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Tuesday, June 30, 2015

हिंसा का उत्सव ?

बिहार के नवादा में एक निजी स्कूल के निदेशक को सरेआम पीट-पीटकर मार डाला गया, देखने में ये स्थनीय लोगों के गुस्से की अभिव्यक्ति प्रतीत होता है । उस स्कूल के दो बच्चों के गायब होने की खबर और फिर उनकी लाश मिलने के बाद लोगों का गुस्सा भड़का और स्कूल के निदेशक उस गुस्से की ज्वाला में भस्म हो गए । दो मासूमों की लाश मिलने पर गुस्सा स्वाभाविक है लेकिन गुस्से में सरेआम पीट-पीटकर हत्या की वारदात को अंजाम देना बिल्कुल भी स्वाभाविक नहीं है । आपको याद होगा कि चंद महीने पहले नगालैंड में बालात्कार के आरोपी को जेल से निकालकर भीड़ ने बेरहमी से कत्ल कर दिया। नालंदा और सुदूर नगालैंड में हुई इस घटना में एक साझा सूत्र दिखाई देता है । भीड़ जब हत्या पर उतारू थी तो कुछ लोग पूरी वारदात का वीडियो बनाने में जुटे थे, तस्वीरें उतार रहे थे । जिसे बाद में सोशल मीडिया पर साझा किया गया । हमारे संविधान में भीड़ के इंसाफ की कोई जगह नहीं है किसी को भी किसी की जान लेने का हक नहीं है । गुनाह चाहे जितना भी बड़ा हो फैसला अदालतें करती हैं । यह समाज में बढ़ते असहिष्णुता का परिणाम है या फिर लोगों का कानून से भरोसा उठते जाने का । इसकी गंभीर समाजशास्त्रीय व्याख्या की आवश्यकता है । जिस तरह से नवादा के स्कूल में बच्चों की लाश मिली उसिी तरह से रहस्यमय परिस्थितियों में अहमदाबाद के आसाराम के आश्रम में भी बच्चों की लाशें मिली थी । उस वक्त काफी हो हल्ला मचा था, जांच आयोग का गठन हुआ था । लगभग सात साल बाद भी उस केस के मुजरिमों को सजा नहीं हो पाई है। उसी तरह से  निर्भया बलात्कार कांड में फास्ट ट्रैक कोर्ट आदि से गुजर कर पूरा केस सुप्रीम कोर्ट में लटका है । जनता को लगता है कि बड़े देशव्यापी आंदोलन और सरकार और पुलिस की तमाम कोशिशों को बावजूद अपराधियों को सजा नहीं मिल पाती है या देर से मिलती है । देरी से मिला न्याय, न्यायिक व्यवस्था को कठघरे में तो खड़ा करता ही है । न्याय के बारे में कहा भी गया है कि न्याय होने से ज्यादा जरूरी है न्याय होते दिखना । न्यायिक प्रक्रिया में हो रही देरी से भारत का असहिष्णु समाज बेसब्र होने लगा है । नतीजे में भीड़ का इस तरह का तालिबानी इंसाफ की संख्या बढ़ने लगी है । इन दोनों घटनाओं को साधारण समझ कर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । इसके बेहद खतरनाक और दूरगामी परिणाम संभव है जो हमारी मजबूत होती लोकतंत्र को कमजोर कर सकती है । वक्त रहते समाज को, सरकार को इसपर ध्यान देना होगा ।
एक और खतरनाक प्रवृत्ति इन दोनों घटनाओं में देखने को मिली है वो है वीडियो और फोटो का व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर पर वायरल होना । गांधी का देश जिसने अहिंसा से ब्रिटिश शासकों को हिला दिया था उसी समाज में हिंसा का उत्सव समझ से परे हैं । हत्या और बलात्कार के वीडियो और फोटो को साझा करके हम हासिल क्या करना चाहते हैं , इस मानसिकता को समझने की जरूरत है । ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब व्हाट्सएप पर रेप की वारदात का एक वीडियो वायरल हुआ था। मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा था । दरअसल इस तरह के मामलों में अदालतें, पुलिस , सरकार से ज्यादा दायित्व समाज का है जहां इस तरह के कृत्यों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए । किसी हत्या या बलात्कार के वीडियो का शेयर होना हमारे समाज के बुनियादी उसूलों से हटने के संकेत दे रहा है । इन संकेतों को समझकर फौरन आवश्यक कदम उठाने होंगे ताकि हमारा देश, हमारा समाज बचा रह सके । और बची रह सके उसकी आत्मा भी ।

साहित्य का बढ़ता दायरा

समकालीन हिंदी साहित्य के परिदृश्य में युवा लेखकों ने दशकों से चली आ रही लीक से अलग हटकर चलने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं । दशकों से हिंदी में यह परंपरा चल रही थी कि कविता कहानी और उपन्यास के अलावा साहित्येतर विषयों पर लेखन नहीं हो रहा था । नतीजा हम सबके सामने हैं हिंदी साहित्य से कई विधाएं लगभग गायब होती चली गईं । संस्मरण तो यदा कदा लोग लिख भी रहे हैं लेकिन यात्रा वृत्तांत तो एक विधा के तौर पर लगभग समाप्त हो गया । यह माना जा सकता है कि तकनीक के फैलाव की वजह से पत्र लेखन खत्म हो गया लेकिन अन्य विधाओं को तो हमने खुद समाप्त किया । फिल्म और संगीत पर लिखनेवालों को हेय दृष्टि से देखने या फिर बुर्जुआ विचाधारा के पोषक माने जाने की वजह से नए लेखकों ने उधर देखना बंद कर दिया । कहानी और उपन्यास में एक खास किस्म की विचारधारा और यथार्थ को बढ़ावा देने की कोशिश ने भी इन विधाओं को नुकसान पहुंचाया । हलांकि इस शताब्दी की शुरुआत में ही कई लेखकों ने इस ठस सिद्धांत पर अपनी रचनाओं के माध्यम से हमला किया लेकिन फिर भी बहुतायत में लेखक में उसी लीक पर चलते रहे । हाल के दिनों में जिस तरह से लेखकों ने ना केवल फिल्मों पर बल्कि संगीत पर भी संजीदगी से लिखना शुरू किया है वह साहित्य की समृद्धि के संकेत देता है । हमारे यहां पहले गंभीरता से इन विषयों पर लिखा जाता था लेकिन कम्युनिस्ट काल में साहित्य लेखन एक खांचे में बंध गया जो अब आजाद होने के लिए छटपटा रहा है ।
पिछले दिनों युवा लेखक यासिर उस्मान ने राजेश खन्ना को केंद्र में रखकर एक मुकम्मल किताब लिखी । राजेश खन्ना बॉलीवुड के उन सितारों में से हैं जिनके वयक्तित्व के पहलुओं का खुलना बाकी है । अंग्रेजी में गौतम चिंतामणि ने ये कोशिश की । यासिर उस्मान के अलावा कुछ दिनों पहले पंकज दूबे ने लूजर कहीं का और सत्य व्यास ने बनारस टॉकीज नाम से उपन्यास लिखा । ये दोनों उपन्यास साहित्य की स्थापित लीक को चुनौती देते हैं । यही वजह है कि पाठकों को ये दोनों उपन्यास काफी पसंद आए । हिंदी के स्थापित आलोचकों ने इन उपन्यासों का नोटिस नहीं लिया उन्हें लगा कि इनकी भाषा मान्य भाषा से कमजोर है ।  लेकिन इनकी भाषा आज की युवा पीढ़ी की भाषा है । इनके पात्र वही भाषा बोलते हैं जो आज के लड़के लड़कियां बोलते हैं । यब बात हिंदी के आलोचकों के गले नहीं उतरती है । तो स्थापित मान्यताओं को हर स्तर पर चुनौती दी जाने लगी है । अभी हाल ही में कई वरिष्ठ लेखकों की कहानियां और उपन्यास पढ़ने का अवसर मिला । उनकी भाषा को देखकर अब भी लगता है कि वो पता नहीं किस दुनिया में जी रहे हैं । रेणु ने अपने जमाने जो भाषा लिखी क्या अब भी वही भाषा चलेगी । उन लेखकों को यह समझना होगा कि गांव की भाषा में बहुत ज्यादा बदलाव हुआ है  । प्रभात रंजन के नए उपन्यास कोठागोई को लेकर भी हिंदी साहित्य में बहुत उत्सकुता है । इस उपन्यास में प्रभात रंजन ने बिहार के मुजफ्परपुर के चतुर्भुज स्थान की बाइयों को केंद्र में रखा है और उनकी अनसुनी दास्तां पाठकों के सामने पेश की है । अब यह हिंदी साहित्य का एक ऐसा प्रदेश है जिसमें सालों से किसी लेखक ने प्रवेश नहीं किया था । कोठेवालियां से लेकर कोठागोई तक के सफर पर नजर डालें तो साहित्य के इस रास्ते पर लगभग सन्नाटा नजर आता है । जबकि बाइयों की यह परंपरा अब लगभग समाप्ति की ओर है और उनके किस्सों को अपनी रचनाओं में जीवित रखने की कोशिश का यह प्रयास सराहनीय है । यह कहना जल्दबाजी होगी की नए लेखकों ने अपनी कलम की ताकत से साहित्य को करवट लेने को मजबूर कर दिया है लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि साहित्य को करवट लेने के लिए उकसाने की गंभीर कोशिश शुरू हो गई है । यह हिंदी साहित्य के लिए शुभ संकेत है ।

Sunday, June 28, 2015

बेवजह बाजार का विरोध

साहित्य और बाजार, यह एक ऐसा विषय है जिसको लेकर हिंदी के साहित्यकार बहुधा बचते हैं या फिर मौका मिलते ही बाजार की लानत मलामत करने में जुट जाते हैं । बाजार एक ऐसा पंचिंग बैग है जिस पर हिंदी साहित्य के पुरोधा से लेकर नौसिखिया लेखक तक आते जाते मुक्का मारते हुए निकल जाते हैं । साहित्यकारों ने जिस तरह से बाजारवाद के विरोध का झंडा बुलंद किया हुआ है उससे साहित्य का लगातार नुकसान हो रहा है । बजाए इस नुकसान को समझने के अपने को साबित करने और खुद को आदर्शवादी साबित करने की होड़ में बाजार का विरोध जारी है । सार्वजनिक मंचों पर बाजार का विरोध करना बौद्धिक होने का इंस्टैंट लाइसेंस है, ठीक उसी तरह जैसे भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी की आलोचना करना सेक्युलरिज्म का लाइसेंस है । राजनीति की बात अलहदा है लेकिन साहित्य में बाजारवाद के विरोध ने लेखकों की राह मुश्किल कर दी और नतीजा यह हुआ कि साहित्य को बाजार ने हाशिए पर डाल दिया । हाशिए पर जाने से यह हुआ कि किताबों की दुकानें और बिक्री लगभग खत्म हो गईं । इसका बड़ा नुकसान यह भी हुआ कि प्रकाशकों का ध्यान साहित्य से ज्यादा साहित्येतर किताबों की ओर चला गया है । अब कई प्रकाशक कहानी, कविता, उपन्यास आदि से इतर विधाओं की किताबों में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं । उनका तर्क है कि साहित्य से ज्यादा साहित्येतर विषयों की किताबें बिकती हैं । संभव है । इस वक्त एक साथ साहित्य में कवियों की कई पीढ़ी सक्रिय है कुंवर नारायण से लेकर बाबुषा कोहली तक लेकिन प्रकाशक हैं कि कविता संग्रह छापने को तैयार नहीं है । उनका साफ कहना है कि कविता का बाजार नहीं है, कविता संग्रह बिकते नहीं हैं । क्या यह स्थिति किसी भी भाषा के साहित्य के लिए उत्तम कही जा सकती है । कदापि नहीं ।  साहित्य को बाजार से अलग करने की ऐतिहासिक वजहें हैं । बाजार का विरोध करनेवाले कमोबेश वही लोग हैं जो पूंजीवाद का विरोध करते रहे हैं और पूंजीवाद का विरोध मार्क्सवाद के अनुयायी करते रहे हैं । साहित्य में लंबे समय तक और बहुत हद तक अभी भी मार्क्सवादियों का बोलबाला है, लिहाजा बाजार का विरोध होता रहता है । अगर हम वस्तुनिष्ठ होकर इस विरोध का आंकलन करें तो हमें इसमें बुनियादी दोष नजर आता है । लेखक लिखता है और फिर वो प्रकाशक को उसके छापने के लिए देता है । किताब के छपने के बाद प्रकाशक और लेखक दोनों की इच्छा होती है कि उसकी बिक्री हो । प्रकाशक अपने कारोबार के लिए तो लेखक पाठकों तक पहुंचने और बहेतर रॉयल्टी की अपेक्षा में बिक्री की इच्छा रखता है । अब देखिए विरोधाभास यहीं से शुरू हो जाता है वो लेखक जो बाजारवाद को पानी पी पी कर कोसता है वही अपनी किताब को उसी बाजार में सफल होना देखना चाहता है, उसी बाजार से बेहतर रॉयल्टी की चाहत रखता है । अब यह कैसे संभव है । आप जिसका विरोध करेंगे वही आपको फायदा पहुंचाएगा । बाजार की चाहत होने के बावजूद लेखकों ने बाजार का विरोध करना शुरू कर दिया, नतीजा यह हुआ कि बाजार ने भी लेखकों को उपेक्षित कर दिया और अंतत: साहित्य का नुकसान हो गया ।
बाजार का विरोध एक हद तक उचित हो सकता है लेकिन सुबह-शाम, उठते बैठते बाजार को गाली देने का फैशन नुकसानदेह है । जब मार्क्सवाद का प्रतिपादन किया गया था या उसके बाद जब कई देश उसके रोमांटिसिज्म में थे उस वक्त बाजार का विरोध उचित लगता था । कालांतर में मार्कसवाद की ज्यादातर अवधारणाओ को लोगों ने ठुकरा दिया लेकिन लेखकों ने बाजार का विरोध जारी रहा । आज के बदले वैश्विक परिवेश में बाजार एक हकीकत है, आप चाहें तो उसको कड़वी मान लें । इस हकीकत का विरोध कर या उससे ठुकराकर प्रासंगिकता बरकरार रखना लगभग मुश्किल सा है । हिंदी के लोगों को याद होगा चंद सालों पहले दक्षिण कोरिया की एक कंपनी ने साहित्य अकादमी के साथ मिलकर लेखकों को पुरस्कृत करने की एक योजना बनाई थी । साहित्यकारों ने इतना हो हल्ला मचाया कि उस कंपनी ने साहित्य से ही तौबा कर ली । पूंजीवाद और बाजारवाद का विरोध करनेवाले हिंदी के साहित्यकारों को धन्नासेठों से लखटकिया पुरस्कार लेने में संकोच नहीं होता है लेकिन अगर कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी साहित्य के लिए कुछ करना चाहती है तो ये उनको साम्राज्यवाद, बाजारवाद. साहित्य को उपनिवेश बनाने की कोशिश आदि लगने लगता है । बाजार की हकीकत को स्वीकार करते हुए उसको साहित्य के और अपने हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की जानी चाहिए । हमारे यहां तो साहित्य में तो जो एक सांचा बन जाता है, और अगर वो जरा भी सफल हो जाता है तो  चीजें या रचनात्मकता भी उसी में ढलती रहती हैं । वसुधा के फरवरी 1957 के अंक में हरिशंकर परसाईं ने ढलवॉं साहित्य शीर्षक से लिखा था जैसे एक सांचे में ढले गहने होते हैं, वैसा ही कुछ साहित्य विशेष प्रकार के सांचों में ढलकर बनता है । सांचे में सुभीता होता है सुनार को सोचने का काम नहीं करना पड़ता । सांचे में नुकसान भी है एक किस्म का माल ढलता है, कारीगर की कला-प्रतिभा व्यर्थ चली जाती है, बदलती जनरुचि उसी के माल को कुछ दिनों बाद नापसंद करने लग जाती है । बाजारवाद के विरोध का भी यही हश्र हुआ पहले तो यह लोगों को लुभाता था, आकर्षक लगता था । क्रांति आदि की आहट महसूस होती थी लेकिन कालांतर में जनरुचि बदली लेकिन साहित्य के अलंबरदारों ने बाजारवाद के विरोध का सांचा नहीं बदला । लगातार उसी में माल ढलता रहा और कलाकार की कला प्रतिभा जनरुचि को पकड़ने में नाकाम रही । हरिशंकर परसाईं अपने उसी लेख में लिखते हैं- कई यथार्थवादी लेखक, यथार्थ जीवन में प्रवेश किए बिना, जनजीवन से सीधा और संवेदनात्मक संपर्क स्थापित किए बिना, एक सांचे पर ढलाई कर रहे हैं । इसमें मनुष्य कहीं दिखता नहीं है । कुछ समझते हैं कि सुर्ख मेंहदी, सुर्ख सूरज, लाल कमीज, सुर्ख धरती आदि लिख देने से यह प्रगतिवाद कहलाने लगेगा । या किसी ने किसी की प्रेमिका को सुर्ख रूमालभेंट दिलवाने-मात्र से क्रांति हुए बिना नहीं रहेगी । इन रचनाओं में ठप्पेदार शब्दों के सिवा कुछ नहीं रहता । जीवन तत्व गैरहाजिर ! संवेदना लुप्त !! बाजार और बाजारवाद का विरोध भी कुछ इसी तर्ज पर होता रहा है । अपने फायदे के लिए बाजार का विरोध वो भी उन्हीं घिसे पिटे तर्कों के आधार पर । यह तो नहीं कहा जा सकता कि बजार का विरोध करनेवाले साहित्यकार बदलते वक्त को नहीं पहचान पा रहे हैं लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अपने फायदे के लिए बाजारवाद के विरोध की दुंदुभि बजाना नहीं छोड़ रहे ।
चालीस पचास सालों बाद अब स्थितियां कुछ बदलती नजर आ रही हैं । कुछ युवा लेखकों ने बाजार को ध्यान में रखकर किताबें भी लिखनी शुरू की हैं और उसको पाठक वर्ग तक पहुंचाने का उद्यम भी शुरू किया है । यह एक अच्छी सोच है और इसका समर्थन किया जाना चाहिए । अंग्रेजी में हमेशा से यह होता रहा है । मुझे याद आता है कि जब दो हजार सात में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के डेढ सौ साल हो रहे थे तो हिंदी के प्रकाशनों ने योजनाबद्ध तरीके से कई किताबें एक के बाद एक जारी की थीं । उससे लेखकों को भी लाभ हुआ और प्रकाशकों को तो हुआ ही । इसी तरह 26 जून को इमरजेंसी के चालीस साल हो रहे हैं । अंग्रेजी के प्रकाशकों ने उसको ध्यान में रखते हुए वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर की किताब जारी कर दी । अब इस साल जब भी जहां भी इमरजेंसी की बात हो रही तो कूमी की किताब की चर्चा हो जा रही है । इससे किताबों का बाजार बनता है । हिंदी के प्रकाशक और लेखक दोनों इस तरह से योजना बनाकर किसी खास तिथि को ध्यान में रखते हुए ना तो किताब लिखते हैं और ना ही छापते हैं । बाजार को भुनाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करने की जरूरत है । स्वांत: सुखाय लेखन के बजाय बहुजन हिताय की ओर कदम बढ़ाने की आवश्यकता है । अंग्रेजी में दो चार किताबें लिखकर लेखक का जीवन चल जाता है लेकिन हिंदी में नहीं । क्यों । वजह साफ है । दीवार पर लिखी इबारत को भी अगर हम नहीं पढ़ पा रहे हैं तो यह सबकुछ देखकर अनदेखा करने जैसी स्थिति है । आज के युवा लेखकों को भी यह समझना होगा कि बाजारवाद का विरोध करके साहित्य के चंद मठाधीशों का आशीर्वाद उनको प्राप्त हो सकता है, कुछ प्रसिद्धि आदि भी मिल सकती है लेकिन पाठकों का प्यार नहीं हासिल हो सकता है । पाठकों तक पहुंचने का माध्यम बाजार ही है । अंग्रेजी में एक कहावत है च्वाइस इज योर्स । तय कर लीजिए ।  

Sunday, June 21, 2015

संगीतकारों की मदद की पहल

भारत रत्न बिस्मिल्लाह खान को जब एक बार कोई पुरस्कार मिला था तो उन्होंने कहा था कि सम्मान और पुरस्कार से कोई फायदा नहीं होता है इसकी बजाए धन मिल जाता तो बेहतर होता । इसी तरह की बात रामधारी सिंह दिनकर को भी जब भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था तब उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था कि इससे उनकी घर की एक लड़की का ब्याह हो जाएगा । दोनों के बयान में शब्दों का हेरफेर हो सकता है लेकिन भाव लगभग यही थे । एक भारत रत्न से सम्मानित कलाकार और दूसरा राष्ट्रकवि । यह सोच कल्पना से परे है कि जब इतने बड़े कलाकार और लेखक की यह स्थिति है तो मंझोले और छोटे कलाकारों, लेखकों की आर्थिक स्थिति कैसी होगी । भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय अवश्य हर साल कलाकारों को कुछ फेलोशिप देता है लेकिन वह राशि पर्याप्त नहीं है और ना ही पर्याप्त है फेलोशिप की संख्या । फिर उसमें जिस तरह से चयन होता है वह भी बहुधा सवालों के घेरे में आता रहता है । इस बात की पड़ताल होनी चाहिए कि हमारे देश में कलाकारों और साहित्यकारों की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी क्यों है । सरकार को भी इस दिशा में व्यापक विमर्श के बाद एक ठोस और नई सांस्कृतिक नीति बनानी चाहिए जिसमें कलाकारों और साहित्यकारों के आर्थिक सुरक्षा का ध्यान रखा जाना चाहिए । इस वक्त तो हालात यह है कि कई कलाकार गुमनामी में अपनी जिंदगी शुरू करते हैं और गुमनामी में ही उनकी जिंदगी खत्म हो जाती है । भारत कला और संगीत को लेकर भी बहुत समृद्ध है लेकिन उस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को सहेजने और फिर उसको बढ़ाने में हम लगभग नाकाम रहे हैं ।

संगीत हमारे समाज में बच्चे के जन्म से लेकर शवयात्रा तक का अंग है, अलग अलग रूप में । जीवन में संगीत की इस अहमियत को हम नहीं समझ पा रहे हैं, लिहाजा संगीतकारों को उचित सम्मान तो कभी कभार मिल भी जाता है लेकिन उनको आर्थिक सुरक्षा नहीं मिल पाती है । इन्हीं स्थितियों की अभिव्यक्ति बिस्मिल्ला खां और दिनकर के कथऩ में मिलती है । हाल के दिनों में संगीतकारों की मदद के लिए कुछ निजी प्रयास शुरू हुए हैं । इन्हीं प्रयासों में से एक है संगीतम संस्था का एक प्रयास रहमतें । इस कार्यक्रम में देशभर के पचास कलाकारों को एक लाख रुपए का जीवन बीमा करवा कर दिया जाता है । पिछले साल मुंबई में आयोजित इस कार्यक्रम में जितना पैसा इकट्ठा किया गया वो संगीत ख्य्याम और गजल गायक राजेन्द्र मेहता को दिया गया । इसके अलावा कई जरूरतमंद और युवा कलाकारों को भी संगीतनम मदद करता है । अच्छी बात यह है कि कवयित्री स्मिता पारिख के इस प्रयास में गायक हरिहरण, भजन सम्राट अनूप जलोटा और गजल गायक तलत अजीज का सहयोग हासिल है । इस तरह के निजी प्रयासों को स्वागत किया जाना चाहिए । जरूरत तो इस बात की भी है कि इस तरह के प्रयास देशभर में होने चाहिए । अब अगर हमें बिहार की मधुबनी पेंटिंग को बचाना है तो उसके कलाकारों को आर्थिक मदद तो देनी होगी । अगर उस कला को वैश्विक मंच देना है तो उसके लिए राज्य सरकारों के अलावा निजी कारोबारी संस्थाओं को भी अपने सामाजिक दायित्व के निर्वाह के तहत आगे बढ़कर काम करना होगा । अगर भारत में संगीत और कला को आगे भड़ाकर कलाकारों को आर्थिक रूप से मजबूत करना है तो इसके लिए सरकार, निजी संस्थाएं और कारोबारी समूहों को साझा तौर पर काम करना होगा । अगर हमऐसा कर पाते हैं तो यह एरक बेहतर स्थिति होगी वर्ना भारत रत्न से सम्मानित कलाकार भी मुफलिसी में जिंदगी बिताने और गरीबी में मौत को गले लगाने के लिए अभिशप्त रहेगा । 

Wednesday, June 17, 2015

पुर्नप्रकाशन से क्या हासिल ?

अब यह बीते जमाने की बात लगने लगी है कि साहित्यक पत्रिकाएं समकालीन साहित्य परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप किया करती थी । हिंदी में साहित्यक पत्रिकाओं का बहुत ही समृद्ध इतिहास रहा है । दरअसल यह माना जाता रहा है कि साहित्यक पत्र पत्रिकाएं साहित्य का मंच होती है जहां साहित्य की सभी विधाओं के अलावा समकालीन विषयों पर उठ रहे सवालों से लेखक मुठभेड़ करता नजर आता है । इन पत्रिकाओं में पाठकों के छपे पत्रों से जो सटीक प्रतिक्रियाएं मिलती हैं वो भी बेहद मूल्यवान होती हैं । एक जमाने में हिंदी में कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र पत्रिका, सरस्वती, हंस, मतवाला, कल्पना, सुधा, विशाल भारतस रूपाभ जैसी पत्रिकाएं निकला करती थी । एक जमाने इन साहित्य पत्रिकाओं में बहसें चला करती थीं और पाठकों को उनके अंकों का इंतजार रहता था । कालंतर में ये सभी साहित्यक पत्रिकाएं धनाभाव में बंद हो गईं । कुछ सेठाश्रयी पत्रिकाएं भी लंबे समय तक चलीं लेकिन वो भी बंद ही हो गईं । इस परिदृश्य को देखकर यह प्रतीत होता है कि हिंदी में साहित्य का बाजार नहीं है । पत्रिकाएं बिक नहीं पाईं लिहाजा वो बंद हो गई । लेकिन इसका एक और पहलू भी है वो यह है कि हिंदी में इस वक्त कम से कम सौ साहित्यक पत्रिकाएं निकल रही होंगी । जितनी रफ्तार से साहित्यक पत्रिकाएं बंद हो रही हैं उसी रफ्तार से नए लोग नई साहित्यक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी कर रहे हैं । इसका अपना एक अलग अर्थशास्त्र है । बाजार को पानी पी पी कर कोसनेवाले लोग बाजार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर साहित्यक पत्रिकाओं के मार्फत अपनी साहित्यक दुकान सजाने के लिए बेताब नजर आते हैं ।

अभी हाल ही में सामयिक प्रकाशन ने सामयिक सरस्वती का प्रकाशन शुरू किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि रजिस्ट्रेशन की सरकारी मजबूरी के चलते इसका नाम सामयिक सरस्वती रखा गया है । क्योंकि इसके संपादकीय में इस बात का प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूप में खास जोर दिया गया है कि यह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी वाली सरस्वती है जो कायिक रूप से विलुप्त होकर हिंदी साहित्य के इतिहास के पन्नों में सिमट तकर रह गया था । सरस्वती के प्रकाशन की सूचना जब सोशल मीडिया से मिली थी तो एक उत्साह जगा था, उत्सुकता भी थी कि कौन संपादर होगा और अंक कैसा होगा । उपन्यासकार शरद सिंह के संपादन में पहला अंक देखने के बाद वो उत्सुकता खत्म हो गई । संपादकीय में कई तथ्यात्मक भूलें हैं जिसकी ओर संपादक का ध्यान जाना चाहिए था । जो बसबे बड़ी चूक है वो महावीर प्रसाद द्विवेदी के सरस्वती के संपादन संभालने के साल को लेकर है । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की विरासत को संभालने और हिंदी साहित्य जगत की विलुप्त पत्रिका सरस्वती के पथ को पुन: प्रशस्त करने के बीड़ा उठाने में संपादक से हुई चूक को अगले अंक में दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है । दूसरी एक और बात खटकी वो ये कि इस पत्रिका में छपे कई लेख आदि पहले ही प्रकाशित होकर पाठकों की नजर से गुजर चुके हैं । हिंदी जगत को संपादक और प्रबंध संपादक से बड़ी अपेक्षाएं हैं और उन्होंने जो रास्ता चुना है उसपर चलने के लिए बेहद संतुलन और सावधानी की आवश्यकता है । शरद सिंह को एक संपादक के तौर पर स्थापित होने का यह अवसर मिला है जो लंबा चल सकता है क्योंकि इस पत्रिका के प्रकाशन के पीछे व्यक्तिगत पूंजी नहीं बल्कि संस्थागत पूंजी है । प्रबंध संपादक होने के नाते महेश भारद्वाज की भी जिम्मेदारी बनती है कि वो सबका साथ लेकर चलें । अगर ऐसा हो पाता है तो यह हिंदी जगत के लिए एक सुखद स्थिति होगी । 

Sunday, June 14, 2015

पत्रों से खुलते राज

हिंदी साहित्य के इतिहास में पत्र साहित्य की समृद्धशाली परंपरा रही है । हिंदी में पत्र साहित्य को अमूमन तीन भागों में बांटा जाता है- पहला व्यक्तिगत पत्रों के संकलन, कई किताबों के परिशिष्ट आदि में उससे जुड़े पत्रों का संकलन और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित पत्रों का संकलन । ये तीनों ही हिंदी के लिए बेहद अहम हैं लेकिन व्यक्तिगत पत्रों के संकलन से कई बार ऐसे राज खुलते हैं जो अबतक किसी के संज्ञान में नहीं आया था । माना यह जाता रहा है कि हिंदी के पत्र साहित्य नए पाठकों के साथ साथ अन्य विधाओं में रुचि रखनेवालों को भी ज्ञान और अनुभव के ऐसे प्रदेश में लेकर जाता जो कि उसके लिए एकदम से अनजाना होता है । हाल ही में मैने एक ऐसे ही अनजाने प्रदेश में प्रवेश किया । आज की युवा पीढ़ी कल्याण पत्रिका के नाम से अंजान है लेकिन वो लोग जो अभी अपने युवावस्था के उतर्रार्ध में हैं उनके लिए कल्याण पत्रिका का नाम अनजाना नहीं है । एक जमाना था जब कल्याण पत्रिका हर घर के लिए जरूरी पत्रिका हुआ करती थी । हमें याद है कि हर महीने की लगभग नियत तारीख को डाकिया एक खाकी कागज में लिपटी मुड़ी हुई पत्रिका देकर जाता था । उस तारीख का घर में सबको इंतजार रहता था । कालांतर में कल्याण की प्रसार संख्या कम होती चली गई । यह भी शोध का विषय है कि कल्याण जैसी अत्यंत लोकप्रिय पत्रिका लगभग समाप्त कैसे हो गई । शोध तो इस बात की भी होनी चाहिए कि कल्याण को धार्मिक पत्रिका के तौर पर प्रचारित किसने और क्यों किया। उनकी मंशा क्या थी । कल्याण में सामाजिक बुराइयों और धार्मिक पाखंड पर भी लेख छपते थे । खैर यह एक अवांतर प्रसंग जो विस्तार से एक स्वतंत्र लेख की मांग करता है । हम बात कर रहे थे हिंदी में पत्र साहित्य की और उसके माध्यम से पाठकों के ज्ञान के अछूते संसार में प्रवेश की । कल्याण के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के पत्रों के कुछ ऐसे ही राज ऱुल रहे हैं जिनके बारे में अभी देश के कम ही लोगों को मालूम होगा । हनुमान प्रस्दा पोद्दार जी ने गोविंद वल्लभ पंत को एक पत्र लिखा है जिसमें वो पंत जी जी के ही पत्र को उद्धृत करते हैं आप इतने महान हैं, इतने ऊंचे महामानव हैं कि भारतवर्ष को क्या, सारी मानवी दुनिया को इसके लिए गर्व होना चाहिए । मैं आपके स्वरूप के महत्व को न समझकर ही आपको भारत रत्न कीउपाधि से सम्मानित करना चाहता था । आपने उसे स्वीकार नहीं किया, यह बहुत अच्छा किया । आप इस उपाधि से बहुत ऊंचे स्तर पर हैं । मैं तो हृद्य से आपको नमस्कार करता हूं । अपने उसी पत्र में हनुमान प्रसाद पोद्दार ने यह भी लिखा है कि यह सब पढ़कर उनको संकोच हुआ है और अंत में लिखते हैं- आपके आदेशानुसार पत्र को जला दिया है, आप भी मेरे इस पत्र को गुप्त ही रखिएगा ।‘   इस पत्र से यह बात खुलती है कि गोविंद वल्लभ पंत, जो उस वक्त के गृह मंत्री थे, ने उनको भारत रत्न देने का प्रस्ताव किया था । भारत रत्न देने का फैसला उस वक्त के राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सहमति से हुआ था । गोविंद वल्लभ पंत को महावीर प्रसाद पोद्दार से सहमति लेने का जिम्मा सौंपा गया था । लेकिन पोद्दार जी ने भारत रत्न लेने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया था । इस बात की पुष्टि डॉ राजेन्द्र प्रसाद के पुत्र मृत्युंजय प्रसाद की एक टिप्पणी से भी साबित होती है पूज्य पिताजी की यह आंतरिक अभिलाषा थी कि श्रीभाई जी को ( हनुमान प्रसाद पोद्दार को लोग भाईजी ही रहते थे) भारत रत्न की उपाधि से विभूषित करके उनके आध्यात्मिक व्यक्तित्व को राजकीय सम्मान प्रदान करने का अवसर मिले । परंतु ऐसे सम्मानों अभिनंदनों के प्रति श्रीभाई जी की घोर उपरामता के कारण उनकी वह सात्विक अभिलाषा पूर्ण नहीं हो सकी । अब अगर पंत को लिखे हनुमानप्रसाद पोद्दार जी के पत्र और मृत्युंजय प्रसाद की टिप्पणी को जोड़कर देखते हैं तो यह बात साफ हो जाती है कि हनुमानप्रसाद पोद्दार जी ने देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान लेने से इंकार कर दिया था । अब ये तथ्य और प्रसंग कहीं अन्यत्र नहीं मिलते हैं । इस तरह के प्रामाणिक खुलासे साहित्य की इस विधा पत्र साहित्य में संभव है । पत्रकारिता और पत्रकारों के सरोकारों से जुड़े एक बड़े नाम अच्युतानंद मिश्र के संपादन में निकली एक किताब पत्रों में समय संस्कृति से इन तथ्यों पर से पर्दा हटा है । पत्रों में समय संस्कृति जिसे प्रभात प्रकाशन ने छापा है ।
अच्युतानंद मिश्र के संपादन में निकली इस किताब को पढ़ने के बाद उस दौर के साहित्य और साहित्यकारों के पुनर्मूल्यांकन का सवाल उठता है । हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के पत्रों को पढ़ते हुए यह साफ तौर पर सामने आती है कि उस वक्त कल्याण में समाज के हर क्षेत्र और वर्ग के विद्वान लिखा करते थे । हनुमान प्रसाद पोद्दार का पत्र व्वहार नंद दुलारे वाजपेयी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, कन्हैयालाल मिश्र, चतुरसेन शास्त्री आदि के सात लगातार होता रहता था । तीन मार्च बत्तीस का प्रेमचंद का एक पत्र है जिसमें वो कहते हैं आपके दो कृपा पत्र मिले। काशी से पत्र यहां आ गया था । हंस के विषय में आपने जो सम्मति दी है उससे मेरा उत्साह बढ़ा । मैं कल्याण के ईश्वरांक के लिए अवश्य लिखूंगा । क्या कहें आप काशी गए और मेरा दुर्भाग्य कि मैं लखनऊ में हूं । भाई महावीर प्रसाद बाहर हैं या भीतर मुझे ज्ञात नहीं । उनकी स्नेह स्मृतियां मेरे जीवन की बहुमूल्य वस्तु हैं । वह तो तपस्वी हैं, उन्हें क्या खबर कि प्रेमभी कोई चीज है । इसी तरह के कई पत्र हैं जिनसे उस वक्त के परिदृश्य से परदा हटता है, धुंध भी छंटती है ।

इस किताब को पढ़ते हुए जेहन में एक बात बार बार कौंध रही थी कि  वर्तमान समय को पकड़ने और उसको दर्ज करवने के लिए पत्र तो नहीं होंगे । इंटरनेट के फैलाव ने पत्रों की लगभग हत्या कर दी है । पत्रों की जगह ईमेल ने ली है । पत्रों की जगह एसएमएस ने ले ली है । पत्रों की बजाए अब फेसबुक पर संवाद होने लगे हैं । तकनीक ने पत्रों को महसूस करने के अहसास से हमें महरूम कर दिया । इन भावनात्मक नुकसान के अलावा एक और नुकसान हुआ है वह ये कि पत्रों में एक वक्त का इतिहास बनता था । उस वक्त चल रहे विमर्शों और सामाजिक स्थितियों पर प्रामाणिक प्रकाश डाला जा सकता था लेकिन पत्रों के खत्म होने से साहित्य की एक समृद्ध विधा तो लगभग खत्म हो ही गई है इतिहास का एक अहम स्त्रोत भी खत्म होने के कगार पर है । अब अगर हम महावीर प्रसाद पोद्दार जी के पत्रों की बात करें या मुक्तिबोध को लिखे पत्रों की बात करें तो यह साफ तौर पर कह सकते हैं कि इन संग्रहों में उस दौर को जिया जा सकता है । अच्युतानंद मिश्र जी द्वारा संपादित इस किताब में निराला जी का एक पत्र है सत्रह अक्तूबर उन्नीस सौ इकतीस का जिसमें वो लिखते हैं प्रिय श्री पोद्दार जी, नमो नम: । आपका पत्र मिला । मैं कलकत्ता सम्मेलन में जाकर बीमार पड़ गया । पश्चात घर लौटने पर अनेक गृह प्रबंधों में उलझा रहा । कई बार विचार करने पर भी आपके प्रतिष्ठित पत्र के लिए कुछ नहीं लिख सका । क्या लिखूं , आपके सहृद्य सज्जनोचित बर्ताब के लिए मैं बहुत लज्जित हूं । आपके आगे के अंकों के लिए कुछ-कुछ अवश्य भेजता रहूंगा । एक प्रबंध कुछ ही दिनों में भेजूंगा ।अब निराला के इन पत्रों या कल्याण में छपे निराला के लेखों का सामने आना शेष है । अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो नंदकिशोर नवल द्वारा संपादित निराला रचनावली में ना तो ये पत्र हैं और ना ही कल्याण में छपी उनकी रचनाएं । निराला की राम की शक्ति पूजा और अन्य रचनाओं के आधार पर जिस तरह से उनको प्रगतिशीलता या जनवादिता का ताज पहनाकर वामपंथी घूम रहे हैं यह उनके रचना पक्ष का एक चेहरा है । जिस तरह से निराला को अनीश्वरवादी बताकर कुछ अज्ञानी आलोचत यश लूट रहे हैं वह निराला के प्रति अन्याय है । जिस तरह से निराला ने अपने अभिवादन में नमो नम: का इस्तेमाल किया है उसपर ध्यान देने की जरूरत है । इसका यह मतलब कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि निराला हिंदूवादी थी या निराला धार्मिक थे । अनुरोध इस बात का है कि अगर निराला के बारे में कुछ नए तथ्य सामने आए हैं तो उनके समग्र मूल्यांकन में उन लेखों और तथ्यों को भी शामिल किया जाना चाहिए । कहने का अर्थ यह है कि निराला के इन पत्रों के माध्यम से अगर साहित्येतास सही किया जा सकता है तो हमें बगैर किसी वाद विवाद में पड़े संवाद के आधार पर उसोक दुरुस्त कर देना चाहिए । 

Sunday, June 7, 2015

सियासत के चक्रव्यूह में हिंदी अकादमी

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार हर दिन नए नए विवाद में फंसती नजर आती है । उपराज्यपाल के साथ अफसरों की तैनाती को लेकर विवाद चल ही रहा है । इस विवाद के शोरगुल में दिल्ली की भाषाई अकादमियों में हुई नियुक्तियों का मामला कहीं खो सा गया है । हाल ही में केजरीवाल सरकार ने दिल्ली की हिंदी अकादमी, संस्कृत अकादमी और मैथिली भोजपुरी अकादमी के उपाध्यक्षों की नियुक्ति की। इन नियुक्तियों पर कोई सवाल खड़े नहीं हुए । हिंदी अकादमी में वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा को उपाध्यक्ष के तौर पर नियुक्ति का स्वागत ही हुआ । लेकिन साहित्यक हलके में यह चर्चा तेज है कि मैत्रेयी के स्वागत में जो एक बात दब कर रह गई । चर्चा ये है कि मैत्रेयी पुष्पा जी की नियुक्ति के साथ साथ हिंदी अकादमी के संचालन समिति के पच्चीस में से इक्कीस सदस्यों का मनोनयन भी कर दिया गया । ऐसा करने के पीछे सरकार की मंशा क्या रही है यह बात साफ होनी चाहिए । साहित्य से जुड़े कुछ लोगों का दावा है कि अबतक की परंपरा के मुताबिक उपाध्यक्ष की नियुक्ति के बाद वो सचिव के साथ मिलकर संचालन समिति के लिए मनोनीत किए जानेवाले सदस्यों का नाम अकादमी के पदने अध्यक्ष मुख्यमंत्री के पास भेजते रहे हैं । उन नामों में से दिल्ली का मुख्यमंत्री संचालन समिति के सदस्यों का चुनाव करते हैं । इन आरोपों के मुताबिक आम आदमी पार्टी ने हिंदी अकादमी के गठन के वक्त से चली आ रही परंपरा को तोड़ा। अब उपाध्यक्ष के जिम्मे संचालन समिति के सिर्फ चार सदस्यों के मनोनयन का अधिकार है जो किया जा रहा है । इस परंपरा के समर्थन के पीछे की दलील यह रही है कि उपाध्यक्ष और सचिव अपनी मर्जी की टीम का गठन करते हैं । लेकिन तथ्य यह भी है कि इस बारे में कोई लिखित नियम नहीं है । कई बार सरकार की तरफ से नाम आते हैं और कई बार अकादमी अपना नाम भेजती है । लेकिन संचालन समिति के सदस्यों में एक बात का ध्यान रखा जाता रहा है कि जो भी सदस्य हो उसका दिल्ली से सरोकार हो । कहने का मतलब यह है कि या तो मनोनीत सदस्य दिल्ली का रहने वाला हो या फिर रोजगार के लिए दिल्ली आता हो । बाद में एनसीआर को भी इसमें शामिल कर लिया गया । इस बार संचालन समिति में ऐसे लोग भी रखे गए हैं जिनका दिल्ली से कोई संबंध नहीं है ।  
दरअसल आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद साहित्य संस्कृति का जिम्मा उस पार्टी से जुड़े एक कवि के जिम्मे है । दिल्ली के साहित्यक गलियारों में इस बात की चर्चा भी है कि संचालन समिति में सदस्यों के मनोनयन में उन्हीं की चली है । सदस्यों के नाम तो देखकर प्रतीत भी ऐसा ही होता है । कई सदस्यों की उनसे करीबी सार्वजनिक मंचों पर भी देखी गई है । इस चर्चा की पुष्टि इस बात से भी होती है कि अभी हाल ही में अकादमियों के नवनियुक्त उपाध्यक्षों और संचालन समिति के सदस्यों की मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और मंत्री जितेन्द्र तोमर के साथ एक बैठक हुई । उक्त बैठक में कवि जी भी मौजूद थे । सवाल यह उठता है कि बगैर किसी अकादमी के संचालन समिति के सदस्य होने के, बगैर सरकार में किसी पद पर होने के कवि महोदय उस सरकारी बैठक में किस हैसियत से उपस्थित थे । क्या कोई भी व्यक्ति अगर सत्ताधारी दल का सदस्य है तो वो सरकारी बैठकों में भाग लेने के लिए योग्य हो जाता है । हैरत की बात यह है कि कवि महोदय की इस सरकारी बैठक में मौजूदगी पर किसी ने सवाल नहीं उठाए, ना तो किसी उपाध्यक्ष ने और ना ही किसी संचालन समिति के सदस्य ने । ये तो भला हो सोशल मीडिया का उस बैठक के बारे में और उसकी तस्वीरें सार्वजनिक हो गई । सरकारी बैठक में गैर सरकारी बैठक की उपस्थिति से क्या संदेश निकलता है । क्या यह मान लिया जाए कि आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार ने साहित्य और संस्कृति ये महकमा बगैर कोई पद दिए उनके हवाले कर दिया है । अब तक के संकेत को यही मानने को कह रहे हैं । दरअसल सरकारी भाषाई अकादमियों का हर जगह बुरा हाल है । साहित्य और संस्कृति किसी भी सरकार की प्राथमिकताओं में रही नहीं है । दिल्ली सरकार ने जब मैत्रेयी पुष्पा को हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर नियुक्त किया तो साहित्य जगत में एक उम्मीद जगी थी लेकिन जब संचालन समिति की बात सामने आई तो उस उम्मीद पर आशंका के काले बादल मंडराते नजर आ रहे हैं । अब मैत्रेयी पुष्पा के सामने सबसे बड़ी चुनौती किसी और की बनाई टीम के साथ काम करना है ।

दिल्ली की हिंदी अकादमी का एक और दुर्भाग्य है कि 2009 से वहां कोई नियमित सचिव नहीं है । ज्योतिष जोशी के हिंदी अकादमी के सचिव का पद छोड़ने के बाद से नियमित सचिव की नियुक्ति नहीं हो पाई है । एक बार जब अशोक चक्रधर हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष थे उस वक्त सचिव के पद के लिए आवेदन मंगाए गए थे लेकिन नियुक्ति नहीं हो पाई । उसके बाद भी दिल्ली सरकार ने इस पद को विज्ञापित किया और लोगों को साक्षात्कार के लिए बुलाया । इस विज्ञापन के आधार पर लोगों को दो बार इंटरव्यू के लिए बुलाया गया और आखिरी इंटरव्यू 14 अक्तूबर दो हजार चौदह को हुआ । उसके बाद विशेषज्ञों के पैनल ने तीन नामों की सूची तैयार कर संबंधित विभाग को भेज दी । उस वक्त दिल्ली में चुनी हुई सरकार नहीं थी और प्रशासन उपराज्यपाल के हाथ में था लेकिन तब भी किसी ने विशेषज्ञों की बनाई हुई सूची को राज्यपाल की मंजूरी के लिए नहीं भेजी या अगर भेजी गई तो उपराज्यपाल सचिवालय से उसको मंजूर कर नोटिफाई नहीं किया गया । अब खबर आ रही है कि विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई सूची को केजरीवाल सरकार ने रद्द कर दिया है और फिर नए सिरे से सचिव की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया चलेगी । यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि सचिव के पैनल को रद्द करने का आधार क्या रहा है । क्या केजरीवाल सरकार सचिव पद पर भी अपने किसी मनचाहे अफसर को बैठाना चाहती है ।   दरअसल हिंदी अकादमी के सचिव का पद प्रतिनुयुक्ति का पद है और इस पर खास योग्यता वाले की ही नियुक्ति हो सकती है । जिलस पैनल को सरकार ने रद्द किया उसमें हिंदी के एक दलित लेखक का भी नाम था । इस पैनल को रद्द करने के बाद केजरीवाल सरकार ने एक दलित को हिंदी अकादमी का सचिव बनाने के अवसर को भी गंवा दिया । हिंदी अकादमी के गठन के बाद से अबतक इसके सचिव पद  पर किसी दलित की नियुक्ति नहीं हुई है । रही बात उपाध्यक्ष की तो जनार्दन द्विवेदी के बाद के दिल्ली हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष बस शोभा के तौर पर काम करते रहे हैं । हिंदी अकादमी में उनके बैठने के लिए एक कमरा जरूर है लेकिन उनके लिए और कोई सुख सुविधा नहीं है । हर महीने पांच हजार रुपए के मानदेय का प्रावधान है । इन को देखते हुए हिंदी के वरिष्ठ लेखक उपेन्द्र नाथ अश्क से जुड़ा एक वाकया याद आ रहा है । अश्क जी को एक पत्रिका से समीक्षा के लिए कुछ पुस्तकें प्राप्त हुई । अश्क जी ने संपादक को लिखा कि समीक्षा के लिए पुस्तकें प्राप्त हो गई हैं और वो यथासमय उसकी समीक्षा लिखकर भेज देंगे । इसके साथ ही अश्क जी ने यह भी लिखा कि अगर समीक्षा लिखने का मानदेय़ अग्रिम मिल जाता तो समीक्षा हुलसकर लिखता । तो अगर दिल्ली सरकार सचमुच भाषाई अकादमियों को लेकर गंभीर है तो उसको अपने उपाध्यक्ष के लिए बेहतर सुविधाओं का इंतजाम करना होगा ताकि वो हुलसकर काम कर सकें । दूसरे दिल्ली सरकार को इन भाषाई अकादमियों को एक छत के नीचे लाना चाहिए । इस वक्त हिंदी अकादमी दिल्ली के किशनगंज इलाके के एक सामुदायिक केंद्र से चल रहा है जहां कि आधारभूत सुविधाएं भी नहीं हैं । हिंदी से जुड़े लोगों का वहां तक पहुंचना ही मुश्किल है । दिल्ली सरकार को चाहिए कि वो इन अकादमियों को ऐसी जगह पर लेकर जाएं जहां वो आम आदमी की पहुंच में हो । एक ऐसे परिसर का निर्माण हो जहां कि भाषा, संस्कृति, कला पर बात हो सके, किताबों पर चर्चा हो सके । दिल्ली की जनता को आम आदमी पार्टी की सरकार से बहुत उम्मीदें हैं, ऐसी ही उम्मीद साहित्य, संस्कृति और कला जगत के लोगों को भी है । दिल्ली की हालत तो यह है कि यहां किसी भी एक किताब या पत्रिका को खरीदने के लिए आपको कई किलोमीटर के चक्कर लगाने पड़ सकते हैं । वर्ल्ड सिटी का सपना देख रहे दिल्ली वासियों के लिए यह भी आवश्यक है ।   

Tuesday, June 2, 2015

परसेप्शन की लड़ाई में पिछड़ती बीजेपी !

लंबी छुट्टी ले लौटने के बाद कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के व्यक्तित्व और स्टाइल दोनों में बदलाव देखा जा रहा है । वो पहले से ज्यादा मुखर और सक्रिय नजर आ रहे हैं । पहले भी राहुल गांधी आक्रामक नजर आते थे जब यूपी विधानसभा चुनाव के पहले कुर्ते की बांह चढ़ाकर भाषण दिया करते थे या फिर दो हजार तेरह में यूपीए सरकार के दागी राजनेताओं को अभयदान देने के अध्यादेश को फाड़ कर रद्दी की टोकरी में फेंकनेवाला बयान हो । परंतु उस वक्त के राहुल गांधी में निरंतरता की कमी थी । वो कैजुअल पॉलिटिशियन की तरह बयान देकर या फिर कोई पदयात्रा कर गायब हो जाते थे । नजीता यह हुआ कि ये परसेप्शन बन गया कि वो कैजुअल राजनीति करते हैं । इस परसेप्शन को लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने जमकर भुनाया । नरेन्द्र मोदी ने उस वक्त चुनाव प्रचार के दौरान इस बात का मजाक बनाया था, साथ ही उन्होंने मां-बेटे की सरकार का एक जुमला उछाला जो काफी लोकप्रिय हुआ । दरअसल लोकसभा चुनाव में परसेप्शन और जुमलेबाजी दोनों ही लड़ाई में कांग्रेस पिछड़ गई थी । नतीजा सबके सामने है । अब लगता है कि राहुल गांधी ने अपनी लंबी छुट्टी में यही आत्ममंथन किया है । अपने नए अवतार में राहुल गांधी जुमले और परसेप्शन दोनों में बीजेपी पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं । जिस तरह से राहुल गांधी ने बजट सत्र के दौरान सरकार पर नाटकीय अंदाज में हमला बोला उससे कम से कम यही संकेत मिलता है । राहुल गांधी ने सूट बूट की सरकार का जो जुमला उछाला उसकी काट में बीजेपी भले ही सूटकेस सरकार का जुमला चलाने की कोशिश कर रही है लेकिन सूट बूट की सरकार का जवाब नहीं है । दरअसल ये सूट बूट की सरकार को जो जुमला है वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दस लाख के कथित सूट और उनके ड्रेसेज को लेकर गढ़ा गया है । ये जुमला उसी तरह से बीजेपी सरकार से चिपक गया है जिस तरह से यूपीए सरकार पर मां-बेटे की सरकार का जुमला चस्पां हो गया था । ऐसा लगता है कि राहुल गांधी को इस बात का इलहाम हो गया है कि राजनीति में सफल होने के लफ्फाजी जरूरी है । लोगों के बीच जिस बात की चर्चा हो रही हो या फिर सोशल मीडिया पर जो जोक्स चल रहे हों उसको उभार दो । जैसे सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री मोदी के विदेश दौरों को लेकर काफी दिनों से ये चल रहा था कि प्रधानमंत्री इन दिनों भारत दौरे पर हैं । राहुल ने उसको अपने अंदाज में उछाला । ये सब ऐसे जुमले हैं जो जनता को लुभाते हैं ।
इसी तरह से अब कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर भी मौजूदगी मजबूत की है । पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जुड़ा कोई भी विषय ट्विटर पर लगातार ट्रेंड कर जाता था । उनको जवाब सिर्फ आम आमदी पार्टी से ही मिल पाता था । लेकिन अब कांग्रेस भी अपने जुमलों को ट्रेंड करवा ले जाती है । जैसे हाल ही में #मोदीइंसल्ट्सइंडिया ट्विटर पर नंबर वन पर ट्रेंड करता रहा । इसी तरह से सोलह मई को जहां बीजेपी #विक्ट्रीडे ट्रेंड करवा रही थी तो कांग्रेस के लोग #जुमलादिवस को ट्रेंड करवा रहे थे । अब तो राहुल गांधी खुद भी ट्विटर पर आ गए हैं । परंतु ऐसा नहीं है कि वो बीजेपी को सोशल मीडिया पर मात दे पाने की स्थिति में हैं । हां इतना अवश्य है कि कांग्रेस भी अब गाहे बगाहे सोशल मीडिया की जंग में अपनी उपस्थिति तो दर्ज करवाती भी है कभी कभार जीतती हुई भी नजर आती है । मोदी सरकार के सालभर पूरा होते होते कांग्रेस वापस लडा़ई में लौटती नजर आ रही है । कांग्रेस ने जिस तरह से भूमि बिल पर हमलावर रुख अपनाया हुआ है और उसके नेता अपने भाषणों से किसानों के बीच जिस तरह का संदेश दे रहे हैं वो भी बीजेपी के लिए चिंता का सबब हो सकती है । इस देश में ज्यातार चुनाव और राजनीतिक जंग परसेप्शन के आधार पर लड़े और जीते जाते रहे हैं । नारों और जुमलों ने कई सरकारें बनवाई और गिरवाईं । बस नारे के क्लिक करने की जरूरत होती है ।  ज्यादा पीछे नहीं जाते हुए अगर हम देखें तो इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ के नारे पर कई चुनाव जीते, राजा नहीं फकीर है के जुमले पर वीपी सिंह देश के पीएम बने । सुशासन बाबू का तमगा लगाकर नीतीश लगातार चुनाव जीतते रहे हैं।
द इंसाइक्लोपीडिया ऑफ द इंडियन नेशनल कांग्रेस (1978-83) के पच्चीसवें खंड में इंदिरा गांधी ने कहा था कि कांग्रेस अपने डायनमिक प्रोग्राम्स और आम जनता से जुड़ी नीतियों की बदैलत की अपने आपको बचा सकती है । हम कांग्रेस के सरवाइवल के लिए तो लड़ ही रहे हैं, लेकिन भारत की जनता की लड़ाई भी लड़ रहे हैं ।अब यहां भी यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि किस तरह से इंदिरा गांधी ने बेहद चतुराई के साथ अपनी लड़ाई को जनता की लड़ाई बताई । नतीजा यह हुआ कि इमरजेंसी के बाद सतहत्तर के चुनाव में बुरी तरह से मात खानेवाली कांग्रेस अस्सी में बहुमत से सरकार में आई । पर इंदिरा की तरह राहुल गांधी में वो राजनीतिक चतुराई है या नहीं इसको साबित होना अभी शेष है । पर जिस तरह से वो इन दिनों परसेप्शन की जंग में बीजेपी को चुनौती दे रहे हैं उससे ये लगता है कि आत्मचिंतन के दौर में उन्होंने इंदिरा गांधी की राजनीति को परखा और उसकी जमीन पर खड़े होकर नए जमाने के हथियारों से हमलावर होना सीखा है ।

Monday, June 1, 2015

पत्रों में समय- संस्कृति

अभी हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार अत्युतानंद मिश्रा के संपादन में निकली किताब पत्रों में समय संस्कृति देखने को मिली । यह किताब एक जमाने में मशहूर पत्रिका कल्याण के सर्वेसर्वा रहे हनुमान प्रसाद पोद्दार को लिखे पत्रों का संग्रह है । किताब को मैं जैसे जैसे पलटता चलता था मेरा अचंभा बढ़ता जाता था । कल्याण पत्रिका को अब की पीढ़ी नहीं जानती है । बचपन में हमारे घर में कल्याण पत्रिका आती थी । मुझे अब भी याद है कि खाकी रैपर में लिपटी कल्याण को डाकिया एक तय तिथि को हमारे घर दे जाता था । उस वक्त मुझे लगता है कि कल्याण हर घर के लिए जरूरी पत्रिका थी । कल्याण को बाद के दिनों में इस तरह से प्रचारित किया गया कि वो धार्मिक पत्रिका है । अच्युतानंद मिश्रा के संपादवन में निकली इस किताब को पढ़ने के बाद यह भ्रांति दूर होती है । हनुमान प्रस्दा पोद्दार जी के पत्रों को पढ़ते हुए यह साफ तौर पर साबित होता है कि उस वक्त कल्याण में समाज के हर क्षेत्र और वर्ग के विद्वान लिखा करते थे । इस किताब में नंद दुलारे वाजपेयी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, कन्हैयालाल मिश्र, चतुरसेन शास्त्री आदि के तमाम पत्र हैं । तीन मार्च बत्तीस का प्रेमचंद का एक पत्र है जिसमें वो कहते हैं आपके दो कृपा पत्र मिले। काशी से पत्र यहां आ गया था । हंस के विषय में आपने जो सम्मति दी है उससे मेरा उत्साह बढ़ा । मैं कल्याण के ईश्वरांक के लिए अवश्य लिखूंगा । क्या कहें आप काशी गए और मेरा दुर्भाग्य कि मैं लखनऊ में हूं । भाई महावीर प्रसाद बाहर हैं या भीतर मुझे ज्ञात नहीं । उनकी स्नेह स्मृतियां मेरे जीवन की बहुमूल्य वस्तु हैं । वह तो तपस्वी हैं, उन्हें क्या खबर कि प्रेमभी कोई चीज है । इसी तरह के कई पत्र हैं जिनसे उस वक्त के परिदृश्य से परदा हटता है, धुंध भी छंटती है ।

इस किताब को पढ़ते हुए जेहन में एक बात बार बार कौंध रही थी कि इस वक्त को पकड़ने के लिए पत्र तो नहीं होंगे । इंटरनेट के फैलाव ने पत्रों की लगभग हत्या कर दी है । पत्रों की जगह ईमेल ने ली है । पत्रों की जगह एसएमएस ने ले ली है । पत्रों की बजाए अब फेसबुक पर संवाद होने लगे हैं । तकनीक ने पत्रों को महसूस करने के अहसास से हमें महरूम कर दिया । इन भावनात्मक नुकसान के अलावा एक और नुकसान हुआ है वह ये कि पत्रों में एक वक्त का इतिहास बनता था । उस वक्त चल रहे विमर्शों और सामाजिक स्थितियों पर प्रामाणिक प्रकाश डाला जा सकता था लेकिन पत्रों के खत्म होने से साहित्य की एक समृद्ध विधा तो लगभग खत्म हो ही गई है इतिहास का एक अहम स्त्रोत भी खत्म होने के कगार पर है । अब अगर हम महावीर प्रसाद पोद्दार जी के पत्रों की बात करें या मुक्तिबोध को लिखे पत्रों की बात करें तो यह साफ तौर पर कह सकते हैं कि इन संग्रहों में उस दौर को जिया जा सकता है । अच्युतानंद मिश्र जी द्वारा संपादित इस किताब में निराला जी का एक पत्र है सह अक्तूबर उन्नीस सौ इकतीस का जिसमें वो लिखते हैं प्रिय श्री पोद्दार जी, नमो नम: । आपका पत्र मिला । मैं कलकत्ता सम्मेलन में जाकर बीमार पड़ गया । पश्चात घर लौटने पर अनेक गृह प्रबंधों में उलझा रहा । कई बार विचार करने पर भी आपके प्रतिष्ठित पत्र के लिए कुछ नहीं लिख सका । क्या लिखूं , आपके सहृद्य सज्जनोचित बर्ताब के लिए मैं बहुत लज्जित हूं । आपके आगे के अंकों के लिए कुछ-कुछ अवश्य भेजता रहूंगा । एक प्रबंध कुछ ही दिनों में भेजूंगा । अब निराला के इन पत्रों या कल्याण में छपे निराला के लेखों का सामने आना शेष है । अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो नंदकिशोर नवल द्वारा संपादित निराला रचनावली में ना तो ये पत्र हैं और ना ही कल्याण में छपी उनकी रचनाएं । कहने का अर्थ यह है कि पत्रों के माध्यम से हम साहित्येतास को भी सही कर सकते हैं ।