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Wednesday, August 31, 2016

दरगाह पर फैसले की गूंज

मुबंई के हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश की इजाजत के बांबे हाईकोर्ट के फैसले ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है । सतह पर देखने से ये सिर्फ एक ट्रस्ट के फैसले पर रोक लगाने का मामला नजर आता है । मगर इसकी गहराई में जाने पर ये समझ में आती है कि बांबे हाईकोर्ट ने दरअसल धर्म की आड़ में महिलाओं को समानता के संवैधानिक अधिकार से वंचित करने के मानसिकता पर चोट की है । मुंबई के हाजी अली दरगाह में पिछले करीब डेढ सौ सालों से महिलाओं को प्रवेश मिलता था लेकिन चार साल पहले इस्लाम और शरीया की गलत व्याख्या करके दरगाह में अंदर मजार तक महिलाओं के जाने पर प्रतिबंध लगा दिया । उस वक्त तर्क ये दिया गया था कि महिलाओं का मजार तक जाना गैर इस्लामिक और शरीया कानून के खिलाफ है । इसका अर्थ ये है कि दरगाह के ट्रस्टियों को मजार तक महिलाओं के जाने के शरीया और इस्लाम की व्याख्या की जानकारी दो हजार बारह में हुई और पिछले करीब डेढ सौ सालों से जानकारी के आभाव में ऐसा हो रहा था । ये तर्क गले उतरता नहीं है । इस तरह के तर्कों के अलावा हाजी अली दरगाह ट्रस्ट ने तो सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का सहारा भी लेने की कोशिश की । हाजी अली दरगाह को मैनेज करने वाले ट्रस्ट की दलील थी कि देश की सर्वोच्च अदालत के एक फैसले के मुताबिक धर्मिक स्थलों पर महिलाओं को सेक्सुअल असाल्ट से बचाने की जिम्मेदारी उनकी बनती है लिहाजा उन्होनें मजार तक जाने पर पाबंदी लगा दी है । इसका मतलब तो ये हुआ कि अगर किसी चीज का अंदेशा है तो हमें उसको खत्म कर देना चाहिए । ट्रस्ट अगर सचमुच महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित है या था तो उसको उसका इंतजाम करना चाहिए था बाए पाबंदी लगा देने के । अब यहां हमें ये विचार करने की जरूरत है कि क्या इस्लाम में महिलाओं पर सचमुच इस तरह की पाबंदी है । इस्लाम में महिलाओं के दरगाह में प्रवेश पर मनाही होती तो अजमेर शरीफ दरगाह से लेकर ताजमहल और फतेहपुर सीकरी में सलीम चिश्ती की दरगाह पर ये पाबंदी क्यों नहीं है । इन दरगाहों पर महिलाओं को कब्र तक जाने और उसको छूने की इजाजत क्यों है । क्या ये किसी और शरीया को या किसी और इस्लाम को मानते हैं जो कि हाजी अली दरगाह के इस्लाम से जुदा है । दरअसल इस्लाम के जानकारों का मानना है कि उनेक धर्म में महिलाओं को लेकर इस तरह का प्रतिबंध नहीं है लेकिन बाद में कठमुल्लों ने कुरान की गलत व्याख्या करके अपने धर्म को रूढ़ करने की कोशिश की । कई इस्लामिक स्कॉलर्स का कहना है कि पैगबंर साहब ने महिलाओं को समान दर्जा देने की पहल की थी और अपने समकालीन उमे वरका को पुरुषों और महिलाओं की साथ नमाज करवाने को कहा था । बाद में क्यों और किसने इस तरह की बंदिशें धर्म के नाम पर लगाईं इस बारे में विचार करने की जरूरत है । इसी तरह अगर हम देखें तो काबे में जो तवाफ होता है उसमें भी पुरुषों और महिलाओं में भेदभाव नहीं किया जाता है । यहां तो साफ है कि दरगाह में महिलाओं के प्रवेश को गैरइस्लामी कहना निहायत गलत है । फैसले के बाद ट्रस्टियों ने एक और दलील दी कि इस्लाम में किसी के घर बगैर उसकी इजाजत के घुसने की मनाही है और वो गुनाह है । लिहाजा दरगाह के अंदर कब्र तक महिलाओं के जाने की अगर ट्रस्ट ने इजाजत नहीं दी है तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए । ये तर्क कितने इस्लामी हैं ये तो इस्लाम के विद्वान ही व्याख्यायित कर सकते हैं लेकिन सतह पर तो ये हास्यास्पद और महिलाओं के खिलाफ प्रतीत होते है ।
अब रही बात संविधान के अनुच्छेद छब्बीस की जिसके मुताबिक भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के प्रबंधन की इजाजत है । लेकिन संविधान को समग्रता में देखे जाने की जरूरत है । अनुच्छेद 26 की आड़ में संविधान के अनुच्छेद चौदह के समानता के अधिकार और अनुच्छेद पंद्रह के धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं होने की बात को नकारा नहीं जा सकता है । संविधान का अनुच्छेद छब्बीस किसी को भी अपने धर्म के हिसाब से फैसले लेने की इजाजत देता है लेकिन वो विशुद्ध धार्मिक मामला होना चाहिए । हाजी अली दरगाह धर्म से जुड़ा अवश्य है लेकिन ये जिस जमीन पर है वह महाराष्ट्र सरकार की है जो इसको मैनेज करने वाली ट्रस्ट को लीज पर दी गई है । इसके अलावा इस ट्रस्ट के ट्रस्टियों की नियुक्ति भी सरकार के अनुमोदन के बाद ही होती है । लिहाजा अगर देखा जाए तो ये पूरा मसला सरकार की देखरेख में चलता है । ऐसे में लिंग के आधार पर भेदभाव गैर संवैधानिक है। हाजी अली दरगाह पर बांबे हाईकोर्ट के इस फैसले की अनुंगूंज लंबे समय तक सुनाई देगी क्योंकि धर्म के नाम पर मनमानी करने पर रोक लगेगी । संभव है कुछ कठमुल्लों की धर्म के नाम पर जारी दुकान भी बंद हो जाए ।

हाजी अली दरगाह के अंदर महिलाओं के प्रवेश पर लगाई गई पाबंदी हटाने के बांबे हाईकोर्ट के फैसले के बाद केरल के सबरीमला मंदिर में बच्चियों और महिलाओं के प्रवेश पर चल रही बहस और केस दोनों की दिशा भी बदल सकती है क्योंकि अदालतें तो संविधान और कानून के हिसाब से फैसले देती हैं ।  

Sunday, August 28, 2016

भाषाई वर्णव्यवस्था जिम्मेदार ·

हाल ही में अंतराष्ट्रीय प्रकाशन जगत में एक बड़ी घटना हुई है जिसकी गूंज बहुत देर तक विश्व परिदृश्य पर सुनाई देती रहेगी । पाकिस्तान के एबटाबाद में आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के खात्मे के मिशन में शामिल रहे अमेरिकी नेवी सील ने छद्मनाम से इस पूरी घटना को बताते हुए एक किताब लिखी थी – नो ईजी डे । इस किताब में ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतारे जाने का मिनट दर मिनट का विवरण उपलब्ध था । किताब के कवर पर भी लिखा था- द ओनली फर्स्टहैंड अकाउंट ऑफ द नेवी सील मिशन दैट किल्ड ओसामा । कवर से ये संदेश देने की साफ तौर पर कोशिश की गई थी कि इस मिशन में शामिल किसी नेवी सील ने ही ये किताब लिखी है । लेखक के नाम के तौर मार्क ओवन का नाम छपा था। दो हजार बारह में जब ये किताब छपी थी उस वक्त बेस्ट सेलर की सूची में शीर्ष पर ई एल जेम्स की किताब फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे ने कब्जा जमाया हुआ था । फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे की लोकप्रियता का आलम ये था कि वो लगातार पच्चीस हफ्तों तक ई बुक्स और प्रिंट में शीर्ष पर बना हुआ था । बेस्ट सेलर की उसकी बादशाहत को नो ईजी डे ने तोड़ा था । दरअसल किताब के छपने के पहले से ही ये बात लीक कर दी गई थी कि ओसामा बिन लादेन को मारनेवाले नेवी सील के दस्ते के एक कमांडो की पूरे ऑपरेशन पर लिखी किताब आ रही है । किताब की भूमिका में भी छद्मनामी लेखक मार्क ओवन ने लिखा था- ये उन असाधारण लोगों की कहानी है जिन्होंने अमेरिकी सील के हिरावल दस्ते में चौदह साल गुजारे थे । केविन मॉरर के साथ छद्मनामी मार्क ओवन की किताब ने उस वक्त बिक्री के तमाम आंकड़े ध्वस्त कर दिए थे । किताब के छपकर बाजार में आने के बाद मार्क ओवन का असली नाम खुल गया था । नेवी सील दस्ते के उस कमांडो का नाम है- मैट बिसनेट । जब किताब छपकर बाजार में आई थी उसके पहले से अमेरिकी रक्षा विभाग के कान खड़े हो गए थे । उस वक्त भी अमेरिकी रक्षा और खुफिया एजेंसियों के अफसरों ने आशंका जताई थी कि इस किताब में कुछ ऐसे खुलासे हो सकते हैं जिससे अमेरिका और आतंक के खिलाफ उसकी रणनीति को नुकसान हो सकता है । यहां तक कि पेंटागन ने तो मुकदमे तक की धमकी दी थी लेकिन इस खबरों से लेखक और प्रकाशक तो डरे नहीं उल्टे किताब की बिक्री सातवें आसमान पर पहुंचने लगी । उस वक्त छद्मनामी लेखक की तरफ से बयान आया था कि उसके प्रकाशन से पहले पांडुलिपि को स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप के वकील रह चुके शख्स को दिखाया गया था और उन्होंने प्रकाशन के लिए हरी झंडी दी थी । किताब छपी और खूब बिकी ।
अमेरिकी प्रशासन ने इस किताब के असली लेखक मैट बिसनेट के खिलाफ वर्जीनिया की निचली अदालत में केस दर्ज करवा दिया। चंद दिनों पहले अमेरिकी प्रशासन और मैट बिसनेट के बीच कोर्ट से बाहर एक समझौता हो गया जिसके बाद मैट बिसनेट के खिलाफ केस वापस ले लिया गया है। समझौते के मुताबिक लेखक मैट बिसनेट ने चार साल में जितनी राशि इस किताब से अर्जित की वो उसको सरकारी खजाने में जमा करवाना होगा । अमेरिकी मीडिया में छप रही खबरों के मुताबिक मैट बिसनेट करीब 5 मिलियन पाउंड की राशि अमेरिकी प्रशासन को देने को राजी हो गए हैं । अमेरिकी जस्टिस विभाग के प्रमुख निकोला नवा ने एक बयान जारी कर कहा कि मैट बिसनेट अपनी किताब से पूर्व में हुई और भविष्य में होनेवाली आय को अमेरिकी सरकार के पास जमा करवाने के लिए राजी हो गए हैं । अब ये खबर हो सकती है लेकिन इसके पीछे जो बड़ी घटना है वो है पांच मिलियन पाउंड की राशि । इस राशि को अगर हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में सोचें तो यह बात कल्पना से भी परे जाती है कि किसी किताब से इतनी आय हो सकती है । नो ईजी डे के चंद हफ्तों पहले युवा टीवी स्क्रिप्ट राइटर ई एल जेम्स की किताब फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे ने बिक्री के तमाम रिकॉर्ड ध्वस्त किए थे । उस उपन्यास पर फिल्म बनाने के लिए एक फिल्मकार ने पचास लाख डॉलर की रकम चुकाई थी ।
अब इस खबर के बरक्श हम हिंदी साहित्य में पैसों की बात करें तो अमेरिका में अर्जित आय की तुलना में ये सपने जैसा लगता है । हिंदी में कुछ साल पहले शीर्ष प्रकाशक राजकमल प्रकाशन और निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल के बीच निर्मल की किताबों की रॉयल्टी को लेकर विवाद हुआ था । तब ये बात सामने आई थी कि निर्मल वर्मा की दर्जनों किताबों की बिक्री की रॉयल्टी करीब एक लाख सालाना बनती है । अब येतो निर्मल वर्मा जैसे बड़े और लोकप्रिय लेखक की बात है तो इस बात का भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि अन्य लेखकों को कितना पैसा मिलता होगा । दरअसल भारत में भी अंग्रेजी और हिंदी में लिखनेवालों को मिलने वाले पैसों में भारी असमानता है । अंग्रेजी के ठीत-ठाक लेखकों को एक किताब पर लाखों रुपए मिलते हैं जबकि हिंदी के बड़े से बड़े लेखक को लाख रुपया मिल जाए तो गनीमत समझिए। दरअसल हमारे देश में जो भाषाई वर्णव्यवस्था है वो इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है । जबतक भाषाई वर्णव्यवस्था खत्म नहीं होगी तबतक आय में अंतर बना रहेगा ।  
हिंदी में एक दूसरी दिक्कत ये है कि रॉयल्टी के हिसाब रखने का सारा मैकेनिज्म प्रकाशकों के पास है जिसमें पारदर्शिता का आभाव है । ऐसी कोई व्यवस्था बन नहीं पाई है जिससे ये पता चल सके कि अमिक किताब कितनी बिकी । इसका आर्थिक नुकसान तो होता ही है इस अव्यवस्य़ा के चलते प्रकाशकों और लेखकों के बीत मनमुटाव भी पैदा हो जाता है । राजकमल प्रकाशन और गगन गिल के बीच विवाद होने के बाद उन्होंने निर्मल की सारी किताबें वहां से वापस ले ली थीं । हिंदी का इतना बड़ा बाजार है बावजूद इसके हिंदी में लिखनेवालों को पैसे नहीं मिल पाते हैं तो वाकई ये चिंताजनक स्थिति है भाषा के लिए भी और उसके लेखक के लिए भी ।       


खुद को स्थापित करने की होड़

करीब तीन चार साल पहले की बात है अमेरिकी उपन्यासकार जोनाथन फ्रेंजन से हुई एक मुलाकात में उनके उस वक्त प्रकाशित होकर पूरी दुनिया में चर्चित हो चुके उपन्यास फ्रीडम पर काफी लंबी बातचीत हुई थी । बातचीत उनके लेखन पर शुरू हुई लेकिन हमारे यहां तो प्रशंसा की परंपरा रही है लिहाजा मैंने उनको याद दिलाना शुरू किया कि कैसे कई हफ्तों तक उनका उपन्यास फ्रीडम बेस्ट सेलर की सूची में बना रहा था । उपन्यास की शैली को लेकर अमेरिका और यूरोप के आलोचक इतने अभिभूत थे कि कई आलोचकों ने तो जोनाथन फ्रेंजन की तुलना टॉलस्टॉय और टॉमस मान से कर दी थी । मैं जब ये सारी बातें उनसे कह रहा था तो वो थोड़े असहज दिखने लगे थे और इन बातों को टालने के मूड में भी नजर आए थे । लेकिन अपन तो हिंदी साहित्य की प्रशंसा परंपरा का ख्याल रखते हुए उनको यहां तक बताने लगा था कि टाइम पत्रिका के कवर पर भी उनको जगह मिली थी और कृतियों की समीक्षा में अनुदार न्यूयॉर्क टाइम्स ने उक्त कृति को अमेरिकन फिक्शन का मास्टरपीस करार दिया था । बातचीत आगे बढ़ रही थी और प्रशंसात्मक हो रही थी जिसकी वजह से जोनाथन फ्रेंजन लगातार असहज होते जा रहे थे । टाइम मैगजीन के कवर तक आते आते जोनाथन फ्रेंजन के चेहरे पर अजीब सा भाव आने लगा था और अंतत उन्होंने कह ही दिया कि बेहतर हो कि हमारी बातचीत भारतीय लेखन की ओर मुड़े । उनके अनुरोध के बाद हमारी बातचीत भारतीय भाषाओं के साहित्य की ओर मुड़ गई थी । लेकिन एक सवाल मुझे मथ रहा था कि जोनाथन अपनी प्रशंसा क्यों नहीं सुनना चाह रहे थे । बातचीत खत्म हो गई ।
जब हम वहां से चले तो इस पूरे प्रसंग के बाद अचानक मुझे नीरद सी चौधरी की किसी किताब में लिखे शब्द याद आने लगे कि ब्रिटिश लेखक मुंह पर अपनी तारीफ सुनते ही असहज होने लगते हैं और खुद से तो कभी भी अपनी तारीफ नहीं ही करते हैं । संभव है कि अमेरिकन लेखकों में भी कुछ इसी तरह की मानसिकता रही हो, कम से कम जोनाथन फ्रेंजन में तो इसी तरह की मानसिकता दिखी थी । इधर अपने हिंदी साहित्य पर नजर डालिए तो स्थिति कितनी भिन्न नजर आती है । यहां लेखक खुद की प्रशंसा का एक भी मौका नहीं गंवाना चाहते हैं । सामने वाला प्रशंसा करने लगे तो फिर क्या कहने । लेख से लेकर कविता तक, उपन्यास से लेकर कहानी तक हर जगह और हर विधा में प्रशंसाकामी लेखक आपको घूमते टहलते मिल जाएंगें । अगर आपने तारीफ कर दी तो वो उस तारीफ को जोर-शोर से विज्ञापित भी करेंगे और तारीफ के वाक्य को सोशल मीडिया से लेकर हर मंच पर उसकी चर्चा की जुगत में रहेंगे ।
प्रशंसा सिंन्ड्रोम से वैसे लेखक ज्यादा ग्रसित हैं जिन्होंने कम लिखा है । इधर इधर से सामग्री इकट्ठा कर उपन्यास बना देना, रिपोर्ताज को कहानी की शक्ल में पेश कर देने वाले लेखक और कविता के नामपर भाषणबाजी करनेवाले कवि इसके सबसे ज्यादा शिकार हैं उनकी अपेक्षा रहती है कि उनकी कृति को महान कह दिया जाए । दरअसल ये उसी मनोविज्ञान का हिस्सा है जहां अगर गली मोहल्ले का कोई नेता गली में खडंजा या सड़क बनवा देता है तो पूरे इलाके में खुद को विकास पुरुष करार देते हुए पोस्टर लगा देता है । विकास पुरुष का मतलब क्या होता है ये जाने समझे बगैर । हिंदी साहित्य में भी आपको हर नुक्कड़ पर विकास पुरुष नजर आएंगे जो लगातार अपनी एक दो रचना को जोरदार तरीके से विज्ञापित करते घूमते हैं । गली मोहल्ले के नेता खुद को राजनीतिक महात्वाकांक्षा के चलते विकास पुरुष घोषित करते हैं उधर साहित्य के इन विकास पुरुषों की नजर छोटे मोटे पुरस्कारों पर टिकी रहती है । यही हाल कमोबेश हिंदी में लिखे जा रहे ज्यादातर संस्मरणों की भी है । यहां भी लेखक खुद को स्थापित करने में जुटा नजर आता है ।  
नामवर सिंह के नब्बे साल के उपल्क्ष्य में दिल्ली में जो जश्न हुआ था उस मौके पर महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन का उनपर केंद्रित एक अंक प्रोफेसर कृष्ण कुमार सिंह के संपादन में निकला था । उस अंक में करीब करीब जितने आलोचकों ने नामवर सिंह पर लिखा है सबके लेख में ये साबित करने की एक होड़ दिखाई देती है कि वो नामवर जी के कितने करीब थे या नामवर जी ने उनकी किन किन मौके पर कितनी तारीफ की । नामवर जी उनके किन किन पारिवारिक समारोहों में शामिल हुए। कुछ में तो यहां तक है कि नामवर सिंह ने उनको बुलाकर नौकरी दी ।  बहुवचन के इस अंक में साहित्य से जुड़े लोगों के लेख में नामवर निकटता का एक साझा सूत्र दिखाई देता है । यह प्रवृत्ति खासतौर पर उनमें ज्यादा दिखाई देती है जो विश्वविद्लायों में शिक्षक रहे हैं । वहीं जब साहित्येतर लोगों के उनपर लिखे संस्मरणों को देखें तो उसमें नामवर सिंह को लेकर एक अलग तरह की संवेदना दिखाई देती है- चाहे वो राम बहादुर राय का लेख हो या फिर संतोष भारतीय का ।
संस्मरण एक तरफ तो खुद को विकास पुरुष बताने की पूर्व पीठिका तैयार करने का माध्यम बनता है तो दूसरी तरफ अपनी खुंदक निकालने का भी । बहुवचन के इसी अंक में नामवर सिंह का अशोक वाजपेयी ने मूल्यांकन किया है । अपने विद्वतापूर्ण आलेख में अशोक जी ने नामवर जी के मूल्यांकन के चार आधार बताते हुए उसको अपने हिसाब से व्याख्यायित किया है । अशोक जी के मुताबिक विचारधारा के अतिरेक के अलावा नामवर सिंह के यहां तीन और अतिचार सक्रिय हैं- वाचिकता, अवसरवादिता और सत्ता का आकर्षण । नामवर सिंह की वाचिकता पर हिंदी साहित्य में लंबी बहस हो चुकी है लिहाजा अशोक वाजपेयी ने कोई नया सत्य उद्घाटित नहीं किया है ना ही ही कोई नई मान्यता स्थापित की है । इस बारे में काफी लिखा जा चुका है और नामवर सिंह ने भी कई बार अपने तर्क रखे हैं । रही बात अवसरवादिता और सत्ता के आकर्षण की  । अशोक वाजपेयी ने नामवर सिंह के साहित्यक आचरण में अवसरवादिता को अंतर्प्रवाह बताया है । इस पर बहस हो सकती है । नामवर सिंह पर उन्होंने सत्ता के आकर्षण का आरोप लगाते हुए कहा कि वो सत्ताधारियों के मंच पर होने पर बहुत विनम्र हो जाते हैं । संभव है कि अशोक जी ने देखा होगा और आंखो देखी पर संदेह करना उचित नहीं जान पड़ता है । वैसे भी सत्ता के आकर्षण के अशोक वाजपेयी के आंकलन पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता है क्योंकि सत्ता से नजदीकी का अशोक जी को अप्रतिम अनुभव है । मुझे तो वो प्रसंग भी याद है जब विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने थे तब वो अपने एक कविता संग्रह की भूमिका नामवर सिंह से लिखवाना चाहते थे ।उस वक्त नामवर सिंह ने वी पी सिंह को कहा था कि लोग कहेंगे कि आप प्रधानमंत्री होकर कविता छपवा रहे हैं, इसलिए मैं भूमिका नहीं लिखूंगा । जबकि विश्वनाथ प्रताप सिंह उदय प्रताप कॉलेज में नामवर सिंह के साथ पढ़ते थे और उनके पारिवारिक संबंध थे। यह अवश्य है कि नामवर सिंह के वी पी सिंह और चंद्रशेखर के साथ रिश्ते थे लेकिन इन रिश्तों का कभी कोई लाभ नहीं लिया । नामवर सिंह को जो भी पद मिले को उनके कद के हिसाब से ही थे । अशोक जी ने अपने संस्मरण में एक बहुत ही खतरनाक संकेत किया है कि जातिवाद का भी जब वो अमृत महोत्सव का हवाला देते हैं – सभी राजनेता थे, राजनीति और वर्तमान या भूतपूर्व सत्ताधारी होने की समानता थी- वे संयोगवश एक हीवर्ण के ही थे । नामवर सिंह पर ठाकुरवाद का बहुधा आरोप लगता रहा है लेकिन उनके नब्बे साल के करियर पर ठीक से विचार करें तो यह आरोप समय समय पर गलत भी साबित होते रहे हैं ।

उक्त प्रसंगों के उल्लेख का उद्देश्य साहित्यकारों में बहुधा देखेजानेवाले प्रशंसाकामना पर टिप्पणी करना था साथ ही किसी अन्य पर लिखे संस्मरणों के बहाने अपने को साबित करने की लालसा को रेखांकित करना भी। इस मायने में हिंदी के साहित्यकार विदेशी साहित्यकारों से कितने अलग हैं । राजेन्द्र यादव अगर जीवित होते तो मेरे इस लेख को पढ़कर कहते कि हिंदीवालों को लेकर छाती कूटना बंद करो । जब देखा तब हाय ये नहीं है हाय वो नहीं करने लग जाते हो । आज उनका जन्मदिन है इस वजह से उनका स्मरण हो आया । उनके जन्मदिन के मौके पर आदरपूर्वक उनके सामरे फिर से हमारा वही तर्क होता कि जब तक हम अपनी कमियों खामियों पर उंगली नहीं रखेंगे या पके हुए घाव को फोड़कर मवाद बाहर नहीं निकालेंगे तो घाव अंदर ही अंदर फैलता रहेगा जो कि बेहद खतरनाक होगा । 

Friday, August 26, 2016

राजेन्द्र यादव होने का मतलब

राजेन्द्र यादव के ना होने का मतलब और उनके ना होने की कमी इस वक्त हिंदी साहित्य जगत के अलावा हिंदी समाज को भी समझ में आ रही है । इस वक्त देश में जो हालात हैं या साहित्य में जिस तरह की गति व्याप्त है उसपर कोई भी बड़ा लेखक हस्तक्षेप करने से कतरा रहा है । जो एक दो लेखक अपनी राय सार्वजनिक रूप से व्यक्त करते भी हैं उनकी साख उतनी नहीं बची कि हिंदी साहित्य के साथ साथ हिंदी समाज भी उनको गंभीरता से ले । आज हमारे देश में सार्वजनिक बुद्धिजीवी की बहुत बातें होती हैं, खासकर हिंदी पट्टी में तो उनकी बेहद कमी भी महसूस की जाती है । आज हमारे हिंदी समाज में राजेन्द्र य़ादव जैसी खरी-खरी बात करनेवाले और हर मसले पर अपनी राय रखनेवाले बुद्धिजीवी कहां बचे हैं । राजेन्द्र यादव विचारों से मार्क्सवादी अवश्य थे लेकिन वो दूसरी विचारधारा को भी स्पेस देते थे । उनके यहां दूसरे विचारधारा को लेकर किसी किस्म की अस्पृश्य़ता नहीं थी । यही वजह थी कि राजेन्द्र यादव सभी विचारधारा के लेखकों और साहित्यप्रेमियों के बीच समादृत थे । राजेन्द्र यादव में ये माद्दा था कि वो जिस तीव्रता से किसी विचारधारा का विरोध करते थे उतने ही सख्त तरीके से वो मार्क्सवाद पर भी सवाल खड़े करते थे । उनके जीवित रहते हंस की सालाना गोष्ठी में एक बार जब तेलुगू के कवि बरबर राव वादा कर जलसे में नहीं पहुंचे तो उनको गहरा दुख हुआ था । उन्होंने उस दिन माना था कि मार्क्सवादियों में दूसरे विचारों को लेकर जो अस्पृश्यता का भाव है वो मार्क्स के इन अनुयायियों को एक दिन ले डूबेगा । पता नहीं यादव जी के इस आंकलन में कितना दम है लेकिन मार्क्सवादियों की गिरती साख से कुछ संकेत तो मिलने ही लगे हैं । सांप्रदायिकता के खिलाफ यादव जी ने जितना लिखा उतना शायद ही किसी हिंदी लेखक ने लिखा होगा ।
राजेन्द्र यादव को आज की जो नई पीढ़ी है या जो नए लेखक हैं वो एक संपादक के रूप में ज्यादा जानते हैं । यह अलहदा बात है कि जब पचास और साठ के दशक में उनकी कहानियों और उपन्यासों की धूम मची हुई थी तब वो संपादकी नहीं करना चाहते थे । नई कहानी की त्रिमूर्ति के दो मूर्ति- मोहन राकेश और कमलेश्वर जब सारिका के संपादक बने थे तब यादव जी ने लेख लिखकर उनका मजाक उड़ाया था । लेकिन जब एक के बाद एक साहित्यक पत्रिकाएं बंद होने लगी तो राजेन्द्र यादव ने उन्नीस सौ छियासी में प्रेमचंद द्वारा स्थापित पत्रिका हंस का संपादन शुरू किया । अब यहां इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि जो शख्स लेखक चले संपादकी की ओर जैसा लेख लिखकर मजाक उड़ा रहा था उसने खुद संपादक बनने की क्यों ठानी । वो भी किसी संस्थान की पत्रिका में नहीं बल्कि खुद की पत्रिका का संपादन क्यों । कुछ लोग कहते हैं कि मोहन राकेश और कमलेश्वर के संपादक बनने के बाद उनके मन के कोने अंतरे में भी कहीं ना कहीं संपादक बनने की आकांक्षा थी । लेकिन यादव जी का संपादक बनने की वजह बहुत सतही है । अगर ये कुंठा और आकांक्षा होती तो वो किसी सेठाश्रयी पत्रिका के संपादन का दायित्व संभाल सकते थे लेकिन उन्होंने खुद की पत्रिका निकालने का जोखिम उठाया । बाद में जब हंस ने हिंदी के कई नामचीन लेखकों से साहित्य जगत का परिचय ही नहीं करवाया बल्कि उऩको स्थापित भी किया तो भी ये तर्क गलत हो गए कि कुंठा की वजह से यादव जी संपादक बने । हंस के प्रकाशन के बाद यादव जी के लेखकीय व्यक्तित्व का एक दूसरा पहलू सामने आया था । वो हिंदी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी के तौर पर उभरे और कालांतर में अपनी उस छवि को मजबूत किया ।  देश में इस वक्त जिस तरह से विचारधारा की टकराहट का दौर चल रहा है उसमें राजेन्द्र यादव जैसे शख्स का होना जरूरी था । अट्ठाइस अगस्त को उनका जन्मदिन है और इस मौके पर उनके तेवरों वाले लेखक की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है



Saturday, August 20, 2016

रंगमंच की बिसात पर सियासत

हिंदी में काफी पहले एक कहावत कही जाती थी-  बिना कोक जो रति करे/बिना गीता भख ज्ञान/बिन पिंगल कविता रचै/तीनों पशु समान । यह उक्ति कविता के संदर्भ में कही जाती थी लेकिन कालांतर में छंद ही कविता से गायब हो गई तो अब पिंगल को कोई क्यों पूछे । दरअसल इस कहावत को उद्धृत करने का हमारा मकसद ये था कि जब कोई नई चीज बनती है तो पुरानी छूटती चलती है । अब अगर हम इस कहावत को बिहार के रंगमंच के संदर्भ में देखें तो वहां एक नाटक के मंचन के वजह से सूबे के नाटकों के आयोजन की पुरानी परंपरा नेपथ्य में चली गई । बिहार सरकार के संस्कृति विभाग ने नाटकों के मंचन को लेकर अब बिल्कुल नई परंपरा की नींव रखी है । ये नींव बहुत मजबूत है बस जरूरत है इसको मजबूत करने की और उसपर बिहार में रंगमंच की नई इमारत खड़ी करने की । संस्कृति विभाग ने जो नई नींव रखी है वो है पटना में नाटक के मंचन की । स्थानीय सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री शत्रुध्न सिन्हा जो अपनी युवावस्था में बेहतरीन अदाकार थे के नाटक का मंचन करवाकर और उसपर करीब चालीस पचास लाख रुपए खर्च करके । अभी हाल ही में पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत नाटक पति, पत्नी और मैं का मंचन हुआ । अब जरा इस बात पर गौर फर्माइए कि ये नई परंपरा कैसे मानी जाए । शत्रुध्न सिन्हा संभवत पहले ऐसे रंगकर्मी-सासंद होंगे जिन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र में नाटक करने के एवज में तीस लाख रुपए मिले । इसके पहले दिल्ली से भी ये खबर आई थी भारतीय जनता पार्टी के सांसद मनोज तिवारी को अपने क्षेत्र में होली मिलन समारोह में शामिल होने के लिए दिल्ली सरकार की संस्था हिंदी अकादमी ने आठ लाख रुपयों का भुगतान किया था । संभव है कि बिहार सरकार ने जो भुगतान शत्रुघ्न सिन्हा का नाटक आयोजन करनेवाली कंपनी को किया होगा उसमें से कुछ पैसे उनके साथी कलाकारों को भी मिला होगा । लेकिन यह मुमकिन नहीं है कि सभी पैसा साथी कलाकारों को ही मिला होगा । इस नई परंपरा में कई स्थापित मान्यताओं को टूटते हुए बिहार की जनता ने देखा । जैसे श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में नाटक का मंचन, जहां ना तो उस हिसाब से स्टेज है ना लाइटिंग और ना ही मंचन के उपयुक्त तमाम तरह की सुविधाएं । ये हॉल तो सेमिनार आदि के लिए इस्तेमाल होता है जहां मंच है और सामने बैठने के लिए जगह ।  इस नाटक के मंचन का आयोजन बिहार संगीत नाटक अकादमी ने किया था जिसके अध्यक्ष ख्यातिनाम कवि आलोक धन्वा हैं । नई परंपरा इस वजह से भी कि संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष समेत कर्मचारियों को वक्त पर वेतन नहीं मिलता है, कई कई महीने बाद वेतन का भुगतान होता है ।  लेकिन शत्रुघ्न सिन्हा के नाटक के मंचन के लिए तीस लाख का भुगतान करने के लिए उनके खाते में पैसे थे । नई परंपरा इस वजह से भी संगीत नाटक अकादमी ने प्रेमचंद रंगशाला में इसका मंचन नहीं करवाकर श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में इसका मंचन करवाया । दरअसल इस नई परंपरा को शुरू करवाने के पीछे प्रेमचंद रंगशाला की बदहाली भी जिम्मेदार हो सकती है । बताया जाता है कि रंगशाला का मंच इस कदर से टूटा हुआ है कि उसमें जगह जगह छेद हो चुके हैं और स्थानीय नाटककार तो किसी तरह से मंच पर पैबंद लगाकर मंचन कर लेते हैं लेकिन सुपरस्टार कलाकार को छिद्रयुक्त मंच पर बैठाना उचित नहीं होता । इस रंगशाला के मंच में ही छेद नहीं है बल्कि यहां की लाइटिंग आदि भी खराब हो चुकी है और बिहार संगीत नाटक अकादमी के पास इतना पैसा नहीं है कि मंच की लाइट बदलवाई जा सके । हालत इतने बदतर हैं कि करीब नब्बे फीसदी बल्ब खराब हैं जो अपने बदले जाने की राह ताक रहे हैं । संभव है इन्ही वजहों से ये नाटक एसके मेमोरियल हॉल पहुंचा हो । प्रेमचंद रंगशाला में शत्रुघ्न सिन्हा के नाटक का मंचन नहीं करवाकर बिहार सरकार कई तरह की बदनामियों से बच गई है । इस रंगशाला में रंगकर्मियों के रिहर्सल के लिए शेड बनाने की कवायद दो साल पहले शुरू हो गई थी लेकिन आजतक खंभा आदि ही लग पाया है। इस मामले में बिहार के संस्कृति विभाग की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने प्रेमचंद रंगशाला की वास्तविक स्थिति से स्थानीय सांसद के नाटक के मंचन को दूर रखकर खुद को किरकिरी से बचा लिया । संभव है कि स्थानीय सांसद महोदय को अपने चुनाव क्षेत्र के इस गौरवशाली रंगशाला की बदहाली के बारे में पता नहीं हो,  नहीं तो ये भी हो सकता था कि वो अपने नाटक के मंचन से मिले पैसों को रंगशाला की बेहतरी के लिए दे देते । या फिर सांसद निधि से ही मदद कर देते । कोई बताए तो सही ।  शत्रुघ्न सिन्हा के इस नाटक के मंचन ने बिहार के रंगकर्मियों को ये सीख भी दे गया कि अगर आपके नाटक में काम करनेवाले कलाकार फिल्मों से जुड़े हैं तो संगीत नाटक अकादमी स्टैंड अप कॉमेडी को भी नाटक बनाकर ना सिर्फ गाजे बाजे के साथ उसका मंचन करवाएगी बल्कि अच्छे पैसों का भुगतान भी होगा । शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने इस कथित नाटक में चंद लोगों के सहारे और रिकॉर्डेड बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ सूबे के हुक्मरानों का मन मोह लिया। रंगकर्मियों के दिल पर क्या बीत रही होगी ये तो वही जानें ।
दरअसल अगर हम बिहार के संस्कृति विभाग के कामकाज पर नजर डालें तो वहां भी परंपराएं ही टूटती नजर आती हैं । वहां शुक्र गुलजार कार्यक्रम में रंगकर्मियों के को जो पैसे दिए जाते हैं जरा उसपर नजर डाल लेते हैं । स्थनीय नाट्य संस्थाओं को मंचन के लिए दस हजार और बाहर से आनेवालों को बीस हजार रुपयों को भुगतान किया जाता है । इस बीस हजार में उनका रहना खाना, यात्रा किराया मंचन का खर्चा आदि सब शामिल है । अब शत्रुघ्न सिन्हा के मंचन के लिए जिम्मेदार संस्था को तीस लाख के भुगतान से इस बात की उम्मीद जगी है कि स्थानीय नाट्यकर्मियों को भी ज्यादा भुगतान हो पाए । उम्मीद तो उन कलाकारों को भी बंधी होगी जो महिला नाट्य उत्सव भी शामिल होने पटना आईं थी। हफ्ते भर के उस महिला नाट्य महोत्सव का पूरा बजट दस लाख रुपए का था । 7 दिन के नाट्योत्सव का बजट दस लाख और एक नाटक के मंचन पर चालीस पचास लाख खर्च करने के संस्कृति विभाग के साहस की प्रशंसा की जानी चाहिए । दरअसल बिहार सरकार के संस्कृति विभाग ने लगता है अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी है । विभाग की कोई यूनिट, कोई दफ्तर पटना से बाहर है नहीं । बिहार के जिस भी कलाकार को कुछ करना होता है तो उसको पटना आना होता है अबतक बीस हजार रुपए में कार्यक्रम करना होता था लेकिन अब अगर लाखों में भुगतान होने की परंपरा शुरू होती है और आगे भी कायम रहती है तो ये बिहार में नाटक के मंचन के लिए अच्छे दिन की शुरुआत होगी । लेकिन बड़ा सवाल कि क्या ऐसा होगा ।

अब अगर परंपरा से हट कर बात की जाए तो शत्रुघ्न सिन्हा के इस नाटक के मंचन का एक और पहलू भी है वो है बिहार में विपक्ष की भूमिका निभा रही भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक तौर पर चिढाना । लंबे समय से शत्रुध्न सिन्हा की अपनी पार्टी से नाराजगी जगजाहिर है । गाहे बगाहे अपने बयानों से और भारतीय जनता पार्टी के विरोधियों से मुलाकातें कर वो अपनी नाराजगी का इजहार करते रहते हैं । उनकी नाराजगी में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को संभावनाएं भी नजर आती हैं और वो भी मौका मिलते ही बिहारी बाबू की जमकर तारीफ करते नहीं थकते हैं । शत्रुध्न सिन्हा भी नीतीशकुमार की जमकर तारीफ करते रहते हैं । अब ऐसा प्रतीत होता है रंगमंच की बिसात पर नीतीश कुमार सियासत की चालें चल रहे हैं । नाटक के पीछे की सियासी मंशा भारतीय जनता पार्टी को ये संदेश देना है कि देखो बिहार का तुम्हारा सबसे लोकप्रिय नेता हमारे साथ मंच साझा कर रहा है । इस बात को मजबूती नाटक के मंचन के वक्त महागठबंधन के सभी बड़े नेताओं की वहां उपस्थिति और उससे पहले नाटक के प्रचार से भी मिलती है । दरअसल जब से नीतीश कुमार ने एनडीए से नाता तोड़ा है तब से दोनों तरफ से एक दूसरे को राजनीतिक तौर पर चिढाने का मौका नहीं छोडा जा रहा है । राजनीतिज्ञ सियासत तो करेंगे ही लेकिन कला और संस्कृति या फिर साहित्य का इस्तेमाल कर नीतीश कुमार ने अपनी जो छवि बनाई है वो अबतक किसी ने नहीं किया । हाल ही में खबर आई थी कि अशोक वाजपेयी और उनका पूरा खेमा नीतीश कुमार के लिए देशभर में बुद्धुजीवियों की बैठक का आयोजन करेगी । तो नीतीश की सियासत का ये दिलचस्प पहलू है । 

Friday, August 19, 2016

जनरलों के बीच जंग !

भारतीय सेना । इस नाम से देश की जनता के मन में गौरव का भाव जगता है । सेना के अफसरों और जवानों के उच्च बलिदानों की वजह से ना केवल विश्व में भारत का माथा उंचा होता है बल्कि देश की सीमापर या देश के अंदर जब भी जरूरत आन पड़ती है तो सेना के जवान और अफसर अपने अदम्य साहस और कर्मठता से अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हैं । पिछले दिनों भारतीय सेना के तीन जनरलों – दो पूर्व- जनरल वी के सिंह, जनरल बिक्रम सिंह और एक मौजूदा जनरल दलबीर सिंह सुहाग के बीच जिस तरह से विवाद हुआ है वो सेना की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं है । बारहल लाख अफसरों और जवानों की भारतीय सेना एक बेहद अनुशासित फोर्स मानी जाती थी और संविधान की भावनाओं का सम्मान करते हुए निर्णयों का पालन करती है । इन दिनों सेना के काम-काज में राजनीतित हस्तक्षेपों और कोर्ट कचहरी की वजह से सेना के चंद अफसरों के क्रियायाकलाप विवादित हो रहे हैं । जनरल वी के सिंह पहले सेनाध्यक्ष हुए जिन्होंने भारत सरकार को सुप्रीम कोर्ट में घसीटा । अपने उम्र विवाद में वो सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे लेकिन अदालत के रुख को देखते हुए कदम पीछे खींच लिए थे । पाठकों को याद होगा कि जब उन्नीस सौ तिरासी में इंदिरा गांधी ने लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा की दावेदारी को सुपरसीड करते हुए एस एस वैद्य को सेनाध्यक्ष बनाया था तो उन्होंने एक अनुशासित सिपाही की तरह भारत सरकार के आदेशों को शिरोधार्य किया था । अब स्थितियां धीरे-धीरे बदल रही हैं ।
ताजा विवाद मौजूदा सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह सुहाग के एक हलफनामे से पैदा हुआ है जो उन्होंने पूर्व सेनाध्यक्ष और अब भारत सरकार में मंत्री जनरल वीके सिंह के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर किया है । अपने इस हलफनामे में जनरल सुहाग ने जनरल वीके सिंह पर आरोप लगाया है कि सेना प्रमुख रहते हुए उन्होंने प्रमोशन रोकने के लिए झूठे आरोप लगाए और उनपर कार्रवाई की । दरअसल ये पूरा विवाद शुरू हुआ है लेफ्टिनेंट जनरल रवि दस्ताने की एक याचिका पर जिसमें उन्होंने आरोप लगाया था कि सुहाग को सेनाध्यक्ष बनाने के लिए उनकी वरीयता को ताक पर रखा गया था । सेना के ट्रायब्यूनल से उनकी याचिका खारिज होने के बाद दास्ताने सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए जहां सुनवाई के दौरान जनरल दलबीर सिंह सुहाग ने हलफनामा दाखिल कर पूर्व सेनाध्यक्ष पर संगीन इल्जाम लगाए । इस केस के जानकारों का कहना है कि जनरल सुहाग ने कुछ भी नया नहीं कहा है । जब ये केस सशसत्र बल न्यायधिकरण में चल रहा था तब 2012 में उन्होंने यही हलफनामा वहां भी दायर किया था । उस वक्त ना तो वी के सिंह केंद्रीय मंत्री थे और ना ही सुहाग सेनाध्यक्ष ।
ये पूरा विवाद दो हजार बारह के जनरल वीके सिंह के उस आदेश की वजह से शुरू हुआ जिसमें उन्होंने सुहाग पर कथित रूप से कमान और नियंत्रण में विफल रहने की वजह से अनुशासन और सतर्कता प्रतिबंध लगाया था । जनरल वी के सिंह के इस फैसले का आधार कॉर्प थ्री खुफिया यूनिट की ओर से बीस इक्कसी दिसबंर दो हजार ग्यारह की रात को असम के जोरहट में चलाए एक अभियान की कोर्ट ऑफ इंक्यावरी की जांच थी । इसके बाद मई में वीके सिंह रिटायर हो गए और उनके बाद सेनाध्यक्ष बने जनरल बिक्रम सिंह ने जून में सुहाग को राहत देते हुए ये प्रतिबंध हटा लिया था और उनको फूर्वी कमान का जीओसी इन सी के पद पर तैनाती का हुक्म जारी कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट में जनरल सुहाग के हलफनामे के बाद रक्षा मंत्री ने उनको तलब कर पूरे मामले की जानकारी ली है । कहा ये जा रहा है कि सरकार को बगैर बताए जनरल सुहाग ने सुप्रीम कोर्ट में ये हलफनामा दायर कर दिया। जनरल वी के सिंह पर आरोप लगा था कि वो अपने रिश्तेदार अशोक सिंह को सेनाध्यक्ष बनवाने के लिए ये सब कर रहे थे लेकिन इतना याद रखना जरूरी है कि जनरल वीके सिंह से सेना में दलालों के दखल पर पूरी तरह से रोक लगाई थी । उन्होंने सेना के पूरे सिस्टम को झकझोरा भी था नेताओं को उनकी संवैधानिक जगह भी याद दिलाई थी । वी के सिंह के खिलाफ उन दिनों देश की मजबूत आर्म्स लॉबी ने भी बहुत साजिश रची थी क्योंकि उन्होंने इन दलालों को उनकी औकात बता दी थी ।

दरअसल पिछले कुछ सालों में सेना के क्रियाकलापों में अफसरों और नेताओं का दखल बढ़ा है जिसकी वजह से इस तरह के विवाद सतह पर आने लगे हैं । अब दो पूर्व सेनाध्यक्षों के बीच के इस ताजा विवाद ने एक बार फिर से भारतीय सेना के गौरवशाली परंपरा पर सवाल थड़े कर दिए हैं और जनता के मन में ये प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि क्या एक सेनाध्यक्ष अपने साथी अफसर के खिलाफ साजिश रच सकता है । जनता के मनमें उठने वाले इस तरह के सवाल लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है । 

गुटरूँ गुटरगूँ से निकलते संदेश

आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारा देश शौचालय की समस्या से जूझ रहा है तो इतना तो तय है कि इसके लिए हमारी कोई ना कोई नीति रीति जिम्मेदार रही होगी । अगर आजादी के सत्तर साल बाद भी हम अपने देश की आधी आबादी को बेहद बुनियादी सुविधा मुहैया नहीं करवा पाए हैं तो इससे शर्मनाक कुछ और हो नहीं सकता है । ये समस्या सिर्फ सरकारों की विफलता नहीं है बल्कि इसकी जड़ में महिलाओं को लेकर समाज का नजरिया भी है या फिर महिलाओं को लेकर हमारे समाज की जो सामंतवादी मानसिकता अबतक कायम है उसको बदलने में भी हमारा समाज नाकाम रहा है । इस वजह से ही महिलाओं की सुविधा के बारे में सोचा ही नहीं गया । गांवों में शौचालय की समस्या की वजह से महिलाओं को खेतों में जाना पड़ता है और कई बार बलात्कार जैसे घिनौने वारदात की शिकार भी होती हैं क्योंकि शौच के लिए सुनसान जगह की तलाश में बहुत दूर निकल जाना पड़ता है ।
यह बात कल्पना से भी परे है कि महिलाओं के लिए शौचालय की समस्या को केंद्र में रखकर कोई फिल्म भी बनाई जा सकती है । आज जिस तरह से फिल्मों से सार्थकता गायब होती जा रही है । भारतीय फिल्मों खासकर हिंदी सिनेमा में सार्थकता को मुनाफा ने विस्थापित कर दिया है । अब फिल्म बनाते समय फिल्मकारों और प्रोड्यूसर के जेहन में सिर्फ और सिर्फ ये बात रहती है कि उनकी फिल्म सौ करोड़ का मुनाफा कमा पाएगी या नहीं । फिल्मों का आंकलन भी बहुधा उसके बिजनेस पर होने लगा है । फिल्म समीक्षकों की समीक्षा में ये कयास एक आवश्यक तत्व की तरह उपस्थित होता है कि फिल्म कितने सौ करोड़ का बिजनेस कर सकती है । ऐसे माहौल में एक साहसी प्रोड्यूसर ने शौचालय की समस्या को लेकर एक पूरी फिल्म बनाई है । शॉर्ट फिल्म और डॉक्यूमेंट्री आदि तो बनते रहे हैं लेकिन किसी समस्या विशेष को केंद्र में रखकर एक मुकम्मल फिल्म बनाने का साहस दिखाया है अस्मिता शर्मा ने । अस्मिता खुद अभिनेत्री भी हैं और इस फिल्म की नायिका भी । अस्मिता और प्रतीक शर्मा की इस फिल्म का नाम है गुटरूँ गुटरगूँ ।
ये फिल्म बनकर तैयार है और जल्द ही रिलीज होनेवाली है । सतह पर देखने से इस फिल्म में कहानी के केंद्र में तो शौचालय की समस्या जरूर नजर आती है लेकिन फिल्म का कैनवस बहुत ही बड़ा है । यह गांव में एक परिवार की समस्या के अलावा इसमें सामाजिक विषमताओं से लेकर स्त्री विमर्श की वो ऊंचाई है जहां तक अभी हिंदी साहित्य का स्त्री विमर्श करनेवाला लेखन नहीं पहुंच पाया है । हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को लेकर दशकों से बहुत शोर शराबा हो रहा है लेकिन अभी तक किसी रचना में इतनी बारीकी से स्त्री की समस्या को केंद्र में रखकर नहीं लिखा गया । इस फिल्म में अस्मिता की कल्पनाशीलता उस ऊंचाई पर पहुंची है जिसको देखकर विस्मय होता है । उम्मीद की जानी चाहिए कि इस फिल्म को दर्शकों का प्यार मिलेगा ।
कहानी तो एक गरीब परिवार से शुरू होती है शंभु नाम के एक शख्स की शादी उस परिवार की लड़की से होती है जिसके मायके में घर के अंदर शौचालय होता है । वो ब्याह कर ऐसे घर में आती है जहां घर में शौचाल. होना पाप माना जाता है , इसको अपशकुन की तरह देखा जाता है । उस पूरे गांव के लिए एक शौचालय है जिसका दिन में महिलाएं इस्तेमाल नहीं कर सकती हैं । महिलाओं के लिए नियम तय किए गए हैं । नियम गांव के संरपंच ने बनाए हैं लिहाजा मानना सबकी मजबूरी है । सूरज उगने के पहले और सूरज डूबने के बाद गांव के सार्वजनिक टॉयलेट का इस्तेमाल महिलाएं कर सकती हैं । फिल्म शुरु होते ही लड़की के ब्याह में होनेवाली दिक्कतों, दहेज की मांग और लड़की के पिता का उस मांग को पूरी नहीं कर पाने पर लड़केवालों द्वारा किया जानेवाले अपमान संकेतों में सामने आता है । अपमान को लेकर लड़की का विद्रोही तेवर भी । कहानी की बुनावट इस तरह से चलती है कि रोमांच बना रहता है । फिल्म में पति-पत्नी के संबंधों पर भी गंभीरता से विचार किया गया है । नायक पति सामाजिक मान्यताओं में इस कदर जकड़ा हुआ है कि अपनी पत्नी के लिए कुछ कर नहीं पाता है । कईबार वो बेबस भी दिखता है, पत्नी के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना भी है लेकिन समाज क्या कहेगा के चक्रव्यूह में फंस जाता है ।
शौचालय की समस्या से स्त्रियों की क्या क्या समस्याएं जुड़ी हुई हैं उसको इतनी सूक्षम्ता और बारीकी से ये फिल्म अपने में समेटती है कि आश्चर्य होता है कि इतनी दूर तक ये समस्या जा सकती है । नायिका अपने मन का खाना इस वजह से नहीं खा पाती है कि अगर शौच जाना पड़ा तो क्या करेगी । कम पानी पीना कम खाना । जिस समाज में ये मान्यता हो कि औरत का खाना-पीना और पखाना कोई देख नहीं पाए वहां एक पढी लिखी स्त्री किस तरह से सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देती है उसको बेहद दिलचस्प अंदाज में अस्मिता शर्मा ने अपनी इस फिल्म में समेटा है । इस फिल्म के संवाद लगातार समाज की कुरीतियों पर तो चोट करते ही चलते हैं, उनपर टिप्पणी भी करते चलते हैं । जैसे मर्द का कोई टाइम टेबल नहीं होता, औरत को कंट्रोल नहीं होता क्या, औरत है, उस पर लगाम कस कर रख, दिन में जाना हो तो मर्दाना में जन्म लेना होगा । ये सारे वाक्य ऐसे हैं जो एक वाक्य ना होकर समाज में व्याप्त मानसिकता को उघाड़ कर रख देते हैं । अस्मिता शर्मा की ये फिल्म जब ये कहती है कि सीता को भी रोज अग्निपरीक्षा नहीं देनी पड़ती थीतो आप समस्या का अंदाज लगा सकते हैं । नायिका की तकलीफ की इंटेंसिटी को महसूस कर सकते हैं ।

इस फिल्म की नायिका अपनी समस्या का रास्ता तब निकाल लेती है जब उसका पति उसको बातों बातों में अपने लिए खुद रास्ता तलाशने को कहता है । यह फिल्म अवश्य एक सामाजिक समस्या को केंद्र में रखकर बनाई गई है लेकिन इसमें समांनतर रूप से एक इंटेंस लव स्टोरी भी चलती है । पति पत्नी के बीच की प्रेम कहानी । हर लव स्टोरी की तरह इस प्रेम कहानी में कई दिलचस्प मोड़ आते हैं । शक ओ सुबहा भी पैदा होता है, गलतफहमियां भी जन्म लेती हैं लेकिन जब पति पर आंच आती है तो नायिका अपने सारे मान अपमान को भूलकर भरी भीड़ के सामने सरपंच को अपना रास्ता बता देती है । तमाम अपमान के बाद जब वो अपने पति के साथ घर लौटती है तो दोनों के बीच का संवाद समाज और परिवार की उन परतों को उघाड़ कर रख देता है जिसके बारे में मौजूदा दौर के फिल्मकारों को जरा परहेज ही रहता है । गांव की पृष्ठभूमि पर बनी ये फिल्म संदेश को देती है लेकिन इसकी जो रफ्तार है या यों कहें कि अब आगे क्या ये सवाल अंत तक बना रहता है ।  गुटरूँ गुटरगूँ नाम कीइस फिल्म को देखते हुए एरक बेहद दिलचस्प पर मार्मिक कहानी को पढ़ने का एहसास होता है । 

Saturday, August 13, 2016

कोलाहल कलह में कविता

हिंदी कविता को लेकर इस वक्त दो तरह की बात सुनने पढ़ने में आ रही है । आप किसी भी कवि से बात कर लें वो ये कहेगा कि कविता संग्रह छपने में दिक्कत आ रही है । इस संबंध में प्रकाशक से बात करें तो वो कहते हैं कि कविता संग्रह बिकते नहीं हैं । ये तो रही पहली तस्वीर और अब चलते हैं सोशल नेटवर्किंग साइट पर- वहां इन दिनों कविता का स्वर्णकाल चल रहा है । किसिम किसिम की कविता लिखी और पोस्ट जा रही है और एक खास किस्म की कविता को लेकर बहुत हो हल्ला भी मच रहा है । उस तरह की कविता के समर्थन में तर्क ये गढे जा रहे हैं कि इसने कविता की प्रचलित भाषा और मुहावरे तो तहस नहस कर अपनी नई राह बनाई । उत्साह में तो लोग यहां तक कह जा रहे हैं कि हिंदी कविता में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ । लेकिन सवाल यही है कि अचानक ये हो क्यों रहा है । दरअसल हिंदी के जादुई यथार्थवादी लेखक उदय प्रकाश ने इस बार भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार हिंदी की नई कवयित्री शुभमश्री की एक कविता को दिया है । उस पुरस्कार के ऐलान के बाद उसकी कविता को लेकर, उसके फॉर्म को लेकर, उसकी भाषा को लेकर बहस शुरू हो गई । इस बहस में कुछ उत्साही लेखकों ने फैसले भी सुना दिए लेकिन बहुधा उत्साह में उठाया कदम आपको पुनर्विचार पर मजबूर करता है । दूसरी तरफ शुभम की कविता के जवाब में एक अनाम कवयित्री की कविताएं पोस्ट और शेयर होने लगीं, उनकी कविता में भी भाषा के साथ जबरदस्त खिलवाड़ दिखाई देता है । पेटीकोट आदि जैसे शब्दों के इस्तेमाल ले कविता को बोल्ड दिखाने की कोशिश की गई है । फेसबुक पर कविता के इस स्वर्णकाल को देखते हुए एक कवि मित्र ने बातचीत में बेहद अहम बात की- इन दिनों कविता जंघा से शुरू होकर योनि पर खत्म हो जाती है इसमें ये जोडा जा सकता है कि इन बिंबों का इस्तेमाल कालीदास ने भी अपनी कविता में किया है लेकिन जो सौंदर्यबोध उनके पास है उसकी यहां नितांत कमी दिखाई देती है । यह कहना मुश्किल है कि फेसबुक पर लिखनेवाले उत्साही लेखक अपने स्टैंड में बदलाव करते हैं या नहीं पर बेहद विनम्रतापूर्वक इतना तो कहा ही जा सकता है कि शुभमश्री की कविताओं को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचने की हड़बड़ी नहीं दिखाई जानी चाहिए । वो कविता की दुनिया में अपनी भाषा और अपने मुहावरों के साथ आई है थोड़ा ठहरकर उसकी आनेवाली रचनाओं की प्रतीक्षा करनी चाहिए और फिर फैसला करना चाहिए।
अब रही बात उदय प्रकाश समेत उन उत्साही लेखकों की जो प्रकरांतर से यह दावा करते हैं कि शुभम ने अपनी कविता से पहली बार हिंदी कविता के प्रचलित ढांचे तो तहस नहस किया है । उनको यह याद दिलाना आवश्यक है कि हिंदी कविता शुरू से ही किसी खास रास्ते पर चलने से इंकार करती रही है । आधुनिक काल में ही नहीं बल्कि अगर हम कविता के इतिहास पर नजर डालें तो हिंदी कविता अपने शुरुआती दौर में भी अलग अलग रूपों और शैलियों में लिखी गई । भक्तिकाल के कवियों पर अगर विचार करें तो उनकी कविताओं में एक साझा सूत्र भक्ति का अवश्य दिखाई देता है लेकिन सूर, तुलसी जायसी की रचनाओं के भाव अलग अलग हैं कोई श्रृंगार काव्य है तो कोई प्रेम का महाकाव्य तो कोई वीरकाव्य । रीतिकाल को हिंदी कविता में सबसे ज्यादा एक तरह की कविता लिखे जाने का काल माना जाता है लेकिन वहां भी वैविध्य है जिसको घनानंद की कविताओं में देखा जा सकता है । अकविता के दौर में भी जगदीश चतुर्वेदी, सौमित्र मोहन और राजकमल चौधरी की कविताओं ने कैसी तोड़ फोड़ मचाई थी इसको याद करने की आवश्यकता है । लगभग सभी अकवियों की रचनाओं में कुरुचिपूर्ण यौन बिंब देखे जा सकते हैं और वो भी ऑब्सेशन की हद तक । राजकमल चौधरी भी अपनी कविताओं में औरतों से आक्रांत नजर आते हैं लेकिन वहां कवि की मूल्य चेतना व्यापक और गहरी थी जो उनको भीड़ से अलग खड़ा कर देती है । धूमिल ने भी अपनी कविताओं में आक्रोश और बौखलाहट को जगह दी लेकिन उनकी कविताओं में जिस तरह की कलात्मकता दिखाई देती है उसका ठीक से मूल्यांकन होना शेष है । बीटनिक पीढ़ी या अवांगार्द कवियों की कविताओं को हम भुला बैठे हैं । अवांगार्द कवि को लेकर मार्क्सवादी आलोचना और आलोचकों की नजर हमेशा से अलग रही और वो इसको उचित नहीं मानते हैं । कई मार्क्सवादी आलोचकों ने इस प्रवृत्ति को आधुनिकतावादी मानते हुए यथार्थवादी विरोधी करार दिया । अमेरिकन सोसाइटी फॉर एसथेटिक्स के अध्यक्ष रहे टॉमस मुनरो ने इसको सही रूप में परिभाषित किया- अवांगार्द कविता निर्धारित छंदों और तुकों और स्पष्ट भाषा की उपेक्षा करती है एवं अनेकर्थाकता, अस्थिर मन:प्रभावों के अंकन तथा स्पष्ट व्यंजकता का आग्रह रखती है ।

दरअसल हिंदी के मजूदा उत्साही लेखकों का साथ सबसे बड़ी दिक्कत है इतिहासबोध का ना होना या सुविधानुसार इतिहास को भुलाकर किसी को स्थापित करने के लिए जमीन तैयार करना । हम तो ये भी भुला बैठे कि किस तरह से केदारनाथ सिंह साठ के अंतिम दशक में रूमानियत को छोड़कर राजनीति कविता की ओर मुड़ते हैं । उनकी एक कविता चुनाव की पूव संध्या की दो पंक्तियां- भेड़िए से फिर कहा गया है / अपने जबड़ों को खुला रखें । इसी तरह से श्रीकांत वर्मा भी अपनी कविताओं में कई बार सिनिकल दिखाई देते हैं । कविता कभी भी प्रणालीबद्ध होकर नहीं चली है और आगे भी नहीं चलेगी । युवा कवि चेतन कश्यप की एक ताजा कविता को देखें- साला/जिसको मछली खिलाई/जिसकाखूब किया सत्कार/कुर्सी पर जाते ही/किया/ पहचानने से इनकार /मोटी मोटी चमड़ी जिनकी/सूख गई है शर्म आंख की/मैं जूती हूं उनरे पैर की/जैसे वो मेरे भरतार...जो बोलेगा बागी होगा/चुप रहने पर दागी होगा/चित भी उनकी पट भी उनकी/उनकी है सरकार । अब ये कविता भी फॉर्म और भाषा दोनों के स्तर पर अलग जाती है । भरतार शब्द का इस्तेमाल इस कविता में कितवनी खूबसूरती से किया गया है । दरअसल अगर हम आज की हिंदी कविता को देखें तो यहां शोरगुल ज्यादा कविता को लेकर संजीदगी कम दिखाई देती है । इस वक्त हिंदी कविता को संजीदगी की ज्यादा जरूरत है कोलाहल की कम क्योंकि कोलाहल से जो कलह हो रहा है उससे हिंदी कविता का और हिंदी के नए कवियों का नुकसान संभव है । 

Sunday, August 7, 2016

साहित्यजगत के विदूषक

शेक्सपियर के नाटकों में विदूषकों की अहम भूमिका होती है और उसने उस वक्त समकालीन आलोचकों को ध्यान अपनी ओर खींचा था, बल्कि हम ये कह सकते हैं कि बगैर क्लाउंस के शेक्सपियर के नाटकों की कल्पना नहीं की जा सकती है । शेक्सपियर के नाटकों में विदूषक दो तरह के होते हैं पहला जो अपनी मूर्खतापूर्ण बातों से दर्शकों को हंसाता है लेकिन वो अपने चरित्र में गंवार होता है । विदूषक के अलावा कहीं कहीं मसखरा भी मिलता है जिसे जेस्टर कहा जाता है जो अपनी हरकतों से या फिर अपने हावभाव से दर्शकों को हंसाने की कोशिश करता है । दोनों चरित्रों में बहुकक बारीक विभेद होता है जिसको समझने के लिए साहित्यक सूझबूझ की आवश्यकता होती है ।  हिंदी साहित्य में अगर रचनात्मक लेखन पर गौर करें तो पात्रों के तौर पर मसखरों और विदूषकों की कमी नजर आती है लेकिन वो कमी साहित्य जगत में नहीं दिखाई देती है । यहां आपको विदूषक से लेकर मसखरे तक बहुतायत में दिखाई देते हैं । बहुधा अपनी मूर्खतापूर्ण बातों और हरकतों से हिंदी जगत का मनोरंजन करते रहते हैं तो कई बार अपने विट और ह्यूमर से भी पाठकों को हंसाते भी रहते हैं । साहित्यजगत के ये मसखरे श्कसपियर के जस्टर की तरह गंवार नहीं होते हैं । यह एक बुनियादी अंतर भी है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए । दरअसल जिस तरह से शेक्सपियर के नाटकों के मंचन के लिए क्लाउन एक अहम और जरूरी किरदार होता है उसी तरह से अगर समकालीन हिंदी साहित्य को फेसबुक के मंच पर देखें तो इस तरह के कई विदूषक वहां आपको एक आवश्यक तत्व की तरह नजर आएंगे । शेक्सपियर के विदूषकों और हिंदी साहित्य के इन विदूषकों में एक बुनियादी अंतर नजर आएगा । शेक्सपियर के कलाउन और जेस्टर कई बार अज्ञानता में ऐसी बातें कहते हैं या कर डालते हैं जो दर्शकों को हंसाने के लिए मजबूर करते हैं लेकिन फेसबुक पर मौजूद साहित्यक विदूषक जानबूझकर मनोरंजक हरकतें करते हैं । शेक्सपियर के विदूषकों और फेसबुक के मसखरों में एक समानता भी है वो यह है कि दोनों अनप्रेडिक्टेबल हैं । खैर यह साहित्य का एक आवश्यक तत्व है जिससे साहित्य जगत नीरसता से बचा रहता है ।

शेक्सपीरियन फूल्स और फेसबुकिए मसखरों में एक बुनियादी अंतर भी है । शेक्सपियर के ये पात्र लेखक द्वारा रचे गए हैं और लेखक को पता है कि मर्यादा की किस लक्ष्मणरेखा तक जाकर उनको पाठकों का मनोरंजन करना है और ये भी मालूम है कि उस किस लक्ष्मणरेखा के पार नहीं जाना है । परंतु फेसबुक पर मौजूद साहित्यक विदूषकों के लिए किसी तरह की कोई लक्ष्मणरेखा नहीं है- ना तो मर्यादा की और ना ही रचनात्मकता की । उनके लिए तो सारा आकाश खुला हुआ है और आप समझ सकते हैं कि अगर विदूषकों या मसखरों के लिए कोई लक्ष्मणरेखा नहीं होगी तो वो किस हद तक जा सकता है । जाता भी है । जैसा कि उपर कहा गया है कि शेक्सपियर के क्लाउन की तरह फेसबुक के विदूषक मूर्ख नहीं होते हैं तो कई बार ये भी देखने को मिलता है कि मसखरेपन की आड़ में अपने साहित्यक विरोधियों को निबटाने की मंशा से इनका उपयोग किया जाता है । फेसबुक के मंच पर इन सबको देखने और समझने में भी शेक्सपियर के नाटकों को देखने जैसा आनंद आता है । बस दिक्कत तब होती है जब समकालीन साहित्य जगत के कुछ लोग इन विदूषकों को गंभीरता से लेने लगते हैं और उनकी टिप्पणियों को लेकर उलझने लगते हैं । विदूषक और मसखरों से साहित्य जगत हरा-भरा रहता है और साथी लेखकों को इस हरियाली का आनंद उठाना चाहिए ।  

इतिहास से छंटती धुंध

साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर साहित्यजगत में कई तरह की किवदंतियां और मिथक मौजूद हैं । कब किसको मिला और कब किसको नहीं मिला इसको लेकर भी कई तरह की बातें और प्रसंग साहित्य जगत में गूंजते रहते हैं, बहुधा साहित्यक बैठकियों में तो कई बार पुस्तकों में आए प्रसंगों के उल्लेख के तौर पर । उन्नीस सौ बासठ में हिंदी के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार किसी लेखक को नहीं दिया गया था । आमतौर पर लोगों के बीच धारणा ये रही है कि बासठ में चीन के साथ युद्ध की वजह से पुरस्कार नहीं दिया गया लेकिन जब उन्नीस सौ ग्यारह में हिंदी के प्राध्यापक लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब व्योमकेश दरवेश प्रकाशित हुई तो उसमें एक अलग ही प्रसंग नजर आया । बासठ के साहित्य अकादमी पुरस्कार को लेकर इस तरह की बात की गई है जिससे लगता है कि रामधारी सिंह दिनकर के दबाव की वजह से उस वर्ष किसी को पुरस्कार नहीं दिया गया । त्रिपाठी जी दिनकर पर तंज भी कसते हैं - यशपाल के विषय में विवाद हुआ । कहते हैं कि दिनकर ने आपत्ति दर्ज की कि झूठा सच के लेखक ने किताब में जवाहरलाल नेहरू के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया है ।नेहरू भारत के प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ अकादमी के अध्यक्ष भी थे । नेहरू तक बात पहुंची हो या ना पहुंची हो, द्विवेदी जी पर दिनकर की धमकी का असर पड़ा होगा । भारत के सर्वाधिक लोकतांत्रिक नेता की अध्यक्षता और पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी के संयोजकत्व में यह हुआ । अगर यह सच है तो अकादमी के अध्यक्ष और हिंदी के संयोजक दोनों पर धब्बा है यह घटना और मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है । (पृष्ठ 214) । साहित्य अकादमी से डी एस राव की किताब- फाइव डिकेड्स, अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ साहित्य अकादमी का अनुवाद छपा है । पांच दशक के नाम से प्रकाशित उस किताब का अनुवाद भारत भारद्वाज ने किया है । इस किताब में ये प्रसंग है । यहां यह साफ है कि नेहरू जी को ये बात पता थी लिहाजा त्रिपाठी जी की ये आशंका निर्मूल साबित होती है कि नेहरू तक ये बात पहुंची या नहीं। प्रसंग ये है – साहित्य अकादमी की एक्जीक्यूटिव बोर्ड की बैठक में साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने जानना चाहा कि उस वर्ष यशपाल के झूठा सच को अकादमी पुरस्कार क्यों नहीं मिला । हिंदी के संयोजक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि इस उपन्यास में नेहरू की आलोचना है । इसपर आश्चर्य व्यक्त करते हुए नेहरू ने कहा कि पुरस्कार के लिए किताब के ना चुने जाने का कारण ये नहीं हो सकता है । इसपर द्विवेदी जी ने स्पष्ट किया कि सिर्फ ये कारण नहीं है बल्कि कई अन्य बेहतर किताबें पुरस्कार के लिए थी । लेकिन किसीको पुरस्कार दिया नहीं जा सका । साहित्य अकादमी के पांच दशक के इतिहास से यह बात साफ हो जाती है कि यशपाल को पुरस्कार नहीं देने के पीछे रामधारी सिंह दिनकर नहीं थे ।
उस दौर में दिनकर के विरोधियों ने यह बात सुननियोजित तरीके से फैलाई गई कि इसके पीछे दिनकर का दबाव था । विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी किताब में इस प्रसंग को उद्धृत करते हुए ये टिप्पणी भी की - मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है । इससे साफ है कि अपनी किताब में विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने गुरू आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को बेदाग दिखाने के लिए दिनकर पर तोहमत लगाया । दरअसल दिनकर सचमुच अपने समय का सूर्य थे और बहुधा उस सूर्य पर ग्रहण लगाने की कोशिश की जाती रही लेकिन सूर्य तो सूर्य होता है। साहित्य अकादमी के पांच दशक के इतिहास से इस तरह के कई धुंध छंटते नजर आते हैं । इस किताब से जवाहरलाल नेहरू की साहित्यक रुचियों और उनके लोकतांत्रिक होने का पता चलता है । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने टिप्पणी की थी- साहित्य अकादमी के अध्यक्ष होने के नाते मैं बहुत स्पष्ट शब्दों में कह सकता हूं कि मैं नहीं चाहूंगा कि प्रधानमंत्री भी मेरे काम में हस्तक्षेप करें । दरअसल जवाहरलाल नेहरू ने साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के अपने दस साल के कार्यकाल में उस भूमिका का निर्वाह किया जो किसी भी संस्था को बनाने के लिए जरूरी होता है । जवाहरलाल नेहरू अकादमी के सक्रिय अध्यक्ष के तौर पर काम करते रहे और हर छोटी बड़ी चीज पर बारीक नजर रखते रहे । जब निराला बीमार थे और आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे तो नेहरू ने मार्च 1954 में साहित्य अकादमी के सचिव कृष्ण कृपलानी को उनकी आर्थिक मदद के लिए पत्र लिखा था । इसी तरह से जब 9 मार्च 1956 को साहित्य अकादमी के सचिव कृपलानी ने अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को रवीन्द्र नाथ ठाकुर जन्मशताब्दी समारोह के बारे में एक नोट भेजा 1960 में उनकी जन्म-शताब्दी वर्ष का उल्लेख करते हुए । नेहरू ने उसी दिन सचिव को उत्तर दिया कि – हम कार्यकारी मंडल की बैठक में इसपर चर्चा करेंगे । मेरा अनुमान है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 1861 में हुआ था। इस तरह के कई दिलचस्प प्रसंग इस किताब में हैं । साहित्य अकादमी और हिंदी साहित्य के इतिहास में रुचि रखनेवालों के लिए ये एक जरूरी किताब है ।
पिछले दिनों साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी को लेकर बहुत चर्चा हुई थी, तब पुरस्कार वापस करनेवालों और उनेक समर्थकों ने इस तरह का माहौल बनाया कि साहित्य अकादमी के इतिहास में अपनी तरह की ये पहली घटना है । साहित्य अकादमी का इतिहास - पांच दशक- पलटने के बाद यह भी गलत साबित हो रही है । 1981 में तेलुगू लेखक वी आर नार्ला के नाटक सीता जोस्यम जिअर पर साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया लेकिन जब अकादमी की पत्रिका इंडियन लिटरेचर में उसकी प्रतिकूल समीक्षा छपी तो उन्होंने पुरस्कार वापस कर दिया ।  इसी तरह से देशबंधु डोगरा नूतन को उनके डोगरी उपन्यास कैदी के लिए 1982 में चुना गया था । वो पुरस्कार वितरण समारोह में पहुंचे और वहां उन्होंने ये कहते हुए पुरस्कार लौटा दिया कि साहित्य अकादमी ने उनको पुरस्कार देने में बहुत देर कर दी, उनको तो बहुत पहले पुरस्कार मिल जाना चाहिए था । इसी तरह से 1983 में गुजराती लेखक सुरेश जोशी को उनकी किताब चिंतयामि मनसा के लिए अकादमी पुरस्कार दिया गया लेकिन उन्होंने ये कहते हुए पुरस्कार लौटा दिया कि उनकी किताब में छिटपुट लेख हैं जो पुरस्कार के लायक नहीं है । उन्होंने उस वक्त एक टिप्पणी भी की थी- अकादमी चुके हुए लेखकों को पुरस्कृत करती है । इस आरोप पर उस वक्त के अध्यक्ष गोकाक ने टिप्पणी की थी- यह पता लगाना दिलचस्प होगा कि लेखक अपनी रचनात्मक शक्तियों के शिखर पर कब होता है । तब वह बिना चुकी हुई शक्ति होता है ? यह कहना मुश्किल होगा । आयुवर्ग को ध्यान में रखते हुए, हम नहीं कह सकते कि मुनष्य तीसवें वर्ष में, चालीसवें में, पचासवें में, साठवें में अपने लेखन के प्रखर रूप में होता है । हो सकता है कि कुछ अद्धभुत लड़के चट्टान की तरह हों या थोड़ा उम्रदराज शैली या कीट्स की तरह हों । वर्ड्सवर्थ की प्रतिभा का उम्र बढ़ने के साथ ह्रास हुआ लेकिन रवीन्द्रनाथ जैसे लेखक भी थे जिनकी रचनात्मक उर्जा सत्तर पार भी अक्षुण्ण थीं । बाद में लेखकों को पुरस्कृत करने में इस तरह के तर्कों का सहारा मिला । बाद में भी कई बार साहित्य अकादमी पुरस्कार को लेकर विवाद उठा । ये बात भी समय समय पर उठी कि साहित्य अकादमी पुरस्कार को लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार बना दिया जाना चाहिए । साहित्य अकादमी पुरस्कार पर कृष्णा सोबती की टिप्पणी भी गौर करने लायक थी जब उन्होंने इसको आईसीसी में तय होने की बात की थी ।
आलोचक भारत भारद्वाज द्वारा अनुदित ये किताब अकादमी के पचास सालों के गौरवशाली इतिहास को सामने लाती है । इसमें साहित्य अकादमी की स्थापना के पीछे की सोच से लेकर इसकी स्वायत्ता का आधार भी मौजूद है । शुरुआती दौर की बहसें भी इस किताब में हैं । इसके अलावा साहित्य अकादमी का संविधान भी इस किताब में है जिसको पढ़कर हिंदी के उन लेखकों का ज्ञानचक्षु खुल सकता है जो अकादमी के क्रियाकलापों के बारे में मनगढंत टिप्पणी करते रहते हैं । साहित्य अकादमी का पचास साल का इतिहास हिंदी में प्रकाशित हो गया है। अब आवश्यकता इस बात की है कि उसके बाद के करीब बारह साल का इतिहास भी प्रकाशित हो । साहित्य अकादमी को कुछ इस तरह का इंतजाम करना चाहिए कि हर दस साल बाद इसका इतिहास एक दस्तावेज के रूप में सामने आए । इससे साहित्य के नए पाठकों को अकादमी के बारे में जानने समझने में सहूलियत होगी ।         


Wednesday, August 3, 2016

यूपी के सियासी भंवर में सोनिया

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सत्ताइस साल से सत्ता से बाहर है । कांग्रेस की महात्वाकांक्षी योजना और उनेक उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मानें तो पार्टी इस बार सूबे के विधानसभा चुनाव में नंबर वन की लड़ाई लड़ रही है । राहुल गांधी के इस दावे में कितना दम है ये तो अगले साल विधानसभा चुनाव के नतीजे ही साबित करेंगे लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस इस बार उत्तर प्रदेश में गंभीरता से विधानसभा चुनाव लड़ती दिखना चाहती है । अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में पार्टी का बेड़ा पार कराने की जिम्मेदारी चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को सौंपी है । प्रशांत किशोर ने यूपी के हर जिले में सर्वा करवाकर अपनी रणनीति तैयार कर ली है और उसके हिसाब से कांग्रेस काम करती दिख रही है । कांग्रेस ने कुछ दिनों पहले जो यूपी की टीम घोषित की है उसमें सामाजिक और जातीय समीकरणों का खास ध्यान रखा गया है । सत्तर पार शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर कांग्रेस ने दो चाल चली है । एक तो सूबे की दस बारह फीसदी ब्राह्मण मतदाता पर डोरे डालने का काम और दूसरे शीला दीक्षित ने दिल्ली में जो विकास किया है उसको शोकेस करके पार्टी मोदी के विकास की राजनीति का मुकाबला करना चाहती है । इसी तरह से दलित, मुसलमान और पिछड़े को पार्टी उपाध्यक्ष की कमान सौंप कर भी कांग्रेस ने अपने मंसूबों को साफ कर दिया था । जिस तरह से कांग्रेस कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है उससे कार्यकर्ताओं में भी एक भरोसा कायम होने लगा है ।
दरअसल अगर हम उत्तर प्रदेश की सामाजिक संरचना पर विचार करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि वहां का समाज कमोबेश सामंती मानसिकता वाला समाज है । वहां के लोगों को वैभव, ऐश्वर्य और किसी भी आयोजन की विराटता आकर्षित करती है । यूपी की स्थानीय भाषा में कहें तो भौकाल होना चाहिए, चाहे वो पारिवारिक आयोजन हो, सामाजिक सम्मेलन हो या राजनैतिक रैलियां या कार्यक्रम हो । यह बात दो हजार चौदह के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की समझ में आ गई थी । लिहाजा अगर आप उस दौर में नरेन्द्र मोदी की रैलियों को याद करें तो उसमें एक खास किस्म की विराटता दिखती थी । उसके बरक्श कांग्रेस की रैलियों में इस तरह का कोई आकर्षण होता नहीं था । सूबे के कांग्रेस प्रभारी मधूसूदन मिस्त्री एनजीओ पृष्ठभूमि से आते थे लिहाजा उनके स्कीम ऑफ थिंग्स में ग्रैंडनेस का आभाव दिखता था । अब कांग्रेस की समझ में ये बात आ गई है । अगर आप देखें तो जब राज बब्बर की टीम कार्यभार संभालने के लिए लखनऊ पहुंची थी तो कांग्रेस ने उस इवेंट को बड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी । कांग्रेस दफ्तर के आसपास दुकान चलेनवालों का मानना था कि दशकों बाद इस दफ्तर ने इतनी भीड़ देखी । हाल ही में राहुल गांधी का लखनऊ में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें यूपी में बदहाली के सत्ताइस साल पर कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कार्यकर्ताओं के सवालों के जवाब दिए । इस कार्यक्रम की विराटता को देखा जाना चाहिए । इसमें विदेशों में होनेवाली राजनैतिक रैली की तरह रैंप बनाए गए थे और उस रैंप पर चलते हुए राहुल कार्यकर्ताओं के सवालों का जवाब दे रहे थे । उस कार्यक्रम में भी लोगों की अच्छी खासी भीड़ जुटी थी ।

इन सबसे उत्साहित कांग्रेस पार्टी ने अपने अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गढ़ में उतार दिया । लंबे समय बाद उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस के किसी कार्यक्रम में इतना जोश और उत्साह दिखा । यहां भी सोनिया गांधी के रोड शो और उसके बाद के कार्यक्रमों में विराटता का खास ध्यान रखा गया था ताकि जनता को लगे कि कुछ बड़ा हो रहा है । ये तो वो बातें है जो सतह पर दिखाई दे रही थी । अगर हम सोनिया गांधी के कार्यक्रमों को देखें तो वो भी खास समुदाय के वोटरों को ध्यान में रखकर बनाया गया था । सोनिया गांधी का कमलापति त्रिपाठी की प्रतिमा पर माल्यार्पण या फिर बाबा विश्वनाथ के मंदिर में दर्शन का कार्यक्रम । कमलापति त्रिपाठी लंबे समय तक उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों के नेता थे और सूबे के मुख्यमंत्री और केंद्र में रेल मंत्री रह चुके थे । तो एक बार फिर से ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने का दांव । इसी तरह से बाबा विश्ननाथ के दर्शन का कार्यक्रम और उसको सावन में बाबा के आशीर्वाद के तौर पर प्रचारित करना । यह अलहदा बात है कि रोड शो के दौरान सोनिया गांधी बीमार पड़ गईं और उनको कार्यक्रम को बीच में छोड़कर दिल्ली वापस आना पड़ा । कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है वो मुसलमानों को लेकर अत्यधिक उदार और संवेदनशील रहती है । इस छवि को तोड़ने की कोशिश कांग्रेस बार बार कोशिश करती है । लेकिन सोनिया के बनारस के रोड शो से एक बात तो साफ हो गई कि अगर कांग्रेस के नेता जमीन पर बेहतर रणनीति के साथ उतरें तो वो यूपी विधानसभा चुनाव में चुनौती बनकर खड़े हो सकते हैं । पहले नंबर की लड़ाई तो बहुत दूर की कौड़ी लगती है लेकिन अगर कांग्रेस ने गंभीरता से चुनाव लड़ा और प्रियंका गांधी ने धुंआधार प्रचार आदि किया तो संभव है कि उसको चालीस पचास सीटें आ जाएं । अगर कांग्रेस को इतनी सीटें आ जाती हैं तो फिर उसके बगैर सूबे में सरकार बनना संभव नहीं होगा । नतीजा चाहे जो हो लेकिन इतना तय है कि यूपी का चुनावी समर इस बार बेहद दिलचस्प होगा ।