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Sunday, September 16, 2012

सार्थक विमर्श की उम्मीद


आज से तकरीबन पचानवे साल पहले 1 जुलाई 1917 को महात्मा गांधी ने लिखा था- चौथी प्रवृत्ति हिंदी भाषा के प्रचार की है । जो स्थान इस समय अनुचित ढंग से अंग्रेजी भोग रही है वह स्थान हिंदी को मिलना चाहिए । इस विषय में मतभेद का कोई कारण ना होने पर भी मतभेद होना दुर्भाग्य की बात है । शिक्षित वर्ग को एक भाषा अवश्य चाहिए और वह हिंदी ही हो सकती है । हिंदी के द्वारा करोड़ों व्यक्तियों में आसानी के काम किया जा सकता है । इसलिए उसे उचित स्थान मिलने में जितनी देर हो रही है, उतना ही देश का नुकसान हो रहा है । (सं. गां. वा, खंड 13, पृ. 425)

गांधी के इस वक्तव्य के साढे नौ दशक बाद भी हम अपनी भाषाई अस्मिता को लेकर सजग नहीं हो पा रहे हैं । वैश्वीकरण और बाजारवाद के प्रभाव में आज हिंदी पहले से ज्यादा संक्रमण काल से गुजर रही है । आज हिंदी के साथ अंग्रेजी के शब्दों का ऐसा घालमेल शुरू हो गया है जिससे हम अपनी भाषा को दूषित करने में जाने अनजाने सहयोग कर रहे हैं । हम दिल मांगे मोर कहने लगे हैं । किसी भी भाषा के शब्दों के प्रयोग में कोई बुराई नहीं है । यह भी तय है कि हिंदी इतनी कमजोर भी नहीं है कि दूसरी भाषा के शब्द उसमें समाहित होकर उसको खत्म कर दे । लेकिन जब दूसरी भाषा के शब्द हिंदी के मूल शब्दों को विस्थापित करने लगे तो खतरे की घंटी बजने लगती है । हिंदी को अगर हम वैश्विक संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो वो पहले से ज्यादा डरी और सहमी नजर आती है । वैश्वीकरण के प्रभाव और बाजारवाद के दबाव के बावजूद हिंदी का फैलाव तो हुआ है लेकिन उसका प्रयोग कम होने लगा है जो चिंता की बात है । यहां यह सवाल उठता है कि हिंदी के कर्ता-धर्ता या फिर जिनके मजबूत कंधों पर हिंदी को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी है वो उसकी दशा और दिशा को लेकर कितने संजीदा हैं । अगर हम इस सवाल से टकराते हैं तो हमें साफ तौर पर यह नजर आता है कि हमारी भाषा हिंदी को हिंदी के दिग्गजों से अपेक्षित महत्व नहीं मिलने की वजह से वो सहमी और डरी नजर आती है और दिल मांगे मोर कहने वालों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है । अंग्रेजी और अन्य भाषाओं द्वारा हिंदी की भाषाई अस्मिता पर हो रहे इस मौन हमले को लेकर हिंदी समाज का चिंतित नहीं होना ही खतरनाक है ।
हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं काम कर रही हैं । केंद्रीय हिंदी संस्थान से लेकर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय तक । सरकारी स्तर पर भी हिंदी के फैलाव को लेकर गाहे बगाहे गंभीर प्रयास होते हैं बहुधा रस्म अदायगी होती है । आज आवश्यकता राजसत्ता की भाषा में आमूलचूल बदलाव लाने की । इसके लिए सरकार के स्तर पर मजबूत इच्छाशक्ति और गंभीरता से प्रयास होना जरूरी है । हिंदी आज भारत में करीब साठ करोड़ लोगों की भाषा है, देश की राजभाषा है लेकिन अब भी वो देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की भाषा नहीं है । आज अंग्रेजी का गुणगान करनेवाले लोग बहुधा ये तर्क देते हैं कि हिंदी में अभिव्यक्ति की वो ताकत नहीं है जो अंग्रेजी भाषा के शब्द हमें उपलब्ध करवाते हैं । ऐसे लोगों की मशहूर भाषाविज्ञानी जॉर्ज ग्रियर्सन की एक टिप्पणी को देखनी चाहिए जो उन्होंने लिगंविस्टिक सर्वे के खंड नौ के पहले भाग में कही है जिन बोलियों से हिंदी की उत्पत्ति हुई है उनमें ऐसी विलक्ष्ण शक्ति है कि वो किसी भी ऐसे विचार को पूरी सफाई के साथ अभिवयक्त कर सकती है, जो विचार मनुष्य के मस्तिष्क में समा सकते हैं और इन बोलियों में ये शक्ति आज उत्पन्न नहीं हुई वह उनके भीतर पिछले पांच सौ साल से विद्यमान है.....हिंदी के पास देशी शब्दों का अपार भंडार है और सूक्ष्म से सूक्ष्म विचारों को सम्यक रूप से अभिव्यक्त करने के उसके साधन भी अपार हैं ।  इसके बाद सारे तर्क धरे रह जाते हैं ।
इसी विषय भाषा की अस्मिता और हिंदी का वैश्विक संदर्भ- पर दक्षिण अफ्रीका में तीन दिनों तक देश विदेश के विद्वान मंथन करने जा रहे हैं । मौका है नवें विश्व हिंदी सम्मेलन का जिसे भारत का विदेश मंत्रालय करीब पांच साल बाद आयोजित कर रहा है । इसके पहले आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन जुलाई 2007 में न्यूयॉर्क में आयोजित हुआ था । इस बार विश्व हिंदी सम्मेलन को नौ सत्रों में बांटा गया है जिसमें महात्मा गांधी की भाषा दृष्टि और वर्तमान का संदर्भ, हिंदी- फिल्म, रंगमंच और मंच की भाषा, सूचना प्रद्योगिकी-देवनागरी लिपि और हिंदी का सामर्थ्य, लोकतंत्र और मीडिया की भाषा के रूप में हिंदी, ज्ञान-विज्ञान और रोजगार की भाषा के रूप में हिंदी आदि प्रमुख हैं । इस मंथन से क्या निकलता है ये तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन हमें ये देखना होगा कि इसके पहले आयोजित आठ विश्व हिंदी सम्मेलनों में पारित प्रस्ताव पर हम कितना अमल कर पाए हैं । पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ ता जिसमें मुख्य रूप से तीन प्रस्ताव पारित हुए थे । पहला- संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाई जाए । दूसरा विश्व हिंदी विद्यापीठ की स्थापना वर्धा में हो और तीसरा विश्व हिंदी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अत्यंत विचारपूर्वक एक योजना बनाई जाए । सबसे पहले तो हमें ये देखना चाहिए कि पहले विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन के सैंतीस साल बाद भी तीसरे प्रस्ताव पर अमल नहीं हो पाया है । अभी तक विश्व हिंदी सम्मेलन की ना तो कोई तारीख तय है और ना ही उसके आयोजन की आवर्तिता । सैंतीस साल में सिर्फ नौ सम्मेलन का आयोजन इस बात को दर्शाता है कि हम अपनी भाषा को लेकर कितने गंभीर हैं , हमें उसकी कितनी चिंता है । 2007 में अमेरिका में हुए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में सिर्फ सवा छह करोड़ रुपए खर्च हुए थे लेकिन अंतराष्ट्रीय मंच पर हिंदी की धमक को महसूस किया गया था । लेकिन उसके पांच साल बाद तक सम्मेलन का आयोजन नहीं होने से उस धमक की गूंज पहले तो हल्की हुई और फिर विश्व पटल पर कहीं गुम सी हो गई ।  पहले विश्व हिंदी सम्मेलन मे हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए प्रयत्न के प्रस्ताव के अट्ठाइस साल बाद पारामारिबो, सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भी वही प्रस्ताव पारित किया गया । आजादी के पैंसठ साल बाद भी अगर हम अबतक संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को मान्यता नहीं दिलवा पाए हैं तो ये करोड़ों हिंदी भाषी लोगों की रहनुमाई करनेवालों की इच्छाशक्ति की कमी को उजागर करता है ।
इस बार जोहानिसबर्ग में आयोजित होनेवाले विश्व हिंदी सम्मेलन में सत्रों में सार्थक विमर्श की गुंजाइश नजर आ रही है । उम्मीद की जा रही है कि जिस धरती पर गांधी ने लंबा समय बिताया वहां की धरती से एक बार फिर हिंदी को मजबूत करने का संकल्प लिया जा सकेगा । राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है कि अंग्रेजी के विरुद्ध भारतीय भाषाओं की महिमा गांधी ने भारत आकर नहीं समझी, उसे वो दक्षिण अफ्रीका में ही समझ चुके थे । गांधी ने भी हिंद स्वराज्य में लिखा है हर एक पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिंदू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को पर्शियन का और सबको हिंदी का ज्ञान होना चाहिए ।अब एक बार फिर से हिंदी के तमाम कर्ता-धर्ता गांधी की उसी धरती पर जा रहे हैं जहां पर गांधी को अपने अनुभवों से इस बात के ज्ञान की प्राप्ति हुई थी कि जनता को उसकी ही भाषा में जगाया जा सकता है । विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता इस बात में होगी कि हम गांधी के विचारों पर सिर्फ विमर्श नहीं करें बल्कि उसपर अमल में लाने के लिए हर कोई अपने स्तर पर प्रयास करे । हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए यह आवश्यक है कि सबसे पहले सरकारी और शासन की जो भाषा है उसको दुरुस्त कियया जाए । आप किसी भी सरकारी बेवसाइट की हिंदी को देख लीजिए आपको इस बात का अंदाजा हो जाएगा कि वहां किस तरह की हिंदी लिखी जा रही है । अगर जोहानिसबर्ग में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में सरकारी हिंदी को सरल बनाने के लिए प्रस्ताव पारित कर भारत सरकार को सलाह दी जा सके तो यह हिंदी पर बड़ा उपकार होगा । सरकार में बैठे लोग जिस शब्दकोश का संदर्भ लेते हैं या फिर जिस शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं उसमें तत्काल सुधार करने की आवश्यकता है । दूसरा हमें विश्व हिंदी सम्मेलनों की आवर्तिता को तय करना चाहिए कि ये हर साल होगा या हर दो साल बाद होगा । इसका एक फायदा यह होगा कि हिंदी की विश्व की मीडिया में इस पर चर्चा होगी और हिंदी भाषा के पक्ष में विश्व जनमानस में एक उत्सुकता पैदा होगी ।
अंत में रामधारी सिंह दिनकर का एक वाक्य याद आ रहा है - भाषा का प्रश्न केवल सांस्कृतिक प्रश्न नहीं है । अवस्था विशेष में वह राजनीतिक एकता से भी जुड़ जाता है, उसका असर देश की स्वाधीनता पर भी पड़ता है । - मैं सिर्फ उसमें एक शब्द जोड़ना चाहता हूं कि उसका असर हमारी संप्रभुता पर भी पड़ता है ।

पुरानी तकनीक, नया संग्रह

समकालीन हिंदी कहानी के परिदृष्य पर नजर डालें तो की युवा कथाकारों ने अपनी कहानियों में शिल्प के अलावा उसके कथ्य में भी चौंकानेवाले प्रयोग किए हैं । आज की नई पीढ़ी के कहानीकारों के पास अनुभव का एक नया संसार है जिसको वो अपनी रचनाओं में व्यक्त कर रहे हैं । पहले यह माना जाता था कि जो कहानीकार रूप और शिल्प में नयापन पेश करेगा वह पाठकों को अपनी ओर खींच लेगा और आलोचक भी उनकी कृतियों का नोटिस लेने को विवश हो जाएंगे । लेकिन नई पीढ़ी ने जिसमें वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, जयश्री राय और गीताश्री जैसी कई कहानीकारों ने रूप और शिल्प के अलावा विषय की नई भावभूमि से पाठकों को रूबरू कराया । विषय और अनुभव के नए प्रदेश में पाठकों को ले जाने का कहानीकारों का यह प्रयोग सफल भी हुए हैं और हिंदी जगत ने उनका नोटिस भी लिया । पर हिंदी में कुछ कहानीकार ऐसे हैं जो पुरानी पद्धति और लीक पर ही कहानियों का सृजन कर रहे हैं । अल्पना मिश्र का कहानी संग्रह - क़ब्र भी क़ैद औज़ंजीरें भी उसी तरह के संग्रहों में से एक है । नौ कहानियों के इस संग्रह में अल्पना ने गोरिल्ला तकनीक का इस्तेमाल करते हुए अपने पाठकों को चौंकाने की कोशिश की है । हिंदी कहानी में यह तकनीक बेहद पुरानी हो चुकी है जहां अचानक से किसी अनपेक्षित स्थितियों पर ले जाकर कहानी खत्म कर दी जाती है । अल्पना मिश्र के संग्रह की पहली कहानी गैरहाजिरी में हाजिर- में भी कथाकार इसी तकनीक का इस्तेमाल करती है । इस कहानी में शुरू से लेकर आखिर तक समाज और अफसरशाही में गहरे तक जमे जाति व्यवस्था को उघारते हैं । फिर भटकते हुए लाल बिंदी के बहाने से समाज की एक और बुराई की तरफ इशारा करती हैं । लेकिन जब कथा अपने मुकाम पर पहुंच रही होती है तो अंत में नायिका के भाई की अनायास मौत पर कहानी खत्म होती है ।
दूसरी कहानी गुमशुदा भी अल्पना मिश्रा की सपाट बयानी का बेहतरीन नमूना है । एक बछड़े की मौत के बहाने वो नेताओं पर मीडिया पर कटाक्ष करती है लेकिन कहानी को संभाल नहीं पाती है । इस कहानी में अल्पना एक जगह बताती हैं कि एक खबरिया चैनल को एक नेता धमका कर अपने कवरेज के लिए तैयार कर लेता है । धमकी के बाद चैनल से वहां एक कर्मचारी भेजा जाता है जिसे कैमरा चलाना नहीं आता लेकिन वो वहां पहुंचकर अपनी उपस्थिति मात्र से चैनल को नेता के प्रकोप से बचा लेता है । यहां तक तो ठीक था लेकिन उसके बाद अल्पना ने कह दिया कि नेता जी चैनल पर भाषण देकर अखबारों को फोन करने लगे । स्थिति बड़ी विकट है जब रिकॉर्डिंग नहीं आती तो नेता का चैनल पर भाषण कैसे हो सकता है । कहानी में अल्पना की कल्पना को देखते हुए रूस के मशहूर समीक्षक विक्टर श्क्लोव्सकी के विचार साफ तौर पर याद आते हैं जब वो कहते हैं- प्लाट जीवन एवं मानव संबंधों के व्यवस्था क्रम के बारे लेखक की अपनी समझदारी को दर्शाता है । इस कहानी में भी खबरिया चैनल और उसके प्रसारण को लेकर लेखिका की लचर समझ एक्सपोज हो जाती है ।  अल्पना की इस कहानी में कथा कई छोरों और कोनों में भटकती हुई जब कसाईबाड़े तक पहुंचती है तो फिर से घटना शॉक देने की कोशिश के साथ कहानी खत्म होती है ।
पुलिस पर सालों से ये आरोप लगते रहे हैं कि अपराधियों के नाम पर वो निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी दिखा कर वाहवाही लूटती है । जब से देश में आतंकवादी घटनाएं बढ़ी हैं तब से पुलिस पर आतंकवादियों के नाम पर एक खास समुदाय के लोगों को बगैर सबूत के गिरफ्तार कर लिया जाता है । इस संग्रह की एक कहानी- महबूब जमाना और जमाने में वे- भी एक ऐसी ही कहानी है । जिसमें फुटपाथ पर अपना कारोबार करनेवाले दो बेकसूर रहमत और रामसू को पुलिस ने मुठबेड़ में मार गिराया । इस कहानी और अखबार की रिपोर्ट में ज्यादा फर्क नहीं है । इस रिपोर्टनुमा कहानी में लेखिका कुछ और पात्रों के मार्फत कथारस डालना चाहती है लेकिन पात्रों से प्रभाव पैदा नहीं हो पाता है । इसके अलावा पुष्पक विमान और महबूब जमाना और जमाने में वे, का पुलिसवाला और दुकानवाला दोनों का व्यक्तित्व एक सा दिखाया गया है । कहानियों में कहीं ना कहीं से खबर, अखबार और चैनल आदि भी आ ही जाते हैं ।
इस संग्रह की एक और कहानी मेरे हमदम, मेरे दोस्त में औरतों के प्रति समाज के नजरिए को सामने लाया गया है । नायिका सुबोधिनी और उसके पति में अनबन चल रहा होता है । इस बात का पता उसके दफ्तर के सहयोगियों को चलता है तो सब उस स्थिति का फायदा उठाना चाहते हैं और सुबोधिनी में अपने लिए संभावना तलाशते हैं । यह भी एक साधारण कहानी है जिसको पढ़ते हुए पाठकों के मस्तिष्क में कोई तरंग उठेगी उसमें संदेह है । इस संग्रह के अंत में नामवर सिंह का दशकों पहले का एक कथन सर्वथा उपयुक्त होगा- आज भी कुछ कहानीकार नाटकीय अंतवाले कथानकों की सृष्टि करते दिखाई पड़ते हैं, परंतु ये वही लोग हैं, जिनके पास या तो कहने को कुछ नहीं है या फिर जीवन के प्रति उनका अपना कोई विशेष दृष्टिकोण नहीं है । हिंदी में किताबों के ब्लर्ब हमेशा से प्रशंसात्मक ही लिखे जाते हैं और इस संग्रह में ज्ञानरंजन ने उसका निर्वाह किया है ।

Saturday, September 15, 2012

शून्य से शिखर का सफर

भारत में धर्म और जाति आधारित राजनीति करनेवालों की खूब लानत मलामत की जाती है और यह कहा जाता है कि यह समाज को बांटने की राजनीति करते हैं । सही भी है । लेकिन उनमें से कुछ विद्वान उत्साह में पश्चिमी देशों से सीख लेने की सलाह देते हुए जाति और धर्म से उपर उठकर राजनीति करने कीनसीहत देते हैं । दरअसल ऐसा करनेवाले लोग अज्ञानता में इस तरह की बयानबाजी कर देते हैं । पश्चिमी देशों में भी जाति या नस्ल और धर्म आधारित राजनीति का अब भी बोलबाला है और वहां भी इसके खिलाफ जंग जारी है । अगर देखें तो अमेरिका में तमाम सुधारों और दावों के बावजूद वहां नस्ल या रंग और धर्म के आधार पर वोटिंग होती है और गैर अमेरिकी शख्सियत को चुनाव में जाने पर तमाम तरह के आरोपों और अपमान का दंश झेलना पड़ता है । इस बात को बेहद शिद्दत के साथ नॉर्थ करोलिना की गवर्नर बनने वाली पहली भारतीय महिला निकी हेली ने अपनी आत्मकथा या संस्मरणात्मक किताब - कांट इज नॉट एन ऑप्शन, माई अमेरिकन स्टोरी- में बताया है ।
निकी हेली जब पहली बार चुनाव लड़ रही थी तो उनपर उनके धर्म को लेकर गंभीर इल्जाम लगे थे । दरअसल सिख परिवार में पैदा होनेवाली निकी ने अपनी शादी के बाद क्रिश्चियन धर्म अपना लिया था लेकिन सिख धर्म में भी अपनी आस्था कायम रखी थी । वो शादी के बाद भी गुरुद्वारे जाती रहती थी । चुनाव के दौरान उनपर दो धर्मों को मानने के आरोप लगे जो परोक्ष रूप से क्रिश्चियन धर्म में उनकी आस्था को संदिग्ध करनेवाली थे । लिहाजा निकी को इसकी सफाई देते हुए कहना पड़ा था- क्राइस्ट में मेरा अटूट विश्वास और गहरी आस्था है और मैं हर रोज अपने फैसलों के पहले उनसे गाइडेंस लेती हूं । उन्होंने सफाई देने के अंदाज में आगे लिखा- भगवान ने हमें और हमारे परिवार को बहुत कुछ दिया है और हर रोज वो हमें काम करने की शक्ति देता है । क्रिश्चियन होने के लिए हर रोज इस बात का डंका पीटना जरूरी नहीं है बल्कि जरूरी है कि क्राइस्ट को हर वक्त जिया जाए । प्रत्यक्ष रूप से निकी ने ये बयान जरूर दिया लेकिन साथ ही उसने ये संदेश भी दे दिया कि भक्ति और पंथ को चुनने का अधिकार निहायत ही व्यक्तिगत है । इससे उसने सिखों और क्रिश्चियन दोनों को एक संदेश दे दिया ।
दरअसल अगर हम इस किताब को देखें तो इसमें अमृतसर के एक सिख परिवार के भारत से निकलकर कनाडा होते हुए अमेरिका में जाकर बसने के संघर्ष से लेकर खुद को और अपने बच्चों को स्थापित की करने की दास्तान है । करीब ढाई सौ पन्नों में लिखी गई इस किताब में एक सिख परिवार की अपने और अपने बच्चों के सपने को साकार करने की प्रेरणादायक कहानी है । निकी हेली ने लिखा है कि उनके माता पिता पंजाब में पैदा हुए थे । उनके मुताबिक उनका परिवार बेहद धनी था । उनकी मां अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के पास एक छह मंजिला इमारत में रहती थी जहां ऐशो आराम की तमाम सहूलियतें मौजूद थी । निकी के मुताबिक उसकी नानी को किसी पर यकीन नहीं था लिहाजा वो सारे अपनी नकदी अपने बिस्तर के गद्दे में छुकार रखती थी जिसपर वो सोया करती थी । उनकी मां राज कभी भी अपना काम खुद नहीं करती थी और उसको स्कूल ले जाने के लिए भी नौकर हुआ करते थे जो उनका बस्ता तक ढोते थे । जब भारत में महिलाओं की शिक्षा को लेकर उत्साह नहीं था उस वक्त में उसकी निकी की मां ने कानून की पढ़ाई की थी । निकी ने दावा किया है कि उसकी मां को कानून की पढ़ाई करने के बाद भारत की पहली महिला न्यायाधीश बनने का प्रस्ताव भी आया था जिसे उन्होंने ठुकरा दिया ।
दरअसल इस पारिवारिक पृष्ठभूमि को बताने के पीछे मकसद ये है कि वो साबित करे कि उसके मां-बाप ने अपना मुकाम हासिल करने के लिए कितना संघर्ष किया । किस तरह से अपनी ऐशो आराम की जिंदगी छोडकर उनके मां-बाप अपने बच्चों और अपनी बेहतरी के लिए अमेरिका चले गए । निकी के पिता अजित रंधावा कहा करते थे कि अगर कोई शख्स कड़ी मेहनत करता है और खुद के प्रति ईमानदार रहता है तो उसको सफलता के शिखर को चूमने से कोई रोक नहीं सकता है । अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए निकी बताती है कि भारत के पहाड़ी शहर धर्मशाला में उनके पिता और मां ने एक दूसरे को देखा और करीब करीब पहली नजर का प्यार शादी में बदल गया । शादी के बाद बॉयोलॉजी में पीएचडी करने के लिए अजित कनाडा के वैंकुवर के ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी चले गए । वहां अपनी पत्नी राज को भी बुला लिया जो अपनी आंखों में एक सपना लेकर वहां पहुंचती है । लेकिन वहां की स्थितियां उनके सपने को चकनाचूर कर देती है । छह मंजिला इमारत में रहनेवाली राज एक छोटे से घर में बगैर नौकर चाकर के खुद सारा काम संभालती है । आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए तीन जगहों पर पार्ट टाइम नौकरी करके परिवार चलाने लायक खर्चा जुटाने में पति की मदद भी करनी पड़ी । राज ने पोस्ट ऑफिस में काम किया, एवन के उत्पादों की बिक्री की और साथ ही स्पेशल बच्चों की देखभाल का काम करके पैसे जुटाए ।
लेकिन रंधावा परिवार का भविष्य अमेरिका में उनका इंतजार कर रहा था । अजित को दक्षिण कैरोलिना में प्रोफेसर की नौकरी मिलती है साठ के दशक के अंत में तो वह परिवार समेत बैम्बर्ग आ जाते हैं । निकी हेली का बचपन उसी शहर में बीता जहां उसके पिता को सिखों की पगड़ी की वजह से अलग दिखते थे । उन्हें हर वक्त ताने और उलाहने झेलने पड़ते थे । उस वक्त अमेरिका में नस्लवाद अपने चरम पर था । जब भी निकी का परिवार कहीं जाता था तो उनसे पूछा जाता था कि वो ब्लैक हैं या व्हाइट । इस तरह की परिस्थितियों से जूझते हुए निकी के पिता और मां ने अपनी लगन और मेहनत से बैम्बर्ग में एक मुकाम हासिल किया । उसकी मां ने कपड़ों का कारोबार शुरु किया और जो वक्त के साथ बढ़ता चला गया । अब तो वो कारोबार करोड़ों का है । निकी हेली का बचपन भी संघर्ष में बीता और बारह साल की उम्र में स्कूल के बाद उसने भी बुककीपिंग और अकाउंटिंग का काम किया । अपने परिवार के कारोबार में आने वाली सरकारी बाधाओं और नौकरशाही द्वारा लगानेवाले अंडंगा को देखकर उसका मन दुखी हो जाता था और वो उसको दूर करने के बारे में सोचने लगती थी । यहीं से उसके मन में राजनीति में जाने की इच्छा बलवती होने लगी थी ।
इस किताब में निकी हेली ने अपनी कई व्यक्तिगत संस्मरण या घटनाओं का भी जिक्र किया है । एक दिलचस्प घटना- एक दिन अचानक निकी अपने ब्याय फ्रेंड माइकल हेली को लेकर घर पहुंच जाती है । अपने मां-बाप से मिलवाते हुए कहती है कि वो इनसे शादी करना चाहती है । एक पारंपरिक भारतीय मां-बाप की तरह राज और अजित रंधावा ने गैर भारतीय से शादी करने की बेटी की इच्छा का जमकर विरोध किया । उन्होंने इस बात की हर संभव कोशिश की उनकी दूसरी बेटी एक अमेरिकी से शादी ना करे । लेकिन ये हो न सका क्योंकि - कांट इज नॉट एन ऑप्शन । ये शादी होती है और उसके बाद शुरू होता है उसका राजनीतिक सफर । राजनीति में रंगभेद के अलावा सरकारी बाधा और नौकरशाही के बेवजह अड़ंगे के मुद्दे पर निकी चुनाव मैदान में उतरती है । चुनाव में उसने वहां लंबे समय से राजनीति कर रहे शख्स को मात दी । निकी ने तमाम विरोध को झेलते हुए मजबूती से अपने सुधारों को लागू किया । आज निकी हेली रिपब्लिकन पार्टी में अमेरिका के उपराष्ट्रपति पद के लिए बॉबी जिंदल, कोंडलिजा राइस के साथ एक मजबूत दावेदार है ।
निकी हेली पर गवर्नर रहते हुए कई संगीन इल्जाम लगे । अमेरिका में राजनैतिक विरोधियों को निबटाने के लिए विवाहेत्तर संबंधों के आरोप लगते रहे हैं । इसी तरह की साजिश निकी के खिलाफ भी हुई और उनपर अपनी पति से बेवफाई के इल्जाम लगे । इन इल्जामों पर भी निकी ने अपनी इस किताब में सफाई दी है । इस फ्रंट पर मात खाने के बाद निकी के विरोधियों ने उनपर सरकार में रहते हुए कारोबारियों के लिए लॉबिंग करने के आरोप लगाए । उन आरोपों की भी जांच की गई लेकिन वो भी निराधार निकले ।
इस किताब के शुरुआती हिस्से बेहद दिलचस्प हैं जिसमें निकी ने नक्सवाद को झलने की  पीड़ा पर लिखा है । इसमें उसने बताया है कि किस तरह से एक ब्यूटी कॉंटेस्ट में उसको उसके रंग की बिनाह पर अयोग्य करार दे दिया गया था । इस तरह के कई दिलचस्प लेकिन पीड़ा दायक प्रसंग हैं । चौदह अध्याय में विभक्त इस संस्मरणात्मक आत्मकथा में बाद में अपनी राजनैतिक हालात का वर्णन किया है जो कि अमेरिका की राजनीति में गहरी रुचि रखनेवालों के लिए पठनीय हो सकता है, आम पाठकों को उससे बोरियत होगी । अगर हम समग्रता में इस किताब पर विचार करें उसको एक भारतीय परिवार की घर से निकलकर दूसरे मुल्क में खुद को सफलता के शीर्ष पर स्थापित करने वाली प्रेरणादायक कहानी कह सकते हैं । किसी ने ठीक कहा है कि अगर निकी हेली अपने सिद्धांतो और विचारों पर मजबूती से लंबे समय तक टिकी रह सकी तो विश्व इतिहास में बैम्वर्ग को वही स्थान हासिल हो सकता है जो ग्रेट ब्रिटेन की आयरन लेडी के जन्मस्थान ग्रांथम को हासिल है ।

Sunday, September 9, 2012

सालों बाद आरोप के तीर

बांग्लादेश की विवादास्पद और निर्वासन का दंश झेल रही विवादास्पद लेखिका तसलीमा नसरीन ने एक बार फिर से नए विवाद को जन्म दे दे दिया है । तसलीमा ने बंग्ला के मूर्धन्य लेखक और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय पर यौन शोषण का बेहद संगीन इल्जाम जड़ा है । तसलीमा ने सोशल नेटवर्किंग साइट ट्विटर पर लिखा- सुनील गंगोपाध्याय किताबों पर पाबंदी के पक्षधर रहे हैं । उन्होंने मुझे और कई अन्य महिलाओं का यौन शोषण किया । वो साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हैं । शर्म, शर्म । तसलीमा नसरीन के इस ट्विट ने साहित्य जगत में तूफान खड़ा कर दिया है । तसलीमा के अलावा लोगों ने सुनील गंगोपाध्याय से इस आरोप पर सफाई मांगनी शुरू कर दी । सुनील गंगोपाध्याय का कद साहित्य में बहुत बड़ा है और उनपर इसके पहले इस तरह के आरोप लगे हों ये ज्ञात नहीं है । इतना अवश्य है कि जब दो हजार चार में तसलीमा की आत्मकथा का तीसरा खंड दि्वखंडित प्रकाशित हुआ तो साहित्यक हलके में इस तरह की चर्चा हुई थी लेकिन उस वक्त किसी का नाम साफ तौर पर उभर कर सामने नहीं आया था । अब उस पुस्तक के प्रकाशन के आठ साल बाद तसलीमा ने वरिष्ठ और बुजुर्ग साहित्यकार लेखक सुनील गंगोपाध्याय पर खुलेआम आरोप लगाया है । जहां तक तसलीमा के सेक्सुअल हैरसमेंट के आरोप की बात है तो अब एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि वो अब तक इस मसले पर चुप क्यों रहीं । जब उनका यौन शोषण हुआ था तो उस वक्त उन्होंने हल्ला क्यों नहीं मचाया । तसलीमा ने इस बात का जबाव देते हुए कहा है कि एक उनके साथ कोलकाता के एक होटल में सुनील गंगोपाध्याय ने छेड़छाड़ की । तसलीमा के मुताबित कोलकाता में सुनील अपने एक दोस्त के साथ उनके कमरे में डिनर के लिए आए थे । जब जाने लगे तो उन्होंने विदाई आलिंगन के वक्त आपत्तिजनक हरकत की थी । लेकिन उस वक्त तसलीमा सुनील गंगोपाध्याय के रसूख को देखते हुए खामोश रही थी ।  
भारत में हमेशा पुलिस के पहरे में रहनेवाली तसलीमा ने हैरसमेंट के वक्त पुलिस को इस बात की जानकारी क्यों नहीं दी । उन्होंने जरूर इस बात का जिक्र किया है कि उनकी आत्मकथा द्विखंडित को बैन करवाने के पीछे सुनील गंगोपाध्याय ही मास्टरमाइंड थे । तसलीमा इतने पर ही नहीं रुकी और गंगोपाध्याय पर उनको बंगाल से निकलवाने की साजिश रचने और झूठ बोलने का भी आरोप जड़ दिया है । दरअसल तसलीमा नसरीन चर्चा और विवादों के केंद्र में बने रहना चाहती भी हैं और जानती भी हैं । जो लोग भी तसलीमा नसरीन को ट्विटर पर फॉलो करते हैं उन्हें इस बात का अंदाजा भी है । वो लगातार धर्म, स्त्री पुरुष संबंधों और पुरुषों के खिलाफ अजीबोगरीब ट्विटरबाजी से चर्चा में आने की जुगत में लगी रहती हैं ।
दरअसल तस्लीमा और सुनील गंगोपाध्याय के बीच ये पूरा विवाद शुरू हुआ है पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी डॉक्टर नजरुल इस्लाम की किताब- मुसलमान की करनीय (मुसलमानों को क्या करना चाहिए ) से । इस किताब के छपने के बाद पश्चिम बंगाल पुलिस ने बगैर किसी इजाजत के प्रकाशक के गोदाम और दफ्तर पर छापा मारा और उनको जमकर धमकाया । ड़ॉक्टर इसलाम की किताबों की बिक्री नहीं करना का फरमान जारी कर दिया गया । इस किताब में ममता बनर्जी सरकार की अल्पसंख्यकों के प्रति नीति की आलोचना की गई है और तमाम तर्कों और उदाहरणों के साथ ममता की नीति को वोट बैक की राजनीति और अल्पसंख्यकों को लुभाने वाली नीति करार दिया गया है । पिछले दिनों कई घटनाओं से ये साफ हो गया है कि ममता बनर्जी अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पा रही है । पहले जब एक टेलीनिजन के कार्यक्रम में स्नातक की छात्रा तान्या भारद्वाज ने उनसे महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल पूछा तो उसको माओवादी करार देते हुए कार्यक्रम को बीच में छोड़कर चली गई थी । उसके बाद एक जगह किसानों ने जब उनसे अपनी समस्याओं की बात की तो उनको जेल भेज दिया गया । बीच में फेसबुक पर कार्टून बनाने को लेकर जो हंगामा मचा वो तो अभी तक सबके जेहन में ताजा है ।  
नजरुल इस्लाम की इस किताब पर ममता बनर्जी सरकार की अघोषित पाबंदी और पुलिस के प्रकाशक के दफ्तर पर छापा मारने के बाद से पश्चिम बंगाल के कुछ बुद्धिजीवियों ने उसकी खिलाफत शुरू कर दी । इस खिलाफत में बयान जारी करनेवालों में से एक नाम सुनील गंगोपाध्याय का भी है । उन्होंने इस पाबंदी को अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा बताते हुए तगड़ा विरोध जताया । सुनील गंगोपाध्याय के इस विरोध के बाद तसलीमा नसरीन ने ताबड़तोड़ ट्विट करके ये साबित करने की कोशिश की सुनील गंगोपाध्याय का विरोध सिर्फ दिखावा मात्र हैं और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर उनके दो चहरे हैं । तसलीमा ने पहले तो लोगों से अपील की कि वो नजरुल इस्लाम की अभिवयक्ति की आजादी के समर्थन में खड़े हों । इसी क्रम में उन्होंने कहा कि सुनील गंगोपाध्याय का विरोध छद्म है । सुनील गंगोपाध्याय को अभिव्यक्ति की आजादी से कोई लेना देना नहीं है । तसलीमा ने अपनी किताब का हवाला देते हुए कहा कि सुनील गंगोपाध्याय ने बुद्धदेव भट्टाचार्य की तत्तकालीन सरकार पर दबाव डालकर उनकी किताब द्विखंडित पर पाबंदी लगवाई थी । द्विखंडित को बुद्धदेव सरकार ने धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में बैन कर दिया था । बाद में मामला कोर्ट में गया और कलकत्ता हाईकोर्ट ने पहले तो कुछ विवादित अंशों को हटाकर किताब पर से बैन हटा दिया था । जब द्विखंडित हिंदी में छपा तो कई जगह खाली बॉक्स बनाकर यह लिख दिया गया था कि कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा प्रतिबंधित पाठ्य सामग्री यहां नहीं छापी गई है । बाद में कोर्ट ने उन प्रतिबंधित अंशों को प्रतिबंध से मुक्त कर दिया था और कथित विवादास्पद अंशों को भी छापने की इजाजत दे दी थी ।
दरअसल अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ लेकर लेखक अपनी अपनी चालें चल रहे हैं । नजरुल इस्लाम की किताब पर जब पाबंदी लगी तो तसलीमा को उसमें अपना पुराना हिसाब चुकाने की संभावना नजर आई । तमाम मुद्दों पर मुखर रहनेवाली तसलीमा आमतौर पर भारत के साहित्यक मसलों पर खामोश ही रहती हैं । लेकिन नजरुल के मामले में जब सुनील गंगोपाध्याय ने विरोध जताया तो वो भी कूद पड़ीं और उनपपर सेक्सुअल हैरसमेंट का आरोप जड़ दिया । उसका नतीजा क्या हुआ पूरे देश और मीडिया का ध्यान मूल प्रश्न से हटकर यौन शोषण पर केंद्रित हो गया । सारी बहस उस दिशा में मुड़ गई और अभिव्यक्ति की आजादी का बड़ा प्रश्न आरोप प्रत्यारोप में गुम सा गया । बाद में जब तसलीमा से इस बात पर सवाल जबाव किया गया तो उन्होंने कहा कि आई हैव हर्ड दैट सुनील हैज डन इट टू मैनी वूमन । अब सुनी सुनाई बातों पर किसी का चरित्र हनन करना कहां तक जायज है । अब तसलीमा ये भी सफाई दे रही हैं कि इस यौन शोषण की अभिव्यक्ति उन्होंने एक कविता रास्तेर छेले इबोंग कोबी लिखकर की थी । उनकी ये कविता उनके संग्रह खाली खाली लगे में संग्रहीत है ।  
सवाल यह उठता है कि तसलीमा इस तरह के प्रश्न उठाकर या आरोप लगाकर क्या हासिल करना चाहती है । इस बात की पड़ताल होनी चाहिए । बांग्ला के कई लेखक इस आरोप की टाइमिंग पर सवाल खड़े कर रहे हैं । टाइमिंग पर सवाल होना लाजमी है । इस वक्त सुनील गंगोपाध्याय साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हैं । अकादमी का उनका कार्यकाल विवादित नहीं रहा है । क्या इसके पीछे साहित्य अकादमी की राजनीति है । क्या तसलीमा के इस बयान के निहितार्थ और भी हैं । क्या तसलीमा नसरीन नजरुल इस्लाम की किताब के बहाने से अपनी व्यक्तिगत खुन्नस निकाल रही हैं । क्या अभिव्यक्ति की आजादी के बड़े प्रश्न की आड़ में व्यक्तिगत झगड़ों का बदला चुकाया जा रहा है । या फिर सच में तसलीमा के साथ ऐसा हुआ था जिसपर उसने सालों बाद मुंह खोला है । लेकिन इतना तो तय है कि तसलीमा के इन आरोपों की गूंज देर तलक सुनाई देगी हो सकता है साहित्य अकादमी के चुनाव के वक्त भी इसकी अनुगूं सुनाई दे । हैरानी की बात नहीं है कि इस मामले में लेखकों की जमात से किसी तरह का कोई स्टैंड सामने नहीं रहा । लेखक संगठनों की चुप्पी भी चकित करनेवाली है । महिला अधिकारों के लिए गलाफाड़ कर चिल्लानेवाले संगठन भी खामोश क्यों हैं । क्या लेखक संगठनों को ये सवाल या आरोप बड़ा नहीं लगता । या फिर किसी पॉलिटिक्स के तहत लेखक संगठनों ने चुप्पी साध रखी है । लेखकों के इन संगठनों ने तो तसलीमा के बंगाल निष्कासन से लेकर उसकी किताब पर पाबंदी लगाने के वक्त भी चुप्पी साध ली थी । अपनी पार्टी का कर्ज चुका रहे थे । लेकिन अब वक्त आ गया है कि वो संगठन इस मसले में हस्तक्षेप करे और आरोपों के धुंध को साफ करने में एक भूमिका निभाए 

Sunday, September 2, 2012

उद्देश्य से भटकता पुस्तक मेला

विश्व में पुस्तक मेलों का एक लंबा इतिहास रहा है। पुस्तक मेलों की पाठकों की रुचि बढ़ाने से लेकर समाज में पुस्तक संस्कृति को बनाने और उसको विकसित करने में एक अहम योगदान रहा है ।  भारत में बड़े स्तर पर पुस्तक मेले सत्तर के दशक में लगने शुरू हुए । दिल्ली और कलकत्ता पुस्तक मेला शुरू हुआ । 1972 में भारत में पहले विश्व पुस्तक मेले का दिल्ली में आयोजन हुआ । उसके बाद से हर दूसरे साल दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया जाता है । दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला और लंदन बुक फेयर के बाद सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित माना जाने लगा है । इस प्रतिष्ठा की वजह भारत की समृद्ध लेखन परंपरा तो है ही लेकिन एक और अहम वजह भारत में पुस्तकों का बढ़ता बाजार है । हाल के दिनों में ये साबित हो गया है कि भारत विश्व में अंग्रेजी किताबों का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है । लिहाजा पूरी दुनिया के अंग्रेजी प्रकाशकों की नजर भारत के बाजार पर कब्जा करने या फिर वहां से मुनाफा कमाने पर लगी है । यह परिदृश्य सिर्फ अंग्रेजी को लेकर ही नहीं है । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का भी बाजार भी लगातार बढ़ रहा है । यह अकारण नहीं है कि फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में दो बार भारत को अतिथि देश का दर्जा मिला था । एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त भारत में करीब बारह हजार प्रकाशक हैं और हर साल सभी भाषाओं को मिलाकर लगभग एक लाख नई किताबें छप रही हैं । पुस्तक मेलों की अहमियत इस बात में हैं कि वो पुस्तकों की बिक्री के अलावा सभी भाषाओं के प्रकाशकों को एक जगह इकट्ठा होकर कारोबार के आदान प्रदान का एक मंच भी मुहैया करवाता है । जैसे फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में लेखकों के अलावा उनके एजेंट और प्रकाशकों के बीच कारोबारी समझौता को ज्यादा अहमियत दी जाती है । वहां अलग अलग भाषाओं के प्रकाशकों के बीच अपनी भाषा में किताबों को छापने को लेकर कारोबारी शर्तें तय होती हैं । कॉपीराइट और लेखकों से जुड़े अन्य मसलों पर विमर्श होता है । इसका फायदा यह होता है कि हर भाषा के पाठकों को दूसरी भाषा की कृतियों को पढ़ने और उससे परिचित होने का मौका मिलता है । नतीजा यह होता है कि पुस्तक संस्कृति का निर्माण होता है और उसे मजबूती मिलती है ।
लेकिन भारत में पुस्तक मेलों का उद्देश्य और स्वरूप कुछ और ही होता चला गया है । हमारे यहां पुस्तक मेले अपने उद्देश्यों से भटककर उत्सवों में तब्दील हो गए है । इस साल दिल्ली में जो विश्व पुस्तक मेला आयोजित हुआ उसकी थीम भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष थे । लेकिन सिनेमा पर चंद सेमिनारों के आयोजन के अलावा उस आयोजन में कुछ खास देखने को नहीं मिला । विश्व पुस्तक मेले के आयोजनकर्ता नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशकों की नाराजगी दिखी थी । ये नाराजगी सुविधाओं और आयोजन की तिथि और पुस्तक मेले के प्रचार में ढिलाई को लेकर थी । लेकिन प्रकाशकों की शिकायतों से इतर नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक एम ए सिकंदर का दावा था कि उन्होंने इस बार विश्व पुस्तक मेले को छात्रों के बीच ले जाने की अनोखी पहल शुरू की थी । इन आरोपों और सफाई के बीच विश्व पुस्तक मेले में हिंदी के ह़ल में एक बात जो रेखांकित करने योग्य थी वह थी विमचनों का रेला । पुस्तक मेले के दौरान विमचनों की होड़ लगी थी । हर लेखक और प्रकाशक ये सोच रहा था कि किसी भी तरह से अगर उनकी किताब का विमोचन पुस्तक मेले में नहीं हुआ तो फिर उनका लेखन बेकार है । ताबड़तोड़ विमोचनों का असर यह हुआ कि जो आम पाठक मेले में आए थे वो बेहद क्फ्यूज हो गए । हर स्टॉल पर हर दिन हिंदी का कोई ना कोई बड़ा लेखक किसी ना किसी किताब का विमोचन करते हुए उस किताब को सदी की महानतम कृति की श्रेणी में डालने का उद्घोष कर रहा था । हिंदी के एक बड़े प्रकाशक के स्टॉल पर चो एक साथ दर्जनभर पुस्तकों का विमोचन हुआ । लग रहा था कि अगर वहां विमोचवन नहीं हुआ तो मोक्ष की प्राप्ति से वंचित रह जाएंगे ।
यह बताने का मेरा मकसद सिर्फ इतना है कि पुस्क मेले अपने उद्देश्यों से भटकते जा रहे हैं । जिन मेलों पर ये दायित्व था कि वो पाठकों की रुचि का परिष्कार करेंगे और देश में एक पुस्तक संस्कृति का निर्माण करेंगे वो पुस्तक मेले अब लेखकों के प्रचार का मंच बनता जा रहा है । पुस्तक मेलों में सार्थक संवाद की गुंजाइश खत्म होने लगी है । कुछ दिनों पहले दिल्ली के प्रगति मैदान में दिल्ली पुस्तक मेला खत्म हुआ है । दिल्ली पु्स्तक मेले का आयोजन द फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिशर्स और इंडिया ट्रेड प्रमोशन ऑर्गेनाइजेशन के संयुक्त तत्वाधान में किया जाता है । एक जमाना था जब दिल्ली पु्स्तक मेले को लेकर दिल्ली के लोगों के बीच जबरदस्त उत्साह देखने को मिलता था । उस वक्त प्रकाशकों की प्रतिभागिता भी ज्यादा होती थी । लेकिन बाद में संगठन में राजनीति और प्रचारप्रियता के अलावा श्रेय लेने की होड़ ने दिल्ली पुस्तक मेले के रंग को फीका करना शुरू कर दिया । नतीजा यह हुआ कि हिंदी और अंग्रेजी के बड़े प्रकाशकों ने इस मेले से मुंह मोड़ना शुरू कर लिया । दिल्ली पुस्तक मेले को विस्तार देने की बजाए चंद लोगों ने इसको अपनी जागीर बना ली जिसकी वजह से दिल्ली पुस्तक मेला अपनी आखिरी सांसे गिनने लगा । रही सही कसर नेशनल बुक ट्रस्ट ने हर साल विश्व पुस्तक मेले के आयोजन का ऐलान कर पूरा कर दिया । नेशनल बुक ट्रस्ट के संयोजन में अब हर साल दिल्ली के प्रगति मैदान में फरवरी में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया जाएगा । नेशनल बुक ट्रस्ट के इस फैसले के बाद माना जा रहा है कि दिल्ली पुस्तक मेले का ये आखिरी आयोजन था ।
उधर कोलकाता पुस्तक मेले में भी राजनीति और कंट्टरपंथ हावी होने से उसकी साख को बट्टा लगा है । साल के अंत में सर्दियों में लगनेवाला ये पुस्तक मेला आम पाठकों के लिए होता है और माना जाता है कि ये विश्व का सबसे बड़ा गैर कारोबारी पुस्तक मेला है । लोगों की उपस्थिति के लिहाज से इस पुस्तक मेले को विश्व का सबसे बड़ा पुस्तक मेला माना जा सकता है । पिछले साल एक अनुमान के मुताबिक इस कोलकाता बोई मेला को देखने और किताबें खरीदने के लिए तकरीबन बीस लाख लोग मेला स्थल पर आए थे । कोलकाता पुस्तक मेले की प्रतिष्ठा इस बात को लेकर भी ज्यादा थी कि वहां हर विचारधारा के लेखकों की किताबों को जगह मिलती थी । लेकिन इस बार जिस तरह से तस्लीमा नसरीन की किताब को लेकर सरकार और आयोजक कट्टरपंथियों के आगे झुके वो शर्मनाक है । तस्लीमा की किताब निर्बासन का लोकार्पण की इजाजत नहीं देने की चारो ओर आलोचना हुई थी । ये लोकार्पण तस्लीमा की अनुपस्थिति में किया जाना था । लेकिन कट्टरपंथियों के दबाव में झुके आयोजकों को ममता सरकार ने भी विमोचन नहीं कराने की सलाह दी । इस घटना की विश्व भर के साहित्यक हलके में जमकर आलोचना हुई । सिर्फ देश के चंद प्रगतिशील लेखकों ने चुप्पी साध ली थी ।
पुस्तक मेलों का घटता आकर्षण और जयपुर लिटरेचर फेस्टीवल जैसे आयोजनों की बढ़ती लोकप्रियता से बड़े सवाल खड़े होने लगे हैं ।  अब वक्त आ गया है कि हमें इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि हमारे देश में दिल्ली ,कोलकाता, पटना जैसे विश्व प्रसिद्ध पुस्तक मेलों के प्रति लोगों का आकर्षण कम क्यों होता जा रहा है । पुस्तक मेलों की बजाए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल, गोवा लिट फेस्ट, चेन्नई लिटरेचर फेस्टिवल आदि कैसे विस्तार पा रहा हैं । क्या पाठकों की रुचि का परिष्कार हो गया है और अब वो सुख शांति से अपने प्रिय लेखकों को सुनना और उनसे संवाद करना चाहते हैं । क्या इन पुस्तक मेलों में पाठक अपने लेखकों से संवाद कायम करने का सुख नहीं पा रहे हैं जो उन्हें लिटरेचर फेस्टिवलों की ओर खीच रहा है । इन बातों पर हिंदी के प्रकाशकों और लेखकों को गंभीरता से विचार करना होगा । हिंदी पट्टी में खासकर छोटे शहरों में पुस्तक मेलों की एक अहमियत है । अगर समय रहते छोटे शहरों में पुस्तक मेलों के अस्तित्व को बचाने का प्रयास नहीं किया गया तो पुस्तक संस्कृति को भारी नुकसान होगा । नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना के उद्देश्यों में पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देना भी शामिल है । इस दिशा में नेशनल बुक ट्रस्ट को पहल करनी होगी ताकि देशभर में नई पीढ़ी के बीच पुस्तकों से प्रेम करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जा सके । एनबीटी को महानगरों से निकलकर लगातार छोटे शहरों में पुस्तक मेलों का आयोजन करना होगा और उन मेलों में बड़े लेखकों की उपस्थिति सुनिश्चित करवानी होगी ताकि पाठकों को संवाद का मौका मिल सके । अगर ऐसा हो सके तो हम भाषा और संस्कृति के प्रति अपने दायित्वों को सही तरीके से निभा पाने में सफल हो पाएंगे ।