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Saturday, October 31, 2020

विसंगतियों की जकड़न में फिल्म विभाग


कोविड काल में कई महीनों तक सिनेमा हॉल बंद रहने के बाद जब खुला तो एक दिन सोचा कि फिल्म देखने चला जाए। पहुंचा। कम लोग थे। थोड़े इंतजार के बाद फिल्म का प्रदर्शन शुरू हुआ। फिल्म के पहले कुछ विज्ञापन भी चले। राष्ट्रगान भी हुआ। राष्ट्रगान खत्म हुआ तो दिमाग में एक बात कौंधी। कई साल पहले सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने के पहले फिल्म प्रभाग, भारत सरकार की शॉर्ट फिल्में चला करती थीं। इन फिल्मों में भारत सरकार की उपलब्धियों का बखान होता था। देश के प्रधानमंत्री के कामों को उनके देश विदेश के दौरों को दिखाया जाता था। अगर वो किसी महत्वपूर्ण इमारत का शिलान्यास आदि करते थे को उसको भी इन फिल्मों में दिखाया जाता था। सिर्फ सिनेमाघरों में ही नहीं बल्कि विद्यालयों आदि में जब साप्ताहिक फिल्मों का प्रदर्शन होता था तब भी फिल्म प्रभाग की ये छोटी फिल्में चला करती थीं। ये वो दौर था जब स्कूलों में छात्रों को हर महीने के तीसरे या चौथे शुक्रवार को फिल्में दिखाई जाती थीं। भारत सरकार का फिल्म प्रभाग ही इसका आयोजन करती थी और स्कूलों में पर्दा और प्रोजेक्टर लगाकर फिल्में दिखाई जाती थीं। फिल्मों के पहले दिखाई जाने वाली फिल्म प्रभाग की ये छोटी छोटी प्रमोशनल फिल्में इस तरह से पेश की जाती थीं कि दर्शकों को लगता था कि उसमें दिखाई जानेवाली उपलब्धियां देश की हैं। जबकि परोक्ष रूप से वो उस समय के प्रधानमंत्रियों की छवि चमकाने का काम करती थी।

महेन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा’ में लिखा है, ‘सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म्स डिवीजन की स्थापना 1948 में हुई। फिल्म्स डिवीजन उस समय शायद दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक केंद्र था जिसमें समाचार और अन्य राष्ट्रीय विषयों पर वृत्तचित्र बनाए जाते थे। ये वृत्तचित्र, समाचार चित्र और लघु फिल्में पूरे देश में प्रदर्शन के लिए बनती थीं। प्रत्येक फिल्म की नौ हजार प्रतियां बनती थीं जिनकी संख्या कभी कभी चालीस हजार तक पहुंच जाती थीं। ये भारत की तेरह प्रमुख भाषाओं और अंग्रेजी में पूरे देश में सभी सिनेमाहॉलों में मुफ्त प्रदर्शित की जाती थीं। समाचर चित्रों और लघु फिल्मों एवं वृत्तचित्रों का परोक्ष रूप से दर्शकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा जिसने उनकी रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।‘  

दर्शकों पर व्यापक प्रभाव और रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका की बात, हो सकता है, महेन्द्र जी सिनेमा के संदर्भ में कह रहे हों लेकिन इस बात पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि इन लघु फिल्मों के माध्यम से राजनीतिक हित कितने सधे। किसके सधे। जब फिल्म प्रभाग की न्यूज रील चला करती थी और नेहरू जी, इंदिरा जी और राजीव जी के सर भारत की तमाम उपलब्धियों का सेहरा बंधता था तो दर्शकों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता होगा। स्कूली छात्रों पर उसका कितना और कैसा प्रभाव पड़ता होगा। किस तरह से राजनीतिक रुचि बदलती होगी?  फिल्म प्रभाग की स्थापना तो इस उद्देश्य से की गई थी कि ये देश में फिल्मों की संस्कृति को विकसित और मजबूत करेगा। लेकिन अपनी स्थापना के शुरुआती दिनों से लेकर उदारीकरण के दौर शुरू होने से पहले तक इसने अपनी ज्यादा ऊर्जा प्रधानमंत्रियों के पब्लिसिटी विभाग के तौर पर काम करने में लगाया। 1991 में जब देश में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो प्रचार के माध्यमों का स्वरूप भी बदलने लगा। प्रचार के अन्य माध्यम सामने आए तो फिल्म प्रभाग में बनने वाले वृत्तचित्र या समाचार चित्र देश के सिनेमा घरों में कम दिखने लगे। ऐसा प्रतीत होने लगा कि इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों से तालमेल बिठाने में फिल्म प्रभाग पिछड़ गया। बावजूद इसके फिल्म्स डिवीजन अब भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वतंत्र विभाग के तौर पर काम कर रहा है।

फिल्म प्रभाग की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक मुंबई मुख्यालय के अलावा दिल्ली, कोलकाता और बेगलुरू में भी इसकी शाखाएं हैं। यहां अब भी दावा किया जा रहा है कि पूरे देश के सिनेमाघरों में लघु फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है। इसके अलावा ये प्रभाग डॉक्यूमेंट्री, शॉर्ट और एनिमेशन फिल्मों के लिए द्विवार्षिक मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन भी करता है। इसके अलावा पूरे देश में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करना भी इसका एक दायित्व है। इस संस्था का बजट देखने पर पता चलता है कि वित्त वर्ष 2019-20 में केंद्रीय स्कीम के लिए 7.7 करोड़, कर्मचारियों के वेतन पर 41.5 करोड़ और नेशनल म्यूजियम ऑफ इंडियन सिनेमा को चलाने के लिए 2.98 करोड़ रु का प्रावधान रखा गया है। करीब 52 करोड़ रुपए के बजट वाले इस विभाग में कई काम ऐसे हो रहे हैं जो इसी मंत्रालय के दूसरे विभाग में भी हो रहे हैं। जैसे उदाहरण के लिए अगर हम देखें तो फिल्म प्रभाग भी फिल्मों का निर्माण करता है और राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम और चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी भी फिल्मों का निर्माण करती है। फिल्म प्रभाग भी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करता है, चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी भी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करती है और फिल्म फेस्टिवल निदेशालय भी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करता है। कई एक जैसे काम हैं जो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अलग अलग विभाग करते हैं।

दरअसल अगर हम इसपर विचार करें तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्मों से सबंधित कई विभाग ऐसे हैं जिनका गठन उदारीकरण के दौर के पहले हुआ था। उस समय की मांग के अनुसार उनके दायित्व तय किए गए थे। समय बदलता चला गया, सिनेमा के व्याकरण से लेकर उसके तकनीक तक में आमूल चूल बदलाव आ गया लेकिन फिल्मों से संबंधित इन संस्थाओं में अपेक्षित बदलाव नहीं हो पाया। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तो उस समय भारत सरकार की एक समिति ने इन संस्थाओं में युक्तिसंगत बदलाव की सिफारिश की थी पर उसके बाद कुछ हो नहीं सका। यूपीए के दस साल के शासनकाल में सबकुछ पूर्ववत चलता रहा। 2016 में नीति आयोग ने फिर से इन संस्थाओं के क्रियाकलापों को लेकर कुछ सिफारिशें की थीं। फिर 2017 के अंत में इस तरह की खबरें आईं कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय अपने विभागों के कामकाज को युक्तिसंगत बनाने जा रहा है। फिर कई महीने बीत गए। पिछले साल ये खबर आई कि पूर्व सूचना और प्रसारण सचिव विमल जुल्का की अगुवाई में फिल्म से जुड़े लोगों की एक समिति बनाई गई, राहुल रवैल भी उसके सदस्य थे। उनकी सिफारिशें भी आ गईं। लेकिन उन सिफारिशों का क्या हुआ अबतक सार्वजनिक नहीं हुआ है। सभी विभाग पूर्ववत चल रहे हैं।

दरअसल सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत चलनेवाले और फिल्मों से जुड़े कई विभागों में बेहतर तालमेल की तो जरूरत है ही, उनके कार्यों को भी समय के अनुरूप करने की आवश्यकता है। अब तो फिल्मों का स्वरूप और बदल रहा है। कोविड की वजह से ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) लोकप्रिय हो रहे हैं। सिनेमाघरों में लोगों की उपस्थिति कम है। कोविड के भय से मुक्ति के बाद भी ओटीटी की लोकप्रियता कम होगी इसमें संदेह है। बदलते तकनीक की वजह से भी फिल्मों का लैंडस्केप बदलेगा। फिल्म संस्कृति को मजबूती देने और विदेशों में भारतीय फिल्मों को पहचान दिलाने के उद्देश्यों पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।यह तभी संभव है जब मंत्रालय के स्तर पर पहल हो, योजनाएं बनें और उसको यथार्थ रूप देने के लिए उन लोगों का चयन किया जाए जो फिल्मों से जुड़े हों। पिछले दिनों फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे में शेखर कपूर की नियुक्ति सही दिशा में उठाया गया एक कदम है। रचनात्मक कार्य के लिए रचनात्मक लोगों को चिन्हित करके उनको सही जगह देना और राजनीति और लालफीताशाही से मुक्त करना सरकार का प्रमुख दायित्व है।  

Saturday, October 24, 2020

फिर विवादों के भंवर में महेश भट्ट


हिंदी फिल्म जगत और ड्रग्स का मामला थमता नजर नहीं आ रहा है। अभी सुशांत सिंह राजपूत के केस में ड्रग्स का मामला उछला था और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने दीपिका पादुकोण समेत कई अभिनेत्रियों से घंटों तक पूछताछ की थी। अभी ये मामला शांत भी नहीं हुआ था कि एक दूसरे मामले में निर्देशक महेश भट्ट का नाम ड्रग्स के आरोपों से जुड़ गया है। फिल्म ‘कजरारे’ की अभिनेत्री लवीना लोध ने एक मिनट अड़तालीस सेंकेंड का एक वीडियो जारी कर महेश भट्ट पर सनसनीखेज आरोप लगाया है। लवीना ने इंस्टाग्राम पर पोस्ट विडियो में कहा है कि ‘मेरी शादी महेश भट्ट के भांजे सुमित सभलवाल के साथ हुई थी और मैंने उनके खिलाफ डायवोर्स केस फाइल किया है क्योंकि मुझे पता चल गया था कि वो ड्रग सप्लाई करते हैं एक्टर्स को...उनके फोन में भी अलग अलग किस्म की लड़कियों की तस्वीरें होती हैं जो वो डायरेक्टर्स को दिखाते हैं...और इन सारी बातों की जानकारी महेश भट्ट को है। महेश भट्ट सबसे बड़ा डॉन है इंडस्ट्री का। ये पूरा सिस्टम वही ऑपरेट करता है और अगर आप उनके हिसाब से नहीं चलते हैं तो वो आपका जीना हराम कर देते हैं। महेश भट्ट ने कितने लोगों की जिंदगी बर्बाद कर दी है, कितने एक्टर्स, डायरेक्टर्स को उन्होंने काम से निकाल दिया है, वो एक फोन करते हैं पीछे से और लोगों का काम चला जाता है। लोगों को पता भी नहीं चलता है। ऐसे उन्होंने बहुत जिंदगियां बर्बाद की हैं। और जबसे मैंने उनके खिलाफ केस फाइल किया है वो हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ गए हैं। अलग अलग तरीके से मेरे घर में घुसने की कोशिश कर रहे हैं, पूरी कोशिश की उन्होंने मुझे इस घर से निकालने की। जब मैं पुलिस स्टेशन में शिकायत (एनसी) लिखाने जाती हूं तो कोई मेरी शिकायत भी नहीं लेता। बहुत मुश्किल के बाद अगर मैं शिकायत लिखा भी देती हूं तो कोई एक्शन नहीं होता।‘ लवीना लोध यहीं पर नहीं रुकती हैं और वो ये भी कहती हैं कि अगर कल कोई हादसा उनके या उनके परिवार के साथ होता है तो सिर्फ महेश भट्ट, मुकेश भट्ट सुमित सभरवाल, आदि उसके लिए जिम्मेदार होंगे। लवीना का कहना है कि वो ये वीडियो इस लिए भी बना रही हैं कि लोगों को पचा चले कि बंद दरवाजे के पीछे इन लोगों ने कितनी जिंदगियां बर्बाद की हैं और ये क्या क्या कर सकते हैं। वो अपनी बात इस वाक्य पर खत्म करती हैं कि महेश भट्ट बहुत ही ताकतवर और प्रभावशाली हैं। अगर एक मिनट को इसको पारिवारिक कलह भी मान लिया जाए तो इसमें जो ड्रग्स की बात सामने आ रही है या अन्य आरोप लगे हैं उसकी जांच तो की जा सकती है। लवीना ने तो जिन एक्टर्स को ड्रग्स की सप्लाई की जाती है उनके नाम भी इस वीडियो में लिए हैं। 

सुशांत सिंह राजपूत के केस में रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी भी आरोपों के आधार पर ही हुई थी। दीपिका पादुकोण, श्रद्धा कपूर, सारा अली खान और रकुलप्रीत जैसी मशहूर अभिनेत्रियों से घंटों पूछताछ भी सिर्फ आरोपों के आधार पर हुई थी। ऐसे में सवाल उठता है कि जिस तत्परता के साथ नारकोटिक्स कंट्रोल बोर्ड ने इतनी मशहूर और प्रतिष्ठित अभिनेत्रियों से पूछताछ की थी वैसी ही सक्रियता लवीना के आरोपों पर भी दिखाई जाएगी? अगर ये नहीं होता है तो क्या ये माना जाए कि अभिनेत्री लवीना की उन बातों में दम है कि महेश भट्ट बेहद ताकतवर और प्रभावशाली हैं। महेश भट्ट पहले भी कई तरह के व्यक्तिगत और अन्य विवादों में घिरते रहे हैं। अगर उस दौर की फिल्मी और अन्य पत्रिकाओं के लेखों को देखें तो उनके और परवीन बॉबी के रिश्ते को लेकर बहुत कुछ लिखा गया था। कहा गया  था कि परवीन से अफेयर की वजह से उनका पारिवारिक कलह हुआ था। उन्होंने अपनी पहली पत्नी किरण भट्ट और बेटी पूजा को छोड़कर परवीन के साथ रहना शुरू कर दिया था। परवीन जब सिजोफ्रेनिया की गिरफ्त में आईं तो वो उनको छोड़कर अपने परिवार के पास लौट आए थे। कई इंटरव्यू में महेश भट्ट ने परवीन बॉबी के साथ अपने रिश्ते को माना भी है। इसके अलावा उनका बेटा राहुल भट्ट भी मुंबई हमले की साजिश के आरोपी डेविड हेडली से संपर्कों की वजह से शक की जद में आया था। तब ये आरोप लगा था कि डेविड हेडली ने राहुल भट्ट को ये कहा था कि वो हमले वाले दिन दक्षिणी मुंबई की ओर नहीं जाए। राहुल भट्ट जब संदेह के घेरे में थे तो उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में महेश भट्ट पर भी निशाना साधा था। खैर ये मुद्दे अब खत्म हो चुके हैं लेकिन अतीत बहुत जल्द पीछा छोड़ते नहीं।

बात बॉलीवुड और ड्रग्स की करते हैं। लगातार दो मामलों में ड्रग की बात सामने आने के बाद, खासतौर पर सुशांत सिंह राजपूत केस में जिस तरह से हिंदी फिल्मों की दुनिया शक के घेरे में आई उसको साफ करना जरूरी है। ये जिम्मेदारी बॉलीवुड को ही उठानी होगी। सुशांत सिंह केस के दौरान सुपरस्टार अक्षय कुमार ने एक वीडियो जारी कर माना था कि कई ऐसे मुद्दे हैं जिनपर बॉलीवुड को खुद के गिरेबां में झांकने की जरूरत है। नारकोटिक्स और ड्रग्स की बात करते हुए भी उन्होंने कहा था कि कैसे दिल पर हाथ रखकर कह दें कि ये समस्या नहीं है,ये समस्या है। तब अक्षय ने पूरी इंडस्ट्री को बदनाम दुनिया की तरह नहीं देखने की अपील भी की थी। अक्षय ने ठीक कहा था, सबको एक ही रंग से रंगना उचित नहीं है। हर जगह अच्छे और बुरे लोग होते हैं। इस कड़ी में ही बॉलीवुड की कई प्रोडक्शन कंपनियों और उनके संगठनों ने दिल्ली हाईकोर्ट में दो चैनलों की रिपोर्टिंग के खिलाफ गुहार लगाई थी। यहां ये रेखांकित करना जरूरी लगता है कि हाईकोर्ट से गुहार लगानेवाली इन प्रोडक्शन कंपनियों में महेश भट्ट की कंपनी शामिल नहीं हैं। बॉलीवुड के जिन लोगों ने अदालत से गुहार लगाई है उनको महेश भट्ट पर लग रहे आरोपों पर भी अपनी बात रखनी चाहिए। प्रोड्यूसर गिल्ड को कम से कम ये बयान तो जारी करना चाहिए कि अभिनेत्री लवीना के आरोपों की जांच हो, ड्रग्स सप्लाई के आरोपों को लेकर भी एजेसियां कानूनसम्मत ढंग से काम करें।

अगर गिल्ड या प्रोडक्शन कंपनियों का ऐसा कोई बयान नहीं आता है या वो कोई पहल नहीं करते हैं तो एक बार फिर से उनकी साख पर सवाल उठेगा और लोगों को बॉलीवुड पर आरोप लगाने का मौका। चुनी हुई चुप्पी और चुनिंदा मामलों में बोलना दोनों ही किसी भी संगठन या इंडस्ट्री की साख पर असर डालते हैं। हमने अपने देश में देखा है कि वामपंथियों ने सालों तक इस चुनी हुई चुप्पी या सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म को अपनाया। आज इस वजह से उनको कितना नुकसान हुआ ये सबके सामने है। उनकी राजनीतिक जमीन देखते देखते उनके नीचे से खिसक गई। उनकी साख इस कदर छीज गई है कि अकादमिक दुनिया ने भी उनको गंभीरता से लेना कम कर दिया है। बॉलीवुड में ड्रग्स का नाम भी आता है तो वहां काम कर रहे संगठनों को बहुत मुखरता के साथ उसका प्रतिरोध करना होगा। इससे लोगों के बीच बॉलीवुड की साख और मजबूत होगी अन्यथा लोगों को ये लगेगा कि फिल्मी दुनिया के बड़े और गंभीर मानी जानेवाली आवाज भी चुनिंदा लोगों के आरोपों पर ही अपनी बात सामने रखती है। 


Saturday, October 17, 2020

अपनी जड़ों की ओर लौटता भारत


एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा कि ‘किसान क्षेत्र के हित के लिए करनेवाला हमारा संगठन सर्वमान्य संगठन बन गया है, और ऐसे हमारे संगठन को अनुकूलता भी प्राप्त हो गई है। क्योंकि जो हमारा विचार है, विज्ञान ने ही ऐसी करवट ले ली है कि हमने जिन तत्वों का उद्घोष अपनी स्थापना के समय से हम करते आए, विरोधों के बावजूद, उनको मान्यता देने के बजाए दूसरा कोई पर्याय रहा नहीं अब दुनिया के पास। कृषि के क्षेत्र में और जो कॉलेज में से पढ़ा है ऐसा कोई व्यक्ति आपकी सराहना करे ऐसे दिन नहीं थे। आज हमारे महापात्र साहब भी आपके कार्यक्रम में आकर जैविक खेती का गुणगान करते हैं। जैविक खाद के बारे में पचास साल पहले विदर्भ के नैड़प काका बड़ी अच्छी स्कीम लेकर केंद्र सरकार के पास गए थे। ये स्कीम अपने भारत की है, भारत के दिमाग से उपजी है, केवल मात्र इसके लिए उसको कचड़े में डाला गया। आज ऐसा नहीं है। पिछले छह महीने से जो मार पड़ रही है कोरोना की, उसके कारण भी सारी दुनिया विचार करने लगी है और पर्यावरण का मित्र बनकर मनुष्य और सृष्टि का एक साथ विकास साधनेवाले भारतीय विचार के मूल तत्वों की ओर लौट रही है, आशा से देख रही है।‘ मोहन भागवत के भाषण के इस छोटे से अंश में कई महत्वपूर्ण बातें हैं जिनकी ओर उन्होंने संकेत  किया है। पहली बात तो ये कि आज भारत और भारतीयता को प्राथमिकता मिल रही है। भारतीय पद्धति से की गई खोज या नवोन्मेष को या भारतीय पद्धतियों को मान्यता मिलने लगी है। मोहन भागवत ने ठीक ही इस बात को रेखांकित किया कि पूरी दुनिया भारत की ओर आशा से देख रही है।

मोहन भागवत के इस वक्तव्य के उस अंश पर विचार करने की जरूरत है जिसमें वो कह रहे हैं कि पूरी दुनिया पर्यावरण का मित्र बनकर मनुष्य और सृष्टि का एक साथ विकास साधने वाले भारतीय विचार के मूल तत्वों की ओर लौट रही है। दरअसल हमारे देश में हुआ ये कि मार्कसवाद के रोमांटिसिज्म में पर्यावरण की लंबे समय तक अनदेखी की गई। आजादी के बाद जब नेहरू से मोहभंग शुरू हुआ या यों भी कह सकते हैं कि नेहरू युग के दौरान ही मार्क्सवाद औद्योगीकरण की अंधी दौड़ में शामिल होने के लिए उकसाने वाला विचार लेकर आया। औद्योगिकीकरण में तो विकास पर ही जोर दिया जाता है और कहा भी जाता है कि किसी भी कीमत पर विकास चाहिए। अगर विकास नहीं होगा तो औद्योगिकीकण संभव नहीं हो पाएगा।लेकिन किसी भी कीमत पर विकास की चाहत ने प्रकृति को पूरी तरह से खतरे में डाल दिया। औद्योगिकीकरण का समर्थन करनेवाली विचारधारा में प्रकृति का आदर करने की जगह उसकी उपेक्षा का भाव है। ये उपेक्षा इस हद तक है कि मार्क्स ने ‘मास्टरी ओवर नेचर’ की बात की है यानि प्रकृत्ति पर प्रभुत्व। सृष्टि के इस महत्वपूर्ण अंग, प्रकृति पर प्रभुत्व की कल्पना मात्र से ही इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि मार्क्सवाद के सिद्धांत में बुनियादी दोष है। क्या ये मनुष्य के लिए संभव है कि वो प्रकृत्ति पर प्रभुत्व कायम कर सके। लेकिन मार्क्स ऐसा चाहते थे। उनके प्रकृत्ति को लेकर इस प्रभुत्ववादी नजरिए को उनके अनुयायियों ने जमकर बढ़ाया। इस बात का उल्लेख यहां आवश्यक है कि स्टालिन ने सोवियत रूस की सत्ता संभालने के बाद संरक्षित वन क्षेत्र को नष्ट किया। औद्योगिक विकास के नाम पर पर्यावरण पर प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की। नतीजा क्या हुआ ये सबके सामने है। बाद में इस गलती को सुधारने की कोशिश हुई लेकिन तबतक बहुत नुकसान हो चुका था। खैर ये अवांतर प्रसंग है इस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी। अभी तो इसके उल्लेख सिर्फ ये बताने के लिए किया गया कि साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा की बुनियाद प्रकृति को लेकर बेहद उदासीन और प्रभुत्ववादी रही है। इसके विपरीत अगर हम विचार करें तो भारतीय विचार परंपरा में प्रकृत्ति को भगवान का दर्जा दिया गया है। हम तो ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा’ को मानने वाले लोग हैं। इस पंचतत्व का निषेध या उससे आगे जाकर कुछ और नया खोज वैज्ञानिक अभी तक कर नहीं पाए हैं सिवा इसके कि वो इन पंच तत्वों के अंदर के अवयवों को ढूंढ निकालने का दावा कर रहे हैं। हमारी परंपरा में तो नदी पर्वत और जल को पूजे जाने की परंपरा रही है। कभी भी आप देख लें किसी भी शुभ अवसर पर प्रकृत्ति को भी याद किया जाता है। 

मोहन भागवत ने इस ओर भी इशारा किया है कि कोरोना के बाद स्थितियां बहुत बदल गई हैं। सचमुच बहुत बदली हैं और भारतीय ज्ञान परंपरा में जिन औषधियों की चर्चा मिलती हैं आज वो अचानक बेहद महत्वपूर्ण हो गई हैं। हमारे जो वामपंथी प्रगतिशील मित्र आयुर्वेद का मजाक उड़ाया करते थे उनको सुबह शाम काढ़ा पीते या फिर गिलोई चबाते देखा जा सकता है। आज पूरी दुनिया में भारतीय खान-पान की आदतों को लेकर विमर्श हो रहा है। हमारे यहां तो हर मौसम के हिसाब से भोजन तय है। मौसम तो छोड़िए सूर्यास्त और और सूर्योदय के बाद या पहले क्या खाना और क्या नहीं खाना ये भी बताया गया है। आज पश्चिमी जीवन शैली के भोजन या भोजन पद्धति से इम्यूनिटी बढ़ने की बात समझ में नहीं आ रही है। आज भारतीय पद्धति से भोजन यानि ताजा खाने की वकालत की जा रही है, फ्रिज में रखे तीन दिन पुराने खाने को हानिकारक बताया जा रहा है। कोरोना काल में पूरी दुनिया भारतीय योग विद्या को आशा भरी नजरों से देख रही है। आज जब कोरोना का कोई ज्ञात ट्रीटमेंट नहीं है तो ऐसे में श्वसन प्रणाली को ठीक रखने, जीवन शैली को संतुलित रखने की बात हो रही है। भारत में तो इन चीजों की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। स परंपरा को अंग्रेजी के आभिजात्य मानसिकता और वामपंथ के विदेशी ज्ञान ने पिछले कई दशकों से नेपथ्य में धकेलने की कोशिश की। सफल भी हुए। मोहन भागवत जी ने विदर्भ के एक किसान का जो उदाहरण दिया वो बेहद सटीक है। किसी भी प्रस्ताव को इस वजह से रद्दी की टोकरी में फेंका जाता रहा कि वो भारतीय परंपरा और प्राचीन ग्रंथों पर आधारित होती थी। अब देश एक बार फिर से अपनी जड़ों और अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरास की ओर लौटता नजर आ रहा है। 

अगर इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाए तो हम ह पाते हैं कि हमारे देश में कथित तौर पर प्रगतिशील विचारों के शक्तिशाली होने की वजह से आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी विचारों का अंधानुकरण शुरू हो गया। भारतीय विचारों को, भारतीय चिकिस्ता पद्धति को, भारतीय दर्शन को, भारतीय पौराणिक लेखन को सायास पीछे किया गया। उसको दकियानूसी, पुरानतनपंथी या परंपरावादी आदि कहकर उपहास किया गया। पश्चिमी आधुनिकता के आख्यान का गुणगान या उसके बढ़ते प्रभाव ने भारतीय जीवन शैली और भारतीय पद्धति को प्रभावित करना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि हमारे देश में एक ऐसा समाज बनने लगा था जो पूरी तरह से न तो भारतीयता में यकीन करता था और न ही पूरी तरह से पश्चिमी रीति-रिवाज को आत्मसात कर पा रहा था। पश्चिमी आधुनिकता और भारतीयता के इस द्वंद ने लंबे समय तक भारतीय ज्ञान पद्धति को प्रभावित किया। कोरोना की वजह से और देश में बदले राजनीति हालात ने एक अवसर प्रदान किया है जिसकी वजह से एक बार फिर से देश अपनी जड़ों की ओर लौटता दिख रहा है।   


Saturday, October 10, 2020

‘म्यूट’ नहीं मुखर है भारत का लोकतंत्र


अभी हाल ही में दिल्ली में शाहीन बाग में लंबे समय तक चले धरना प्रदर्शन को लेकर आम नागरिकों को होनेवाली दिक्कतों पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है। हमारे देश में अदालतों की कार्यवाही अपनी गति से चलती हैं। शाहीन बाग में धरना खत्म होने के कई महीनों बाद इसपर फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि विरोध प्रदर्शन के लिए सार्वजनिक जगहों पर कब्जा जमाना अनुचित है। शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शनकारियों ने करीब सौ दिनों तक रास्ता बंद कर प्रदर्शन किया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा है कि इस तरह के विरोध प्रदर्शन निर्धारित स्थानों पर होने चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला अंतिम और संविधानसम्मत होता है। लेकिन हमारे देश में एक कथित बौद्धिक वर्ग है तो सर्वोच्च अदालत के फैसले भी अपने मन की ही चाहते हैं। कहना न होगा कि जब उनके मन मुताबिक फैसला नहीं आता है तो वो उस फैसले का विरोध शुरू कर देते हैं। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना की जा सकती है। की भी जाती रही है। लेकिन जब ये स्पष्ट तौर पर दिखता है कि कोई व्यक्ति या समूह फैसलों की आलोचना या प्रशंसा के पीछे अपना एजेंडा चलाना चाहते हैं तो उसको रेखांकित किया जाना जरूरी हो जाता है। शाहीन बाग के प्रदर्शन को लेकर कुछ लोगों की आलोचना इसी तरह की है।

दक्षिण भारत के एक शास्त्री संगीत गायक हैं। नाम है टी एम कृष्णा। विवादप्रिय रहे हैं। शाहीन बाग पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उनको बेहद तकलीफ है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर विरोध प्रकट किया है। उनका कहना है कि अगर सार्वजनिक स्थानों पर धरना प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जाती है तो हम एक खामोश लोकतंत्र के तौर पर रहेंगे। अब कृष्णा से ये पूछा जाना चाहिए कि जीवंत लोकतंत्र के लिए ये क्यों जरूरी है कि सार्वजनिक स्थानों पर धरना प्रदर्शन की अनुमति हो? किसी लोकतंत्र के लिए यह क्यों आवश्यक हो कि किसी समुदाय को वैसे सार्वजनिक स्थानों पर धरना प्रदर्शन की अनुमति दी जाए जिसकी वजह से लाखों लोगों को रोज दिक्कतों का सामना करना पड़े। शाहीन बाग में धरना प्रदर्शन की वजह से दिल्ली से नोएडा का रास्ता लंबे समय तक बंद रहा और इसकी वजह से लोग परेशान रहे। जो फासला मिनटों में तय हो सकता था उसके लिए घंटों का सफर तय करना पड़ा। क्या जीवंत लोकतंत्र का अर्थ ये होता है कि सैकड़ों लोग किसी सड़क पर बैठ जाएं और सौ दिन से अधिक समय तक बैठे रहें? क्या जीवंत लोकतंत्र में इस बात की अनुमति होनी चाहिए कि कुछ लोगों के विरोध प्रदर्शन की वजह अन्य लोग परेशान रहें। भारत के सभी नागरिकों को या नागरिकों के समूह को सड़क, फुटपाथ या पार्कों में विरोध प्रदर्शन करने की छूट है। उनको इस बात की भी छूट है कि वो सरकारी इमारतों के बाहर भी प्रदर्शन कर सकें। इस अनुमति के साथ ये अपेक्षा भी की गई है कि इन विरोध प्रदर्शनों की वजह से आवाजाही बाधित न हो। विरोध प्रदर्शनों की वजह से अगर लोगों को आने जाने में दिक्कत होती है तो पुलिस को ये अधिकार है कि वो प्रदर्शनकारियों को सड़क के किनारे चलने को कहें ताकि आवाजाही सुगम रहे। सरकारी इमारतों के बाहर अगर प्रदर्शन हो रहा है तो इमारत में आने जानेवाले को तकलीफ न हो।

कृष्णा जैसों को नागरिकों को मिले इन अधिकारों से कोई मतलब नहीं है। उनको तो मतलब सिर्फ इस बात से है कि जो उनके एजेंडे में फिट नहीं बैठे उसका येन केन प्रकारेण विरोध किया जाए। ऐसे लोग इस ताक में रहते हैं कि उनको अवसर मिले और वो उसका लाभ उठा सकें। इसके लिए वो बड़े भारी भरकम शब्द भी लेकर आते हैं। अपने विद्वता के आवरण में लपेटकर किसी भी मुद्दे को गंभीर बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ये फॉर्मूला अब पुराना पड़ चुका है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर कृष्णा ने तमिल के एक शब्द ‘पोरमबुक’ की व्याख्या की है। तमिल में इस शब्द का प्रयोग अपमानित करने लिए किया जाता है। इसका प्रचलित अर्थ बांझ या बंजर होता है। कृष्णा ने इस शब्द का प्रयोग प्रचलित अर्थ से अलग बताया है और इसके अर्थ को सार्वजनिक या नागरिकों की साझा अधिकार वाली जगहों से जोड़ा है। शाहीन बाग उनके लिए ‘पोरमबुक’ है यानि कि वो साधारण नागरिक की साझी अधिकार वाली जगह है। कृष्णा ने अपने लेख में एक खूबसूरत नैरेटिव गढ़ने का प्रयत्न तो किया है लेकिन उसमें वो सफल नहीं हो सके बल्कि उल्टे उसमें फंस गए। अगर कोई साधारण जनता के साझा अधिकारों वाली सार्वजनिक जगह है तो क्या चंद लोगों को ये हक है कि वो अपने अधिकारों के लिए दूसरों के हक की हत्या कर दें। और अगर आप साझा अधिकारों वाली सार्वजनिक जगह की बात करते हैं तो इसमें धार्मिक कट्टरता कहां से आती है? यह सवाल इस वजह से क्योंकि शाहीन बाग पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करते वक्त कृष्णा धार्मिक कट्टरता को इन जगहों के अतिक्रमणकारी के तौर पर देखने लगते हैं। कृष्णा ये भूल जाते हैं कि हमारे देश का संविधान आम नागरिकों को कई प्रकार के अधिकार देता है लेकिन साथ ही वही संविधान हमारे कर्तव्यों को भी तय करता है।

दरअसल कृष्णा कुछ भी उल्टा सीधा बोलकर चर्चा में बने रहने की जुगत में रहते हैं। उन्होंने मुंबई हमले के गुनहगार पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब के मानवाधिकार को लेकर चिंता प्रकट की थी। जिस दिन अजमल कसाब को फांसी की सजा सुनाई गई थी उस दिन के देश के माहौल पर भी उन्होंने प्रतिकूल टिप्पणी की थी। उन्होंने एक पत्रिका में महान गायिका एम एस सुबुलक्ष्मी के खिलाफ बेहद घटिया लेख लिखा था जिसमें वो बार बार इस बात पर जोर देते थे कि वो देवदासी थीं। सुनी सुनाई निजी बातों को प्रामाणिकता के साथ पेश करने का दुस्साहस तब किया जब सुबुलक्ष्मी जी इस दुनिया में नहीं रहीं। कृष्णा जैसे लोगों के सार्वजनिक व्यक्तित्व और सार्वजनिक मसलों पर उनकी टिप्पणियों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करने पर एक अलग ही तस्वीर सामने आती है। टीएम कृष्णा शास्त्रीय गायन करते हैं। शास्त्रीय संगीत की दुनिया में अब भी वो सबसे उपर की पायदान पर नहीं पहुंच पाए हैं। जब किसी फनकार को लगने लगता है कि वो अपने फन की बदौलत शीर्ष पर नहीं पहुंच पाएगा तो वो राजनीति की उंगली पकड़कर शीर्ष पर पहुंचना चाहता है। कृष्णा के साथ भी यही हो रहा है। वो वामपंथी नैरेटिव का पोस्टर बॉय बनकर प्रसिद्धि और काम दोनों पाना चाहते हैं। मुझे याद आता है कि जब कुछ साल पहले दिल्ली में उनका एक कार्यक्रम स्थगित हुआ था तो उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया था। नतीजा ये हुआ था कि दिल्ली की अरविंद केजरीवाल की सरकार ने फौरन उनका एक कार्यक्रम आयोजित करवा दिया। इस तरह के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। अब उनको शाहीन बाग पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में संभावना नजर आ रही है तो उस फैसले से भारत के लोकतंत्र को परिभाषित करने में लगे हैं। पर उनको ये बात समझनी चाहिए कि भारत का लोकतंत्र इतना मजबूत और मुखर है कि यहां शाहीन बाग प्रदर्शन से लेकर आतंकी अजमल कसाब तक के मामले में न्याय ही होता है। क्योंकि संविधान सर्वोपरि है।  

Saturday, October 3, 2020

चयन में पारदर्शिता पर उठते सवाल


इस सप्ताह के आरंभ की बात है। हिंदी के प्रतिष्ठित उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल की एक फेसबुक पोस्ट पर नजर गई। उसमें उन्होंने लिखा कि ‘कथा यूके (लंदन) ने अपने पिछले 5 सालों के पुरस्कारों की घोषणा की है। सभी लेखकों को बधाई। इन पुरस्कारों की घोषणा के तुरंत बाद इस बात को लेकर विवाद शुरू हो गया है कि जिन लेखकों की रचनाओं पर भी विचार किया गया, उनके नामों की आयोजकों द्वारा सार्वजनिक घोषणा नहीं की जानी चाहिए थी। एक लेखक होने के नाते मैं इस तर्क से पूरी तरह सहमत हूँ । मेरे मन में जो सम्मान उन लेखकों का है जिनका चयन इन सम्मानों के लिए किया गया है, उतना ही इन लेखकों के प्रति भी है जिनका नाम सार्वजनिक किया गया है। चूंकि साल 2009 के लिए यह सम्मान मुझे भी मेरे एक उपन्यास 'रेत' पर प्रदान किया जा चुका है, इसलिए अपने लेखक बंधु-बांधवों की एकजुटता और उनके मान-सम्मान के पक्ष में, मैं अपना इंदुशर्मा कथा सम्मान लौटाने की घोषणा करता हूं।‘ भगवानदास मोरवाल जी पुरस्कार वापसी की इस घोषणा को पढ़ते हुए अचानक पांच साल पहले का पुरस्कार वापसी प्रपंच दिमाग में कौंध गया। उस वक्त भी बिहार विधानसभा का चुनाव होना था और ऐसे ही एक लेखक ने पुरस्कार वापसी की घोषणा करके उस प्रपंच का आरंभ किया था। लगा कि फिर से पुरस्कार वापसी को राजनीतिक अस्त्र के रूप में तो इस्तेमाल नहीं किया जानेवाला है। फौरन कथा यूके के कर्ताधर्ता तेजेन्द्र शर्मा की पोस्ट देखने गया तो वहां पुरस्कृत लेखकों की तस्वीरों के साथ एक पोस्टर लगा देखा। उससे ये सूचना मिली कि पिछले पांच सालों से स्थगित इंदु शर्मा कथा सम्मान देने की घोषणा की गई थी। जिनको सम्मानित किया जाना था उनके नाम और तस्वीरें लगी थीं। पुरस्कार प्रदान करने की सूचना भी शामिल की गई थी। यहां तक तो मसला ठीक था लेकिन उस पोस्टर के नीचे सोलह लेखक और लेखिकाओं के नाम का उल्लेख इस आशय से था कि इनकी रचनाओं पर भी गौर किया गया। भगवानदास मोरवाल इन सोलह लेखकों की सूची प्रकाशित करने से आहत हो गए और उन्होंने पुरस्कार वापसी का अपना फैसला सार्वजनिक कर दिया। 

उपरोक्त पुरस्कार के आयोजक चूंकि लंदन में रहते हैं इस वजह से बुकर पुरस्कार आदि से प्रेरणा लेते हुए उन लेखकों के नाम भी सार्वजनिक कर दिए जिनके नामों पर विचार किया गया। पर यहीं पर कथा यूके से एक बड़ी चूक हो गई। चूक ये कि उन्होंने इस पुरस्कार के निर्णायकों का नाम सार्वजनिक नहीं किया। इस बात में भी संदेह प्रकट किया जा रहा है कि इस पुरस्कार के लिए कोई निर्णायक होता नहीं है। पुरस्कृत लेखकों की जो सूची जारी की गई है कि उसके साथ लिखा भी गया है कि ‘हमारे निर्णायक मंडल एवं मित्रों ने सहयोग किया और हम अंतत: किसी निर्णय पर पहुंच पाए’।‘  इसका अर्थ तो ये हुआ कि ‘हम’ ही अंतिम निर्णायक हैं। दरअसल कुछ अंतराष्ट्रीय पुरस्कार देनेवाली संस्थाएं उन लेखकों के नाम भी सार्वजनिक करती हैं जिनके नाम पर पुरस्कार की चयन समिति या निर्णायक मंडल ने विचार किया। लेकिन उनकी चयन प्रक्रिया बेहद पारदर्शी होती है और हर चरण पर नामों का खुलासा होता रहता है इसलिए वो अपमानजनक नहीं लगता है। दिक्कत इऩ जैसे व्यक्तिगत पुरस्कारों में यही होती है कि इनमें पारदर्शिता का अभाव होता है। दरअसल ये व्यक्ति विशेष की मर्जी पर निर्भर होता है कि वो कब किसको पुरस्कार दे, किस वर्ष पुरस्कार दे और किस वर्ष रोक दे। अब अगर हम देखें तो इंदु शर्मा कथा सम्मान ही पिछले पांच वर्ष से नहीं दिया जा रहा है। बीच में एक बार कथा सम्मान की जगह एक गजलकार को सम्मानित कर दिया गया। इसमें कोई हर्ज भी नहीं है, व्यक्ति विशेष का पुरस्कार है वो जिसे चाहे, जब चाहे दे या न दे। दिक्कत तब होती है जब प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह काम करनेवाली ये संस्थाएं पब्लिक लिमिटेड कंपनी की राह भी पकड़ना चाहती हैं। व्यक्तिगत स्तर पर दिए जानेवाले इन पुरस्कारों के आयोजकों की अपेक्षा ये होती है कि उनको पारदर्शी तरीके से दिए जानेवाले पुरस्कारों जैसा माना जाए। लेकिन तब मोरवाल जी जैसा कोई लेखक सामने आकर ना केवल पुरस्कार देनेवालों को आइना दिखाता है बल्कि पुरस्कार वापसी की घोषणा कर अपना विरोध भी प्रकट करता है। उनकी इस घोषणा से इस तरह के पुरस्कारों की साख पर भी सवाल खड़े होते हैं। व्यक्तिगत या निजी तौर पर पुरस्कार देने के मामले में दो ऐसे पुरस्कार हैं जिनकी साख लंबे समय से बची हुई है। एक है देवीशंकर अवस्थी के नाम पर आलोचना के लिए दिया जानेवाला पुरस्कार और दूसरा है भारत भूषण अग्रवाल के नाम पर दिया जानेवाला कविता पुरस्कार। इन दोनों पुरस्कारों में चयन की प्रक्रिया का हिंदी जगत को पता है। निर्णायकों के नाम भी हर वर्ष सार्वजनिक किए जाते हैं।  

अब हिंदी के लेखकों को पद्म पुरस्कार कम छद्म पुरस्कार अधिक मिलने लगे हैं। कोरोना काल में तो पुरस्कार देना और भी आसान हो गया है। व्यक्तिगत स्तर पर पुरस्कार की घोषणा करके उसको ऑनलाइन गोष्ठी आयोजित कर आभासी पुरस्कार दे दिए जाते हैं। पहले तो पुरस्कार देनेवाले को कम से कम एक आयोजन करना होता था। अगर पुरस्कार के तहत कोई राशि नहीं भी गी जाती थी तो उसमें शॉल और प्रतीक चिन्ह आदि देने पड़ते थे। उसमें कुछ राशि तो खर्च करनी पड़ती थी। अब तो हालात ये है कि सबकुछ आभासी हो गया है। पोस्टर पर विज्ञप्ति जारी हो जाती है। ऑनलाइन अर्पण समारोह हो जाता है। ईमेल से पुरस्कार का प्रमाण पत्र भेज दिया जाता है। यह एक ऐसी प्रविधि विकसित हो रही है जिसमें सभी खुश रहते हैं। कथा यूके के पुरस्कार को पांच साल बाद शुरू करने के पीछे भी एक वजह से ये भी हो सकती है कि अब सबकुछ ऑनलाइन संभव है। अन्यथा 2015 के पहले तो पुरस्कृत लेखकों को लंदन बुलाया जाता था, उनके आने जाने का खर्च, लंदन में रुकने का खर्च सब आयोजकों को वहन करना पड़ता है। 

दरअसल व्यक्तिगत पुरस्कार देनेवालों में से ज्यादातर की मंशा खुद को साहित्य की चर्चा के केंद्र में रखने की भी होने लगी है। सोशल मीडिया के इस दौर में हिंदी में लेखकों का एक ऐसा वर्ग सामने आ गया है जो अपनी औसत रचनाओं पर पुरस्कृत होकर प्रसिद्धि की चाहत रखता है। इन पुरस्कार पिपासु लेखकों के लिए व्यक्तिगत स्तर पर दिए जानेवाले पुरस्कार प्रसिद्ध होने की लालसापूर्ति का एक अवसर होता है। मध्यप्रदेश से दिए जानेवाले एक पुरस्कार के लिए तो बकायदा लेखकों से एक निश्चित राशि का बैंक ड्राफ्ट भी आवेदन के साथ मांगा जाता है। लोग देते भी हैं और फिर पुरस्कृत होकर प्रचार भी करते हैं। इसी तरह से बिहार की एक संस्था हर वर्ष दर्जनों लोगों को पुरस्कृत करती है। कई लोग तो कहते हैं कि इन पुरस्कारों का एक अर्थतंत्र भी होता है। आयोजनकर्ता किसी को पकड़ लेते हैं और उनके नाम पर या उनके पिता-माता के नाम पर पुरस्कार देने की बात कहकर उनसे एक निश्चित रकम ले लेते हैं। फिर किसी हिंदी के लेखक को आभासी दुनिया में पुरस्कृत करके धन देनेवाले को संतुष्ट कर देते हैं। अब हिंदी के लेखकों को यह तय करना होगा कि कौन सा पुरस्कार लिया जाए और कौन सा ठुकराया जाए। अपेक्षा तो वरिष्ठ लेखकों से भी की जाती है कि वो इस तरह का माहौल बनाएंगे या अपने सान्निध्य में आनेवाले युवा लेखकों को हिंदी साहित्य की गरिमा को संजोए रखने के लिए प्रेरित भी करेंगे।    


Thursday, October 1, 2020

बड़े लक्ष्य के लिए फिल्मों से उदासीनता


गांधी की फिल्मों में कोई रुचि नहीं थी और वो फिल्मों को समाज के लिए बुरा मानते थे। इसके तात्कालिक कारण थे। गांधी जी मनोरंजन को समाज के लिए आवश्यक मानते थे लेकिन मनोरंजन को लेकर उनके अपने कुछ मानक थे। उनका मानना था कि मनोरंजन ऐसा हो जो बेहतर समाजिक मूल्यों को स्थापित करे। फिल्म देखनेवाले में अच्छे संस्कार का बीज डाले या उसके अंदर के अच्छे संस्कार को मजबूत करे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश की जनता खासकर युवाओं को संगठित करने और उनको भटकने नहीं देने के लिए गांधी प्रतिबद्ध थे। ये वही गांधी हैं जिनकी लंदन में रहने के दौरान संगीत में रुचि जगी थी। मशहूर अमेरिकी पत्रकार जोसेफ लेलीविल्ड ने अपनी पुस्तक ‘ग्रेट सोल, महात्मा गांधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया’ में इस बात को रेखांकित भी किया है कि लंदन में गांधी वायलिन बजाना भी सीखने जाते थे। इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि गांधी ने पश्चिमी नृत्य सीखने की भी कोशिश की थी। वो क्लबों में जाकर डांस भी किया करते थे। दरअसल जब गांधी भारत लौटे तो यहां की फिल्मों के बारे में उनकी राय पोस्टरों को देखकर या फिल्मों के बारे में लोगों से सुनकर बन रही थी। ये वही दौर भी था जब भारतीय मूक फिल्मों में पौराणिक कहानियों पर बन रही फिल्मों से इतर भी फिल्में बनने लगी थीं। सी ग्रेड अमेरिकी फिल्मों का प्रदर्शन भी शुरू हो गया था जिसमें यौन संबंधों और नग्नता का चित्रण होता था। भारतीय दर्शकों के लिए यह एक अलग ही दुनिया थी जहां स्त्री देह को खुलेपन के साथ दिखाया जाने लगा था। इसका प्रभाव समाज पर पड़ने लगा था। उसी दौर में 1925 में डी एन संपत ने मूक फिल्म ‘सती अनुसूइया’ बनाई तो उसमें अभिनेत्री सकीना बाई ने बगैर कपड़ों के एक सीन किया था। इस तरह की बातें गांधी तक पहुंचती थी और फिल्मों को लेकर उनकी राय नकारात्मक होती जाती थी। 

कहा जाता है कि महात्मा गांधी ने अपने जीवन काल में सिर्फ एक ही फिल्म, रामराज्य, देखी थी जिसके बाद भी उनकी राय बदल नहीं सकी। इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि गांधी ने फिल्मकार विजय भट्ट को बेहद संक्षिप्त मुलाकात में गुजरात के प्रख्यात कवि नरसी मेहता पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया था। अपनी किताब ‘महात्मा गांधी और सिने संसार’ में इकबाल रिजवी ने लिखा है कि ‘फिल्मकार विजय भट्ट गांधी के बड़े प्रशंसक थे। गांधी जी एक बार वलसाड प्रवास पर थे तो विजय भट्ट उनसे मिलने पहुंचे। सुबह की सैर की समय गांधी से उनकी बेहद संक्षिप्त भेंट हुई। गांधी ने उनसे पूछा कि आप क्या करते हैं? विजय भट्ट ने कहा कि वो फिल्मकार हैं। गांधी ने फिर एक सवाल दागा ‘क्या कभी आपने नरसी मेहता पर फिल्म बनाने के बारे में सोचा है?‘ विजय भट्ट ने उत्तर दिया कि वो फिल्म बनाने की कोशिश करेंगे। दो सवालों की इस बेहद संक्षिप्त मुलाकात के बाद ही विजय भट्ट ने फिल्म ‘नरसी भगत’ का निर्माण किया था। इस फिल्म में ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ भजन भी शामिल किया गया था। पर जब 1940 में ये फिल्म रिलीज हुई तो इसको भी गांधी अपनी राजनीतिक व्यस्तता की वजह से देख नहीं सके।

गांधी भले ही फिल्मों को उचित माध्यम नहीं मानते थे लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में कई नेता थे जो फिल्मों को समाज को बदलने का एक प्रभावी माध्यम मानते थे। सरदार पटेल तो किशोर साहू की फिल्म ‘वीर कुणाल’ के प्रीमियर के मौके पर मुंबई के नॉवल्टी थिएटर में पहुंचे भी थे। ये आजादी से दो साल पहले की बात है। फिल्म शुरू होने के पहले उन्होंने छोटा सा भाषण भी दिया था। उस भाषण का सार ये था कि कांग्रेस कला और फिल्मों से विमुख नहीं है। उन्होंने तब जोर देकर कहा था कि अगर बरतानिया हुकूमत देश में विदेशी पूंजी से स्टूडियो खोलेगी तो कांग्रेस उसका विरोध करेगी और वो खुद उस विरोध का नेतृत्व करेंगे। इसी तरह से जब 1945 में पृथ्वीराज कपूर और शोभना समर्थ अभिनीत फिल्म ‘वीर अर्जुन’ रिलीज हुई थी तो उसको देखने डॉ राजेन्द्र प्रसाद और श्यामा प्रसाद मुखर्जी पहुंचे थे। कहना ना होगा कि गांधी भले ही मनोरंजन के इस माध्यम फिल्म को पसंद नहीं करते थे लेकिन उन्होंने कभी भी इसकी राह में बाधा बनने की कोशिश नहीं की, बल्कि गांधी और उनके सिद्धांतों ने हिंदी फिल्मों को गहरे तक प्रभावित किया। 

हिंदी फिल्मों को दो थीम ने बहुत गहरे तक प्रभावित किया है। पहली थीम है राम कथा और दूसरी थीम है गांधी का व्यक्तित्व और उनके सिद्धांत। 1948 में बनी फिल्म ‘शहीद’ से लेकर 2006 में बनी फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ तक पर अगर सूक्षम्ता से नजर डालते हैं तो ऐसी सैकड़ों फिल्में रेखांकित की जा सकती हैं जिसमें किसी ना किसी रूप में गांधी उपस्थित हैं। गांधी का जो विराट व्यक्तित्व है और उनके सिद्धांतों की जो वैश्विक व्याप्ति है, हिंदी फिल्में उनके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाई हैं।