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Saturday, July 12, 2025

और फिल्मिस्तान बिक गया...


हिंदी फिल्मों में जब स्टूडियो युग का आरंभ हुआ तो न्यू थिएटर्स और प्रभात स्टूडियो ने कई फिल्में बनाई। अनेक फिल्मी प्रतिभाओं को तराश कर दर्शकों के सामने पेश किया। यह कालखंड 1935 से 1955 तक का रहा। एक और स्टूडियो की स्थापना हुई थी जिसका नाम था बंबई टाकीज। हिमांशु राय और देविका रानी ने मिलकर इसे स्थापित किया था। विदेश से वापस भारत लौटे हिमांशु राय और देविका रानी ने बंबई टाकीज को प्रोफेशनल तरीके से स्थापित ही नहीं किया उसी ढंग से चलाया भी। स्टूडियो की स्थापना के लिए हिमांशु राय ने फरवरी 1934 में अपनी कंपनी के 100 रुपए के शेयर जारी किए थे। 25 हजार शेयर बेचकर जुटाई पूंजी से बंबई टाकीज की स्थापना की गई। कंपनी को चलाने के लिए एक बोर्ड का गठन हुआ। इस स्टूडियो से बनी पहली कुछ फिल्में असफल हुईं। बंबई टाकीज ने धीरे-धीरे भारतीय दर्शकों की पसंद के हिसाब से फिल्में बनानी आरंभ की और सफलता मिलने लगी। हिमांशु राय ने देशभर से कई युवाओं को फिल्म से जोड़ा। इन युवाओं ने कालांतर में हिंदी सिनेमा को अपनी प्रतिभा और मेहनत से समृद्ध किया। इनमें शशधर मुखर्जी, सेवक वाचा, आर के परीजा, अशोक कुमार आदि प्रमुख हैं। अशोक कुमार को तो हिमांशु राय ने लैब सहायक से सुपरस्टार बना दिया। वो फिल्मों में अभिनेता का काम नहीं करना चाहते थे लेकिन राय के दबाव में अभिनेता बने। ये बेहद ही दिलचस्प किस्सा है जिसके बारे में फिर कभी चर्चा होगी। 

स्टूडियो की स्थापना के करीब 6 वर्ष बाद हिमांशु राय के असामयिक निधन ने बंबई टाकीज की नींव हिला दी थी। उसके बाद इस कंपनी के शेयरधारकों और हिमांशु राय के प्रिय कलाकारों में से कुछ ने मिलकर देविका रानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इस मोर्चे का नेतृत्व शशधर मुखर्जी कर रहे थे। शशधर मुखर्जी हिमांशु राय के जीवनकाल में ही बंबई टाकीज में महत्वपूर्ण हो गए थे। कुछ फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि देविका रानी के व्यवहार और उनके अपने पसंदीदा लोगों को बढ़ाने के निर्णयों से शशधर मुखर्जी आहत थे। हिमांशु राय के निधन के बाद बंबई टाकीज में जो घटा वो एक फिल्मी कहानी है। शशधर मुखर्जी चाहते थे कि बंबई टाकीज उनकी मर्जी से चले और देविका रानी उनके हिसाब से निर्णय लें। ये देविका रानी को स्वेकार्य नहीं था। वो अपनी मर्जी से निर्णय ले रही थीं। अमिय मुखर्जी उनको सहयोग कर रहे थे। उस दौर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से संकेत मिलता है बंबई टाकिज में कुछ लोगों को देविका रानी के महिला होने के कारण उनको संस्था प्रमुख मानने और उनसे निर्देश लेने में दिक्कत होती थी। चूंकि बंबई टाकीज में होनेवाले प्रमुख निर्णयों को कंपनी का बोर्ड तय करता था। इस कारण जब देविका रानी ने अपने निर्णयों को लागू करना आरंभ किया तो कारपोरेट दांव पेच भी चले गए। शेयरधारकों का बहुमत जुटाने के लिए भी देविका रानी ने भी प्रयास किया। इस काम में उनको सहयोग मिला केशवलाल का। देविका प्रतिदिन सुबह आठ बजे कार्यलय पहुंच जातीं और देर रात तक वहीं रहती। शशधर मुखर्जी समेत अन्य लोगों के निर्णयों की समीक्षा होने लगी थी। देविका रानी के दखल के बाद शशधर मुखर्जी आदि असहज होने लगे थे। शशधर मुखर्जी प्रोडक्शन का पूरा काम संभालते थे लेकिन देविका रानी ने इस विभाग में भी दखल देना आरंभ कर दिया था। फिल्मों की स्क्रिप्ट से लेकर उसके प्रोडक्शन तक हर विभाग पर वो नजर ही नहीं रखती बल्कि अपने निर्णयों को लागू भी करवाने लगीं। 

उधर बंबई टाकीज के शेयरों को लेकर मामला कोर्ट कचहरी तक गया। बोर्ड में देविका रानी का बहुमत होने के कारण उनको अपने निर्णयों को लागू करवाने में परेशानी नहीं हुई। बंबई टाकीज के इतिहास में जून 1942 में हुई बोर्ड मीटिंग बहुत महत्वपूर्ण है। इस दिन बोर्ड ने ये फैसला लिया कि बंबई टाकीज में देविका रानी प्रोडक्शन कंट्रोलर होंगी और शशधर मुखर्जी प्रोड्यूसर होंगे। देविका रानी को ये अधिकार दे दिया गया कि वो बंबई टाकीज की हर फिल्म में उनका दखल होगा। इसके पहले ये व्यवस्था थी कि एक फिल्म शशधर मुखर्जी प्रोड्यूस करेंगे और उसके बाद देविका रानी फिर शशधर। बोर्ड के निर्णय के बाद देविका रानी बंबई टाकीज में उस पद पर पहुंच जगई जहां हिमांशु राय होते थे। इन दो वर्षों में बंबई टाकीज में स्पष्ट रूप से दो गुट बन गए थे। एक गुट में देविका रानी और अमिय मुखर्जी थे और दूसरे में शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नी लाल, ज्ञान मुखर्जी आदि प्रमुख थे। बंबई टाकीज की इसी गुटबाजी और कारपोरेट वार ने फिल्मिस्तान की नींव डाली। शशधर मुखर्जी, अशोक कुमार, राय बहादुर चुन्नीलाल और ज्ञान मुखर्जी ने बंबई टाकीज से इस्तीफा दे दिया जिसे देविका रानी से फौरन स्वीकार कर लिया। फिल्मिस्तान की स्थापना बंबई (अब मुंबई) के गोरेगांव में स्थापित की गई। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज छोड़ा था तब उनका मासिक वेतन एक हजार रु था। ये वो दौर था जब फिल्म अभिनेता और अन्य मासिक वेतन पर स्टूडियो में नौकरी करते थे। फिल्मिस्तान ने अशोक कुमार को रु 2000 प्रतिमाह देना तय किया था।  

फिल्मिस्तान आरंभ हुआ तो कंपनी ने देविका रानी को भी इसके उद्घाटन समारोह का आमंत्रण भेजा। देविका रानी इस समारोह में नहीं गई लेकिन उन्होंने जो पत्र लिखा उसमें खुद को मिसेज हिमांशु राय बताते हुए अपनी व्यस्तता का हवाला दिया था। फिल्मिस्तान ने जो पहली फिल्म बनाई उसका नाम था चल चल रे नौजवान। उसके बाद भी फिल्मिस्तान ने कई फिल्में बनाई। थोड़े दिनों तक तो उत्साह रहा लेकिन फिर इसके संस्थापकों को एहसास होने लगा था कि फिल्म कंपनी चलाना आसान नहीं। इसके लिए काफी मेहनत की आवश्यकता होती है। संसाधान जुटाना एक बड़ी समस्या थी। पांच वर्ष होते होते फिल्मिस्तान के संस्थापकों के बीच मतभेद उभरने लगे थे। उधर बंबई टाकीज भी देविका रानी के छोड़ने के बाद सही नहीं चल रहा था। अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में निवेश किया और उसका आंशिक मालिकाना हक ले लिया। पांच वर्षों बाद जब अशोक कुमार ने बंबई टाकीज में कदम रखा तो हिमांशु राय की अर्ध प्रतिमा (बस्ट) को देखकर भावुक हो गए थे और उसको गले लगा लिया था। कहना न होगा कि फिल्मिस्तान की स्थापना फिल्म जगत के पहले कारपोर्ट वार के परिणामस्वरूप हुई थी। मुंबई के गोरेगांव में करीब 5 एकड़ में फैले इस स्टूडियो में कई अच्छी फिल्में भी बनीं जिनमें सरगम, मजदूर, शिकारी दो भाई आदि प्रमुख हैं। बाद में फिल्मिस्तान का मालिकाना हक बदला। फिल्में बनती रहीं। हाल के कुछ वर्षों में फिल्मिस्तान में गाने या टीवी सीरियल आदि शूट होने लगे थे। हाल में फिल्मिस्तान के मालिकों ने इसको बेच दिया। खबरों के मुताबिक इसकी जगह अब अपार्टमेंट बनाए जाएंगे। आरे के स्टूडियो के बाद फिल्मिस्तान का बिकना भारतीय सिनेमा के बदलते स्वरूप का संकेत है। लेकिन जब भी हिंदी फिल्मों के इतिहास पर बात होगी तो देविका रानी की बात होगी और देविका रानी के साथ साथ फिल्मितान का जिक्र भी होगा। 

Thursday, July 10, 2025

व्याकुल मन और संवेदना की धुन


किसे पता था कि अपराध कथाओं पर सफल फिल्म बनाने वाला एक निर्देशक दर्द और संवेदना के तार को ऐसे छुएगा कि उसकी फिल्में क्लासिक और कल्ट फिल्म बन जाएंगी। मात्र 39 वर्ष की आयु मिली लेकिन उस लघु अवधि में हिंदी सिनेमा को अपनी कला कौशल से झंकृत कर देने वाले कलाकार का नाम है गुरुदत्त। गुरुदत्त की अपराध कथाओं पर आधारित सफल फिल्मों, बाजी, जाल, बाज और सैलाब, की चर्चा कम होती है। गुरुदत्त को हिंदी सिनेमा में इन्हीं फिल्मों से पहचान मिली थी। गुरुदत्त ने ज्ञान मुखर्जी के सहायक के तौर पर कार्य करना आरंभ किया था। माना जाता है कि हिंदी फिल्मों में ज्ञान मुखर्जी अपराध कथाओं पर आधारित फिल्मों के पहले कुछ निर्देशकों में से एक थे। अब उन कारणों की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है कि एक अपराध कथाओं पर फिल्म निर्देशित करनेवाला सिद्धहस्त निर्देशक कैसे इतनी संवेदनशील फिल्मों को कैसे साध सके। गुरुदत्त के शताब्दी वर्ष में जब हम उनकी कलात्मकता पर बात करते हैं तो उनके साथ के लोगों की बात करनी चाहिए जिनके साथ ने गुरुदत्त को महान बनाया। कलाकार गुरुदत्त की शख्सियत तीन व्यक्तियों के बिना पूरी नहीं होती है। यै हैं गीता दत्त, वहीदा रहमान और अबरार अल्वी। जब गुरुदत्त अपनी पहली फिल्म बाजी निर्देशित कर रहे थे तो वो गीता राय को दिल दे बैठे। गुरुदत्त शादी के लिए जल्दी कर रहे थे। दोनों में महीनों तक रोमांस चला और शादी हुई। गीता दत्त के बाद उनकी जिंदगी में वहीदा रहमान का प्रवेश होता है । यहीं से आरंभ होता है प्यार से असफल होकर स्वयं से दूर भागने की उनकी प्रवृत्ति। 

जब प्यासा फिल्म बन रही थी तो इस बात की चर्चा थी कि इसकी कहानी गुरुदत्त की निजी जिंदगी पर आधारित है। पर ये कहानी सिर्फ गुरुदत्त की कहानी नहीं है। इसमें लेखक अबरार अल्वी की जिंदगी की घटनाएं भी शामिल हैं। ये भी कहा जाता है कि इस फिल्म की कहानी गुरुदत्त ने लिखी थी। पर अबरार अल्वी ने बताया था कि गुरुदत्त ने सिर्फ छह पन्ने की कहानी लिखी थी और उसमें नायिका सिर्फ मीना थी। गुलाबो का चरित्र तो अबरार अल्वी ने जोड़ा। दरअसल जब अबरार मुंबई आए थे तो वो एक वेश्या के पास जाते थे। उस वेश्या के साथ के उनके अनुभव और गुरुदत्त की प्रेमिका रही मीना के किस्से को जोड़कर प्यासा की कहानी बुनी गई थी। गुरुदत्त की एक और अदा थी कि वो किसी चीज से बहुत जल्दी संतुष्ट नहीं होते थे। कई बार तो उन्होंने कई रील शूट होने के बाद फिल्म को रद करके नए सिरे से शूट किया। प्यासा फिल्म के कई रील शूट हो चुके थे। गुरुदत्त को अपना रोल पसंद नहीं आ रहा था। उन्होंने सोचा कि इस भूमिका के लिए दिलीप कुमार बेहतर अभिनेता हैं। वो दिलीप साहब के पास पहुंच गए। दिलीप कुमार ने कई शर्तें रखीं। गुरुदत्त ने सभी मान लीं। दिलीप कुमार ने डेट्स दीं लेकिन तय समय पर स्टूडियो के सेट पर नहीं पहुंचे। घंटों की प्रतीक्षा के बाद गुरुदत्त ने फिर से मेकअप किया और फिल्म पूरी की। फिल्म के प्रीमियर पर दिलीप कुमार, निर्देशक के आसिफ और बी आर चोपड़ा के साथ पहुंचे थे। फिल्म समाप्त होने के बाद दिलीप कुमार ने बी आर चोपड़ा से कहा, थैंक गाड, मैं बाल-बाल बच गया, इस फिल्म की भूमिका करता तो खूब हंसी उड़ती। ये अलग बात है कि बाद के दिनों में दिलीप कुमार को प्यासा में काम नहीं करने का अफसोस रहा। प्यासा लोगों को खूब पसंद आई थी और फिल्म जबरदस्त हिट रही। 

प्यासा के बाद गुरुदत्त ने फिल्म कागज के फूल बनाई। इसमें भी वो अशोक कुमार को लेना चाहते थे। फिल्म बाजी के समय से ही गुरुदत्त की इच्छा थी कि वो अशोक कुमार को डायरेक्ट करें लेकिन कई तरह की समस्याओं के कारण अशोक कुमार फिल्म नहीं कर पाए। गुरुदत्त ने चेतन आनंद से संपर्क किया। उन्होंने इतने पैसे मांग लिए कि गुरुदत्त को फिर से खुद ही मेकअप करवाकर फिल्म करनी पड़ी। फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। इस फिल्म में भी गुरुदत्त ने नायक की पीड़ा को उभारने का प्रयास किया लेकिन वो दर्शकों के गले नहीं उतरी। प्यासा का नायक बेहद गरीब था उसके दुख को दर्शकों ने स्वीकार कर लिया। कागज के फूल के नायक की अमीरी उसके दुख से दर्शकों को जोड़ नहीं पाई। एक अमीर आदमी का पारिवारिक दुख दर्शकों के गले नहीं उतर सका। फिल्म बेहद कलात्मक बनी पर भावनात्मक संघर्ष का चित्रण कमजोर माना गया। इस फिल्म की असफलता ने गुरुदत्त को अंदर से तोड़ दिया। तबतक उनकी पारिवारिक जिंदगी संघर्ष के रपटीली पथ पर आ चुकी थी। शराब की आदत बढ़ने लगी थी। वहीदा रहमान के साथ उनके संबंधों की चर्चा चरम पर थी। इस दौर में ही उन्होंने फिल्म चौदहवीं का चांद बनाने की सोची। फिल्म बन गई। इसके प्रदर्शन में बाधा खड़ी हो गई। ये फिल्म मुस्लिम समाज पर बनी है। देश का विभाजन हो चुका था। फिल्म डिस्ट्रीव्यूटर्स का मानना था कि विभाजन के बाद मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया था। मुस्लिम समाज की कहानियों का बाजार सिकुड़ गया था। दरवाजा और चांदनी चौक जैसी फिल्में फ्लाप हो गई थीं। किसी तरह गुरुदत्त ने डिस्ट्रीव्यूटर्स को तैयार किया। फिल्म जबरदस्त हिट रही। 

इसके बाद गुरुदत्त ने साहब बीवी और गुलाम बनाई। मीना कुमारी से छोटी बहू का ऐसा अभिनय करवाया कि उनकी भूमिका अमर हो गई। इस फिल्म के दौरान भी अनेक बधाएं आईं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिंदगी और कारोबार की बाधाएं और उससे उपजे दर्द से गुरुदत्त को बेहतर करने की उर्जा मिलती थी। वो व्याकुल मन से अपने दर्द को रूपहले पर्दे पर इस तरह से पेश करते थे कि दर्शक उसके मोहपाश में बंधता चला जाता था। कागज के फूल भले ही फ्लाप रही हो लेकिन आज उसकी कलात्मकता भारतीय फिल्म को गर्व का अवसर देती है। गुरुदत्त ने अपनी छोटी सी जिंदगी में हिंदी सिनेमा को वो ऊंचाई दी जहां पहुंचना किसी भी निर्देशक के लिए एक सपने जैसा है। फिल्मकार गुरुदत्त में बेहतर करने की जो ललक थी वो उनको हमेशा व्याकुल कर देती थी। व्याकुलता और दर्द ने असमय गुरुदत्त की जीवन लीला समाप्त कर दी। 

Saturday, July 5, 2025

फिल्म प्रचार का औजार सेंसर बोर्ड !


तीन वर्ष बाद आमिर खान की फिल्म सितारे जमीं पर रिलीज होनेवाली थी। लंबे अंतराल के बाद आमिर खान की फिल्म रूपहले पर्दे पर आ रही थी। इसको लेकर दर्शकों में जिस तरह का उत्साह होना चाहिए था वो दिख नहीं रहा था। तीन वर्ष पहले आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा आई थी जो बुरी तरह फ्लाप रही थी। दर्शकों ने उसको नकार दिया था। जब सितारे जमीं पर का ट्रेलर लांच हुआ था तो इस फिल्म की थोड़ी चर्चा हुई थी। लेकिन जब इसके गाने रिलीज हुए तो वो दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाए। फिल्म मार्केटिंग की भाषा में कहें तो इस फिल्म को लेकर बज नहीं क्रिएट हो सका। यहां तक तो बहुत सामान्य बात थी। उसके बाद इस तरह के समाचार प्रकाशित होने लगे कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, जिसको बोलचाल में सेंसर बोर्ड कहा जाता है, ने फिल्म में कट लगाने को कहा है, जिसके लिए आमिर तैयार नहीं हैं। विभिन्न माध्यमों में इस पर चर्चा होने लगी कि सेंसर बोर्ड आमिर खान की फिल्म को रोक रहा है। फिर ये बात सामने आई कि आमिर और फिल्म के निर्देशक सेंसर बोर्ड की समिति से मिलकर अपनी बात कहेंगे। इस तरह का समाचार भी सामने आया कि चूंकि सेंसर बोर्ड फिल्म को अटका रहा है इस कारण फिल्म की एडवांस बुकिंग आरंभ नहीं हो पा रही है। बताया जाता है कि ऐसा नियम है कि जबतक फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिल जाता है तब तक एडवांस बुकिंग आरंभ नहीं हो सकती है। ये सब जून के दूसरे सप्ताह में घटित हो रहा था। फिल्म के प्रदर्शन की तिथि 20 जून थी। यहां तक तो सब ठीक था लेकिन इसके बाद इसमें प्रधानमंत्री मोदी का नाम भी समाचार में आया। कहा गया कि सेंसर बोर्ड ने फिल्म निर्माताओं को आरंभ में प्रधानमंत्री की विकसित भारत को लेकर कही एक बात उद्धृत करने का आदेश दिया है। आमिर खान की फिल्म, सेंसर बोर्ड की तरफ से कट्स लगाने का आदेश और फिर प्रघानमंत्री मोदी का नाम। फिल्म को प्रचार मिलने लगा। वेबसाइट्स के अलावा समाचारपत्रों में भी इसको जगह मिल गई। जिस फिल्म को लेकर दर्शक लगभग उदासीन से थे उसको लेकर अचानक एक वातावरण बना। 

फिल्म को 17 जून को फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाण पत्र मिल गया। फिल्म समय पर रिलीज भी हो गई। आमिर खान तमाम छोटे बड़े मीडिया संस्थानों में घंटों इस फिल्म के प्रचार के लिए बैठे, इंटरव्यू दिया। परिणाम क्या रहा वो सबको पता है। फिल्म सफल नहीं हो पाई। यह फिल्म 2018 में स्पेनिश भाषा में रिलीज फिल्म चैंपियंस का रीमेक है। आमिर और जेनेलिया इसमें लीड रोल में हैं। इसके अलावा कुछ स्पेशल बच्चों ने भी अभिनय किया है। फिल्म के रिलीज होते ही या यों कहें कि सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट मिलते ही इसको लेकर हो रही चर्चा बंद हो गई। ये सिर्फ आमिर खान की फिल्म के साथ ही नहीं हुआ। इसके पहले अनंत महादेवन की फिल्म फुले आई थी जो ज्योतिराव फुले और सावित्री फुले की जिंदगी पर आधारित थी। इस फिल्म और सेंसर बोर्ड को लेकर भी तमाम तरह की खबरें आईं। इंटरनेट मीडिया पर सेंसर बोर्ड के विरोध में काफी कुछ लिखा गया। एक विशेष इकोसिस्टम के लोगों ने इसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ जोड़कर भी देखा। समुदाय विशेष की अस्मिता से जोड़कर भी देखा गया। वर्तमान सरकार को भी इस विवाद में खींचने की कोशिश की गई। फिल्म के प्रदर्शन के बाद सब ठंडा पर गया। ऐसा क्यों होता है। इसको समझने की आवश्यकता है। दरअसल कुछ निर्माता अब सेंसर बोर्ड को अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। जिन फिल्मों को लेकर उसके मार्केटिंग गुरु दर्शकों के बीच उत्सुकता नहीं जगा पाते हैं वो इसको चर्चित करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाने लगे हैं। कुछ वर्षों पूर्व जब दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक रिलीज होनेवाली थी तो उस फिल्म का पीआर करनेवालों ने दीपिका को सलाह दी थी कि वो दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन करें। दीपिका वहां पहुंची भी थीं। पर फिल्म फिर भी नहीं चल पाई थी। 

फिल्मकारों को मालूम होता है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड किन परिस्थितियों में कट्स लगाने या दृश्यों को बदलने का आदेश देता है। दरअसल होता ये है कि जब फिल्मकार या फिल्म कंपनी सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करती है तो आवेदन के साथ फिल्म की अवधि, उसकी स्क्रिप्ट, फिल्म का नाम और उसकी भाषा का उल्लेख करना होता है। अगर आवेदन के समय फिल्म की अवधि तीन घंटे बताई गई है और जब फिल्म देखी जा रही है और वो तीन घंटे तीन मिनट की निकलती है तो बोर्ड ये कह सकता है कि फिल्म को तय सीमा में खत्म करें। फिर संबंधित से एक अंडरटेकिंग ली जाती है कि उसकी फिल्म थोड़ी लंबी हो गई है और अब उसकी अवधि तीन घंटे तीन मिनट ही मानी जाए। इसके अलावा अगर एक्जामिनिंग कमेटी को किसी संवाद पर संशय होता है तो वो फिल्म के मूल स्क्रिप्ट से उसका मिलान करती है। अगर वहां विचलन पाया जाता है तो उसको भी ठीक करने को कहा जाता है। जो भी कट्स लगाने के लिए बोर्ड कहता है वो फिल्मकार की सहमति के बाद ही संभव हो पाता है। अन्यथा उसको रिवाइजिंग कमेटी के पास जाने का अधिकार होता है। कई बार फिल्म की श्रेणी को लेकर भी फिल्मकार और सेंसर बोर्ड के बीच मतैक्य नहीं होता है तो मामला लंबा खिंच जाता है। पर इन दिनों एक नई प्रवृत्ति सामने आई है कि सेंसर बोर्ड के क्रियाकलापों को फिल्म के प्रचार के लिए उपयोग किया जाने लगा है। इंटरनेट मीडिया के युग में ये आसान भी हो गया है। 

कुछ फिल्मकार ऐसे होते हैं जो सेंसर बोर्ड की सलाह को सकारात्मक तरीके से लेते हैं। रोहित शेट्टी की एक फिल्म आई थी सिंघम अगेन। इसमें रामकथा को आधुनिक तरीके से दिखाया गया था। फिल्म सेंसर में अटकी क्योंकि राम और हनुमान के बीच का संवाद बेहद अनौपचारिक और हल्की फुल्की भाषा में था। राम और हनुमान का संबंध भी दोस्ताना दिखाया गया था। भक्त और भगवान का भाव अनुपस्थित था। इस फिल्म में गृहमंत्री को भी नकारात्मक तरीके से दिखाया गया था। विशेषज्ञों की समिति ने फिल्म देखी। फिल्मकार रोहित शेट्टी और अभिनेता अजय देवगन के साथ संवाद किया, उनको वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। दोनों ने इस बात को समझा और अपेक्षित बदलाव करके फिल्म समय पर रिलीज हो गई। प्रश्न यही है कि जो निर्माता निर्देशक अपनी फिल्म के प्रमोशन से अपेक्षित परिणाम नहीं पाते हैं वो सेंसर बोर्ड को प्रचार के औजार के तौर पर उपयोग करने की चेष्टा करते हैं। वो ये भूल जाते हैं कि ऐसा करके वो एक संवैधानिक संस्था के क्रियाकलापों को लेकर जनता के मन में भ्रम उत्पन्न करते हैं। यह लोकतांत्रिक नहीं बल्कि एक आपराधिक कृत्य की श्रेणी में आ सकता है। अनैतिक तो है ही।      


Saturday, June 28, 2025

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का हिंदू मन


कुछ दिनों पूर्व हिंदी के आलोचक नन्ददुलारे वाजपेयी का मैथिलीशरण गुप्त के कृतित्व पर लिखा एक लेख पढ़ रहा था। उसमें एक पंक्ति पढकर ठिठक गया। हिंदू उत्कर्ष के हामी, भारत-भारती के रचयिता रामोपासक मैथिलीशरण गुप्त। मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएं छात्र जीवन में पढ़ी थीं। जब हिंदू उत्कर्ष के हामी और रामोपासक जैसे विशेषण देखा तो लगा कि एक बार मैथिलीशरण गुप्त को फिर से पढ़ा जाए। उनकी कृति साकेत के बारे में ज्ञात था, स्मरण में भी था। सोचा कि भारत-भारती पढ़ी जाए। भारत-भारती की प्रस्तावना के पहले शब्द से स्पष्ट हो गया कि मैथिलीशरण गुप्त रामोपासक थे। प्रस्तावना का आरंभ ही श्री राम: से होता है। फिर वो लिखते हैं आज जन्माष्टमी है, भारत के लिए गौरव का दिन...। आगे लिखते हैं कि भला मेरे लिए इससे शुभ दिन और कौन सा होता कि मैं प्रस्तुत पुस्तक आपलोगों के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए पूर्ण करूं। आगे वो इस बात को और स्पष्ट करते हैं कि श्रीरामनवमी के दिन आरंभ करके इसको जन्माष्टमी के दिन पूर्ण कर रहा हूं। फिर मंगलाचरण में वो कहते हैं कि मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती। भारत-भारती की पंक्तियों पर आगे चर्चा करूंगा जिससे वो हिंदू उत्कर्ष के हामी भी सिद्ध होते हैं। उसके पूर्व एक और आलोचक की पंक्ति याद आ रही है। मैथिलीशरण गुप्त पर भारी-भरकम पुस्तक लिखनेवाले आलोचक ने माना कि जिन बड़ी पुस्तकों को मैंने छोड़ दिया है, उनमें से ‘हिंदू’ और ‘गुरुकुल’ से अधिकांश लोग परिचित हैं। उनके अपने तर्क हैं लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या मैथिलीशरण जी की रचना साकेत, भारत-भारती, जयद्रथ-वध लोकप्रिय नहीं हैं जिसपर विचार किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि यहां भी वही प्रविधि अपनाई गई जो निराला के कल्याण में लिखे लेखों को उनकी रचनाओं में शामिल नहीं करने की रही। आज के युवाओं को मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक हिंदू के बारे में जानने का अधिकार है। अगर हम मैथिलीशरण जी की दो कृतियों भारत-भारती और हिंदू पर विचार करें तो पाते हैं कि उनके लेखन के दो छोर हैं। एक छोर पर हिंदू या सनातन धर्म है और दूसरे छोर पर हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियां। एक छोर पर वो गर्व से खड़े होते हैं और दूसरे छोर पर जोरदार प्रहार करते हैं।

मैथिलीशरण गुप्त अपनी कृति हिंदू में कहते हैं श्री श्रीरामकृष्ण के भक्त/रह सकते हैं कभी अशक्त/दुर्बल हो तुम क्यों हे तात/उठो हिंदुओ हुआ प्रभात। विस्मृति नाम की इस कविता में मैथिलीशरण हिंदुओं से पराधीनता पाश में फंसे होने की बात करते हुए हिंदी समाज को जागृत करने का उपक्रम करते हैं। उनके हताश और दुखी होने को लेकर प्रश्न खड़े करते हैं। वो भारत का गौरव गान करते हुए कहते हैं कि हिंदुओं को धर्मप्रचार प्रिय था लेकिन हथियार लेकर नहीं बल्कि अपनी आध्यात्मिकता की शक्ति के आधार पर ये कर्म किया जाता था। लूटमार और तलवार के बल पर धर्म प्रचार पर प्रहार करते हुए मैथिलीशरण गुप्त हिंदू शासन की बात करते हैं उसके विकास को संसार के इतिहास से जोड़ते हैं । साथ ही वो ये कहना नहीं भूलते कि हिंदू शासन पद्धति में विभंजक नीति दुर्लभ थी। वो इतने पर ही नहीं रुकते हैं बल्कि हिन्दूओं को बतलाते हैं कि उनका धर्म धन्य है, उनकी ज्ञानासक्ति, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम की महिमा का बखान करते हुए लिखते हैं कि हरि नर होकर भी खर्च नहीं हुए बल्कि अपने पुण्य स्पर्श से एक दिव्य आदर्श की स्थापना की। वो भारत की जनता से एक होने की अपेक्षा भी करते हैं और हिंदू जातीयता को संगठित करने की बात करते हैं- ऐसा है वह कौन विवेक/करता हो जो हमको एक/और बढ़ा सकता हो मान/केवल हिंदू-हिन्दुस्तान। अब इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि मैथिलीशरण गुप्त की हिंदू धर्म और उसकी शक्ति में कितनी जबरदस्त आस्था थी। वो जैन, बौद्ध, सिख, शैव और वैष्णवों के बीच मतभिन्नता को लेकर परेशान तो हैं पर इस बात को लेकर आश्वस्त हैं हिंदू इससे खिन्न नहीं होंगे और इस बात पर जोर देते हैं कि सबके मत भिन्न हो सकते हैं पर वो हैं अभिन्न। हिंदू धर्म को लेकर मैथिलीशरण गुप्त अपने दृढ़ मत पर अड़े हैं। वो विधवा विवाह के पक्षधर हैं। बाल विवाह और बेमेल विवाह पर वो अपनी कृति हिंदू में कविता के माध्यम से प्रहार करते हैं। घर में वो स्त्री को लक्ष्मी, वन में सावित्री और रण में असुर नाशिनी मानते हुए महिला शक्ति का जयघोष करते चलते हैं। उनकी कविताओं में जिस तरह के शब्दों का उपयोग हुआ है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वो स्त्री-पुरुष में भेद को गलत मानते थे। इसके अलावा मैथिलीशरण गुप्त ग्रामीण जीवन को सशक्त करने की बात भी करते थे। 

मार्क्सवादी आलोचकों ने भारत-भारती पर विचार करते हुए इस बात का उल्लेख किया कि मैथिलीशरण गुप्त की कृति भारत-भारती मौलाना हाली के मुसद्दस से प्रेरित है या उसके ही तर्ज पर लिखी गई है। हाली के साथ कैफी का नाम भी जोड़ा गया। बताया ये भी गया कि ऐसा मैथिलीशरण जी ने पुस्तक की भूमिका में इस बात को स्वीकार किया है। अब ये देख लेते हैं कि भूमिका में क्या लिखा है- कुछ ही दिन बाद उक्त राजा साहब का कृपा -पत्र मुझे मिला, जिसमें श्रीमान ने मौलाना हाली के मुसद्दस को लक्ष्य करके इस ढंग की पुस्तक हिंदुओं के लिए लिखने का मुझसे अनुग्रहपूर्वक अनुरोध किया। इसके बाद उन्होंने ये कहीं नहीं लिखा कि उसी पद्धति से भारत-भारती लिखी गई। पर मार्क्सवादी आलोचकों के प्रभाव में ये बात अकादमिक जगत में स्थापित हो गई। इस पुस्तक में उन्होंने भारतवर्ष की श्रेष्ठता, हमारे पूर्वज, हमारे आदर्श, हमारी सभ्यता आदि पर विस्तार से लिखा। मैथिलीशरण गुप्त इस पुस्तक में भी बार-बार हिंदू धर्म की श्रेष्ठता की बात करते चलते हैं। वो हिंदू सभ्यता के वैराट्य को उद्घाटित भी करते हैं। साथ ही हिंदू समाज में व्याप्त तरह-तरह की कुरीतियों पर भी प्रहार करते हैं। अपेक्षा करते हैं कि हिंदू समाज उनको दूर करेगा। भारत-भारती और हिंदू दो काव्यग्रंथों को पढ़ने के बाद ये स्पष्ट होता है कि मैथिलीशरण गुप्त के हिंदू मन में हिंदू सभ्यता को लेकर कितनी गहरी आसक्ति थी। आक्रांताओं के कारण हिंदू समाज में आई दुर्बलता को लेकर व्यथित भी थे।  

कुछ सप्ताह पूर्व जब इस स्तंभ में नामवर सिंह के बहाने से प्रेमचंद की रचनाओं में भारतीयता की बात की गई थी तो मृतप्राय लेखक संगठन चला रहे एक कथित और आत्मुग्ध मार्क्सवादी आलोचक ने तर्कों पर बात नहीं की थी। अपेक्षा भी नहीं थी। दरअसल वो जिस फासीवादी विचार के समर्थक और पोषक हैं उनमें तर्क और तथ्य की गुंजाइश होती नहीं है। मार्क्सवादी आलोचना पद्धति में झुंड बनाकर किसी लेखक को श्रेष्ठ बताने या उनके लिखे को ओझल करने का प्रयत्न होता है। वो चाहे प्रेमचंद हों, निराला हों, रामचंद्र शुक्ल हों। कुबेरनाथ राय जैसे श्रेष्ठ सनातनी लेखक का इस झुंडवादी आलोचना ने इतनी उपेक्षा कि उनके लेखों और निबंधों के बारे में हिंदी समाज की आनेवाली पीढ़ियों को पता ही नहीं चल सके। पर ऐसा होता नहीं है, सभी लेखकों की कृतियां अपने मूल प्रकृति में पाठकों के सामने आ रही हैं। 


Saturday, June 21, 2025

विमोचन के बहाने विदेशी भाषा पर प्रहार


पुस्तकों के विमोचन कार्यक्रमों में आमतौर पर चर्चा पुस्तक केंदित होती है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी आशुतोष अग्निहोत्री के काव्य संग्रह ‘मैं बूंद स्वयं खुद सागर हूं’ के विमोचन में इस परंपरा से हटकर बातचीत हुई। मंच पर गृह मंत्री अमित शाह और गृह सचिव गोविंद मोहन थे। इस कारण वहां जो चर्चा हुई उसके महत्व को रेखांकित करना आवश्यक है। मंच पर पहले तो एक दिलचस्प वाकया हुआ। विमोचन के लिए सबको आग्रह किया जा रहा था। अमित शाह को लगा कि गृह सचिव के बोले बिना उनको आमंत्रित किया जा रहा है। उन्होंने इशारों से बताया कि गोविंद मोहन जी को बोलना है। खैर..स्थिति स्पष्ट हुई और पुस्तक विमोचन के बाद गृह सचिव बोलने आए। उन्होंने आशुतोष अग्निहोत्री की पुस्तक पर टिप्पणी करने के पहले विस्तार से हिंदी की विकास यात्रा पर अपनी बात रखी। हिंदी-उर्दू संबंध पर चर्चा करते हुए दोनों भाषा को बहन बताया। हिंदी के परिष्कृत शब्दों को लेकर समाज में जिस तरह उपहास होता है उसको रेखांकित किया। अतीत में जिस तरह से हिंदी और भारतीय भाषाओं को एक दूसरे विरुद्ध खड़ा करके हिंदी को नुकसान पहुंचाया गया उसका भी उल्लेख हुआ। अंत में उन्होंने कहा कि हिंदी का सूरज लुप्त हो रहा है लेकिन आशा की जानी चाहिए कि एक दिन उसका उदय होगा। गृह सचिव ने हिंदी के संदर्भ में कई बार विलुप्त होने जैसे शब्द बोले। विस्तार का समय नहीं रहा होगा अन्यथा वो इस बात की चर्चा अवश्य करते कि हिंदी कैसे विलुप्त हो रही है। गोविंद मोहन की ये बात भी कि हिंदी-उर्दू बहनें हैं, विस्तृत और गंभीर चर्चा की अपेक्षा रखती है।

अब बारी गृह मंत्री अमित शाह की थी। उन्होंने आशुतोष अग्निहोत्री और उनके संग्रह की प्रशंसा की। परिवर्तन में लगनेवाले समय और मेहनत पर भी बोले। अंत में वो भाषा पर आए। उन्होंने गृह सचिव से असहमति प्रकट करते हुए कहा कि गोविंद मोहन जी ने हिंदी के प्रति चिंता व्यक्त की, हिंदी की यात्रा का अच्छे से वर्णन किया लेकिन मैं उनसे थोड़ा असहमत हूं। गृह मंत्री ने कहा कि हिंदी पर कोई संकट नहीं है।  अमित शाह ने कहा कि हमारे देश की भाषाएं हमारी संस्कृति का गहना है। हमारे देश की भाषाओं के बगैर हम भारतीय ही नहीं रहते हैं। हमारा देश, इसका इतिहास, इसकी संस्कृति और हमारे धर्म को किसी विदेशी भाषा से नहीं समझ सकते। भारतीय भाषाओं पर जब अमित शाह बोल रहे थे तो उनकी वाणी में दृढता महसूस की जा सकती थी। वो इतने पर ही नहीं रुके बल्कि यहां तक कह गए कि आधी अधूरी विदेशी भाषाओं से संपूर्ण भारत की कल्पना नहीं हो सकती। वो केवल और केवल भारतीय भाषाओं से हो सकती है। अमित शाह ने ये भी माना कि लड़ाई बड़ी है, लेकिन भारत का समाज इतना सक्षम है कि इस लड़ाई में विजय प्राप्त कर सके। इस विजय के बाद एक बार फिर आत्मगौरव के साथ हमारी भाषाओं में हम हमारा देश भी चलाएंगे, सोचेंगे भी, शोध भी करेंगे, परिणाम भी निकालेंगे और विश्व का नेतृत्व भी करेंगे। अमित शाह ने जिस सभागार में ये बात कही वहां बड़ी संख्या में भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में काम करने वाले वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे। बताते चलें कि अब भी भारत सरकार के मंत्रालयों के कामकाज में अंग्रेजी का बोलबाला है। 

गृह मंत्री अमित शाह की बातों का विश्लेषण कर रहा था। अचानक एक घटना दिमाग में कौंधी। पिछले दिनों मित्र-मिलन कार्यक्रम में गया था। वहां कई मित्र थे जो अलग अलग मंत्रालयों और विभागों में कार्यरत थे। हम कुछ मित्र एक जगह खड़े होकर बातें कर रहे थे। एक मित्र के फोन की घंटी बजी। उसने कहा जी सर मैं पहुंचता हूं, करके आपको भेजता हूं। उसने हमसे विदा लेने का उपक्रम आरंभ किया तो हमने पूछा कि क्या बात है? क्या करने की जल्दी है। उसने बताया कि गृह मंत्री अमित शाह हमारे विभाग के एक कार्यक्रम में आ रहे हैं। उस कार्यक्रम का विवरण उनको भेजा जाना है। मुझे आफिस जाना होगा। मैंने मजे लेने के लिए बोला कि क्या अपने आफिस में तुम्हीं एक हो जिसको विवरण बनाना आता है। उसने जो बोला वो चौंकानेवाला था। उसने बताया कि किसी भी मंत्रालय से कोई भी पत्र अगर गृह मंत्रालय जाता है और उस पत्र को गृह मंत्री तक जाना होता है तो वो हिंदी में ही जाता है। गृह मंत्री हिंदी के ही पत्र या फाइल नोटिंग पढते और निर्णय करते हैं। बाद में मैंने गृह मंत्रालय में कार्यरत एक दो लोगों से जानकारी ली। पता चला कि मेरा मित्र सही कह रहा था। एक ऐसा बदलाव जिसका असर गृह मंत्रालय की कार्यशैली पर स्वाभाविक है। अमित शाह का हिंदी प्रेम जगजाहिर है। हिंदी के साथ वो हमेशा भारतीय भाषाओं की बात आवश्यक रूप से करते हैं। हिंदी चूंकि उनके मंत्रालय से संबद्ध है इस कारण उनका दायित्व भी है कि वो इसको बढ़ावा दें। दे भी रहे हैं। 

अमित शाह के गृह मंत्री रहते ही अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन का आरंभ हुआ था। सूरत में पहला सम्मेलन आयोजित किया गया था। उसमें देशभर के हिंदी अधिकारी आए थे। विभिन्न सत्रों में अलग अलग क्षेत्र के विद्वानों ने हिंदी पर मंथन किया था। साहित्य, कला, संस्कृति और फिल्म से जुड़े लोग जो हिंदी से प्यार करते हैं, आमंत्रित किए गए थे। उस राजभाषा सम्मेलन की व्यापक चर्चा हुई थी। उसके बाद के सम्मेलन में हिंदी भाषी वक्ता तो थे पर इस बात का भी ध्यान रखा गया था कि वो सभागार के लोगों को बांध सकें। उन फिल्मी लोगों का आमंत्रित किया गया जो पर्दे पर तो हिंदी बोलते हैं लेकिन उनके रोमन में स्क्रिप्ट पढ़ने की बात सामने आती रहती है। सरकारी कार्यक्रमों की सीमा होती है। वहां हर तरह और वर्ग के लोगों को समायोजित करना पड़ता है। आशुतोष अग्निहोत्री के कविता संग्रह के विमोचन समारोह में जिस तरह से पहले गृह सचिव ने चिंता जताई और उसके बाद गृह मंत्री ने उन चिंताओं को दूर करते हुए लंबी लड़ाई की बात की है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। लंबी लड़ाई विदेशी भाषा से तो है ही, औपनिवेशिक मानसिकता से भी है। उस मानसिकता से जो ये तय करती है कि ज्ञान की भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है। उस मानसिकता से जो ये भ्रम फैलाती है कि विज्ञान और तकनीक को जानने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान आवश्यक है। इन भ्रमों का, इन धारणाओं का प्रतिकार आवश्यक है। इनका प्रतिकार गोष्ठियों में दिए जानेवाले भाषणों से नहीं होगा। इनका प्रतिकार अपने काम से करना होगा। गृह मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय और संस्कृति मंत्रालय को इसके लिए बेहतर समन्वय करके साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा। समग्रता में एक दिशा में साथ चलकर भारतीय भाषा को समृद्ध करना होगा। तब जाकर भारतीय भाषा का ध्वज लहरा सकेगा।