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Sunday, April 14, 2019

साहित्य के तिलिस्म में जासूसी लेखन


साहित्य में वो दौर महफिलों का था, कॉफी हाउस से लेकर कई साहित्यिक ठीहों पर साहित्यकारों का जमावड़ा हुआ करता था। जहां साहित्य की विभिन्न विधाओं और प्रवृत्तियों पर बहसें हुआ करती थीं, एक दूसरे की रचनाओं पर बातें होती थीं,रचनाओं की स्वस्थ आलोचना होती थी। इन साहित्यिक जमावड़ों और महफिलों का साहित्य सृजन में बड़ी भूमिका रही है। कई साहित्यकारों ने अपने संस्मरणों में इन साहित्यिक ठीहों पर होनेवाले दिलचस्प किस्सों को लिखा है। ऐसा ही एक बेहद दिलचस्प वाकया है एक साहित्यिक महफिल का जिसमें राही मासूम रजा, इब्ने सफी, इब्ने सईद और प्रकाशक अब्बास हुसैनी के अलावा कई और साहित्यकार बैठे थे। चर्चा देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता की शुरू हो गई। अचानक राही मासूम रजा ने एक ऐसी बात कह दी कि वहां थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया। राही मासूम रजा ने कहा कि बगैर सेक्स प्रसंगों के तड़का के जासूसी उपन्यास लोकप्रिय नहीं हो सकता है। इब्ने सफी, रजा की इस बात से सहमत नहीं हो पा रहे थे। दोनों के बीच बहस बढ़ती जा रही थी। सफी लगातार राही मासूम रजा का प्रतिवाद कर रहे थे। अचानक राही मासूम रजा ने अपने खास अंदाज में इब्ने सफी को चुनौती देते हुए कहा कि वो बगैर सेक्स प्रसंग के जासूसी उपन्यास लिखकर देख लें कि उसका क्या हश्र होता है। सफी ने रजा की इस चुनौती को स्वीकार किया और बगैर किसी सेक्स प्रसंग के एक जासूसी उपन्यास लिखा। जिसे प्रकाशक अब्बास हुसैनी ने अपने प्रकाशन निकहत पॉकेट बुक से प्रकाशित किया। वो उपन्यास जबरदस्त हिट हुआ और उसने जासूसी उपन्यासों की दुनिया में तहलका मचा दिया। इस सफलता के बाद इब्ने सफी जासूसी उपन्यास की दुनिया के बेताज बादशाह बन गए थे। यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि इब्ने सफी बंटवारे के वक्त पाकिस्तान नहीं गए बल्कि पांच साल बाद 1952 में पाकिस्तान गए। वहां जाने के बाद भी उनके उपन्यास प्रकाशित होने के लिए अब्बास हुसैनी के पास आते थे जो उर्दू और देवनागरी लिपि में छपा करते थे। बाद में अनुदित होकर अन्य भाषा के पाठकों तक पहुंचते थे। इब्ने सफी इतने लोकप्रिय थे और उनकी कीर्ति इतनी थी कि अगाथा क्रिस्टी जैसी मशहूर लेखिका ने भी ये माना था कि वो बेहद मैलिक लेखन करते हैं। इब्ने सफी का इमरान सीरीज काफी लोकप्रिय हुआ था। माना जाता है कि इब्ने सफी ने ही जासूस जोड़ी की शैली में लिखना शुरू किया जिसे बाद के कई लेखकों ने अपनाया। इब्ने सफी के उपन्यास प्रकाशित करने के पहले अब्बास हुसैनी दो पत्रिकाएं निकालते थे जासूसी दुनिया और रूमानी दुनियाजासूसी दुनिया में सफी साहब और रूमानी दुनिया में राही मासूम रजा लिखा करते थे। कहा तो ये भी जाता है कि जब जरूरत होती थी तो राही मासूम रजा भी नाम बदलकर जासूसी कहानियां लिखा करते थे। इब्ने सफी की सफलता के दौर में ही इलाहाबाद से जासूसी पंजा नाम की पत्रिका में अकरम इलाहाबादी भी एक जासूसी कथा श्रृंखला लिखा करते थे। ये सीरीज बेहद लोकप्रिय थी। जासूसी पंजा में प्रकाशित होनेवाली जासूसी कथा की लोकप्रियता को देखकर ही हिंद पॉकेट बुक्स ने एक रुपए मूल्य के पुस्तकों की सीरीज छापनी शुरू की थी। प्रकाशन जगत में यह प्रयोग काफी सफल रहा था।  
इसके पहले हिंदी उस दौर को देख चुकी थी जब देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता के तिलिस्मी कथा के सम्मोहन में पाठक उलझे थे। उनकी लोकप्रियता इतनी जबरदस्त थी कि उसको पढ़ने के लिए लोग हिंदी सीखते थे। चंद्रकांता की लोकप्रियता और पाठकों में तिलिस्मी-ऐयारी कथा की भूख को देखते हुए देवकीनंदन खत्री के दो पुत्रों ने विपुल मात्रा में जासूसी लेखन किया। उनके एक लड़के दुर्गाप्रसाद खत्री ने स्थानीय पात्रों और घटनाओं को केंद्र में रखते हुए जासूसी उपन्यास लिखे तो उनके दूसरे बेटे परमानंद खत्री ने कई विदेशी जासूसी उपन्यासों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया। उनके अलावा भी उस दौर में अन्य लेखकों ने विदेशी जासूसी उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद किया। उर्दू लेखक जफर उमर का एक जासूसी उपन्यास प्रकाशित हुआ जिसके बारे में कहा जाता है कि वो एक विदेशी उपन्यास का अनुवाद था। यह उपन्यास भी बेहद लोकप्रिय हुआ। उसी समय तीरथराम फिरोजपुरी ने भी कई जासूसी उपन्यासों का अनुवाद उर्दू में किया जो बाद में हिंदी में भी छपा। हिंदी में जासूसी उपन्यासों की चर्चा गोपाल राम गहमरी के बगैर अधूरी है। गोपाल राम गहमरी पत्रकार थे और कई पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े थे। उन्होंने 1900 में जासूस नाम की पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। जब इस पत्रिका का विज्ञापन उनके संपादन में निकलनेवाले समाचारपत्र भारत मित्र में प्रकाशित हुआ तो लोगों में नई पत्रिका के कंटेंट को लेकर उत्सकुकता का भाव पैदा हुआ। जासूस पत्रिका का विज्ञापन इतना रोचक और दिलचस्प तरीके से लिखा गया था कि उसके एडवांस बुकिंग से गहमरी साहब को करीब पौने दो सौ रुपए मिले थे। सैकड़ों की संख्या में वार्षिक ग्राहक बने थे। आज मार्केटिंग के नाम पर प्री-बुकिंग का चाहे जितना शोर मचे और उसको नई प्रवृत्ति बताई जाए लेकिन ये काम गहमरी ने आज से एक सौ उन्नीस साल पहले सफलतापूर्वक कर दिखाया था। अपनी पत्रिका जासूस को लेकर गहमरी बेहद संवेदनशील थे। हर अंक में एक नए जासूसी उपन्यास के प्रकाशन की चुनौती अपने उपर ले रखी थी, नतीजा यह होता था कि या तो वो किसी दूसरी भाषा के जासूसी उपन्यास का अनुवाद करते थे या फिर मौलिक उपन्यास लिखते थे। अनुमान और उपलब्ध तथ्यों और संस्मरणों के मुताबिक गोपाल राम गहमरी ने साठ से अधिक मौलिक जासूसी उपन्यास लिखे और करीब डेढ़ सौ अन्य भाषा के उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद किया था। गोपाल राम गहमरी ने ही हिंदी को देवकीनंदन खत्री की ऐयारी की जगह जासूसी शब्द दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने लेखन में गहमरी का उल्लेख किया है, उनके काम को रेखांकित भी किया है लेकिन जितनी महत्ता इस विधा को मिलनी चाहिए थी उतनी हिंदी के आलोचकों ने इसको दी नहीं। आलोचकों की उदासीनता की वजह से ही इस विधा का उतनी मजबूती से विकास नहीं हो सका जिसकी ये हकदार थी। उपेक्षा से किसी विधा के लगभग खत्म होने का यह नमूना है।  
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जब देश में हिंदी साहित्य को मजबूती मिलने लगी तो जासूसी की इस विधा के योगदान को भी लगभग नकार दिया गया। इस बात को भी शिद्दत से रेखांकित नहीं किया गया कि हिंदी के प्रसार में जासूसी उपन्यासों और पत्रिकाओं की अहम भूमिका थी। हिंदी के आलोचक जब मार्क्सवाद के प्रभाव में आए और उस विचारधारा ने मजबूती से आकार ग्रहण करना शुरू किया तो हिंदी साहित्य में अजीब तरह की वर्णवादी व्यवस्था ने भी जन्म लिया। इस साहित्यिक वर्णवादी व्यवस्था में कविता को शीर्ष पर रखकर साहित्य का आकलन शुरू हुआ। कहना ना होगा कि इस वजह से कई विधाएं अस्पृश्य होती चली गईं। हिंदी में सिनेमा पर लंबे समय तक गंभीर लेखन नहीं हो पाया क्योंकि उसको लोकप्रिय विधा कहकर गंभीरता से लिया ही नहीं गया। लोक और जन की बात करनेवालों ने लोकप्रिय विधा के मूल्यांकन की जरूरत ही नहीं समझी। इसी तरह से जासूसी उपन्यासों को हाशिए पर डाल दिया गया और उनको दशकों तक लुगदी साहित्य कहकर मजाक उडाया जाता रहा। कर्नल रंजीत, ओम प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, अनिल मोहन, मनोज आदि के जासूसी उपन्यासों ने भी खूब धूम मचाई लेकिन वो तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य़ में प्रवेश नहीं पा सके। जेम्स हेडली चेज के हिंदी में अनुदित उपन्यासों की खूब मांग होती थी, इसके लोकप्रिय होने की वजह इसमें सेक्स प्रसंगों का होना भी माना जा सकता है। जब वेदप्रकाश शर्मा का उपन्यास वर्दी वाला गुंडा प्रकाशित होनेवाला था तो कई शहरों में उस उपन्यास के होर्डिंग लगे थे। ये उपन्यास खूब बिक रहे थे, पाठक इनको हाथों हाथ ले रहे थे लकिन हिंदी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक इसको अपनाने और मानने को तैयार नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि हिंदी में जासूसी उपन्यास लिखनेवाले कम होते चले गए। दो सौ उपन्यास लिखनेवाले सुरेन्द्र मोहन पाठक को पिछले पांच सात सालों में तथाकथिक मुख्यधारा के साहित्य में स्वीकृति मिलनी शुरू हुई है।
दूसरी एक और वजह ये रही कि शीतयुद्ध खत्म होने के बाद जासूसों से जुड़ी खबरें कम आने लगीं थीं। एक दौर था जब रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी और अमेरिका की एजेंसी सीआईए से जुड़ी खबरें लगातार आती थीं, जिससे जासूसों के क्रियाकलापों को लेकर एक उत्सकुकता का माहौल बनता था। इस माहौल की वजह से भी जासूसी उपन्यासों की मांग बढ़ती थी। इस माहौल का ही असर था कि पॉकेट बुक्स के अलावा बाल पाकेट बुक्स भी छपने लगे थे। बाल पॉकेट बुक छात्रों को ध्यान में रखकर छपते थे। 1980 के दशक में राजन-इकबाल के जासूसी सीरीज के उपन्यासों की धूम रहती थी। हमें याद है कि अपने स्कूली दिनों में जमालपुर रेलवे स्टेशन पर व्हीलर की दुकान पर जाकर राजन-इकबाल सीरीज के उपन्यासों की अग्रिम बुकिंग करवाया करते थे। अगर अग्रिम बुकिंग नहीं करवा पाते थे तो इस बात की कोई गारंटी नहीं होती थी कि आपको उपन्यास मिल ही जाएगा। कहा ये भी जाता है कि टीवी और इंटरनेट के फैलाव ने भी जासूसी उपन्यासों की लोकप्रियता को कम किया, लेकिन ये वजह उपयुक्त नहीं प्रतीत होती है। अगर ऐसा होता तो अंग्रेजी में जासूसी उपन्यासों की इतनी जबरदस्त मांग कैसे रहती। वहां तो हमसे पहले से टीवी भी है और इंटरनेट भी। इस नतीजे पर पहुंचने के लिए शोध की आवश्यकता है।

Saturday, March 9, 2019

फॉर्मूलाबद्ध लेखन की बेड़ी में साहित्य


आगामी सितंबर में स्कॉटलैंड में इंटरनेशनल क्राइम राइटिंग फेस्टिवल का आयोजन होना है। इस क्राइम राइटिंग फेस्टिवल का नाम ब्लडी स्कॉटलैंड है। इस फेस्टिवल में दुनिया की अलग अलग भाषाओं के अपराध कथा लेखक शामिल होते हैं। इस फेस्टिवल की चर्चा इस वजह से हो रही है क्योंकि पिछले दिनों एक साहित्योत्सव के दौरान संस्कृतिकर्मी मित्र संदीप भूतोडिया ने बातचीत के दौरान बताया कि ब्लडी स्कॉटलैंड इंटरनेशनल क्राइम राइटिंग फेस्टिवल ने तय किया है कि वो हिंदी से भी एक अपराध कथा लेखक को इस फेस्टिवल में निमंत्रित करेंगे। तीन चार साहित्यिक मित्र वहां खड़े थे। इस खबर को सुनने के बाद सबके चेहरे पर खुशी का भाव था क्योंकि उनको लग रह था कि हिंदी लेखकों की पूछ वैश्विक स्तर पर बढ़ रही है। हम सब लोग खुश हो ही रहे थे कि संदीप भूतोड़िया ने हमसे हिंदी के एक क्राइम फिक्शन या अपराध कथा लेखक का नाम पूछा ताकि ब्लडी स्कॉटलैंड फेस्टिवल के आयोजकों को सुझा सकें। वहां खड़े सबके मुंह से निकला सुरेन्द्र मोहन पाठक। फिर पता चला कि पाठक जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। पाठक जी के अलावा किसी क कोई नाम सूझ नहीं रहा था। लंबी चर्चा के बाद भी हम सब हिंदी के किसी अपराध कथा लेखक का नाम नहीं सुझा पाए। हिंदी के अपराध कथा लेखक पर बात चल निकली। जितने भी नाम आए लगभग सभी पॉकेट बुक्स के लेखक के आए चाहे वो कर्नल रंजीत हों, वेद प्रकाश शर्मा हों या ओम प्रकाश शर्मा हों। तथाकथित मुख्यधारा के साहित्यकारों में से कोई भी ऐसा नाम नहीं आया जिसको हिंदी में अपराध कथा लेखक के तौर पर स्वीकृति मिली हो। ले देकर एक गोपाल राम गहमरी का नाम याद पड़ता है जिन्होंने अपनी पत्रिका जासूस के लिए कई जासूसी उपन्यास लिखे। खूनी की खोज, अद्भुत लाश, बेकसूर की फांसी और गुप्तभेद उनके चर्चित उपन्यास रहे हैं। आजादी के कुछ दिनों पहले ही गोपाल राम गहमरी का निधन हो गया। दरअसल अगर हम देखें तो गहमरी ने हिंदी साहित्य की अन्य विधाओं के अलावा जासूसी उपन्यास लिखे। उन्होंने जमकर अनुवाद भी किए। गहमरी के निधन के बाद उनके कद का तो छोड़ दें, कोई उनसे कमतर जासूसी लेखक भी हिंदी साहित्य को नहीं मिला। अपराध कथा पढ़ने वाले हिंदी के पाठक अपनी पाठकीय क्षुधा मेरठ से छपनेवाले पॉकेट बुक्स से पूरी करते रहे। एक जमाना था जब रेलवे स्टेशन के व्हीलर के स्टॉल पर राजन-इकबाल सीरीज के जासूसी उपन्यासों के लिए किशोरों की लाइन लगा करती थी। नए-नए पाठक राजन-इकबाल सीरीज के नए उपन्यासों की प्रतीक्षा करते थे। उसकी अग्रिम बुकिंग हुआ करती थी।  
अब इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि हिंदी में अपराध कथा लेखक क्यों नहीं हुए या क्यों बहुत कम हुए। हिंदी समेत पूरी दुनिया की अलग अलग भाषाओं में अपराध कथा का विशाल पाठक वर्ग है। अंग्रेजी में तो क्राइम फिक्शन लिखनेवाले लेखकों की एक बेहद समृद्ध परंपरा है। अमेरिकी क्राइम फिक्शन लेखक जेम्स पैटरसन दुनिया के सबसे अमीर लेखकों में से एक हैं। वो जासूसी उपन्यास के साथ साथ, रोमांस और एडल्ट फिक्शन भी लिखते हैं। उनके जासूसी उपन्यासों के लोग दीवाने हैं। लेकिन हिंदी साहित्य में अगर इस विधा पर विचार करें तो एक सन्नाटा नजर आता है। सुरेन्द्र मोहन पाठक को भी हाल के वर्षों में तथाकथित मुख्यधारा के लेखकों के बराबर सम्मान मिलना शुरू हुआ जब उनको हार्पर कॉलिंस जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह ने छापना शुरू किया। दरअसल हिंदी साहित्य लेखन में एक खास किस्म की वर्ण व्यवस्था दिखाई देती है। इसमें अलग अलग विधाओं में लेखन करनेवाले और अलग अलग प्रकाशकों से छपनेवाले वर्णव्यवस्था के अलग अलग पायदान पर हैं। ये वर्ण व्यवस्था इतनी कठोर या रूढ़ है कि इसके खांचे को तोड़ पाना लगभग नामुमकिन है। इसको समझने के लिए एक उदाहरण ही काफी होगा। हिंदी में प्रेम पर लिखनेवाले दो उपन्यासकार हुए। एक धर्मवीर भारती जिनका लिखा गुनाहों का देवता बहुत प्रसिद्ध हुआ। दूसरे हुए गुलशन नंदा जिनके कई उपन्यास बेहद लोकप्रिय हुए, उनके लिखे उपन्यासों पर खूब फिल्में बनीं। प्रेमकथा लिखनेवाले धर्मवीर भारती और गुलशन नंदा में साहित्यिक वर्ण व्यवस्था में धर्मवीर भारती केंद्र में रहे और गुलशन नंदा तमाम लोकप्रियता और फिल्मों में स्वीकार्यता के बावजूद उसकी परिधि के भी बाहर रहे। क्यों? तथाकथित मुख्यधारा के आलोचकों ने कभी गुलशन नंदा की कृतियों को विचार योग्य भी नहीं समझा। क्यों? जब भी गुनाहों का देवता का नया संस्करण छपता उसपर चर्चा होती, उसको और मजबूती प्रदान की जाती। अगर अब भी गुलशन नंदा के किसी एक उपन्यास की प्रतियों की संख्या और गुनाहों के देवता की अबतक बिकी प्रतियों की तुलना की जाए तो बेहद दिलचस्प आंकड़े और नतीजे सामने आ सकते हैं।  
साहित्य की इस वर्ण व्यवस्था को वामपंथी विचारधारा ने बहुत मेहनत से तैयार और मजबूत किया। इस विचारधारा को मानने वाले लेखकों और आलोचकों ने एक ऐसा मजबूत घेरा तैयार किया जिसमें बाहरी विचारधारा के लेखकों को मान्यता ही नहीं दी। गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत और इन जैसे अन्य लेखकों का मूल्यांकन क्या उसपर चर्चा ही नहीं की गई । इनको लुगदी लेखक कहकर साहित्यिक वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत रखा। यही हाल वर्षों तक फिल्मों और गीत संगीत पर लिखनेवालों का रहा। उनको भी गंभीर लेखक नहीं माना गया। फिल्मों और गीत संगीत को लेकर वामपंथी आलोचकों की राय अच्छी नहीं रही। उनको वो बुर्जुआ के लिए किया गया उपक्रम मानते रहे। नतीजा यह हुआ कि इस विधा पर लिखने वालों का विकास नही हो सका और हिंदी फिल्मों को लेकर जितना अच्छा और अधिक अंग्रेजी में लिखा गया उतना हिंदी में नहीं लिखा जा सका। हिंदी साहित्य जब वामपंथ के जकड़न से मुक्त होने लगी तो फिल्म और संगीत पर लेखन बढ़ने लगा। लेकिन अबतक हिंदी में इन विषयों पर लेखन इतना पीछे रह गया है कि उसको अंग्रेजी के बराबर आने में काफी वक्त लगेगा। अपराध कथा और जासूसी उपन्यासों को लेकर भी यही स्थिति रही। जासूसी उपन्यासों के लेखकों को हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठा नहीं मिली लिहाजा इस विधा में हाथ आजमाने वाले कम हुए। साहित्य के वाम विचारधारा काल में यथार्थवादी लेखन या मजदूरों और दबे कुचलों के पक्ष में इतना अधित लेखन हुआ, और उस लेखन को प्रतिष्ठा दिलाने का चक्र चला कि बाकी विधाएं या तो दम तोड़ गईं या फिर उनमें लिखनेवाले कम होते चले गए। इतना ही नहीं जनलेखक और अभिजन लेखक के खांचे में बांटकर भी लेखकों को उठाने और गिराने का खेल खेला गया। जनवादिता, प्रगतिशीलता और क्रांतिकारिता के नाम पर जिस तरह से साहित्यिक यथार्थ गढे गए उसने भी लेखकों को एक फॉर्मूला दिया। उस फॉर्मूले को अपनाकर पुरस्कार और प्रसिद्धि दोनों मिले। लेकिन उसने हिंदी साहित्य का नुकसान किया। उसके विस्तार को बाधित किया। फॉर्मूलाबद्ध लेखन लंबे समय तक चल नहीं सकता है।
जासूसी कथा या अपराध कथा नहीं लिखे जाने की एक औक वजह समझ में आती है वो है कि यह विधा लेखक से बहुत मेहनत की मांग करती है। इसमें पॉर्मूलाबद्ध लेखन नहीं हो सकता है, इसमें पाठकों के लिए हर पंक्ति में आगे क्या की रोचकता बरकरार रखनी होती है। यहां काल्पनि यथार्थ नहीं चलता है। दूसरी बात ये कि अपराध कथा में सूक्षम्ता से स्थितियों का वर्णन करना होता है जिसके लिए कानून और अपराध दोनों का ज्ञान होना आवश्यक है। अन्य विधा में इतनी सूक्ष्मता से वर्णन की अपेक्षा नहीं की जाती है वहां काल्पनिक यथार्थ से भी काम चल जाता है। एक और वजह ये हो सकती है कि हिंदी के प्रकाशकों ने भी लंबे समय तक अपराध कथा को छापने का साहस नहीं किया। लेखकों से अपराध कथा या जासूसी उपन्यास लिखवाने की कोई योजना नहीं बनाई। पिछले दिनों जब कॉलेज की कहानियां बेस्टसेलर होने लगी तो हिंदी के तमाम प्रकाशकों ने एक खास तरह के लेखन को ना केवल स्वीकारा बल्कि उसको बढ़ावा देने के लिए कमर कस कर तैयार हो गए। जासूसी उपन्यासों को लेकर हिंदी के प्रकाशकों में किसी तरह का उत्साह नहीं दिखा क्योंकि अगर उत्साह दिखता तो उसको छापने का प्रयत्न भी सामने आता। प्रकाशकों की उदासीनता ने भी लेखकों को जासूसी कथा लिखने से दूर किया। उपन्यासकार प्रभात रंजन कहते भी हैं कि अगर वो जासूसी उपन्यास लिख भी देगें तो छापेगा कौन। इअगर छपेगा ही नहीं तो लिखने का क्या फायदा। दरअसल अगर हम देखें तो भारतीय प्रकाशन जगत के एक बड़े हिस्से पर भी वामपंथी विचारधारा और रूस के धन का व्यापक प्रभाव लंबे समय तक रहा। उसने भी कायदे से हिंदी में अलग अलग तरह के लेखन का विकास अवरुद्ध किया। मार्क्स और मार्क्सवाद की आड़ में ना केवल पौराणिक लेखन को प्रभावित किया बल्कि अलग अलग विधा को भी पनपने से रोका। जबकि मार्क्स ने तो साफ कहा था कि पुराणों में अतिलौकिक और धार्मिक तत्व ही नहीं होते वो मनुष्य की नैतिक मान्यताओं और यथार्थ के प्रति उसके सौंदर्यात्मक दृष्टिकोण को भी प्रतिबिंबित करते हैं।जरूरत इस बात की है कि इन कारगुजारियों पर हिंदी साहित्य विचार करे।