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Sunday, February 28, 2016

सलमान रश्दी पर खामाशी क्यों

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देशप्रेम और देशद्रोह और हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या पर मचे कोलाहल के बीच धर्मनिरपेक्षता के ध्वजवाहकों को दूसरे मसलों पर ध्यान देने की फुरसत नहीं है । हर मसले पर फौरन प्रेस बयान जारी करनेवाली वामपंथी लेखकों की संस्था जनवादी लेखक संघ खामोश है । ये खामोशी है भारतीय मूल के मशहूर लेखक सलमान रश्दी को लेकर । हाल ही में खबर आई कि ईरान की कई मीडिया और अन्य संस्थानों ने सलमान रश्दी को जान से मारनेवाले की इनामी राशि में इजाफा कर दिया है । इन सब लोगों ने मिलकर छह लाख डालर इकट्ठा किया और एलान किया कि ये राशि पहले से घोषित इनामी राशि में जोड़ दी जाएगी । सत्ताइस साल पहले ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खुमैनी ने सलमान रश्दी की जान मारनेवाले को इनाम देने का एलान किया था । उनकी नाराजगी सलमान की 1988 में छपी किताब सैटेनिक वर्सेस को लेकर थी । खुमैनी ने उस किताब को ईशनिंदा और इस्लाम का मजाक उड़ाने का दोषी करार दिया था । खुमैनी के उस फतवे के बाद सलमान रश्दी निर्वासित जीवन बिता रहे हैं और उनको कई बार जान से मारने की नाकाम कोशिश हुई । करीब सत्ताइस साल से संगीनों के साए में जीवन बिता रहे सलमान रश्दी की जिंदगी खतरे में आ गई है । ईरान के एक मंत्री ने कहा है कि खुमैनी साहब का फतवा उनेक लिए धार्मिक अध्यादेश की तरह है जो कभी भी अपनी ताकत और महत्ता नहीं खो सकता है ।
अब सवाल यही उठता है कि पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चैंपियन इस मसले पर कमोबेश खामोश क्यों हैं । सलमान रश्दी को जान से मारने के फतवा को पूरा करने के लिए बढ़ाई गई इनामी राशि के खिलाफ उनकी कलम नपुंसक क्यों हो गई है । नोम चोमस्की से लेकर उमर खालिद और कन्हैया कुमार पर छाती कूटनेवाले हमारे वामी मित्रों के मुंह इस मसले पर क्यों सिल गए हैं । सलमान रश्दी के पक्ष में और ईरान के खिलाफ किसी भी तथाकथित प्रगतिशील जमात ने बयान तक जारी नहीं किया । उन विश्वविद्लायों को प्रोफसरों का क्या जिन्होंने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में जारी बवाल पर हस्ताक्षरित बयान जारी किया । क्या उनके हाथ कांपने लगते हैं । उस जनवादी लेखक संघ को सलमान रश्दी के मसले पर क्यों सांप सूंघ गया है जो ईमेल पर फौरन बयान आदि जारी कर विरोध जताने के लिए मशहूर हैं । दरअसल ये इनका वर्ग चरित्र है । ये चुनिंदा मामलों पर शोरगुल मचाते हैं । इनकी इसी चुनिंदा प्रतिक्रया की वजह से दूसरे लोगों को ये लगता है कि प्रगतिशील जमात का विरोध एकतरफा होता है । इस भावना के बढ़ते जाने से कट्टरपंथियों को जमीन मिलती है और वो आम लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं कि वामपंथी सिर्फ एक जमात के पक्ष में खड़े होते हैं । लंबे वक्त तक जब जनता देखती है कि वामपंथियों का विरोध सचमुच एक ही जमता के लिए होता है तो वो कट्टरपंथी की ओर कदम बढ़ाने लगते हैं । नतीजा इस चुनिंदा विरोध से कट्टरता को बढ़ावा मिलता है । वामपंथियों को ये लगता है कि मुसलमानों के मसलों पर दखल देने से उनकी धर्मनिरपेक्षता की छवि को धक्का लगेगा, जबकि ऐसा है नहीं । किसी भी दल या संगठन को जनता के हितों की बात करनी चाहिए लेकिन अफसोस कि भारत की प्रगतिशील जमात भी जाति और धर्म के बाड़े से बाहर नहीं जा पाई है । समानता की बुनियादी सिद्धांत का दावा करनेवाले ये संगठन, दरअसल अपनी दुकान चलाते हैं और कारोबार के लिहाज से ही अपने कदम उठाते हैं ताकि मुनाफा हो सके ।

ये पहला मौका नहीं है जहां वामपंथियों ने इस तरह का रुख अपनाया है । पहले भी कई मौकों पर देखा गया है कि वो बहुसंख्यक समाज की गड़बड़ियों को लेकर जितने मुखर होते हैं उतनी मुखरता के साथ वो अल्पसंख्यक समुदाय की समस्याओं पर अपना पक्ष नहीं रखते हैं । चाहे वो सलमान का मसला हो या फिर तसलीमा नसरीन का हो । पहले पश्च्म बंगाल की प्रगतिशील सरकार ने तसलीमा के साथ न्याय नहीं किया और फिर उसके बाद ममता बनर्जी की सरकार ने भी वामपंथियों से लाख विरोध के बावजूद तसलीमा नसरीन को बंगाल में रहने की इजाजत नहीं दी । तसलीमा नसरीन की अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार किसी भी प्रगतिशील लेखक को याद नही आया । जब बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने तसलीमा नसरीन को बंगाल से निकाला था तब भी ये वामपंथी लेखक और उनके संगठन खामोश रहे थे । दरअसल प्रगतिशीलता के चोले के पीछे वोटबैंक की राजनीति काम करती है । ये बात सबको पता है कि जो तीन लेखक संगठन, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच, हैं वो सब अपने राजनीतिक दलों से संबद्ध हैं । इन लेखक संगठनों को अपने राजनीतिक आकाओं का मुंह देखना होता है उसी अनुसार ये अपनी रणनीति बनाते हैं । सलमान रश्दी और तसलीमा नसरीन के मामले से वोटबैंक की राजनीति जुड़ी हुई है लिहाजा इन प्रगतिशीलों के आका खामोश हैं । जब आका खामोश तो फिर कारकुनों की क्या मजाल कि जुबान से कुछ भी निकल जाए । दरअसल यही वजह भी रही कि हमारे देश में इन प्रगतिशील लेखकों की साख छीजती चली गई । साख के कम होने का प्रमाण पुरस्कार वापसी के वक्त भी देखने को मिला । चालीस पचास लेखकों ने पुरस्कार वापस किए लेकिन एक सर्वे के मुताबिक उनके खिलाफ उस दौर में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सवा सौ से ज्यादा लेख छपे थे ।   दपअसल जब भी इस तरह का मामला सामने आता है तो मुझे राजेन्द्र यादव और हंस के साथ हुआ वाकया याद आता है । दिल्ली में हंस की सालाना गोष्ठी में कथित क्रांतिवारी कवि बरवर राव को आना था । राजेन्द्र यादव से उन्होंने वादा भी किया था और अंत तक झूठ बोलते रहे कि एयरपोर्ट पर पहुच गए हैं, रास्ते में हैं लेकिन उनका रास्ता मंजिल की तरफ ना जाकर कहीं और चला गया था । वरवर राव की इस वादा खिलाफी का किसी वामपंथी लेखक ने विरोध नहीं किया था बल्कि उनके कदम को यह कहकर जायज ठहराने की कोशिश की गई थी कि वो दक्षिणपंथी लेखक के साथ मंच कैसे साझा कर सकते हैं । जीवनभर वामपंथ का खूंटे से बंधे रहे राजेन्द्र यादव उस वक्त वामपंथियों के रुख से खासे झुब्ध थे । उन्होंने तब माना था कि इनकी विश्वसनीयता संदिग्ध होती जा रही है लेकिन आस्था के वशीभूत वो उनको बेनकाब करने से तब भी बचे थे ।  

लचर अधार, कमजोर दलील

एक अंतराष्ट्रीय संस्था है जिसका नाम है, एमनेस्टी इंटरनेशनल । इस संस्था का दावा है कि वो लोगों के पैसे से चलती है और येएक वैश्विक आंदोलन है । दावा तो ये भी करते हैं कि वो किसी भी तरह की विचारधारा से स्वतंत्र हैं लेकिन उनकी आत्मा लेफ्ट की ओर झुकी नजर आती है । इस संस्था की सालाना रिपोर्ट आई है जिसमें भारत के बारे में कई बातें कही गई है जिसका आधार बहुत साफ नहीं है या फिर कुछ छिटपुट घटनाओं के आधार पर पूरे देश की तस्वीर पेश कर दी गई है । दरअसल जब हम पूरी रिपोर्ट को पढ़ते हैं तो उनके आधार को देखते हुए ये लगता है कि इस विशाल देश के बारे में इक्का दुक्का घटनाओं के आधार पर निष्कर्ष पर पहुंचकर एमनेस्टी इंटरनेशनल ने या तो अपनी अज्ञानता का परिचय दिया है या फिर वो चाहे अनचाहे वो उस विचारधारा और उसके तर्कों के साथ खड़ी नजर आ रही है जो इन घटनाओं को लेकर बवाल मचाते रहे हैं । ये वही एमनेस्टी इंटरनेशनल है जो कहती है कि अंधकार को कोसने से बेहतर है कि एक मोमबत्ती जलाने की कोशिश हो । लेकिन भारत को लेकर इसकी पूरी रिपोर्ट में ये कोशिश की गई है कि जिस भी कोने-अंतरे में हल्का भी अंधेरा हो तो उस अंधेरे को आधार बनाकर निष्कर्ष पर पहुंचा जाए । एमनेस्टी की इसी रिपोर्ट के आधार पर अमेरिका के भारत में राजदूत रिचर्ड वर्मा भी उपदेशक की भूमिका में नजर आए । वो हमारे देश को सहिष्णुता और बंधुत्व की सीख देने में जुट गए । रिचर्ड वर्मा जो नसीहत भारत और भारतीयों को दे रहे हैं वही नसीहत उनको अपने देशवासियों और वहां के ओबामा प्रशासन को देनी चाहिए । अमेरिका में पिछले एक साल में कितने भारतीय नस्लभेद के शिकार हुए हैं ये रिचर्ड को पता होगा । किस तरह से एक गुजराती बुजुर्ग को सरेआम पुलिसवाले ने पीटा वो सारी दुनिया ने देखा । दरअसल यह वैसी श्वेत मानसिकता है जो यह समझती है कि उसको पूरी दुनिया को ज्ञान देने का हक है । कई बार ओबामा भी बारत को नसीहत देते नजर आते हैं लेकिन अपने यहां की घटनाओं को भूल जाते हैं । खैर यह एक अवांतर प्रसंग है जो विस्तार से चर्चा की मांग करता है । फिलहाल तो हम एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट पर चर्चा कर रहे हैं । इस रिपोर्ट में यह बात जोर देकर कही गई है कि भारत में मौजूदा प्रशासन ने सिविल सोसाइटी के उन लोगों को खिलाफ कार्रवाई की जिन्होंने सरकारी नीतियों की आलोचना की । इसके अलावा इस रिपोर्ट में विदेशी फंडिंग पर सरकारी शिकंजे को भी निशाना बनाया गया है और उसको भी देश के माहौल से जोड़ने की कोशिश की गई है । इस रिपोर्ट की ये दो बातें विचार करने योग्य है । सरकार ने किस सिविल सोसाइटी के लोगों को खिलाफ कार्रवाई की इस बात पर एमनेस्टी को विस्तारपूर्वक अपनी रिपोर्ट में सोदाहरण बताना चाहिए था । हां यह सत्य है कि सरकार ने गैरसरकारी संगठनों को विदेशों से मिलनेवाली राशि पर अंकुश अवश्य लगाया है । यह अंकुश कोई नया कानून बानकर या बदले की भावना से लगाया गया हो ऐसा प्रतीत होता नहीं है । अगर सरकार इसको गलत तरीके से अंजाम दे रही होती तो एनजीओ का जो मजबूत कॉकस है वो इसको अदालत में चुनौती दे चुका होता । एमनेस्टी इंटरनेशनल से ये पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार को उन एनजीओ से हिसाब मांगने का हक नहीं है कि विदेशों से मिल रहे पैसों का मनमाना या फिर संगठन के घोषित उद्देश्यों से इतर इस्तेमाल कर रही है । क्या भारत सरकार को ये बात जानने का हक नहीं है कि जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इन एनजीओ को विदेशों से पैसा मिलता है वो उसी पर खर्च होता है या कहीं और उसको डायवर्ट कर दिया जाता है । क्या एमनेस्टी इंटरनेशनल इस बात की वकालत करता है कि एनजीओ अनाप-शानप तरीके से खर्च करें और सरकार उस ओर से आंखें मूंदे रहे । दरअसल एमनेस्टी इंटरनेशनल की इस रिपोर्ट को अगर गंभीरता से पढ़कर विश्लेषित किया जाए तो उसके अंदर एक सूत्र नजर आता है । वो सूत्र है सिविल सोसाइटी के लोगों पर कार्रवाई, विदेशों से मिलनेवाले चंदे के नियमों पर सख्ती, धार्मिक उन्माद से तनाव का बढ़ना, अभिव्यक्ति की आजादी पर उग्र हिंदूवादी संगठनों का हमला, देश में असहिष्णुता का वातावरण, क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में खामी । चलिए अगर बाकी निष्कर्षों को छोड़ भी दिया जाए तो सिर्फ इनपर नजर डाल लेते हैं । उपरोक्त सभी धार में घूम फिरकर वही वगी लोग नजर आएंगे जो एनजी चलाते हैं और विदेशों से धन हासिल करते हैं । हमें तो लगता है कि देश में हो रही सारी गड़बड़ियों की बात को फैलाने के पीछे एनजीओ की फंडिंग पैटर्न को सख्त बनाने का सरकार का निर्णय है । पहले ये होता था कि विदेशी पैसों पर एनजीओ का बड़ा रैकेट चलता था । उसकी ऑडिटिंग आदि का काम ढीले ढाले तरीके से होता था । पैसा आता किस और नाम से था और खर्च किसी और काम पर होता था । नई सरकार ने इसपर रोक लगा दी लिहाजा एनजीओ सर्किट में हड़कंप मच गया और सरकार को बदनाम करने की कशिशें तेज हो गईं । अगर हम इस बात पर विचार करें तो पाते हैं कि भारत में एनजीओ को पैसे देनेवाले विदेशी संगठन इस्लाम और क्रिश्चियनिटी को बढ़ावा देने का काम भी करते हैं । जैसे एक संगठन है अल खैर जो ग्रेट ब्रिटेन से चलता है जो खुद को अग्रणी मुस्लिम चैरिटी कहता है । इस संस्था ने इस्लामिक शिक्षा के आधार पर एक स्कूल की शुरुआत की थी और इसके घोषित उद्देश्यों में मानवाधिकार, शिक्षा और आपात स्थितियों में लोगों की मदद करना है । हैरानी तब होती है जब ये संस्था भारत में उन सेमिनारों को आर्थिक मदद करती है जो सरकार की नीतियों को कठघरे में खड़ा करती है । चलिए यहां तक भी माना जा सकता था लेकिन अल खैर उन सेमिनारों को भी आर्थिक मदद करता है जहां परोक्ष रूप से राजनीति और जनमानस को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है । अब अगर सरकार इस तरह की संस्थाओं से मिलनेवाली आर्थिक मदद का हिसाब मांग रही है तो उसमें गलत क्या है । सरकार के इस कदम से एनजीओ की आड़ में धंधा चलानेवालों को काफी तकलीफ हो गई । उन्हें सरकार असहिष्णु नजर आने लगी और इन सबके प्रभाव में आकर एमनेस्टी जैसी संस्थाएं भी वही सुर अलापने लगीं ।

एमनेस्टी ने अपनी रिपोर्ट में देश में अभिव्यक्ति की आजादी को भी खतरे में बताया है । ये रिपोर्ट कहती है कि भारत में अंतराष्ट्रीय स्तर की अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है । एमनेस्टी को साफ करना चाहिए था कि अभिव्यक्ति की आजादी का मानक क्या है । हमारे देश में तो ये आजादी संविधान के हिसाब से मिली हुई है । संविधान में बहुत साफ है कि इन आजादी पर किन हालात और स्थितियों में पाबंदी है । अंतराष्ट्रीय स्तर चाहे जो हो भारत तो अपने संविधान के हिसाब से चलता है और आगे भी चलता रहेगा । अभिव्यक्ति पर पाबंदी के सिलसिले में इस रिपोर्ट में दो उदाहरण दिया गया है । पहला उदाहरण है केरल में दो शख्स की माओवादी साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तारी और उसके बाद तमिलनाडू में वहां की सरकार और मुख्यमंत्री के खिलाफ गीत लिखनेवाले एक दलित गायक की गिरफ्तारी । इसके अलावा इस रिपोर्ट में वही पुरानी घिसी पिटी बातें है जिन तर्कों के आधार पर बिहार चुनाव से पहले पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया गया था । तमिलनाडू में दलित गायक के साथ गलत किया गया उसका पूरे देश ने विरोध किया । अब एमनेस्टी इंटरनेशनल को कौन समझाए कि भारत में माओवादी किस तरह से एक संगठित अपराधी संगठन में तब्दील हो चुका है । जो ना केवल मासूम लोगों की हत्या करता है बल्कि फिरौती से लेकर रेप आदि जैसे वारदात को अंजाम भी देता है । अब इस तरह के संगठनों के साहित्य से अगर किसी का संबंध है तो उसको क्या खुला छोड़ दिया जाना चाहिए । सवाल वही है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में कई जगह इस बात के संकेत मिलते हैं कि वो वाम विचारधारा की ओर झुकी हुई है । दरअसल अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर जो लोग या संस्थाएं ये राय बनाती हैं उनको उन परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना होगा जिनमें उसको बंदिशें लगाई जाती है । माओवादी साहित्य रखना और उसका प्रचार प्रसार करना अपराध है या नहीं इसका फैसला देश की सक्षम अदालतें करेंगी, एमनेस्टी इंटपनेशनल नहीं । इस तरह की रिपोर्ट से किसी भी संस्था की साख पर सवाल खड़ा होता है । सवाल तो उनपर भी खड़ा होता है जो उनकी रिपोर्टों पर हल्ला गुल्ला मचाने लगते हैं बगैर सोचे समझे । इस तरह की रिपोर्ट को पहले वस्चुनिष्ट होकर परीक्षण करना चाहिए फिर उसपर प्रतिक्रिया देनी चाहिए, उसके मंसूबों को समझते हुए । 

Wednesday, February 24, 2016

हिंदी की स्वीकार्यता से उपजी कुंठा ·

अदूर गोपालकृष्णन का नाम फिल्म जगत में बेहद आदर के साथ लिया जाता है । उन्होंने अपनी कला प्रतिभा के बल पर मलयालम सिनेमा में क्रांतिकारी परिवर्तन किया जिसकी पूरी दुनिया में सराहना हुई । अदूर ने उन्नीस सौ बहत्तर में अपनी फिल्म स्वयंवरम के माध्यम से मलयाली फिल्मों में नए युग की शुरुआत की थी । लेकिन हाल ही में अदूर ने हिंदी भाषा को लेकर एक ऐसा बयान दिया जो उनकी सोच पर सवाल खड़े कर देती है । अदूर ने कहा कि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है और वो हो भी नहीं सकती है । अदूर के मुताबिक कोई भी भाषा, राष्ट्रभाषा तब हो सकती है जब वो देश के सभी लोगों द्वारा बोली जाए ।  उन्होंने इस बात को जोर देकर कहा कि हिंदी एक क्षेत्रीय भाषा है और उसको उसके साथ उसी तरह का बर्ताव किया जाना चाहिए । अदूर एक बेहतरीन फिल्मकार हैं लेकिन भाषा को लेकर उनकी समझ इतनी हल्की है इस बात का अंदाज देश को नहीं था । सवाल हिंदी को थोपने का भी नहीं है उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने का है । गांधी जी ने राष्ट्रभाषा की जो अपेक्षा बताई थी उसके मुताबिक उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों, वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान हो, उस भाषा से भारत का आपसी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक काम-काज हो सकना चाहिए और उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या कुछ समय तक रहनेवाली स्थिति पर जोर न दिया जाए । गांधी जी के बताए इन लक्षणों पर हिंदी भाषा पूरे तौर पर खरी उतरती है । गांधी ने खुद माना था कि हिंदी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं और इससे होड़ लेनेवाली दूसरी भाषा भारत में नहीं है । 20 अक्तूबर 1917 को भरुच में गुजरात शिक्षा परिषद के अध्यक्ष पद के अपने भाषण में गांधी ने कहा था कि यह कहना ठीक नहीं है कि मद्रास और दक्षिण के प्रांतों में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलता है । गांधी के मुताबिक ठेठ द्रविड़ प्रांत में भी हिंदी की आवाज सुनाई देती है । इसमें ये जोड़ा जा सकता है कि अब तो और मजबूती से सुनाई देती है ।

दरअसल अदूर गोपालकृष्णन जैसे विद्वान लोग जब हिंदी को क्षेत्रीय भाषा करार देकर उसको अन्य भारतीय भाषाओं के साथ कोष्ठक में रखना चाहते हैं तब उसकी पृष्ठभूमि में एक भय रहता है । भय हिंदी के उनकी भाषा पर आक्रमण के और उसकी अस्मिता और पहचान के खो जाने की । अदूर जैसे विद्वान को यह समझना होगा कि हिंदी की स्वीकार्यता से किसी अन्य भाषा को कोई खतरा नहीं है । दक्षिण भारत की भाषाएं जिस तरह से आधुनिक काल में संस्कृत के शब्दों को अपनाकर अपनी जरूरतों को पूरा कर रही हैं, साथ ही भाषा की अस्मिता और पहचान भी बचाकर चल रही हैं, उसी तरह से हिंदी भी उनकी सहोदर भाषा के रूप में कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तैयार है । दूसरी बात यह है कि जब हम हिंदी का विरोध करते हैं तो बेवजह भारतीय भाषाओं के बीच एक कटुता पैदा कर देते हैं । इस कटुता का फायदा अंग्रेजी के लोग उठाते हैं । अंग्रेजी के खैरख्वाहों का यह पुराना फॉर्मूला है कि भारतीय भाषाओं के बीच कटुता पैदा करो और फिर अंग्रेजी को संपर्क भाषा के रूप में मजबूत करो । लेकिन नब्बे के दशक में जब से बाजार खुला है तो हिंदी का भी व्यापक रूप से प्रसार प्रचार हुआ है । अब चेन्नई और केरल में भी हिंदी एक संपर्क भाषा के रूप में मजबूती से अपने को स्थापित कर चुकी है । आज चेन्नई और बेंगलुरू और त्रिवेनद्रम में टैक्सी और होटल वाले हिंदी समझते और बोलते हैं । हिंदी फिल्मों और सीरियल के अलावा इंटरनेट के फैलाव ने भी इस प्रवृत्ति को मजबूत किया । इसलिए जब अदूर गोपालकृष्णन जैसे लोग हिंदी के खिलाफ सार्वजनिक मंचों पर बोलते हैं तो उसमें उनकी कुंठा परिलक्षित होती है जो हिंदी की बढती स्वीकार्यता से उपजती है । 

Monday, February 22, 2016

साहित्य के खर-पतवार

अभी हाल में मैंने कुछ टटके कवियों और कहानीकारों की रचनाएं पढ़ीं तो मन इस वजह से खिन्न हो गया कि उनमें से कई वाक्य विन्यास तक ठीक से नहीं लिख पाते हैं । बावजूद इसके उनकी जिद है कि उन्हें हिंदी साहित्य जगत में रचनाकार के तौर पर मान्यता मिले । इस तरह के छद्म कहानीकारों से फेसबुक और अन्य इंटरनेट के माध्यम पर सहजता से रू ब रू हुआ जा सकता है । इस तरह के रचनाकारों का एक गिरोह फेसबुक पर सक्रिय है जो अपने गैंग के सदस्यों पर अंगुली उठानेवालों पर हमलावर हो जाते हैं और व्यक्तिगत आक्षेप आदि तक पहुंच जाते हैं । खुद को और अपने गिरोह के अन्य सदस्यों को कवि-कहानीकार मनवाने की चाहत में ये माफिया की तरह व्यवहार करते हैं । सवाल उठानेवालों की मंशा को ही कठघरे में खड़ा कर देते हैं । फेसबुक की अराजकता इनके मंसूबों को कामयाब करने की जमीन भी तैयार करते हैं । हलांकि ये भूल जाते हैं कि साहित्य लेखन में क्षणिक वाहवाही का कोई स्थान नहीं होता है, अगर आप की रचनाओं में दम होगा तो आलोचकों और समीक्षकों के लाख दबाने के बावजूद वो पाठकों के बीच खासा लोकप्रिय होगा । दरअसल जिस तरह से खेत में खड़ी फसलों को कई बार वहां मौजूद खर-पतवार उसके फलने फूलने में बाधा उत्पन्न करता है उसी तरह से साहित्य के इन खर-पतवारों से भी साहित्य का खासा नुकसान हो रहा है । जिस तरह से किसान अपनी अच्छी फसल के लिए अपने खेत से खर-पतवार नियमित अंतराल पर साफ करता रहता है उसी तरह से साहित्य से भी इन खर-पतवारों की नियमित अंतराल पर सफाई आवश्यक है । साहित्य से इनकी सफाई के लिए आवश्यक है कि उनकी गलतियों को उजागर किया जाए । बगैर इस चिंता के कि वो सोशल साइट्स पर क्या लिखते हैं ।

साहित्य के इन खर-पतवारों को ना तो हिंदी भाषा की उदारता का ज्ञान है और ना ही हिंदी की वैज्ञानिक परंपरा का । हिंदी भाषा अपने आप में भारतीय संस्कृति की तरह विशाल है जो नए शब्दों को गढ़ते हुए भी दूसरी भाषा के शब्दों को अपने में समाहित करते हुए चलती है । कहना ना होगा कि हिंदी आज अपनी इसी उदारता की वजह से अपनी स्वीकार्यता को लगातार बढ़ा रही है ।इससे ही पता चलता है कि हिंदी का विकास कितना वैज्ञानिक है । साहित्य के इन नौसिखिए कवि-कहानीकारों की कहानियां या कविताएं छापते वक्त संपादकों की भी जिम्मेदारी है कि वो इनकी कहानियों या कविताओं का संपादन करें । कविता में तो फिर भी छूट ली जा सकती है लेकिन जब कहानी में गलत शब्दों का प्रयोग होता है तो वो बेहद खलता है । साहित्य ये खर-पतवार अगर सचमुच साहित्य लेखन में गंभीरता से आना चाहते हैं तो इनको पहले हिंदी सीखनी चाहिए, उसके व्याकरण को और उसके शब्दों से अपनी पहचान करनी चाहिए । उन्हें इस बात का भी ज्ञान होना चाहिए कि किन शब्दों के बहुवचन होते हैं या नहीं होते हैं या किन शब्दों का प्रयोग स्त्रीलिंग या पुलिंग में समान रूप से होता है । जैसे इनकी कहानियों में मौतें या ताजी शब्द का धड़ल्ले से प्रयोग होता है । दोनों ही गलत हैं । मौत का बहुवचन नहीं होता और ताजा का स्त्रीलिंग नहीं होता ।  इनको पता होना चाहिए कि हिंदी में शब्दानुशासन की एक लंबी परंपरा रही है । उन्नीस सौ अट्ठावन में पंडित किशोरीदास वाजपेयी की एक किताब आई थी – हिंदी शब्दानुशासन । ये किताब नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी से प्रकाशित हुई थी । उसकी भूमिका में पंडित जी ने बताया है कि किस तरह वो महीने भर लिखते थे और उसको सभा को भेज देते थे । सभा उसकी दस प्रतियां करवाकर दस विद्वानों को परामर्श के लिए भेजी जाती थी । आज आवश्यकता इस बात की है कि साहित्य के अनुरागियों तक किशोरीदास वाजपेयी की लगभग अप्राप्य किताब पहुंचे । इस किताब की उलब्धता से हिंदी ने नौसिखिए लेखकों की अज्ञानता का अंधकार दूर हो सकता है । हो सकता है इस वजह से कह रहा हूं कि नए कहानीकारों को शब्दों और उसके उपयोग की जानकारी मिल जाएगी बशर्ते कि नए लेखक इसके लिए तैयार हों ।  

अभिव्यक्ति की अराजकता !

हिंदी के वरिष्ठ कथाकार और साहित्यक पत्रिका हंस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव हमेशा आपसी बातचीत में और अपने साक्षात्कारों में कहते थे कि देश के विश्वविद्लायों के हिंदी विभाग रचनात्मकता की कब्रगाह हैं । उनका कहना था कि विश्वविद्लायों के हिंदी विभागों के शिक्षक नया कुछ भी नहीं कर पाते हैं और सूर, कबीर,तुलसी और मीरा से आगे नहीं बढ़ पाते हैं । राजेन्द्र यादव ने उपन्यास समीक्षा के औजारों और प्रणाली पर लिखा था- यह समीक्षा विश्वविद्यालयों के आसपास मंडराती है और एक डॉक्टर दूसरे डॉक्टर के उपन्यासों पर अभ्यास करता है । इस प्रकार की समीक्षाओं को बाद में एक जिल्द में समेटकर कोई भारी-भरकम डरावना सा नाम दे दिया जाता है । संपादक होते हैं कोईउपन्यासकार-समीक्षक डॉक्टर । राजेन्द्र यादव के इस तंज को समझा जा सकता है । यहां वो पीएचडी वाले प्रोफेसरों को डॉक्टर कह कर संबोधित करते हैं क्योंकि अब भी विश्वविद्यालयों में एक दूसरे को डॉक साब कहने की परंपरा है । कालांतर में राजेन्द्र यादव ने अपना दायरा बढ़ा लिया था और उनको लगने लगा था कि भारत के विश्वविद्यालय रचनात्मकता के कब्रगाह हैं । वो उन शिक्षकों को को गाहे बगाहे आड़े हाथों लेते रहते थे जो कि शिक्षण कार्य की बजाए साहित्य की राजनीति में मशरूफ रहते थे, गोष्ठियों सेमिनारों से लेकर नेताओं की गणेश परिक्रमा में लगे रहते थे । दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जारी विवाद के बीच राजेन्द्र यादव का कथन सही ही लगता है । इसी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिंदी के एक शिक्षक के खिलाफ छात्रों ने पर्चे आदि छपवाकर बांटे थे । उनपर आरोप था कि वो शिक्षण कार्य से इतर सभी कामों में गंभीरता से लगे रहते हैं । इन दिनों उनको भी जेएनयू की चिंता सता रही है । यही हाल देशभर के कमोबेश सभी विश्वविद्यालयों का है । देश के चंद विश्वविद्यालयों को छोड़ दिया जाए तो हर जगह हालात इतने बुरे हैं जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती । दिल्ली के ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना जिन उद्देश्यों के लिए की गई थी वो कहां हासिल किया जा रहा है । हाल के दिनों में इस तरह का कोई शोध सामने नहीं आया है जिसकी अंतराष्ट्रीय स्तर पर तो छोड़िए राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा हुई हो । क्या जेएनयू की स्थापना का उद्देश्य सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे छात्रों को सुविधा मुहैया करवाना था । अगर ये था तो इलाहाबाद और पटना विश्वविद्यालय क्या बुरे थे ।
दरअसल जेएनयू के माहौल और कामकाज पर विचार करें तो यहां शोधादि से ज्यादा चर्चा उसके कार्यक्रमों और प्रदर्शनों की होती है । अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर विश्वविद्यालय कैंपस में अभिव्यक्ति की अराजकता है । विश्वविद्यालय की स्थापना काल से ही हां वामपंथी विचारों का दबदबा रहा है, लिहाजा इन सेमिनारों के विषय और वक्ता भी उसी विचारधारा के अनुरूप तय किए जाते हैं । तर्क ये दिया जाता है कि छात्रों के बीच तर्कशक्ति के विकास और उनकी सोच को पैना करने के लिए इस तरह का माहौल सबसे मुफीद है । तर्क की आड़ में विचारधारा का प्रचार होता है । संभव है यह दलील ठीक हो लेकिन इसी जेएनयू में दूसरी विचारधारा के साथ अस्पृश्यता भी देखने को मिलती है । यह अस्पृश्यता सिर्फ सेमिनार और भाषणों में नहीं दिखाई देती है बल्कि छुआछूत की ये प्रवृत्ति शोध प्रबंध आदि में देखने को मिलती है । इस बात के कई ऐसे प्रमाण मौजूद हैं जब वामपंथी विचारधारा के खिलाफ शोध करनेवालों को कोर्ट से जाकर इंसाफ की गुहार लगानी पड़ी । कोर्ट के आदेश के बाद उनके रिसर्च को मान्यता दी गई और फिर डिग्री भी । केंद्र में सत्ता बदलने के बाद देश में फासीवाद आने का एलान करनेवाली वामपंथी जमात को यह समझना होगा कि नरेन्द्र मोदी लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के मुखिया है और जनता ने उनको पांच सालों के लिए चुना है । उनका राजनीतक विरोध करना विपक्ष का अधिकार है । लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह आवश्यक भी है लेकिन अपनी पाजनीति के लिए विश्वविद्यालयों और छात्रों का इस्तेमाल करना बिल्कुल ही उचित नहीं है । वामपंथियों के लिए फासीवाद का मतलब है बीजेपी, आरएसएस और नरेन्द्र मोदी । उनके लिए स्कूलों में योग शिक्षा भी फासीवाद है, उनके लिए स्कूलों में वंदे मातरम गाना भी फासीवाद है, उनके लिए सरस्वती वंदना भी फासीवाद है, उनके लिए अकादमियों या सरकारी पदों से उनको हटाया जाना भी फासीवाद है, उनके लिए इतिहास अनुसंधान परिषद में बदलाव की कोशिश भी फासीवाद है । दरअसल उनके लिए वामपंथ कीचौहद्दी से बाहर किससी भी तरह का कार्य फासीवाद है । इस तरह का शोरगुल इन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के वक्त भी मचाया था । बावजूद इसके देशभर की अकादमियों से लेकर तमाम सरकारी गैर सरकारी पदों पर अब भी वामपंथी विचारधारा के ध्वजवाहक ही राज कर रहे हैं बस उनके सामने हटाए जाने का खतरा है । दरअसल जब तक कांग्रेस की सरकार रही तो इन अकादमियों और विश्वविद्यालयों पर कमोबेश वामपंथियों का ही कब्जा रहा और वो अपनी मनमानी चलाते रहे । अब इन मनमानियों पर से परदा उठने लगा तो उनको फासीवाद नजर आने लगा है । अगर मार्क्सवादियों के अतीत पर नजर डाले तो ये साफ तौर पर सामने आता है तमाम वामपंथी अपने कार्यप्रणाली से लेकर मन-मिजाज तक में तानाशाह होते हैं या यों कहे कि फासीवादी होते हैं । देश के तमाम विश्वविद्यालय इस बात के गवाह हैं कि वैकल्पिक विचारधारा के लोगों को नौकरी आदि से किस तरह से वामपंथियों ने वंचित किया था और अब भी कर रहे हैं । लेनिन ने कभी कहा भी था कि कम्युनिस्टों की राजनीति को कोई नैतिकता या फिर कानून रोक नहीं सकती है । चीन और रूस इस बात के जीते जागते सबूत हैं । कम्युनिज्म के नाम पर वहां तानाशाही नहीं तो क्या है ।

इस बात पर देशव्यापी बहस होनी चाहिए कि करदाताओं के पैसे से चलनेवाली इस तरह के विश्वविद्यालयों में एक खास विचारधारा के पोषकों को ही सिर्फ बार-बार जगह क्यों दी जाती रही है । आज असहिष्णुता और देशप्रेम पर सवाल खड़े करनेवालों ने कभी भी इस सवाल से टकराने की जहमत क्यों नहीं उठाई । एक खास विचारधारा को छात्रों के बीच बढ़ाने और उसको प्रचारित करने वालों के खिलाफ कभी किसी भी कोने अंतरे से आवाज नहीं आई । इस बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि क्या इस तरह से एक विचारधारा को प्रचारित करने और मजबूत करने की वजह से ही वहां कश्मीर की आजादी और भारत विरोधी नारा लगानेवालों को खाद पानी मिला । पड़ताल तो इस बात की भी होनी चाहिए कि इस खाद पानी का इंतजाम करनेवाले कौन लोग थे । जेएनयू में वो कौन सी परिस्थियां थी कि डेमोक्रैटिक स्टूडेंट्स यूनियन जैसा संगठन वहां पनपा जिसको कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने बैन कर दिया । वौ कौन लोग थे जो नक्सलियों के समर्थन में काम करनेवाली इस संस्था के मेंटॉर थे । इस बात को भी उजागर करना चाहिए कि उक्त छात्र यूनियन ने क्या किया था कि केंद्र सरकार को उसको बैन बैन करना पड़ा था । वो कौन लोग थे जो दंतेवाड़ा में जवानों की शहादत पर जश्न मनाते थे । जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के खिलाफ नोम चोमस्की, ओरहम पॉमुक समेत दुनिया भर के करीब एक सौ तीस बुद्धिजीवियों ने बयान जारी किया । उनके बयान के शब्दों से साफ है कि उन्हें किस बात से दिक्कत है । अमेरिका, कनाडा, यू के समेत कई देशों के प्रोफेसरों ने इस बात पर आपत्ति जताई है कि भारत की मौजूदा सरकार असहिष्णुता और बहुलतावादी संस्कृति पर हमला कर रही है । उन्होंने जेएनयू में कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी को शर्मनाक घटना करार दिया है । अब नोम चोमस्की की प्रतिबद्धता तो सबको मालूम ही है । इन शिक्षाविदों ने जिस तरह की भाषा लिखी है वो उनके पूर्वग्रह को साफ तौर पर सामने लाता है । इस बयान में लिखा है कि जेएनयू परिसर में कुछ लोगों ने , जिनकी पहचान विश्वविद्यालय के छात्र के तौर पर नहीं हो सकी है, कश्मीर में भारतीय सेना की ज्यादतियों के खिलाफ नारेबाजी की । नोम चोमस्की को शायद ये ब्रीफ नहीं दिया गया कि वहां भारत की बर्बादी के भी नारे लगाए गए थे । इनमें से सभी प्रोफेसरों से ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि अपने बयान में उन्होंने ये बात किस आधार पर कही कि भारत की बर्बादी और कश्मीर की आजादी का नारा लगानेवाले जेएनयू के छात्र नहीं थे । क्या उमर खालिद के बारे में उनको जानकारी नहीं है । लेकिन उनको तो अपनी विचारधारा की रक्षा में खड़ा होना है । इस स्तंभ में पहले भी इस बात की ओर इशारा किया गया था कि एक ही वक्त पर कश्मीर से लेकर जेएनयू और दिल्ली के प्रेस क्लब में अफजल को हीरो बनाने की कोशिश के पीछे की मंशा को उजागर किया जाना चाहिए ।  

Monday, February 15, 2016

वीराने में टहलती यादों की परछाइयां

निदा फाजली ने अपनी किताब तमाशा मेरे आगे की भूमिका में मैडम बॉवेरी को याद करते हुए कहा है कि काश मेरे पास इतना पैसा होता कि सारी किताबें खरीद लेता और उसको फिर से एक बार लिखता । उसके बाद निदा साहब कहते हैं...समय का आभाव नहीं होता तो मैं भी ऐसा ही करता । मैडम बॉबेरी के कथन को जेहन में रखते हुए वो अपना एक शेर कहते हैं कोशिश के बावजूद एक उल्लास रह गया/ हर काम में हमेशा कोई काम रह गया । निदा फाजली के निधन की जब खबर मिली तो मेरी स्मृति में निदा साहब का ये शेर कौंध गया । वो इसलिए कि उनसे जनवरी 2013 में हुई दो बार हुई बातचीत याद आ गई । उसके पहले निदा साहब से मेरा कोई संपर्क नहीं था । हां उनके लिखे फिल्मी गीत तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है और कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता मुझे बेहद पसंद हैं । उनकी आत्मकथात्मक उपन्यासों को पढ़कर उनके संघर्षों और विचारों से अवगत था । लेकिन जब दो हजार तेरह में साहित्यक पत्रिका पाखी में उनका एक खत पढ़ा तो हैरान रह गया था । उन्हें तुरंत फोन किया था और उनसे काफी लंबी बात हुई थी । दरअसल उन्होंने पाखी के संपादक के नाम एक पत्र में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की तुलना मुंबई हमले के गुनहगार आतंकवादी आमिर अजमल कसाब से कर दी थी । दरअसल निदा फाजली पूर्व के अंक में संपादकीय में कहानीकार ज्ञानरंजन की तुलना अमिताभ बच्चन से किए जाने से खफा थे । निदा ने संपादक के नाम खत में लिखा था- दूसरी बात जो आपके संपादकीय मे खटकी वो यह है कि ज्ञानरंजन जैसे साहित्यकार की तुलना सत्तर के दशक के एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन से की गई है । एंग्री यंगमैन को सत्तर के दशक तक कैसे सीमित किया जा सकता है । क्या 74 वर्षीय अन्ना हजारे को भुलाया जा सकता है । मुझे तो लगता है कि सत्तर के दशक से अधिक गुस्सा तो आज की जरूरत है और फिर अमिताभ को एंग्री यंगमैन की उपाधि से क्यों नवाजा गया । वो तो केवल अजमल आमिर कसाब की तरह गढ़ा हुआ खिलौना है । एक को हाफिज सईद ने बनाया था तो दूसरे को सलीम-जावेद की कलम ने गढ़ा था । आपने भी खिलौने की प्रशंसा की लेकिन खिलौना बनाने वालों को सिरे से भुला दिया । किसी का काम, किसी का नाम कहावत शायद इसलिए गढ़ी गई है । जब मैंने उनको फोन किया तो वो अपने तर्क और राय पर कायम थे । जब मैंने उनसे सवाल किया कि आप अमिताभ कि तुलना कसाब से कैसे कर सकते हैं तो उन्होंने दो टूक कहा था कि मैंने अपनी राय लिख दी, आप अपनी लिखें । जनवरी में ही मैंने उनकी इस राय के खिलाफ लेख लिखा । लेख छपने के तीन दिन बाद निदा साहब का फोन आया और उन्होंने कहा कि कर ली ना तुमने अपने मन की । फिर काफी बातें हुई लेकिन मुझे उसमें कहीं से तल्खी नहीं महसूस हुई । मुझे लगा कि उनमें अपनी आलोचना को स्पेस देने का माद्दा था ।
उसके बाद मैंने निदा को और पढ़ना शुरू किया तो मुझे यह लगा कि निदा फाजली हिंदी-उर्दू की तरक्कीपसंद अदबी रवायत के प्रतिनिधि शायर थे । मजरूह सुल्तानपुरी के बाद निदा ऐसे शायर थे जिन्होंने शायरी को उर्दू और फारसी की गिरफ्त से आजाद कर आम लोगों तक पहुंचाया । उन्होंने हिंदी-उर्दू की जुबां में शायरी की । कह सकते हैं कि हिन्दुस्तानी उनकी शायरी में बेहतरीन रूप से सामने आई । ताउम्र निदा हिंदी और उर्दू के बीच की खाई को पाटने में लगे भी रहे । वो इस बात के विरोधी थे कि मुशायरों में सिर्फ शायरों को और कवि सम्मेलनों में सिर्फ कवियों को बुलाया जाए । उन्होंने कई मंचों पर गोपाल दास नीरज के साथ साझेदारी में कविताएं पढ़ी थी । उनकी शायरी को देखते हुए ये लगता था कि उन्होंने हिंदू मायथोलॉजी का गहरा अध्ययन किया था । सूरदास और कबीर के पदों से उन्होंने प्रेरणा ली औक शायरी की । निदा बेखौफ होकर अपनी बात कहते थे । जिस तरह से कबीर ने मस्जिदों और मंदिरों को लेकर काफी बेबाकी से लिखा था उसी तरह से निदा ने भी लिखा- बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान, एक खुदा के पास इतना बड़ा मकान या फिर घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें , किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए । उनकी शायरी के ये स्वर लंबे वक्त तक साहित्य में याद किए जाएंगे ।

निदा फाजली का जन्म 12 अक्तूबर 1938 को दिल्ली में हुआ था और वो अपने माता-पिता की तीसरी संतान थे और उनका असली नाम मुक्तदा हसन था । बंटवारे के वक्त उन्होंने पाकिस्तान जाने की बजाए भारत में ही रहना ताय किया था क्योंकि वो दोस्तों से बिछुड़ना नहीं चाहते थे । उनका बचपन ग्वालियर में बीता था जहां उन्होंने उस वक्त के विक्टोरिया कॉलेज से पढ़ाई पूरी की थी । ग्वालियर में रहते हुए उन्होंने उर्दू अदब में अपनी पहचान बना ली थी । उस वक्त ही उन्होंने अपना नाम बदल कर निदा फाजली रख लिया । उनकी कविताओं का पहला संग्रह लफ्जों का पुल जब छपा तो उन्हें काफी शोहरत मिली, भारत में भी और पाकिस्तान में भी । बाद में वो मुंबई चले गए और फिर वहीं के होकर रह गए । उनकी शायरी परवान चढ़ी और जगजीत सिंह की आवाज ने उनको लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया । कालांतर में उन्होंने फिल्मों के लिए गीत लिखने शुरू किए जो काफी हिट रहे । आप तो ऐसे ना थे, रजिया सुल्तान, सरफरोश, अहिस्ता-अहिस्ता, इस रात की सुबह नहीं और चोर पुलिस में लिखे उनके गीतों ने धूम मचा दी थी । 2013 में निदा फाजली तो भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा था । इसके अलावा भी उनको दर्जनों पुरस्कार मिले थे । निदा फाजली को 1998 में उनकी कृति खोया हुआ सा कुछ के लिए साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया था । खोया हुआ सा कुछ के अलावा सफर में धूप, आंखों भर आकाश, मौसम आते जाते हैं लफ्जों के फूल मोर नाच आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं । दीवारों के बीच उनकी गद्य रचना थी जो आत्मकथात्मक उपन्यास है । इस उपन्यास में उन्होंने विभाजन से लेकर 1965 तक की घटनाओं को सिलसिलेवार ढंग से पेश किया था । इसके बाद उन्होंने दीवारों के बाहर नाम से बाद की घटनाओं को समेटा । फिर तमाशा मेरे आगे का पकाशन हुआ जिसमें निदा के छिटपुट लेख संग्रहीत हैं । अंत में निदा की स्मृति को नमन करते हुए उनकी ही एक कविता हर कविता मुकम्मल होती है, लेकिन वो कलम से कागज पर, जब आती है, थोड़ी सी कमी रह जाती है ।अलविदा निदा साहब ।  

Sunday, February 14, 2016

बार-बार बेनकाब वामपंथी

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आतंकवादी अफजल गुरू को लेकर किए गए एक सेमिनार ने मार्क्सवादियों के मंसूबों को एक बार फिर से उघाड़ कर रख दिया है । वामपंथियों का गढ़ माने जानेवाले जवाहरलाल युनिवर्सिटी में आतंकवादी अफजल गुरू को फांसी पर लटकाए जाने को विषय बनाकर एक सेमिनार का आयोजन किया गया जिसमें भारत विरोधी नारे लगाए गए। इसके अलावा वहां आजाद कश्मीर के पक्ष में भी जमकर नारेबाजी हुई । खबर आने के तीन दिन बाद दिल्ली पुलिस नींद से जागी और धरपकड़ शुरु हुई । युनिवर्सिटी के छात्र संघ के अध्यक्ष को गिरफ्तार किया गया । इसके अलावा दिल्ली के प्रेस क्लब में भी इसी तरह की एक गोष्ठी हुई जिसमें भारत विरोधी नारे लगे । यहां भी केंद्र में अफजल गुरू ही था । उसके अलावा कश्मीर में भी अफजल गुरू के नाम पर कार्यक्रम आदि हुए जहां आजाद कश्मीर की बात की गई और भारत विरोधी नारे लगे । कश्मीर में तो पहले भी भाड़े के आतंकवादियों ने इस तरह की हरकतें की हैं लेकिन चिंता की बात है कि इस तरह के वाकयात कश्मीर से निकलकर दिल्ली तक पहुंच गए हैं । क्या इन आयोजनों को कोई एक सूत्र संचालित कर रहा है । क्या इसके पीछे कोई बड़ी साजिश है । क्या इस तरह के आयोजनों की आड़ में भारत के खिलाफ लोगों को भड़काने की गहरी साजिश रची जा रही है । जांच एजेंसियों को इस बात की भी पड़ताल करनी चाहिए । यह पड़ताल इसलिए भी आवश्यक है कि जेएनयू में जिस तरह से अफजल गुरू और कश्मीर की आजादी के समर्थनमें नारे लगे उसके पाकिस्तान में बैठा आतंकी सरगना हाफिज सईद के नाम से एक ट्वीट भी सामने आया जिसमें इसका समर्थन किया गया । इस बात का पता लगना भी आवश्यक है कि इन कार्यक्रमों की फंडिंग कहां से हो रही है । इस तरह के आयोजनों से जुड़े तमाम लोगों के अतीत को भी खंगालने की आवश्यकता है । इनमें से कई लोग तो वो भी भी हैं जिन्होंने भारत के असहिष्णु होने की आवाज उठाई थी । प्रेस क्लब के सेमिनार हॉल की बुकिंग करवाने वाले अली जावेद तो साहित्य अकादमी के बाहर जुलूस में भी दिखे थे । इन सारे सूत्रों को मिलाकर जांच की जानी चाहिए कि क्या भारत या भारत सरकार को बदनाम करने के लिए कोई संगठन या ग्रुप सक्रिय तो नहीं है । क्या कोई सरगना कहीं दूर बैठकर इन सारे कार्यक्रमों को हवा तो नहीं दे रहा है । पड़ताल इस बात की भी होनी चाहिए कि जब से गैर सरकारी संगठनों की फंडिंग पर भारत सरकार ने सख्ती दिखाई है तब से ही इस तरह के वाकयात क्यों सामने आ रहे हैं । यह पूरा मसला हिंदू या मुसलमान का नहीं है बल्कि ये मामला राष्ट्रवादी और देशद्रोहियों के बीच का है ।
जेएनयू में आतंकवादी अफजल गुरू के के ज्यूडिशियल किलिंग के नाम पर जिस तरह से भारत के खिलाफ जंग की बातें की गई उसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कवच नहीं पहनाया जा सकता है । हमारा संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी जरूर देता है लेकिन वही संविधान इस अधिकार की सीमा भी तय करता है । किसी को भी, मतलब किसी को भी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश के खिलाफ बगावत के लिए उकसाने या उसके लिए माहौल बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है । उन लोगों की मंशा पर भी सवाल खड़े किए जाने चाहिए जो इसको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखने की कोशिश कर रहे हैं । देशद्रोहियों को देशद्रोही कहना ही होगा । भारत की बर्बादीके नारों के समर्थन में किसी तरह की बात करनेवालों को भी देशद्रोहियों की श्रेणी में रखना ही होगा । वो लाख चीखें लेकिन उनके नापाक मंसूबों को बेनकाब करने का वक्त आ गया है । इसको जेएनयू की अस्मिता और गौरवशाली अतीत से जोड़कर देखनेवाले भी सामने आने शुरु हो गए हैं । छात्र संघ के अध्यक्ष की गिरफ्तारी और युनिवर्सिटी कैंपस में पुलिस के प्रवेश को लेकर भी बयानबाजी शुरू हो गई है । ऐसा करनेवाले ललबबुआओं को ये समझना होगा कि देश से बड़ा कोई संस्थान नहीं होता और जहां देश की बर्बादी की बात की जाए वहां पुलिस के जाने से रोकना भी देशद्रोह है । यह अच्छी बात है कि वामपंथियों ने इस बार जेएनयू में जो हुआ उसकी निंदा की परंतु उन्होंने उस निंदा के साथ लेकिन शब्द जोड़कर अपनी राजनीति को बढ़ाने की भी कोशिश की । वो जेएनयू के बारे में या उसके अतीत के बारे में इस तरह की बातें कर रहे हैं जैसे कि वो उनकी मिल्कियत रही हो और अपनी मिल्कियत पर शासन के दौरान जो अच्छे काम किए गए उसका इश्तेहार चस्पां कर रहे हों । अतीत में की गई कथित अच्छाई की आड़ में मिल्कियत पर आए खतरे के लिए बुक्का फाड़कर रो रहे हों । बजाए इस बात के उनको देशद्रोहियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई और जांच की मांग करनी चाहिए थी ।
वामपंथियों की आस्था दरअसल कभी राष्ट्र में कभी रही ही नहीं । एक छोटा सा उदाहरण हमारे देश में सक्रिय राजनीतिक पार्टियों के नाम देखें । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय लोकदल आदि लेकिन जरा वामपंथी पार्टियों के नाम पर नजर डालें भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी ) । ये क्यों । क्योंकि इनको भारत से या किसी भी राष्ट्र से कुछ लेना देना नहीं है । ये खुद को भारत में काम करनेवाली कम्युनिस्ट पार्टी मानती हैं । राष्ट्रवाद इनके सिद्धातों में है ही नहीं । उन्नीस सौ बासठ में जब भारत और चीन में युद्ध हुआ था तब भी वामपंथियों ने ये प्रचारित किया था कि बुर्जुआ नेहरू ही हमलावर थे । 1962 का प्रसंग आते ही अब भी वामपंथी खामोश हो जाते हैं । चीन को दोष देना उनके बूते से बाहर है । सिद्धांत से तो है  ही । कम्युनिस्टों को आपसी बहस आदि में राष्ट्रवादी शब्द अपमानजनक लगता रहा है, वो लोग राष्ट्रवाद को दोष मानते हैं या कालांतर में उन्होंने राष्ट्रवाद को सांप्रदायिकता से जोड़ दिया । उनके आका मार्क्स भी मानते थे कि मजदूरों का कोई देश नहीं होता और जब देश ही नहीं होता तो देश भक्ति या राष्ट्रभक्ति उनके लिए छद्म या छलावा है । यहां यह बताना जरूरी है कि लेनिन ने भी उन्नीस सौ उन्नीस में कोमिंटर्न यानि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल बनाया था क्योंकि तब उनका मानना था कि यूरोप के कम्युनिस्ट अपने पथ से भटक गए हैं । जेएनयू के मामले में भी कम्युनिस्टों का रवैया कुछ उसी तरह का रहा है । कम्युनिस्ट हमेशा से भारत को देश नहीं बल्कि कई राष्ट्रीयताओं का झुंड मानते रहे हैं । यहां तक कि पश्चिम बंगाल सरकार में मंत्री रहे अशोक मित्रा ने भी कश्मीर की आजादी को लेकर एक अंग्रेजी अखबार में लेख लिखा था । हम अगर इस बात पर गहराई से विचार करें तो इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि राष्ट्रवाद में निष्ठा नहीं होने की वजह से ही कम्युनिस्टों का पूरी दुनिया में ये हश्र हुआ है और वो हाशिए पर चले गए। अब भी वो मार्क्सवाद के रोमांटिसिज्म में जी रहे हैं और दुनिया के एक होने का सपना देख रहे हैं । लेकिन इस सपने को पूरा करने के लिए वो ये मानते हैं कि पॉवर ग्रोज़ आउट ऑफ द बैरल ऑफ अ गन । तो यह बात साफ है कि कम्युनिस्ट पूरी दुनिया में सत्ता हासिल करने के लिए तमाम तरह के षडयंत्र आदि में लिप्त रहे हैं और अब भी कोशिश करते रहे हैं ।
राष्ट्रवाद भारत की आजादी की लड़ाई लड़नेवाली कांग्रेस पार्टी के खाते में था लेकिन वामपंथियों के प्रभाव में धीरे-धीरे उन्होंने राष्ट्रवाद को प्लेट में सजाकर भारतीय जनता पार्टी को सौंप दिया । कांग्रेस हमेशा से लेफ्ट टू सेंटर की विचारधारा की पोषक रही है । जिस पार्टी ने आजादी की लड़ाई में देश की अगुवाई की आज उसके हाथ से राष्ट्रवाद का मुद्दा निकल गया है । कांग्रेस पार्टी को इस बात पर आत्ममंथन करना होगा कि ऐसा क्योंकर हुआ । भारत में आतंकवादियों के पक्ष में एकजुट होनेवाले लोग भारत की बर्बादी का दिवास्वप्न भले ही देख रहे हों लेकिन उनको ये समझना होगा कि हमारा महान देश किसी विचारधाऱा का या किसी वाद या संपद्राय का मोहताज नहीं है इसके सहिष्णु नागरिक ही इसकी ताकत हैं । भारत की बर्बादी का सपना देखनेवालों का हश्र पूरी दुनिया ने देखा है । जो पाकिस्तान दिन रात भारत का सपना देखता है वहां की हालत देख लीजिए । भारत से अलग होने के बाद वो एक बार फिर से टूटा, आतंक को पनाह देकर भारत को बर्बाद करने का सपना देखनेवाला पाकिस्तान आज खुद बर्बादी के ज्वालामुखी पर खड़ा है । हमारे देश की बहुलता को बदनाम करनेवाले लोग इतिहास के साथ दफन होते चले गए और भारत आज भी सीना ताने खड़ा है । हां इतना अवश्य करना चाहिए कि भारत की सरजमीं पर कोई अगर इसको बर्बाद करने का सपना देखे तो उसको उसकी सही जगह पर पहुंचा देना चाहिए ।  


Thursday, February 11, 2016

हेडली के खुलासे से पाक बेनकाव

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब बगैर किसी कार्यक्रम के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के पारिवारिक समारोह में शामिल होने के लिए इस्लामाबाद पहुंचे थे तब पूरी दुनिया में उनके इस कदम की तारीफ हुई थी । अंतराष्ट्रीय कूटनीतिक सर्किल में ये संदेश गया था कि भारत ने बेहतर रिश्तों की पहल की है लेकिन उसके बाद क्या हुआ ये सबको मालूम है । पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमला किया जिसमें पांच जवान शहीद हो गए । पठानकोट में आतंकवादी हमले के महीने भर से ज्यादा का वक्त बीत जाने के बाद भी उनपर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी है, वो भी तब जब भारत ने तमा तरह के सबूत भी दिए हैं । बीच में इस तरह की खबर आई थी कि पाकिस्तान ने जैश के ठिकानों पर छापेमारी की लेकिन वो दिखावे की तरह था । पता नहीं किस तरह की कार्रवाई की गई कि पठानकोट हमले का जिम्मेदार आतंकवादी सरगना मौलाना मसूद अजहर खुले आम पाकिस्तान में घूम रहा है । पाकिस्तान लगातार इन आतंकवादी संगठनों को नॉन स्टेट एकटर्स कहकर अपना पल्ला झाड़ता रहा है लेकिन आतंकवादी डेविड हेडली के खुलासों से पाकिस्तान के तमाम दावों की धज्जियां उड़ गई हैं । मुंबई हमलों के बाद से लगातार भारत पाकिस्तान को सबूतों के डोजियर सौंप कर आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहा है लेकिन इतने सालों से पाकिस्तान डिनायल मोड में है । मुंबई में विदेशी नागरिकों समेत एक सौ छियासठ लोगों के कत्ल का जिम्मेदार हाफिज सईद पाकिस्तान में सामाजिक कार्यकर्ता की हैसिय़त से घूमता है । अब जब अमेरिका की जेल में पैतीस साल की सजा काट रहे आतंकवादी डेविड हेडली ने मुंह खोला है तो पाकिस्तान फिर से एक बार बेनकाब हो गया है । डेविड हेडली ने साफ कर दिया है कि पाकिस्तान की बदनाम खुफिया एजेंसी आईएसआई के फंड से आतंकवादियों ने मुंबई हमले को अंजाम दिया था । डेविड हेडली ने साफ कर दिया कि मुंबई हमलों के लिए पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने धन तो मुहैया करवाया ही था, आतंकवादियों को विशेष प्रकार की ट्रेनिंग भी दी थी । डेविड हेडली के खुलासे के बाद एक बात तो साफ हो गई कि भारत में आतंकवादी हमलों में पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की संलिप्तता रही है । डेविड हेडली ने अपनी गवाही में साफ तौर पर कहा कि उसको हमले के टारगेट का वीडियो और फोटो लश्कर के आतंकवादी साजिद मीर के साथ साथ आईएसआई के आला अफसर मेजर इकबाल को सौंपने को कहा गया था । हेडली ने खुलासा किया है कि मुंबई हमले का ब्लू प्रिंट दो हजार छह में बन गया था । उसके मुताबिक हमले के ब्लू प्रिंट को फाइनल करने की मीटिंग में साजिद मीर, अब काफहा और मुजम्मिल मौजूद थे । उसका दावा है कि आईएसआई के कर्नल शाह, लेफ्टिनेंट कर्नल हमजा और मेजर समीर अली की टीम ने ही उसको भारत भेजा था और हमले के जगहों की रेकी करवाई थी । ताज होटल पर हमले की तैयारी के पहले एक नकली ताज होटल बनाया गया और फिर हमले की रूपरेखा बनी । हेडली का सारा खर्च भी आईएसआई ही उठाता था । हलांकि हेडली ने ये भी खुलासा किया है कि उकी पत्नी फैजा ने अमैरिकी दूतावास में हेडली के आतंकवादियों से संपर्क में होने की शिकायत की थी लेकिन अमेरिका ने उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की । ये भी हैरान करनेवाली बात है ।
डेविड हेडली ने खुलासा किया कि उसको दो हजार चार में गुलाम कश्मीर के मुजफ्फराबाद में लश्कर के आतंकवादी कैंप में ट्रेनिंग दी गई थी जहां मुंबई हमले का मास्टरमाइंड हाफिज सईद और जकीउर्ररहमान लखवी भी मौजूद थे । तब हाफिज सईद ने उससे कहा था कि कश्मीर की आजादी की जंग लड़नी है । उस वक्त भी हाफिज सईद और लखवी आईएसआई के अपने आकाओं की सलाह पर काम कर रहे थे । ये इस बात से साफ होता है कि एक बार ट्रेनिंग कैंप में हेडली ने सलाह दी थी कि वो अमेरिकी कोर्ट में लश्कर को आतंकवादी संगठन करार दिए जाने को चुनौती देनी चाहिए । तब लखवी ने उसके इस प्रस्ताव को यह कहकर खारिज कर दिया था कि इस बारे में आईएसआई से पूछना पड़ेगा । दूसरी बात ये निकल कर आ रही है कि आईएसआई मुंबई के उस होटल में हमला करवाना चाहता था जहां देशभर के वैज्ञानिक जुटनेवाले थे लेकिन प्लानिंग में गड़बड़ी और कांफ्रेंस के रद्द हो जाने की वजह से वो अपने नापाक मंसूबों को अंजाम नहीं दे सके । इतने बड़े हमले की योजना सेना और आईएसआई के साथ मिलकर ही बनाई जा सकती है ।

डेविड हेडली के खुलासों के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में एक बार से तनाव बढ़ने की आशंका पैदा हो गई है । डेविड हेडली के खुलासों के बाद पाकिस्तान लगातार दबाव में है लेकिन उसके अतीत को देखते हुए ये तय है कि पाकिस्तान डेविड के खुलासों को नहीं मानेगा । वो इन बयानों को सपोर्ट करनेवाले सबूतों की मांग करेगा जैसा कि पहले भी करता आया है लेकिन भारत को डेविड हेडली के खुलासों के बाद अंतराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को घेरने और आतंकवाद के मुद्दे पर उसको आइसोलेट करने का हथियार मिल गया है । पाकिस्तान के खिलाफ डेविड हेडली के बयानों को लेकर भारत को पूरी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ माहौल बनाना होगा और तमाम देशों को ये बताना होगा कि पाकिस्तान में आतंकवाद की नर्सरी को वहां सरकारी संरक्षण प्राप्त है । आईएसआई और वहां की सेना आतंकवादियों के जरिए भारत में गड़बड़ी फैलाते रहे हैं । यह इस बात से भी साबित होता है कि डेविड हेडली ने अपने बयानों में बताया कि पठानकोट हमले का गुनहगार अजहर मसूद के संबंध भी सेना और आईएसआई से रहे हैं और वो उनकी बैठकों में आता रहा है । तो क्या ये माना जाए कि इस वजह से ही अबतक अजहर मसूद आजाद घूम रहा है । बिल्कुल । फ्रांस पर आतंकी हमले के बाद से पूरे यूरोप में भी आतंक के खिलाफ माहौल बना है । इस माहौल के मद्देनजर भारत को अपनी कूटनीतिक रणनीति में बदलाव करते हुए पाकिस्तान के चेहरे पर चढ़े शराफत के नकाब को हटाने होगा । वहां के दोनों शरीफ- नवाज और राहिल को आईना दिखाने का वक्त आ गया है । 

Sunday, February 7, 2016

कविता के बाद कहानी पर नजर

समकालीन साहित्यक परिदृश्य में इस बात को लेकर सभी पीढ़ी के लेखकों में मतैक्य है कि कविता भारी मात्रा में लिखी जा रही है । यह हिंदी साहित्य का सौभाग्य है कि कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह जैसे बुजुर्ग कवि अब भी रचनारत हैं वहीं बाबुषा कोहली जैसी एकदम युवा कवयित्री भी कविता कर्म में लगी है । किसी भी साहित्य के लिए ये बेहतर बात हो सकती है कि एक साथ करीब पांच पीढ़ियां कविकर्म में सक्रिय हैं । लेकिन जब हम कवियों की संख्या पर नजर डालते हैं तो एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त करीब पंद्रह बीस हजार कवि एक साथ कविताएं लिख रहे हैं । इंटरनेट और सोशल मीडिया के विस्तार ने हिंदी में कवियों की एक नई पौध के साथ साथ एक नई फौज भी खड़ी कर दी है । जब देश में नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ था तो दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में मैनेजमेंट पढ़ानेवाले संस्थानों की भरमार हो गई थी । उस वक्त ये जुमला चलता था कि दिल्ली के भीड़भाड़ वाले बाजार, करोलबाग, में अगर पत्थरबाजी हो जाए तो हर दूसरा जख्मी शख्स एमबीए होगा । कहने का मतलब ये था कि उस वक्त एमबीए छात्रों का उत्पादन भारी संख्या में हो रहा था क्योंकि हर छोटी बड़ी कंपनी में मैनजमेंट के छात्रों की मांग बढ़ रही थी । मांग और आपूर्ति के बाजार के नियम को देखते हुए मैनजमेंटके कॉलेज खुलने लगे थे और उत्पाद की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं गया था । नतीजा हम सबके सामने है । नब्बे के दशक के आखिरी वर्षों में पांच से छह हजार के मासिक वेतन पर एमबीए छात्र उपलब्ध थे । बाद में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए मैनजमेंट के ये संस्थान धीरे-धीरे बंद होने लगे । सोशल मीडिया और इंटरनेट के फैलाव ने कविता का भी इलस वक्त वही हाल कर दिया है । एमबीए छात्रों पर कहा जानेवाले जुमला कवियों पर लागू होने लगा है । साहित्यक गोष्ठियों मं कहा जाने लगा है कि वहां उपस्थित हर दूसरा शख्स कवि है । दरअसल सोशल मीडिया ने इसको अराजक विस्तार दिया। साठ के दशक में जब लघु पत्रिकाओं का दौर शुरू हुआ तो कवियों को और जगह मिली लेकिन उनको पत्रिकाओं के संपादकों की नजरों से पास होने के बाद स्तरीयता के आधार पर ही प्रकाशित होने का सुख मिला था । कालांतर में लघु पत्रिकाओं का विस्तार हुआ और हर छोटा-बड़ा लेखक पत्रिका निकालने लगा । यह इंटरनेट का दौर नहीं था । साहित्यक रुझान वाले व्यक्ति की ख्वाहिश साहित्यक पत्रिका का संपादक बनने की हुई । ज्यादातर तो बने भी । चूंकि इस तरह की पत्रिकाओं के सामने आवर्तिता को कायम रखने की चुनौती नहीं होती थी और वो अनियतकालीन होती थी लिहाजा एक अंक निकालकर भी संपादक बनने का अवसर प्राप्त हो जाता था । संपादक को अपनी कविताएं अन्यत्र छपवाने में सहूलियत होने लगी । सत्तर से लेकर अस्सी के अंत तक सहूलियतों का दौर रहा । इक्कीसवीं सदी में जब इंटरनेट का फैलाव शुरु हुआ और फेसबुक और ब्लॉग ने जोर पकड़ा तो कवियों की आकांक्षा को पंख लग गए । संपादक की परीक्षा से गुजरकर छपने का अवरोध खत्म हो गया । हर कोई स्वयं की मर्जी का मालिक हो गया । जो लिखा वही पेश कर दिया । इस सुविधा ने कवियों की संख्या में बेतरह इजाफा कर दिया । एक बड़ी लाइन और फिर एक छोटी लाइन की कविता लिखने के फॉर्मूले पर कविता धड़ाधड़ सामने आने लगी । वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने अपने एक साक्षात्कार में कहा भी था कि - हिंदी कविता को लेकर एक तरीके का भ्रम व्याप्त है और इस भ्रम को वामपंथी आलोचकों ने बढ़ावा दिया वामपंथी आलोचकों ने इस बात पर जोर दिया कि कथ्य महत्वपूर्ण है और शिल्प पर बात करना रूपवाद है नरेश सक्सेना ने कहा था कि कथ्य तो कच्चा माल होता है और शिल्प के बिना कविता हो नहीं सकती इन दिनों कविता का शिल्प छोटी बड़ी पंक्तियां हो गई हैं नरेश सक्सेना के मुताबिक इन दिनों खराब कविताओं की भरमार है वो साफ तौर पर कहते हैं कि बगैर शिल्प के कोई कला हो ही नहीं सकती है वो कहते हैं कि सौंदर्य का भी एक शिल्प होता है नरेश सक्सेना के मुताबिक इंटरनेट और सोशल मीडिया में कोई संपादक नहीं होता, वहां तो उपयोग करनेवाले स्वयं प्रकाशक होते हैं प्रकाशन की इस सहूलियत और लोगों के लाइक की वजह से लिखने वाला भ्रम का शिकार हो जाता है  कवियों की संख्या में इजाफे की एक और वजह हिंदी साहित्य में दिए जानेवाले पुरस्कार हैं । कविता पर जिस तरह से थोक के भाव से छोटे बड़े, हजारी से लेकर लखटकिया पुरस्कार दिए जा रहे हैं उसने भी कविकर्म को बढ़ावा दिया । खैर ये तो रही कविता की बात लेकिन अब साहित्य में एक नई प्रवृत्ति सामने आ रही है ।

हिंदी के ज्यादातर कवियों में अब कहानी लिखने की आकांक्षा और महात्वाकांक्षा जाग्रत हो गई है । कविता के बाद अब कहानी पर कवियों की भीड़ बढ़ने लगी है । दरअसल इसके पीछे प्रसिद्धि की चाहत तो है ही इसके अलावा उनके सामने खुद को साबित करने की चुनौती भी है । कविता की दुनिया से कहानी में आकर उदय प्रकाश, संजय कुंदन, नीलेश रघुवंशी, सुंदर ठाकुर आदि ने अपनी जगह बनाई और प्रतिष्ठा अर्जित की । उदय प्रकाश ने तो एक के बाद एक बेहतरीन कहानियां लिखकर साहित्य जगत में विशिष्ठ स्थान बनाया । उनकी लंबी कहानियां उपन्यास के रूप में प्रकाशित होकर पुरस्कृत भी हुई । इसी तरह से संजय कुंदन ने भी पहले कविता की दुनिया में अपना मुकाम हासिल किया और फिर कहानी और उपन्यास लेखन तक पहुंचे । लेकिन पद्य के साथ साथ गद्य को साधना बेहद मुश्किल और जोखिम भरा काम है । हाल के दिनों में जिस तरह से फेसबुक आदि पर सक्रिय कविगण कहानी की ओर मुड़े हैं उससे कहानी का हाल भी कविता जैसा होने की आशंका पैदा हो गई है । लघु पत्रिकाओं के धड़ाधड़ छपने और बंद होने के दौर में नामवर सिंह ने एक बार कहा था हिंदी में अच्छी कहानियां नहीं लिखी जा रही हैं, यह चिंता का विषय नहीं है, बल्कि चिंता का विषय यह है कि उसमें अच्छी और बुरी कहानियों की पहचान लुप्त होती जा रही है । नामवर जी की वो चिंता वाजिब थी । बल्कि अब तो ये खतरा पैदा होने लगा है कि अच्छी कहानियां बुरी कहानियों दबा ना दें । आज लिखी जा रही कहानियों को देखें तो दो तीन तरह की फॉर्मूलाबद्ध कहानियां आपको साफ तौर पर दिखाई देती हैं । एक तो उस तरह की कहानी बहुतायत में लिखी जा रही है जो बिल्कुल सपाट होती है । इन कहानियों में रिपोर्ताज और किस्सागोई के बीच का फर्क धूमिल हो गया है । भोगे हुए या देखे हुए यथार्थ को नाम पर घटना प्रधान कहानी पाठकों के सामने परोसी जा रही है जिसके अंत में जाकर पाठकों को चौंकाने की तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है । इसके अलावा कुछ कहानियों में भाषा से चमत्कार पैदा करने की कोशिश की जाती हैं। ग्राम्य जीवन पर लिखनेवाले कहानीकार अब भी रेणु की भाषा के अनुकरण से आगे नहीं बढ़ पाए हैं । ग्राम्य जीवन चाहे कितना भी बदल गया हो हिंदी कहानी में गांव की बात आते ही भाषा रेणु के जमाने की हो जाती है । इस दोष के शिकार बहुधा वरिष्ठ कथाकार भी हो जा रहे हैं । सुरेन्द्र चौधरी ने एक जगह लिखा भी था कि रचनाधर्मी कथाकार जीवन के गतिमान सत्य से अपने को जोड़ता हुआ नए सत्यों का निर्माण भी करता है । नए सत्यों के निर्माण पर कुछ लोग मुस्कुरा सकते हैं । उनके अनुसार सत्य का निर्माण तो वैज्ञानिकों का क्षेत्र है साहित्यकार का नहीं ।  सत्य के निर्माण से हमारा तात्पर्य भाव-संबंधों के निर्माण से है, वस्तु निर्माण से नहीं । रचनाधर्मी कथाकार समाज द्वारा गढ़े गए नए सत्यों से भावात्मक संबंध स्थापित करता हुआ उन्हें नए परिप्रेक्ष्य के योग्य बना देता है । सामयिकता का शाब्दिक रूप से पीछा करनेवाले लोग रचनाधर्मी नहीं होते ।सुरेन्द्र चौधरी ने ये बातें काफी पहले कही थीं लेकिन आज भी वो मौजूं है । ग्राम्य जीवन से इतर भी देखें तो आज की कहानी में आधुनिकता के नाम पर वर्तमान का पीछा करते हुए कहानीकार लोकप्रिय बनने की चाहत में दिशाहीन होता चला जा रहा है । मानविीय संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने के चक्कर में ऊलजूलल लिखकर पाठकों और आलोचकों का ध्यान खींचने की जुगत शुरू हो गई है ।  जिसकी वजह से आज हिंदी कहानी के सामने पठनीयता का संकट खड़ा होने की आशंका बलवती हो गई है । दरअसल साहित्य में इस तरह के दौर आते जाते रहते हैं लेकिन इस बार ये दौर सोशल मीडिया के अराजक प्लेटफॉर्म की वजह से गंभीर खरते के तौर पर सामने है । यह देखना दिलचचस्प होगा कि अच्छी कहानी खुद को किस तरह से बचा पाती है ।   

सितारों का साहित्य में आगमन

इन दिनों फिल्मी कलाकारों और उनपर लिखी जा रही किताबें बड़ी संख्या में बाजार में आ रही हैं । फिल्मी कलाकारों या उनपर लिखी किताबें ज्यादातर अंग्रेजी में आ रही हैं और फिर उसका अनुवाद होकर वो हिंदी के पाठकों के बीच उपलब्ध हो रही हैं । पहले गाहे बगाहे किसी फिल्मी लेखक की जीवनी प्रकाशित होती थी या फिर किसी और अन्य लेखक के साथ मिलकर कोई अभिनेता अपनी जिंदगी के बारे में किताबें लिखता था लेकिन अब परिस्थिति बदल गई है । फिल्मी सितारे खुद ही कलम उठाने लगे हैं । पिछले दिनों नसीरुद्दीन शाह ने अपनी आत्मकथा लिखी । उसके पहले करिश्मा और करीना कपूर की किताबें आई । दो हजार बारह में करीना कपूर की किताब- द स्टाइल डायरी ऑफ द बॉलीवुड दीवा आई जो उन्होंने रोशेल पिंटो के साथ मिलकर लिखी थी । उसके एक साल बाद ही उनकी बड़ी बहन करिश्मा कपूर की किताब- माई यमी मम्मी गाइड प्रकाशित हुई जो उन्होंने माधुरी बनर्जी के साथ मिलकर लिखी । इसके पीछे हम पाठकों के बड़ा बाजार को देख सकते हैं । पाठकों के मन में इच्छा होती है कि रूपहले पर्दे पर उनका जो नायक है उसकी निजी जिंदगी कैसी रही, उसका संघर्ष कैसा रहा, उसकी पारिवारिक जिंदगी कैसी रही आदि आदि । हम कह सकते हैं कि भारतीय मानसिकता में हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसके पड़ोसी के घर में क्या घट रहा है ये जाने । यही मानसिकता फिल्मी सितारों पर लिखी जा रही किताबों के लिएएक बड़ा बाजार उपलब्ध करवाती है । दूसरे फिल्मी सितारों के अंदर एक मनोविज्ञान काम करता है कि अगर वो किताबें लिखेगा तो बॉलीवुड से लेकर पूरे समाज में उनकी छवि गंभीर शख्सियत की बनेगी । नसीरुद्दीन शाह की आत्मकथा को साहित्य जगत में बेहद गंभीरता से लिया गया ।

अभी हाल ही में शत्रुघ्न सिन्हा की जीवनी आई है जो भारती प्रधान ने लिखी है । इसी तरह से स्मिता पाटिल पर मैथिली राव की किताब और सलमान खान पर जसिम खान की किताब प्रकाशित हुई है । जीवनी और आत्मकथा से अलग हिंदी फिल्मों को लेकर कई गंभीर किताबें अंग्रेजी में प्रकाशित हुई हैं । जैसे एम के राघवन की डायरेक्टर्स कट, अनुराधा भट्टाचार्य और बालाजी विट्ठल की पचास हिंदी फिल्मों पर लिखी गई किताब गाता रहे मेरा दिल, प्रकाश आनंद बक्षी की डायरेक्टर्स डायरीज आदि प्रमुख हैं । ये किताबें फिल्मी दुनिया की सुनी अनसुनी कहानियों को सामने लाकर आती हैं । पचास फिल्मी गीतों को केंद्र में रखकर लिखी गई किताब में उन गानों के लिखे जाने से लेकर उनकी रिकॉर्डिंग तक की पूरी प्रक्रिया को रोचक अंदाज में लिखा गया है । इसी तरह से डॉयरेर्टर्स डायरी में गोविंद निहलानी, सुभाष घई, अनुराग बसु, प्रकाश झा, विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धूलिया समेत कई निर्देशकों के शुरुआती संघर्षों की दास्तां है । इसके बरक्श अगर हम हिंदी में देखें तो फिल्म लेखन में लगभग सन्नाटा दिखाई देता है । कुछ समीक्षकनुमा लेखक फिल्म समीक्षा पर लिखे अपने लेखों को किताब की शक्ल दे देते हैं या फिर कई लेखकों के लेखों को संपादित कर किताबें बाजार में आ जाती है । दरअसल ये दोनों काम गंभीर नहीं हैं और हिंदी के पाठकों की क्षुधा को शांत कर सकते हैं । पाठक इन किताबों को उसके शीर्षक और लेखक के नाम को देखकर खरीद लेता है लेकिन पढ़ने के बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करता है । दरअसल हिंदी के लेखकों ने फिल्म को गंभीरता से नहीं लिया और ज्यादातर फिल्म समीक्षा तक ही फंसे रहे । हिंदी साहित्य में पाठकों को विविधता का लेखन उपलब्ध करवाना होगा ताकि भाषा की चौहद्दी का विस्तार हो सके ।