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Saturday, November 29, 2014

आलोचक का बुढभस

राग दरबारी तो घटिया उपन्यास है । मैं उसे हिंदी के पचास उपन्यासों की सूची में भी नहीं रखूंगा । पता नहीं राग दरबारी कहां से आ जाता है ? वह तीन कौड़ी का उपन्यास है । हरिशंकर परसाईं की तमाम चीजें राग दरबारी से ज्यादा अच्छी हैं । वह व्यंग्य बोध भी श्रीलाल शुक्ल में नहीं है जो परसाईं में है । उनके पासंग के बराबर नहीं है श्रीलाल शुक्ल और उनकी सारी रचनाएं यह बात कही है हिंदी के बुजुर्ग लेखक और कथालोचक विजय मोहन सिंह ने । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्लाय की पत्रिका बहुवचन में कृष्ण कुमार सिंह ने विजय मोहन सिंह का साक्षात्कार किया है । इस इंटरव्यू में विजय मोहन सिंह ने और भी कई ऐसी मनोरंजक बातें कहीं हैं । एक जगह विज मोहन सिंह कहते हैं नागार्जुन का जिक्र मैंने अपनी किताब में काका हाथरसी के संदर्भ में भी किया था जो बाद में मैने हटा दिया । केदारजी उसको पढ़कर दुखी हो गए थे ।उन्होंने ही उसे निकलवा दिया । नागार्जुन की कमजोरियों का हाल तो यह है कि कई जगह उन्हें पढ़ते हुए लगा और मैंने लिखा भी कि वे बेहतर काका हाथरसी हैं । केदार जी इससे दुखी और कुपित हो गए थे कि येक्या कर रहे हैं । मैने वह वाक्य हटा जरूर दिया लेकिन मेरी ऑरिजिनल प्रतिक्रिया यही थी । कुल मिलाकर नागार्जुन की कमजोरियां वह नहीं हैं जो निराला की हैं । इस तरह की कई बातें और फतवे विजयमोहन जी के इस साक्षात्कार में है जहां वो प्रेमचंद के गोदान से लेकर शिवमूर्ति तक को खारिज करते हुए चलते हैं । विजयमोहन सिंह के इस पूरे इंटरव्यू को पढ़ने के बाद लगता है कि वो हर जगह पर रचनाकारो का सतही मूल्यांकन करते हुए निकल जाते हैं । इसकी वजह से उनका यह साक्षात्कार सामान्यीकरण के दोष का भी शिकार हो गया है ।
जिस तरह से विजय मोहन सिंह ने श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास राग दरबारी को घटिया और तीन कौ़ड़ी का उपन्यास कहा है वह उनकी सामंती मानसिकता का परिचायक है । इस तरह की भाषा बोलकर विजय मोहन सिंह ने खुद का स्तर थोड़ा नीचे किया है । साहित्य में भाषा की एक मर्यादा होनी चाहिए । किसी भी कृति को लेकर किसी भी आलोचक का अपना मत हो सकता है , उसके प्रकटीकरण के लिए भी वह स्वतंत्र होता है लेकिन मत प्रकटीकरण मर्यादित तो होना ही चाहिए । अपनी किताब हिंदी उपन्यास का इतिहास में गोपाल राय ने भी राग दरबारी को असफल उपन्यास करार दिया है । उन्होंने इसकी वजह उपन्यास और व्यंग्य जैसी दो परस्परविरोधी अनुशासनों को एक दूसरे से जोड़ने के प्रयास बताया है । गोपाल राय लिखते हैं व्यंग्य के लिए कथा का उपयोग लाभदायक होता है पर उसके लिए उपन्यास का ढांचा भारी पड़ता है । उपन्यास में व्यंग्य का उपयोग उसके प्रभाव को धारदार बनाता है पर पूरे उफन्यास को व्यंग्य के ढांचे में फिट करना रचनाशीलता के लिए घातक होता है । व्यंग्यकार की सीमा यह होती है कि वह चित्रणीय विषय के साथ अपने को एकाकार नहीं कर पाता है । वह स्त्रटा से अधिक आलोचक बन जाता है । स्त्रष्टा अपने विषय से अनुभूति के स्तर पर जुड़ा होता है जबकि व्यंग्यकार जिस वस्तु पर व्यंग्य करता है उसके प्रति निर्मम होता है । यहां गोपाल राय ने किसी आधार को उभारते हुए राग दरबारी को असफल उपन्यास करार दिया है लेकिन उन्होंने भी इसे घटिया या तीन कौड़ी का करार नहीं दिया है । ऐसा नहीं है कि राग दरबारी को पहली बार आलोचकों ने अपेन निशाने पर लिया है । जब यह 1968 में यह उपन्यास छपा था तब इसके शीर्षक को लेकर श्रीलाल शुक्ल पर हमले किए गए थे और उनके संगीत ज्ञान पर सावल खड़े किए गए थे । आरोप लगानेवाले ने तो यहां तक कह दिया था कि श्रीलाल शुक्ल को ना तो संगीत के रागों की समझ है और ना ही दरबार की । लगभग आठ नौ साल बाद जब भीष्म साहनी के संपादन में 1976 में आधुनिक हिंदी उपन्यास का प्रकाशन हुआ तो उसमें श्रीलाल  शुक्ल ने लिथा था- दूसरों की प्रतिभा और कृतित्व पर राय देकर कृति बननेवाले हर आदमी को बेशक दूसरों को अज्ञानी और जड़ घोषित करने का हक है, कुछ हद तक यह उसके पेश की मजबूरी भी है, फिर भी किताब पढ़कर कोई भी देख सकता है कि संगीत से इसका कोई सरोकार नहीं है और शायद मेरा समीक्षक भी जानता है कि यह राग उस दरबार का है जिसमें हम देश की आजादी के बाद और उसके बावजूद, आहत अपंग की तरह डाल दिए गए हैं या पड़े हुए हैं ।
हिंदी के आलोचकों के निशाने पर होने के बावजूद राग दरबारी अबतक पाठकों के बीच लोकप्रिय बना हुआ है । अब भी पुस्तक मेलों में राग दरबारी और गुनाहों का देवता को लेकर पाठकों में उत्साह देखनो को मिलता है । इसकी कोई तो वजह होगी कि अपने प्रकाशन के छयालीस साल बाद भी राग दरबारी पाठकों की पसंद बना हुआ है । अब तक इसके हार्ड बाउंड और पेपर बैक मिलाकर बहत्तर से ज्यादा संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । इनमें छात्रोपयोगी संस्करणों की संख्या शामिल नहीं है । यह सही है कि आजादी के बाद हिंदी लेखन में सरकारी तंत्र पर सबसे ज्यादा व्यंग्य हरिशंकर परसाईं ने किया और उनके व्यंग्य बेजोड़ होते थे, मारक भी । लेकिन हरिशंकर परसाईं के व्यंग्य की तुलना श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी के व्यंग्य से करना उचित नहीं लगता है और इस आधार पर राग दरबारी को घटिया और तीन कौड़ी को कह देना तो अनुचित ही है । रेणु के उपन्यासों में सरकारी तंत्र का उल्लेख यदा कदा मिलता है । कुछ अन्य लेखकों ने भी सरकारी तंत्र को अपने कथा लेखन का विषय बनाया लेकिन पूरे उपन्यास के केंद्र में सरकारी तंत्र को रखकर श्रीलाल शुक्ल ने ही लिखा । इसके बाद गिरिराज किशोर ने यथा प्रस्तावित और गोविन्द मिश्र ने फूल इमारतें और बंदर में सरकारी तंत्र के अधोपतन को रेखांकित किया । इस पूरे उपन्यास को व्यंग्य के आधार पर देखने की भूस विजय मोहन सिंह जैसा आलोचक करे तो यह बढ़ती उम्र का असर ही माना जा सकता है । दरअसल हिंदी में आलोचकों को लंबे अरसे से यह भ्रम हो गया है कि वो किसी लेखक को उठा या गिरा सकते हैं । इसी भ्रमवश आलोचक बहुधा स्तरहीन टिप्पणी कर देते हैं और विजय मोहन सिंह की राग दरबारी और नागार्जुन के बारे में यह टिप्पणी उसकी एक मिसाल है ।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बहुत कोशिश की थी वो जायसी को हिंदी कविता की शीर्ष त्रयी- सूर, कबीर और तुलसी के बराबर खड़ा कर दें । रामचंद्र शुक्ल ने जायसी पर बेहतरीन लिखा है, इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन बावजूद इसके लोक या पाठकों के बीच वो जायसी को सूर कबीर और तुलसी की त्रयी के बराबर खड़ा नहीं कर सके । दरअसल आलोचकों की जो दृष्टि है वो वहां तक नहीं पहुंच पाती है जहां तक रचनाकारों की दृष्टि पहुंचती है । या फिर कहें कि आलोचकों की दृष्टि रचनाकारों के बाद वहां तक पहुंच पाती है । आलोचकों के उठाने गिराने के खेल के बारे में मिजय मोहन सिंह ने अपने इसी इंटरव्यू में इशारा भी किया है । आलोचकों की अपनी एक भूमिका होती है, उनका एक दायरा होता है लेकिन जब उनके दंभ से यह दायरा टूटता है तो फिर इस तरह की फतवेबाजी शुरू होती है कि फलां रचना दो कौड़ी या तीन कौड़ी की है । इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ है कि आलोचना में संवाद कम वाद विवाद ज्यादा होने लगे हैं । यह वक्त आलोचना और आलोचकों के लिए गंभीर मंथन का है कि कयोंकर वो साहित्य की धुरी नहीं रह गया है । एक जमाने में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने कहा था कि यदि उनकी कविताएं आचार्य रामचंद्र शुक्ल सुन रहे हैं तो जैसे समूचा हिंदी जगत सुन रहा है । आज लेखकों और आलोचकों के बीच में यह विश्वास क्यों खत्म हो गया । क्या इसके पीछे आलोचक के पूर्वग्रह हैं या फिर विजय मोहन सिंह जैसी फतवेबाजी का नतीजा है । विजय मोहन सिंह ने अपने उसी इंटरव्यू में कहा है कि मापदंड और कसौटी उनको कर्कश लगते हैं । उनेक मुताबिक रचना के समझ के आधार पर रचना का मूल्यांकन किया जाता है । तो क्या यह मान लेना चाहिए कि विजय मोहन सिंह ना तो राग दरबारी को समझ पाए और ना ही नागार्जुन की अकाल पर लिखी कविता को । जिस तरह से उन्होंने अपने इंटरव्यू में लेखकों के लिए शब्दों का इस्तेमाल किया है वह आपत्ति जनक है राग दरबारी तीन कौड़ी की, नागार्जुन बेहतर काका हाथरसी, शिवमूर्ति औसत दर्जे का कहानी कार । आलोचना और रचना के बीच विश्वास कम होने की यह एक बड़ी वजह है ।  

Tuesday, November 25, 2014

सांस्कृतिक आंदोलन का मेला

किसी भी एक दिन में अगर किसी पुस्तक मेले में एक लाख लोग पहुंचते हों तो इससे किताबों के प्रति प्रेम को लेकर एक आश्वस्ति होती है । यह हुआ हाल ही में खत्म पटना पुस्तक मेला में । पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में आयोजित पुस्तक मेला के बीच आए एक रविवार को मेला में पहुंचनेवालों की संख्या एक लाख के पार चली गई । इसके अलावा पुस्तक मेला से जुड़े लोगों का अमुमान है कि दस दिनों में पुस्तक मेला में किताबों की बिक्री का आंकड़ा भी करीब छह करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया । पटना पुस्तक मेला में ज्यादातर किताबें हिंदी की थी लिहाजा इसको एक शुभ संकेत माना जा सकता है । एक तरफ हिंदी में साहित्यक कृतियों की बिक्री कम होने की बात हो रही है और उसपर चिंता जताई जा रही है वहीं साहित्येतर किताबों में पाठकों की बढ़ती रुचि को रेखांकित किया जा रहा है । पटना पुस्तक मेला इस लिहाज से अन्य पुस्तक मेलों से थोड़ा अलग है कि यहां किताबों की दुकान के अलावा सिनेमा, पेंटिंग, नाटक आदि पर भी विमर्श होता है । इस साल तो पटना पुस्तक मेला में संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से देशज नाम का एक सांस्कृतिक आयोजन भी हुआ जिसमें मशहूर पंडवानी लोक नाट्य गायिका तीजन बाई से लेकर मणिपुर और कश्मीर की मंडली ने नाट्य मंडलियों ने अपनी प्रस्तुति दी । कश्मीर की गोसाईं पाथेर जो है वो वहां की भांड पाथेर परंपरा का नाटक है जिसे कश्मीर घाटी के भांड कलाकार लंबे समय से मंचित करते आ रहे हैं । बिहार के दर्शकों के लिए यह एकदम नया अनुभव था। इन नाटकों की प्रस्तुति इतनी भव्य थी कि भाषा भी आड़े नहीं आ रही थी ।

दरअसल अगर हम देखें तो पटना पुस्तक मेला ने बिहार में पाठकों को संस्कारित करने का काम भी किया । बिहार में एक सांस्कृतिक माहौल होने के पीछे पटना पुस्तक मेला का बड़ा हाथ है । पिछले दो साल से पटना पुस्तक मेला को नजदीक से देखने का अवसर मिला है । वहां जाकर लगा कि एक ओर जहां तमाम लिटरेचर फेस्टिवल साहित्य के मीना बाजार में तब्दील होते जा रहे हैं । जहां साहित्य और साहित्यकारों को उपभोक्ता वस्तु में तब्दील करने का खेल खेला जा रहा है । जहां प्रायोजकों के हिसाब से सत्र और वक्ता तय किए जाते हैं. वहीं पटना पुस्तक मेला देश की साहित्य और सांस्कृतिक विरासत को बचाने और उसे नए पाठकों तक पहुंचाने का उपक्रम कर रहे हैं । संवाद कार्यक्रमों के जरिए पाठकों को साहित्य की विभिन्न विधाओं की चिंताओं और उसकी नई प्रवृत्तियों से अवगत करवाने का काम किया जा रहा है । भगवानदास मोरवाल के नए उपन्यास नरक मसीहा के विमोचन के मौके पर एक वरिष्ठ आलोचक ने आलोचना में उठाने गिराने की प्रवृत्ति को रेखांकित किया तो इक्कसीवीं सदी की पाठकीयता पर भी जमकर चर्चा हुई । पाठकीयता के संकट के बीच उसको बढ़ाने के उपायों और सोशल मीडिया में हिंदी के साहित्यकारों की कम उपस्थिति पर भी चिंता व्यक्त की गई । प्रकाशन कारोबार मे आ रहे बदलावों पर हार्पर कालिंस की मुख्य संपादक कार्तिका वी के ने विस्तार से पाठकों को बताया । इसके अलावा पुस्तक मेला में पेंटिग को लेकर भी गंभीर चर्चा होती है । पटना के अलावा कोलकाता पुस्तक मेले में भी कउत इसी तरह का सांस्कृतिक विरासत को बचाने का उपक्रम होता है । साहित्य को उपभोग की वस्तु में तब्दील करतेइन लिटरेचर फेस्टिवल्स के बीच पुस्तक मेला अपनी अलग पहचान पर कायम है । 

Sunday, November 23, 2014

साहित्य से बेरुखी क्यों ?

हिंदी साहित्य और पाठकीयता पर हिंदी में लंबे समय से चर्चा होती रही है । लेखकों और प्रकाशकों के बीच पाठकों की संख्या को लेकर लंबे समय से विवाद होता रहा है । साहित्य सृजन कर रहे लेखकों को लगता है कि उनकी कृतियां हजारों में बिकती हैं और प्रकाशक घपला करते हैं । वो बिक्री के सही आंकड़े नहीं बताते । इसी तरह से प्रकाशकों का मानना है कि साहित्य के पाठक लगातार कम होते जा रहे हैं और साहित्यक कृतियां बिकती नहीं हैं । दोनों के तर्क कुछ विरोधाभास के बावजूद अपनी अपनी जगह सही हो सकते हैं ।  दरअसल साहित्य और पाठकीयता,यह विषय बहुत गंभीर है और उतनी ही गंभीर मंथन की मांग करता है । अगर हम देखें तो आजादी के पहले हिंदी में दस प्रकाशक भी नहीं थे और इस वक्त एक अनुमान के मुताबिक जो तीन सौ से ज्यादा प्रकाशक साहित्यक कृतियों को छाप रहे हैं । प्रकाशन जगत के जानकारों के मुताबिक हर साल हिंदी की करीब दो से ढाई हजार किताबें छपती हैं । अगर पाठक नहीं हैं तो किताबें छपती क्यों है । यह एक बड़ा सवाल है जिससे टकराने के लिए ना तो लेखक तैयार हैं और ना ही प्रकाशक । क्या लेखक और प्रकाशक ने अपना पाठक वर्ग तैयार करने के लिए कोई उपाय किया । क्या लेखकों ने एक खास ढर्रे की रचनाएं लिखने के अलावा किसी अन्य विषय को अपने लेखन में उठाया । अगर इस बिंदु पर विचार करते हैं तो कम से कम हिंदी साहित्य में एक खास किस्म का सन्नाटा नजर आता है । हिंदी के लेखक बदलते जमाने के साथ अपने लेखन को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं । इक्कीसवीं सदी में पाठकीयता पर जब हम बात करते हैं तो हम कह सकते हैं कि हमने इस सदी में पाठक बनाने के लिए प्रयत्न नहीं किया । अगर हम साठ से लेकर अस्सी के दशक को देखें तो उस वक्त पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने हमारे देश में एक पाठक वर्ग तैयार करने में अहम भूमिका निभाई । पीपीएच ने उन दिनों एक खास विचारधारा की किताबों को छाप कर सस्ते में बेचना शुरू किया । हर छोटे से लेकर बड़े शहर तक रूस के लेखकों की किताबें सहज, सस्ता और हिंदी में उपलब्ध होती थी । उसके इस प्रयास से हिंदी में एक विशाल पाठक वर्ग तैयार हुआ । सोवियत रूस के विघटन के बाद जब पीपीएच की शाखाएं बंद होने लगीं तो ना तो हिंदी के लेखकों ने और ना ही हिंदी के प्रकाशकों ने उस खाली जगह को भरने की कोशिश की । प्रतिबद्ध साहित्य पढ़वाने की जिद और तिकड़म ने पाठकों को दूर किया। फॉर्मूला बद्ध रचनाओं ने पाठकों को निराश किया । नई सोच और नए विचार सामने नहीं आ पाए । विचारधारा ने ऐसी गिरोहबंदी कर दी कि नए विचार और नई सोच को सामने आने ही नहीं दिया । जिसने भी आने की कोशिश की वो चाहे कितना भी बड़ा क्यों ना हो उसे सुनियोजित तरीके से हाशिए पर रख दिया गया । किसी को कलावादी कहकर तो किसी को कुछ अन्य विशेषण से नवाज कर । इस प्रवृ्ति शिकार हुए सबसे बड़े लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय और रामधारी सिंह दिनकर थे । इन दोनों लेखकों का अब तक उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है । दूसरा नुकसान यह हुआ कि विचारधारा और प्रतिबद्धता के आतंक में ना तो नई भाषा गढ़ी जा सकी और ना ही उस तरह के विषयों को छुआ गया जो समय के साथ बदलती पाठकों की रुचि का ध्यान रख सकती । यहां कुछ लेखकों को विचारधारा के आतंक शब्द पर आपत्ति हो सकती है लेकिन यह तथ्य है कि साहित्य से लेकर विश्वविद्यालयों से लेकर साहित्य की अकादमियों तक में एक खास विचारधारा के पोषकों का आतंक था । जन और लोक की बात करनेवाले इन विचारषोषकों की आस्था ना तो उससे बनी जनतंत्र में है और ना ही लोकतंत्र में । लेखक संघों का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जब भी किसी ने विचारधारा पर सवाल खड़ा करने की कोशिश की उसे संगठन बदर कर दिया गया । ये बातें विषय से इतर लग सकती हैं । मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इससे पाठकीयता का क्या लेना देना है । संभव है कि इस प्रसंग का पाठकीयता से प्रत्यक्ष संबंध नहीं हो लेकिन इसने परोक्ष रूप से पाठकीयता के विस्तार को बाधित किया है । वो इस तरह से कि अगर किसी ने विचारधारा के दायरे से बाहर जाकर विषय उठाए और पाठकों के सामने पेश करने की कोशिश की तो उसे हतोत्साहित किया गया । नतीजा यह हुआ कि साहित्य से नवीन विषय छूटते चले गए और पाठक एक ही विषय को बार बार पढ़कर उबते से चले गए । साहित्यकारों ने पाठकों की बदलती रुचि का ख्याल नहीं रखा । वो उसी सोच को दिल से लगाए बैठे रहे कि हम जो लिखेंगे वही तो पाठक पढ़ेंगे । मैंने अभी हाल में लेखकों की इस सोच को तानाशाह कह दिया तो बखेड़ा खड़े हो गया । पाठकों की रुति और बदलते मिजाज का ध्यान नहूीं रखना तो एक तरह की तानाशाही है ही ।
दरअसल नए जमाने के पाठक बेहद मुखर और अपनी रुचि को हासिव करने के बेताब हैं । नए पाठक इस बात का भी ख्याल रख रहे हैं कि वो किस प्लेटफॉर्म पर कोई रचना पढ़ेंगे । अगर अब गंभीरता से पाठकों की बदलती आदत पर विचार करें तो पाते हैं कि उनमें काफी बदलाव आया है । पहले पाठक सुबह उठकर अखबार का इतजार करता था और आते ही उसको पढ़ता था लेकिन अब वो अखबार के आने का इंताजर नहीं करता है । खबरें पहले जान लेना चाहता है । खबरों के विस्तार की रुचिवाले पाठक अखबार अवश्य देखते हैं । खबरों को जानने की चाहत उससे इंटरनेट सर्फ करवाता है । इसी तरह से पहले पाठक किताबों का इंतजार करता था । किताबों की दुकानें खत्म होते चले जाने और इंटरनेट पर कृतियों की उपलब्धता बढ़ने से पाठकों ने इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करना शुरू किया । हो सकता है कि अभी किंडल और आई फोन या आई पैड पर पाठकों की संख्या कम दिखाई दे लेकिन जैसे जैसे देश में इंटरनेटका घनत्व बढ़ेगा वैसे वैसे पाठकों की इस प्लेटफॉर्म पर संख्या बढ़ती जाएगी । इसके अलावा न्यूजहंट जैसे ऐप हैं जहां कि बेहद सस्ती कीमत पर हिंदी साहित्यकी कई महत्वपूर्ण रचनाएं उपलब्ध हैं । यह बात कई तरह के शोध के नतीजों के रूप में सामने आई है । दरअसल अगर हम देखें तो पाठकीयता के बढ़ने घटने के लिए कई कड़ियां जिम्मेदार हैं । अगर हम पाठकीयता को एक व्यापक संदर्भ में देखें तो इसके लिए कोई एक चीज जिम्मेदार नहीं है यह एक पूरा ईकोसिस्टम है । जिसमें सरकार, टेलीकॉम, सर्च इंजन, लेखक, डिवाइस मेकर, प्रकाशक, मीडिया और मीडिया मालिक शामिल हैं । इन सबको मिलाकर पाठकीयता का निर्माण होता है । सरकार, प्रकाशक और लेखक की भूमिका सबको ज्ञात है । टेलीकॉम यानि कि फोन और उसमें लोड सॉफ्टवेयर, सर्चे इंजन जहां जाकर कोई भी अपनी मनपसंद रचना को ढूंढ सकता है । पाठकीयता के निर्माण का एक पहलू डिवाइस मेकर भी हैं । डिवाइस यथा किंडल और आई प्लेटफॉर्म जहां रचनाओं को डाउनलोड करके पढ़ा जा सकता है । प्रकाशक पाठकीयता बढ़ाने और नए पाठकों के लिए अलग अलग प्लेटफॉर्म पर रचनाओं को उपलब्ध करवाने में महती भूमिका निभाता है । पाठकीयता को बढ़ाने में मीडिया का भी बहुत योगदान रहता है । साहित्य को लेकर हाल के दिनों में मीडिया में एक खास किस्म की उदासीनता देखने को मिली है । इस उदासीनता तो दूर कर उत्साही मीडिया की दरकार है ।
हिंदी साहित्य को पाठकीयता बढ़ाने के लिए सबसे आवश्यक है कि वो इस ईको सिस्टम के संतुलन को बरकरार रखे । इसके अलावा लेखकों और प्रकाशकों को नए पाठकों को साहित्य की ओर आकर्षित करने के लिए नित नए उपक्रम करने होंगे । पाठकों के साथ लेखकों का जो संवाद नहीं हो रहा है वो पाठकीयता की प्रगति की राह में सबसे बड़ी बाधा है । लेखकों को चाहिए कि वो इंटरनेट के माध्यम से पाठकों के साथ जुड़ें और उनसे अपनी रचनाओं पर फीडबैक लें । फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे की लेखिका ई एल जेम्स ने ट्राइलॉजी लिखने के पहले इंटरनेट पर एक सिरीज लिखी थी और बाद में पाठकों की राय पर उसे उपन्यास का रूप दिया । उसकी सफलता अब इतिहास में दर्ज हो चुकी है और उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है । इन सबसे ऊपर हिंदी के लेखकों को नए नए विषय भी ढूंढने होंगे । जिस तरह से हिंदी साहित्य से प्रेम गायब हो गया है उसको भी वापस लेकर आना होगा । आज भी पूरी दुनिया में प्रेम कहानियों के पाठक सबसे ज्यादा हैं । हिंदी में बेहतरीन प्रेम कथा की बात करने पर धर्मवीर भारती की गुनाहों की देवता और मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास कसप ही याद आता है । हाल में खत्म हुए पटना पुस्तक मेले से यह संकेत मिला कि पढ़ने की भूख है । पुस्तक मेले में एक दिन में एक लाख लोगों के पहुंचने से उम्मीद तो बंधती ही है जरूरत इस बात की है कि इस उम्मीद को कायम रखते हुए इसको नई ऊंचाई दी जाए ।
 

Wednesday, November 19, 2014

गलतियों को सुधारने का वक्त

खुशवंत सिंह ने अपने स्तंभ में किसी को उद्धृत किया था दिल्ली के कनॉट प्लेस के बाहरी सर्किल का नाम इंदिरा गांधी और भीतरी सर्किल का नाम राजीव गांधी कर दिया गया था । इसपर तंज करते हुए उस शख्स ने लिखा था कि बेहतर होता कि कनॉट प्लेस का नाम मां-बेटा चौक कर दिया जाता । पहली नजर में यह वाक्य व्यंग्य में कही गई लग सकती है लेकिन अगर में गहराई में विचार करें तो भारत में गांधी नेहरू परिवार के नेताओं को जितनी तवज्जो मिली उतनी अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को नहीं मिल पाने को क्षोभ भी झलकता है । वजह साफ है कि नेहरू जी के बाद इंदिरा गांधी लंबे समयतक प्रधानमंत्री रहीं उसके बाद भी राजीव गांधी और परोक्ष रूप से सोनिया गांधी का सत्ता पर कब्जा रहा । जनता पार्टी के दौरान तीन साल में मोरारजी देसाई सरकार और पार्टी के अंतर्कलह से जूझते रहे । कालांतर में विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर, देवगौड़ा और गुजराल के प्रधानमंत्रित्व काल में सरकार किसी तरह बस चल सकी थी । अटल बिहारी वाजपेयी के तीसरे कार्यकाल में इतिहास के पुर्नलेखन की बात हुई । गांधी नेहरू परिवार से आगे निकलकर राजनीतिक नेतृत्व ने अन्य राष्ट्रवादी नेताओं की ओर देखना शुरू किया । उनके कामों और संघर्षों को जनता के सामने लाने का काम शुरू हुआ लेकिन पचास साल की धमक को पांच साल में संतुलित नहीं किया जा सका । दूसरे अटल जी की सरकार सहयोगियों के सहारे चल रही थी । उसका भी अपना एक अलग दबाव था । अब तीस वर्षों के बाद पूर्ण बहुमत की सरकार आई है तो यह उम्मीद जगी है कि देश के अन्य नायकों को भी उनका उचित सम्मान मिलेगा । इसका यह मतलब कतई नहीं है कि नेहरू-गांधी परिवार के योगदान और देश के त्याग को भुला दिया जाए लेकिन इसका यह मतलब भी कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि सिर्फ उनके ही योगदान को रेखांकित किया जाता रहे । मोदी सरकार ने इस दिशा में पहल शुरू की है ।
सरदार पटेल के कामों, विचारों और संघर्षों के बारे में जनता को बताने का काम शुरू किया गया है । नर्मदा नदी पर सरदार पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा के लिए गुजरात सरकार ने बजट प्रावधान कर दिया है । उनके जन्मदिन पर रन फॉर यूनिटि करके देश को एकता का संदेश दिया गया । दरअसल हुआ यह कि कांग्रेस के लंबे शासन काल के दौरान नेहरू गांधी परिवार से बाहर के नेता हाशिए पर रहे । सरदार वल्लभ भाई पटेल को लंबे समय के बाद भारत रत्न दिया गया । इंदिरा गांधी के शासन के दौरान 1974 में उनके खतों को कई खंडों में छापा गया था लेकिन कालांतर में उसकी सुध लेनेवाला कोई नहीं रहा । इसी तरह से अगर हम देखें तो कांग्रेस की विचारधारा से इतर राष्ट्रवाद की अवधारणा पर मजबूती से काम करनेवाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर दीन दयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख के कामों पर सरकार का ध्यान नहीं गया । ध्यान तो कांग्रेस की सरकार का भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद पर भी नहीं गया । भारत के इतिहास में संविधानसभा के अध्यक्ष और भारतीय गणतंत्र के पहले राष्ट्रपति को उचित स्थान और सम्मान नहीं मिला। संविधान सभा के अध्यक्ष की प्रतिमा संसद भवन में आजतक नहीं लगी जबकि संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष की प्रतिमा परिसर के अंदर है । राजेन्द्र बाबू को हाशिए पर इस वजह से रखा गया कि उन्होंने कभी भी नेहरू का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया ।

केंद्र में आई मोदी की सरकार ने इतिहास की इन गलतियों से सबक लेते हुए उसे ठीक करने के संकेत देने शुरू किए हैं । श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय के नाम से कई राष्ट्रीय योजनाओं की शुरुआत हुई है । मोदी सरकार ने भारतीय इतिहास और अनुसंधान परिषद के माध्यम से भी कई अहम कामों की शुरुआत की है । दक्षिणी राज्यों और पूर्वोत्तर में अपनी उपस्थिति मजबूत करने के इरादे से सरकार ने वहां के स्थानीय नायकों को महत्व देने का फैसला लिया है । राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक ने अपने दशहरा भाषण में दक्षिण के महान शासक राजेन्द्र चोल को याद किया था और अब संघ ने राजेन्द्र चोल और सम्राट हेमू विक्रमादित्य को इतिहास में अहमियत दिलाने का फैसला किया है । राजेन्द्र चोल और हेमू दोनों ने कई युद्ध लड़े थे और आक्रमणकारियों को परास्त किया था । इसके अलावा सरकार ने फैसला किया है कि नगा स्वतंत्रता सेनानी रानी मां, शहीद अशपाकउल्लाह खान, महर्षि अरविदों से लेकर अन्य भारतीय चिंतकों और स्वतंत्रता सेनानियों के कामों को जनता के बीच पहुंचाया जाएगा ।  अब बिडंवना यह है कि वामपंथ की ओर झुकाव रखनेवाले बुद्धिजीवी इनको हिंदुत्व का नायक मानते हुए सरकार पर आरोप लगाना शुरू कर चुके हैं । दरअसल सबसे पहले यही गलती कांग्रेस ने की । कांग्रेस की अगुवाई में हम आजाद हुए लेकिन उसने वोटबैंक की राजनीति के चक्कर में राष्ट्रवाद को थाली में परोसकर भाजपा को दे दिया । देश में आयातित विचारधारा का प्रचार प्रसार करने और विदेशी नेतृत्व में आस्था रखनेवालों ने देश की बौद्धिक संपदा को फलने फूलने नहीं दिया। गांधी जी ने 6 अक्तूबर 1946 को हरिजन में एक लेख लिखकर चेताया भी था- हममें विदेशों के दान की बजाय हमारी धरती जोकुछ पैदा कर सकती हो उसपर ही अपना निर्वाह कर सकने की योग्यता और साहस होना चाहिए । अन्यथा हम एक स्वतंत्र देश की तरह रहने के हकदार नहीं होंगे । यही बात विदेशी विचारधाराओं के लिए भी लागू होती है । मैं उन्हें उसी हद तक स्वीकार करूंगा जिस हद तक मैं उन्हें हजमन कर सकता हूं और उनमें परिस्थितियों के अनुरूप फर्क कर सकता हूं । लेकिन मैं उनमें बह जाने से इंकार करूंगा ।लेकिन हमने गांधी की चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया और उसी में बहते चले गए । अब वक्त आ गया है पूर्व की गलतियों को सुधारते हुए देश के महानुभावों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का ।          

Sunday, November 9, 2014

बिक्री का व्याकरण

स्थान था दिल्ली का तीन मूर्ति भवन का ऑडिटोरियम । मौका था वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई की किताब- 2014 द इलेक्शन दैट चेनज्ड इंडिया, के विमोचन का । इस कार्यक्रम के पहले ऑडिटोरियम के बाहर किताबें बिक रही थी। वहां आनेवाले लगभग सभी लोगों ने किताबें खरीदी और लेखक से उसपर हस्ताक्षर करवाए । एक अनुमान के मुताबिक विमोचन समारोह के पहले करीब ढाई तीन सौ प्रतियां बिक गई । मैं वहां खड़ा इस बात का आकलन कर रहा था कि अंग्रेजी और हिंदी के विमोचन समारोह और किताबों की बिक्री का व्याकरण कितना अलग है । अमूमन अंग्रजी के किताब विमोचन समारोह में आते लोग किताब खरीदने का फैसला करे आते हैं । लेकिन हिंदी में स्थिति ठीक इसके विपरीत है । दिल्ली के विमचनों में ज्यादा जाने का अवसर तो नहीं मिल पाता है लेकिन जितनों में मैं गया हूं वहां बिक्री के लिए तो किताबें होती हैं पर खरीदार नहीं होते । हर कोई इस जुगाड़ में होता है कि या तो लेखक या फिर प्रकाशक उसे मुफ्त में किताब दे दे । समारोह के पहले और बाद में हिंदी के प्रकाशकों के आसपास इस तरह के किताबखोरों को साफ तौर पर देखा और पहचाना जा सकता है । यह बात अंग्रेजी में नहीं है । इसकी परिणति और नुकसान सबसे ज्यादा हिंदी के लेखकों को ही होता है । अब एक तरफ तो एरक किताब विमोचन सनारोह में दो घंटे में ढाई सौ से तीन सौ किताबें बिक जाती हैं वहीं दूसरी तरफ विशाल पाठक वर्ग के होते हुए भी हिंदी में किसी भी साहित्यक कृति का संस्करण तीन सौ तक समिट कर रह गया है । राजेन्द्र यादव जब जीवित थे तो मैंने उनसे इस तरह की बातें किया करता था । एक बार तो उन्होंने संपादकीय लिखकर मेरे इन बातों का उत्तर दिया था और कहा था कि हिंदी में ये नहीं और वो नहीं का छाती कूटने और विलाप करनेवाले काफी हैं । राजदीप सरदेसाई की किताब विमोचन के मौके पर उतनी किताबें बिकती देखकर एक बार फिर से यादव जी का स्मरण हो गया । फिर हमारी पुरानी बहस की याद जेहन में ताजा हो गई । आज अगर वो जीवित होते तो फिर मेरे इस विचार को छाती कूटना कहकर टाल देते । लेकिन दब भी मैंने उनसे ये पूछा था कि क्यों हिंदी के लेखकों को इतनी कमन रॉयल्टी मिलती है तो फिर इसका कोई ठोस जवाब उनके पास नहीं होता था ।

दरअसल यह एक ऐसा सवाल है जो सालों से हिंदी में उठता रहा है । गाहे बगाहे हिंदी के वरिष्ठ लेखक भी इसपर सवाल खड़े करते रहे हैं । इस समस्या का अबतक कोईहल नहीं निकल पाया है । हिंदी साहित्य को लेकर प्रकाशकों में एक खास किस्म की उदासीनता भीइन दिनों देखने को मिल रही है । इसकी क्या वजह हो सकती है, इस बारे में भी पता लगाना होगा । हिंदी का हमारा इतना विशाल पाठक वर्ग है और हाल के दशक में हिंदी के पाठकों की क्रय शक्ति में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है। बावजूद इसके हिंदी साहित्य की किताबों के संस्करण सिकुड़ते चले जा रहे हैं । लेखक संगठनों का कोई अस्तित्व रहा नहीं, अकादमियां अपने संविधान के दायरे से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं तो फिर ऐसे में अब युवा लेखकों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वो एकजुट होकर प्रकाशकों से इस बारे में बात करें और लेखकों और प्रकाशकों का कोईऐसा साझा मंच बने जो इस तरह की समस्याओं पर नियमित रूप से विमर्श करें और हिंदी में पुस्तकों की संस्कृति को विकसित करने की किसी ठोस कार्ययोजना पर काम कर सकें । इसे अबऔर नहीं टाला जाना चाहिए अन्यथा तीन सौ का संस्करण सौ तक में तब्दील हो सकता है ।  

Saturday, November 8, 2014

संदिग्ध विश्वसनीयता के पुरस्कार

हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने साहित्य और संस्कृति के लिए थोक के भाव से पुरस्कारों का एलान किया है । उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा घोषित लगभग सौ नामों की इस सूची को देखकर तो यही लग रहा है कि अब हिंदी में कोई लेखक बच नहीं पाएगा जो पुरस्कृत ना हो । पांच लाख से लेकर चालीस पचास हजार के पुरस्कार से लेखकों को हलांकि कुछ लेखक ऐसे हैं जिनका नाम हर सरकारी पुरस्कारों की फेहरिस्त में शामिल होते हैं । पुरस्कार लेने का यह कौशल कुछ लेखिकाओं में भी देखा जा सकता है । हिंदी की कुछ कनिष्ठ और कुछ वरिष्ठ लेखिका हर तरह के पुरस्कारों की सूची में होती हैं । पांच लाख से लेकर पांच हजार तक के पुरस्कार नियमित रूप से उनकी झोली में टपकते रहते हैं । एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त हिंदी में सरकारी पुरस्कारों के अलावा छोटे बड़े मिलाकर कुल तीन से चार सौ पुरस्कार तो दिए ही जा रहे होंगे । हर राज्य सरकारों का पुरस्कार फिर वहां की अलग अलग अकादमियों का पुरस्कार और उसके बाद साहित्यक संगठनों का पुरस्कार और फिर सबसे अंत में व्यक्तिगत पुरस्कार । इन सबको मिलाकर अगर देखें तो हिंदी के लेखकों पर पुरस्कारों की बरसात हो रही है । इन पुरस्कारों के लिए यह जरूरी नहीं है कि वो कृतियों पर ही दिए जाएं । कृति है तो ठीक नहीं है तो भी ठीक । आपके साहित्यक अवदान पर आपको पुरस्कृत कर दिया जाएगा । महीने भर बाद तो साहित्य अकादमी पुरस्कारों का भी एलान हो जाएगा जिसकी भी प्रक्रिया चल रही है और पुस्तकों की आधार सूची से लेकर जूरी के सदस्यों के नाम तय हो चुके हैं । साहित्य अकादमी के मुख्य पुरस्कार के अलावा युवा पुरस्कार के लिए विज्ञापन जारी हो चुका है । केंद्रीय हिंदी संस्थान के पुरस्कारों के आवेदन की तिथि बस अभी अभी गुजरी है । इसके अलावा कई पुरस्कार जो पहले घोषित किए जा चुके हैं उनका अर्पण समारोह चल रहा है और कुछ की तिथियां घोषित हो चुकी हैं । पुरस्कारों के इस मौसम में धवलकेशी साहित्यकारों से लेकर बिल्कुल टटके लेखकों तक को पुरस्कृत किया जा रहा है । इस पुरस्कारी सीजन में देश के अलावा विदेशों से भी पुरस्कारों की बरसात हो रही है । प्रवासी लेखकों की हिंदी में बढ़ती रुचि और महात्वाकांक्षा को देखते हुए यह लग रहा है कि आनेवाले दिनों में यूरोप और कनाडा से कई पुरस्कार हिंदी के लिए शुरू किए जाएंगे । हिंदी में कई अंतराष्ट्रीय पुरस्कारों की स्थापना के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं । दरअसल विदेशों से हिंदी लेखकों को सम्मानित करने के पीछे अपने को हिंदी साहित्य में स्थापित और मशहूर करने की एक सुचिंतित योजना होती है । यहां भी आप मुझे दो मैं आपको दूंगा की रणनीति पर काम होता है ।बहुतायत में दिए जानेवाले हिंदी साहित्य ये पुरस्कार दरअसल गंभीर चिंतन की मांग करते हैं । विचार तो इसपर भी होना चाहिए कि हिंदी में पुरस्कार एक हाथ दे दूसरे हाथ ले की परंपरा इतनी सशक्त कैसे हो गई है । एक सरकारी संस्थान से जुड़े एक कवि ने गीतकार को पुरस्कृत किया तो गीतकार महोदय ने लगे हाथ कवि महोदय को पुरस्कृत कर दिया । एक जगह कवि महोदय निर्णायक तो एक जगह गीतकार । दोनों हुए पुरस्कृत । पहले तो इस तरह के मामलों में आंखों में थोड़ी शर्म होती थी लेकिन अब तो वह भी खत्म हो गई हैं । दो महीने पहले आपने हमें पुरस्कृत किया और हमने पहली फुरसत में आपको पुरस्कृत कर दिया । दरअसल हिंदी में तो त्योहारों के खत्म होते ही पुरस्कारों का सिलसिला चल निकलता है । पुरस्कारो के अलावा स्थापित लेखकों को उनकी किताबें छपवाने के लिए अनुदान दिए जा रहे हैं । दरअसल हिंदी में इस वक्त पुरस्कारों की साख पर बड़ा सवालिया निशान है । ऐसे ऐसे लेखक पुरस्कृत हो रहे हैं जिनके लेखन से वृहद हिंदी समुदाय अबतक परिचित भी नहीं है । उनको निराला से लेकर प्रेमचंद तक के नाम पर स्थापित पुरस्कार दिए जा रहे हैं और समारोहों में उन्हें उन महाने लेखकों की परंपरा का ही बताया जा रहा है । जिस लेखक को उसके मुहल्ले के लोग नहीं जानते उनको मशहूर लेखक कहा जा रहा है । पुरस्कृत लेखकों की प्रशस्ति में शब्दों का भयानक अवमूल्यन दिखने को मिल रहा है । कोई विचारक हुआ जा रहा है तो कोई चिंतक । इन भारी भरकम विशेषणों के बोझ तले दबे ये हिंदी के पुरस्कार लेखकों के लिए हितकर नहीं हैं । पिछले वर्ष लमही सम्मान के लेकर उठा अनावश्यक विवाद अब भी साहित्य प्रेमियों के जेहन में हैं । अभी अभी हमारा भारत पत्रिका के संपादकीय में युवा लेखक अभिषेक कश्यप ने हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति पर कुछ जरूरी सवाल उठाए हैं । संपादकीय में पुरस्कारों की साख पर लिखते हुए वो कहते हैं- हिंदी में साहित्यक पुरस्कार अपनी विश्वसनीयता इसलिए भी खो चुके हैं कि उनकी चयन प्रक्रिया में रत्ती भर भी पारदर्शिता नहीं है । ज्यादातर पुरस्कार पहले से ही तय होते हैं कि उन्हें कब और किस लेखक या कवि को दिया जाना है । पारदर्शिता के इसी अभाव ने पुरस्कारों के साथ साथ लेनेवाले लेखकों को भी संदिग्ध बना दिया है ।  
दरअसल हिंदी में पुरस्कारों की इस दयनीय स्थिति के लिए खुद हिंदी के लेखक और उनकी पुरस्कार पिपासा जिम्मेदार हैं । कुछ खुदरा पुरस्कार तो ऐसे हैं जो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन मांगते हैं । हिंदी के पुरस्कार पिपासु लेखक बड़ी संख्या में इस तरह के पुरस्कारों के लिए आवेदन करते हैं । हिंदी के हमारे लेखक यह सोच ही नहीं पाते हैं कि पुरस्कार एक सम्मान है नौकरी नहीं कि बैंक ड्राफ्ट के साथ उसके लिए आवेदन किया जाए । यह एक ऐसी स्थिति है जो पुरस्कार का कारोबार करनेवालों के लिए एक सुनहरा अवसर मुहैया करवाती है, लाभ कमाने का । हिंदी में ज्यादातर पुरस्कारों की राशि इक्कीस सौ से लेकर इक्यावन सौ रुपए तक है । कइयों में तो सिर्फ शॉल श्रीफल से भी काम चलाया जा रहा है । हिंदी में कई पुरस्कारों की आड़ में खेल भी होते हैं जो साहित्य जगत के लिए शर्मनाक है । दरअसल हिंदी के नए लेखकों में प्रसिद्ध होने की हड़बड़ाहट और पुराने लेखकों में पुरस्कार लेने की होड़, इस कारोबार को को बढ़ावा देती है । नई पीढ़ी के लेखकों में एक और प्रवृत्ति रेखांकित की जा सकती है वह है - जल्दबाजी, धैर्य की कमी, कम वक्त में सारा आकाश छेक लेने की तमन्ना और वह भी किसी कीमत पर । सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास मुझे चांद चाहिए की नायिका सिलबिल की तरह । इस प्रवृत्ति को भांपते हुए पुरस्कारों के कारोबारी अपनी बिसात बिछाते हैं औपर नए लेखकों को उसमें फांसते हैं । जल्द मशहूर होने की होड़ में युवा लेखक इस जाल में फंस जाते हैं । हिंदी के लेखकों में मशहूर होने की जितनी ललक है उतनी ही साहस की भी कमी है । आज अगर हम देखें तो हिंदी जगत में किसी भी मसले पर अपनी राय रखनेवाला लेखक नजर नहीं आता । स्टैंड लेने और उसपर अंत तक कायम रहने की बात तो दूर । छोटे लाभ लोभ के चक्कर में अपने घोषित स्टैंड से पलटने के कई उदाहरण हैं । ताजा उदाहरण तो महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलति के विवादास्पद इंटरव्यू पर उठा हंगामा था । विभूति नारायण राय और नया ज्ञानोदय के खिलाफ प्रदर्शनकारी एक एक करके छिटकते चले गए । नारे लगाने वाले विरुदावली गाते नजर आए । इससे उनकी साख भी कम होती है । स्टैंड लेने की इस प्रवृत्ति को रेखांकित करना इसलिए जरूरी है कि इससे पता चलता है कि हमारे लेखकों में अस्वीकार का साहस नहीं है । बड़े से बड़ा लेखक छोटे से छोटे पुरस्कार के लिए स्वीकृति दे देते हैं । साहित्यप्रेमा पाठक जब इस स्थिति को देखता है तो उसके मन में लेखक की प्रतिष्ठा को लेकर सवाल खड़े हो जाते हैं । उनको लगता है कि अपनी लेखनी में तमाम तरह के आदर्शों की बात करनेवाला लेखक दरअसल व्यवहार में कितना छोटा है । मुझे लगता है कि पाठकों के मन में लेखकों के प्रति जो एक विश्वास हुआ करता था वो कहीं ना कहीं इस तरह के पुरस्कारों से दरकता है । यह हिंदी के लिए अप्रिय स्थिति है और जितनी जल्दी इससे उबर सकें उतना अच्छा होगा लेखक के लिए भी और साहित्य के लिए भी ।
हिंदी समाज की नजरों से यह सब छप नहीं पाता है । हिंदी में पुरस्कारों के इस कारोबार पर बड़े लेखकों की चुप्पी साहित्य के लिए अच्छा नहीं है । हिंदी के हित में यह अच्छा होगा कि लेखकगण पुरस्कृत होने की जद्दोजहद में वक्त जाया नहीं करके अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने का काम करें ।


Thursday, November 6, 2014

संघ का यूपी-बिहार प्लान

वीर सावरकर ने एक बार खफा होकर लिखा था कि संघ के स्वयंसेवकों की समाधि पर लगे पत्थर पर लिखा होगा ये पैदा हुआ, इसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ज्वाइन किया और इसकी मृत्यु हो गई । दरअसल वीर सावरकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से इस बात को लेकर खफा थे कि संघ उनकी राजनीतिक गतिविधियों में मदद नहीं कर रहा था । हलांकि काफी वर्षों बाद सावरकर ने ये माना था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का राजनीति में नहीं जाने का फैसला अच्छा और सही था । इसी तरह से इकतीस जनवरी 1934 को कांग्रेस के खजांची और मशहूर उद्योगपति जमनालाल बजाज जब गणपत राव की मार्फत डॉ हेडगवार से मिले और उनसे कांग्रेस की छतरी तले काम करने का अनुरोध किया । डॉ हेडगवार ने जमनालाल जी के प्रस्ताव पर कहा कि वो ऐसे स्वयंसेवक तैयार करना नहीं चाहते जो नेताओं की राजनीति के लिए इस्तेमाल हों । वक्त के साथ हालात बदले और संघ की सोच भी बदलती चली गई । संघ और राजनीति का साथ तो 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना के साथ ही शुरू हो गया था लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान तमाम तरह की हिचक भी खत्म हो गई । पहले संघ के लोग कहते थे कि संघ का राजनीति से कोई लेना देना नहीं है लेकिन अब इस तरह के बयान सुनने में नहीं आ रहे ।  संघ अब भी मूलत: एक सांस्कृतिक संगठन है जो देश के नागरिकों के चरित्र निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन अब वो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सत्ता और शासन का इस्तेमाल भी करने में परहेज नहीं करता है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को करीब से जानने वाले या संगठन के क्रियाकलापों पर नजर रखनेवाले यह जानते हैं कि संघ प्रमुख नागपुर के अलावा किसी एक स्थान पर ज्यादा वक्त तक नहीं रुकते हैं । पिछले दिनों लखनऊ में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हफ्ते भर से अधिक वक्त बिताया । क्यों । यह जानना दिलचस्प है । सतह पर जो जानकारी तैर रही थी वो यह थी कि लखनऊ में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की बैठक थी लिहाजा संघ प्रमुख वहां थे । यह देखा गया है कि इस तरह की बैठकों के दौरान संघ प्रमुख इतने लंबे वक्त तक उस स्थान पर टिकते नहीं है । लखनऊ में संघ प्रमुख का टिकना वृहत्तर संघ परिवार के मिशन यूपी और अविभाजित बिहार का हिस्सा था । यूपी में लोकसभा चुनाव में बंपर सफलता के बाद संघ और बीजेपी का अगला लक्ष्य सूबे में सरकार बनाना है । यूपी में करीब ढाई साल बाद चुनाव होना है । उस चुनाव की रणनीति बननी शुरू हो गई है । इसके अलावा अगले साल बिहार में और अगले महीने झारखंड में भी चुनाव है । इन राज्यों में संघ के कार्यकर्ता पिछले कई सालों से सक्रिय हैं लेकिन पिछले एक दशक में इस सक्रियता में कमी देखने को मिली । नब्बे के दशक में जब से बिहार और उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय के आंदोलन को मजबूती मिलनी शुरू हुई तो संघ की शाखाओं में स्वयंसेवकों की संख्या में कमी आने लगी ।
अब लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मिली सफलता से संघ नेतृत्व भी खासा उत्साहित है । इस लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने जात-पात से उपर उठकर वोट दिया। सामाजिक न्याय और दलितों की राजनीति करनेवाली पार्टियां बुरी तरह से परास्त हुई । इन पार्टियों की इसी पराजय में संघ को संभावना नजर आ रही है । इसी संभावना को हकीकत में बदलने के लिए संघ पूरी तौर पर सक्रिय है । इसी कड़ी में यूपी से ताल्लुक रखनेवाले कृष्ण गोपाल को संघ और बीजेपी के बीचत के समन्वय का काम सौंपा गया है । संघ ने 2012 में ही ये भांप लिया था कि बगैर उत्तर प्रदेश और बिहार पर कब्जा किए देश की राजनीति पर पकड़ मजबूत नहीं की जा सकती है । जनवरी 2012 में संगम पर मोहन भागवत ने संघ के दरवाजे सबके लिए खुले होने की बात कहकर सभी जातियों को संकेत दिया था । उसी साल मोहन भागवत ने लखनऊ के प्रबुद्ध वर्ग के लोगों के साथ मुलाकात कर उनकी राय ली थी । जानकारों का कहना है कि दो हजार बारह से संघ ने जो मिशन यूपी शुरू किया था उसका लाभ 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान देखने को मिला । अब एक बार फिर से संघ ने मिशन यूपी पार्ट टू शुरू किया है लेकिन इस बार यूपी के साथ साथ उसके एजेंडे पर बिहार और झारखंड भी है । लखनऊ में केंद्रीय कार्यकारिणी मंडल की बैठक में संघ ने आतंकवाद, धर्मांतरण और सुरक्षा जैसे मुद्दों की बजाए स्वच्छता, पर्यावरण और कम्युनिटी लीविंग जैसे विषयों को अपने एजेंडे में शामिल किया । ये ऐसे मुद्दे हैं जो सीधे सीधे जनता से जुड़ते हैं । इतिहास गवाह है कि इन मुद्दों को उठानेवाले नेताओं और संगठनों को व्यापक जनस्वीकार्यता मिली है। संघ ने इसी जनस्वीकार्यता को बढ़ाने के लिए दलितों और पिछडो़ं के बीच समरसता बढ़ाने पर भी जोर दिया । मोहन भागवत ने साफ कहा कि जब तक समाज साथ में खड़ा नहीं होगा, नेता, नारा, पार्टी, सरकार और चमत्कार से समाज का भला नहीं हो सकता । इसी वाक्य के मद्देनजर संगठन के विस्तार को मजबूती देने और विवादास्पद मुद्दे को ठंडे बस्ते में रखने का निर्णय लिया । यह अकारण नहीं कि राम मंदिर के मुद्दे को राष्ट्र का मुद्दा बताकर हल्का कर दिया गया और यह तय किया गया कि केंद्र की सरकार के लिए फिलहाल मुसीबत नहीं खड़ा करना है । मिशन यूपी और बिहार की सफलता के लिए एक बार संघ की सक्रियता बीजेपी को सांगठवनिक तौर पर मजबूती दे सकती है । परिणाम तो जनादेश से पता चलेगा ।  

Sunday, November 2, 2014

साहित्यकार का अकेलापन

दिल्ली स्थित हिंदी भवन का सभागार । तिथि अट्ठाइस अक्तूबर 2014। वक्त शाम के करीब साढे सात बजे । मौका हिंदी के मशहूर साहित्यकार राजेन्द्र यादव की पहली पुण्य तिथि पर स्मरण आयोजन । कार्यक्रम के खत्म होने के बाद तमाम साहित्यप्रेमी बाहर लॉबी में एक दूसरे से बातें कर रहे थे । वहीं नामवर जी भी खड़े थे और लोगों का अभिवादन स्वीकार करते हुए आशीर्वाद दे रहे थे । कुछ साहित्यप्रेमी नामवर जी के साथ सेल्फी ले रहे थे तो कुछ लोग उनको किसी कार्यक्रम आदि में आने का निमंत्रण दे रहे थे । किसी बात पर अचानक से नामवर जी ने कहा कि इस वक्त उनसे ज्यादा अकेला कौन है । नामवर जी ने पता नहीं किस रौ में ये बात कही । उनके इस कथन से मेरे जेहन में पूरे हिंदी साहित्य के अस्सी पार लेखकों का अकेलापन और उसका दंश एक झटके से कौंध गया । नामवर जी ने जब अकेलेपन की बात की तो साहित्यक पत्रिका पाखी के युवा संपादक की नई किताब हाशिए पर हर्फ का एक लेख स्मरण हो आया। अपनी इस नई किताब में प्रेम भारद्वाज ने आलोचक के अकेलेपन के बहाने से नामवर जी के व्यक्तित्व की गांठें खोलने की कोशिश की है । अपने उस लेख में प्रेम भारद्वाज ने नीत्से को उद्धृत कर कहा है कि आदमी अंतत: अकेला होता है । उसी लेख में प्रेम भारद्वाज ने नामवर सिंह के एक भाषण को उद्धृत किया है । आलोचना का भविष्य विषय पर बोलते हुए उक्त भाषण की शुरुआत नामवर सिंह ने अज्ञेय की कविता से की थी- एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूं /मैं केवल उस खंभे से इस खंभे तक दौड़ता हूं / कि इस या उस खंभे से रस्सी खोल दूं/ कि तनाव चूके ढीले, मुझे छुट्टी हो जाए / पर तनाव ढीलता नहीं / और इस खंभे से उस खंभे तक दौड़ता / पर तनाव वैसे ही बना रहता है / सबकुछ वैसा हीबना रहता है / और मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं / मुझे नहीं । रस्सी को नहीं / खंभे को नहीं / रोशनी को नहीं । तनाव को नहीं / देखते हैं नाच । अज्ञेय की इस कविता के बहाने नामवर जी ने अपने दर्द को तो सामने रखा ही अपनी पूरी पीढ़ी के दंश को संकेतों में उजागर कर दिया । नामवर सिंह हिंदी के वो हिरामन हैं जिनके आसपास भी इस वक्त कोई दूसरा दिखाई नहीं देता है । उम्र के इस पड़ाव पर काल से होड़ लेता हिंदी आलोचना का ये शिखर शख्सियत बिल्कुल अकेला है । अकेलेपन के दंश को झेलते हुए भी अपने आप को साहित्य की सेवा में होम कर रहा है । नामवर जी दिल्ली में अकेले रहते हैं और उनका सबसे बड़ा साथी किताबें और पत्र पत्रिकाएं है । नामवर जी ने कभी कहा था कि मामला मरजादका है इसलिए मुंह नहीं खोल सकता । हमें नामवर जी के उस मरजादका सम्मान करना चाहिए । लेकिन हम वृहद हिंदी समाज की कृतघ्नता पर तो सवाल खड़े कर ही सकते हैं । नामवर जी के नहीं लिखने पर सवाल खड़े वालों को नामवर जी के योगदान का ना तो अंदाज है और ना ही उनके कामों का ज्ञान । जिस तरह से लगभग दो दशक से वो अपने भाषणों से नई पीढ़ी को हिंदी में संस्कारित कर रहे हैं वह अद्धितीय है । नामवर जी आज हिंदी के धरोहर हैं उनको संभाल कर रखने की जिम्मेदारी पूरे हिंदी जगत की है। दिल्ली में रहते हुए भी अगर आज हिंदी का सबसे बड़ा आदमी अपने अकेलेपन की बात करता है तो यह गंभीर चिंता का विषय है ।
दरअसल अगर हम हिंदी के साहित्य समाज को देखें तो उसमें वरिष्ठ लेखकों के प्रति एक उपेक्षा का भाव दिखाई देता है, खासकर महानगर में रहनेवाले साहित्यकार महानगरीय व्यस्तता के बहाने से वरिष्ठ लेखकों की उपेक्षा कर जाते हैं । यह हमारे समाज के पश्चिमीकरण होने का एक संकेत है जहां संबंधों की गरमाहट या उष्मा स्वार्थ या डॉलर की गरमाहट से तय होती है । हिंदी समाज हमेशा से संयुक्त परिवार की तरह रहा है जहां हम अपने बुजुर्गों का ना केवल सम्मान करते हैं बल्कि उनकी हर जरूरतों का ध्यान भी, मौके बेमौके उनसे सलाह मशविरा भी लेते रहते हैं । हिंदी साहित्य का जो हमारा महानगरीय समाज है वो अपने वरिष्ठ और बुजुर्ग लेखकों को अकेलेपन के बियावान में छोड़ देता है । एक बार राजेन्द्र यादव से मैंने पूछा था कि उन्हें कभी अकेलापन नहीं लगता है । जोरदार ठहाके के बाद उन्होंने कहा था कि मैं तो हर रोज अकेलेपन से होड़ लेता रहता हूं । उनके ठहाके के पीछे के अकेलेपन को उस वक्त मैंने महसूस किया था । अकेलेपन से उसी होड़ का नतीजा था कि यादव जी ने अपने आप को युवाओं से जोड़ लिया था । अकेलेपन की इसी होड़ की वजह से वो काल से होड़ लेने लगे । उन्होंने युवाओं में अपने आपको इतना रमाना शुरू कर दिया कि वो गाहे बगाहे विवाद की वजह बनने लगे । अपने जीवन के अंतिम क्षण तक वो विवादित बने रहकर अकेलेपन को परास्त करते रहे थे। अकेलेपन से होड़ लेने की जिद में वो काल से होड़ नहीं ले पाए । दरअसल अगर हम मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो अकेलापन एक बहुत ही जटिल मानसिक स्थिति है । मनोविज्ञान के मुताबिक अकेलेपन का दंश भीड़ में रहने के बावजूद महसूस किया जा सकता है । ऐसा भी नहीं है कि जो शख्स सफलता की बुलंदियां हासिल कर लेता है वो अकेलेपन का शिकार नहीं होता है । शिखर पर पहुंचनेवाला और दुनियाके तमाम सुख सुविधाओं का उपभोग करनेवाला भी अकेला हो सकता है । इस अकेलेपन में अगर अपने समाज की उपेक्षा भी शामिल हो जाए तो फिर वह घातक हो सकती है । मनोविज्ञान के अलग अलग शोध में यह नतीजा निकला है कि एक खास प्रकार के समूह में रहते भी अगर कोई व्यक्ति अकेलापन महसूस करता है तो इस बात की संभावना रहती है कि उस समूह के अन्य सदस्य भी उसका शिकार हो जाएं । इस तरह से इसके फैलने की आशंका ज्यादा रहती है ।

यह सिर्फ नामवर सिंह या राजेन्द्र यादव का मसला नहीं है, यह अस्सी पार लेखकों के पूरे समनूह का मामला है, चाहो वो दिल्ली में रह रहे हैं या देश के अलग अलग शहरों में । आज अगर हम हिंदी साहित्य जगत को देखें तो सिर्फ दिल्ली में अस्सी पार के बारह चौदह लोग इस वक्त हैं । यह दिल्ली के हिंदी समाज के लिए गौरव की बात है कि एक साथ इतने वरिष्ठ लोगों का सानिध्य यहां के साहित्य समाज को हासिल है । केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, गोपाल राय, द्रोणवीर कोहली जैसे तमाम लेखक दिल्ली और आसपास रहते हैं लेकिन नई पीढ़ी में उनको लेकर उत्साह नहीं बल्कि उपेक्षा का भाव दिखाई देता है । इन वरिष्ठ साहित्यकारों से सीखने की बजाए कुछ नए लेखक इनपर कीचड़ उछालकर अपनी प्रसिद्धि का रास्ता तलाश रहे हैं। बड़े साहित्यकारों की आलोचना या उनपर साहित्यक हमले कर मशहूर होने की ललक हाल में थोड़ी कम हुई है । राजेन्द्र यादव की पहली पुण्य तिथि पर हुए आयोजन में तीस पैंतीस लोगों का जुटना वरिष्ठ लेखकों के प्रति साहित्य समाज की उपेक्षा का सूचक है । उस समारोह में नामवर सिंह ने इस ओर इशारा भी किया । उन्होंने उपस्थित लोगों को राजेन्द्र यादव से सच्चा प्यार करनेवाला करार दिया तो कम उपस्थिति पर हैरानी जताई । हमें अपने बुजुर्ग साहित्यकारों को कदम कदम पर एहसास करवाना होगा कि वो हमारे लिए अहम हैं । हम हिंदी के नए पाठक तैयार करने में इन बुजुर्ग लेखकों का इस्तेमाल कर सकते हैं जिसकी कोई पहल दिखाई नहीं देती है । कोई ऐसा आयोजन नहीं होता जहां इन लेखकों के अनुभवों से नई पीढ़ी को लाभ मिल सके । साहित्य समाज इनका उपयोग नहीं कर पा रहा है । वो अपने घर में रहने और वहीं से साहित्य को ओढते बिछाते अकेलेपन से संघर्ष करते रहते हैं । अस्सी पार लेखकों के अलावा दिल्ली में इस वक्त सत्तर और अस्सी के बीच भी दर्जन भर लेखक हैं । उनसे भी नई पीढ़ी को साहित्य में दीक्षित करवाने का काम किया जा सकता है । इस वय के धवलकेशी साहित्यकारों में अशोक वाजपेयी और गंगाप्रसाद विमल ने कार्यक्रमों आदि में अपनी भागीदारी से खुद को प्रासंगिक बनाया हुआ है । लेकिन ये इन दोनों का व्यक्तिगत प्रयास है। आज अब जरूरत इस बात की है कि हम अपने बुजुर्ग साहित्यकारों को सम्मान देने के अलावा उनका साथ भी दें । उन्हें हम अपने कार्यों में सहभागी बनाएं और उन्हें अकेलेपन के जबड़े से बाहर निकालने का श्रम करें । सरकारी संस्था और मृतप्राय लेखक संगठनों से यह अपेक्षा करना व्यर्थ है । साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएं इस दिशा में निजी संस्थाओं को जोड़कर सार्थक पहल कर सकती हैं । अगर ऐसा हो पाता है तो हम हिंदी का एक नया समाज गढ़ सकेंगे ।  

Saturday, November 1, 2014

'पुष्प' को श्रद्धांजलि

बिहार का शहर मुंगेर सिर्फ कर्णचौड़ा और मीर कासिम के किले के लिए ही मशहूर नहीं है । यह शहर सिर्फ शक्ति पीठ चंडीस्थान के लिए भी मशहूर नहीं है । ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व होने के साथ साथ इस शहर का साहित्यक महत्व भी है । इस शहर ने भारतीय साहित्य को कई मशहूर लेखक और साहित्य प्रेमी भी दिए हैं । इन साहित्यकारों में हिंदी के मशहूर कवि आलोक धन्वा, जाबिर हुसैन से लेकर इस वक्त के मशहूर गजलकार अनिरुद्ध सिन्हा तक यहीं के हैं । मुंगेर और इससे सटे शहर जमालपुर में साहित्य और साहित्कारों की एक लंबी परंपरा रही है । हिंदी में फिल्म समीक्षा के लिए अब तक सिर्फ दो समीक्षकों को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला है । एक ब्रजेश्वर मदान को और दूसरा जमालपुर के विनोद अनुपम को । इन दोनों जुड़वां शहरों की फिजां में साहित्य है । अभी हाल ही में मुंगेर से ताल्लुक रखनेवाले हिंदी के वरिष्ठ लेखक रॉबिन शॉ पुष्प का निधन हो गया । मेरे जानते रॉबिन शॉ पुष्प फादर कामिल बुल्के के बाद बिहार में सक्रिय दूसरे ऐसे हिंदी साहित्यकार थे जो क्रिश्चियन थे । बाबवजूद इसके इन दोनों ने हिंदी में विपुल लेखन किया और अपने योगदान से हिंदी को समृद्ध भी किया। मेरा षहर जमालपुर है और मेरे पड़ोस के शहर के रहनेवाले रॉबिन शॉ पुष्प से मैं एक या दो बार ही मिल पाया क्योंकि जब मैं अस्सी के दशक के आखिरी वर्षों में अपनी पढ़ाईे के लिए मुंगेर आना जाना शुरू किया तबतक संभवत पुष्प जी पटना शिफ्ट हो चुके थे । पुष्प जी से मेरी मुलाकात पटना में हुई । ठीक से याद नहीं है कि यह मुलाकात कहां हुई थी लेकिन उनकी आत्मीयता की स्मृति मेरे मानस पटल पर अब भी अंकित है । उनके कंधे तक बढ़े हुए धवल केश उनके व्यक्तित्व को सुदर्शन बनाते थे । तकरीबन बीस साल पहले हुई इस मुलाकात की एक और अहम बात याद है कि पुष्प जी ने मुझसे मेरे लेखन के बारे में पूछके बाद कहा था कि लेखन ऐसा होना चाहिए जिसे पाठकों का प्यार और विश्वास हासिल हो सके । मुझे यह लगा था कि वो इस बात को लेकर थोड़े चिंतित ते कि हिंदी का लेखक पाठक को अपेक्षित तवज्जो नहीं दे रहा है । उनकी चिंता जायज भी थी । कालांतर में हिंदी के लेखकों से पाठकों का भरोसा कम हुआ । मुझे लगता है कि हिंदी के अभी के लेखकों के लिए पुष्प जी की ये बात काफी है और उनको इसपर ध्यान देना चाहिए ।

रॉबिन शॉ पुष्प मूलत कथाकार थे और उन्होंने आधा दर्जन से ज्यादा उपन्यास लिखे और तकरीबन उनके इतने ही कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । उन्होंने कुछ लघु फिल्मों का निर्माण और लेखन भी किया । अभी हाल ही में उनके लेखन का समग्र भी प्रकाशित हुआ था । पचास के दशक से रॉबिन शॉ पुष्प कथा लेखन में सक्रिय रहे और हिंदी के तमाम पत्र पत्रिकाओं में छपते रहे । उनकी कई कहानियों में भारतीय ईसाई समाज की समस्याओं और उनके जीवन को उभारती थी । फणीश्वर नाथ रेणु पर लिखा उनका संस्मरण रेणु-सोने की कलम वाला हिरामन बेहद चर्चित रहा था और पाठकों ने उसे खूब सराहा था ।   बीस दिसंबर उन्नीस सौ चैंतीस को बिहार के मुंगेर में जन्मे रॉबिन शॉ पुष्प ने पटना में 30 अक्तूबर को अंतिम सांस ली । पुष्प जी अपने जीवन के अंतिम दिनों तक सक्रिय रहे । हिंदी के इस वरिष्ठतम लेखक को सच्ची श्रद्धांजलि ये होगी जब लेखक लिखते वक्त पाठकों का भरोसा हासिल करने की बात अपने जेहन में रखेंगे ।