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Thursday, September 29, 2016

जनता के अधिकार पर हावी कॉरपोरेट

रिलायंस जियो के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने जब एलान किया था कि जियो के फोन से तीन महीने के लिए पूरे देश भर में फोन कॉल और डाटा सर्विस मुफ्त होगी तो उसके बाद जियो के सिम खरीदने के लिए लंबी लंबी कतारें लगने लगी थी । उस वक्त जियो खरीदकर मुफ्त कॉल का सपना देखनेवाले देशभर के ग्राहकों को इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि इससे दूसरे नेटवर्क पर फोन करना मुश्किल होगा । देश की जनता को मोबाइल नेटवर्क की तकनीक और उसके लाइसेंस की गूढ़ शर्तों का पता नहीं था लेकिन जब जियो से दूसरे नेटवर्क पर फोन करने लगे तो लगातार ये संदेश मिलने लगा कि इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं कृपया थोड़ी देर बाद डायल करें । जियो से मुफ्त कॉल कर पाने में जब दिक्कत होने लगी तो लोगों ने पता लगाना शुरू किया और मीडिया में भी इसको लेकर चर्चा शुरू हो गई जिससे निकलकर आया कि जियो को आइडिया, वोडाफोन और एयरटेल से पर्याप्त संख्या में प्वाइंट ऑफ इंटरकनेक्शन नहीं मिल रहा है । ये वो तकनीक है जिसके जरिए एक नेटवर्क से दूसरे पर आसानी से कॉल की जा सकती है । जियो का आरोप है कि चौदह सितंबर तक उसे एयरटेल ने सिर्फ छह सौ इक्यावन, वोडाफोन ने चार सौ बासठ और आइडिया ने पांच सौ तेइस प्वाइंट ऑफ इंटरकनेक्शन दिए हैं जबकि कॉल के सुचारू रूप से होने के लिए यह आवश्यक है कि हर ऑपरेटर कम से कम चार से पांच हजार प्वाइंट ऑफ इंटरकनेक्शन दे । हलांकि अन्य ऑपरेटरों का दावा है कि वो धीरे धीरे प्वाइंट ऑफ इंटरकनेक्शन को बढ़ा रहे हैं । टेलीफोन सेक्टर की नियामक संस्था टीआरएआई के मुताबिक रिलायांस जियो और अन्य नेटवर्क के बीच की जानेवाली क़ल के फेल होने की संख्या बहुत ज्यादा है । जानकारों के मुताबिक करीब अस्सी से नब्बे फीसदी कॉल फेल हो रही है । जबकि इस सेक्टर से जुड़े लोगों का मानना है कि कॉल  फेल होने की दर आधी फीसदी होनी चाहिए । टीआरएआई ने इसको बेहद गंभीरता से लिया है और कहा है कि इस तरह की स्थिति किसी भी हालात में स्वीकार्य नहीं है । टीआरएआई के मुताबिक इतनी बड़ी संख्या में कॉल के फेल होने से ग्राहकों को परेशानी हो रही है । दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस बी सी पटेल मे संचार मंत्री को पत्र लिखकर आरोप लगाया है कि एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया अपने लाइसेंस की शर्तों का उल्लंघन कर रहे हैं जिसकी वजह से उनपर जुर्माना लगाया जाना चाहिए । जस्टिस पटेल ने तो इन तीनों ऑपरेटर पर नौ हजार करोड़ से ज्यादा का जुर्माना लगाने का अनुरोध किया है ।
जब तक मोबाइल फोन और डाटा सर्विस के क्षेत्र में जियो का प्रवेश नहीं हुआ था तबतक ज्यादातर ग्राहक थ्री जी और टू जी सेवा का उपयोग कर रहे थे । थ्री जी और टू जी में कॉल ड्राप की इतनी शिकायतें आ रही थी कि उस वक्त के संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद को बार-बार इस बाबत सफाई देनी पड़ती थी । डाटा स्पीड भी बेहद कम थी और थ्री जी इस्तेमाल करनेवालों को बहुधा 2 जी सेवा मिलती थी । जियो के आने के बाद से कॉल और डाटा दोनों सर्विस काफी बेहतर हो गई।  जियो की डाटा सर्विस का इस्तेमाल करनेवाले उपभोक्ता इसकी स्पीड से बेहद खुश दिख रहे हैं और विशेषज्ञ इसको विश्वस्तरीय बता रहे हैं । विशेषज्ञों के मुताबिक इस सर्विस से लोगों को कई फायदे होंगे । स्पीड बेहतरीन मिलने के अलावा इसकी दर भी मौजूदा ऑपरेटर के दरों से करीब पैंतीस फीसदी कम होने का अनुमान है । दरअसल अगर देखें तो जियो ने जिस तरह से दिसंबर के बाद डाटा के साथ जीवन भर कॉल की सुविधा मुफ्त देने का एलान किया है उससे पहले से मौजूद टेलीफोन कंपनियों के होश उड़े हुए हैं । जियो के प्री लांच ऑफर ने ही डाटा बाजार के करीब बीस फीसदी से ज्यादा हिस्से पर कब्जा जमा लिया है ।
जियो की बेहतर सेवा को देखते हुए मौजूदा कंपनियों के कई ग्राहक माइग्रेट होकर इस नेटवर्क पर आना चाहते हैं लेकिन जियो का आरोप है कि मोबाइल कंपनियां मोबाइल नंबर पोर्टेबिलिटी को भी रोक रही हैं । कंपनियों के बीच आरोप प्रत्यारोप के इस दौर में ग्राहकों का नुकसान हो रहा है । सवाल यही है कि अगर कोई नई कंपनी आ रही है और बेहतर और सस्ती सेवा देने का दावा कर रही है तो लाइसेंस की शर्तों के मुताबिक उसको काम करने का माहौल और सहयोग क्यों नहीं मिलना चाहिए । प्वाइंट ऑफ इंटरकनेक्शन के लिए हर मोबाइल कंपनी जिसके नेटवर्क का इस्तेमाल करती है उसको चौदह पैसे प्रति मिनट के हिसाब से भुगतान करती है, बावजूद इस नियम के जियो को नियमानुसार प्वाइंट ऑफ इंटरकनेक्शन नहीं देना ग्राहकों के साथ छल है । जियो के विरोध में खड़ी कंपनियों की दलील है कि प्वाइंट ऑफ इंटरकनेक्शन के इस चौदह पैसे प्रति मिनट के भुगतान से नीचे ग्राहकों से वसूल नहीं किया जा सकता है जबकि जियो वॉयस कॉल तो मुफ्त में दे रही है । इस वजह से बाजार में अफरातफरी का माहौल हो सकता है ।
दरअसल इसके पीछे कुछ लोग कॉरपोरेट वॉर भी देख रहे हैं । संभव है क्योंकि जिस तरह से मोबाइल ऑपरेटरों की संस्था सेलुलर ऑपरेटर एसोसिएशन ऑफ इंडिया यानि सीओएआई में एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया एकजुट होकर जियो के खिलाफ खड़े हैं उससे इसके संकेत तो मिलते हैं । जियो का आरोप है कि सीईएओई के नियम इन तीन कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाए जा रहे हैं क्योंकि इस संस्था में इनका ही दबदबा है । वार पलटवार के इस खेल के बीच नुकसान तो देश की आम जनता को हो रहा है जो बेहतर और सस्ती सेवा का फायदा नहीं उठा पा रही है । अब सवाल यही उठता है कि क्या देश की जनता को विश्वस्तरीय सेवाओं का लाभ उठाने की आजादी नहीं मिलनी चाहिए । जनता को अगर कोई सेवा सस्ती दरों पर उपलब्ध कराया जा रहा है तो इसको रोकने की कवायद क्यों । क्या जनता की आकांक्षाओं के लिए काम करने वाली चुनी हुई सरकार का दायित्व नहीं है कि वो जनहित में इस तरह की हरकतों पर रोक लगाए ।


Tuesday, September 27, 2016

बायोपिक की आड़ में कारोबार ·

इन दिनों टीम इंडिया के कैप्टन कूल महेन्द्र सिंह धौनी पर बनी बॉयोपिक का जमकर प्रचार प्रसार हो रहा है । खुद धौनी इस फिल्म की स्टार कास्ट के साथ शहर शहर घूम रहे हैं । इस फिल्म का नाम है – एम एस धोनी, द अनटोल्ड स्टोरी ये आगामी शुक्रवार को रिलीज होने जा रही है । इंडस्ट्री से जुड़े लोगों का कहना है कि धौनी पर बनी ये फिल्म साठ देशों के पैंतालीस सौ स्क्रीन पर एक साथ रिलीज होगी । इसको तमिल और तेलुगू में भी डब किया जा रहा है । दरअसल होता यह है कि स्टार खिलाड़ियों पर फिल्म बनाने के लिए  बॉलीवुड के फिल्मकार और निर्देशक ज्यादा उत्साहित रहते हैं । धौनी की इस फिल्म के प्रोड्यूसर उनके मित्र अरुण पांडे ही बताए जा रहे हैं । दरअसल होता ये है कि जब आप किसी आइक़न के जीवन पर फिल्म बनाते हैं तो आपको एक तैयार बाजार मिलता है । तैयार बाजार मिलने से मुनाफे की गुंजाइश ज्यादा रहती है । तैयार बाजार को भुनाने के लिए फिल्मकार उन खिलाड़ियों की जिंदगी की ओर आकर्षित होते हैं जिनके साथ किंवदंतियां, किस्से कहानियां जुड़े हों और लोग उसके बारे में जानने के लिए उत्सुक हों । अब धौनी की जिंदगी में सफलता के शिखर पर पहुंचने के बाद के साथ साथ उनकी कहानी लगातार किंवदंती बनती जा रही है । कई बार ये किस्सा सामने आया है कि किस तरह से धौनी अपना एक क्रिकेट मैच खेलने के लिए रांची से पूर्वोत्तर के किसी राज्य में पहुंचे थे । इसके अलावा रेलवे के टिकट चैकर की नौकरी से अरबपति होने की दास्तां अपने आप में दिलचस्प है । फिल्म रिलीज होने के पहले धौनी के प्रेम संबंधों को भी धीरे से प्रचारित कर दर्शकों के बीच उत्सकुकता का वातावरण बनाया गया । बताया तो ये भी गया कि धौनी का पहला प्यार कोई और थी जिससे उनकी मोहब्बत अंजाम तक नहीं पहुंच पाई । कुछ इमोशनल सी वजह भी हवा में तैर रही है । दर्शकों को फिल्म के रिलीज होने का इंतजार है ताकि उनकी ये क्षुधा शांत हो सके । इसके अलावा रीयल लाइफ में अपने नायक को रूपहले पर्दे पर देखने की ख्वाहिश भी दर्शकों को सिनेमा हॉल तक खींच लाती है ।
जब फिल्म पान सिंह तोमर आई तो उसकी सफलता ने लोगों को चौंकाया था । कम लागत में बनी इस फिल्म को तारीफ तो मिली ही थी इसने जमकर मुनाफा भी कमाया था । तोमर पर बने बायोपिक को लोगों ने पसंद किया था क्योंकि इसमें एक फौजी के बागी बनने की कहानी थी । फौज, अंतराष्ट्रय खिलाड़ी, बंल, बीहड़ सबने मिलकर एक परफैक्ट स्क्रिप्ट तैयार कर दी थी । इस फिल्म की सफलता के बाद हिंदी फिल्मों में बॉयोपिक का दौर चल पड़ा । दो हजार तेरह में ओलंपियन मिल्खा सिंह पर बनी फिल्म भाग मिल्खा भाग ने तो सफलता के तमाम रेकॉर्ड तोड़ते हुए सौ करोड़ मुनाफे वाले बिजनेस क्लब में जगह बनाई थी । इसी तरह बॉक्सर मैरी कॉम पर प्रियंका चोपड़ा अभिनीत बॉयोपिक भी हिट रही थी और इंडस्ट्री के अनुमान के मुताबिक उसने बासठ करोड़ का बिजनेस किया था ।
हलांकि टीम इंडिया के पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन पर बनी फिल्म परफेक्ट होने के बावजूद हिट नहीं हो सकी । अजहर की जिंदगी में एक सितारे के बनने की दास्तां है, बॉलीवुड नायिका के साथ प्रेम है, विवाह है और फिर है अलगाव है । फिर वो मैच फिक्सिंग के जाल में फंसता और निकलता है । इस बीच वो राजनीति में आता है और सांसद भी बनता है । इस दौर में उसके परिवार में हादसा भी होता है और वो अपने बेटे को एक हादसे में गंवा देता है । इन तमाम दुखों के बीच एक बैडमिंटन खिलाड़ी से उसके रोमांस की खबरें आम होती है हलांकि वो प्यार परवान नहीं चढ़ सकता है ।
बॉलीवुड की नजर अजहर और धोनी पर तो जाती है लेकिन उनकी नजर सचिन तेंदुलकर या फिर सुनील गावस्कर पर नहीं जाती है । ये दोनों क्रिकेटर महानतम खिलाड़ियों में से एक हैं लेकिन इनके संघर्ष में मसाला नहीं लिहाजा इनपर बॉलीवुड की नजर नहीं गई ।
बॉलीवुड में नजर होती है मसाला और मुनाफा पर जबकि हॉलीवुड कला पर भी अपना ध्यान केंद्रित करता है । हमारे देश के फिल्मकार बाबा साहब भीमराव अंबेडकर या फिर सरदार पटेल पर फिल्म बनाने के लिए सरकार का मुंह जोहते हैं और सरकारी मदद के बाद ही इन शख्सियतों पर फिल्में बनाते हैं । यह विंडबना ही कही जाएगी कि गांधी पर अबतक की सबसे बेहतरीन फिल्म भारत से बाहर बनी है । रिचर्ड अटनबरो को ही गांधी में संभावना नजर आई और उन्होंने विश्व प्रसिद्ध फिल्म का निर्माण किया । गांधी पर बनी ये फिल्म उन्नीस सौ बयासी में रिलीज हुई थी । बेन किंग्सले अभिनीत इस फिल्म की याद करीब तीन दशक से ज्यादा बीत जाने के बाद भी भारतीय मानस में ताजा है । दरअसल बॉलीवुड में फिल्म मेकिंग शुद्ध कारोबार है और फिल्म या कहानी का चयन मुनाफे को ध्यान में रखकर किया जाता है । बॉयोपिक अगर ज्यादा बन रहे हैं तो इसके पीछे भी भाग मिल्खा भाग और मैरी कॉम की सफलता है । इस बात को फिल्म से जुड़े लोग स्वीकार भी करते हैं ।
एक और बात जो रेखांकित की जानी चाहिए वो ये कि जो शख्स अभी अपनी जिंदगी में सफलता के शीर्ष पर हैं या जो अपनी जिंदगी अभी जी रहा है और उम्मीद की जा रही है कि उसकी सफलताओं की सूची और लंबी हो सकती है उसपर बॉयोपिक बनाने का औतित्य क्या है । इतनी जल्दबाजी में क्यों । अब अगर देखा जाए तो मैरी कॉम पर बनी फिल्म उनकी अधूरी जिंदगी को ही दिखाती है । मिल्खा पर फिल्म बनी तो वो ठीक है, पान सिंह तोमर पर फिल्म भी औतित्यपूर्ण है लेकिन धौनी, अजहर मैरी कॉम आदि पर बनने वाली बॉयोपिक पैसा कमाने की एक तिकड़म है और आड़ है कला की ।


Monday, September 26, 2016

सियासत वाले साहित्यकार

प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन के अपने भाषण में कहा था कि साहित्य देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है । पता नहीं जब प्रेमचंद ने ऐसा कहा था तो उनको इस बात का भान था या नहीं कि जिस प्रगतिशील लेखक संघ के अघिवेशन में वो ये बातें कह रहे हैं दरअसल वहीं से साहित्य के राजनीति के पीछे चलनेवाली मशाल के तौर पर बीजोरोपण हो रहा था । प्रेमचंद के लिए साहित्य, राजनीति की पथप्रदर्शक और उसको आलोक देनेवाली है लेकिन लेखक संघों अपने क्रयाकलापों से इसको निगेट किया और वो अपनी अपनी पार्टियों की पिछलग्गू बनकर मशाल थामे चलती रही । बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पूरे देश ने देखा कि असहिष्णुता को लेकर साहित्य ने किस तरह से राजनीति का पल्लू थामा । तर्कवादी डाभोलकर, कन्नड लेखक प्रोफेसर कालबुर्गी की हत्या को लेकर कुछ लेखकों और कलाकारों ने जमकर सियासी दांव-पेंच चले । देश में केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ वातावरण बनाने की कोशिश हुई थी । अब एक बार फिर पुरस्कार वापसी ब्रिगेड के लेखकों- कलाकारों और उनके पैरोकारों ने कश्मीर के मसले पर एक अपील जारी की है । उड़ी में सेना के कैंप पर पाकिस्तान समर्थक आतंकवादियों के हमले में अठारह जवानों के शहीद होने के बाद छियालिस लेखकों, पत्रकारों, रंगकर्मियों आदि के नाम से अशोक वाजपेयी ने एक अपील जारी की है । इस अपील में अशोक वाजपेयी ने दावा किया है कि अलग-अलग भाषा, क्षेत्र और धर्म के सृजनशील समुदाय के लोग कश्मीर भाई-बहनों के दुख से दुखी हैं । अपने अपील में इन लेखकों-कलाकारों ने कहा है कि कश्मीर में जो हो रहा है वो दुर्भाग्यपूर्ण, अन्यायसंगत और अनावश्यक है । अब शुरुआती पंक्तियों को जोड़कर देखें तो यह लगता है कि अपीलकर्ता कश्मीर भाई-बहनों और बच्चों की पीड़ा को दुर्भाग्यपूर्ण, अन्नायसंगत और अनावश्यक बता रहे हैं । कश्मीरियत की याद दिलाते हुए अशोक वाजपेयी और छियालीस अन्य लोग बातचीत पर जोर दे रहे हैं । कश्मीर समस्या का बातचीत से हल निकालने की नीति हमेशा से रही है । सरकारें चाहे बदलती रही हों लेकिन इस रास्ते से कोई भी सरकार हटी नहीं । लेकिन सवाल यह भी खड़ा होता है कि बातचीत किससे ? देश के उन गद्दारों से जो भारतीय भूमि पर रहते हुए, भारतीय सुरक्षा व्यवस्था में महफूज रहते हुए, भारतीय पासपोर्ट रखते हुए पाकिस्तान की पैरोकारी करते हैं । क्या हुर्रियत समेत ऐसे नेता कश्मीर की जनता की नुमाइंदगी करते हैं । चलिए कुछ देर के लिए मान भी लिया जाए कि इस तरह के लोगों से बात करके भी अगर कश्मीर में सांति बहाली होती है तो बात करनी चाहिए । क्या अशोक वाजपेयी और ये तमाम लेखक-कलाकार-पत्रकार उन तस्वीरों को भूल गए जब सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर गया था तो सीताराम येचुरी इनके घर पहुंचे थे । इन्होंने उनेक मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया था । बातचीत तो पिछली सरकार के दौरान दिलीप पड़गांवकर और राधा कुमार की टीम ने भी की थी, उसका क्या हुआ ।इन अपीलकर्ताओं से ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि कश्मीर में आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ चल सकती है क्या । पूछा तो इनसे ये भी जाना चाहिए कि क्या भारतीय गणराज्य के खिलाफ विषवमन करनेवालों से भी बातचीत की जानी चाहिए । सवाल तो इनसे ये भी पूछा जाना चाहिए कि क्या ये अपीलकर्ता बुरहान वानी को आतंकवादी मानते हैं या नहीं । इस मसले पर अपील खामोश हैं । दरअसल अपीलकर्ता लेखकों की सूची को देखें तो ये साफ नजर आता है कि इसमें से कई लोग असहिष्णुता के मुद्दे पर बेवजह का वितंडा करनेवाले रहे हैं । उस वक्त उनके आंदोलन से पूरी दुनिया में एक गलत संदेश गया था और देश की बदनामी भी हुई थी । उन्हें ये बात समझनी चाहिए कि कश्मीर का मसला बेहद संजीदा है और इस तरह की अपील से देश को बदनाम करनेवालों को बल मिलता है । समझना तो उन्हें ये भी चाहिए कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है ।
इन लेखकों कलाकारों की कश्मीर को लेकर चिंता जायज है लेकिन चिंता का इजहार करने का वक्त इन्होंने गलत चुना । आतंकवादी बुरहान वानी के ढेर किए जाने के बाद जब घाटी में विरोध प्रदर्शन हो रहा था तब ये खामोश थे लेकिन उड़ी में सेना के अठारह जवानों के शहीद होने के बाद इनको कश्मीर के लोगों का दर्द परेशान करने लगा । अशोक वाजपेयी ने ये अपील बाइस सितंबर को सार्वजनिक की । इसके एक दिन पहले संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कश्मीर के मुद्दे पर भारत को बहुत बुरा भला कहा । आतंकवादी बुरहान वानी को युवा नेता बताने से लेकर कश्मीर में मानवाधिकार की बात भी उठाई लेकिन लेखकों की इस अपील में उसका कोई जिक्र नहीं है । लेखकों की ये अपील सामान्यीकरण का शिकार है । इसमें से कुछ साफ तस्वीर उभर कर नहीं आ रही है अगर वो कश्मीर के लोगों के दुख के साथ खड़े दिखना चाहते हैं तो वो तो पूरा देश उनके साथ खड़ा है, इनको अलग से अपील की जरूरत क्यों । अपनी अपील में इन्होंने जिस तरह के शब्दों का चुनाव किया है वो भी हैरान करनेवाला है । वो कश्मीर में संयम की सलाह दे रहे हैं । संयम ठीक है लेकिन जब आपकी धरती पर कोई राष्ट्र के खिलाफ जंग का एलान करेगा तो क्या उस वक्त भी संयम से काम लेना चाहिए । क्या इन मासूम लेखकों को भारतीय संविधान की जानकारी नहीं है जहां राष्ट्र के खिलाफ साजिश और जंग को सबसे बड़ा अपराध माना गया है और सरकार को उन स्थितियों से निबटने के लिए असीम ताकत दी गई है । कश्मीर में शांति की मांग उचित है लेकिन क्या सेना के जवावों की शाहदत पर शांति चाहिए । यह वक्त कश्मीर को लेकर राजनीति का नहीं है बल्कि पूरे देश से एक आवाज उठनी चाहिए । रामचंद्र शुक्ल ने अपने साहित्य के इतिहास में कहा है –साहित्य को राजनीति से उपर रहना चाहिए और सदा उसके इशारे पर नहीं नाचना चाहिए । तो क्या इन लेखकों को शुक्ल जी की नसीहत याद नहीं रहती है या फिर राजनीति के अनुगामी बनकर ये सियासी मोहरे के तौर पर इस्तेमाल होते हैं । जरा सोचिए ।


Saturday, September 24, 2016

दिलचस्प प्रसंगों की किताबें ·

अभी पिछले दिनों युवा पत्रकार- लेखक यासिर उस्मान की किताब फिल्म अभिनेत्री रेखा पर प्रकाशित हुई है । किताब का नाम है – रेखा, द अनटोल्ड स्टोरी । इस किताब के बाजार में आने के पूर्व ही खूब हलचल शुरू हो गई थी । तमाम अंग्रेजी के अखबारों और पत्रिकाओं ने इस किताब के अंश और लेखक के इंटरव्यू आदि छापने शुरू कर दिए । सोशल साइट्स पर भी इसको लेकर चर्चा रही। देखते-देखते इस किताब के पक्ष में उत्सकुता का बड़ा माहौल बन गया । उत्सुकता के इस माहौल ने किताब की मांग बढ़ा दी और प्रकाशन के चंद दिनों के बाद ही यासिर की किताब का पहला संस्करण बिक गया । अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब को लेकर अंग्रेजी के अखबारों में कितना उत्साह था यह कवरेज में दिखाई दे रहा था । वरेज को देखकर मन में यह सवाल भी घुमड़ रहा था कि हिंदी के अखबारों में किसी हिंदी के किताब को लेकर इतनी उत्सकुकता क्यों नहीं दिखाई देती है । याद नहीं पड़ता कि किसी हिंदी लेखक की किताब प्रकाशित होते ही किसी भी राष्ट्रीय अखबार में आधे पन्ने का इंटरव्यू प्रकाशित हुआ हो । खैर -रेखा द अनटोल्ड स्टोरी को मिली कवरेज या उसकी विषय वस्तु पर चर्चा करना अवांतर है । इस विषय पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
हाल के दिनों में अंग्रेजी में उन चुनिंदा फिल्मी अभिनेत्रियों पर किताबें आईं जिनके जीवन के बारे में जानने की पाठकों के अंदर प्रबल इच्छा दिखाई देती रही है । पाठकों की इस इच्छा का प्रकटीकरण इन अभिनेत्रियों को लेकर उठे किसी प्रसंग के दौरान पाठकों की ललक से लगता रहा है । रेखा इन अभिनेत्रियों में से एक है जिनका जीवन एक तिलस्म की तरह रहा है और उनके जीवन से जुड़ी कई किवदंतियां सुनाई देती रही हैं । अमिताभ से उनके संबंध से लेकर उद्योगपति मुकेश अग्रवाल की शादी और फिर अग्रवाल की खुदकुशी जैसी घटनाएं रेखा के जीवन में पाठकों को झांकने के लिए उकसाती रही हैं । यासिर की किताब में इस तरह के प्रसंगों की भरमार है ।
एक अन्य अभिनेत्री हैं स्मिता पाटिल । भारतीय फिल्म इतिहास में स्मिता पाटिल सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली और संवेदनशील अभिनेत्रियों में से शीर्ष पर हैं । जब मैथिली राव ने उनपर किताब लिखी तो पाठकों के मन में स्वाभाविक तौर पर ये जानने की इच्छा हुई थी कि वो कौन सी परिस्थितियां थी जिनमें स्मिता पाटिल ने अपने से उम्र में काफी बड़े और शादीशुदा अभिनेता राज बब्बर से शादी की और फिर दोनों साथ नहीं रह सके । स्मिता पाटिल की इस जीवनी में उनकी जिंदगी का ये पन्ना गायब है । लेखिका ने स्वीकार किया है कि उसकी स्मिता पाटिल से मुलाकात नहीं हुई थी और राज बब्बर से उनकी इस जटिल संबंध के बारे में बात नहीं हो पाई । इस मायने में मैथिली की ये किताब यासिर उस्मान की किताब से थोड़ी अलग है । स्मिता पाटिल की ये जीवनी अन्य जीवनियों से भी थोड़ी अलग है । इसमें अमुक जगह पैदा हुई, अमुक जगह लालन पालन हुआ, अमुक जगह स्कूल शिक्षा ली और उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए अमुक जगह गईं शैली नहीं अपनाई गई है । स्मिता पाटिल एक ऐसी कलाकार थी जिन्हें इक्कीस साल की उम्र में नेशनल अवॉर्ड मिल गया था । मैथिली राव की ये किताब हमें इस बेहतरीन अदाकारा की जिंदगी से जुड़ी दिलचस्प दुनिया में लेकर जाती है । इस किताब में भले ही राज बब्बर के बारे में बात ना हो लेकिन स्मिता और शबाना के रिश्तों पर लेखिका ने विस्तार से लिखा है । स्मिता पाटिल की बात शबाना आजमी के बगैर अधूरी रहती है । स्मिता पाटिल और शबाना आजमी में जबरदस्त स्पर्धा थी और लोग कहते हैं कि साथ काम करने के बावजूद उनमें बातचीत नहीं के बराबर होती थी । हलांकि किताब के लांच के वक्त शबाना ने स्मिता पाटिल के बारे में बेहद स्नेहिल बातें की और यहां तक कह डाला कि उनका नाम शबाना पाटिल होना चाहिए था और स्मिता का नाम स्मिता आजमी होना चाहिए था । मौथिली राव ने स्मिता पर किताब लिखते वक्त तमाम तरह के लोगों से बात की लेकिन गंभीरता से गॉसिप को दरकिनार करते हुए आगे बढ़ती चली गई ।
रेखा और स्मिता के अलावा एक और अभिनेत्री में पाठकों की रुचि है वो हैं अनु अग्रवाल । उन्नीस सौ नब्बे में महेश भट्ट की फिल्म आशिकी के सुपर हिट होने के बाद अनु अग्रवाल भी हिट हो गई थी । सफलता के कुछ दिनों बाद ही अनु अग्रवाल फिल्मी परिदृश्य से गायब हो गईं । वन फिल्म वंडर के नाम से बॉलीवुड में मशहूर अनु अग्रवाल ने खुद ही आत्मकथात्मक संस्मरण लिखी है जो कि अनुयूजअल, मेमॉयर ऑफ अ गर्ल हू केम बैक फ्रॉम द डेड के नाम से प्रकाशित हुई है । करीब पौने दो सौ पन्नों की इस किताब में अनु अग्रवाल ने खुलकर अपनी जिंदगी के उन पन्नों को खोला है जिसके बारे में पाठकों में जानने की इच्छा दिखाई देती है । अनु अग्रवाल का क्या हुआ ? वो कहां गायब हो गई ? उसने फिल्म के बाद मॉडलिंग का अपना करियर क्यों छोड़ दिया ? आदि आदि । अनु अग्रवाल अपने रंग को लेकर बेहद सटीक टिप्पणी करती है । वो कहती हैं कि अस्सी के दशक तो फिल्मों में जो फेयर वही लवली माना जाता था लेकिन फिर उसने अपनी सांवलेपन को ही अपनी ताकत बनाया । अनु अग्रवाल ने 1980 में दिल्ली से मुंबई आने और फिर एक संगीतकार के प्रेम में पड़ने के किस्से को विस्तार से लिखा है । अनु अग्रवाल ने आशिकी की सफलता के बाद दो तीन फिल्मों में काम किया और उसके बाद एक भयंकर हादसे का शिकार हो गईं और सालों तक कोमा में रहीं । कोमा से वापस आने के बाद अनु योग और अध्यात्म में लीन हो गई और इस किताब में दो अध्याय उनके इन अनुभवों पर है । अध्यात्म से लेकर ब्रह्म और भ्रम पर अनु ने विस्तार से लिखा है । कहना ना होगा कि इन किताबों से पाठकों की ज्ञानझुधा की पूर्ति होती है ।
स्मिता पाटिल, अनु अग्रवाल और रेखा पर किताबों के प्रकाशन के आसपास ही शोमा चटर्जी की किताब सुचित्रा सेन पर प्रकाशित हुई थी । किताब का नाम था- सुचित्रा सेन दे लीजेंड एंड द एनिग्मा । किताब के शीर्षक से ही साफ है कि लेखिका इस लीजेंड की पहेली के बारे में इस किताब में बात करना चाह रही है । किया भी उन्होंने यही है । सुचित्रा सेन के बारे में भी तमाम तरह की किंवदंतियां चलती रही हैं । उनके बारे में कहा जाता था कि उन्होंने सत्यजित राय की फिल्म ठुकरा दी थी । सुचित्रा सेन के बारे में ये भी कहा जाता था कि फिल्मों के छोड़ने के बाद वो सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आती थीं । कहा तो ये भी जाता है कि वो अपने लुक को लेकर बेहद संवेदनशील थी । फिल्मों से जुड़े लोग ये भी कहते हैं कि सुचित्रा सेन ने इस वजह से दादा साहब फाल्के पुरस्कार लेने से मना कर दिया क्योंकि वो नहीं चाहती थी कि उनके फैन उनको बढ़ी उम्र के साथ देखें । अब इस किताब में भी लेखिका कभी सुचित्रा सेन से मिली नहीं बल्कि एकाधिक बार सिर्फ उनसे फोन पर बात हुई थी । इस किताब में लेखिका ने सुचित्रा सेन के बारे में कई दिलचस्प तथ्य बताए हैं जैसे सुचित्रा सेन पहली ऐसी अभिनेत्री  थी जो मां बनने के बाद फिल्मों में आई और छा गई । उनकी बेटी मुनमुन सेन के साथ भी ऐसा हुआ । शाहरुख की फिल्म बाजीगर से जुड़ा भी एक बेहद दिसलचस्प तथ्य इस किताब में है ।
एक के बाद एक इस तरह की किताबों के अंग्रेजी में प्रकाशित होने के बाद फिर से ये सवाल खड़ा होने लगा है कि फिल्मों पर हिंदी में लिखनेवाले लेखक गंभीरता से इस तरह का कोई प्रयास क्यों नहीं करते हैं । हिंदी में ज्यादातर लेखक फिल्मी समीक्षाओं के संग्रह को छपवाने में रुचि रखते हैं । हिंदी के प्रकाशकों को भी इस दिशा में काम करने की जरूरत है । उनको भी फिल्मों पर गंभीर लेखन करनेवाले हिंदी लेखकों को चिन्हित करना होगा और उनको उन अभिनेता-अभिनेत्रियों पर लिखने के लिए प्रोत्साहित करना होगा ताकि उन पाठकों को हिंदी भाषा की ओर आकृष्ट किया जा सके जो कहानी कविता उपन्यास से इतर हिंदी में कुछ दिलचस्प पढ़ना चाहते हों । हिंदी पाठकों के बीच भी फिल्मों को लेकर पढ़ने की चाहत है लेकिन उनकी इस चाहत को पूरा करने का गंभीरता से उपक्रम नहीं किया जा रहा  है और लेख आदि को सजा संवारकर किताब के रूप में पेश कर उनको भरमाने की कोशिश होती है । अगर हमें हिंदी को विस्तार देना है तो हमें कोशिश करनी होगी कि उन विधाओं और उन शख्सियतों के बारे में किताबें छपें जो नए पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट कर सकें ।  


अभिव्यक्ति की आजादी के अर्धसत्य

पीईएन इंटरनेशनल, कवियों, लेखकों और उपन्यासकारों की एक वैश्विक संस्था, जिसका दावा है कि वो पूरी दुनिया में साहित्य और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए काम करती है । उन्नीस सौ इक्कीस में स्थापित इस संस्था का ये भी दावा है कि भारत समेत पूरी दुनिया के सौ से ज्यादा देशों में इसकी शाखाएं काम कर रही हैं । पेन इंटरनेशनल के नाम से मशहूर इस संस्था ने अभी अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की है – इमपोजिंग साइलेंस, द यूज ऑफ इंडियाज लॉज टू सप्रेस फ्री स्पीच । पेन कनाडा, पेन इंडिया और यूनिवर्सिटी ऑफ टोरेंटो के फैकल्टी ऑफ लॉ ने संयुक्त रूप से इस अध्ययन को अंजाम दिया है । हाल ही में इसका प्रकाशन हुआ है जिसमें कई बातें इस तरह से पेश की गई हैं जैसे लगता है कि हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर स्थिति बेहद विकट है । इस रिपोर्ट के अपने आधार हैं लेकिन रिपोर्ट की शुरुआती पंक्ति से ही शोधकर्ताओं के मंसूबे साफ दिखते हैं । शोध के नतीजे की पहली लाइन है – भारत में इन दिनों असहमत होनेवालों को खामोश कर देना बहुत आसान है । इसी रिपोर्ट में लिखा है कि दुनिया की सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए ये स्थिति बेहद शर्मनाक है । अपनी इस रिपोर्ट में कई उदाहरण दिए गए हैं और कुछ भारतीय लेखकों ने भी अपनी राय रखी है । रिपोर्ट के मुताबिक भारत में धर्म पर लिखना मुश्किल होता जा रहा है । इस संबध में वेंडी जोनिगर की किताब द हिंदूज, एम अल्टरनेटिव हिस्ट्री का उदाहरण दिया गया है । यह ठीक है कि वेंडी डोनिगर की किताब को लेकर एक संगठन ने प्रकाशक को कानूनी नोटिस आदि दिया था । लेकिन बात आगे बढ़ती इसके पहले ही पेंग्विन ने इस किताब को बाजार से वापस बुला लिया और आगे नहीं छापने का एलन कर दिया । अब अगर हम इस पूरे वाकए को यहीं तक देखेंगे तो यह लगेगा कि एक संगठन ने एक लेखक की अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हरण कर लिया । संगठन की कानूनी प्रक्रिया की धमकी की वजह से वेंडी दोनिगर की किताब पाठकों तक पहुंचने से रुक गई । अब जरा इसके बाद की कहानी सुनिए। पेंग्विन के वेंडी डोनिगर की किताब छापने से मना करने के बाद देशभर में इसपर बहस हुई और तमाम लोगों ने इसके पक्ष विपक्ष में लिखा । उसके बाद एक अन्य प्रकाशक ने वेंडी डोनिगर की इस किताब का प्रकाशन किया और ये अब भी खुले बाजार में बिक रही है लेकिन पीईएन के शोधकर्ताओं को अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर भारत के कानून में खामी दिखाई देती है लेकिन ये नहीं दिखाई देता है कि वेंडी डोनिगर की किताब पर किसी तरह की कोई रोक काम नहीं कर पाई । अब अगर लोकतंत्र में किसी संविधान ने अपने नागरिकों को कोई हक दे रखा है तो वो उसका इस्तेमाल करने के लिए आजाद है । यह अदालत के विवेक पर निर्भर करता है कि वो देखे कि एक नागरिक के या एक संगठन की आपत्तियों में तिततना दम है । और भारत की अदालतों ने वक्त वक्त पर इसको साबित भी किया है । जैसे पेरुमल मुरुगन के मामले में मद्रास हाईकोर्ट से जो फैसला आया वो लेखक को पुर्नजीवन देनेवाला था । हाईकोर्ट के उस फैसले पर आपत्तियां हो सकती हैं, हुई भी लेकिन कमोबेश उस फैसले ने वन पार्ट वूमन के प्रकाशन और वितरण में आ रही तमाम बाधाओं को दूर कर दिया । पेरुमल मुरुगन के मामले को इस रिपोर्ट में प्रमुखता मिली है । यह सही है कि पेरुमल मुरुगन को अपने उपन्यास की वजह से काफी झेलना पड़ा लेकिन अतत; जीत उनकी ही हुई और उनके सभी अधिकार प्रतिष्ठापूर्व बहाल कर दिए गए । लेकिन आप देखें कि पेरुमल मुरुगन एक मामला है लेकिन लेखकों ने उसी तरह के मुद्दे पर विपुल लेखन भी किया । जैसे मराठी लेखक भालचंद्रन नेमाडे की किताब हिंदू, जीने का समृद्ध कबाड़ प्रकाशित होकर धड़ल्ले से बाजार में बिक रहा है । इसमें कितनी आपत्तिजनक बातें हैं इसका अंदाज शायद पेन इंटरनेशनल के शोधकर्ताओं को नहीं होगा लेकिन फिर भी ये किताब बाजार में मौजूद है । ये भारतीय संविधान की ताकत है ।  
साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए काम करनेवाली लेखकों और कलाकरों की इस अंतराष्ट्रीय संस्था ने भारत में आमिर खान की फिल्म पी के लोकर विरोध को भी अपने तर्कों के पक्ष में इस्तेमाल किया गया है । भारत जैसे विशाल देश में अगर छिटपुट विरोध होता भी है तो इससे पूरी व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाना कितना उचित है। रिपोर्ट में प्रकाशित लेखों में फिल्मों को लेकर सेंसर बोर्ड के रुख पर भी आपत्ति जताई गई है । सवाल यही है कि क्या शोधकर्ताओं को भारत की विशालता और बहुलतावादी संस्कृति का अंदाजा नहीं है । पी के फिल्म का चंद लोगों का विरोध और यो यो हनीसिंह पर एक शख्स के नागपुर में केस कर देने जैसे उदाहरणों से अगर अभिव्यक्ति की आजादी का आंकलन किया जाएगा तो पीईएऩ जैसी संस्था की साख पर सवाल खड़ा होगा ।

भारत जैसे विशाल देश के बारे में साहित्य, कला और संस्कृति के बरक्श अभिव्यक्ति की आजादी को परखने के लिए शोधकर्ताओं को बाहर निकलना होगा । फाइव स्टार लेखक और पत्रकारों के लेखों के आधार पर बनाई गई रिपोर्ट से सच्ची तस्वीर नहीं उभर सकती है । इस रिपोर्ट को साहित्य और कला तक ही सीमित रखा जाना चाहिए था लेकिन ग्रीन पीस इंटरनेशनल पर पाबंदी को भी इसमें शामिल करके शोधकर्ताओं ने खुद ही इसकी विश्वसनीयता को सवालों के घेरे में ला दिया । इस बात पर बहस हो सकती है कि भारत में कुछ ऐसे तत्व मौजूद हैं जो लेखकों और कलाकारों को डराने का काम करते हैं लेकिन उनकी संख्या लगभग नगण्य है । कर्नाटक के कालबुर्गी की हत्या के मामले पर इतना शोर शराबा हुआ लेकिन अब जब जांच पने मुकाम तक पहुंच रही है तो उसको लेकर कोई विमर्श क्यों नहीं हो रहा है । यह एक खास किस्म की मानसिकता है जो भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश को इस तरह के अनर्गल आरोपों के आधार पर बदनाम करने की कोशिश की जाती है । भारत में साहित्य सृजन का जो वातावरण है वो विश्व के कई देशों के मुकाबले बेहतर है । पीईएन की इस रिपोर्ट की खामियों पर विस्तार से बहस होनी चाहिए ताकि कोई भी कुछ भी कहकर निकलने नहीं पाए  

Thursday, September 22, 2016

अपने समय का सूर्य 'दिनकर'

कौन जानता था कि सिमरिया घाट की बालू की रेत पर खेलनेवाला बालक एक दिन अपनी तर्जनी उठाकर कह सकेगा लोहे के पेड़ हरे होंगे तू गान प्रेम का गाता चल, नम होगी यह मिट्टी जरूर, आंसू के कण बरसाता चल । सिमरिया घाट है बिहार के मौजूदा बेगूसराय जिले में और उसकी बालू की रेत पर खेलनेवाला बालक था रामधारी सिंह दिनकर । यह दिनकर की कल्पनाशीलता है कि वो प्रेम के बल पर लोहे के पेड़ के हरे होने की बात करते हैं । यह दिनकर का आत्मविश्वास है कि वो खुद को अपने समय का सूर्य घोषित करता है – मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूं मैं ।हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा भी था कि दिनकर अपने ढंग का अकेला हिंदी कवि है । यौवन और जीवन उसे आकृष्ट करते हैं, सौंदर्य के मोहन संगीत उसे मुग्ध करते हैं पर वह इनसे अभिभूत नहीं होता है । रामधारी सिंह दिनकर हिंदी के ऐसे कवि लेखक हैं जिनका रेंज इतना व्यापक है कि वो अपने में साहित्य, समाज, इतिहास और राजनीति को एक साथ समेट कर चलते हैं । नामवर सिंह का मानना है कि दिनकर जी को सूर्य कहते समय हम यह भूल जाते हैं कि सूर्य का एक ही रंग नहीं होता है और सूर्य में ताप हीनहीं होता है, रोशनी भी होती है । उस प्रकाश के उस आलोक के अनेक रंग होते हैं, बल्कि धरती पर जितने रंग दिखाई पड़ते हैं, वे सारे के सारे रंग और रंग बिरंगे पुष्प सूरज की रोशनी से ही हैं । सूरज न हों तो उतने रंग धरती पर नहीं होंगे । करीब पांच दशक लंबे कालखंड में सृजनरत दिनकर समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे । आजादी के पहले बारदोली विजय पर विजय संदेश के नाम से उनकी कविताओ की एक पुस्तिका प्रकाशित हुई थी जिसके बारे में दिनकर ने खुद लिखा है कि उसमें एक उदयीमान कवि के रेंगने की रेखाएं देखने को मिलती हैं ।    
दिनकर की रचनाओं की व्यपकता का आलम यह है कि वो गांधी से लेकर मार्क्स तक, आर्य से लेकर अनार्य तक, हिन्दू संस्कृति के आविर्भाव से लेकर प्राचीन हिन्दुत्व से विद्रोह के अलावा हिंदू संस्कृति और इस्लाम से लेकर भारतीय संस्कृति और यूरोप के संबंधों को परखते हुए विपुल लेखन किया है । गांधी और मार्क्स को लेकर दिनकर में एक खास तरह का द्वंद् देखने को मिलता है । वो गांधी की अहिंसा और मार्क्स के हिंसक सिद्धातों के बीच फंसे हुए नजर आते हैं । हिंसा ओर अहिंसा के बीच का उनका द्वंद्व उनकी रचनाओं में भी दिखाई देता है । जब चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया था तब दिनकर जी ने परशुराम की प्रतीक्षा लिखी जिसमें उन्होंने अपने तर्कों के आधार पर हिंसा और अहिंसा के इस्तेमाल के दर्शन को साफ किया । दिनकर ने स्वीकार भी किया है कि – मैं जीवनभर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं । इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है वही रंग मेरी कविता का रंग है ।लेकिन जब साहित्य की बात आती है तो दिनकर बेहद साफगोई से कहते हैं कि – साहित्य के क्षेत्र में हम न तो किसी गोयबेल्स की सत्ता मानने को तैयार हैं, जो हमसे नाजीवाद का समर्थन लिखवाए औप न किसी स्टालिन की ही, जो हमे साम्यवाद से तटस्थ रहकर फूलने फलने नहीं दे सकता । हमारे लिए फरमान न तो क्रेमलिन से आ सकता है और न आनंद भवन से ही । अपने क्षेत्र में तो हम सिर्फ उन्हीं नियंत्रणों को स्वीकार करेंगे जिन्हें साहित्य की कला अनंत काल से मानती चली आ रही है ।दिनकर इस बात से बहुधा खिन्न नजर आते थे कि मार्क्सवादियों को लेखन की स्वतंत्रता नहीं थी । उन्हें पार्टी लाइन पर लेखन करना पड़ता था और दिनकर इस क्षोभ को दृढता से प्रकट भी करते थे ।  14 मई 1957 को राज्यसभा के अपने भाषण में दिनकर ने साफ किया था- कम्युनिस्ट देश के लेखकों और कवियों ने पाया तो क्या पाया ? शारीरिक सुख और रुपया तो बहुत पाया, आराम तो उनको सबसे अधिक है। उनके साथ इंकम टैक्स की दरों में रियारतें रखी जाती हैं, लेकिन बदले में उनको देना क्या पड़ा है ?  देना यह पड़ा है कि अपनी स्वाधीनता का हनन करना पड़ा है । रेजीमेंटेशन को स्वीकार करना पड़ा है । मैं पूछना चाहता हूं कि क्रांति हुए इतने दिन हुए हैं, तो दस्तोव्स्की, तुर्गनेव, चेखोव, टॉलस्टाय और गोर्की के समान लेखक क्यों नहॆं पैदा हुए कम्युनिज्म में ? फिर पैदा हो नहीं सकते क्योंकि मनुष्य की आत्मा को जहां स्वाधीनता नहीं है वहां सच्चा साहित्य, सच्ची कविता, सच्ची कला कभी पैदा नहीं हो सकती।

इसी तरह से पिछले दिनों जब पूरे देश में राष्ट्रीयता और असहिष्णुता को लेकर बहस चली थी तो पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ के नेताओं और विद्वानों ने दिनकर को उद्धृत करते हुए अपने तर्कों को वैधता प्रदान करने की कोशिश की । दिनकर की कविता समर शेष है की आखिरी पंक्ति– समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध । के हवाले से उस बहस में तटस्थ रहनेवालों की लानत मलामत की गई थी । लेकिन उस वक्त किसी को याद नहीं आया कि इसी कविता में दिनकर कहते हैं – समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं, गांधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं । दिनकर को उस बहस में लोगों ने सुविधानुसार उद्धृत किया और विरोधियों ने बगैर दिनकर को समग्रता में पढ़े उनपर जाने कैसे कैसे आरोप मढ़ दिए । दिनकर राष्ट्रवादी कवि हैं इसमें कोई दो राय नहीं है । उनकी कविताओं में उग्र राष्ट्रवाद के स्वर भी मुखर रहे हैं । उनकी रचनाओं में इस उग्र राष्ट्रीयता के पीछे अपने गौरवशाली अतीत का भान और मान था । संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने अतीत के इस गौरव को बेहद करीने और सलीके से सजाया है । लेकिन इसका यह मतलब नहीं हुआ कि दिनकर की राष्ट्रीयता सांप्रदायिक या फिर जनता विरोधी है  । इसको उनकी कविता दिल्ली को पढ़कर समझा जा सकता है । दिनकर साहित्य में मार्क्सवाद की सत्ता की गुलामी को भी तैयार नहीं थे लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि दिनकर उस राष्ट्रवाद के समर्थक थे जो नफरत की बुनियाद पर टिका था । दिनकर ने घृणा को राष्ट्रीयता की बुनियाद बताया था लेकिन उसको उद्धरणों से स्पषट भी किया था । दिनकर का मानना है कि बहुधा राष्ट्रीयता का जन्म घृणा से होता है । उनका मानना है कि नेपोलियन की हुकूमत के खिलाफ लोगों में एकता हुकूमत से घृणा की वजह से आई । इसी तरह से भारत में राष्ट्रीयता इस वजह से पनपी कि यहां के लोग अंग्रेजों से घृणा करने लगे । अब यहां अगर पूरे संदर्भ से काटकर सिर्फ ये बताया जाए कि दिनकर की राष्ट्रीयता का आधार घृणा है तो यह उनके साथ अन्याय होगा । कुछ लोगों ने उनके साथ ये अन्याय पिछले दिनों किया । दिनकर ने अपने लेखों में टैगोर के राष्ट्रीयता और अंतराष्ट्रीयता की अवधारणा पर भी विचार करते वक्त अपनी मान्यताओ को सामने रखा है । दिनकर की एक कविता भी है – राष्ट्रदेवता का विसर्जन’, जिसमें उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि राष्ट्रीयता अगर अंतराष्ट्रीयता के खिलाफ खड़ी हो रही हो तो उसका विदा होना बेहतर है । कहना ना होगा कि दिनकर विश्व शांति और मैत्री की वकालत भी कर रहे थे । दरअसल अगर देखा जाए तो दिनकर का सभी ने अपने अपने हक में इस्तेमाल किया लेकिन उनका समग्र मूल्यांकन करने में किसी ने रुचि नहीं दिखाई 

Tuesday, September 20, 2016

‘एक्स’ के साथ ऑन एयर रोमांस

अमिताभ बच्चन और रेखा के रोमांस के किस्सों के बीच जब यश चोपड़ा की फिल्म सिलसिला उन्नीस सौ इक्यासी में रिलीज हुई थी तो फिल्म लगभग फ्लॉप हो गई थी । उस वक्त हिंदी के दर्शकों को विवाहेत्तर संबंध की थीम पसंद नहीं आई थी । यश चोपड़ा की इस फिल्म में समीक्षक कोई कमी ढूंढ नहीं पाए थे । स्टार कलाकारों की मौजूदगी और बेहतरीन संगीत और लोकेशन के बावजूद फिल्म बेहतर नहीं कर पाई थी तो उसकी वजह कुछ और ही रही होगी । उस वक्त कुछ समीक्षकों ने फिल्म के सेट पर रेखा और जया के बीच की केमिस्ट्री की चर्चा भी की थी । सिलसिला के बाद अमिताभ बच्चन और रेखा की कोई मुक्कमल फिल्म नहीं आई । कुछ तो वजह रही होगी कोई यूं ही बेवफा नहीं होता । मतलब फिल्म के प्रोड्यूसर्स को कुछ लगा होगा वर्ना इतने बड़े कलाकारों के साथ फिर फिल्म नहीं बनने की वजह समझ से परे है । अमिताभ और रेखा की तरफ से भी इस तरह की कोई पहल नजर नहीं आई।  वक्त बदला, समाज बदला और इन बदले परिदृश्य में दर्शकों की रुचि भी बदली बदली नजर आ रही है । अब तो फिल्मकार से लेकर अभिनेता तक अपनी और अपने एक्स के साथ फिल्म करने से परहेज नहीं कर रहे हैं ।

सलमान खान और कटरीना का अफेयर लंबे समय तक चर्चा में रहा । ब्रेकअप के बाद गाहे बगाहे सलमान अपनी बातों से कटरीना से चुटकी भी लेते रहे लेकिन साथ फिल्म कम ही आई । अब एक बार सलमान और कटरीना दोनों टाइगर जिंदा है में साथ साथ नजर आनेवाले हैं । सलमान से ब्रेकअप के बाद कटरीना ने रणबीर को अपना हमसफर बनाया और उसके साथ लिवइन में रहने लगी । साथ छुट्टियां मनाते दोनों की तस्वीरें खूब चर्चित हुई थी लेकिन इस रूमानी सफर पर भी ब्रेक लगा और दोनों की राह जुदा हो गई । दोनों के बीच बातचीत तक बंद हो गई और सार्वजनिक समारोहों में एक दूसरे से मुंह भी फरते नजर आने लगे । लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था । पहले अफेयर, फिर लिवइन फिर ब्रेकअप के बाद अब एक बार फिर से दोनों एक साथ फिल्म जग्गा जासूस में नजर आनेवाले हैं । अफेयर और ब्रेकअप अपनी जगह लेकिन प्रोफेशन अपनी जगह । जग्गा जासूस फिल्म से जुड़े लोगों का कहना है कि कटरीना और रणवीर दोनों इस बात का एहसास नहीं होने देते हैं कि उनके बीच रीयल लाइफ में बातचीत तक बंद है । इतना जरूर कहा जा रहा है कि अब कटरीना और रणवीर वैनिटी वैन शेयर नहीं करते हैं । इसी तरह से रणवीर के पहले कटरीना के ब्यायफ्रेंड रहे सलमान के साथ टाइगर जिंदा है के फिल्मकार भी खासे उत्साहित नजर आ रहे हैं । फिल्म से जुड़े लोगों का मानना है कि कटरीना इतनी प्रोफेशनल है कि उसको पूर्व प्रेमी के साथ काम करने में कोआ दिक्कत नहीं है । बात सिर्फ कटरीना के प्रोफेशनल होने की नहीं है । आशिकी टू के बाद श्रद्धा कपूर और सिद्धार्थ रॉय कपूर के रोमांस के किस्से भी खूब सुने गए । फिर उनके ब्रेकअप की खबर आई और अब खबर ये है कि वो शाद अली की अगली फिल्म में साथ काम करने जा रहे हैं । आलिया और वरुण धवन के अफेयर और ब्रेकअप भी चर्चित रहे हैं लेकिन अब वो दोनों भी एक फिल्म में साथ आ रहे हैं । इतने किस्से, इतने ब्रेकअप, इतनी गॉसिप के बाद भी प्रोफेशनल लाइफ पर कोई असर नहीं पड़ना, नई पीढ़ी की मानसिकता में आ रहे बदलाव को इंगित करता है । अब संबंधों का असर उनके काम-काज पर नहीं पड़ता है । ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री को ऑफ एयर संबंध बिल्कुल भी प्रभावित नहीं करते हैं । एक जमाना था जब फिल्मकार भी उन अभिनेता-अभिनेत्री को लेकर फिल्में बनाने के लिए उत्सकु रहा करते थे जिनके रोमांस के किस्से आम होते थे । फिल्मकार उनके रोमांस को भुनाना चाहते थे लेकिन अब स्थिति बदली बदली सी नजर आती है, अब तो फिल्मकार भी ब्रेकअप कपल को लेकर फिल्म बनाकर चर्चा बटोरना चाहते हैं । इलके पीछे का मनोविज्ञान ये हो सकता है कि दर्शकों के बीच की उस उत्सुकता को भुनाया जाए कि ब्रेकअप के बाद कैसे दिखते हैं, कैसे करते हैं या फिर ब्रेक अप के बाद ऑन एयर केमिस्ट्री कैसी दिखती है । अब जरा सोचिए कि सलमान ने ब्रेक अप के बाद कटरीना का कितना मजाक उड़ाया है । रणबीर को लेकर भी, लेकिन जब दोनों साथ काम करेंगे या फिर पर्दे पर रोमांस करेंगे तो केमिस्ट्री नजर आएगी जो उनके अफेयर के दिनों की फिल्मों में नजर आती थी । तो ये  जो क्या है न वही दर्शकों को सिनेमा हॉल तक लेकर आ सकता है, ऐसा फिल्मकार और अभिनेता दोनों सोचने लगे हैं । अफेयर को लेकर जिस तरह से समाज की स्वीकार्यता मिली है या फिर ब्रेकअप को लेकर जिस तरह की सहानुभूति मिलने लगी है वो भी फिल्मकारों को अपनी ओर खींचती है । अब तो वो जमाना भी नहीं रहा कि विवाहेत्तर संबंधों पर बनी फिल्म के उस आधार पर फ्लॉप होने का खतरा है । एक्स के साथ फिल्म का नया ट्रेंड इसका ही नतीजा है ।  

Monday, September 19, 2016

Politics of Check and mate

There is a very famous teaching example in Management classes. It is about a frog and the water. When a frog is thrown into a pot of boiling water, it is shocked for few moments and then jumps out from the boiling pot. The frog gets scaled but it survives. Now take the second scenario. Another frog is put in a pot-filled with normal water. After putting the frog in the pot, start the water to boil gradually. The frog will get accustomed to higher and higher temperature. First, the frog will sink into unconsciousness and then gradually boil to death but will never jump out of the pot.
We, the people of Bihar are like the second frog who are getting accustomed to worse and worst situation in the state but will never jump out of it. If you remember the first Lalu tenure during 1990s, it was like throwing a frog in the boiling water. At that time, many Bihar residents left the state and shifted to Delhi or elsewhere. Now, this Grand alliance of Lalu-Nitish Kumar is not like a boiling water but the pot is gradually made to boil. It could be understood what fate the frog will meet.
The release of LaluYadav’s protege and accused of murder, kidnapping and many heinous crime and Ex-Member of Parliament Shahabuddin poses serious question about ‘sushashan’ of Nitish Kumar. Questions are being asked about what we have made of our democracy? The way Lalu Yadav has started dominating Bihar politics, it is also being said that Nitish Kumar is becoming what Manhoman Singh was to UPA. But before reaching to any conclusion, we have to minutely analyze political equations of Bihar today.
The dominance of Lalu and its silent counter by Nitish Kumar raised serious questions about the future of this grand alliance. Nitish Kumar came up with very stringent law for total ban on liquor sale. It is widely propagated that Nitish Kumar has fulfilled the election promise made to the half population of Bihar. But some say that it is targeted towards Lalu Yadav. It is also said that most of the businessman in liquor trade are supporters of Lalu Yadav. So, the people who are keeping close tab on Bihar politics suggests that by curbing the liquor sale, Nitish Kumar tried to weaken the support base of his ‘Big brother’. Sensing this, LaluYadav opened his gambit on political chess board. First, some of his party MLA opposed the stringent prohibition law but that move could not get any fruitful result. So, it seems that Laludecided to move back to its support base of Yadav and Muslims, i.e. the MY Combination.
First, he showed his clout against the Upper Caste don Anant Singh and got him arrested allegedly by putting pressure on the government of that time. Anant Singh was accused of murder of a Yadav. At that time much noise was made against Lalu’s move. Lalu alleged those who opposed his move by saying that they had some secret agenda, he or she is advocating the causes of Upper caste persons, they are ganged up against the downtrodden of the society etc.
Now, it is alleged by Bharatiya Janata Party (BJP) leaders of Bihar that Shahbuddinhas been released from jail due to pressure of RJD chief. It is also alleged that under pressure from RJD supremo, Bihar government did not hire some good advocates who oppose the Shahabuddin bail plea in Patna High Court. After release from jail, Shahabuddin showered praise on Lalu Yadav and when asked about Nitish kumar, he vehemently and vociferously stated that he is not his leader. He went a step ahead andsaid that Nitish Kumar is Chief Minister of Bihar due to some circumstances prevailing at the time of assembly election. Shahabuddin clearly stated that Laluis his leader and will remain so.
It is also a fact that when grand alliance came to power under Nitish Kumar-Lalu Yadav combine, crime rate saw an upward movement. RJD MLA Rajballabh Yadav was arrested on the charges of raping a minor girl. During investigation of some more crimes, many Yadav leaders or criminals got arrested and still behind bars.Nitish Kumar did not come to defend them, rather the police cracked heavily on the criminals. LaluYadav’s son and Deputy Chief Minister of Bihar Tejaswi Yadav was left to defend Bihar government over allegation of crime surge in the state. The message went to Yadav community that Nitish is calling the shots in the government and Lalu can’t defend his fellow casteman, who are traditionally the solid vote bank of Lalu. After sensing this, Lalu started exerting himself on the functioning of Bihar Government.
When the grand alliance won the Bihar Election, Lalu declared that Nitish will look after Bihar and he will take on the growing menace of RSS and BJP in the country. But what happened in Bihar is just opposite. Nitish Kumar is very often seen touring other states and Lalu most of the time stayed in Bihar. So, the game of check and mate is in full swing in Bihar Politics. Lalu has started giving signal to his MY vote bank that he is not weak and able to take care of them. Many political pundits are of the opinion that Nitish Kumar is not like Manmohan Singh and have the political acumen to mould the situation as he wishes.Nitish is such a politician who could not compromise on his image.Political grapevine doing the rounds in Bihar and in Lutyens power corridor is that Nitish is exploring the possibility of again joining hands with BJP. The recent  bonhomie in the meeting of Nitish and Prime Minister Narendra Modi is seen in this light. It is very often said about cricket and Politics that both are the games of uncertainty and anything can happen at any moment. So, let’s keep the finger crossed for Bihar.

( Writer is a Senior TV Journalist) 

Sunday, September 18, 2016

भाषादूत सम्मान से उठा विवाद

दिल्ली की हिंदी अकादमी एक विवाद से उबरती नहीं है कि दूसरे विवाद के भंवर में फंस जाती है । विवादों के केंद्र में बहुधा रहती हैं आम आदमी पार्टी सरकार द्वारा नियुक्त की गई अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा । मैत्रेयी पुष्पा हिदी अकादमी में काफी सक्रिय हैं और उन्होंने इसको आयोजनों आदि से चर्चा में तो ला ही दिया है । आयोजनों में बुलाए जानेवाले रचनाकारों के नाम पर आपत्तियां हो सकती हैं लेकिन इस बात पर लगभग सभी एकमत हैं कि दिल्ली की हिंदी अकादमी की गाड़ी चल पड़ी है । लेकिन जब कोई संस्था मंत्रालय के अंदर होती है तो उसको एक चौहद्दी विशेष में काम करना पड़ता है । इस बात का एहसास मैत्रेयी पुष्पा को हाल ही में एक बार फिर हुआ । हिंदी दिवस के मौके पर अकादमी ने सोशल मीडिया पर हिंदी के प्रचार प्रसार और उत्कृष्ट कार्य के लिए सक्रिय नौ शख्सियतों को भाषादूत सम्मान देने का एलान किया । अब गड़बड़ी इस पुरस्कार देने के फैसले के साथ शुरू हुई । बताया जा रहा है कि अकादमी से सम्मानित होनेवाले लोगों की जो सूची दिल्ली सरकार के भाषा और संस्कृति विभाग गई थी वहां से कुछ नाम जोड़ दिए गए और कुछ हटा दिए गए । लेकिन इस बीच अकादमी ने जल्दबाजी दिखाते हुए अपनी सूची के सदस्यों से संपर्क कर उनको सम्मानित करने का पत्र जारी कर दिया और उनका बॉयोडाटा आदि मंगवा लिया । मंत्रालय से सूची आने पर वो बदला हुआ था, लिहाजा जिनका नाम कटा था उनसे अकादमी ने लिखित रूप में क्षमा मांग ली । परंतु मामला इतना सरल नहीं था । सोशल मीडिया पर इसको लेकर खासा बवाल मचा । मैत्रेयी पुष्पा से इस्तीफे की मांग उठी । संचालन समिति के सदस्य ओम थानवी ने इस्तीफे का एलान कर दिया । जो हो सकता था वो हुआ लेकिन अच्छी बात ये रही कि अकादमी की उपाध्यक्ष मजबूती से डटी रहीं । इसके पहले भी जब होली के वक्त भारतीय जनता पार्टी के सांसद मनोज तिवारी को कार्यक्रम करने के लिए साढे आठ लाख का भुगतान किया गया था तब भी उपाध्यक्ष को पता नहीं था और शायद कार्यकारिणी से सदस्यों को भी अंधेरे में रखा गया था । सवाल यही उठता है कि क्या भाषा और संस्कृति विभाग में कौन है जो अकादमी के फैसलों को बगैर उपाध्यक्ष को विश्वास में लिए बदल दे रहा है और उसकी मंशा क्या है ।

हाल ही में कार्यकारिणी के दो सदस्यों- हरियाणा के पूर्व पुलिस अफसर विकास नारायण राय और वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार विजय किशोर मानव- को हटाने का फरमान जारी हो गया था । ये दोनों मैत्रेयी पुष्पा के विश्वासपात्र माने जाते हैं । इसकी वजह का तो पता नहीं लेकिन अकादमी से जुड़े लोगों का दावा है कि उस वक्त भी ये मामला मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तक गया था और उनके दखल के बाद ही ये मसला सुलझ पाया था । विकास नारायण राय और विजय किशोर मानव कार्यकारिणी में बने रहे । बार बार दिल्ली सरकार के भाषा और संस्कृति विभाग से इस तरह की बातें सामने आने के बाद सवाल तो खड़े होने ही लगे हैं । दरअसल हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष का पद अबतक लगभग शोभा और सानिध्य का पद रहा था लेकिन मैत्रेयी पुष्पा ने उस शोभा और सानिध्य का अतिक्रमण करना शुरू कर दिया । अब अगर कहीं स्थापित मान्यताओं को तोड़-फोड़ की कोशिश होगी तो विरोध तो होगा ही । ये देखना दिलचस्प होगा कि मैत्रेयी पुष्पा कब तक इन राजनीतिक दांव-पेंच को झेल पाती हैं या फिर राजनीति के चालों को नाकाम करते हुए अकादमी को चलाने में सफल हो पाती है । 

Saturday, September 17, 2016

‘पुरस्कार वापसी’ का पुरस्कार ! ·

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले हिंदी के चंद कवियों और लेखकों ने देशभर में असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने का एलान कर माहौल बनाने की कोशिश की थी । माहौल बना भी था । अशोक वाजपेयी ने ठीक-ठाक समां बांध दिया था । चंद दिनों तक पूरे देश में इस बात पर ही बहस हुई थी कि देश में असहिष्णुता का मौहाल है । यहां तक कि वित्त मंत्री अरुण जेटली और बाद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी इस पर बयान देना पड़ा था । साहित्य अकादमी को भी आपात बैठक बुलानी पड़ी थी । इस बात के लिए अशोक वाजपेयी को दाद देनी होगी कि उन्होंने देश भर में एक सरकार के खिलाफ माहौल बना दिया था । उस माहौल के बाद बिहार विधानसभा का चुनाव परिणाम आया और भारतीय जनता पार्टी वहां बुरी तरह से परास्त हो गई । महागठबंधन की जीत के बाद नीतीश कुमार ने बिहार की कमान संभाली । पुरस्कार वापसी अभियान के लोगों से उनकी मुलाकातें होती रहीं । इस समूह के रहनुमाओं ने नीतीश कुमार को विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद ये जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि महागठबंधन की जीत में उनके द्वारा निर्मित माहौल का भी हाथ था । अब बिहार फतह करने के बाद नीतीश कुमार की महात्वाकांक्षा अपने लिए देश की सियासत में बड़ी भूमिका तलाश रही है । नीतीश कुमार को अपने लक्ष्य तक पहुंचाने में मदद करने का भरोसा एक बार फिर से इस पुरस्कार वापसी समूह ने दिया है । दिल्ली में इस समूह के सदस्यों और नीतीश कुमार की एक बैठक हुई जिसमें समान विचारधारा के लेखकों को एक मंच पर लाने की कोशिश करने की बात हुई । देशभर के इस तरह के लेखकों से नीतीश कुमार की मुलाकातें करवाई जाएंगी । अब ये देखना दिलचस्प होगा कि इन मुलाकातों से क्या निकलता है । देखना तो ये भी दिलचस्प होगा कि वो कौन सी वजहें हैं जिसकी वजह से प्रगतिशील, जनवादी और कलावादी लेखक एक साथ एक मंच पर तमाम वैचारिक विरोधों को भुलाकर बैठेंगे । इतनी लंबी पृष्ठभूमि बताने की भी वजह है । वजह पुरस्कार वापसी समूह की मंशा को उजागर करने की है ।
देश में फैल रहे असहिष्णुता के खिलाफ पुरस्कार वापसी समूह के मुखिया अशोक वाजपेयी की लंबे समय से इच्छा रही है कि वो देश में विश्व कविता समारोह का आयोजन करें । इस तरह के कार्यक्रमों में करोड़ों रूपए खर्च होते हैं लिहाजा आयोजन का भार कोई सरकार या सरकारी संस्था ही उठा सकती है । अशोक वाजपेयी ने भारत सरकार को 2014 में भी इस तरह के आयोजन का प्रस्ताव दिया था जो परवान नहीं चढ़ सका था । दरअसल उस वक्त सरकार ने अशोक वाजपेयी के उस प्रस्ताव को साहित्य अकादमी के पास भेज दिया था जिसे साहित्य अकादमी ने ठुकरा दिया था । साहित्य अकादमी ने अशोक वाजपेयी के प्रस्ताव को नकारते हुए साफ कर दिया था कि वो किसी से साथ साझीदारी में इतना बड़ा आयोजन करने के बजाए खुद इस तरह का आयोजन कर सकती है । साहित्य अकादमी ने विश्व कविता समारोह का आयोजन किया भी था । अब एक बार अशोक वाजपेयी ने बिहार सरकार को विश्व कविता समारोह के आयोजन के लिए तैयार कर लिया है । बिहार सरकार ने इस आयोजन का जिम्मा बिहार संगीत नाटक अकादमी को सौंपा है । इस संस्था के अध्यक्ष कवि आलोक धन्वा हैं । विश्व कविता सम्मेलन के लिए जिस आयोजन समिति का गठन किया गया है उसमें सरकारी नुमाइंदों के अलावा राष्ट्रीय जनता दल के नेता रामश्रेष्ठ दीवाना, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि अरुण कमल, रामवचन राय और अशोक वाजपेयी को इस कमेटी में रखा गया है । इस कमेटी की एक बैठक हो चुकी है और तय किया गया है कि अगले साल अप्रैल में पटना में विश्व कविता समारोह का आयोजन किया जाएगा । सूबे के संस्कृति मंत्री शिवचंद्र राम के मुताबिक इस समारोह में चालीस देशों के कवि शिरकत करेंगे । राम के मुताबिक कमेटी ने जो फैसला लिया है उसके मुताबिक पटना और सूबे के अन्य ऐतिहासिक शहरों में ये समारोह आयोजित होगा । इसके लिए दिल्ली में एक अस्थायी कार्यालय होगा जो अशोक वाजपेयी की देखरेख में चलेगा । अब इस कार्यालय में क्या क्या सहूलियतें होंगी इस बारे में जानकारी सामने आने का इंतजार है ।
अभी नामवर सिंह के नब्बे साल के मौके पर प्रकाशित पत्रिका बहुवचन के अंक में अशोक वाजपेयी ने एक लंबा लेख लिखकर नामवर सिंह के दुर्गुणों को गिनाया था । अशोक वाजपेयी के मुताबिक विचारधारा के अतिरेक के अलावा नामवर सिंह के यहां तीन और अतिचार सक्रिय हैं- वाचिकता, अवसरवादिता और सत्ता का आकर्षण । अशोक वाजपेयी ने नामवर सिंह पर सत्ता के आकर्षण का आरोप लगाते हुए कहा कि वो सत्ताधारियों के मंच पर होने पर बहुत विनम्र हो जाते हैं । अशोक वाजपेयी ने नामवर सिंह पर तो सत्ता के आकर्षण का आरोप जड़ा लेकिन कहावत है ना कि अगर आप किसी की ओर एक उंगली उठाते हैं तो आपकी ओर भी कुछ उंगलियां उठती हैं । यह कहावत अशोक वाजपेयी पर भी लागू होती है । अशोक जी को भी ना तो कभी सत्ता से परहेज रहा और ना ही कभी उन्होंने सत्ताधारियों से निकटता से कोई परहेज किया । चाहे वो समाजवादी पार्टी के सांसद धर्मेन्द्र यादव के साथ मंच साझा करना हो या फिर नीतीश कुमार के साथ । पुरस्कार वापसी अभियान के बाद तो नीतीश कुमार से उनकी निकटता बढ़ती ही गई और पिछले दिनों जिस तरह की खबरें आई उसके मुताबिक अशोक वाजपेयी खेमे के लेखकों की नीतीश कुमार के साथ लंबी बैठक हुई जिसमें देशभर के लेखकों के साथ नीतीश की मुलाकातें तय करवाने का बीड़ा उठाया गया । क्या ये सत्ता का आकर्षण नहीं है । क्या ये सत्ता का आकर्षण नहीं है कि अशोक वाजपेयी जैसे हिंदी के वरिष्ठ और बेहद आदरणीय लेखक को उस कमेटी में रखा गया है जिसमें कि लालू यादव की पार्टी के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के मुखिया हैं । कमेटी की सदस्यता स्वीकार करना अवसरवादिता नहीं है ।
अबतक भले ही बिहार में विश्व कविता सम्मेलन करने के फैसले का दावा किया जा रहा है लेकिन पर्दे के पीछे इस कविता महोत्सव को दिल्ली में करवाने का खेल भी चल रहा है । इस आयोजन से जुड़े लोगों का कहना है कि अशोक वाजपेयी और बिहार संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष आलोक धन्वा इस पक्ष में हैं कि विश्व कविता के इस आयोजन को दिल्ली में करवाया जाए । अब दिल्ली में आयोजन के लिए तर्क ढूंढे जा रहे हैं । एक तर्क तो ये दिया जा रहा है कि विश्व के चालीस देशों के कवियों के रुकने का पटना में इंतजाम कैसे हो सकता है । दूसरा तर्क ये गढ़ा जा रहा है कि दिल्ली में इस आयोजन से नीतीश कुमार की छवि को देशभर में मजबूती मिलेगी और एक संवेदनशील और उनको सहिष्णु विकल्प के रूप में पेश किया जाएगा । इन तर्कों से ज्यादा तो इस तर्क में दम लगता है कि विश्व कविता महोत्सव अगर बिहार में करवाया गया तो रसरंजन कैसे होगा । बिहार में पूर्ण शराबबंदी है और ऐसे में कविता सुनाने के बाद कवियों के सामने संकट पैदा हो सकता है । इसकी काट के तौर पर भी इस आयोजन को दिल्ली ले जाया जा सकता है । अगर ऐसा होता है तो नीतीश की छवि मजबूत होगी या कमजोर ये तो उस वक्त ही तय होगा ।

बिहार संगीत नाटक अकादमी के विश्व कविता महोत्सव के आयोजन पर करीब चार-पांच करोड़ रुपए के बजट पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं । बिहार में शुरू हुआ अखिल भारतीय कविता समारोह और कहानी समारोह को सरकार ने बंद कर दिया जिसमें बमुश्किल पच्चीस तीस लाख रुपए खर्च होते थे । पटना लिटरेचर फेस्टिवल को बिहार सरकार ने मदद बंद कर दिया जिससे वो आयोजन भी ठप है । अब सवाल यही है कि विश्व कविता महोत्सव के आयोजन पर करोड़ों खर्च करने का औचित्य क्या है । इससे बिहार की जनता को या बिहार की रचनात्मकता को क्या फायदा होना है । इस बात का आंकलन सरकार के स्तर पर किया गया या सिर्फ अशोक वाजपेयी को पुरस्कार वापसी मुहिम के लिए पुरस्कृत करने के लिए ये आयोजन किया जा रहा है । इस बात को भी प्रचारित किया जा रहा है कि गांधी जी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने के जश्न के तौर पर भी इसका आयोजन किया जा रहा है । बेहतर तो ये होता कि बिहार सरकार इस चार पांच करोड़ रुपए की राशि से पटना या बिहार के किसी अन्य शहर में एक बेहतरीन कला केंद्र की स्थापना करती जहां बिहार के प्रतिभाशाली कलाकार ना केवल अपनी कला को मांज सकते बल्कि उसका प्रदर्शन भी कर सकते । पटना में मौजूद सांस्कृतिक केंद्रों की बदहाली इन पैसों से दूर हो सकती है । लेकिन नेताओं को तो अपने कार्यकर्ताओं का ध्यान रखना होता है और इस आयोजन में भी इस सिद्धांत का पालन किया जा रहा है ।  

Friday, September 16, 2016

‘शिवाय’ और ‘दिल’ की मुश्किल

फिल्मों में कई चरित्र ऐसे होते हैं जो सिर्फ विवाद पैदा करने के लिए रखे जाते हैं जिनसे मनोरंजन भी होता है । ये फिल्मी कैरेक्टर बॉलीवुड में भी नजर आने लगे हैं, जिनका काम ही होता है विवाद पैदा करना और उससे कुछ ना कुछ हासिल करना । किसी जमाने में अभिनेता रहे कमाल खान इन दिनों इसी राह पर चलते नजर आ रहे हैं । विक्रम भट्ट के साथ हुआ उनका विवाद अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि अब अजय देवगन के साथ उनका विवाद शुरू हो गया । दरअसल इस दीवाली पर अजय देवगन की फिल्म शिवाय और करण जौहर की फिल्म ऐ दिल है मुश्किल एक साथ रिलीज हो रही है । चंद दिनों पहले जब करण की फिल्म ऐ दिल है मुश्किल का पहला टीजर रिलीज हुआ तो केआरके के नाम से मशहूर कमाल खान ने एक के बाद एक ट्वीट करके फिल्म को प्रमोट करना शुरू कर दिया । यह बात अजय देवगन को नागवार गुजरी और उन्होंने केआरके और अपने बिजनेस पार्टनर के बीच हुई एक बातचीत का ऑडियो जारी करते हुए आरोप लगा दिया कि केआरके को करण की फिल्म ऐ दिल है मुश्किल को प्रमोट करने के लिए पच्चीस लाख रुपए दिए गए हैं । दरअसल कमाल खान जब फिल्मों में फ्लॉप हो गए तो उन्होंने फिल्म समीक्षा करनी शुरू कर दी । हलांकि केआरके ने इन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है और उन्होंने कहा कि अजय के बिजनेस मैनेजर से पीछा छुड़वाने के लिए उन्होंने कह दिया कि फिल्म को ट्विटर पर प्रमोट करने के लिए करण ने उसको पच्चीस लाख दिए । अजय देवगन ने जो ऑडियो जारी किया है उसमें पैसों के लेनदेन की बात है । लब्बोलुआब यह कि आरोपों के मुताबिक करण ने कमाल खाऩ को संगठित तरीके से शिवाय के खिलाफ प्रचार के काम में लगाया है । भगवान जाने कि उसमें कोई एडिटिंग की गई है या नहीं लेकिन अगर करण ने ऐसा किया है तो उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाएगी और कारोबार में अनैतिक खेल माना जाएगा। कमाल खान की ना तो कोई साख है और ना ही कोई उनको गंभीरता से लेता है । इन सबके बावजूद अब ये तो साफ हो गया है कि ट्वीटर पर प्रमोशन में पैसे के लेन देन के खेल का खुलासा तो हो ही गया ।
कुछ दिनों पहले ऐसी खबरें आई थीं कि फिल्मी सेलिब्रिटीज जिनके ट्वीटर पर लाखों फॉलोवर हैं वो किसी ब्रांड को इंडोर्स करने के लिए पैसे लेते हैं । ये खबर जब आई थी तब बकायदा उसके साथ रेट लिस्ट भी छपी थी । दरअसल सोशल मीडिया के इस दौर में ट्विटर किसी भी फिल्म के पक्ष या विपक्ष में माहौल बनाने के लिए एक बड़ा प्लेटफॉर्म है ।अब इसमें अगर पैसे लेकर ट्वीट करने की बात आ रही है तो ये फिर शख्स विशेष की विश्वसनीयता को भी कठघरे में खड़ा कर रही है ।  कमाल खान के करीब बारह लाख फॉलोवर ट्विटर पर मौजूद हैं और वो खुद को फिल्म समीक्षक साबित करने के लिए ट्विटर पोल आदि लगातार करते रहते हैं लेकिन ये बात समझ से परे है कि करीब साठ लाख के ट्विटर फॉलोवर वाले अजय देवगन को कमाल खान को इतना भाव देने की क्या जरूरत पड़ी । कमाल खान को ना तो फिल्म इंडस्ट्री गंभीरता से लेती है और ना ही फिल्मों के दर्शक । वो अपनी टिप्पणियों से मनोरंजन करते हैं और कई बार तो प्रचार पिपासा उनको बदतमीज टिप्पणियों तक ले जाती है । कमाल खान का ट्वीटर प्रोफाइल उनको अभिनेता के साथ साथ प्रोड्यूसर और समीक्षक भी बता रहा है लेकिन रील लाइफ से ज्यादा बड़े अभिनेता वो रीयल लाइफ में हैं ।  

अजय देवगन पहले भी अपनी फिल्म के रिलीज के डेट्स को लेकर आदित्य चोपड़ा से भिड़ चुके हैं । दो हजार बारह की बात है जब अजय की फिल्म सन ऑफ सरदार और आदित्य चोपड़ा की फिल्म जबतक है जान की रीलिज डेट टकरा गई थी तब भी अजय नाराज हो गए थे । उन्होंने आरोप लगाया था कि उनकी फिल्म को कम स्क्रीन मिल रहे हैं । उस वक्त भी मामला कोर्ट तक पहुंचा था । अब इस बार अजय का प्रत्यक्ष मुकाबला करण जौहर की फिल्म से है तो कहीं ऐसा तो नहीं कि वो परोक्ष रूप से कमाल खान के बहाने करण को घेर रहे हैं । अजय देवगन को जानने वालों का कहना है कि अजय देवगन इस तरह की हरकत नहीं कर सकते । इसके पहले भी करण जौहर और देवगन की फिल्म की रिलीज डेट टकरा चुकी है । तो सवाल यही कि कहीं करण जानबूझकर तो ऐसा नहीं करते है । शिवाय और ऐ दिल है मुश्किल को इस विवाद से कितना फायदा होगा ये तो दीवाली पर पता चलेगा लेकिन इस तरह के विवाद फिल्मकारों की संजीदगी को ठेस पहुंचाते हैं । (10 सितंबर )      

Tuesday, September 13, 2016

कट्टरता की पड़ताल करती कृति

आतंकवाद, जिहाद, बम धमाका, बगदादी, आईएसआईएस आदि शब्दों पर जब चर्चा होती है तो एक और शब्द इन सबसे जुड़ता है वो है रैडिकल इस्लाम । और जब ये शब्द जुड़ता है तो आतंक की तमाम घटनाओं को इस्लाम से जोड़ने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं । बार-बार ये कहा जाता है कि आतंकवाद का कोई नाम या रंग नहीं होता है, ये मूलत: मानवता विरोधी वारदात है जिसको धर्म से नहीं जोड़ा जाना चाहिए । प्रतिपक्ष में तर्क दिया जाता है कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते हैं लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं । तर्क-वितर्क और कुतर्क चलते रहेंगें लेकिन इन दिनों जो एक सबसे खतरनाक बात सामने आ रही है वो यह कि आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वालों का पढ़ा लिखा होना ।  चाहे वो बांग्लादेश की आतंकीवादी वारदात हो या फिर पेरिस में भीड़ पर आतंकवादी हमला । इन हमलावरों की प्रोफाइल देखने पर आतंकवाद को लेकर चिंता बढ़ जाती है । पहले तो कम पढ़े लिखे लोगों को आतंकवादी संगठन अपना शिकार बनाते थे । उसको धर्म की आड़ में जन्नत और हूर का ख्वाब दिखाकर और पैसों का लालच आदि देकर आतंकवाद की दुनिया में दाखिला दिलवाया जाता था । अनपढ़ों और जाहिलों को धर्म का डर दिखाकर बरगलाया जा सकता है । आश्चर्य तब होता है जब एमबीएम और इंजीनियरिंग के छात्र भी आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने लगते हैं । रमजान के पाक महीने में बांग्लादेश, पेरिस और मक्का समेत कई जगहों पर आतंकवादी वारदातें हुईं । ढाका पुलिस के मुताबिक बम धमाके के मुजरिम शहर के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले छात्र थे । पूरी दुनिया में इस बात पर मंथन हो रहा है कि इस्लाम को मानने पढ़े लिके युवकों का रैडिकलाइजेशन कैसे संभव हो पा रहा है ।

अभी हाल ही में भारतीय मूल के डैनिश लेखक ताबिश खैर की नई किताब आई है जिहादी जेन । ताबिश खैर इन दिनों डेनमार्क के एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और अपने लेखन से उन्होंने पूरी दुनिया में एक मुकाम हासिल किया है । ताबिश खैर ने अपना लंबा वक्त भारत में बिताया । बिहार के गया के रहनेवाले ताबिश खैर जब पत्रकारिता कर रहे थे उनके पिता, जो शहर के मशहूर डॉक्टर थे, के क्लीनिक पर कट्टरपंथियों ने ताबिश के लेखन से खफा होकर हमला कर दिया था । बावजूद इसके ताबिश खैर ने तर्कवादी लेखन नहीं छोड़ा और दो हजार चौदह में प्रकाशित उनकी किताब- हाउ टू फाइट इस्लामिस्ट टेरर फ्रॉम द मिशनरी पोजिशन- की विश्वव्यापी चर्चा हुई । जिहादी जेन भी औपन्यासिक शैली में लिखी गई किताब है जिसमें वैचारिकी भी है और पढ़े लिखे मुसलमानों की सोच का सामाजिक विश्लेषण भी है । जिहादी जेन उस शक्स का निकनेम है जिसने दो हजार ग्यारह में स्वीडिश कार्टूनिस्ट पर जानलेवा हमला किया था जिसने पैगंबर मोहम्मद साहब का कार्टून बनाया था ।
जिहादी जेन में ताबिश खैर ने ग्रेट ब्रिटेन के यॉर्कशर में रहनेवाली दो मुस्लिम दोस्तों और उसके कट्टरपंथ की ओर प्रवृत्त होने की कहानी तो कही ही है, उनके कट्टरपंथी होने की वजहों का विश्लेषण भी किया है । यॉर्कशर में रहनेवाली दो दोस्त जमीला और अमीना अलग-अलग पारिवारिक पृष्टिभूमि से आती हैं । दोनों की अपनी अलग लाइफस्टाइल है । जमीला एक परंपरागत मुस्लिम परिवार से आनेवाली लड़की है जो अपने पिता के साथ नियमित रूप से मस्जिद जाती है, वक्त पर नमाज पढ़ती है, आधुनिक देश और परिवेश में रहने के बावजूद बुर्का पहनती है । जमीला को इस बात का फख्र भी है कि वो अपने भाइयों से ज्यादा इस्लाम को जानती समझती है । भारतीय मूल की उसकी दोस्त अमीना अपने ख्यालों से लेकर अपनी वेशभूषा तक में खालिस ब्रिटिश है । वो सिगरेट पीती है, शॉर्ट स्कर्ट और टाइट जीन्स पहनती है और बिंदास है । उसका अपने ब्यायफ्रेंड से ब्रेकअप भी होचा है । अमीना के माता-पिता के बीच तलाक भी हो चुका है । दोनों दोस्तों की पारिवारिक पृष्ठभूमि तो अलग है लेकिन एक बिंदु पर आकर दोनों मिलती हैं वो है उनका इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर आकर्षण । हम गहराई से ताबिश खैर की इस किताब पर विचार करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि बिल्कुल अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि से आनेवाली इन दो मुस्लिम लड़कियों का रैडिकलाइजेशन बिल्कुल अलग अलग वजहों से होता है जो कि व्यक्तिगत भी हैं ,सामाजिक भी और धार्मिक भी, रूढियों से नाराजगी को लेकर विद्रोह भी । इन दो वजहों को पढ़ने के बाद एक बात जेहन में आती है कि कुछ पढ़े लिखे मुसलमान युवकों और युवतियों के कट्टरपंथ की ओर बढ़ने की कई वजहें हो सकती हैं – धर्म और समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर जारी मानसिक यातना, महिलाओं को सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह देखा जाना, इस्लाम की गलत व्याख्या और कुरान और हदीस की आड़ में बरगलाने की कोशिश । जिस तरह से अरब देशों में महिलाओं की स्थिति है उसको देखकर समझा जा सकता है । दो हजार तेरह में प्रकाशित शीरीन अल फकी की किताब- सेक्स एंड सिटडल, इंटीमेट लाइफ इन अ चेंजिंग अरब वर्ल्ड को पढकर भी ये बात समझ आती है । जब अरब की सड़कें क्रांति की गवाह बन रही थीं, जब मिस्त्र से लेकर ट्यूनिशिया में विद्रोह हो रहा था तो शीरीन वहां की महिलाओं की स्थिति और यौनिकता पर शोध कर रही थीं ।
इस किताब में ताबिश खैर ने परोक्ष रूप से ये भी बताने की कोशिश की है कि किस तरह से इस समस्या के लिए वो लोग भी जिम्मेदार हैं जो मानते हैं कि इस्लाम की बुनियाद पर बने आतंकवादी संगठनों के बारे में पश्चिमी देश भ्रम फैला कर पूरे धर्म को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं । ताबिश खैर ये सवाल भी उठाते हैं कि किल तरह से इस्लाम की परंपराओं की आड़ में मानवता को लहूलुहान किया जाता है । ताबिश खैर के मुताबिक जबतक कट्टरपंथ की ओर झुकाव रखनेवाली महिलाओं को इसका अहसास होगा तबतक बहुत देर हो चुकी होगी । अपने इस नतीजे को जमीला और अमीना के मार्फत कहते चलते हैं ।
अपनी पारिवारिक स्थितियों से उबकर कट्टर इस्लाम की ओर झुकाव रखनेवाली अमीना और जमीला सोशल नेटवर्किंग साइट्स और यूट्यूब पर कट्टरपंथी भाषणों को सुनने लगती हैं । वहां वो फेसबुक और ट्वीटर पर उन साइट्स पर जाने लगती हैं जो युवाओं को धर्म के नाम पर बरगलाते हैं । उस तरह के लिटरेचर को पढ़कर आधुनिक विचारों वाली अमीना में बदलाव देखने को मिलने लगता है और उसकी वेशभूषा जीन्स स्कर्ट से बदलकर बुर्के तक पहुंच जाती है । इतना ही नहीं इंटरनेट पर उनका संपर्क एक धर्मगुरू टाइप शख्स से होता है जो अपनी लच्छेदार बातों से उन दोनों का ब्रेनवॉश करता है । वो इन दोनों महिलाओं को ये बताने में कामयाब हो जाता है कि जिहाद में महिलाओं की बड़ी भूमिका है । इसके बाद वो एक वृहत्तर कॉज और अपने धर्म की रक्षा के लिए इंगलैंड में अपना घर-बार, परिवार को छोड़कर सीरिया के लिए निकल पड़ती हैं । अमीना और जमीला के इस फैसले का लक्ष्य एक, लेकिन आधार अलग । अमीना के लिए विचारधारा आधार बनती है तो जमीला के लिए ये एक तरह की आजादी थी क्योंकि उसकी मां उसकी मर्जीके बगैर शादी करवाना चाहती थी । अब इस तरह की बातें ही ताबिश खैर के उस उपन्यास को किताबों की भीड़ से अलग कर देती है ।
सीरिया पहुंचने के बाद दोनों उसी धर्मउपदेशक के अनाथालय में काम करने लगती हैं । शुरुआत में तो उनको लगता है कि उनका फैसला बिल्कुल सही था लेकिन धीरे-धीरे असलियत खुलने लगती है । अमीना शादी कर लेती है उधर जमीला का अनाथालय की हालत को देखकर मोहभंग होने लगता है । उस अनाथालय में छोटी छोटी लड़कियों को आत्मघाती दस्ता में शामिल होने के लिए तैयार किया जाता है । इसी क्रम में जब एक छोटी सी लड़की हाल्दी ये कहती है कि कुरान तो खुद को मारने का नाजायज कहता है तो उसको बुरी तरह से यातनाएं दी जाती हैं । धर्म के नाम पर ये सब होता देख जमीला के अंदर कुछ दरकने लगता है । उधर अमीना जब ये देखती है कि एक दस साल के बच्चे सबाह को यजीदी होने पर गला रेत कर हत्या कर दी जाती है तो उसके मन के कोने अंतरे में भी मोहभंग की चिंगारी सुलगने लगती है । अमीना तय करती है कि वो कुर्दिश हमलावरों के खिलाफ आत्मघाती दस्ता में शामिल होगी और जब उसका पति इसके लिए तैयार होता है तो वो आखिरी मौके पर वो खुद उड़ाती है और उस धमाके में इसका पति हसन और उसके साथी मारे जाते हैं । ये अमीना का इंतकाम था सबाह की कत्ल का । ये पूरी किताब धार्मिक उन्माद की कलई खोलते चलती है और मुस्लिम युवाओं के रैडिकलाइजेशन की वजहों की पड़ताल भी करती है इस लिहाज से ये किताब इस वक्त बेहद मौजूं है ।

Sunday, September 11, 2016

विवाद के भंवर में साहित्य

साहित्यक पत्रिका सामयिक सरस्वती के ताजा अंक में कथाकार और पेंटर प्रभु जोशी और कहानीकार भालचंद्र जोशी के बीच का एक विवाद प्रकाशित हुआ है । इस विवाद को लेकर संपादक की एक टिप्पणी है- साहित्य में विवाद का पुराना रिश्ता है । समय समय पर साहित्य की दुनिया में लेखकों के लिखे पर विवाद होता रहते हैं । कुछ वर्ष पुरानी बात है जब मैत्रेयी पुष्पा को लेकर ये हवा गरम रहती थी कि उनके लिए राजेन्द्र यादव और उनकी एक पूरी टीम लिखती है । फिर ये विवाद महुआ माजी को लेकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा का विषय बना । ...तो कथाकार जयश्री रॉय के लेखन पर भी इस विवाद के छींटे आयी। इधर ताजा विवाद प्रभु जोशी के ऑडियो ने फैलाया है, जिसमें वो कथाकार भालचंद्र जोशी पर अपनी बात कहते हैं । हमने उनके ऑडियो को ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने की कोशिश की है । साथ ही इस विषय पर भालचंद्र जोशी का मत भी प्रकाशित कर रहे हैं । हमारा मानना है कि साहित्य में इस तरह के विवादों से साहित्य को ही नुकसान होता है । इस विवाद पर पाठकों की प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है ।जोशी बनाम जोशी विवाद पर थोड़ा ठहरकर आते हैं लेकिन पहले सामयिक सरस्वती के संपादक की टिप्पणी पर विवात कर लेते हैं । संपादक का मानना है कि इस तरह के विवादों से साहित्य का नुकसान होता है लेकिन अगली ही पंक्ति में वो पाठकों से प्रतिक्रिया मांग रहे हैं । संभव है वो अपने मत पर पाठकों की स्वीकृति चाहते हों लेकिन अगर संपादक का मानना है कि इस तरह के विवादों से साहित्य का नुकसान होता है तो उसको अपनी प्रतिष्ठित पत्रिका में इतना जगह देना क्या उचित है । यह तो वैसी ही प्रवृत्ति है जो इन दिनों न्यूज चैनलों में खासतौर पर दिखाई देने लगी है । बहुधा विवादित वीडियो पर ये लिखा होता है कि – चैनल इस वीडियो की प्रामाणिकता की पुष्टि नहीं करता है लेकिन उस वीडियो को दिनभर बार-बार दिखाया जाता है । अगर विवाद साहित्य के लिए नुकसानदायक हैं तो उसको हवा देने की क्या आवश्यकता और अगर वीडियो के प्रामाणिकता की पुष्टि नहीं कर सकते हैं तो उसको लगातार दिखाने की क्या मजबूरी ? इसके पीछे की वजह क्या है इस बारे में फैसला लेने का अधिकार पाठकों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए ।
अब आते हैं जोशी बनाम जोशी विवाद पर । दरअसल पिछले दिनों इंदौर में एक साहित्यक जलसे में कथाकार और चित्रकार प्रभु जोशी के दिए भाषण का एक ऑडियो साहित्यप्रेमियों के बीच व्हाट्सएप पर जमकर साझा किया गया । इस ऑडियो में प्रभु जोशी अपनी दमदार आवाज में भालचंद्र जोशी के लेखन को लेकर आक्रामक नजर आ रहे थे । लेकिन ऑडियो और उसकी सत्यता की प्रामाणिकता हमेशा से संदिग्ध रही है लिहाजा साहित्य जगत में आपसी बातचीत में तो प्रभु जोशी के इस कथित ऑडियो को लेकर खूब चर्चा हुई लेकिन कहीं इसके बारे में ना तो लिखा गया और ना ही छापा गया । अब सामयिक सरस्वती ने प्रभु जोशी के उस ऑडियो का लिप्यांतरण कर छाप दिया है और साथ में भालचंद्र जोशी की लंबी सफाई भी छापी गई है । प्रभु जोशी ने अपने भाषण में दावा किया है कि जबतक भालचंद्र जोशी उनके साथ रहे तबतक उनकी कहानियों का पुनर्लेखन करते रहे । अपने दावों के समर्थन में वो अपने बेटे का उदाहरण देते हुए कहते हैं - मेरा बेटा कभी-कभी फोन करता और बाइचांस ये ( भालचंद्र जोशी) होते तो उठा लेता था तो वो चिढ़ता था कि ये आदमी..क्या फिर आपसे कहानी लिखवाने आ गया है । आप अपनी भाषा का क्लोन पैदा करना चाहते हो क्या पापा ? जिस दिन आप लिखना शुरू करोगे तोलोग समझेंगे कि भालचंद्र जोशी की नकल कर रहा है ।प्रभु जोशी ने अपने भाषण में ये साबित करने के लिए कि वो भालचंद्र की कहानियों का पुनर्लेखन करते हैं, अपनी पत्नी से हुई बातचीत से लेकर बेटे को लिखे पत्रों का हवाला देते हैं । वो कई साहित्यकारों से हुई बातचीत का हवाला भी देते हैं और भालचंद्र को मूर्ख साबित करने की कोशिश करते हुए ये सलाह भी देते हैं कि वो खोखला जीवन जीना बंद करे ।
इसके अलावा प्रभु जोशी ने भालचंद्र पर किए एहसानों की सूची भी गिनाई । लेकिन बात सिर्फ इतनी सी प्रतीत होती है कि प्रभु जोशी को ये अब लगता है कि उन्होंने भालचंद्र जोशी के लिए कहानियां लिखकर गलती कर दी । भालचंद्र उनसे ज्यादा मशहूर हो गया । लेकिन प्रभु जोशी ने जिस तरह से दूसरे साहित्यकारों का नाम लिया है उससे उनकी भी कुंठा उजागर होती है । जैसे एक जगह वो आलोचक रोहिणी अग्रवाल को रोहिणी-वोहिणी अग्रवाल कहते हैं । क्या इस तरह से साथी रचनाकारों का नाम लेनास वो भी सार्वजनिक मंच पर, मर्यादित व्यवहार है?  इससे पता चलता है कि प्रभु जोशी के अंदर भालचंद्र को लेकर कोई ग्रंथि है जिसकी वजह से वो ऐसी हल्की और अमर्यादित बातें करते हैं । अगर कुछ देर के लिए ये मान भी लिया जाए कि प्रभु जोशी उनकी कहानियों का क्लाइमेक्स बदल देते हैं या फिर कुछ बदलाव का सुझाव देते हैं तो इसमें गलत क्या है । हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने जाने कितने कहानीकारों की कहानियों का अंत बदलवाया होगा, कितनी कहानियों के पात्रों के चरित्र को बदलवाया होगा तो क्या ये मान लिया जाए कि सबके लिए यादव जी ही लिखते थे । साथी रचनाकार एक दूसरे से अपनी रचनाएँ साझा करते हैं और उसपर सुझाव आदि भी मांगते और उसपर अमल करते हैं । इसमें बुराई क्या है ।
भालचंद्र जोशी ने अपनी सफाई में भी ये माना है कि प्रभु जोशी ने उनकी कुछ कहानियों में बदलाव के सुझाव दिए  थे जो उन्होंने मान लिए थे । अपनी सफाई में भालचंद्र ने भी मर्यादा की सारी हदें पार कर दी हैं । उनकी टिप्पणियों पर गौर करें- शहर के इस असफल और भारत भवन के पेंटरों की भाषा में प्राथमिक स्कूल के बच्चोंनुमा पेंटिंग करनेवाले पेंटर और एक चुके हुए लेखक दोनों ने अपनेसभी क्षेत्रों की असफलता और कुंठा की भड़ास मुझ पर निकाली और इस कुंठा, भड़ास और ईर्ष्या से लिपटी भाषा से निर्मित खुद की स्तरहीन छवि से उपस्थित श्रोताओं को हतप्रभ कर दिया।इसके अलावा अपने लेख में भालचंद्र जोशी ने प्रभु जोशी पर अंधविश्वासी होने का आरोप भी लगाया । उन्होंने कई प्रसंगों को उद्धृत कर प्रभु जोशी के दोहरे चरित्र को उजागर करने का उपक्रम भी किया है । परंतु लगभग हप विवाद की तरह इस विवाद की नींव भी पांच लाख रुपय़ों को लेकर पड़ी प्रतीत होती है जब प्रभु जोशी के लिए भालचंद्र जोशी ने जुटाए थे । खैर ये व्यक्तिगत मसले हैं और उनको साहित्यक विवाद की आड़ देना उचित नहीं है । दरअसल इन दिनों हिंदी में साहित्यक विवादों की जगह व्यक्तिगत राग-द्वेष ने ले ली है ।

जोशी बनाम जोशी विवाद के अलावा जिस तरह से कवयित्री गगन गिल को लेकर फेसबुक पर विवाद उठा वो भी बिल्कुल अवांछित था । जिस तरह से गगन गिल के विवाद में फेसबुक पर लेखक बंटे नजर आए वो भी चिंतनीय है । गगन गिल विवादों से दूर रहती हैं और निर्मल वर्मा की मृत्यु के बाद साहित्यक समारोहों आदि में भी कम ही नजर आती हैं । उन्होंने खुद को समेट लिया है तो ऐसे माहौल में उनपर कीचड़ उछालना गलत है । जिस तरह से कुछ लेखकों ने अपनी साथी लेखिकाओं को लेकर टिप्पणियां की वो उनकी मानसिकता को उघाड़ने वाली हैं । हमारा तो मानना है कि लेखिकाओं पर टिप्पणी करनेवाले लेखक अपने गिरेबां में झांक कर देखना चाहिए । दरअसल हिंदी साहित्य में इन दिनों विवादों का स्तर बहुत गिर गया है । हिंदी के पाठकों को याद होगा कि मई दो हजार एक में साहित्यक पत्रिका वर्तमान साहित्य में उपेन्द्र कुमार की एक कहानी- झूठ कीमूठ छपी थी । उस कहानी में तलवार को रूपक के रूप में उठाकर महानगर दिल्ली के बजबजाते हुए समकालीन साहित्यक परिदृश्य को उभारने की कोशिश की गई थी । उस व्यंग्यात्मक रचना की सफलता इस बात में थी कि वो कहानी सपाटे से हिंदी साहित्यकारों के चरित्र, व्यवहार और लेखन को गहराईमें उजागर ही नहीं करती, साहित्य की राजनीति से भी परिचित कराती हुई सीधे मर्म पर चोट करती है । उस वक्त हिंदी के कुछ साहित्यकारों ने तलवार के प्रतीक को जातीय दंभ से जोड़कर देखा था लेकिन उसपर हुई चर्चा में एक साहित्यक मर्यादा कायम रही थी । कई अखबारों ने उस कहानी पर पूरे पृष्ठ की परिचर्चा करवाई थी परंतु कहीं भी लक्ष्मण रेखा नहॆं लांघी गई थी । कुछ ऐसा ही हुआ था जब राजेन्द्र यादव ने होना सोना लिखा था । जमकर बहसे हुईं, तर्क वितर्क हुए लेकिन तब भी कुतर्क को कोई स्थान नहीं मिला था । जबकि अब तो विवादों में कुतर्क ही केंद्र में है और बाकी सबकुछ परिधि के बाहर ।   

Saturday, September 10, 2016

पुरस्कारों का खुला खेल

फिल्म नास्तिक में कवि प्रदीप का लिखा एक गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था । उस गीत का मुखड़ा है– देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान/ कितना बदल गया इंसान, कितना बदल गया इंसान/सूरज ना बदला / चांद ना बदला /ना बदला रे आसमान/कितना बदल गया इंसान/कितना बदल गया इंसान/ आया समय बड़ा बेढ़ंगा /आज आदमी बना लफंगा । गाना तो ये फिल्म की थीम के हिसाब से फिट बैठता था लेकिन अगर इस गाने को आज के साहित्यक परिदृश्य, खासकर साहित्यक पुरस्कारों के संदर्भ में देखें तो वहां भी सटीक प्रतीत होता है । गीत के बोल में चंद शब्दों के हेर फेर से पूरा का पूरा हिंदी का साहित्यक परिदृश्य जीवंत हो सकता है । संसार की जगह साहित्य संसार कर दें और इंसान की जगह लेखक कर दें तो स्थिति बिल्कुल साफ हो जाएगी । हिंदी में पुरस्कारों को लेकर जो हालात बन रहे हैं वो बेहद चिंताजनक हैं । अब से कुछ समय पहले तक साहित्यक पुरस्कारों को लेकर सेटिंग गेटिंग का खेल पर्दे के पीछे चलता था जिसके बारे में चंद लोगों को ही पता चल पाता था या फिर साहित्यक बैठकों में उसपर चर्चा होकर खत्म हो जाती थी । पिछले दिनों इस बात को लेकर खूब चर्चा रही थी कि किस तरह से एक उपन्यासकार ने खुद के लिए पुरस्कार को लेकर व्यूहरचना की थी  और उसमें वो सफल भी रहे थे । दबी जुबान में इसकी चर्चा रही थी लेकिन खुलकर बात सामने नहीं आ पाई थी । वो बात भी इस वजह से खुल गई थी कि पुरस्कार के आयोजकों ने पहले किसी दूसरे उपन्यासकार को पुरस्कार देने की बात कह डाली थी लेकिन बाद में बदली हुई परिस्थिति में किसी अन्य को वो पुरस्कार मिला । आहत उपन्यासकार ने बात खोल दी थी । इसी तरह से साहित्य अकादमी के पुरस्कार को लेकर भी तमाम तरह के दंद-फंद होते रहते हैं लेकिन वो कभी इतने ओवियस नहीं होते कि पाठकों तक को ये पता लग जाए कि ये होनेवाला है या फिर इस वजह से ये हुआ । अब तो खुला खेल फरूखाबादी हो गया है और साफ-साफ दिखने लगा है कि किस वजह से अमुक लेखक को पुरस्कार मिला है । इस खेल के खुलने में फेसबुक का बड़ा योगदान है । फेसबुक पर प्रसिद्धि की चाहत लेखकों को आयोजनों आदि की तस्वीर डालने के लिए दबाव बनाती है । आयोजनों की तस्वीरों और बाद में पुरस्कारों की सूची पर नजर डालेंगे तो एक सूत्र दिखाई देता है । उस सूत्र को पकड़ते ही सारा खेल खुल जाता है । और हां ये सूत्र कोई गणित के कठिन सूत्र की तरह नहीं होता है यहां बहुत आसानी से इसको हल किया जा सकता है । किसी पुरस्कार या लेखक का नाम लेकर मैं उनकी साख पर सवाल खड़ा करना नहीं चाहता हूं लेकिन इस बात के पर्याप्त संकेत करना चाहता हूं कि साहित्य में इस तरह की बढ़ती प्रवृत्ति से उसके सामने साख का संकट बड़ा हो सकता है ।

अब अगर पुरस्कारों की सूची देखी जाए तो ये बात भी साफ तौर पर नजर आती है कि कुछ पुरस्कार तो उसको देनेवाले अपनी साख मजबूत करने के लिए देते हैं । कुछ महीनों पहले हिंदी के वरिष्ठ और बेहद संजीदा कथाकार ह्रषिकेश सुलभ ने एक बातीचत में कहा था एक वक्त जिन साहित्यकारों की साहित्य में दुंदुभि बजती थी उनका आज कोई नामलेवा नहीं है । उनका मानना था कि समय सबसे बड़ा निकष है और पाठक अच्छे बुरे को छांट लेता है । यहां विनम्रतापूर्वक सुलभ जी को याद दिलाना चाहता हूं कि इन दिनों लेखकों को समय रूपी निकष की परवाह नहीं है बल्कि वो पुरस्कारों को इसकी कसौटी मानकर चल रहे हैं । पुरस्कारों को लेकर ह्रषीकेश सुलभ का मानना है कि अगर मंशा लेखन को सम्मानित करने का है तो बहुत अच्छा है लेकिन अगर मंशा पुरस्कार के बहाने खुद यानि आयोजकों का स्वीकृत होना है तो ये सम्मान के साथ छल है । ये छल इन दिनों साफ तौर पर कई पुरस्कारों में दिखाई देता है । छोटे-छोटे पुरस्कार बड़े-बड़े लेखकों को उनके उन योगदान पर दिया जा रहा है जो अपेक्षाकृत लेखकीय अवदान से कमजोर हैं । हाल के दिनों में पुरस्कृत लेखकों और उनको पुरस्कृत किए जाने की विधा या वजह पर नजर डालें तो तो इसको साफ तौर पर लक्षित किया जा सकता है । साहित्यक पत्रकारिता के लिए उनको पुरस्कृत किया जा रहा होता है जो पिछले कई दशकों से किसी साहित्यक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं लेकिन उसी श्रेणी में कई बार ऐसे लेखकों को पुरस्कृत कर दिया जाता है जो जुम्मा जुम्मा चार दिनों से साहित्यक पत्रकारिता में डग भरना सीख रहे हैं । साफ है कि पुरस्कार आयोजकों की मनमर्जी से या फिर किसी अन्य वजह से तय किए जाते हैं । जाहिर है कि ये वजह साहित्येतर ही होते हैं ।
हिंदी में एक दौर में जिस तरह से लघु पत्रिकाएं निकलने लगी थीं और एक दो अंक निकालकर संपादक बनने का उपक्रम चला था उसी तरह से अब पुरस्कारों के कारोबारी सक्रिय हो गए हैं । उनकी सक्रियता की कई वजहें हैं और उन वजहों की पड़ताल की जानी आवश्यक है । इन वजहों को लेकर साहित्य में गंभीर और देशव्यापी बहस भी होनी चाहिए । पुरस्कार देकर अपने को प्रासंगिक बनाने के इस उपक्रम में लेखकों का लाभ नहीं हो रहा है बल्कि कई बार तो नए लेखकों का दिमाग इतना खराब हो जाता है कि वो खुद को टॉलस्टाय समझने लगता है । नतीजा यह होता है कि उसका रचनात्मकता खत्म होने लगती है और एक संभावना की असमय मौत हो जाती है । यह स्थिति हिंदी साहित्य के लिए बेहद खराब है । हिंदी और साहित्य से प्यार करनेवालों को इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए फौरम कदम उठाने की आवश्यकता है । पुरस्कारों के इस लेन-देन के कारोबार पर अगर हिंदी साहित्य में जल्द रोक नहीं लगाई गई तो फिर वो दिन दूर नहीं जब बड़े से बड़े पुरस्कार को लेकर साहित्य जगत में कोई स्पंदन नहीं होगा ।