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Saturday, March 31, 2012

काटजू का जादुई यथार्थवाद

पिछले दिनों दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकाररों और संपादकों का जमावड़ा हुआ था – मौका था पत्रकार शैलेश और डॉ ब्रजमोहन की वाणी प्रकाशन से प्रकाशित किताब स्मार्ट रिपोर्टर के विमोचन का । किताब का औपचारिक विमोचन प्रेस परिषद के अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व विद्वान न्यायाधीश जस्टिस मार्केंडेय काटजू के साथ साथ एन के सिंह, आशुतोष, कमर वहीद नकवी, शशि शेखर ने किया । विमोचन के बाद वक्ताओं ने बोलना शुरू किया । जस्टिस काटजू की बगल में बैठे ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव एन के सिंह ने सारगर्भित भाषण दिया और पत्रकारों को पेशेगत जरूरी औजारों से लैस रहने की वकालत भी की । उसके बाद आईबीएन7 के प्रबंध संपादक आशुतोष ने ओजपूर्ण तरीके से अपनी बात रखी और कहा कि एक पत्रकार को अपने पेशे के हिसाब से जरूरी जानकारी रहनी चाहिए लेकिन उन्होंने ये कहा कि यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि उसे हर विषय का विद्वान होना चाहिए । इसके अलावा आशुतोष ने वाटरगेट कांड का उदाहरण देते हुए कहा कि एक पत्रकार को छोटी से छोटी घटना को मामूली कहकर खारिज नहीं करना चाहिए । आशुतोष ने कहा कि एक पत्रकार की सबसे बड़ी भूमिका यह होती है कि वो जो देखे उसको दिखाए । आशुतोष के बाद आजतक के न्यूज डारेक्टर कमर वहीद नकवी ने एक बेहद दिलचस्प वाकया बयां किया । उन्होंने बताया कि एक दिन उनके चैनल पर खबर चली कि अमुक जगह पर पारा साठ डिग्री के पार हो गया । जब खबर चली को उन्होंने पूछताछ शुरू कि खबर कहां से आई और कैसे चली । काफी छानबीन के बाद पता चला कि उस इलाके के एक स्ट्रिंगर ने खबर भेजी और उसमें एक सिपाही की बाइट लगी हुई थी कि इस बार गर्मी काफी बढ़ गई है और लगता है पारा साठ डिग्री के पार हो गया है । नकवी जी ने बताया कि उन्हें इस बात की हैरानी हुई कि कहीं भी किसी भी स्तर पर यह चेक करने की कोशिश नहीं की गई कि पारा साठ डिग्री तक पहुंच गया । यह बात कौन कह रहा है । नकवी जी ने इस वाकए के हवाले से पत्रकारिता में तथ्यों की जांच करने की कम होती प्रवृत्ति की ओर ध्यान दिलाया और खबरों को चेक करने की जोरदार वकालत की । उसके बाद हिंदुस्तान के प्रधान संपादक शशि शेखर ने भी एक रिपोर्टर और संपादक की खबरों को फिल्टर की करने की क्षमता विकसित करने पर जोर दिया । उन्होंने बताया कि जब वो आजतक में काम करते थे उस दौरान संसद में गोलीबारी की खबर आई । उस वक्त वो लोग एक मीटिंग में थे और जब यह खबर आई तो मीटिंग से प्रोडक्शन कंट्रोल रूम तक दौड़ते हुए आशुतोष ने यही कहा था कि संसद में गोलीबारी हुई है बस इतनी सी खबर चलाओ । शशिशेखर ने इस वाकये के हवाले से कठिन से कठिन परिस्थिति में भी खबरों को पेश करने में संतुलन को कायम रखने का मुद्दा उठाया ।
इसके बाद बारी थी प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस काटजू की । काटजू ने पहले तो शैलेश-ब्रजमोहन की किताब की जमकर तारीफ की और उसको पत्रकारिता के कोर्स में लगाने की वकालत भी । थोड़ी देर बाद काटजू अपने पुराने फॉर्म में लौटे और वहां मौजूद तमाम संपादकों के सामने मीडिया को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसका उपदेश देने लगे । तकरीबन सभी हिंदी न्यज चौनलों के संपादकों की उपस्थिति से काटजू साहब कुछ ज्यादा ही उत्साहित हो गए । बोलते बोलते वो कुछ ज्यादा ही आगे चले गए और सचिन तेंदुलकर और देवानंद के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कर डाली । देवानंद की मौत की खबर को न्यूज चैनलों पर प्रमुखता से प्रसारित करने पर काटजू ने मीडिया पर तीखा हमला बोला । उनके कहने का लब्बोलुआब यह था कि देवानंद मर गए तो कोई आफत नहीं आ गई जो सारे न्यूज चैनल दिनभर उस खबर पर लगे रहे । उसके पहले भी उन्होंने वहां मौजूद संपादकों को चुभनेवाली बातें कही थी लेकिन पद की गरिमा और कार्यक्रम की मर्यादा का ध्यान रखते हुए तमाम संपादक और पत्रकार चुप रहे थे । जब देवानंद के बारे में उन्होंने हल्की टिप्पणी की तो आशुतोष ने उनके भाषण को बीच में रोककर जोरदार प्रतिवाद दर्ज कराया । आशुतोष ने कहा कि देवानंद एक महान कलाकार थे और उनके बारे में इस तरह की हल्की टिप्पणी नहीं की जा सकती है । उसके बाद थोड़ा सा हो हल्ला मचा लेकिन फिर मामला शांत पर गया । लेकिन संपादकों के विरोध से काटजू और ज्यादा आक्रामक हो गए । उन्होंने सचिन तेंदुलकर के सौवें शतक की खबर को बिना रुके न्यूज चैनलों पर दिखाए जाने पर भी गंभीर आपत्ति दर्ज कराई । वहां भी उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि सचिन के शतक से ऐसा लगा कि देश में दूध की नदियां बह जाएंगी, खुशहाली आ जाएगी आदि आदि । जस्टिस काटजू विद्वान न्यायाधीश रहे हैं, काफी पढ़े लिखे माने जाते हैं लेकिन वो यह कैसे भूल गए कि भारतीय परंपरा में मृत लोगों के बारे में अपमानजनक बातें नहीं कही जाती हैं । देवानंद हमारे देश के एक महान कलाकार थे और उनकी कला को काटजू के प्रमाण पत्र की जरूरत भी नहीं है । लेकिन जिस तरह से उन्होंने देवानंद पर टिप्पणी की वह उनकी सामंती मानसिकता को दर्शाता है जिसमें फिल्मों में काम करनेवाला महज नाचने गाने वाला होता है । काटजू को देवानंद पर दिए गए अपने बयान पर देश से माफी मांगनी चाहिए ।
काटजू ने मीडिया को एक बार फिर से गरीबों, किसानों की आवाज बनने और देश की आम जनता को शिक्षित करने के उनके दायित्व की याद दिलाई । जस्टिस काटजू ने यह कहकर अपनी पीठ भी थपथपाई कि अगर उन्होंने मुहिम नहीं चलाई होती तो ऐश्वर्या राय के मां बनने की खबर न्यूज चैनलों पर बेहद प्रमुखता से चली होती । लेकिन अपनी तारीफ करते वक्त जस्टिस काटजू को यह याद नहीं रहा कि उसके पहले भी संपादकों की संस्था बीईए ने कई मौकों पर ऐसे फैसले लिए । जिसकी सबसे बड़ी मिसाल अयोध्या में विवादित ढांचे को गिराए जाने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के वक्त की रिपोर्टिंग में देखी जा सकती है । दरअसल जस्टिस काटजू न्यूज चैनलों को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाना चाहते हैं लेकिन वो यह भूल जाते हैं कि प्रेस परिषद ने अपने गठन के बाद से लेकर अबतक कोई भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया । उसकी वजह चाहे जो भी हो । दरअसल जिस तरह से देश का माहौल बदला है वैसे में प्रेस परिषद जैसी दंतविहीन संस्थाओं का कोई औचित्य ही नहीं है । प्रेस परिषद तो जनता के पैसे की बर्बादी है जहां से कुछ ठोस निकलता नहीं है क्योंकि उसकी परिकल्पना ही सलाहकार संस्था के रूप में की गई थी । इसलिए अब वक्त आ गया है कि सरकार प्रेस परिषद पर होने वाले फिजूल के खर्चों को बंद करे और इस संगठन को बंद कर जनता की गाढ़ी कमाई को किसी जनकल्याणकारी कार्य में खर्च करे ।
इन तमाम बहस मुहाबिसे के बीच शैलेश और ब्रजमोहन द्वारा लिखी गई किताब पर कम चर्चा हो पाई । यह किताब पत्रकारिता में कदम रखनेवालों को बेहद बुनियादी जानकारी देता है । उसे न्यूज चैनलों में होने वाली हलचलों से ना केवल वाकिफ कराता है बल्कि उसे एजुकेट भी करता चलता है । ब्रजमोहन जी की इस किताब में देश के शीर्ष रिपोर्टर्स की नजरों से उनके अनुभवों को आधार बनाया गया है जो इसको पांडित्य और शास्त्रीय बोझिलता से मुक्त करता है । इस किताब की एक और विशेषता है कि उसमें कई चित्रों के माध्यम से स्थितियों को समझाने की कोशिश की गई है जिससे पाठकों को सहूलियत होती है । दरअसल यह किताब सिर्फ पत्रकारिता के छात्रों के लिए नहीं होकर उन सभी लोगों के लिए उपयोगी और रोचक है जिनकी इस विषय में थोड़ी सी भी रुचि है ।

Friday, March 30, 2012

अखिलेश की चुनौती

उत्तर प्रदेश चुनाव में समाजवादी पार्टी की जीत के बाद राजनीतिक टिप्पणीकार सूबे में बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं । सूबे की जनता में अपने युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को लेकर जबरदस्त उत्साह है । मायावती के शासनकाल के दौरान सांस्थानिक भ्रष्टाचार से त्रस्त और उसके पहले मुलायम सिंह यादव के राज में गुंडई से पस्त जनता को अखिलेश में एक ऐसा ताजा चेहरा दिखाई दिया जो प्रदेश को गुंडागर्दी से दूर कर सकता है । जनता ने प्रचंड बहुमत से अखिलेश को देश के सबसे बड़े राज्य का सबसे युवा मुख्यमंत्री चुन लिया । लेकिन जनता के इस विश्वास के बाद अखिलेश से उनकी अपेक्षाएं भी सातवें आसमान पर जा पहुंची हैं । अखिलेश को जनता की इन लगातार बढ़ती अपेक्षाओं पर उतरने की बहुत बड़ी चुनौती है । जब अखिलेश सूबे के मुख्यमंत्री बने तो राजनीतिक पंडितों का आकलन था कि उनके चाचा शिवपाल यादव हर कदम पर बाधाएं खड़ी करेंगे लेकिन यह आकलन इस वजह से गलत साबित हुआ कि मुलायम ने अपने राजनीतिक कौशल से उनको साध लिया और यह इंतजाम कर दिया कि शिवपाल अपने भतीजे की राह में रोड़े ना अटका सकें । जिस वक्त शिवपाल को केंद्र की राजनीति में जाने का प्रस्ताव दिया गया उसी वक्त यह तय हो गया था कि शिवपाल अगर सूबे में मंत्री बनते हैं तो अपने मंत्रालय तक सीमित रहेंगे। इसके अलावा आजम खां को भी स्पीकर बनाने का दांव चलकर मुलायम ने उस बाधा को भी खत्म कर दिया ।
तमाम राजनीतिक पंडितों की भविष्वाणियों के उलट अखिलेश के लिए जो सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रहे हैं वो हैं उनके पिता मुलायम सिंह यादव। अखिलेश के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने पिता की छाया से निकलकर खुद को स्थापित और साबित करने की है । जब अखिलेश मुख्यमंत्री बने तो उनके सामने जो पहला बड़ा काम था वो था मंत्रिमंडल गठन का और मंत्रियों के बीच विभागों के बंटवारे का । अखिलेश को अपना मंत्रिमंडल बनाने में पसीने छूट गए और विभागों का बंटवारा तो हफ्ते भर से ज्यादा वक्त तक नहीं हो पाया । मंत्रियों को विभागों का वंटवारा होने के पहले एक मंत्रिमंडल विस्तार उनको करना पड़ा, जिसमें मुलायम के आदमियों को जगह दी गई । आजाद भारत के इतहास में ऐसा कम ही हुआ है कि अपने बल पर बहुमत पानेवाली पार्टी सरकार बनाने के बाद पहले मंत्रिमंडल विस्तार करे फिर मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा । अखिलेश के मंत्रिमंडल पर मुलायम सिंह यादव की गहरी छाप और छाया साफ दिखाई देती है । मुलायम के तमाम विश्वस्त सहयोगियों को मंत्रिमंडल में जगह दी गई । हद तो तब हो गई पूर्ण बहुमत के बावजूद निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को मंत्री बनाकर उनकी पसंद का मंत्रालय सौंप दिया गया । अखिलेश ने जब अपने मंत्रियों के बीच विभागों का वंटवारा किया तो अपनी पसंद के मंत्रियों को कम अहम मंत्रालय दे सके । अभिषेक मिश्रा उनकी पसंद हैं, पढ़े लिखे समझदार युवा नेता हैं । प्रबंधन में वो सिद्धहस्त हैं लेकिन उनको मंत्रालय मिला प्रोटोकॉल, जहां करने के लिए बहुत कुछ है नहीं । इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मंत्रालयों के बंटवारे में भी अखिलेश की नहीं बल्कि मुलायम सिंह यादव की चली । अखिलेश का जो मंत्रिमंडल है उसे चाचाओं का मंत्रिमंडल कहा जा सकता है जिसमें अधिकांश मुलायम के सहयोगी और हमउम्र रह चुके हैं और अखिलेश को बच्चा समझते हैं । अखिलेश के सामने अपने पिता के इन सहयोगियों से काम करवाने की बेहद कड़ी चुनौती होगी । हर मंत्री अखिलेश को बच्चा और खुद को मुलायम का समकालीन मानता है । उनसे काम करवाना अखिलेश के लिए मुश्किल हो सकता है ।
अखिलेश यादव ने जब सूबे की कमान संभाली को उनको विरासत में जो नौकरशाही मिली वो राजनीति में आकंठ डूबी और करीब करीब भ्रष्ट हो चुकी थी । उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में हर अफसर किसी न किसी राजनेता का आदमी है । कोई मुलायम का तो कोई मायावती का तो कोई बीजेपी का । अखिलेश के सामने इस राजनीतिक और भ्रष्ट अफसरशाहों पर लगाम लगाने की चुनौती है । सूबे में अहम पदों पर अफसरों की तैनाती में मुलायम सिंह यादव की छाप ही देखी जा सकती है । अखिलेश की सचिवों की तैनाती में भी मुलायम की ही चली, जो मुलायम के शासन काल में पंचम तल पर बैठते थे उनकी फिर से वापसी हुई है । ऐसे में इस युवा मुख्यमंत्री की चुनौती और बढ़ जाती है कि उनको उन अफसरों से काम करवाना है जिनकी राजनैतिक आस्था कहीं और है और वो अपनी नियुक्ति के लिए अखिलेश नहीं बल्कि किसी और को जिम्मेदार मानता है । इसके अलावा बेलगाम और सांस्थानिक भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने वाले अफसरों और बाबुओं को काबू में करना और उनसे रचनात्मक और विकास के काम करवाना भी टेढी खीर साबित हो सकता है । यहीं पर अखिलेश के राजनैतिक और प्रशासनिक कौशल की परीक्षा होगी । अगर वो सफल हो जाते हैं तो इतिहास पुरुष बन जाएंगे और अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो इतिहास में गुम हो जाएंगें ।
तीसरी बड़ी चुनौती भी अखिलेश के सामने मुलायम सिंह यादव के साथी संगी हैं और जिन्होंने पिछले पांच साल तक इस आस में नेताजी का साथ दिया कि सत्ता बदलेगी तो उसका स्वाद चखेंगे । इस आस के उल्लास का उत्पात में बदलते चले जाना और फिर उसका अपराध की सीमा में प्रवेश कर जाना अखिलेश को सीधे चुनौती दे रहा है । सात मार्च से लेकर बारह मार्च तक जिस तरह से समाजवादी पार्टी के समर्थकों ने उत्पात मचाया वो आने वाले दिनों का एक संकेत तो देता ही है । भदोही, सीतापुर, इलाहाबाद, बरेली, अंबेडकरनगर हरदोई, मुरादाबाद, प्रतापगढ़, औरैया में जिस तरह से हत्याएं हुई और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने आगजनी और रंगदारी की उससे एक बार फिर से उत्तर प्रदेश में अपराध और अपराधियों के बोलबाला होने का खतरा मंडराने लगा है । जिस तरह से अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण समारोह के बाद सपाइयों ने मंच पर चढ़कर उत्पात किया वो भी आने वाले समय की बानगी पेश कर रहा था । अखिलेश ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले और बाद में भी अपराधमुक्त उत्तर प्रदेश का वादा किया था जिसकी मंत्रिमंडल गठन में ही धज्जी उड़ गई । जिस तरह से बाहुबली निर्दलीय विधायक राजा भैया को मुलायम के दबाव में मंत्रिमंडल में शामिल करना पड़ा उससे अखिलेश की बड़ी फजीहत हुई । इसके अलावा ब्रह्माशंकर शंकर त्रिपाठी, दुर्गा यादव, शिव कुमार बेरिया, राजकिशोर सिंह जैसे आपराधिक छवि के लोगों के साथ कैबिनेट में बैठकर अपराधमुक्त प्रदेश का वादा जरा खोखला लगता है ।
अखिलेश यादव युवा हैं, उत्तर प्रदेश को लेकर उनका एक सपना है, उसको वो पूरा भी करना चाहते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें घर और पिता की छाया और उनकी मित्र मंडली से बाहर निकलना होगा और कुछ कड़े और बड़े फैसले लेने होंगे । चुनाव के वक्त जिस तरह से डी पी यादव को पार्टी में नहीं लेने पर वो अड़ गए थे उसी तरह के कड़े फैसलों की ही प्रतीक्षा उत्तर प्रदेश की जनता कर रही है । अखिलेश को भी मालूम है कि उनके पास ज्यादा समय नहीं है और वक्त रहते अगर गुंडों पर काबू और विकास की पहिए को रफ्तार नहीं दी गई तो जनता की अदालत में उनका भविष्य तय हो जाएगा । जनता की अदालत में फैसला आने में भले ही पांच साल लग जाए लेकिन लोकतंत्र में उस फैसले को मानने के अलावा कोई विकल्प बचता नहीं है । उसको सभी को स्वीकार करना पड़ता है, अखिलेश को भी ।

Thursday, March 15, 2012

ताबड़तोड़ विमोचनों का मेला

कुछ दिनों पहले दिल्ली में बीसवां अतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला समाप्त हुआ । दरअसल यह मेला एक साहित्यिक उत्सव की तरह होता है जिसमें पाठकों की भागीदारी के साथ साथ देशभर के लेखक भी जुटते हैं और परस्पर वयक्तिगत संवाद संभव होता है । इस बार के मेले की विशेषता रही किताबों का ताबड़तोड़ विमोचन और कमी खली राजेन्द्र यादव की जो बीमारी की वजह से मेले में शिरकत नहीं कर सके । एक अनुमान के मुताबिक इस बार के पुस्तक मेले में हिंदी की तकरीबन सात से आठ सौ किताबों का विमोचन हुआ । हिंदी के हर प्रकाशक के स्टॉल पर हर दिन किसी ना किसी का संग्रह विमोचित हो रहा था । इस बार फिर से नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी ने सबसे ज्यादा किताबें विमोचित की होंगी, ऐसा मेरा अमुमान है । इस अनुमान का आधार प्रकाशकों से मिलनेवाले विमोचन के एसएमएस रूपी निमंत्रण हैं । मेले में इस बार शिद्दत से हंस संपादक राजेन्द्र यादव की कमी महसूस हुई । राजेन्द्र यादव एक छोटे से ऑपरेशन के बाद से ठीक होने की प्रक्रिया में हैं और इस प्रक्रिया में उनका बिस्तर से उठ पाना मुश्किल है । लिहाजा वो पुस्तक मेले में नहीं आ पाए । सिर्फ मेला ही क्यों दिल्ली का हिंदी समाज हंस के दरियागंज दफ्तर में उनकी अनुपस्थिति को महसूस कर रहा है। हिंदी साहित्य का एक स्थायी ठीहा आजकल उनकी अनुपस्थिति की वजह से वीरान ही नहीं उदास भी है । हम सबलोग उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना कर रहे हैं ताकि दिल्ली के हिंदी जगहत की जिंदादिली वापस आ सके ।
वापस लौटते हैं पुस्तक मेले पर । पुस्तक मेले में इतनी बड़ी संख्या में किताबों के विमोचन को देखते हुए लगता है कि हिंदी में पाठकों की कमी का रोना नाजायज है । अगर पाठक नहीं हैं तो फिर इतनी किताबें क्यों छप रही हैं । मेरा मानना है कि सिर्फ सरकारी खरीद के लिए इतनी बड़ी संख्या में पुस्तकें नहीं छप सकती हैं । एक बार फिर से हिंदी के कर्ता-धर्ताओं को इस पर विचार करना चाहिए और डंके की चोट पर यह ऐलान भी करना चाहिए कि हिंदी सिर्फ पाठकों के बूते ही चलेगी भी और बढेगी भी । इससे ना केवल लेखकों का विश्वास बढेगा बल्कि पाठकों की कमी का रोना रोनेवालों को भी मुंहतोड़ जबाव मिल पाएगा । छात्रों की परीक्षा के बावजूद मेले में लोगों की सहभागिता के आधार पर मेरा विश्वास बढ़ा है । मेले में जो किताबें विमोचित या जारी हुई उसमें कवि-संस्कृतिकर्मी यतीन्द्र मिश्र के निबंधों का संग्रह विस्मय का बखान (वाणी प्रकाशन), कवि तजेन्दर लूथरा का कविता संग्रह अस्सी घाट पर बांसुरीवाला(राजकमल प्रकाशन), हाल के दिनों में अपनी कहानियों से हिंदी जगत को झकझोरनेवाली लेखिका जयश्री राय का उपन्यास –औरत जो नदी है(शिल्पायन, दिल्ली) अशोक वाजपेयी के अखबारों में लिखे टिप्पणियों का संग्रह- कुछ खोजते हुए के अलावा झारखंड की उपन्यासकार महुआ माजी का नया उपन्यास मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ (राजकमल प्रकाशन) – और पत्रकार और कहानीकार गीताश्री की शोधपरक पुस्तक सपनों की मंडी प्रमुख है । हिंदी में शोध के आधार पर साहित्यिक या गैर साहित्यिक लेखन बहुत ज्यादा हुआ नहीं है । जो हुआ है उसमें विषय विशेष की सूक्षमता से पड़ताल नहीं गई है । विषय विशेष को उभारने के लिए जिस तरह से उसके हर पक्ष की सूक्ष्म डिटेलिंग होनी चाहिए थी उसका आभाव लंबे समय से हिंदी जगत को खटक रहा था। अपने ज्ञान,प्रचलित मान्यताओं, पूर्व के लेखकों के लेखन और धर्म ग्रंथों को आधार बनाकर काफी लेखन हुआ है । लेकिन तर्क और प्रामाणिकता के अभाव में उस लेखन को बौद्धिक जगत से मान्यता नहीं मिल पाई । लेखकों की नई पीढ़ी में यह काम करने की छटपटाहट लक्षित की जा सकती है। इस पीढ़ी के लेखकों ने श्रमपूर्वक गैर साहित्यिक विषयों पर बेहद सूक्ष्म डीटेलिंग के साथ लिखना शुरू किया । नई पीढ़ी की उन्हीं चुनिंदा लेखकों में एक अहम नाम है गीताश्री का। कुछ दिनों पहले एक के बाद एक बेहतरीन कहानियां लिखकर कहानीकार के रूप में शोहरत हासिल कर चुकी पत्रकार गीताश्री ने तकरीबन एक दशक तक शोध और यात्राओं और उसके अनुभवों के आधार पर देह व्यापार की मंडी पर पर यह किताब लिखी है । गीताश्री ने अपनी इस किताब में अपनी आंखों से देखा हुआ और इस पेशे के दर्द को झेल चुकी और झेल रही महिलाओं से सुनकर जो दास्तान पेश की है उससे पाठकों के हृदय की तार झंकृत हो उठती है । उम्मीद की जा सकती है कि गीताश्री की इस किताब से हिंदी में जो एक कमी महसूस की जा रही थी वो पूरी होगी ।
कवि तजेन्दर लूथरा के कविता संग्रह का नाम अस्सी घाट पर बांसुरीवाला चौंकानेवाला है । संग्रह के विमोचन के बाद जब मैंने नामवर सिंह से इस कविता संग्रह के शीर्ष के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि जबतक वो बनारस में थे तबतक उन्होंने अस्सी घाट पर बांसुरी वाले को नहीं देखा था । लेकिन नामवर सिंह ने तजेन्दर की कविताओं को बेहतर बताया । हलांकि कवि का दावा है कि उन्होंने अस्सी घाटपर बजाप्ता बांसुरीवाले को बांसुरी बजाते देखा है और वहीं से इस कविता को उठाया है । मैंने भी तजेन्दर की कई कविताएं पढ़ी और सुनी हैं । उनकी कविताओं की एक विशेषता जिसे हिंदी के आलोचकों को रेखांकित करना चाहिए वो यह है कि वहां कविता के साथ साथ कहानी भी समांतर रूप से चलती है । तजेन्दर की कविताएं ज्यादातर लंबी होती हैं और उसमें जिस तरह से समांतर रूप से एक कहानी भी साथ साथ चलती है उससे पाठकों को दोनों का आस्वाद मिलता है । तजेन्दर की कविताओं के इस पक्ष पर हिंदी में चर्चा होना शेष है । मैं आमतौर पर कविता संग्रहों पर नहीं लिखता हूं क्योंकि मैं मानता हूं कि आज की ज्यादातर कविताएं सपाटबयानी और नारेबाजी की शिकार होकर रह गई हैं । लेकिन तजेन्दर की कविताओं में नारेबाजी या फैशन की क्रांति नहीं होने से यह थोड़ी अलग है । कभी विस्तार से इस कविता संग्रह पर लिखूंगा ।
महुआ माजी का पहला उपन्यास मैं बोरिशाइल्ला ठीक ठाक चर्चित हुआ था । अब एक लंबे अंतराल के बाद उनका जो दूसरा उपन्यास आया है उसे लेखिका विकिरण, प्रदूषण और विस्थापन से जुड़े आदिवासियों की गाथा बताया है । लेखिका के मुताबिक इसमें द्वितीय विश्वयुद्ध से हुए विध्वंस से लेकर वर्तमान तक को समेटा गया है । विजयमोहन सिंह इसे जंगल जीवन की महागाथा बताते हैं लेकिन देखना होगा कि हिंदी के पाठक इस उपन्यास को किस तरह से लेते हैं । रचनाओं को परखने की आलोचकों की नजर पाठकों से इतर होती है और बहुधा उनकी राय भी अलग ही होती है ।
पुस्तक मेले के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट के नए और युवा निदेशक एम ए सिकंदर से भी लंबी बातचीत हुई । दरअसल मेले में कुछ प्रकाशकों ने आयोजन की तिथि और व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े किए थे । एनबीटी के निदेशक ने साफ तौर पर यह स्वीकार किया कि बच्चे कम संख्या में आ पाए लेकिन जिस तरह से ट्रस्ट ने दिल्ली के कॉलेजों में एक अभियान चलाया उससे पुस्तक मेले में छात्रों की भागीदारी बढ़ी । बातचीत के क्रम में सिकंदर साहब ने जो एक अहम बात कही वो यह कि एनबीटी विश्व पुस्तक मेले को हर साल आयोजित करने की संभावनाओं को तलाश रहा है । अगर यह हो पाता है तो हिंदी समेत अन्य भाषाओं के लिए भी बेहतरीन काम होगा ।