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Monday, September 27, 2021

संघर्ष और समर्पण की सुरगाथा


लता मंगेशकर, एक ऐसा नाम जिसपर हर भारतवासी को गर्व है। संगीत की दुनिया में बेहद सम्मान के साथ इस नाम को लिया जाता है। भारत रत्न लता मंगेशकर की आवाज में जादू है, उनके अंदर ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा है आदि आदि बातें तो हम उनके बारे में सुनते ही रहते हैं लेकिन ऐसा बहुत कम बार होता है कि उनके संघर्ष को रेखांकित किया जाए। लता मंगेशकर ने उस दौर में गाना शुरु किया था जब तकनीक इतना विकसित नहीं था। साउंड रिकार्डिंग और मिक्सिंग के इतने उन्नत यंत्र नहीं थे। महल का गाना ‘आएगा आनेवाला’ ने लता को बहुत प्रसिद्धि दी। बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी है कि इस गाने में ध्वनि का जो उतार चढ़ाव है वो किसी तकनीक के सहारे पैदा नहीं किया गया बल्कि उसकी रिकार्डिंग उस तरह से की गई। अगर आप गाने को याद करें तो अशोक कुमार जब आईने के सामने खड़े हैं और गाना शुरु होता है तो आवाज दूर से आती लगती है, खामोश है जमाना और फिर तीन चार पंक्तियों के बाद पास से आती प्रतीत होती है। तकनीक के सहारे इस तरह का ध्वनि प्रभाव पैदा किया जा सकता है लेकिन उस वक्त इसको करने के लिए गायक को बहुत मेहनत और संतुलन साधना पड़ा था। लता मंगेशकर ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था कि माइक्रोफोन को कमरे के बीच में रखा गया था और वो कमरे के एक कोने में खड़ी हो गई थीं। पहला छंद खामोश है जमाना गाते हुए लता जी माइक की तरफ बढ़ती जाती और जब माइक के सामने पहुंचती तो आएगा आने वाला शुरु करतीं। ये काम इतना मुश्किल था कि परफेक्शन के लिए इस प्रक्रिया को कई बार दुहराना पड़ा था। खेमचंद प्रकाश ने इस गाने को संगीतबद्ध किया था। रिकार्ड होने के बाद भी इस फिल्म के प्रोड्यूसर सावक वाचा इससे संतुष्ट नहीं थे और उनको लगता था कि ये लोकप्रिय नहीं हो पाएगा, जबकि दूसरे प्रोड्यूसर अशोक कुमार की राय भिन्न थी। इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं जब लता मंगेशकर ने गानों को बेहतर करने के लिए दिन दिन भर प्रयास किए। 1948- 49 वो वर्ष है जब लता मंगेशकर एक दिन में आठ आठ गाने रिकार्ड करती थीं। दो गाने सुबह, दो गाने दोपहर, दो गाने शाम और दो गाने रात में गाती थीं। कई बार ऐसा होता था कि वो सुबह घर से निकलती थीं और देर रात दो तीन बजे तक घर पहुंच पाती थीं। खाने पीने का भी कोई ठिकाना नहीं रहता था। कई बार तो ऐसा होता था कि गाने की रिकार्डिंग हो जाती थी और बाद में बताया जाता था कि रिकार्डिंग ठीक नहीं हो पाई तो फिर से गायक को बुलाया जाता था।

एक संघर्ष तो ये था लेकिन लता मंगेशकर ने वो दौर भी देखा है जब गायकों को उनके गाने का नाम नहीं मिलता था। फिल्मों में भी या बाद में जब रिकार्ड बनने लगे तो उसमें भी आरंभिक दिनों में पार्श्व गायकों को  क्रेडिट नहीं दिया जाता था। यह स्थिति बहुत लंबे समय तक रही। जब आएगा आनेवाला गाने का रिकार्ड बना तो उसपर गायिका के तौर पर कामिनी का नाम छपा । कामिनी फिल्म महल की नायिका का नाम है जिसकी भूमिका में मधुबाला थीं। कल्पना कीजिए तब लता मंगेशकर पर क्या गुजरी होगी जब उन्होंने वो रिकार्ड देखा होगा। इसके पहले जब रेडियो पर ये गाना बजाया जाता था तब इसके गायक का नाम नहीं बताया जाता था। रेडियो स्टेशन में सैकड़ों पत्र सिर्फ ये जानने के लिए आते थे कि इस गाने की गायिका कौन हैं। जब फिल्म बरसात में लता मंगेशकर को गायक के तौर पर क्रेडिट मिला तो वो बहुत खुश हुई थीं। लता मंगेशकर कोई यूं ही नहीं बन जाता। लता मंगेशकर बनने के लिए कई सालों तक तपस्या करनी होती है अपना जीवन समर्पित करना पड़ता है। मुंबई (तब बांबे) के नाना चौक इलाके के दो कमरे के छोटे से फ्लैट में मां और भाई बहनों के साथ रहते हुए लता मंगेशकर ने न दिन देखा और न रात देखी बस एक ही सपना था कि बेहतरीन गाना है। लता मंगेशकर जब भी कोई गाना गातीं तो अपने पिता मास्टर दीनानाथ मंगेशकर की दी वो सीख याद रखतीं जो उन्होंने गायन की शिक्षा आरंभ करते वक्त दी अपनी छोटी सी बेटी को दी थी। उन्होंने तब लता को कहा था कि ‘गाते समय हमेशा ये सोचना कि तुमको अपने पिता या गुरु से बेहतर गाना है।‘  लता मंगेशकर इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय रहकर खुद को देश और समाज से जोड़े रखती हैं।


 

Saturday, September 25, 2021

सूफियों पर पुनर्विचार की जरूरत


हिंदी के मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह की एक पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ 1982 में प्रकाशित हुई थी। तब उस पुस्तक की बहुत चर्चा हुई थी। इसकी भूमिका में नामवर सिंह ने स्वीकार किया था कि ‘परंपरा के समान ही खोज भी एक गतिशील प्रक्रिया है’। उसी गतिशील प्रक्रिया के तहत उन्होंने अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि की खोज की थी। इस पुस्तक के प्रकाशन  के 37 साल बाद एक और मार्क्सवादी आलोचक सुधीश पचौरी ने ‘तीसरी परंपरा की खोज’ पुस्तक लिखी जिसे वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया। सुधीश पचौरी अपनी इस पुस्तक में ‘हिंदी साहित्य के उपलब्ध इतिहास की अबतक न देखी गई सीमा को उजागर करने’ का दावा करते हैं। ये भी कहते हैं कि ‘ये हिंदी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन का दरवाजा खोलती है’। इसमें नामवर सिंह की खोज से आगे जाकर सुधीश पचौरी ने कुछ ‘खोजा’ है। इस लेख का उद्देश्य इन दोनों पुस्तकों की तुलना करना नहीं है बल्कि सुधीश पचौरी की पुस्तक के कुछ निष्कर्षों पर विचार करना है। सुधीश पचौरी ने अपनी पुस्तक में सूफियों को इस्लाम का प्रचारक कहा है। अपनी इस अवधारणा के समर्थन में उन्होंने पूर्व में लिखी गई पुस्तकों और वक्तव्यों का सहारा लिया है। सुधीश पचौरी लिखते हैं, ‘मध्यकाल के इतिहास ग्रंथों में सूफी कवियों की छवि ठीक वैसी नजर नहीं आती जैसा कि हिंदी साहित्य के इतिहास में नजर आती है। साहित्य के इतिहास में वे सिर्फ कवि हैं जबकि इतिहास ग्रंथों में वो वे इस्लाम के प्रचारक के तौर पर सामने आते हैं। साहित्य के इतिहास का लेखन अगर अंतरानुशासिक नजर से किया जाता तो सूफियों की इस्लाम के प्रचारक की भूमिका स्पष्ट रहती।‘ सुधीश पचौरी ने इस बात को साबित करने की कोशिश की है कि सूफी लोग सुल्तानों के साथ आते थे। उनका काम इस्लाम का प्रचार होता था लेकिन यहां के यथार्थ की जटिलताओं को देखकर कई सुल्तान कट्टर की जगह नरम लाइन लेने लगते थे उसी तरह सूफी भी अपनी लाइन को बदलते थे। 

इतिहासकार मुजफ्फर आलम की बातों से इसकी पुष्टि भी होती है। उनके हवाले से लिखा गया है कि ‘उत्तर भारत में ग्यारहवीं शताब्दी में गजनवी के हमलों के साथ ही सूफियों का आगमन हो गया था। तेरहवीं शताब्दी में जब सल्तनत स्थापित हो गया तब सूफियों ने भी अपना विस्तार आरंभ किया’। सूफियों के विस्तार का तरीका बहुत चतुराई भरा था। वो इस्लाम के धर्मगुरुओं से अलग तरीके से काम करते थे लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही होता था कि जिन इलाकों को सुल्तान जीतता था उन इलाकों में इस्लाम को मजबूत करते चलना। इस काम के लिए वो भारत के संतों और महात्माओं से संवाद करते थे और उनकी उन बातों को अपनी रचनाओं में शामिल कर लेते थे जो उनके धर्म को बढ़ावा देने के काम आ सकती थीं। इतिहासकार जियाउद्दनी बरनी के हवाले से ये भी बताया गया है कि जब सुल्तान शम्सुद्दीन अलतुतमिश से इस्लाम के धर्मशास्त्रियों ने शरीआ लागू करने की मांग की और हिंदुओं के सामने इम्माइल इस्लाम-इम्माइल कत्ल यानि इस्लाम या कत्ल में से एक को चुनने का विकल्प दिया जाए तो सुल्तान ने बेहद चतुराई से इस मसले को टाल दिया था। सुल्तान ने तब कहा था कि अभी अभी हिन्दुतान को जीता गया है जहां हिन्दू बड़ी संख्या में रहते हैं। अगर अभी शरीआ लागू की गई तो हिंदू एकजुट हो सकते हैं और विद्रोह हो सकता है। जब मुस्लिम सेनाएं और ताकतवर हो जाएंगी तब हिंदुओं को इस्लाम या मृत्यु में से एक विकल्प चुनने की बात होगी। इस प्रसंग में अगर सूफियों के उपयोग की बात जोड़कर देखें तो पूरा परिदृश्य साफ हो जाता है। 

हिंदी साहित्य कि बात करें तो सूफियों को इस तरह से स्थापित किया गया कि वो सामाजिक समरसता को बढ़ाने में या सामासिक संस्कृति की जड़ें मजबूत करने के लिए अपनी कविताओं और गीतों का उपयोग करते थे। उनको इस तरह से स्थापित किया गया कि कई लोग तो सूफी ‘संत’ तक कहे जाने लगे। साहित्य के इतिहास में ऐसे कई ‘संतों’ का उल्लेख मिलता है। जबकि वो उन दिनों अपने धर्म का प्रचार करने के लिए इस भूमि पर आए थे। उनका उपयोग उस दौर के आक्रमणकारियों ने साफ्ट पावर के तौर पर किया था। जो काम तलवार नहीं कर पा रही थी उस काम को इन कथित संतों ने अपनी बोली और वाणी से करने का काम किया। इन ‘संतों’ को स्थापित और लोकप्रिय करने के लिए कई मार्क्सवादी इतिहासकारों ने श्रमपूर्वक इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा मरोड़ा। सतीश चंद्रा ने मध्यकालीन भारत का इतिहास लिखते हुए भक्तिकाल के कवियों की चर्चा में सूफियों को तो याद किया लेकिन तुलसीदास का नाम भी नहीं लिया। ये भूल नहीं हो सकती, ये सायास था। ऐतिहासिक घटनाओं की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत की गई जिसने हमारे देश में इस्लाम के प्रचार प्रसार को अलग ही रंग दे दिया। युद्ध में जय पराजय को उस वक्त हमारे देश में व्याप्त सामाजिक स्थितियों से जोड़कर देखा गया। नागरीय क्रांति जैसे पद गढे गए। भारतीय समाज को जातियों में बांटकर इतिहास लेखन किया गया। उस वक्त समाज में व्याप्त कुरीतियों को भी इतिहास लेखन का आधार बनाया गया।  लेखन की इस पक्षपाती प्रविधि ने इतिहास को एकांगी कर दिया। अगर इतिहास को समग्रता में लिखा गया होता और सारी बातों जनता के सामने आती तो संभव है कि इतिहास के पुनर्लेखन की बात नहीं होती। दुनिया में इतिहास लेखन इस बात का गवाह है कि जब भी इतिहास लेखन एकांगी हुआ है तो उसको वर्षों बाद भी समावेशी करने की कोशिशें हुई हैं। अगर इतिहासकार किसी भी देश के इतिहास को यथार्थ से दूर लेकर जाते हैं और उसमें कल्पना या अपने सिद्धांत के आधार पर की गई व्याख्या को यथार्थ बनाने की कोशिश करते हैं तो फिर उसके पुनर्लेखन की बात होती ही है चाहे वो दशकों बाद हो या उससे भी बड़े कालखंड के बाद। 

सूफियों का जिस तरह से महिमामंडन किया गया वो भले ही बहुत लंबे कालखंड तक स्वीकार्य रहा लेकिन अब साहित्य के अंदर से ही उस महिमामंडन पर प्रश्न खड़े होने आरंभ हो गए हैं। हिंदी साहित्य में अनेक प्रकार के ज्ञानात्मक विमर्श होते रहे हैं लेकिन साहित्य के इतिहास लेखन को लेकर बहुत अधिक उत्साह नहीं दिखाई देता। यूरोप और अमेरिका में आज से करीब पचास पूर्व ही इतिहास लेखन को लेकर एक बहुत गंभीर बहस चली थी। न सिर्फ बहस चली बल्कि इतिहास को नए नजरिए से देखने की कोशिशें भी हुईं। हमारे देश में इतिहास लेखन को राजनीति से जोड़ दिया जाता है इस वजह से हमारे यहां इतिहास लेखन की प्रविधियों को लेकर न तो विमर्श हो पाता है और न ही नए दृष्टिकोण से लेखन। नतीजा यह होता है कि जब भी कोई लेखक इतिहास को नए सिरे से लिखने की कोशिश करता है तो उसको हतोत्साहित किया जाता है। आज जब हमारा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है कि तो ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि इतिहास लेखन को लेकर ऐसा माहौल बनाया जाए कि अलग अलग तरीके से घटनाओं और प्रवृतियों पर विचार किया जाए। हिन्दुस्तान पर आक्रमण करके उसको गुलाम बनानेवाली ताकतों और उन ताकतों को भारत में स्थापित करने वाले तमाम लोगों, समूहों और शक्तियों के बारे में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर समग्र विश्लेषण हो। कोई तथ्य न दबाया जाए न छिपाया जाए। न तो सतीश चंद्रा जैसी गलती होने दी जाए और न ही सूफियों के बारे में उपलब्ध तथ्यों को दबाया जाए। 


Friday, September 24, 2021

आक्रांता के सेनापति के नाम सड़क


अगर आप कभी पूर्वी दिल्ली से लोदी कालोनी होते हुए बीके दत्त कालोनी जाते हैं तो आपको एक सड़क से गुजरना पड़ता है। उस सड़क का नाम है नजफ खान रोड। ये लोदी कालोनी के बाहर बाहर निकलती है और इसी सड़क पर नजफ खान का मकबरा भी है। ये मकबरा एक बहुत बड़े पार्क में बना हुआ है। कभी आपने सोचा है कि ये नजफ खान कौन था जिसके नाम पर इस महत्वपूर्ण इलाके की एक सड़क का नामकरण हुआ। आज जब हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि वो कौन लोग थे जिन्होंने हिन्दुस्तान को परतंत्र बनाए रखने के लिए दर्जनों युद्ध लड़े । जब मुगलों की सत्ता कमजोर होने लगी थी तो शाह आलम द्वितीय ने मिर्जा नजफ खान को अपना सेनापति बनाया था। मिर्जा नजफ खान ने मुगलों की सत्ता को फिर से स्थापित करने के लिए सेना को संगठित किया और दिल्ली के आसपास कई युद्ध लड़े। उसने जाट राजा नवल सिंह की सेना के साथ मैदानगढ़ी पर कब्जा करने के लिए युद्ध किया था। इस युद्ध में नजफ खान बुरी तरह से घायल हुआ लेकिन मैदानगढ़ी पर कब्जा करने में उसको कामयाबी हासिल हुई। नजफ खान यहीं नहीं रुका था उसने दिल्ली से करीब सवा सौ किलोमीटर दूर रामगढ़ के किले पर कब्जे के लिए भी उसपर चढाई की और कई दिनों के युद्ध के बाद उसपर कब्जा कर लिया। उसने रामगढ़ के किले पर कब्जा करने के बाद उसका नाम बदलकर अलीगढ़ कर दिया। तब से अलीगढ़ उसी के नाम से जाना जाता है। 

मिर्जा नजफ खान बहुत शातिर सैनिक था और वो जानता था कि साम्राज्य को बढ़ाने और उसको कायम रखने के लिए किन किन विधियों का उपयोग करना चाहिए। मुगल सल्तनत को दिल्ली में मजबूती देने के लिए उसने जासूसी का एक पूरा तंत्र विकसित किया था। उसके पास महल के अंदर की हर गतिविधि की जानकारी होती थी। यहां तक कि वो शाह आलम द्वितीय के हरम पर भी नजर रखता था। वो अपने विरोधियों को निबटाने के लिए खुफिया जानकारियों का उपयोग करता था। उसके जासूस आम जनता पर भी नजर रखते थे ताकि किसी तरह की विद्रोही गतिविधि से निबटा जा सके। नजफ खान को इस बात के लिए याद किया जाना चाहिए कि उसने दिल्ली के आसपास हुए स्थानीय विद्रोह को नाकाम किया, उसको रोका ताकि मुगलों का राज कायम रह सके। विदेशी आक्रांताओं को मदद और मजबूती देनेवाले नजफ खान नाम पर स्वाधीन भारत में सड़क होना सालता है।  

Saturday, September 18, 2021

गलतियां सुधारने की चुनौतियां


उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में महाराजा महेंद्र प्रताप सिंह राज्य विश्वविद्यालय की आधारशिला रखने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम के राष्ट्र नायकों और राष्ट्र नायिकाओं को याद करते हुए कहा कि उनकी तपस्या से देश की अगली पीढियों को परिचित ही नहीं कराया गया। बीसवीं सदी की उन गलतियों को आज इक्कीसवीं सदी का भारत सुधार रहा है। अलीगढ़ के समारोह के दो दिन बाद प्रधानमंत्री ने दिल्ली में संसद टीवी का शुभारंभ किया। संसद टीवी का गठन लोकसभा टीवी और राज्यसभा टीवी के विलय के बाद किया गया है। जब प्रधानमंत्री संसद टीवी का शुभारंभ कर रहे थे तो उनका अलीगढ़ में दिया उपरोक्त भाषण याद रहा था कि बीसवीं सदी की गलतियों को आज इक्कसीवीं सदी का भारत ठीक कर रहा है। आपके मन में प्रश्न उठ सकता है कि कैसे? इसको समझने के लिए हमें तीन दशक पूर्व जाना होगा। 1989 में ये संसद सत्र के दौरान की कार्यवाही का कुछ अंश दूरदर्शन पर दिखाने का फैसला हुआ। इस तरह से दूरदर्शन लोकसभा की शुरुआत हुई। कुछ सालों बाद दूरदर्शन लोकसभा पर प्रश्नकाल का प्रसारण आरंभ हुआ। ये व्यवस्था चलती रही। 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी। लोकसभा के अध्यक्ष बने सोमनाथ चटर्जी। सरकार के गठन के कुछ महीने बाद ही लोकसभा के अलग चैनल को लेकर चर्चा शुरु हो गई थी। 2006 में लोकसभा टीवी के नाम से एक स्वतंत्र सैटेलाइट चैनल अस्तित्व में आया। उस समय की मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक स्वतंत्र लोकसभा चैनल शुरु करने के लिए आरंभिक निवेश 8 करोड़ रुपए था और चैनल चलाने के लिए 12 से 15 करोड़ रु वार्षिक खर्च होने का अनुमान लगाया गया था। ये चैनल लोकसभा सचिवालय के अधीन था। 

जब लोकसभा के लिए स्वतंत्र चैनल आरंभ हुआ तो राज्यसभा से जुड़े लोगों में भी अपने चैनल को लेकर चर्चा आरंभ हो गई। 2006 में राज्यसभा की एक समिति ने इसपर विचार किया। समिति इस नतीजे पर पहुंची कि राज्यसभा के लिए एक स्वतंत्र चैनल की जरूरत नहीं है। मामला ठंडे बस्ते में चला गया। लेकिन उसके बाद भी बैठकों का दौर चलता रहा और अंत में  कई तरह की आपत्तियों के बावजूद 2011 में राज्यसभा ने अपना एक स्वतंत्र चैनल लांच कर दिया गया। ये चैनल राज्यसभा सचिवालय के अधीन था। उस वक्त राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी थे। इस चैनल को लांच करने का अनुमानित खर्च 28 करोड़ रुपए था और चलाने का सलाना खर्च 15 करोड़ के करीब था। ये खर्च बढ़ता ही चला गया। फिर तो राज्यसभा ने संविधान के नाम से सीरीज बनावाया और एक फिल्म का भी निर्माण करवाया। इन खर्चों पर विवाद भी उठे। इतना विस्तार से बताने का उद्देश्य ये है कि आपत्तियों के बावजूद हामिद अंसारी की मंजूरी मिली। जो चैनल प्राथमिक रूप से राज्यसभा की कार्यवाही दिखाने के लिए आरंभ किया गया था वो एक खास विचारधारा के लोगों का अड्डा बनने लगा था। कांग्रेस और वामपंथी विचारधारा के लोगों को वहां जगह मिलने लगी थी और वो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपनी विचारधारा का पोषण करने में जुटे थे।  

फिर 2014 में लोकसभा के चुनाव हुए और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी। सुमित्रा महाजन लोकसभा की अध्यक्ष बनीं लेकिन उपराष्ट्रपति का दूसरा कार्यकाल मिलने की वजह से हामिद अंसारी राज्यसभा के सभापति बने रहे। अब ऐसी स्थिति बनी कि राज्यसभा टीवी पर सरकार के कार्यक्रमों की आलोचना करनेवाले लोग बैठकर पैनल चर्चा करने लगे। उन तमाम पत्रकारों और तथाकथित विचारकों को वहां जगह मिलने लगी जो मोदी सरकार का विरोध करनेवाले और कांग्रेस के समर्थक थे। राज्यसभा टीवी से कांग्रेस का एजेंडा चलने लगा। जनता के पैसे का अपव्यय तो हो ही रहा था। 2017 तक तो यही स्थिति बनी रही। 2017 में हामिद अंसारी का कार्यकाल समाप्त हुआ लेकिन वहां काम करनेवाले वही लोग बने रहे। इसी दौर में दोनों चैनलों को मिलाकर एक चैनल करने की शुरुआत हुई जो अब जाकर मूर्त रूप ले सकी। लोकसभा और राज्यसभा चैनल का विलय करके संसद टीवी बना। जब संसद का सत्र चलेगा तो उसकी कार्यवाही दिखाने के लिए दो चैनल चलेंगे, एक पर राज्यसभा और दूसरे पर लोकसभा की कार्यवाही प्रसारित की जाएगी। बीसवीं सदी कि गलती को इक्कीसवीं सदी में सुधारने का प्रयास।

संसद टीवी की शुरुआत से पूर्व की गलती सुधरी लेकिन दूरदर्शन में सुधार कब होगा। प्रसार भारती बनने के बावजूद दूरदर्शन सरकारी चैनल ही माना जाता है। प्रत्यक्ष न सही पर परोक्ष रूप से सरकार का दखल तो है ही। दूरदर्शन के करीब तीस चैनल इस वक्त चल रहे हैं। जिनमें से सात राष्ट्रीय चैनल हैं और बाकी के क्षेत्रीय चैनल हैं। अभी टेलीविजन चैनलों की रेटिंग देख रहा था तो ब्राडकास्ट आडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) के ताजा आंकड़ों की सूची में टॉप टेन में दूरदर्शन कही नहीं है। टेलीविजन रेटिंग में दूरदर्शन की अनुपस्थिति इस ओर संकेत करती है कि उसके कार्यक्रमों को देखा नहीं जा रहा है या कार्यक्रम का वो स्तर नहीं है कि उसको दर्शक पसंद करें। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं हैं जब कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान लाकडाउन लगा था तो दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत सीरियल दिखाया गया था। इन सीरियल ने फिर से लोकप्रियता का नया कीर्तिमान रचा था। निष्कर्ष ये कि अगर कार्यक्रम बेहतर हों तो लोकप्रिय होंगे और बार्क की रेटिंग में स्थान बना पाएंगे। लेकिन कार्यक्रमों का तो ये हाल है कि दूरदर्शन किसान चैनल पर मनोरंजन के कार्यक्रम से लेकर गीत संगीत की  प्रतियोगिता आयोजित होती है।  

दूरदर्शन की अलग ही कहानी है। जब से दूरदर्शन आरंभ हुआ वहां अपेक्षित कार्य संस्कृति का विकास ही नहीं हो पाया। इंजीनियरिंग विभाग को प्रोग्रामिंग विभाग से ज्यादा महत्व दिया गया। आज भी कमोबेश वही स्थिति बनी हुई है। यहां इंजीनियरिंग और संपादकीय विभाग के कर्मचारियों का अनुपात बहुत असंतुलित है। इस असंतुलन की वजह से बाधाएं उत्पन्न होती हैं।  दूरदर्शन को मैन पावर आडिट करवाना चाहिए और उसके आधार पर सुधार करना चाहिए। कई बार तो महत्वपूर्ण कार्यक्रमों की कवरेज के दौरान दूरदर्शन का तामझाम देखकर ही लगता था कि क्या सचमुच इतने कैमरे की जरूरत थी ? जहां तीन या चार कैमरे के सेटअप से काम हो सकता है वहां बीस कैमरे लगा दिए जाते थे। ये अलग बात है कि उनमें से तीन चार काम भी नहीं करते थे। पर मानव संसाधन तो लगता था। इससे भी अधिक दोषपूर्ण दूरदर्शन के नए चैनल खोलने की नीति रही है। नए चैनल खोलने का आधार उसके दर्शक होने चाहिए थे लेकिन आधार राजनीति होती थी। कांग्रेस के शासनकाल में ये पुरानी प्रविधि रही है कि अपने लोगों को खुश करने और सेट करने के लिए संस्थान बना दिए जाते थे। इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं । चिंता की बात ये है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार को आए भी सात साल से अधिक वक्त हो गया है लेकिन दूरदर्शन में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया। राजनीतिशास्त्र की पुस्तकों में पढ़ा था कि सिस्टम को बदलना बहुत आसान नहीं होता है, लेकिन सिस्टम को बदले बगैर उसमें सुधार तो किया ही जा सकता है। कई मंत्रालयों के अधीन कई ऐसी संस्थाएं हैं जो एक ही तरह का काम करती हैं। इस स्तंभ में पहले भी इस बारे में लिखा जा चुका है। नीति आयोग ने भी इन संस्थाओं के पुनर्गठन की बात की थी, उस दिशा में पहल भी हुई लेकिन अबतक ठोस परिणाम सामने नहीं आया है  जिसकी प्रतीक्षा है। 


राजधानी में गुलामी के निशान?


सरकारी नीतियों और फैसलों को लागू करने में नौकरशाही की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर अधिकारी योग्य और कार्यक्रमों को लागू करने की कला में माहिर होता है तो उसको लंबे समय तक याद रखा जाता है। राजनीति के गलियारों में भी उसकी पूछ होती है और उसको समय के साथ बड़ी भूमिकाएं दी जाती हैं। ऐसे ही एक अंग्रेज अधिकारी थे विलियम मैल्कम हेली। 1895 में उन्होंने भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) की परीक्षा पास की और अधिकारी बने। भारत में उनकी पहली पोस्टिंग उपनिवेशन (कोलोनाइजेशन) अधिकारी के तौर पर हुई। उस दौर में उपनिवेशन अधिकारी के अन्य कार्यों में एक कार्य औपनिवेशिक शासन को मजबूत करना था ताकि उसका विस्तार संभव हो सके। मैल्कम हेली ने झेलम में अपनी पदस्थापना के समय ये काम बखूबी किया और बरतानिया सरकार ने उनके कामकाज से खुश होकर 1912 में उनको दिल्ली का कमिश्नर नियुक्त कर दिया। वो इस पद पर छह साल तक रहे। इस दौरान उन्होंने ब्रिटिश राज को अपनी कामों से मजबूती भी दी और जनता के बीच अलग अलग तरीकों से स्वीकार्यता बढ़ाने का काम भी किया। औपनिवेशिक शक्तियों को मैल्कम हेली लगातार अपने काम से खुश कर रहे थे और करियर के शिखर की ओर बढ़ रहे थे। उस दौर के इस तरह के अफसर जनता को बेहतर सपने दिखा कर ब्रिटिश राज के समर्थन में करने की कोशिश कर रहे थे। ये अंग्रेजों की रणनीति का हिस्सा था कि एक तरफ सैन्य सख्ती और दूसरी तरफ प्रशासनिक नरमी से गुलामी की व्यवस्था को बनाए रखा जा सके। 

मैल्कम हेली बाद में पंजाब और तत्कालीन संयुक्त प्रांत के गवर्नर भी बने। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल की वेबसाइट पर इस बात की जानकारी है। उपनिवेशवादी ताकतों को मजबूत करनेवाले इसी अंग्रेज अफसर के नाम पर नई दिल्ली में एक सड़क है नाम है हेली रोड। नई दिल्ली में पहले कई अंग्रेज अफसरों, सैन्य अधिकारियों और ब्रिटिश राज से जुड़े कई लोगों के नाम पर सड़कें आदि थीं। उन सड़कों का नाम धीरे धीरे बदला गया। लेकिन अब भी कई सड़कें विदेशी आक्रांताओं और देश को लंबे समय तक गुलामी की जंजीर में रखनेवालों और उनके मददगारों के नाम पर मौजूद हैं। आज जब पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव वर्ष मना रहा है तो उपनिवेश के इन चिन्हों को मिटाने का अनुकूल समय । बेहतर होगा कि देश को गुलाम बनाए रखने में भूमिका निभानेवाले अफसरों और आक्रांताओं के नाम हटाकर हम भारत के उन सपूतों के नाम पर इन सड़कों और इमारतों का नाम रखें जिन्होंने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान किया। जिन्होंने स्वाधीनता के स्वप्न को साकार करने में अपने प्राणों की आहुति दी।  


Saturday, September 11, 2021

हिंदुत्व को बदनाम करने का उपक्रम


कुछ दिनों से अकादमिक जगत में एक सम्मेलन की बहुत चर्चा हो रही है, जिसका नाम है डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व। इस तथाकथित सम्मेलन के आयोजकों का अता-पता नहीं है। अचानक इंटरनेट मीडिया पर इसकी घोषणा होती है।  इसकी एक वेबसाइट बना दी जाती है जिसपर तीन दिन के आनलाइन सम्मेलन की घोषणा की जाती है। उसपर अमेरिकी विश्वविद्लायों के नाम जुड़ते और हटते रहते हैं। ट्वीटर पर एक हैंडल बनाया जाता है और उससे इस सम्मेलन की गतिविधियां पोस्ट की जाने लगती हैं। दावा किया जाता है कि अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों के विभागों का समर्थन इस सम्मेलन को प्राप्त है। तीन दिन के सम्मेलन में घिसे पिटे विषयों को लेकर आनलाइन चर्चा सत्र आयोजित है। इन सत्रों में वही घिसे पिटे वक्ता हैं जिन्होंने अपने देश में अपनी प्रासंगिकता खो दी है।  असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी के प्रपंच में भी इनमें से कइयों का नाम सामने आया था।तब भी वो सब भारतीय जनता पार्टि की सरकार के खिलाफ एकजुट होकर सामने आए थे। अब एक बार फिर से इस नए शिगूफे से वो अपनी प्रासंगिकता साबित करने की जुगत में लग गए हैं। ऐसे लोगों का  नाम लेकर उनको महत्व देने का कोई अर्थ नहीं है। डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व सम्मेलन को लेकर हमारे देश के भी कुछ विश्वविद्यालय शिक्षक और कार्यकर्ता उत्साहित नजर आ रहे हैं। ये वही शिक्षक हैं जो मानसिक तौर पर गुलाम हैं और उनको हर चीज में व अमेरिका या अन्य देशों में हो रही गतिविधियां पसंद हैं। अपनी परंपरा या अपने पौराणिक ग्रंथों को पढ़ने में शर्म महसूस होती है। ये खुद को वामपंथी विचारधारा की तरफ खड़े दिखाने की कोशिश करते हैं लेकिन अमेरिका की पूंजीवादी व्यवस्था में उनको ज्यादा यकीन है।  

डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व के गुमनाम आयोजकों को न तो हिंदुत्व का ज्ञान है और न ही इसकी व्याप्ति और उदारता का अंदाज। हिंदुत्व के ध्वंस की कई असफल कोशिशें कई स्तर पर कई बार हो चुकी हैं। पिछले दिनों गांधी दर्शन के अध्येता मनोज राय से बात हो रही थी तो उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों की ओर ध्यान दिलाया। गांधी ने विस्तार से इस विषय पर लिखा है जो गांधी वांगमय के खंड 64 में संकलित है। महात्मा गांधी ने काल्पनिक स्थिति पर लिखा है कि ‘यदि सारे उपनिषद् और हमारे सारे धर्मग्रंथ अचानक नष्ट हो जाएं और ईशोपवनिषद् का पहला श्लोक हिंदुओं की स्मृति मे रहे तो भी हिंदू धर्म सदा जीवित रहेगा।‘ गांधी ने संस्कृत में उस श्लोक को उद्धृत करते हुए उसका अर्थ भी बताया है। श्लोक के पहले हिस्से का अर्थ ये है कि ‘विश्व में हम जो कुछ देखते हैं, सबमें ईश्वर की सत्ता व्याप्त है।‘ दूसरे हिस्से के बारे में गांधी कहते हैं कि ‘इसका त्याग करो और इसका भोग करो।‘ और अंतिम हिस्से का अनुवाद इस तरह से है कि ‘किसी की संपत्ति को लोभ की दृष्टि से मत देखो।‘ गांधी के अनुसार ‘इस उपनिषद के शेष सभी मंत्र इस पहले मंत्र के भाष्य हैं या ये भी कहा जा सकता है कि उनमें इसी का पूरा अर्थ उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है।‘ गांधी यहीं नहीं रुकते हैं और उससे आगे जाकर कहते हैं कि ‘जब मैं इस मंत्र को ध्यान में रखककर गीता का पाठ करता हूं तो मुझे लगता है कि गीता भी इसका ही भाष्य है।‘ और अंत में वो एक बेहद महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि ‘यह मंत्र समाजवादियों, साम्यवादियों, तत्वचिंतकों और अर्थशास्त्रियों सबका समाधान कर देता है। जो लोग हिंदू धर्म के अनुयायी नहीं हैं उनसे मैं ये कहने की धृष्टता करता हूं कि यह उन सबका भी समाधान करता है।‘  डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व में अपने देश के कई वक्ता हैं उनको गांधी जी की इस उक्ति को पढ़ लेना चाहिए तब हिंदुत्व के ध्वंस की बात करनी चाहिए थी। 

हिंदुत्व या हिंदू धर्म कोई भौतिक वस्तु नहीं है कि इसको किसी सम्मेलन से, चंद विश्वविद्यालयों के हिंदू विरोधी मानसिकता वाले शिक्षकों की मदद से या इंटरनेट मीडिया पर अभियान चलाकर ध्वस्त किया जा सके। ये एक ऐसा शब्द है जिसका हमारे जीवन से हर पल वास्ता पड़ता रहता है। इस शब्द पर विचार करें तो ऋगवेद से लेकर हजारों वर्ष के लंबे कालखंड में इसके अर्थ का दायरा इतना व्यापक हुआ है कि उसको डिसमेंटल करने की सोचने वाले की स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। वेदव्यास इसको नियम से जोड़ते हैं तो वाल्मीकि इसको चरित्र से जोड़कर व्याख्यित करते हैं। स्वामी विवेकानंद इसको सहिष्णुता से जोड़कर अपना दर्शन देते हैं। हिंदुत्व एक ऐसी अवधारणा है जो अपने धर्म से अपने धर्मगुरुओं से या अपने भगवान को भी प्रश्नों के घेरे में खड़ा करता है और फिर उन प्रश्नों के आधार पर स्वस्थ संवाद करता है। हिंदुत्व के उथले ज्ञान वाले कुछ लोग इसकी गहराई में न जाकर इसकी व्याख्या करने लग जाते हैं। एक विदेशी विद्वान महाभारत की व्याख्या करते हुए कृष्ण को हिंसा के लिए उकसाने का दोषी करार देते हैं और कहते हैं कि अगर वो न होते तो महाभारत का युद्ध टल सकता था। अब इनको कौन समझाए कि महाभारत को और कृष्ण को समझने के लिए समग्र दृष्टि का होना आवश्यक है। अगर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार नहीं होते और कौरवों का शासन कायम होता तब क्या होता। कृष्ण को हिंसा के जिम्मेदार ठहरानेवालों को महाभारत के युद्ध का परिणाम भी देखना चाहिए था। लेकिन अच्छी अंग्रेजी में आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर भारतीय पौराणिक ग्रंथों की व्याख्या करने से न तो हिंदुत्व की व्याप्ति कम होगी और न ही हिंदुत्व का चरित्र बदलेगा। हिंदुत्व के अंदर ही खुद को सुधार करने की व्यवस्था है। यहां जब भी कुरीतियां बढ़ी हैं तो इसी समाज के अंदर से कोई न कोई सुधारक सामने आया है और उसने कुरीतियों के खिलाफ जंग लड़ी है।  

डिसमैंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व का जो सम्मेलन है उसको हिंदुत्व से कोई लेना देना नहीं है बल्कि अगर सूक्षम्ता से विश्लेषण करें और उनकी वेबसाइट का अध्ययन करें तो ये स्पष्ट होता है कि उनके निशाने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम ठीक से नहीं लिख पानेवाले लोग इस संगठन का फैक्टशीट पेश कर रहे हैं। एक के बाद एक लेख में एक ऐसा नैरेटिव बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों को बदनाम किया जा सके। इनको ये नहीं मालूम कि कोई भी संगठन अपने कार्यक्रमों की वजह से, अपने सिद्धांतों की वजह से समाज में स्वीकार्यता हासिल करता है किसी फैक्टशीट से नहीं। दरअसल इस  तरह के सम्मेलनों के आयोजन और कुछ  विदेशी विश्वविद्यालयों के समर्थन से ये संकेत मिलता है कि अलग अलग शक्तियां भारत के खिलाफ एकजुट होने को बेचैन हैं। इस तरह के लोग माहौल बनाने में भी माहिर होते हैं। इस सम्मेलन के पहले कोरोना प्रबंधन को लेकर विदेशी अखबारों में छपनेवाले लेखों को देखें तो ये गठजोड़ और स्पष्ट होगा। हिंदुत्व की आड़ में भारत को भारतीयता को और वैश्विक मंच पर भारत के बढ़ते प्रभाव को कम करने के इस उपक्रम के बारे में अब सबको पता है। इस तरह की प्रविधि आज से कुछ सालों पहले तक कामयाब हो जाती थी लेकिन अब देश की जनता जागरूक ही नहीं सक्रिय भी हो गई है। उनको इस तरह के सम्मेलनों से बरगलाना संभव नहीं है। हां अंतराष्ट्रीय मंचों पर और देश के कुछ वामपंथी रुझान वाले संगठनों को इस तरह के सम्मेलनों से कुछ आस जग सकती है लेकिन जनता की समझदारी से ये आस स्वप्न भर रह जाएगी। 


Friday, September 10, 2021

सांस्कृतिक हमलावरों को सम्मान क्यों


नई दिल्ली में एक सड़क है जिसका नाम है हुमांयू रोड। ये सड़क करीब डेढ किलोमीटर लंबी है और दिल्ली के पाश इलाकों को जोड़ती है। इंडिया गेट से सुजान सिंह पार्क या खान मार्केट जाना हो तो हुमांयू रोड मिलता है। हिन्दुस्तान में मगुल सल्तनत की स्थापना करनेवाले बाबर के बेटे हैं हुमांयू। मध्यकाल पर लिखनेवाले इतिहासकारों ने हुमांयू पर बहुत उदारता के साथ लिखा है। 1970 के बाद के वर्षों में रूस के कई प्रकाशन गृहों ने इस तरह की पुस्तकें प्रकाशित की जिनमें मुगल बादशाहों का महिमामंडन किया गया था। उनको बहुत कम दाम पर बेचा भी जाता था ताकि अधिक से अधिक लोग खरीद कर पढ़ सकें। इनमें प्रगति प्रकाशन और रादुगा प्रकाशन प्रमुख थे। मुगलकाल के इतिहास पर लिखते हुए भारतीय इतिहासकारों ने बाबरनामा, हुमांयूनामा और अकबरनामा को आधार बनाकर लिखा। ये सब आत्मकथाएं या जीवनियां थीं। इनका स्त्रोत के तौर पर उपयोग किया जा सकता था लेकिन इसको इतिहास लेखन का आधार बनाने से इतिहास दोषपूर्ण हो गया। कालखंड विशेष का समग्र मूल्यांकन नहीं हो पाया। परिणाम यह हुआ कि हमारे देश पर आक्रमण करनेवाले, हजारों लोगों का कत्ल कर अपने सल्तनत की स्थापना करनेवालों, देश की सांस्कृतिक परंपराओं को नष्ट करनेवालों के प्रति उदारता का भाव पैदा होने लगा। इसी उदारता की वजह से मुगल आक्रांता हुमांयू के नाम से सड़क और मुहल्ला बना दिया गया। 

अपने पिता की मौत के बाद जब हुमांयू दिल्ली की गद्दी पर बैठा था तो कई युद्धों के बावजूद सल्तनत नहीं बचा सका था। शेरशाह सूरी से हारने के बाद वो फारस भाग गया था। कई वर्षों बाद फारस के सैनिकों के साथ उसने फिर से दिल्ली सल्तनत पर कब्जा किया। जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने भले ही हिन्दुस्तान में मुगल सल्तनत की स्थापना की लेकिन उसके बेटे हुमांयू ने सांस्कृतिक सल्तनत का बीजोरोपण किया। जब हुमांयू दूसरी बार दिल्ली की गद्दी पर बैठा तब उसने भारत में फारसी कलाओं को बढ़ाना आरंभ किया। उसने फारसी वास्तुकला, चित्रकला, स्थापत्य कला आदि को प्राथमिकता देना आरंभ किया। इसके लिए फारस के वास्तुविद, चित्रकार आदि हिन्दुस्तान बुलाए गए। ये हुमांयू का हिन्दुस्तान पर सांस्कृतिक हमला था। समय के साथ मुगल सल्तनत का भले ही अंत हो गया लेकिन जिस सांस्कृतिक सल्तनत की स्थापना हुमांयू ने की थी वो अब भी हमारे देश में चल रहा है। आज भी मुगल कुजीन से लेकर मुगल स्थापत्य कला और मुगल चित्रकला जीवित है। रहे, पर उस आक्रांता के नाम पर सड़क का नाम क्यों है जिसने भारत की संस्कृति को बदलने का काम किया। 


Saturday, September 4, 2021

पाठ्यक्रम बदलाव पर बेवजह विवाद


देशभर के विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम में नियमित अंतराल पर बदलाव होते रहते हैं। विभाग विशेष की अनुशंसा पर विद्या परिषद (अकेडमिक काउंसिल) बदलाव को स्वीकार करते हुए मंजूरी देती है। नियमानुसार साल में दो बार विद्या परिषद की बैठक आवश्यक है। मोटे तौर पर विश्वविद्लाय दो या तीन साल में अपने पाठ्यक्रमों में बदलाव करते हैं। इसके पीछे उद्देश्य ये रहता है कि छात्रों में नई प्रवृत्तियों से परिचित करवाया जा सके। इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि किसी विषय में कोई नया शोघ हुआ हो तो उससे छात्रों का परिचय हो सके। अगर साहित्य से जुड़े विषयों की बात करें तो लेखन की नई प्रवृत्तियों से छात्रों का परिचय तभी संभव होता है जब पाठ्यक्रम में उस नई प्रवृत्ति को शामिल किया जाए। अभी दिल्ली विश्विद्यालय ने अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में बदलाव किया है और महाश्वेता देवी समेत कुछ अन्य लेखकों की रचनाओं को हटा कर दूसरे लेखकों की रचनाओं को स्थान दिया गया है। इसपर विवाद खड़ा किया जा रहा है। विवाद की वजह रचना नहीं बल्कि उससे इतर है। इसको विचारधारा के आधार पर विवादित करने का प्रयास आरंभ हो गया है। कुछ वामपंथी विचारधारा के समर्थक लेखक और स्तंभकार इसको केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़कर देखने लगे हैं। उनको लगता है कि महाश्वेता देवी की रचना को पाठ्यक्रम से हटाने के पीछे हिंदुत्ववादी विचारधारा के लोग हैं। जबकि ये एक सामान्य प्रक्रिया है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से महाश्वेता देवी की कहानी द्रोपदी को हटाया गया है। इसके बारे में विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने अपना पक्ष रखा है। ये कहानी एक आदिवासी महिला और उसके संघर्ष के इर्द-गिर्द घूमती है। महाश्वेता देवी की रचना को पाठ्यक्रम से हटाने के फैसले की आलोचना करनेवाले ये तर्क भी दे रहे हैं कि महाश्वेता जी ने जीवन भर समाज के हाशिए के लोगों के लिए संघर्ष किया। उन्होंने उन लोगों के हितों की रक्षा के लिए आंदोलनों में भी हिस्सेदारी की। यह कहानी भी उसी वर्ग पर लिखी गई है, इसलिए इसको हटाना अनुचित है । यह ठीक बात है कि उन्होंने समाज के वंचित वर्गों के लिए संघर्ष किया, पर अब समय बदल गया है। क्या पाठ्यक्रम को बदलते हुए समय के साथ नहीं बदला जाना चाहिए। महाश्वेता देवी समादृत लेखिका रही हैं। उनकी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। भारत सरकार ने उनको पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया है। इसके आधार पर अगर पाठ्यक्रम में उनकी रचना को रखने को फैसला होता है तो फिर उनके अन्य क्रियाकलापों पर भी विचार करना चाहिए और समग्र मूल्यांकन के आधार पर फैसला होना चाहिए। महाश्वेता देवी पर माओवादियों को हिंसा के लिए उकसाने का आरोप भी है। बात 1997 की है, तब बिहार में जातीय संघर्ष चरम पर था। जातीय हिंसा में लोग मारे जा रहे थे। 1997 के एक दिसंबर को लक्ष्मणपुर बाथे में नरसंहार हुआ। रणवीर सेना पर उस नरसंहार का आरोप लगा था। इसके बाद 27 दिसंबर 1997 को महाश्वेता देवी ने एक हस्तलिखित अपील जारी की थी। उस अपील में माओवादियों से बिहार में हुए इस नरसंहार का बदला लेने का आह्वान किया गया था। उस वक्त बदले का आह्वान करके महाश्वेता देवी साफ-साफ हिंसा के लिए उकसा रही थीं। इस तरह हिंसा के लिए उकसाना वर्ग शत्रुओं के सफाए की विचारधारा का अनुयायी ही कर सकता है। जिसकी भी संविधान में आस्था हो और जो सार्वजनिक जीवन में हो वो किसी नरसंहार के लिए बदला लेने की बात करे तो यह उसकी सोच को दर्शाता है। बदले के इस आह्वान का कितना असर हुआ ये नहीं पता लेकिन उनकी अपील के 15 महीने बाद मार्च, 1999 में बिहार के जहानाबाद जिले के सेनारी में माओवादियों ने एक नरसंहार को अंजाम दिया। तब महाश्वेता देवी से किसी ने सवाल नहीं पूछा ना ही उनके खिलाफ माओवादियों को उकसाने का कोई केस दर्ज किया। जब भी महाश्वेता देवी का मूल्यांकन होगा तो उनके इस हस्तलिखित पत्र का उल्लेख जरूर होगा क्योंकि बगैर समग्रता के उचित मूल्यांकन संभव नहीं है। जो लोग इस आधार पर महाश्वेता देवी की रचना को पाठ्यक्रम से हटाने का विरोध कर रहे हैं कि वो एक बड़ी और सम्मानित लेखिका थीं, उनको भी महाश्वेता के उपरोक्त पक्ष पर विचार करना चाहिए।

पाठ्यक्रम में बदलाव का फैसला न तो विचारधारा के आधार पर होना चाहिए, न ही लेखक की ख्याति के आधार पर और न ही किसी को खुश करने के लिए। स्वाधीनता के बाद से इस देश में जिस तरह शिक्षा के क्षेत्र में विचारधारा को प्राथमिकता देकर उसका राजनीतिकरण किया गया उसने छात्रों का बहुत नुकसान किया। शिक्षण प्रणाली का भी। शिक्षा को राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाना चाहिए न ही पाठ्यक्रमों को तय करते समय लेखकों की विचारधारा के आधार पर फैसला लिया जाना चाहिए। पाठ्यक्रमों के बारे में निर्णय लेते समय छात्रों के हितों को सर्वोपरि रखना चाहिए। विश्वविद्यालयों के सामने इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की है। इस शिक्षा नीति के हिसाब से तो अभी विद्यालय और महाविद्यालय स्तर पर पाठ्यक्रमों में बहुत बदलाव करना होगा। जिस तरह से भारतीयता के स्वर को इस शिक्षा नीति में प्राथमनिकता देने की बा की गई है उसके आधार पर बनने वाले पाठ्यक्रमों को बनाना भी बड़ी चुनौती है। विरोध के स्वर भी उठेंगे और विरोध का आधार भी लेखकों की प्रतिष्ठा आदि को बनाया जाएगा। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय से मिले संकेतों से सीख लेने की जरूरत है ताकि पाठ्यक्रम बनाते समय किसि प्रकार के दबाव को नकारा जा सके। दरअसल भारत में हो रहे बदलावों पर पूरी दुनिया की नजर है। शिक्षा आदि के क्षेत्र से जुड़े संगठनों पर अगर इस बदलाव का असर पड़ता है तो वो किसी भी हद तक जाकर विरोध कर सकते हैं। 

इसका एक और दिलचस्प पहलू भी है। अमेरिका में रहनेवाले भारतीय मूल के लेखक सलिल त्रिपाठी ने भी दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में बदलाव पर लिखा है। विश्वविद्यालय को कठघरे में खड़ा करते हुए उन्होंने महाश्वेता देवी का गुणगान किया है। इस कहानी के बहाने सवाल खड़े करते हुए वो महाभारत के पात्र द्रोपदी और उसके चीरहरण की घटना की व्याख्या भी करने लग जाते हैं। अंग्रेजी के लेखकों के साथ दिक्कत ये है कि वो मूल ग्रंथ को नहीं पढ़ते हैं बल्कि उसके आधार पर लिखी गई पुस्तकों को आधार बना लेते हैं। महाश्वेता देवी की कहानी पर लिखते हुए द्रोपदी के चीरहरण के प्रसंग तक पहुंचते हैं तो अंग्रेजी के लेखक किरण नागरकर का उदाहरण देते हैं। उनके हवाले से कहते हैं कि द्रोपदी का जब चीर हरण हो रहा था तो कृष्ण देर से उनके बचाव के लिए आए थे। इस प्रसंग के लिए महाभारत का मूल पाठ देखना चाहिए। पौराणिक पात्रों पर विपुल लेखन करनेवाले नरेन्द्र कोहली हमेशा मूल महाभारत में वर्णित चरित्रों के संवाद को पढ़ने की बात किया करते थे। पौराणिक और ऐतिहासिक पात्रों पर लिखना बेहद श्रमसाध्य कार्य है। इसके लिए बहुत अध्ययन की आवश्यकता होती है और प्राथमिक स्त्रोत तक पहुंचने की चुनौती भी होती है। ऐतिहासिक पात्रों पर लिखते भी हैं और उसको फिक्शन भी करार देते हैं। फिक्शन ही लिखना है तो ऐतिहासिक पात्रों के नाम उनका परिवेश और कालखंड भी वही क्यों होता है। इस प्रकार की रचनात्मकता, फिक्शन की आड़ में इतिहास के साथ खिलवाड़ को वैधता देने की कोशिश होती है। अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए भी इस प्रविधि का सहारा लिया जाता है। यह खेल लंबे समय से हमारे देश में चल रहा है लेकिन अब जनता इस खेल को समझ चुकी है।   


Friday, September 3, 2021

गुलामी के चिन्हों से मुक्ति का अवसर


आज संपूर्ण राष्ट्र अपनी स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। हम अपने उन पुरखों को याद कर रहे हैं जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए बलिदान किया। हम अपने उन क्रांतिवारों का भी स्मरण कर रहे हैं जिन्होंने अपने देश को गुलामी बेड़ियों से मुक्त करवाने के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा दी। आज स्वाधीन राष्ट्र के सामने अवसर है कि वो अपने उन वीर सपूतों को ना केवल याद करे बल्कि आनेवाली पीढ़ियों के सामने भी उनकी वीरता की कहानी को बताएं। ये सभी भारतीयों का सामूहिक दायित्व है। इन बलिदानियों का स्मरण करने में किसी तरह की दलगत राजनीति या विचाराधारा आड़े नहीं आनी चाहिए। लंबे समय की गुलामी ने जनमानस को भी गहरे तक प्रभावित किया जिससे मुक्त होने में भी समय लग रहा है। अब भी देश के कई शहरों या इलाकों में आततायियों और आक्रमणकारियों के नाम से सड़कें और इमारतें मौजूद हैं। राजधानी दिल्ली में भी कई सड़कें अब भी विदेशी आक्रांताओं के नाम पर हैं। उन आक्रांताओं के नाम पर जिन्होंने भारत पर न केवल हमला किया बल्कि हमारी संस्कृति और सनातन परंपरा को भी नष्ट करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। आज नई दिल्ली इलाके में बाबर के नाम पर सड़क है, बाबर रोड। ये वही बाबर है जिसने भारत पर न केवल हमला किया, बल्कि हजारों लोगों की हत्या कर अपना सल्तनत स्थापित किया। अपने शासन के दौरान भारत की जनता पर बेइंतहां जुल्म किए।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने अपने एक व्याख्यान में शक्ति के सिद्धांत की चर्चा करते हुए बताया था कि दिल्ली में बाबर रोड है लेकिन राणा सांगा के नाम पर रोड नहीं है। दिल्ली में न केवल बाबर रोड है बल्कि कई ऐसी सड़कें हैं जो अंग्रेजों और मुगल शासकों के नाम पर हैं। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के वर्ष में राष्ट्र को इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि आक्रांताओं के नाम पर सड़कें क्यों रहनी चाहिए। सड़कों या इमारतों का नाम किसी व्यक्ति के नाम पर इस वजह से रखा जाता है कि हम उनको सम्मान देना चाहते हैं, उनके योगदान को याद रखना चाहते हैं। प्रश्न ये उठता है कि क्या बाबर को उनके जुल्मों की वजह से या भारत पर हमला करने की वजह से याद रखा जाना चाहिए। क्यों नहीं इन सड़कों और इमारतों के नाम बदलकर स्वाधीनता संग्राम के शहीदों के नाम पर कर दिए जाने चाहिए। कई बार सड़कों के नाम बदलने को लेकर राजनीति होने लगती है। अलग अलग राजनीतिक दलों और विचारधारा से जुड़े लोग इसका विरोध करते हैं। पर जब सवाल एक संप्रभु राष्ट्र के स्वाभिमान का हो तब राजनीति से किनारा कर एक स्वर में बात होनी चाहिए।