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Saturday, July 20, 2024

हिंदू-मुसलमान के चक्रव्यूह में शासनादेश


उत्तर प्रदेश सरकार के एक आदेश की इन दिनों बहुत चर्चा है। कई विपक्षी दल और बयान बहादुर किस्म के नेता इस आदेश को समाज को बांटनेवाला बता रहे हैं। आदेश ये है कि कांवड़ यात्रियों के मार्ग में पड़नेवाले सभी दुकानों, ढाबों और ठेलों पर दुकान मालिक का नाम, रेट लिस्ट और दुकान मालिक का मोबाइल नंबर लिखना अनिवार्य कर दिया गया है। यह आदेश समान रूप से सभी दुकानों के लिए है। किसी जाति और मजहब के दुकानदारों के लिए नहीं। इस आदेश के बाद तथाकथित सेक्युलर ब्रिगेड को लगने लगा कि ये मुसलमानों को चिन्हित करने के लिए किया जा रहा है। जमीयत उलमा-ए-हिंद ने भी एक बयान जारी कर सरकार से इस फैसले को वापस लेने की मांग की है। जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने इस निर्णय को अनुचित, पूर्वाग्रह पर आधारित और भेदभावपूर्ण बताया है। उन्होंने अपने बयान में आगे ये भी कहा कि ये फैसला मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की घिनौनी साजिश है। अपने बयान में मदनी ने सभी धर्म के लोगों से अपील की है कि वो एकजुट होकर इसके विरुद्ध आवाज उठाएं। अब जरा निर्णय की बात कर ली जाए। खानपान व्यवसाय के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने 2006 में एक नियम बनाया था। उसको खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम कहा गया। इस अधिनियम के अनुसार प्रत्येक रेस्तरां या ढाबा संचालक को अपनी फर्म का नाम, अपना नाम और लाइसेंस संख्या लिखना अनिवार्य है। ग्राहक जागो अभियान के अंतर्गत भी इस बात की अनिवार्यता की गई थी कि हर प्रतिष्ठान पर उसके मालिक का नाम, पंजीयन संख्या और वहां की सेवाओं या वस्तुओं का रेट कार्ड लगाया जाएगा। तब किसी भी कोने अंतरे से इसके विरोध की आवाज नहीं आई थी। कारण कि तब तथाकथित सेक्यूलरों की सरकार थी। अब योगी आदित्यनाथ की सरकार है तो उनको घेरने के लिए इसका एक राजनीतिक औजार की तरह उपयोग हो रहा है। पुराने कानून को लागू करने से कैसे समाज में हिंदू-मुसलमान विभेद उत्पन्न हो जाएगा, ये समझ से परे है। 

स्वाधीनता के 75 वर्षों बाद भी अगर समाज में हिंदू और मुसलमान के बीच सिर्फ नाम जानने के बाद विभेद पैदा हो रहा है तो इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि हमने कैसा समाज बनाया। गंगा-जमुनी संस्कृति को नारे की तरह उपयोग करनेवालों को ये सोचना चाहिए कि इस कथित गंगा-जमुनी संस्कृति की नींव कितनी कमजोर थी जो सिर्फ नाम जान लेने से दरक जा रही है। नाम उजागर करने से मुसलमान चिन्हित कैसे हो जाएंगे। जमीयत के नेता इसको घिनौनी साजिश बता रहे हैं, लेकिन कैसे, ये नहीं बता पा रहे हैं। जहां तक नाम के सार्वजनिक करने का प्रश्न है तो नाम तो हर जगह सार्वजनिक होता है। किसी जिलाधिकारी के कमरे में जाइए तो उसकी मेज पर उसकी नाम पट्टिका रखी होती है। यहां तक कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की भी नेमप्लेट, जहां आवश्यक होता है, वहां लगाई जाती है। हर पुलिस आफिसर और सैनिक की वर्दी पर उसका नाम लगा होता है। नाम जान लेने से समाज के बंटने का तर्क बेहद सतही है। समाज को इस बात पर चिंता करनी चाहिए कि कुछ लोग हर बात को हिंदू-मुसलमान के चश्मे से देखने लगते हैं। 

शास्त्रीय संगीत की बात करें। क्या कभी भी उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई को इस कारण से सुनना बंद किया कि वो मुसलमान हैं। किसी ने उस्ताद अल्लारखा खान से लेकर उस्ताद अलाउद्दीन खान, बड़े गुलाम अली खां, विलायत खां, बेगम अख्तर, रसूलन बाई जैसे दिग्गज कलाकारों के सम्मान में कोई कमी की। सबके नाम सार्वजनिक थे हैं और सभी कलाकार समान रूप से हिंदुओं को भी पसंद हैं। नाम को लेकर जो फिजूल की बातें हो रही हैं वो विरोध करनेवालों की मानसिकता को ही दर्शाते हैं। सवाल मुसलमान नाम का नहीं है मानसिकता का है, राजनीति का है। जिन मुस्लिम कलाकारों ने अपना नाम बदलकर हिंदू नाम रख लिए उनको भी हमारे देश की जनता ने इतना सम्मान और प्यार दिया जिसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता है। आज भी जब सिनेमा के दमदार कलाकारों की बात होती है तो दिलीप कुमार का नाम लिया जाता है। युसूफ खान जब फिल्मों में आए तो दिलीप कुमार बन गए। लोगों को इस बात का पता भी चला लेकिन उनकी लोकप्रियता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई। इसी तरह जब हमारे देश के दर्शकों को पता चला कि अभिनेत्री मीना कुमारी का नाम महजबीन बानो है तब भी कोई अंतर नहीं आया। मधुबाला भी मुमताज जहां बेगम देहलवी थीं लेकिन आज भी हिंदी फिल्मों की सबसे सुंदर अभिनेत्री के तौर पर समादृत है। इन सबके प्रशंसक हैं, न हिंदू न मुसलमान। दर्जनभर से अधिक मुसलमान अभिनेता और अभिनेत्रियों ने अपना नाम बदलकर हिंदू नाम रख लिया था। देश की जनता को पता भी चला लेकिन किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ा। इसी तरह से शाहरुख खान या सलमान खान अपने मुस्लिम नाम और पहचान के साथ ही फिल्मों में आए लेकिन उनके नाम से न तो फिल्म हिट हुई न ही उनके नाम और मजहब को देखकर दर्शक फिल्म देखने गए। यहां तक कि 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद आमिर खान एक पार्टी विशेष के एजेंडा को बढ़ाने के लिए एक्टिविस्ट बन गए थे लेकिन जनता ने न तो उनकी राजनीति देखी और न ही उनका नाम। देखा तो सिर्फ उनका काम। आज भी फैज से लेकर मीर तक की शायरी भारत में लोगों की जुबान पर है। तो फिर कैसी बात करते हैं कि दुकान पर मुस्लिम नाम लिखे होने के कारण हिंदू वहां नहीं जाएंगे। या दुकानों पर नाम लिखने का नियम लागू होने से मुसलमान इस देश में दोयम दर्ज के नागरिक हो जाएंगे।

जब भी हमारे देश में इस तरह की बातें होती है तो लगता है कि जो लोग धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार होने का दावा करते हैं उनका सोच कितना संकुचित है। जो लोग इस तरह के नियमों से सामाजिक समरसता खत्म होने की बात करते हैं उनको न तो हिंदुओं पर भरोसा है न मुसलमानों पर विश्वास। दरअसल जबसे संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द को अवैध तरीके से जोड़ा गया तब से ही सायास इस तरह का वातावरण बनाया गया जिससे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच वैमनस्यता बढ़े। पिछले दस वर्षों से ये प्रवृत्ति और बढ़ी है। कांग्रेस और उसके इकोसिस्टम को ये लगता है कि मुसलमानों को इस तरह से डराकर ही अपने पाले में ला सकती है। उनका वोट एकमुश्त उनकी पार्टी को मिल सकता है। 2024 के चुनाव में हलांकि कांग्रेस पार्टी को सफलता नहीं मिली लेकिन मुसलमानों को एक वोटबैंक के तौर पर अपने गठबंधन में लाने में सफल रहे। अब उनके सामने इस वोटबैंक को अपने साथ बनाए रखने की चुनौती है। इस चुनौती से निबटने के लिए वो दुकानों पर नाम लिखने के सरकारी आदेश को राजनीति के टूल की तरह उपयोग कर रहे हैं। हिंदू मुसलमान में देश को उलझानेवाली इन कोशिशों से तात्कालिक रूप से वोट मिल सकता है, कहीं कहीं सत्ता भी लेकिन देश कहीं पीछे छूट जाएगा। इसके बारे में समाज को सोचना होगा।  

Saturday, July 13, 2024

हिटलर से बड़ा तानाशाह स्टालिन


लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद से फेसबुक पर हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों ने ऐसा स्तरहीन विवाद छेड़ा हुआ है जिससे साहित्य जगत शर्मसार हो रहा है। सतही, व्यक्तिगत और अश्लील टिप्पणियों की भरमार है। लोग एक दूसरे से अपनी खुंदक में किसी भी हद तक जा रहे हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े युवा और नवोदित वृद्ध पीढ़ी के अनेक लेखक व्यक्तिगत कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हुए स्ततरहीन टिप्पणियां कर रहे हैं। इन टिप्पणियों से साहित्य जगत बजबजा रहा है। आभासी दुनिया के इस घटिया वातावरण में जनवादी लेखक संघ (जलेस) से जुड़े संजीव कुमार ने फेसबुक पर बहुत ही चतुराई से एक बहस को आरंभ करने का प्रयास किया। चतुराई इस कारण कि उन्होंने हिटलर और स्टालिन की तुलना करने के लिए एक पुस्तक के अनुदित अंश का हवाला दिया। हिटलर और स्टालिन को लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई बार बहस हो चुकी है और हर बार निष्कर्ष यही निकला था कि दोनों क्रूर तानाशाह थे। परंतु यह माना जाता है कि वैचारिक मुद्दे बीस साल बाद हर पीढ़ी के सामने अपने अपने तरीके से रखे जाने चाहिए। इससे युवाओं के विचारों को प्रभावित करने और उसको गढ़ने में मदद मिलती है। कम्युनिस्ट प्रचारक बहुधा इस प्रविधि का उपयोग करते रहते हैं। अब भी कर रहे हैं। परंतु संजीव की इस बात के लिए प्रशंसा करनी चाहिए कि फेसबुक पर साहित्य को लेकर जिस तरह की गंदगी हो रही है उसमें उन्होंने एक वैचारिक मुद्दा तो उठाया। संजीव कुमार की इस टिप्पणी पर जिस प्रकार की प्रतिक्रिया आ रही है वो भी निराश ही करती है। वामपंथ से जुड़े छोटे और मंझोले लेखकों की उनकी पोस्ट पर टिप्पणियों को पढ़कर लगता है कि वो लहालोट हो रहे हैं 

अब हिटलर और स्टालिन की तुलना पर आते हैं। संजीव ने अनुवाद का अंश लगाने के पहले एक टिप्पणी लिखी- एक ही सांस में हिटलर और स्टालिन दोनों का नाम लेना इन दिनों बहुत आम है। कई उदारपंथी बुद्धिजीवियों ने तो बीच में ठीक-ठाक कोशिश की कि नरेंद्र मोदी के प्रसंग में बार-बार याद किये जाने वाले हिटलर को स्टालिन से रिप्लेस कर दिया जाए। इसे देखते हुए आइजक डाटशर की किताब ‘स्टालिन: अ पोलिटिकल बायोग्राफी’ का एक हिस्सा बहुत दिनों से अनुवाद करके साझा करना चाहता था। टलते-टलते आज संयोग बना है। जो लोग आइजक डाटशर से परिचित न हों, उनके लिए इतना जानना काफी होगा कि वे एक पोलिश मार्क्सवादी थे जो 1932 में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासित हुए। 1939 में इंगलैंड चले गए और फिर आजीवन आत्मारोपित निर्वासन में ही रहे। वे ट्रोट्स्की के मुरीद थे और तीन खण्डों में उन्होंने ट्रोट्स्की की जो जीवनी लिखी है, वह आधुनिक क्लासिक मानी जाती है उससे पहले, 1949 में उन्होंने स्टालिन की जीवनी लिखी जो, जाहिर है, काफ़ी आलोचनात्मक है। यह अंश उसी के आखिरी अध्याय से है। अनुवाद का अंश लंबा है लेकिन संजीव उसके बहाने ये साबित करना चाहते हैं कि हिटलर की क्रूरता विध्वंस के लिए थी जबकि स्टालिन की निर्माण के लिए। अनुवाद में कहा गया है कि हिटलर जिस जर्मनी को छोड़कर गया वो दरिद्र और वहशी था। वहीं स्टालिन के शासनकाल में रूस का विकास हुआ। अब जरा इसकी पड़ताल करनी चाहिए। आगे बढ़ने से पहले ये देख लेते हैं कि हिटलर का कालखंड क्या था और स्टालिन का क्या था। हिटलर 1933-1939 तक सत्ता में रहा। जबकि स्टालिन ने 1924 से 1953 तक सोवियत रूस पर राज किया। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि संजीव स्टालिन के संबंध में एक मार्क्सवादी लेखक का ही उद्धरण दे रहे हैं। 

असली कहानी तो इसी कालखंड में है। स्टालिन और हिटलर में कोई दुश्मनी नहीं थी। बल्कि कहा तो ये जाता है कि हिटलर ने बर्बरता के बहुत से तरीके जोसेफ स्टालिन से सीखे। जब हिटलर जर्मनी का चासंलर बना तबतक स्टालिन ने रूस में अपनी सत्ता की जड़ें काफी मजबूत कर ली थीं। दोनों एक दूसरे से बर्बरता और अधिकनायकवाद सीख रहे थे। अगर होलोकास्ट ब्रिटानिका को देखें तो पता चलता है कि 23 अगस्त 1939 में हिटलर और स्टालिन ने एक समझौता किया। इस समझौते पर जर्मनी और सोवियत रूस के विदेश मंत्रियों ने हस्ताक्षर किए। इस समझौते को हिटलर-स्टालिन समझौता कहा जाता है। हिटलर और स्टालिन के बीच हुए इस समझौते के दो भाग थे। एक भाग जो सार्वजनिक किया गया और दूसरे को गोपनीय रखा गया। जो भाग सार्वजनिक किया गया उसमें समझौता ये था कि दोनों देश एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे। पर खतरनाक वो हिस्सा था जिसको उस समय गोपनीय रखा गया था। गोपनीय हिस्सा था पूर्वी यूरोप में दोनों देशों का दबदबा बनाना और पोलेंड का आपस में बंटवारा करना। ये समझौता दस वर्षों के लिए किया गया था और अगर दोनों में से किसी देश से आपत्ति नहीं आती तो अगले पांच वर्षों तक ये स्वत: बढ़ जाता । समझौते के एक ही सप्ताह बाद जर्मनी ने पोलैंड पर हमला कर दिया। युद्ध चल ही रहा था कि सोवियत रूस ने पूर्वी दिशा से पोलैंड पर हमला कर दिया। फिर दोनों ने गोपनीय समझौते के अनुसार पोलैंड को आपस में बांट लिया। कई इतिहासकार हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए जिम्मेदार मानते हैं लेकिन कुछ लोग हिटलर-स्टालिन समझौते को विश्वयुद्ध की जमीन तैयार करनेवाला बताते हैं क्योंकि इस समझौते के बाद ही सोवियत रूस ने फिनलैंड, लातिविया आदि पर कब्जा किया। इससे ये साबित होता है कि स्टालिन और हिटलर में सहमति थी। दोनों ने पूर्वी यूरोप को आपस में बांट लेने पर सहमति जताई थी और उसके लिए समझौता भी किया था। 

अब रही बात देश के निर्माण और विध्वंस की। जर्मनी के विश्वविद्यालयों और विज्ञानियों को खत्म करने की बात होती है और हिटलर को जिम्मेदार बताया जाता है। ये बताते हुए वामपंथी लेखक इस बात को सुविधानुसार तरीके से भुला देते हैं कि हिटलर यहूदियों को समाप्त कर रहा था। उस समय के जर्मनी में शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, मनोरंजन के क्षेत्र में यहूदियों का बोलबाला था। हिटलर को यहूदियों को मारना था तो जो उसके सामने आया मारा गया। इससे भी खतरनाक और बर्बर कार्रवाई तो स्टालिन ने की। 1937 में स्टालिन ने द ग्रेट पर्ज की आड़ में अपने राजनीतिक विरोधियों, किसानों का जो नरसंहार किया उसको नहीं भूलना चाहिए। स्टालिन इतने पर ही नहीं रुका था उसने तो जातीय नरसंहार किया जिसमें एक अनुमान के मुताबिक दस लाख से अधिक लोगों का कत्ल किया गया। देश के बाहर निर्वासित जीवन जी रहे लोगों को मरवाया गया। जब भी किसी दो व्यक्ति में तुलना होती है तो उसका पैमाना तय किया जाता है। किसी भी पैमाने पर स्टालिन जर्मन तानाशाह हिटलर से अधिक बर्बर, क्रूर, शातिर और वैश्विक समाज के लिए खतरनाक दिखाई देता है। स्टालिनवादी राजनीति मार्क्सवादियों से अधिक हिंसक है। बार बार इस बात का प्रयास किया जाता है कि हिटलर की तुलना में स्टालिन रचनात्मक दिखे। 25 जून को केंद्र सरकार ने संविधान हत्या दिवस घोषित किया है। उसके बाद से ही ये प्रयास दिखाई देने लगा है कि कैसे आपातकाल को उचित ठहराया जाए। ऐसे तर्क गढ़े जाएं जिससे ये लगे कि इंदिरा गांधी ने परिस्थियों से मजबूर होकर देश पर इमरजेंसी थोपी। 

Saturday, July 6, 2024

रणभूमि बदल गई युद्ध नहीं


पिछले दिनों देहरादून में दैनिक जागरण के ‘हिंदी हैं हम’ अभियान के अंतर्गत अभिव्यक्ति का उत्सव ‘जागरण संवादी’ का आयोजन हुआ। देशभर के लेखकों ने इस आयोजन में हिस्सा लिया था। जागरण संवादी के दूसरे दिन समापन सत्र के बाद रात्रि भोज था। खाना खत्म करने के बाद कुछ लेखक बाहर बैठ गए। साहित्यिक किस्सों का दौर आरंभ हुआ। रोचक संस्मरण का दौर चला तो समय का ध्यान नहीं रहा। साहित्य से होते होते बात फिल्मों तक आ पहुंची। इस चर्चा में ही हाल में ही ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आई फिल्म महाराज की चर्चा आरंभ हो गई। इस फिल्म से प्रभावित एक लेखक मित्र ने इसकी काफी प्रशंसा की। कहने लगे कि बहुत दिनों बाद भारतीय संस्कृति और धर्म से जुड़ी प्रथा और कुरीतियों को लेकर एक फिल्म आई है। इसमें अभिनेता आमिर खान के पुत्र जुनैद खान और जयदीप अहलावत के अभिनय की जमकर प्रशंसा हुई। जोश में उन्होंने इस फिल्म की संक्षिप्त कहानी भी बताई। पता चला कि ये फिल्म चरण पूजा जैसी प्रथा और उसके विरुद्ध एक समाज सुधारक-पत्रकार के संघर्ष की गाथा है। 

पत्रकार जब अपनी प्रेमिका और मंगेतर को वैष्णव संप्रदाय के बाबा की चरण पूजा करते देखता है तो अपना आपा खो देता है। दरअसल चरण पूजा उन्नीसवीं शताब्दी की एक ऐसी कुप्रथा थी जिसमें वैष्णव संप्रदाय का बाबा किसी लड़की को चुन लेता था। उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता था। बांबे (अब मुंबई) के जिस हवेली की कहानी है उसमें भी बाबा लड़कियों को चरण पूजा के लिए चुनता था। कहीं न कहीं ये देवदासी प्रथा से मिलती जुलती कुरीति थी। इस फिल्म से प्रभावित मित्र जब कहानी सुना रहे थे तो वो इस बात को लेकर आह्लादित थे कि कैसे एक पत्रकार ने इतने बड़े संप्रदाय के खिलाफ लड़ाई का बिगुल फूंका था। वो बार-बार इस बात पर जोर दे रहा था कि हिंदू धर्म में कैसी कैसी कुरीतियां थीं। वो फिल्म के संवाद पर भी लहालोट थे। बता रहे थे कि कैसे वो पत्रकार करसनदास जब अपनी मंगेतर से संबंध तोड़ता है तो कहता है कि सही और गलत का भेद जानने में धर्म की नहीं बुद्धि की जरूरत होती है। आपको बताते चलें कि इस फिल्म के प्रदर्शन पर पहले गुजरात हाईकोर्ट ने रोक लगाई थी लेकिन बाद में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाते हुए इसके प्रदर्शन की अनुमति दे दी थी। 

जब वो ये बातें कह रहे थे तो साथ बैठे एक युवा लेखक बहुत ध्यान से उनकी बातें सुन रहे थे। उसने बहुत धीमे से कहा कि अच्छा ये बताइए कि बाबा के खिलाफ जो पत्रकार या समाज सुधारक खड़ा हुआ था वो किस धर्म का था। वो भी तो हिंदू ही था। इस फिल्म में दिखाई गई सारी कुरीतियों, विधवाओं के साथ समाज का गलत रवैया, छूआछूत, चरण सेवा, दक्षिण के मंदिरों में देवदासी प्रथा आदि के खिलाफ तो हिंदू समाज ही खड़ा हुआ था। चाहे वो राजा राममोहन राय हों, रख्मादेवी हों, ज्योति बा फुले हों या बाद के दिनों में महात्मा गांधी हों। सबने अपने धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए संघर्ष किया था। यह किसी अन्य धर्म में दिखता है क्या। उसका तर्क था कि जब ये कुरीतियां समाप्त हो गईं तो इसको फिल्म के माध्यम से दिखाकर निर्माता क्या हासिल करना चाहते हैं। वो भी सत्य घटना पर आधारित कहकर प्रचारित करते हुए। बाबा के मुंह से इस तरह के संवाद कहवा कर कि चरण सेवा के भक्ति रस को श्रृंगार रस क्यों समझ बैठे। दोनों में बहस होने लगी। 

बाकी लोग इस चर्चा को बड़े गौर से सुन रहे थे। बीच बीच में कुछ बोल भी रहे थे। पर इन दोनों के बीच चर्चा आगे बढने लगी। पहले वाले लेखक मित्र ने कहा कि जबतक अतीत को याद रखा जाएगा तभी भविष्य और वर्तमान को बेहतर बनाया जा सकता है। इसपर फटाक से युवा लेखक ने कहा कि जब वर्तमान राजनीति में नेहरू की गलत नीतियों की बात की जाती है तो आप ही लोग कहने लगते हैं कि गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रहे हो। यहां तो करीब दो सौ वर्ष पुरानी कुरीति को उखाड़ा गया। इसको दिखाने का उद्देश्य क्या है। अब धीरे-धीरे बात फिल्मों से राजनीति और नैरेटिव पर पहुंच गई। 

जब बात नैरेटिव पर पहुंची तो एक लेखिका ने हस्तक्षेप किया। उसका कहना था कि कुरीतियों को दिखाओ। लेकिन संवाद के माध्यम से जब आप किसी बच्चे से ये कहलवाते हो कि क्या भगवान गुजराती समझते हैं। या जब उसकी मां कहती है कि मन में इतने सवाल होंगे तो पूजा कैसे करोगे। या बाबा जब कहता है कि धर्म का पालन डर से करवाना पड़ता है। तो फिल्म के उद्देश्य पर बात तो होगी ही। बात इसलिए भी होगी कि पूरा संदर्भ हिंदू धर्म से जुड़ा हुआ है। जबकि हिंदू धर्म में सनातन काल से प्रश्न करने की स्वतंत्रता है। आप ईश्वर पर भी प्रश्न कर सकते हैं। देहरादून के मौसम में चर्चा थोड़ी गर्म होने लगी थी। लेखिका ने कहा कि इस तरह तो वेब सीरीज लैला में भी कुरीतियों को ही दिखाया गया था। फिर उसकी आलोचना क्यों हुई थी। जिस तरह से लैला में हिंदू धर्म का चित्रण हुआ था या जिस तरह से उसमें राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की गई थी वो कुरीतियों पर भारी पड़ गया था। उसने कहा कि फिल्म कुछ लोगों को अच्छी लग सकती है लेकिन जिस तरह इसको नेटफ्लिक्स के कारण इस फिल्म को वैश्विक दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया गया उससे भारत की छवि पर क्या असर पड़ेगा। वो बहुत मजबूती से अपनी बात रख रही थीं। इस तरह की फिल्मों से एक नैरेटिव बनता है, एक एजेंडा सेट होता है। महाराज फिल्म पर सबके अपने अपने तर्क थे। रात काफी हो गई थी तो बैठकी समाप्त की गई। 

चर्चा समाप्त कर होटल के अपने कमरे में जाकर काफी देर तक उपरोक्त तर्कों पर विचार करता रहा। किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहा था। वापस दिल्ली लौटने पर पता चला कि फिल्म महाराज वैश्विक स्तर पर बहुत अच्छा परफार्म कर रही है, विशेषकर इस्लामिक देशों में। इस फिल्म की कई इस्लामिक देशों में रेटिंग और रैकिंग दोनों अच्छी है। बताय गया कि नेटफ्लिक्स का दावा है कि 20 से अधिक देशों में इस फिल्म को लाखों दर्शकों ने देखा है। इस सब जानने के बाद मुझे लैला वेब सीरीज की याद आई। तब भी इसकी खूब चर्चा हुई थी कि  इस वेब सीरीज को वैश्विक दर्शकों ने खूब पसंद किया था। अब दोनों में एक समानता तो है। दोनों वेब सीरीज की कहानी हिंदू धर्म की कुरीतियों पर आधारित है। वैसी कुरीतियां जो अब हिंदू धर्म में नहीं हैं। जब वैश्विक स्तर पर भारत की छवि मजबूत हो रही हो तो दो सौ वर्ष व्याप्त कुरीतियों पर फिल्म बनाकर उसको ओटीटी पर रिलीज करने का उद्देश्य और औचित्य समझने का प्रयास करना चाहिए। अचानक से देहरादून की चर्चा के दौरान लेखिका मित्र की कही एक बात दिमाग में कौंध गई, रणभूमि भले ही बदल गई लेकिन युद्ध नहीं। संदर्भ नैरेटिव का था।      


Saturday, June 29, 2024

सनातन प्रतीकों पर राजनीति का खेल


नई लोकसभा के गठन के बाद जब संसद का सत्र आरंभ हुआ तो विपक्षी दल के सांसदों ने संविधान का उपयोग नए राजनीतिक औजार के रूप में करना आरंभ किया। संविधान की प्रति लेकर शपथ लेना आरंभ किया। संविधान को लेकर चुनाव के समय से जो चर्चा आरंभ हुई थी वो लोकसभा तक पहुंच गई। संविधान पर चर्चा और उसके बचाने के दावे के साथ उत्साहित विपक्ष ने नई लोकसभा में सेंगोल की स्थापना को लेकर भी प्रश्न उठाया। समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी सफलता से उत्साहित है। पार्टी के सांसद आर के चौधरी ने संसद में सेंगोल की जगह संविधान की प्रति लगाने की बात कहकर एक नए विवाद को जन्म दिया। आर के चौधरी ने कहा कि ‘सेंगोल राजा महाराज के टाइम का था। सेंगोल तमिल भाषा का शब्द है। जब यहां राजा महाराजा थे तब यहां सेंगोल तैयार किया गया। जब देश को स्वतंत्रता मिल गई या मिलनेवाली थी या जब सत्ता का हस्तांतरण होनेवाला था तो यहां के पुरोहितों ने प्रस्ताव दिया और उनके प्रस्ताव पर सेंगोल बनवाया गया। सेंगोल के तैयार होने के बाद उसको लार्ड माउंटबेटन को दे दिया गया जिन्होंने उसको जवाहरलाल नेहरू को ट्रांसफर कर दिया। नेहरू ने उसको इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के संग्रहालय में स्थापित करवा दिया। ये पुरानी बात हो गई। सेंगोल जहां था वहां था। वहां से सेंगोल को लाकर नई संसद भवन में रख दिया गया। संसद लोकतंत्र का मंदिर है। हम चाहते हैं कि वहां सेंगोल नहीं देश के संविधान की एक प्रति रखी जाए। उसी से देश चलेगा। देश संविधान से चलेगा। लोकतंत्र से चलेगा। अगर लोकतंत्र को बचाना है तो सेंगोल को हटाना है।‘ 

समाजवादी पार्टी के सांसद ने सेंगोल को लेकर जो टिप्पणी की उसपर विचार करने की आवश्यकता है। पहली बात तो 1950 में संविधान लागू होने के बाद से ही देश संविधान से ही चल रहा है। अगर इमरजेंसी के कालखंड को छोड़ दें जब संविधान की प्रस्तावना को न केवल अवैध तरीके बदला गया बल्कि संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों को भी खत्म कर दा गया था। प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दिया गया था। संविधान में संशोधन भी किए गए। शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद संविधान को बदला भी गया। इन घटनाओं के अलावा संविधान कभी खतरे में नहीं आया। दूसरी बात जो आर के चौधरी ने कही कि सेंगोल को पुरोहितों के कहने पर तैयार करवाया गया। यह तथ्य से परे प्रतीत होता है। सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण का प्रस्ताव चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पहल पर हुआ था। सेंगोल से सत्ता हस्तांतरण की परंपरा चोल राजवंश में थी उसको स्वतंत्र भारत में सनातन से जोड़कर अपनाया गया था। थिरूवावडुथुरई अधीनम तमिलनाडू के शिवभक्तों का एक बड़ा और प्रभावशाली समूह है। यह समूह सनातन में आस्था रखनेवाले पिछड़े समुदाय का है। समाज के उस हिस्से को सेंगोल बनाने और सत्ता हस्तांतरण समारोह की जिम्मेदारी दी गई जो गैर ब्राह्मण थे, लेकिन शिव और सनातन में उनकी आस्था थी। जब आर के चौधरी बोल रहे थे तो स्पष्ट हो रहा था कि वो सेंगोल के बारे में समग्र तथ्यों से अंजान थे। वो अपनी राजनीति करने के लिए अपनी सुविधानुसार बातों को रखने का प्रयास कर रहे हैं। आर के चौधरी के इस बयान के बाद कुछ राजनीतिक विश्लेषक भी अपने अपने तरीके से सेंगोल को हिंदू धर्म प्रतीक बताकर उसके विपोध की राजनीति को हवा देने में जुट गए। एक विश्लेषक ने तो यहां तक कह दिया कि सेंगोल की स्थापना के समय जिस तरह से सनातन धर्म के गुरुओं के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने संसद भवन में प्रवेश किया था वो पंथ निरपेक्ष संविधान के अनुकूल नहीं है। प्रधानमंत्री तक को ये सलाह दे दी गई कि उनको इस तरह से हिंदू धर्म प्रतीकों के सार्वजनिक प्रदर्शन से बचना चाहिए। उनको लगता है कि सेंगोल स्थापना या नई संसद भवन के शुभारंभ के अवसर पर किया गया आयोजन हिंदू वोटबैंक को ध्यान में रखकर किया गया था। 

जब भी इस तरह की टिप्पणी सुनने को मिलती है तो इन राजनीतिक विश्लेषकों की खटाखट और फटाफट सोच पर हंसी आती है। आज जो लोग संविधान की बात कर रहे हैं। उसको हाथ में लेकर संविधान की कसमें खा रहे हैं उनको और उनके राजनीतिक विश्लेषकों को संविधान की प्रति को खोलकर देखना चाहिए। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की अगुवाई में जब संविधान का ड्राफ्ट तैयार हो गया था तब संविधान सभा में उसी साज सज्जा को लेकर चर्चा हुई थी। सदस्यों के साथ चर्चा के उपरांत ये तय किया गया कि प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस से इसकी साज सज्जा करवाई जाए। संविधान को देखें तो उसका जो भाग तीन है, जिसमें मौलिक अधिकारों की चर्चा की गई है, उस भाग के आरंभ में प्रभु श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की अयोध्या वापसी के चित्र अंकित हैं। इसी तरह से संविधान के भाग दो का आरंभ वैदिक काल के गुरुकुल के चित्र से की गई है। इस भाग में नागरिकता से संबंधित बातें हैं। संविधान के पहले भाग में सिंधु घाटी सभ्यता के प्रतीक जैबू, जो नंदी जैसे प्रतीत होते हैं, का चित्र है। इसके आलोक में देखा जाए तो क्या ये मान लिया जाए कि संविधान निर्माताओं ने हिंदू धर्म प्रतीकों को अंगीकार किया था। क्या वो सनातन के प्रतीक चिन्हों का सार्वजनिक प्रदर्शन था या संविधान सभा के सदस्यों की मूल भावना थी। दरअसल इसको और कालांतर में संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए पंथनिरपेक्षता से मिलाकर देखें तो ये स्पष्ट होता है कि संविधान और संविधान सभा के सदस्यों के मूल भावना के विरुद्ध जाकर प्रस्तावना में पंथ निरपेक्षता जैसे शब्द जोड़े गए। 

संविधान और कानून के रक्षक सुप्रीम कोर्ट का ध्येय वाक्य देखा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के लोगो पर लिखा है यतो धर्मस्ततो जय: । इसका अर्थ है जहां धर्म है वहां जय है। अब इन राजनीतिक विश्लेषकों को कौन समझाए कि ये वाक्य कहां से लिया गया है। महाभारत में अनेकों बार ये पंक्ति आती है। क्या ये भी हिंदू धर्म का सार्वजनिक प्रदर्शन है। संविधान सभा के सदस्य भारत भूमि और भारत की सनातन संस्कृति की विराटता के परिचित थे। इस कारण उन्होंने सनातन और हिंदू धर्म के प्रतीक चिन्हों को उसकी मूल भावना के साथ रखा। राम और प्रकृति को समान महत्व दिया गया। बाद के दिनों में जब संकुचित मानसिकता के लोग सत्ता में आए तो वो सनातन की विराटता और भारतीय संस्कृति को समझ नहीं पाए। पंथ निरपेक्षता जैसे संकुचित शब्द से भारतीय संस्कृति को बांधने की कुचेष्टा की गई। परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज की सनातन परंपरा खांचों में विभाजित होती चली गई। आज जो लोग संविधान और सनातन प्रतीकों पर शोर शराबा मचा रहे हैं दरअसल वो संविधान की मूल भावना के विरुद्ध ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। संविधान को राजनीति का औजार बनाकर अपने राजनीतिक हित साध रहे हैं। संविधान का मूलाधार सनातन है जो आत्मा की तरह अजर अमर है। वो शरीर तो बदलता है लेकिन आत्मा वही रहता है। संविधान पर लाख बातें हो, खूब चर्चा हो लेकिन उसकी मूल भावना से खिलवाड़ न हो।      


Saturday, June 22, 2024

लोकतंत्र को कमजोर करने की रणनीति


लोकसभा चुनाव संपन्न होने के बाद अब पूरे देश की निगाहें संसद के आगामी सत्र पर है। अपनी आंशिक सफलता के उत्साहित विपक्ष सरकार को घेरने के लिए कमर कस चुका है। उधर मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार अपने निर्णयों से ये आभास देने की भरपूर कोशिश कर रही है कि भले ही सरकार गठबंधन की हो लेकिन सबकुछ मोदी स्टाइल में ही हो रहा है। चुनाव संपन्न के होने के बाद से विपक्ष निरंतर नए नए मुद्दे उठाकर सरकार को घेरने का प्रयत्न कर रही है। 4 जून को चुनाव के नतीजे आए थे तब विपक्ष के किसी नेता ने ईवीएम को लेकर प्रश्न नहीं उठाए थे। नरेन्द्र मोदी ने ही सांसदों की बैठक में व्यंग्य किया था कि बेचारी ईवीएम बच गई। मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 240 सीटें मिली हैं। इस बात को याद रखा जाना चाहिए कि पिछले दस वर्षों में से देश में मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार चल रही थी। चुनाव संपन्न होने के बाद कुछ ऐसे बिंदु हैं जिसपर विचार किया जाना आवश्यक है। चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने संकेत किया था कि विदेशी ताकतें चुनाव को प्रभावित करने के लिए सक्रिय हैं। तब मोदी के उस वक्तव्य पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई थी। अब जबकि देश में सरकार बन चुकी है, मंत्रिमंडल का गठन हो चुका है तो चुनाव के दौरान की कुछ घटनाओं और उसके पहले की पृष्ठभूमि की चर्चा करना उचित प्रतीत होता है। देश में चुनाव के पहले अमेरिकी खरबपति जार्ज सोरोस के बयान को याद किया जाना चाहिए। 2020 में उसने मोदी को तनाशाही व्यवस्था का प्रतीक बताया था। फिर अदाणी को लेकर उसने मोदी पर हमला किया था और कहा था कि ये मुद्दा भारत में लोकतांत्रिक परुवर्तन का कारण बनेगा। इसके बाद भी कई तरह की खबरें इंटरनेट मीडिया पर प्रसारित हुईं जिसमें कहा कि जार्ज सोरोस भारत में होनेवाले लोकसभा चुनाव को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है। निवेश भी। अमेरिका जिस तरह की राजनीति करता है उसमें वो वैश्विक स्तर पर अपने प्रभाव और दबदबे को कायम रखने के लिए हर देश में परोक्ष रूप से दखल देता रहता है।

अमेरिकी नेतृत्व चाहता है कि दुनिया में किसी भी देश में कमजोर सरकार बने ताकि वो देश अमेरिका की मदद पाने के लिए जतन करता रहे। कूटनीतिक कदमों से लेकर रणनीतिक निर्णय लेने के पहले अमेरिका से चर्चा करे। ऐसी स्थिति में अमेरिका को अपने देश और व्यापारिक हितों की रक्षा करने में सहूलियत होती है। 2014 में मोदी सरकार के बनने और 2019 में अधिक मजबूती से वापस आने के बाद नरेन्द्र मोदी ने वैश्विक मंच पर भारत के हितों को प्राथमिकता पर रखना आरंभ कर दिया। मोदी ने भारतीय प्रवासियों की शक्ति को भी देशहित में उपयोग करना आरंभ कर दिया। ये बातें अमेरिका को नागवार गुजरने लगीं। 2019 के सितंबर में प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका के ह्यूस्टन में हाउडी मोदी नाम के एक कार्यक्रम में भाग लिया था। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी उस कार्यक्रम में आए थे। वहां अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा लगा था। उस नारे के बाद अमेरिकियों के कान खड़े हो गए थे। उनको लगने लगा था कि जो काम आजतक परोक्ष रूप से अमेरिका करता था वही काम भारत उनके देश में सरेआम कर रहा है। अमेरिका में प्रवासी भारतीयों की संख्या काफी अधिक है और उनमें से अधिकतर प्रधानमंत्री मोदी के समर्थक माने जाते हैं। प्रवासी भारतीय अमेरिकी चुनाव में कई सीटों पर परिणाम को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। 

वैश्विक राजनीति पर नजर रखनेवाले विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप की हार के बाद जब जो बिडेन राष्ट्रपति बने तो भारत की राजनीति एजेंसियों की प्राथमिकता पर आ गया। वहां की एजेंसियां कारोबारियों और स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से दूसरे देशों की गतिविधियों में निवेश करती है और अपने मनमुताबिक नैरेटिव चलाती है, काम करवाती है। ऐसे कई अमेरिकी फाउंडेशन हैं जो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से निवेश करती रही हैं जो परोक्ष रूप से आंदोलन और नैरेटिव बनाती हैं। मोदी सरकार ने पिछले दस वर्षों के अपने कार्यकाल में ऐसे सरोगेट निवेश पर अंकुश लगाया। इस कारण कई वैश्विक संस्थाएं मोदी विरोध में आ गईं। जिस तरह के किसान आंदोलन के समय विदेशी सेलिब्रेटी इसके समर्थन में उतरीं, जिस तरह से शाहीन बाग धरने को सेलेब्रिटी के जरिए चर्चित बनाने का कार्य किया गया, उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। अगर इस क्रोनोलाजी को देखते हैं तो एक और चीज नजर आती है कि 2019 के बाद से अमेरिकी इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स ने ऐसा एलगोरिथम बनाया जिसमें मोदी विरोधी नैरेटिव व्यापक स्तर पर फैल सके। ये अब भी चल रहा है।  

अब एक ऐसी दिलचस्प घटना की चर्चा कर लेते हैं जो राहुल गांधी से जुड़ी हुई है। राहुल गांधी रायबरेली से चुनाव लड़ेंगे या अमेठी से इसको लेकर कयास का दौर चल रहा था। इस बीच कांग्रेस पार्टी ने 30 अप्रैल को एक्स पर एक वीडियो लांच किया जिसमें बताया गया कि शतरंज और राजनीति में विरोधियों की चाल में भी संभावना होती है। तीन मई को दोपहर राहुल गांधी रायबरेली से नामांकन करते हैं। तीन मई को ही एक्स पर एक व्यक्ति ने तंज करते हुए गैरी कास्परोव को टैग किया। इसपर गैरी कास्परोव ने उत्तर दिया कि पारंपरिक तरीका तो यही कहता है कि पहले आप रायबरेली से चुनाव जीतें फिर शीर्ष को चुनौती दें। उसके एक दिन बाद फिर से गैरी कास्परोव ने कोट करते हुए एक्स पर लिखा कि उनके पोस्ट को किसी की वकालत न समझा जाए लेकिन मेरे जैसे 1000 आंखों वाला शैतान, जैसा मेरे बारे में कहा जाता है, बगैर गंभीर हुए मेरे खेल में हाथ न आजमाने की सलाह देता है । चार जून को रायबरेली का चुनाव परिणाम आया। राहुल गांधी वहां से जीते। थोड़े दिनों बाद रायबरेली से ही सांसद बने रहने की घोषणा कर दी। तीन मई की टिप्पणी के बाद से गैरी कास्परोव ने आजतक भारतीय राजनीति पर कोई टिप्पणी नहीं की। तीन मई को कैस्परोव के ट्वीट के बाद एक नैरेटिव बना कि पहले रायबरेली जीतो फिर शीर्ष को चुनौती देना। रायबरेली जीत कर शीर्ष याने मोदी को चुनौती देने का प्रयास कर रहे हैं। 

चुनाव समाप्त होने के बाद राहुल गांधी ने अयोध्या में भारतीय जनता पार्टी की हार और वाराणसी में मोदी की जीत का अंतर कम होने पर एक उत्सवी बयान दिया। अयोध्या-फैजाबाद लोकसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी की पराजय को हिंदुत्व की पराजय के तौर पर दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। अयोध्या की हार हिदुत्व की नहीं बल्कि स्थानीय कारकों के कारण हुई। तमाम वैश्विक कारस्तानियों के बावजूद मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी होकर उभरी। मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। आज जब हमारे देश का लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। संविधान बदलने का नैरेटिव चलाकर फिर से समाज को समूह में बांटने का काम किया जा रहा है। तो एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़ा होता है कि समाज को बांटकर देश को कमजोर करने में किसका हित सधेगा।