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Saturday, April 8, 2017

सालों की मेहनत को सम्मान

दो हजार सोलह में प्रकाशित कृतियों पर समीक्षात्मक बातचीत में जब लोकसभा टीवी पर यतीन्द्र मिश्र की किताब, लता सुर-गाथा को मैंने हिंदी में प्रकाशित साल की सबसे बड़ी किताब बताई थी तो कई लोगों को इस कथन को फतवा आदि करार दिया था । लोकसभा टीवी के उस कार्यक्रम में मैंने यह कहा था कि जिस तरह से हर साल कोई एक बड़ी फिल्म आती है और परिदृश्य पर छा जाती है उसी तरह से वर्ष दो हजार सोलह में प्रकाशित ये बड़ी किताब लता सुर-गाथा है जो हिट भी रही है। इस किताब को मैंने पढ़ा था और मेरी पाठक बुद्धि कह रही थी कि इस कृति को व्यापक स्वीकार्यता मिलेगी और इसके लेखक को पर्याप्त यश। इस सोच के पीछे हिंदी में इस तरह की फिल्म में गंभीर किताब की कमी का होना थी । हिंदी में फिल्मों पर ज्यादातर किताबें लेखों का संग्रह आदि है । अब लता सुर-गाथा को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में किताबों की श्रेणी के लिए स्वर्ण कमल के लिए चुना गया है तब यह बात साबित होती है कि यतीन्द्र मिश्र की किताब दो हजार सोलह की सबसे बड़ी हिट रही । 
फिल्मों से बंधित किताबों पर दिए जाने वाले नेशनल अवॉर्ड की की चयन समिति की अध्यक्ष वरिष्ठ फिल्म पत्रकार भावना सोमैया थीं । उनके अलावा प्रभात प्रकाशन के निदेशक प्रभात कुमार और एक और शख्स जूरी के सदस्य थे । इनके सामने अंग्रेजी के अलावा भारतीय भाषाओं में लिखी गई करीब तीन दर्जन किताबें थी जिनके बीच से चयन समिति ने यतीन्द्र मिश्र की किताब लता सुर-गाथा को सर्वसम्मति से पुरस्कार के लिए चुना । इस पुरस्कार के तहत पुस्तक के लेखक और प्रकाशक दोनो को पचहत्तर हजार रुपए और स्वर्ण कमल दिया जाएगा । लता सुर-गाथा को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। जूरी ने लता सुर-गाथा के बारे मे कहा कि यह किताब लगा मंगेशकर की सत्तर साल की संगीत यात्रा का भारतीय सिनेमा पर प्रभाव को चित्रित करता है और लेखक यतीन्द्र मिश्र उसको पकड़ने में कामयाब रहे हैं । लता की इस लंबी सुर यात्रा का फिल्मों पर पड़े प्रभाव को भी इस किताब में शिद्दत से रेखांकित किया गया है । इस बार जूरी के सदस्यों के बीच इस पर भी एक राय बनी कि किताबों के चयन करने का कोई ऐसा मैकेनिज्म बनाया जाना चाहिए जिसमें कृतियों की गहन पड़ताल की जा सके । तय ये हुआ कि इस बारे में ये तीनो मिलकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को अपना सुझाव भेजेंगे ।
अब जरा लता सुर-गाथा की बात कर ली जाए । यह किताब यतीन्द्र मिश्र के लगभग सात साल की मेहनत का नतीजा है । सात सालों तक वो लगातार नियमित अंतराल पर तय वक्त पर लता मंगेशकर से बात कर उसको रिकॉर्ड करते रहे और साथ साथ उसको लिपिबद्ध भी करते रहे । इस किताब के साथ अच्छी बात यह रही कि यतीन्द्र मिश्र ने इसको विवादास्पद बनाने की कोशिश नहीं की । इसके अलावा लता मंगेशकर की जिंदगी के उन व्यक्तिगत प्रसंगों को भी खोलने का प्रयास लेखक ने नहीं किया जिसको लेकर अफवाहें या गॉसिप फिल्मी दुनिया में चलती रही हैं । इसका सकारात्मक पहलू ये रहा कि इससे इस किताब की सनसनी पैदा करनेवाली छवि नहीं बन पाई और पाठकों ने इसको गंभीर लेखन के कोष्ठक मे रखा । अगर यतीन्द्र इस किताब में लता से जुड़े विवादों को उठाकर सनसनीखेज बनाने की कोशिश करते, जिसका अवसर उनके पास था, तो शायद इसकी बिक्री ज्यादा होती लेकिन फिर उसको गंभीर किताब के तौर पर मान्यता नहीं मिल पाती या फिर उस किताब तो राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं मिल पाता । विवादों और सनसनी से दूर यतीन्द्र इस किताब में लता मंगेशकर को उन प्रदेशों में लेकर गए जिन प्रदेशों में ले जाने में लेखकों को घबराहट होती है या उससे बचकर निकल जाते हैं । फिल्म, संगीत, गायक, कलाकारों के अलावा यतीन्द्र ने लता मंगेशकर से वीर सावरकर से लेकर नेहरू तक के बारे में सवाल पूछे । इस किताब से संभवत: पहली बार यह तथ्य सामने आया कि लता मंगेशकर समाज सेवा करना चाहती थी लेकिन वीर सावरकर की प्रेरणा से वो गायिक बनीं । बहुत दिलचस्प प्रसंग है यह । इस तरह के कई प्रसंग इस किताब में हैं।
इस किताब में यतीन्द्र मिश्र की लता मंगेशकर से बातचीत जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही महत्वपूर्ण है यतीन्द्र द्वारा सिखी गई करीब पौने दो सौ पृष्ठों में लता की सुर यात्रा । इस खंड में लेखक ने लता मंगेशकर के विकास को, उनकी सुर साधना को रेखांकित किया है । इस खंड को पढ़ने के बाद लेखक की संगीत की समझ का भी अहसास होता है । हिंदी में बहुत कम लेखक ऐसे हैं जो हिंदी में इन विषयों पर लिखते हैं। जब यतीन्द्र ने इस किताब को तैयार किया तो वो लगभग हजार पृष्ठों की बन रही थी लेकिन बाद में उसको संपादित कर साढे छह सौ पृष्ठों की किताब बनाई गई । इस किताब का प्रोडक्शन भी वर्ल्ड क्लास है ।
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में दो हजार पांच के बाद यानि बारह साल बाद किसी हिंदी की कृति का चयन किया गया है। दो हजार पांच में शरद दत्त की कुंदन लाल सहगल पर लिखी किताब कुंदन को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था इसके पहले दो हजार तीन में उनकी ही किताब ऋतु आए, ऋतु जाए को नेशनल अवॉर्ड मिला था । यह किताब संगीतकार अनिल विश्वास की जिंदगी पर लिखी गई है । चौंसठ फिल्म पुरस्कारों में से सिर्फ तीन हिंदी की कृतियों को फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया है और दो हिंदी फिल्म समीक्षकों को ये प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला है, ब्रजेश्वर मदान और विनोद अनुपम को । विनोद अनुपम को दो हजार दो में फिल्म समीक्षा का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और उसके बाद से पंद्रह साल हो गए लेकिन किसी हिंदी के लेखक को फिल्म समीक्षा का नेशनल अवॉर्ड नहीं मिल पाया है। क्यों? इस बात पर विचार किया जाना चाहिए । फिल्मों से जुड़ी हिंदी में लिखी गई किताब पर भी एक युग के बाद पुरस्कार दिया जा रहा है। क्यों? इसपर भी विचार किया जाना चाहिए ।
हलांकि हिंदी के लिए यह बेहद अच्छी स्थिति है । पिछले दो तीन सालों मे हिंदी में काम भी अच्छा हुआ है और उत्साह का माहौल भी बना है, राष्ट्रीय स्तर पर भी और अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी । पूरी दुनिया को अब हिंदी का बड़ा बाजार नजर आ रहा है, लिहाजा हिंदी में निवेश की संभावनाएं भी तलाशे जा इस रही हैं । पिछले दिनों वाणी प्रकाशन के निदेशक अकुण माहेश्वरी को लंदन के प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड बिजनेस कॉलेज ने बिजनेस एक्सीलेंस अवॉर्ड ने नवाजा । ऐसा पहली बार हुआ कि किसी हिंदी के प्रकाशक को ऑक्सफोर्ड में सम्मानित किया गया हो। इस मौके पर ऑक्सफोर्ड बिजनेस क़लेज के चेयरमैन प्रोफेसर स्टीव ब्रिस्टो ने कहा कि भारत विविधताओं का देश है और भारतीय भाषाएं इस विविधता को प्रतिबंहित करती हैं । उन्होंने कहा कि उनके लिए यह गौरव का विषय है कि भारतीय भाषाओं में प्रमुख भाषा हिंदी के श्रेष्ठ प्रकाशक को ऑक्सफोर्ड सम्मानित कर रहा है । प्रोफेसर स्टीव ब्रिस्टो ने भारत में भाषा के बड़े बाजार को भी रेखांकित किया और कहा कि भारत भाषायी रूप से सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था का सोपान है । यह हिंदी के लिए भी गौरव की बात है कि उस भाषा के प्रकाशक को अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल रही है । पूरी दुनिया कीनजर इस वक्त भारत के भाषाई बाजार पर लगी है और उनको लगता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से इस बाजार पर पकड़ बनाई जा सकती है । आपको याद होगा कि जब उन्नीस सौ इक्यानवे में भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई थी तब भारत में पूरी दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को संभावनाए नजर आने लगी थी । ब्यूटी प्रोडक्ट्स से लेकर अन्य तमाम तरह की चीजों के लिए जब बाजार खुले तो उन्नीस सौ चौरानवे में भारत की सुष्मिता सेन के मिस युनिवर्स और ऐश्वर्या राय को मिस वर्ल्ड चुना गया था । उसके बाद छह साल बाद भी भारत से ही लारा दत्ता और प्रियंका चोपड़ा मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड चुनी गई थी। यह सब बाजार तय कर रहा था । नेशनल अवॉर्ड में बारह साल बाद हिंदी की किताब और ऑक्सफोर्ड में हिंदी के प्रकाशक को सम्मानित किए जाने की घटना को जोड़कर देखते हैं तो यह बाजार में हिंदी की धमक के तौर पर नजर आती है । कुछ लोगों को ये दलील या ये आंकलन दूर की कौड़ी लग सकती है लेकिन बाजार के अपने कायदे कानून होते हैं जिसको समझने की जरूरत होती है । बाजार उसपर ही अपना दांव लगाता है जिसमें उसको संभावना नजर आती है । और इस वक्त हिंदी से ज्यादा संभावना किसी और दूसरी भाषा में पूरी दुनिया में नहीं है । यह बाजार का ही दबाव है कि ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस भी अब हिंदी में पुस्तकें प्रकाशित करने लगा है । जरूरत इस बात की है कि हिंदी बाजार का इस्तेमाल अपने हक में करे । 


Saturday, December 24, 2016

सन्नाटे का सृजनात्मकता प्रदेश

वर्ष दो हजार सोलह बीतने को आया है । इस साल के तमाम बड़े-छोटे साहित्यक पुरस्कारों का एलान हो चुका है । साहित्य के लिए सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित माने जानेवाला पुरस्कार ज्ञानपीठ सम्मान इस बार बांग्ला के मशहूर कवि शंख घोष को देना की घोषणा की गई है । नामवर सिंह की अध्यक्षतावाली चयन समिति ने शंख घोष की कविताओं और उनके आलोचनात्मक लेखन पर विस्तार से मंथन करने के बाद उनको इस सम्मान के लिए उपयुक्त पाया। इसी तरह से साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की घोषणा भी कर दी गई है । हिंदी के लिए उपन्यासकार नासिरा शर्मा को उनकी कृति पारिजात पर ये सम्मान देने का फैसला लिया गया है । इसके अलावा शब्द साधक शिखर सम्मान केदारनाथ सिंह को दिया जाएगा । हिंदी में छोटे-बड़े-मंझोले कुल मिलाकर सैकड़ों पुरस्कार हर साल दिए जाते हैं । इस बार भी दिए गए । पुरस्कारों के अलावा छिटपुट विवाद भीहुए लेकिन उन विवादों की जमीन साहित्यक कम राजनीति ज्यादा रही । नामवर सिंह के नब्बे साल पूरे होने के जश्न में गृह मंत्री और संस्कृति मंत्री की भागीदारी से लेकर आयोजन स्थल तक पर विरोध किया गया । हिंदी अकादमी के भाषादूत सम्मान में सम्मानित किए जानेवाले लेखकों को सूचित करने के बाद सूची बदलने पर विवाद हुआ । कवि अनिल जनविजय ने गगन गिल को लेकर एक अप्रिय विवाद फेसबुक पर उठाया । लेकिन इस बार किसी रचना तो लेकर कोई साहित्यक वाद-विवाद-संवाद नहीं हुआ ।  
हिंदी में जब भी साहित्यक कृतियों की बात होती है कविता, कहानी और उपन्यास पर सिमट कर रह जाती है । अन्य विधाओं की बात चलते चलते की जाती है । अगर हम वर्ष दो हजार सोलह को देखें तो इन विधाओं से इतर भी कई अच्छी किताबें छपकर आईं चर्चित हुईं और पाठकों ने भी उनको हाथों हाथ लिया । कई लेखकों ने लगभग अनछुए विषयों को उठाया और उसपर मुकम्मल किताब लिखी । साल के खत्म होते होते कवि और कला पर गंभीरता से लिखनेवाले यतीन्द्र मिश्र की किताब लता, सुर-गाथा (वाणी प्रकाशन) से छपकर आई । करीब छह सौ पन्नों की ये किताब यतीन्द्र मिश्र के सालों की मेहनत का परिणाम है । इस किताब में यतीन्द्र ने लता मंगेशकर की सुरयात्रा के उपर दो सौ पन्ने लिखे हैं और करीब चार सौ पन्नों में लता मंगेशकर से बातचीत है । लता मंगेशकर ने राजनीति से लेकर समाज, परिवार और अपने संघर्षों पर बेबाकी से उत्तर दिए हैं । सता मंगेशकर ने गायन से पहले समाज सेवा के क्षेत्र में जाने का मन बनाया था लेकिन वीर सावरकर उनसे कई दिनों तक बहस की और उनको इस बात के लिए राजी किया कि देश की सेवा संगीत के मार्फत भी हो सकती है । इस किताब में लता जी से जो सवाल पूछे हैं उसमें इनकी मेहनत दिखाई देती है ।  जैसे बॉलीवुड में कोई फिल्म साल की सबसे बड़ी हिट मानी जाती है उसी तरह से यतीन्द्र की ये किताब इस साल की सबसे बड़ी किताब कही जा सकती है । इसी तरह से युवा कथाकार इंदिर दांगी ने नाटक लिखकर इस विधा के सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश की । उनका लिखा नाटक आचार्य ( किताबघर प्रकाशन) इस वर्ष पुस्तकाकार छपा ।
अब अगर हम उपन्यासों की बात करें तो कहानीकार और उपन्यासकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अपने उपन्यास स्वप्नपाश (किताबघर प्रकाशन) में एकदम अछूते विषय पर कलम चलाई है । इस उपन्यास में मनीषा ने अपने पात्र गुलनाज के माध्यम से स्कीत्जनोफ्रेनिया नामक बीमारी को उठाया है । हिंदी के हमारे लेखक इस तरह के विषयों से दूर ही रहते हैं लेकिन मनीषा ने इस बंजर प्रदेश में प्रवेश कर मेहनत से उसके हर पहलू के रेशे-रेशे को अलग किया है । यह उपन्यास बदलते समय और समाज की हकीकत का दस्तावेज है । कुछ लोगों को इस उपन्यास के डिटेल्स को लेकर आपत्ति हो सकती है लेकिन वो विषय वस्तु की मांग के अनुरूप है । वरिष्ठ उपन्यासकार चित्रा मुद्गल का उपन्यास पोस्ट बॉक्स नं-203 नाला सोपारा(सामयिक प्रकाशन) भी ऐसे ही एक लगभग अनछुए विषय को केंद्र में रखकर लिखा गया है । किन्नरों की जिंदगी पर लिखे इस उपन्यास में चित्रा मुद्गल ने उस समुदाय की पीड़ा, संत्रास आदि को संवेदनशीलता के साथ सामने रखा है जो पाठकों को सोचने पर विवश कर देती है । चित्रा जी का ये उपन्यास एक लंबे अंतराल के बाद आया है लिहाजा इसको लेकर पाठकों में एक उत्सकुकता भी है । इन उपन्यासों के अलावा एक और उपन्यास ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा वो है युवा लेखक पंकज सुबीर का अकाल में उत्सव ( शिवना प्रकाशन ) । उस उपन्यास में लेखक ने अंत तक पठनीयता बनाए रखने में कामयाबी हासिल की है और उसका ट्रीटमेंट भी लीक से थोड़ा अलग हटकर है । जयश्री राय का उपन्यास दर्दजा ( वाणी प्रकाशन) और लक्ष्मी शर्मा के पहले उपन्यास सिधपुर की भगतणें ( सामयिक प्रकाशन) की भी चर्चा रही । बस्तर की नक्सल समस्या और उसकी जटिलताओं को केंद्र में रखकर लिखा टीवी पत्रकार ह्रदयेश जोशी का उपन्यास लाल लकीर (हार्पर कालिंस) में समांतर रूप से एक बेहतरीन प्रेमकथा भी साथ-साथ चलती है । इस उपन्यास को भी पाठकों ने पसंद किया । नई वाली हिंदी का दावा करने वाले प्रकाशक हिंद युग्म से कई किताबें आईं, बिक्री का भी दावा किया गया लेकिन अपनी पठनीयता को लेकर पर्याप्त चर्चा बटोरी सत्य व्यास के उपन्यास दिल्ली दरबार ने ।
हिंदी में कविता को लेकर बहुत कोलाहल है । कुंवर नारायण से लेकर शुभश्री तक कई पीढ़ियों के कवि इस वक्त सृजनरत हैं । पर इस कोलाहल में बहुधा यह सुनने को मिलता है कि कविता के पाठक कम हो रहे हैं, प्रकाशक कविता संग्रह छापने के लिए आसानी से तैयार नहीं होते हैं । अगर आप हिंदी के प्रकाशकों की वर्ष दो हजार सोलह की प्रकाशन सूची पर नजर डालेंगे तो ऐसा लगता है कि कविता संग्रह अपेक्षाकृत बहुत ही कम छपे । कहना ना होगा कि यह स्थिति साहित्य के लिए चिंताजनक है, बावजूद इसके वर्ष दो हजार सोलह में कविता की कई किताबें छपीं । जिस कविता संग्रह ने पाठकों और आलोचकों का सबसे अधिक ध्यान खींचा वह है वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई का भीजै दास कबीर (वाणी प्रकाशन ) ।अशोक वाजपेयी का कविता संग्रह नक्षत्रहीन समय में’ (राजकमल प्रकाशन) से छपी लेकिन इस संग्रह को अपेक्षित चर्चा नहीं मिल पाई । इसके अलावा विनोद भारद्वाज, दिविक रमेश, कात्यायनी की कविताएं भी पुस्तकाकार प्रकाशित हुईं । युवा कवि चेतन कश्यप का दूसरा संग्रह एक पीली नदी हरे पाटों के बीच बहती हुई (प्रकाशन संस्थान) ने भी कविता प्रेमियों का ध्यान खींचा । उपेन्द्र कुमार ने महाभारत को केंद्र में रखकर इंद्रप्रस्थ (अंतिका प्रकाशन) की रचना की । जिसके बारे में कवि मदन कश्यप ने लिखा है कि यह कृति महाभारत की अशेष सृजनात्मकता को प्रमाणित करती है ।
कहानी संग्रहों को लेकर हिंदी जगत में खास उत्साह देखने को नहीं मिला । कहा तो यहां तक गया कि हिंदी कहानी भी कविता की राह पर चलने लगी है । पत्र-पत्रिकाओं में इतनी फॉर्मूलाबद्ध कहानियां छपीं कि पाठक निराश होने लगे जिसका असर कहानी संग्रहों की बिक्री पर पड़ा । अवधेश प्रीत का कहानी संग्रह चांद के पार चाभी ( राजकमल प्रकाशन) हलांकि दो हजार पंद्रह के दिसंबर में पटना पुस्तक मेले में विमोचित हुई थी लेकिन पूरे साल इस संग्रह की चर्चा होती रही । अवधेश प्रीत के अलावा रजनी मोरवाल का कुछ तो बाकी है...( सामयिक प्रकाशन) की चर्चा रही ।
अनुवाद के लिहाज से ये साल बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता है । सालभर अनूदित किताबों पर बहस चलती रही लेकिन साहित्य अकादमी ने कुछ अच्छी किताबों का अनुवाद अवश्य छापा । डी एस राव की किताब फाइव डिकेड्स का पांच दशक के नाम से भारत भारद्वाज ने अनुवाद किया । साहित्य अकादमी के इतिहास में रुचि रखनेवालों के लिए यह महत्वपूर्ण किताब है । इसी तरह से ओड़िया लेखक शरत कुमार महांति की गांधी की जीवनी का हिंदी अनुवाद गांधी मानुष’ (साहित्य अकादमी) के नाम से सुजाता शिवेन ने किया । सुजाता शिवेन उन चंद अनुवादकों में से हैं जो ओड़िया की अहम किताबों का हिंदी में अनुवाद कर रही हैं । श्रीकृष्ण पर लिखा रमाकांत रथ का खंडकाव्य श्री पातालक का अनुवाद श्रीरणछोड़ ( साहित्य अकादमी) से प्रकाशित हुई । चीनी लेखक ह च्येनमिंङ की किताब का हिंदी अनुवाद जनता का सचिव, पीपुल्स पार्टी में भ्रष्टाचार से जंग (प्रकाशन संस्थान) भी आंखे खोलनेवाला है । इस किताब से चीन की हकीकत का खुलासा होता है । इसका अनुवाद अरुण कुमार ने किया है । एक और किताब जिसने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा वह है वरिष्ठ उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल की स्मृति कथा पकी जेठ का गुलमोहर (वाणी प्रकाशन) । इस स्मृति कथा में मेवात अपनी पूरी जीवंतता के साथ उपस्थित है । शायर मुनव्वर राना की आत्मकथा का पहला खंड- मीर आ के लौट गया(वाणी प्रकाशन) भी प्रकाशित हुआ है । शायर अनिरुद्ध सिन्हा के गजलों का संग्रह तो गलत क्या किया(मीनाक्षी प्रकाशन) से छप कर आया है । कुळ मिलाकर अगर हम देखें तो सैकड़ों किताबों के छपने के बावजूद परिदृश्य संतोषजनक नहीं लगता ।

सृजनात्मकता का लेखा-जोखा

हिंदी में जब भी साहित्यक कृतियों की बात होती है कविता, कहानी और उपन्यास पर सिमट कर रह जाती है । अन्य विधाओं की बात चलते चलते हो जाती है । अगर हम वर्ष दो हजार सोलह को देखें तो इन विधाओं से इतर भी कई अच्छी किताबें छपकर आईं चर्चित हुईं और पाठकों ने भी उनको हाथों हाथ लिया । कई लेखकों ने लगभग अनछुए विषयों को उठाया और उसपर मुकम्मल किताब लिखी । साल के खत्म होते होते कवि और कला पर गंभीरता से लिखनेवाले यतीन्द्र मिश्र की किताब लता, सुर-गाथा (वाणी प्रकाशन) से छपकर आई । करीब छह सौ पन्नों की ये किताब यतीन्द्र मिश्र के सालों की मेहनत का परिणाम है । इस किताब में यतीन्द्र ने लता मंगेशकर की सुरयात्रा के उपर दो सौ पन्ने लिखे हैं और करीब चार सौ पन्नों में लता मंगेशकर से बातचीत है । लता मंगेशकर ने राजनीति से लेकर समाज, परिवार और अपने संघर्षों पर बेबाकी से उत्तर दिए हैं । जैसे बॉलीवुड में कोई फिल्म साल की सबसे बड़ी हिट मानी जाती है उसी तरह से यतीन्द्र की ये किताब इस साल की सबसे बड़ी किताब कही जा सकती है । कहानीकार और उपन्यासकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अपने उपन्यास स्वप्नपाश (किताबघर प्रकाशन) में एकदम अछूते विषय पर कलम चलाई है । इस उपन्यास में मनीषा ने अपने पात्र गुलनाज के माध्यम से स्कीत्जनोफ्रेनिया नामक बीमारी को उठाया है । हिंदी के हमारे लेखक इस तरह के विषयों से दूर ही रहते हैं लेकिन मनीषा ने इस बंजर प्रदेश में प्रवेश कर मेहनत से उसके हर पहलू के रेशे-रेशे को अलग किया है । यह उपन्यास बदलते समय और समाज की हकीकत का दस्तावेज है । कुछ लोगों को इस उपन्यास के डिटेल्स को लेकर आपत्ति हो सकती है लेकिन वो विषय वस्तु की मांग के अनुरूप है । वरिष्ठ उपन्यासकार चित्रा मुद्गल का उपन्यास पोस्ट बॉक्स नं-203 नाला सोपारा(सामयिक प्रकाशन) भी ऐसे ही एक लगभग अनछुए विषय को केंद्र में रखकर लिखा गया है । किन्नरों की जिंदगी पर लिखे इस उपन्यास में चित्रा मुद्गल ने उस समुदाय की पीड़ा, संत्रास आदि को संवेदनशीलता के साथ सामने रखा है जो पाठकों को सोचने पर विवश कर देती है । चित्रा जी का ये उपन्यास एक लंबे अंतराल के बाद आया है लिहाजा इसको लेकर पाठकों में एक उत्सकुकता भी है । इन उपन्यासों के अलावा एक और उपन्यास ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा वो है युवा लेखक पंकज सुबीर का अकाल में उत्सव ( शिवना प्रकाशन ) । उस उपन्यास में लेखक ने अंत तक पठनीयता बनाए रखने में कामयाबी हासिल की है और उसका ट्रीटमेंट भी लीक से थोड़ा अलग हटकर है । जयश्री राय का उपन्यास दर्दजा ( वाणी प्रकाशन)            और लक्ष्मी शर्मा के पहले उपन्यास सिधपुर की भगतणें ( सामयिक प्रकाशन) की भी चर्चा रही । बस्तर की नक्सल समस्या और उसकी जटिलताओं को केंद्र में रखकर लिखा टीवी पत्रकार ह्रदयेश जोशी का उपन्यास लाल लकीर (हार्पर कालिंस) में समांतर रूप से एक बेहतरीन प्रेमकथा भी साथ-साथ चलती है ।
हिंदी में कविता को लेकर बहुत कोलाहल है । कुंवर नारायण से लेकर शुभश्री तक कई पीढ़ियों के कवि इस वक्त सृजनरत हैं । पर इस कोलाहल में बहुधा यह सुनने को मिलता है कि कविता के पाठक कम हो रहे हैं, प्रकाशक कविता संग्रह छापने के लिए आसानी से तैयार नहीं होते हैं । कहना ना होगा कि यह स्थिति साहित्य के लिए चिंताजनक है, बावजूद इसके वर्ष दो हजार सोलह में दर्जनों कविता की किताबें छपीं । जिस कविता संग्रह ने पाठकों और आलोचकों का सबसे अधिक ध्यान खींचा वह है वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई का भीजै दास कबीर (वाणी प्रकाशन ) ।अशोक वाजपेयी का कविता संग्रह नक्षत्रहीन समय में’ (राजकमल प्रकाशन) से छपी लेकिन इस संग्रह को अपेक्षित चर्चा नहीं मिल पाई । इसके अलावा विनोद भारद्वाज, दिविक रमेश, कात्यायनी की कविताएं भी पुस्तकाकार प्रकाशित हुईं । युवा कवि चेतन कश्यप का दूसरा संग्रह एक पीली नदी हरे पाटों के बीच बहती हुई (प्रकाशन संस्थान) ने भी कविता प्रेमियों का ध्यान खींचा । उपेन्द्र कुमार ने महाभारत को केंद्र में रखकर इंद्रप्रस्थ (अंतिका प्रकाशन) की रचना की । जिसके बारे में कवि मदन कश्यप ने लिखा है कि यह कृति महाभारत की अशेष सृजनात्मकता को प्रमाणित करती है । नाटक तो कम ही लिखे गए लेकिन इंदिरा दांगी लिखित नाटक आचार्य(किताबघर प्रकाशन) की जमकर चर्चा हुई ।  कहानी संग्रहों को लेकर हिंदी जगत में खास उत्साह देखने को नहीं मिला । कहा तो यहां तक गया कि हिंदी कहानी भी कविता की राह पर चलने लगी है । पत्र-पत्रिकाओं में इतनी फॉर्मूलाबद्ध कहानियां छपीं कि पाठक निराश होने लगे जिसका असर कहानी संग्रहों की बिक्री पर पड़ा । अवधेश प्रीत का कहानी संग्रह चांद के पार चाभी ( राजकमल प्रकाशन) के अलावा रजनी मोरवाल का कुछ तो बाकी है...( सामयिक प्रकाशन) की चर्चा रही ।
अनुवाद के लिहाज से ये साल बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता है । सालभर अनूदित किताबों पर बहस चलती रही लेकिन साहित्य अकादमी ने कुछ अच्छी किताबों का अनुवाद अवश्य छापा । डी एस राव की किताब फाइव डिकेड्स का पांच दशक के नाम से भारत भारद्वाज ने अनुवाद किया । साहित्य अकादमी के इतिहास में रुचि रखनेवालों के लिए यह महत्वपूर्ण किताब है । इसी तरह से ओड़िया लेखक शरत कुमार महांति की गांधी की जीवनी का हिंदी अनुवाद गांधी मानुष’ (साहित्य अकादमी) के नाम से सुजाता शिवेन ने किया । सुजाता शिवेन उन चंद अनुवादकों में से हैं जो ओड़िया की अहम किताबों का हिंदी में अनुवाद कर रही हैं । श्रीकृष्ण पर लिखा रमाकांत रथ का खंडकाव्य श्री पातालक का अनुवाद श्रीरणछोड़ ( साहित्य अकादमी) से प्रकाशित हुई । चीनी लेखक ह च्येनमिंङ की किताब का हिंदी अनुवाद जनता का सचिव, पीपुल्स पार्टी में भ्रष्टाचार से जंग (प्रकाशन संस्थान) भी आंखे खोलनेवाला है । इस किताब से चीन की हकीकत का खुलासा होता है । इसका अनुवाद अरुण कुमार ने किया है । एक और किताब जिसने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा वह है वरिष्ठ उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल की स्मृति कथा पकी जेठ का गुलमोहर (वाणी प्रकाशन) । इस स्मृति कथा में मेवात अपनी पूरी जीवंतता के साथ उपस्थित है । शायर मुनव्वर राना की आत्मकथा का पहला खंड- मीर आ के लौट गया(वाणी प्रकाशन) भी प्रकाशित हुआ है । शायर अनिरुद्ध सिन्हा के गजलों का संग्रह तो गलत क्या किया(मीनाक्षी प्रकाशन) से छप कर आया है ।