Translate

Showing posts with label दिव्या द्विवेदी. Show all posts
Showing posts with label दिव्या द्विवेदी. Show all posts

Saturday, May 25, 2024

नैरेटिव गढ़ने का खोखला प्रयास


लोकसभा चुनाव के छह चरण संपन्न हो चुके हैं। एक चरण का मतदान शेष है। पिछले छह चरणों के चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न तरीकों का उपयोग किया। नेताओं के भाषणों और रोड शो के अलावा इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म्स पर तकनीक का उपयोग करते हुए चुनाव प्रचार किया गया। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस) का दुरुपयोग भी हुआ। डीप फेक वीडियो को इंटरनेट मीडिया पर प्रचलित किया गया। इसको लेकर केस भी हुआ और गिरफ्तारी भी। मतदाताओं के बीच नैरेटिव बनाने का प्रयास भी हुआ। नैरेटिव बनाने में अकादमिक जगत से जुड़े लोग भी सक्रिय दिखे। अकादमिक जगत में नैरेटिव बनाने के लिए चुनाव के पहले से योजनाएं बनने लगी थीं। फलस्वरूप चुनाव के दौरान पुस्तकें आईं। उसपर चर्चा हुई। चुनाव के दौरान नैरेटिव बनाने का ये वैश्विक तरीका है। अमेरिका में जब राष्ट्रपति का चुनाव होता है तो उस दौरान उम्मीदवारों या उनकी पार्टी या विचारधारा को केंद्र में रखकर पुस्तकें प्रकाशित होती रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से हमारे देश में भी इस प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा है। हिंदी प्रकाशन जगत इस मामले में थोड़ा पीछे है पर अंग्रेजी में ये प्रवृत्ति हर चुनाव में देखी जा सकती है। विधानसभा के चुनावों में भी पुस्तकों के माध्यम से नैरेटिव गढ़ने का प्रयत्न होता रहा है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के समय भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को केंद्र में रखकर एक लेख को विस्तारित रूप देकर प्रकाशित करवाया गया था। उस पुस्तिका को अंग्रेजी के अलावा कन्नड़ में भी प्रकाशित करवाया गया था। उस पुस्तक में रामचंद्र गुहा और योगेन्द्र यादव की भी टिप्पणी प्रकाशित थी। पुस्तक का नाम था आरएसएस, द लांग एंड शार्ट आफ इट। इसके लेखक हैं देवारुण महादेव। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तथ्यहीन आलोचना है।

लोकसभा चुनाव के समय भी एक पुस्तक आई है, इंडियन फिलासफी, इंडियन रिवोल्यूशन आन कास्ट एंड पालिटिक्स। इस पुस्तक के लेखक हैं, दिव्या द्विवेदी और शाज मोहन। दिव्या द्विवेदी इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टेक्नालाजी (आईआईटी) दिल्ली में दर्शनशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। सह-लेखक के परिचय में उनको दार्शनिक बताया गया है। पुस्तक लेखों का संग्रह है जो 2016 से 2023 के बीच लिखे गए हैं। पुस्तक का परिचय यह कहकर दिया गया है कि इन सात वर्षों में भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं की प्रकृति को विकृत किया गया। जाति आधारित व्यवस्था गाढ़ी हुई। परिचय को पढ़ने क बाद इस पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता बढ़ी। लेखकों का मानना है कि भारत में हिंदु राष्ट्रवाद और धार्मिक अल्पसंख्यकवाद के बीच राजनीति नहीं हो रही है। इस देश की राजनीति को उन्होंने जाति के आधार पर व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। इस प्रयास में उन्होंने कई जगह जानबूझकर तथ्यों की ना केवल अनदेखी की बल्कि कुछ तथ्यों को गढ़ने का प्रयास भी किया। अपनी धारणा को अवधारणा बनाकर प्रस्तुत करने का बचकाना प्रयास दिखा। अपने तर्कों को तथ्य बनाने के चक्कर में उन्होंने समकालीन भारतीय राजनीति के उन उदाहरणों को लिया जिसका प्रयोग विपक्षी दल के नेता चुनावी नारे के तौर पर कर रहे हैं। एक जगह कहा गया कि आज के दौर में भारत पर हिंदू राष्ट्रवादियों का शासन है जो देश के सेक्यूलर संविधान को बदलने और इसको हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। राहुल गांधी लगातार ये बात कर रहे हैं। दार्शनिक होने का दावा करनेवाले लेखक ये भूल गए कि संविधान की प्रस्तावना में सेक्यूलर शब्द कैसे जोड़ा गया था। कई बार ये इतिहास में गए हैं लेकिन जब सेक्यूलर शब्द और संविधान पर अपनी धारणा थोपते हैं तो अतीत में जाने से बचते हैं। 

एक और मनोरंजनक और तथ्यहीन व्याख्या जिसका आधार जुवेनाइल तर्क हैं। लेखकद्वय का मानना है कि इंडिया तो हाल का नाम है। इसको वो इंडस या सिंधु नदी के बिगाड़ से उपजे शब्द तौर पर रेखांकित करते हैं। उससे ही हिंदू बनाते हैं। फिर उस आधार पर हिंदू धर्म को अपेक्षाकृत नया धर्म करार देते हैं। दोनों लेखक बेहद चतुराई से इंडस और इंडिया का सहारा लेते हुए हिंदू तक पहुंचते हैं लेकिन भारत पर नहीं जाते हैं। लेखकगण अगर भारत नाम पर जाते तो इनको ऋगवेद और विष्णु पुराण तक जाना पड़ता। फिर इस पुस्तक के लेख आधार खत्म हो जाता। अगर ये भारतीय दर्शन के अध्येता हैं तो इनको ये तो पता होना चाहिए कि विष्णु पुराण में एक श्लोक है, उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:। समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो भूमि स्थित है उसको भारत भूमि कहते हैं और इस पवित्र भारत भूमि पर निवास करनेवाले सभी को भारतीय कहते हैं। इस एक श्लोक को ही अगर द्विया द्विवेदी और मोहन समझ लेते तो इस दोषपूर्ण निष्कर्ष का शिकार नहीं होते। लेकिन वो तो भारत को, यहां की संस्कृति को अंतराष्ट्रीय विद्वान (?) वेंडि डोनिगर और शेल्डन पालक के लेखन से समझते हैं। विष्णु पुराण और ऋगवेद की बात की जाए तो संभव है कि लेखक गइ इन दोनों को ब्राह्मणवाद की उपज बताकर खारिज कर दें। 

एक बेहद हास्यास्पद अध्याय इस पुस्तक में है जिसका नाम है ‘द मीनिंग आफ क्राइम्स अगेंस्ट मुस्लिम्स इन इंडिया’। इस अध्याय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश में शासन कर रही भारतीय जनता पार्टी का पैरेंट आर्गेनाइजेन बताया गया है। यहां तक तो चलिए किसी हद तक स्वीकार बी किया जा सकता है लेकिन आगे वो संघ को अर्धसैनिक संगठन (पैरामिलिट्री) कहकर संबोधित करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इनको न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में पता है और न ही अर्धसैनिक संगठन की प्रकृति के बारे में। अन्यथा वो इस तरह की बातें नहीं करते। अगर वो संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषणों का ही अध्ययन कर लेते तो उनके ज्ञानचक्षु खुल सकते थे। एक और दोषपूर्ण धारणा इस पुस्तक में देखने को मिली जिसमें भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था को यहां के निवासियों की त्वचा के रंग के आधार पर देखा गया है। अंग्रेजी के शब्द अपार्थाइड का उपयोग वर्ण व्यवस्था को समझाने के लिए किया गया है। यह ठीक है कि भारतीय समाज में पहले वर्ण व्यवस्था थी जो आगे चलकर जातियों में विभक्त हो गई। वर्ण व्यवस्था को समझने के लिए अगर ये भारत रत्न पी वी काणे को ही पढ़ लेते तो कम से कम सही बात तो कर सकते थे।

इस पुस्तक के लेखों को अंतराष्ट्रीय पाठकों को ध्यान में रखकर लिखा गया है। इसमें उन घटनाओं और वक्तव्यों को उद्धृत किया गया है जो लेखकों की धारणा का पुष्ट करती हैं। जाति और वर्ण का घालमेल, हिंदू शब्द की उत्पत्ति, हिंदू- मुसलमान संघर्ष, दलितों और मुस्लिमों पर अत्याचार, हिंदू राष्ट्र, धर्मनिरपेक्षता, संविधान बदलने का प्रयास, लोकतांत्रिक संस्थाओं का हनन जैसे शब्दों का उपयोग इस पुस्तक की मंशा को संदिग्ध करती है। अगर लेखक सही मायने में लेखकगण दार्शनिक हैं तो इनको भारत को भारतीय ग्रंथों के आधार पर समझने का प्रयास करना चाहिए था। पौराणिक ग्रंथों के निहितार्थों को समझना होता। संस्कृत में लिखी मूल अवधारणाओं को समझने के लिए अगर आपको अंग्रेजी अनुवाद का सहारा लेना पड़ता है तो ये निश्चित मानिए कि आपके सामने निष्कर्ण दोषपूर्ण होंगे। संभव है कि विदेश में उनकी इन अवधारणाओं के पाठक हों, हमारे देश में रहनेवाले चंद लोगों को उनकी यह पुस्तक पसंद आए लेकिन भारतीय मानस इतना परिपक्व हो चुका है कि वो इस तरह की बातों को गंभीरता से नहीं लेगा। चुनाव के समय इस तरह की पुस्तक का आना जिसमें परोक्ष रूप से जातिभेद को गाढा करने का प्रयास हो तो ऐसा प्रतीत होता है कि ये एक विचारधारा विशेष को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया है।