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Sunday, December 29, 2013

समाज के बदलते सरोकार

एक गोष्ठी में हिंदी की वरिष्ठ उपन्यासकार और महिला अधिकारों की जोरदार वकालत करनेवाली लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने बेहद दिलचस्प बात कही थी । मैत्रेयी ने कहा था कि मोबाइल ने समाज में स्त्रियों की हालत बेहतर करने और उनको एक हिम्मत देने में बहुत मदद की । उस विचार गोष्ठी में बैठे श्रोता चंद पलों के लिए चौंके थे कि मैत्रेयी ने क्या कह दिया । मोबाइल और स्त्री की बेहतरी में क्या रिश्ता हो सकता है । बहरहाल मैत्रेयी पुष्पा ने अपने तर्कों के आधार पर यह बात साबित की । मैत्रेयी पुष्पा का तर्क था कि मोबाइल सेवा के विस्तार से हमारे समाज की महिलाओं, खासकर दलितों और पिछड़ी वर्ग की, को काफी ताकत मिली है । अब वो घूंघट के नीचे अपना दर्द छुपाकर सबकुछ सहने के लिए मजबूर नहीं है बल्कि घूंघट की आड़ में वो मोबाइल दबाकर अपने सुख दुख अपने हितैषियों से साझा कर सकती है । विपत्ति और संकट के समय अपने माता पिता या सगे संबंधियों को फोन कर अपने ऊपर के खतरे के बारे में बताकर मदद मांग सकती है । मैत्रेयी ने यह बात कुछ महिलाओं के व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर कही थी इस वजह से उसकी एक प्रामाणिकता भी बनती है । वैश्वीकरण की वजह से जिस तरह से हमारे देश में तकनीक का विस्तार हो रहा है वो बहुधा हमारे समाज के कई हिस्सों के लिए लाभदायक भी होती है ।  तकनीक की वजह से यह जो सामाजिक बदलाव आया है उसको रेखांकित करने की जरूरत है । मोबाइल फोन के बढ़ते घनत्व ने समाज के हर तबके और हर आय वर्ग के परिवारों को अपने दायरे में लिया है । लिहाजा मैत्रेयी पुष्पा के तर्कों में दम प्रतीत होता है । समाजविज्ञानियों का भी मानना है कि हाथ में मोबाइल फोन के आने से स्त्रियों का सशक्तीकरण हुआ है । कर लो दुनिया मुट्ठी में भले ही एक मोबाइल कंपनी के विज्ञापन की लाइनें हों लेकिन आज ये हकीकत बन चुका है और मोबाइल फोन सामाजिक बदलाव का एक बड़ा वाहक बनकर उभरा है । खासकर निचले वर्ग की महिलाओं को अपने बचाव का एक ऐसा हथियार मिला है जिनसे वो अबतक वंचित थी ।
इससे भी एक दिलचस्प किस्सा है एक शॉपिंग मॉल का । जहां एक सात आठ साल की बच्ची के लिए जब उसके मम्मी डैडी लहंगा खरीद रहे थे । छोटी बच्ची जब लहंगा पहनाकर ट्रायल रूम से बाहर निकली तो मासूमियत से कहा कि मम्मी ये मुझे पसंद नहीं है । इसमें नेवल (नाभि) नहीं दिखता है । अब चौंकने की बारी उसके अभिभावकों की थी । खैर उसको उसकी पसंद का लंहगा दिलाने का भरोसा दिलाकर उसके मां-बाप उसे और जगह ले जाने लगे । मैंने उस बच्ची की पिता से जानना चाहा कि बच्ची ने ऐसा क्यों कहा । उनका तर्क था कि वो करीना कपूर की फैन है और किसी फिल्म में करीना ने वैसा ही लंहगा पहना है जिसमें नेवल दिखता है । सात आठ साल की उस बच्ची की पसंद और उस पसंद के पीछे की कहानी से समाज में आ रहे बदलाव के सूत्र पकड़े जा सकते हैं । टेलीविजन चैनलों और फिल्मों की पहुंच बढ़ने का असर बाल मन से लेकर बड़ों के मानस तक पर पड़ रहा है । फिल्मों और टेलीविजन के माध्यम से आधुनिकता और खुलापन हमारे घरों में घुस रहा है और हमारे पूरे परिवार की सोच और मानसिकता को धीरे-धीरे प्रभावित कर रहा है । यह एक बेहद मत्वपूर्ण बदलाव है जो लंबे समय से भारत में महसीस किया जा रहा है लेकिन दो हजार तेरह में यह बदलाव साफ तौर पर उभर कर सामने दिखाई देने लगा है । इसी तरह से समाज में सेक्स को लेकर जिस तरह से एक खुलापन दिख रहा है और जिस तरह से समाजिक वर्जनाएं टूट रही हैं वो भी रेखांकित किया जा सकता है ।  

भारत के इतिहास में दो हजार तेरह को सिर्फ एक कैलेंडर वर्ष के रूप में नहीं याद किया जा सकता है । इस वर्ष समाज के हर क्षेत्र में कई बदलाव हुए, राजनीति से लेकर कूटनीति तक, देश से लेकर विदेश तक, शहरों से लेकर गांव तक आदि आदि । राजनीति और कूटनीति के क्षेत्र में बदलाव के कोलाहल के बीच हमारे देश का एक बेहद अहम सामाजिक बदलाव दब सा गया । भारत जब से आजाद हुआ तब से लेकर अब तक कई बार समाज को बांटने का कुत्सित प्रयास हुआ । कई बार हिंदुओं और मुसलमानों को तो कई बार दलितों और सवर्णों को तो कई बार दलितों और पिछड़ों को लेकिन इन प्रयासों को ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई । हमारे देश में भाईचारे का एक लंबा इतिहास रहा है लेकिन सियासत की बिसात पर जीत हासिल करने के लिए चली गई शतरंजी चालें इस भाईचारे के प्यादे को कुर्बान करने में कभी नहीं हिचकाचाई हैं । भारतीय समाज का जो एक सामाजिक ताना बाना है उसको भी छिन्न भिन्न करने की कई बार कोशिशें की गई । इस नापाक कोशिश में कई बार उन शरारती तत्वों को सफलता भी मिली मिली लेकिन हमारे सामाजिक रिश्ते इतने गहराई तक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं कि वो बहुधा नाकाम रहे । शहरी इलाकों से ज्यादा ये नाकामी ग्रामीण इलाकों में हुई । सामाजिक वैमनस्यता देश के ग्रामीण इलाकों में अपनी जड़े नहीं जमा सकी । लेकिन वर्ष दो हजार तेरह उस मायने में देश में याद रखा जाएगा । पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए दंगों ने इस सामाजिक ताने बाने को ध्वस्त कर दिया । कस्बों की लड़ाई गांवों तक जा पहुंची । मुजफ्फरनगर के इन दंगों ने समाज के उन इलाकों में नफरत के बीज बो दिए जहां अबतक प्यार और भाईचारे की फसल लहलगाया करती थी । सामाजिक घृणा की खाई इतनी गहरी हो गई है जिसे साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है । समाजशास्त्रियों के लिए यह शोध का विषय है कि जो लोग सदियों से एक साथ रह रहे थे, जिनके भाईचारे और सामाजिक रिश्तों की दुहाई दी जाती थी उनके बीच ऐसा क्या घटित हो गया है कि दोनों समुदाय एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए । क्या जानलेवा नफरत की ये जमीन काफी पहले से तैयार हो रही थी जिसे एक तात्कालिक वजह ने हवा दे दी या फिर कोई अन्य वजह से इस तरह नफरत फैला । इस वजह से दो हजार तेरह भारत के इतिहास में उस साल के तौर पर याद किया जाएगा जहां नफरत की इबारत की स्याही और गहरी हुई । 

Monday, December 23, 2013

ब्रांड मोदी पर छाया ?

पांच विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने एक बेहद दिलचस्प ट्वीट किया था । उस ट्वीट में उन्होंने लिखा था कि भारतीय जनता पार्टी ने एक राज्य में जितनी सीटें जीतीं हैं कांग्रेस चारों राज्यों को मिलाकर भी उससे कम सीट जीत पाईं । ट्विटर पर दिए गए इस बयान में नरेन्द्र मोदी का आत्मविश्वास साफ तौर पर दिखाई देता है । विधानसभा चुनाव के पहले जिस तरह से नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी के पक्ष में और कांग्रेस के खिलाफ धुंआधार प्रचार किया था उसके बाद इस तरह की जीत से संतोष और आत्मविश्वास होना लाजमी भी है । विधानसभा चुनावों के नतीजों में भारतीय जनता पार्टी ने पांच सौ नब्बे सीटों में से दो तिहाई सीट से ज्यादा पर अपनी जीत का परचम लहराया था । मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी ने अपनी धमक बनाए रखी और राजस्थान में उसने कांग्रेस को मटियामेट करते हुए ऐतिहासिक जीत दर्ज करवाई । दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी को हलांकि पूर्ण बहुमत नहीं मिला लेकिन आम आदमी पार्टी की आंधी के बावजूद वो अपना किला बचाने में कामयाब रही । दिल्ली के नतीजों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी । राजनीतिक पंडितों का मानना है कि अगर मोदी का करिश्मा नहीं होता और विजय गोयल को हटाकर डॉ हर्षवर्धन को मोदी ने दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी का चेहरा ना बनवाया होता तो पार्टी की बुरी गत होती । भारतीय जनता पार्टी की इस जीत में उसके मजबूत क्षत्रपों का भी बड़ा योगदान है लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी के केंद्र में आने से उन क्षत्रपों को ताकत मिली, कार्यकर्ता उत्साहित हुए । जो उत्साह राहुल गांधी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच पैदा नहीं कर सके और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस मटियामेट हो गई । कांग्रेस पार्टी का खाद्य सुरक्षा से लेकर रोजगार और शिक्षा की गारंटी का कानून का दांव भी कोई चमत्कार नहीं दिखा सका । कांग्रेस के आला नेताओं को लग रहा था कि दो हजार नौ में रोजगार की गारंटी से मिली सफलता का इतिहास दोहराया जा सकेगा । जो हो न सका ।  
दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं बन पाने को दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखा जाने लगा है । जिन चार राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए वहां लोकसभा की कुल मिलाकर बहत्तर सीटें हैं । विधानसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर विश्लेषण करें तो इन बहत्तर सीटों में से पचास सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा होता है । यह भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के लिए संतोष की बात हो सकती है लेकिन दो हजार चौदह में गद्दीनशीं होने के लिए इस आंकड़े को बेहतर करना होगा । दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अरविंद केजरीवाल ने साफ तौर पर कह दिया कि अब वो अपनी राजनीति का राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करेंगे । कई लोगों की राय है कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में मोदी का खेल खराब कर सकती है । जिस तरह से आम आदमी को सामने रखकर अरविंद केजरीवाल ने अपरंपरागत राजनीति की बुनियाद रखी है उसके बरक्श देखें तो इस तर्क में दम लगता है । दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद जिस तरह से आम आदमी पार्टी के नैतिक दबाव के चलते यहां सरकार बनाने के लिए जोड़ तोड़ का खेल नहीं खेला गया वो भी देश में एक प्रकार की नई राजनीति की शुरुआत है । परंपरागत राजनीति करनेवाली पार्टियों और राजनीतिक विश्लेषकों को इस फैक्टर को भी सामने रखकर विचार करना होगा । सवाल यह उठता है आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव में कितनी सीटें लेकर आती है । यही उस पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है । उत्साही विश्लेषक इस बात के कयास लगा रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी लोकसभा चुनाव में चालीस से पचास सीटें जीत सकती हैं । इस आकलन का आधार यह है कि भ्रष्टाचार और महंगाई से आजिज आ चुके शहरी मतदाता आम आदमी पार्टी को समर्थन दे सकते हैं । परंपरागत तौर पर ये शहरी मतदाता कमोबेश भारतीय जनता पार्टी के समर्थक रहे हैं । इसके अलावा केंद्र में य़ूपीए की सरकार से नाराज शहरी वोटर भी आम आदमी पार्टी का रुख कर सकता है। अगर ऐसा होता है तो देश के कई बड़े शहरों की कुछ लोकसभा सीटों पर आम आदमी पार्टी को सफलता मिल सकती है । शहरी मतदाताओं का वोट भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के बीच बंट जाता है तो निश्चित रूप से मोदी के देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के सपनों पर ग्रहण लग सकता है । क्योंकि नरेन्द्र मोदी बेहद सावधानी से अपने लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा रहे हैं । बिल्कुल एक नट की तरह जो रस्सी पर संतुलन कायम रखने के लिए जूझता रहता है । उसके संतुलन को आधे किलो का वजन भी उधर या उधर झुका सकता है । आम आदमी पार्टी भले ही नवजात पार्टी हो लेकिन संतुलन बिगाड़ने में कामयाब हो सकती है । यही भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी चिंता है ।

दिल्ली में सरकार नहीं बनाकर फिर से चुनाव की वकालत करने के पीछे भारतीय जनता पार्टी की यही चिंता भी है और उसपर ही आधारित रणनीति भी । भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों को लगता है कि अगर लोकसभा चुनाव के साथ दिल्ली विधानसभा के चुनाव होते हैं तो आम आदमी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व दिल्ली के चुनाव में फंसा रहेगा, लिहाजा देशभर के चुनाव प्रचार के लिए उनको कम वक्त मिल पाएगा । लेकिन जिस तरह के उम्मीदवारों के साथ आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा में जीत दर्ज की है उससे तो इस रणनीति पर पानी फिर सकता है । दूसरा जो सबसे बड़ा रणनीतिक खतरा है वो यह है कि इन विधानसभा चुनावों से उत्साहित होकर भारतीय जनता पार्टी दो हजार चार की शाइनिंग इंडिया वाली गलती ना दोहरा दे । उस चुनाव के पहले भी राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को जोरदार सफलता मिली थी । इस वक्त देश में लंबे अरसे बाद राजनीति अपने उरुज पर है, राजनीति शास्त्र की किताबों में नई इबारत लिखी जा रही है । सियासत की बिसात पर सधी हुई चालें चली जा रही हैं । लोकसभा चुनाव में अब सौ सवा सौ दिन बचे हैं तो दावों प्रतिदावों के इस राजनीतिक दौर को जीना दिलचस्प होगा । 

Saturday, December 21, 2013

साख की राह पर पुरस्कार

हाल के वर्षों में ये पहली बार देखने को मिला कि साहित्य अकादमी पुरस्कार के ऐलान के बाद हिंदी साहित्य में किसी तरह का कोई विवाद नहीं हुआ । कहीं से कोई विरोध का स्वर नहीं उठा । इस बार हिंदी साहित्य के लिए साहित्य अकादमी ने वरिष्ठ उपन्यासकार मृदुला गर्ग को सम्मानित करने का फैसला लिया । उनकी औपन्यासिक कृति मिलजुल मन के लिए उनको ये पुरस्कार दिया गया । मृदुला गर्ग की छवि एक ऐसी लेखिका की है जो साहित्य की जोड़ तोड़ की राजनीति से दूर रहकर रचनाकर्म में लगी रहती है । जब प्रोफेसर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बने तो साहित्यक हलके में ये कयास लगने लगे थे कि इस बार का अकादमी पुरस्कार हिंदी के एक बुजुर्ग लेखक को दिया जाएगा । इस चर्चा को तब पंख लगे जब प्रोफेसर सूर्य प्रकाश दीक्षित को हिंदी भाषा का संयोजक बनाया गया था । लेकिन बगैर किसी पक्षपात के जूरी के सदस्यों ने मृदुगा गर्ग का चयन किया। इस बात के लिए साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी समेत जूरी के सदस्यों को बधाई दी जानी चाहिए कि अकादमी की खोई हुई विश्वसनीयता को बहाल करने की दिशा में उन्होंने एक कदम उठाया ।
मृदुला गर्ग लगभग चार दशक से लेखन में सक्रिय हैं कहानी और उपन्यास के अलावा पत्र-पत्रिकाओं भी उन्होंने विपुल लेखन किया है । तकरीबन तेरह साल बाद मृदुला गर्ग का उपन्यास मिलजुल मन, सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था । मृदुला गर्ग के दो उपन्यास- चितकोबरा और कठगुलाब की  साहित्यिक जगत में खासी चर्चा हुई थी और लेखिका को प्रसिद्धि भी मिली थी चितकोबरा में जो संवेदनशील स्त्री अपने नीरस जीवन से उबकर सेक्स के प्रति असामान्य आकर्षण दिखाती है वो कठगुलाब तक पहुंचकर संवेदना के स्तर पर अधिक प्रौढ़ नजर आती है और इस उपन्यास मिलजुल मन में वो और मैच्योरिटी के साथ सामने आती है मिलजुल मन की नायिका गुलमोहर उर्फ और उसकी सहेली मोगरा है इस उपन्यास में लेखिका ने आजादी के बाद के दशकों में लोगों के मोहभंग को शिद्दत के साथ उठाया है एक खुशनुमा जिंदगी और समाज की उन्नति का सपना देख रहे लोगों ने आजादी की लड़ाई में संघर्ष किया था, इस सपने के टूटने और विश्वास के दरकने की कहानी है मृदुला गर्ग का उपन्यास - मिलजुल मन इस उपन्यास में गुल और मोगरा के बहाने मृदुला गर्ग ने आजादी के बाद के दशकों में लोगों की जिंदगी और समाज में आनेवाले बदलाव की पड़ताल करने की कोशिश भी की है । मोगरा के पिता बैजनाथ जैन के अलावा डॉ कर्ण सिंह, मामा जी, बाबा, दादी और कनकलता के चरित्र चित्रण के बीच गुल बड़ी होती है और इस परिवेश का उसके मन पर जो मनोवैज्ञानिक असर होता है उसका भी लेखिका ने कथानक में इस्तेमाल किया है
इस उपन्यास में मृदुला गर्ग अपने पात्रों के माध्यम से हिंदी के लेखकों पर बेहद ही कठोर टिप्पणी करती है - तभी हिंदी के लेखक शराब पीकर फूहड़ मजाक से आगे नहीं बढ़ पाते मैं सोचा करती थी, लिक्खाड़ हैं,सोचविचार करनेवाले दानिशमंद पश्चिम के अदीबों की मानिंद, पी कर गहरी बातें क्यों नहीं करते, अदब की, मिसाइल की, इंसानी सरोकार की अब समझी वहां दावतों में अपनी शराब खुद खरीदने का रिवाज क्यों है मुफ्त की पियो और सहने की ताकत से आगे जाकर उड़ाओ अपने यहां मुफ्त की पीते हैं और तब तक चढ़ाते हैं जबतक अंदर बैठा फूहर मर्द बाहर ना निकल आए इस उपन्यास की भाषा में रवानगी तो है लेकिन खालिस उर्दू के शब्दों के ज्यादा प्रयोग से वो बगाहे बाधित होता है । उपन्यास को लेखिका ने जिस बड़े फलक पर उठाया है उसको संभालने में काफी मशक्कत भी की है । अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि मृदुला गर्ग को सम्मानित करने का फैसला कर साहित्य अकादमी से और बेहतर की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं ।