी किताबों की दुकानों की संख्या कम हो रही है । इन बाजारों के सिमटने से पुस्तक संस्कृति के सिमटने का संकेत मिल रहा है । पुस्तक संस्कृति किसी भी विकासशील समाज के लिए एक मजबूक आधार प्रदान करती है लेकिन हिंदी में पुस्तक संस्कृति को लेकर एक उदासीनता का माहौल देखकर निराशा होती है । जिनपर इस तरह की संस्कृति को विकसित करने का दायित्व है वह भी अपने दायित्वों के प्रति उदासीन दिखाई देते है ।