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Saturday, March 26, 2022

धर्मांधता ने बदली कश्मीर की संस्कृति


कश्मीरी पंडितों को नुकसान हुआ, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। कश्मीरी पंडित मारे गए, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। कश्मीरी पंडित तबाह बर्बाद हो गए इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। मैं तकरीबन तकरीबन जब भी जब भी कश्मीर पर चर्चा हुई है पार्लियामेंट के अंदर मैंने कहा कश्मीरी पंडितों के बगैर कश्मीर अधूरा है। क्योंकि ओरिजनल कश्मीरी जितने मुसलमान हैं वो सब कंवर्ट हो गए हैं कश्मीरी पंडितों से। मैंने कहा कि 600 साल पहले मेरे बुजुर्ग भी कश्मीरी पंडित थे। मैंने पार्लियामेंट में भी कहा। कइयों को शर्म आती है, नहीं आती है लेकिन इतिहास जो है वो तो ठीक कहना चाहिए। मेरे ख्याल में सभी, एकाध लीडर को छोड़कर जो बाहर से आए, सभी लीडरों के या सभी पार्टी के लीडरों के छह सौ साढे छह सौ साल पहले कश्मीरी पंडित थे। तो खून एक है कश्मीरियों का उसको जुदा कैसे कर सकते हैं। ये कहना है कांग्रेस के नेता और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद का। वो विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे। इसके आगे भी उन्होंने फिल्म में सत्य और अर्धसत्य की बातें की। फिल्म में दिखाई बातों को लेकर अलग-अलग राय आती रहेगी लेकिन इतना तो माना ही जाना चाहिए कि विवेक अग्निहोत्री ने अपनी इस फिल्म के जरिए कश्मीर और वहां के भुला दिए गए इतिहास को एक बार फिर से विमर्श के केंद्र में ला दिया है। गुलाम नबी आजाद जो बात कह रहे हैं वो बेहद महत्वपूर्ण है और इस पर एक देशव्यापी विमर्श होना चाहिए। 

गुलाम नबी आजाद के मुतिबक कश्मीर की आबादी पहले हिंदू थी जो बाद में इस्लाम स्वीकार करके मुसलमान बन गई। आजाद के इस बयान को दो हिस्से में बांट कर देखा जाना चाहिए। पहला ये कि कश्मीर की अधिसंख्यक आबादी पहले हिंदू थी और दूसरी ये कि बाद में उन्होंने अपना धर्म बदल दिया और वो मुसलमान हो गए। ऐसा नहीं है कि आजाद ने कोई नई बात कही है या कोई नया अन्वेषण कर खुलासा किया है। आजाद ने जिस बात को स्वीकार किया है जो हमारे पौराणिक ग्रंथों में तो है ही कई आधुनिक इतिहासकार और लेखक भी इस बात को लगातार कह रहे हैं। ये अवश्य है कि इन ऐतिहासिक तथ्यों को प्रचारित नहीं किया गया। पाठ्य पुस्तकों में छात्रों को इस बात को पढाया नहीं गया। ये विषय सेमिनारों में विमर्श का विषय नहीं बन पाए। उल्टे कश्मीर के बारे में जो बताया जाता रहा है वो अर्धसत्य रहा है। अभी हाल ही में कुमार निर्मलेन्दु की कश्मीर पर एक पुस्तक आई है जिसका नाम है ‘कश्मीर इतिहास और परंपरा’। इस पुस्तक में लेखक ने बेहद स्पष्ट तरीके से सप्रमाण ये बताया है कि कश्मीरी हिंदूओं को कैसे मुसलमान बनाया गया। निर्मलेन्दु ने लिखा है कि ‘1339 ई. तक कश्मीर एक स्वशासित हिंदू राज्य था। परन्तु मध्यकालीन हिंदू शासकों की दुर्बलता और उनके सामंतों के षडयंत्रों के कारण वहां अराजकता का वातावरण पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए 1939 में शाहमीर नाम के एक मुसलमान ने कश्मीर के राजसिंहासन पर कब्जा कर लिया।‘  शाहमीर के पूर्वज काम की तलाश में कश्मीरआए थे । शाहमीर को राजा उदयन देव के समय में राजदरबार में नौकरी मिली थी। राजा उदयन देव के निधन के बाद उनकी पत्नी कोटा देवी के सत्ता की बागडोर संभालने का जिक्र इतिहास की पुस्तकों में मिलता है। उस समय तक शाहमीर राज दरबार में प्रमुख पद पर पहुंच चुका था उसने वहां की सेना में भी अपनी पैठ बना ली थी और एक दिन उसने रानी कोटा को चुनौती दी। रानी कोटा ने उसके साथ युद्ध किया लेकिन शाहमीर ने उनको हराकर बंदी बना लिया और खुद को कश्मीर का राजा घोषित कर दिया। निर्मलेन्दु लिखते हैं कि, ‘शाहमीर द्वारा प्रवर्तित राजवंश का छठा सुल्तान सिकंदर  बहुत ही अत्याचारी और धर्मान्ध था। उसके अत्याचारों ने अधिकांश हिंदू जनता को मुसलमान बनने को विवश कर दिया। अनेक हिंदू कश्मीर छोड़कर चले गए और जो रह गए उनपर जजिया कर लगाया गया। तत्कालीन कश्मीरी हिंदुओं का जीवन बहुत कष्टप्रद रहा। मंदिरों और मूर्तियों का वह ऐसा शत्रु था कि उसका नाम ही बुतशिकन (मूर्तिभंजक) पड़ गया था।… उसने परिहासपुर के विशाल मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। जैन राजतरंगिणी में भी इस बात का जिक्र मिलता है कि कट्टर मुसलमानों से प्रेरित होकर सुल्तान सिकंदर ने सभी संस्कृत ग्रंथों को जलाकर भस्म कर दिया था। उस समय मुसलमानों के उपद्रव से आतंकित होकर धर्मपरायण हिंदू अपने पवित्र ग्रंथों को लेकर कश्मीर से पलायन कर गए थे।‘ 

ऐसा नहीं है कि कश्मीर की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों में बदलाव का उल्लेख सिर्फ निर्मलेन्दु की पुस्तक में मिलता है। इस तरह की बातों का उल्लेख कल्हण की राजतरंगिणी, जैन राजतरंगिणी से लेकर विदेशी यात्रियों के लेखन में भी उपलब्ध है। जैन और बौद्ध साहित्य में भी कश्मीर और वहां बदल रही सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों और उसके बदले जाने का उल्लेख मिलता है। कालांतर में जब कश्मीर को अकबर ने अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया तो उसके बाद से ही वहां योजनाबद्ध तरीके से वहां के समाज और संस्कृति को इस्लामिक संस्कृति से जोड़ने का अङियान आरंभ हुआ। ये अकारण नहीं है कि जो कश्मीर वैदिक धर्म का प्रमुख स्थान था। जहां शारदा पीठ जैसा विद्या अध्ययन का प्रमुख केंद्र था जहां देशभर के विद्वान जुटते थे और अपनी रचनाओं पर विमर्श करते थे। जिनकी अपनी की लिपि थी। जिसको शारदा लिपि के नाम से जानते हैं। कई दुर्लभ पांडुलिपियां शारदा लिपि में में हैं। अब के जम्मू कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश में मौजूद कई शिलालेखों पर शारदा लिपि में ही संदेश उकेरा हुआ मिलता है। कश्मीर एक ऐसा भौगोलिक प्रदेश रहा है जहां की धरती पर एक से एक विद्वान पैदा हुए जिन्होंने अपनी रचनाओं से भारतीय सनातन संस्कृति को समृद्ध किया। अभिनवगुप्त, भामह और मम्मट जैसे उच्च कोटि के लेखकों का नाम लिया जा सकता है। यह सूची बहुत लंबी है। जहां से शंकराचार्य का गहरा नाता रहा है। जहां शैव, वैष्णव दर्शन को मजबूती मिली, जहां कई भव्य और दिव्य मंदिर थे। वहां से जब हिंदुओं का पलायन होता है तो उसपर बहस तो होनी ही चाहिए। उन बातों की पड़ताल और उसका प्रचार भी होना चाहिए कि किन परिस्थितियों में कश्मीर जैसे ज्ञान का केंद्र, सनातन धर्म का प्रमुख केंद्र आज आतंकवाद और विवाद से घिर गया है। 

विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को फिल्म और उसकी सफलता, दो सौ करोड़ से अधिक की कमाई आदि के प्रिज्म से नहीं देखकर उसको इस तरह से देखा जाना चाहिए कि इस फिल्म ने इतिहास के एक विस्मृत पन्ने को पढ़ने की उत्सुकता जगा दी है। क्या देश के हिंदुओं को ये जानने का अधिकार नहीं है कि उसका इतिहास क्या रहा है, क्या उनको ये जानने का अधिकार नहीं है कि वैदिक धर्म की ज्ञान परंपरा कैसी रही है, क्या उनको ये जानने का अधिकार नहीं है कि किन लोगों और परिस्थियों ने हिंदुओं की इस समृद्ध विरासत को पूरी तरह से बदल दिया। फिल्म द कश्मीर फाइल्स ने तो एक कालखंड में कश्मीर से हिंदुओं के पलायन और नरसंहार को दिखाकर एक शुरुआत की है। क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि शाहमीर के दौर में हिंदुओं पर हुए अत्याचार को सामने लाया जाय, उस समय हिंदुओं के पलायन पर बात हो। आजादी पूर्व शेख अब्दुल्ला के कार्यों को लेकर नए सिरे से तथ्यों की खोजबीन की जाए।  क्योंकि अगर हम इतिहास के साथ छल करते हैं तो देश का अहित करते हैं।  


Saturday, March 19, 2022

इकोसिस्टम पर प्रहार करती फिल्म


बिहार के मुंगेर-जमालपुर-भागलपुर क्षेत्र में एक पौधा होता है जिसे उरकुस्सी कहते हैं। उस पौधे का पत्ता अगर शरीर के किसी हिस्से को छू जाए तो काफी देर तक खुजली होती रहती है। उस अंचल में कई बार उरकुस्सी के पत्ते का उपयोग बारात में आए नखरेबाज अतिथियों को ठीक करने में किया जाता है। जब बारात दुल्हन के घर की ओर जा रही होती है तो कन्या पक्ष का कोई व्यक्ति चुपके से नखरेबाज व्यक्ति के शरीर के किसी हिस्से से उरकुस्सी का पत्ता छुआ देता है। उसके बाद शरीर के उस हिस्से में होनेवाली खुजली से वो इस कदर परेशान हो जाता है कि सारे नखरे भूल जाता है। उरकुस्सी का असर काफी देर तक रहता है। देश के अलग-अलग अंचल में इस पौधे को अलग-अलग नाम से जानते हैं। कुछ राज्यों में इसको झुनझुनिया कहते हैं तो कहीं बिछुआ पत्ती या बिच्छू बूटी कहते हैं । हिमाचल प्रदेश में इसको ऐण के नाम से जाना जाता है। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ की रिलीज के बाद उरकुस्सी के पौधे और उसके पत्ते की याद आ रही है। इस फिल्म के रिलीज होने के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कथित झंडाबरदारों या फिर समाजिक समरसता की पैरोकारी का दंभ भरनेवालों की प्रतिक्रिया देखकर लग रहा है कि किसी ने उनको उरकुस्सी का पत्ता छुआ दिया है। खुद को लिबरल जमात कहने वाले ये लोग ‘द कश्मीर फाइल्स’ रूपी उरकुस्सी के पत्ते से होनेवाली खुजली से परेशान हैं। इस फिल्म की सफलता ने उनकी परेशानी और बढ़ा दी है। 

उरकुस्सी का ये रूपक फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर वितंडा खड़ा करनेवालों पर एकदम फिट बैठ रहा है। प्रतीत हो रहा है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ रूपी उरकुस्सी या बिच्छू बूटी के पत्ते को किसी ने इकोसिस्टम को छुआ दिया है और इकोसिस्टम खुजली से परेशान है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ से पैदा हुई खुजली से परेशान कुछ लोग इस फिल्म को नफरत फैलाने वाला करार दे रहे हैं। कुछ इसमें तथ्यों की कमी ढूंढ रहे हैं। समग्रता में बात नहीं हो रही है। इस फिल्म की सफलता के बाद कुछ लोग अपने माथे पर इतिहासकार की कलगी लगाकर मैदान में उतर आए हैं। खुद को कश्मीर विशेषज्ञ मानने वाले भी परिदृश्य पर अवतरित हो गए हैं। इन कथित इतिहासकारों और विशेषज्ञों ने फिल्म के कई तथ्यों पर सवाल खड़ा करना आरंभ कर दिया है। फिल्म के व्याकरण पर बात नहीं करके उसके दृश्यों और प्रसंगों पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा रहा है। ये बात समझ नहीं पा रहे हैं कि सफल फिल्म वही होती है जो दर्शकों के मन को छू ले। ‘द कश्मीर फाइल्स’ पूरे देश के लोगों के मन को छू रही है। दर्शकों के साथ अपना कनेक्ट बना रही है। इस फिल्म में तथ्य और घटनाओं और संवाद में सत्य ढूंढनेवाले लोग पूर्व में बनी फिल्मों के एकतरफा संवाद, दृश्य और फिल्मांकन को लेकर हमेशा से अपने मुंह पर पट्टी लगाए रहे हैं। 

फिल्मों पर सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित लेखक विनोद अनुपम ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा- ‘माचिस’ में गुलजार भाई साहब ने आतंकवादियों की वकालत करते हुए लिखा, आतंकवादी खेतों में नहीं उगते। ‘फना’ में यश चोपड़ा जी ने कश्मीर में जनमत संग्रह के वादे की याद दिलाई। ‘हैदर’ में विशाल भाई कहते हैं, यह डेमोक्रेसी नहीं, दम घोंटनेवाला क्रेसी है(तंत्र) है। ‘फिजा’, ‘मिशन कश्मीर’....लिस्ट लंबी है। तबतक ‘द कश्मीर फाइल्स’ देख लीजिए और फिर पक्षधरता तय कीजिए।‘  विनोद अनुपम की बात में दम तो है। उनकी इस छोटी टिप्पणी ने कई फिल्मकारों और उनसे जुड़े ईकोसिस्टम की कमजोर नस दबा दी है। फिल्म फना में आतंकवाद को प्रेम का आवरण देकर एक खूबसूरत रंग देने की कोशिश की गई थी। फिल्म की कहानी याद कीजिए कि कैसे आतंकवादियों के मनोविज्ञान के विश्लेषण को आधार बनाकर परोक्ष रूप से कश्मीर के आतंकवाद को आजादी की लड़ाई कहा गया था। फराह खान की फिल्म ‘मैं हूं ना’ के संवाद पर एकाध लोगों ने ही सवाल उठाया था। उस फिल्म में भारतीय सेना के एक अधिकारी को बेहद क्रूर दिखाया गया है। वो अधिकारी भारत की सीमा में पानी लेने के लिए आए सामान्य पाकिस्तानी नागरिकों को पंक्तिबद्ध कर गोली मार देता है। बच्चों को भी नहीं छोड़ता। काल्पनिक कहानी के आधार पर भारतीय सेना की छवि खराब करने की कोशिश का उदाहरण। फिल्म के अंतिम कुछ मिनटों के संवाद में पाकिस्तानियों का महिमामंडन भी चकित करनेवाला था। इकोसिस्टम चुप रहा।  

ये तो कुछ वर्ष पहले की फिल्मों की बात हुई। हाल में भी ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म पर कुछ वेब सीरीज ऐसी आईं जिनमें खुलकर हिन्दू मुसलमान किया गया। हमारे देश की पुलिस को, व्यवस्था को खुलकर मुस्लिम विरोधी करार दिया गया लेकिन सब खामोश रहे। इन वेब सीरीज के संवाद तो देश की संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ एक संप्रदाय को उकसाने वाले भी थे। आज जिनको ‘द कश्मीर फाइल्स’ में नफरत दिखाई दे रही है वो गुजरात दंगों  की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों और डाक्यूमेंट्री को लेकर कभी उत्तेजित नहीं हुए। उनकी उत्तेजना कभी मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी फिल्म को लेकर भी सामने नहीं आई। फिल्म ‘परजानिया’ के दृश्यों में या संवाद में या फिर नंदिता दास की फिल्म ‘फिराक’ के संवादों में किसी कथित इतिहासकार ने तथ्य खोजने और उसकी सत्यता को परखने की कोशिश नहीं की। क्यों? क्योंकि वो इकोसिस्टम के अनुसार है।  2002 के गुजरात दंगों का जिक्र उसके बाद बनी कई फिल्मों में आया। लगभग सभी समीक्षकों ने फिल्मों में दिखाई गई कहानियों को सच मानकर आंखें मूंद लीं। जो कुछ लोग बोलने की कोशिश करते दिखे उनको हाशिए पर डाल दिया गया। उन फिल्मों में से कुछ पर विवाद हुआ तो तर्क दिया गया कि फिल्म को कलात्मक अभिव्यक्ति मानकर ही देखा और परखा जाना चाहिए। अब उनमें से ही कई लोग ‘द कश्मीर फाइल्स’ में दिखाए कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार में तथ्य ढूंढ रहे हैं। तथ्य खोजने के चक्कर में सिर्फ ये प्रतिस्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। नहीं होता होगा लेकिन कश्मीरी हिंदुओं के साथ जो हुआ उसमें तो स्पष्ट रूप से मजहब की आड़ ली गई थी।गिरिजा टिक्कू पर हुए अत्याचार को लोग भूले नहीं हैं। जिंदलाल कौल और जगन्नाथ की पेड़ से लटका कर एक एक करके अंगों को काटा गया था। इन वारदातों के चश्मदीद अभी जिंदा है। कश्मीर में हिंदुओ के नरसंहार को लेकर अन्य नैरेटिव स्थापित करना कठिन है। इन तथ्य खोजक इतिहासकारों को उन परिस्थियों पर विचार करना चाहिए जिसकी वजह से कश्मीर में हिंदुओं ने मानवता के इतिहास की क्रूरतम यातनाएं झेलीं। जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक एस पी वैद के मुताबिक राजनीतिक फैसले की वजह से आईएसआई से प्रशिक्षित 70 आतंकवादियों को पुलिस को छोड़ना पड़ा था। इस फैसले के असर का आकलन शेष है। 

‘द कश्मीर फाइल्स’ पर फिल्म निर्माण की दृष्टि से विचार करते हैं तो पाते हैं कि ये  फिल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रस्थान बिंदु है। पिछले सालों में हिंदी फिल्मों की कहानियों के क्षितिज का विस्तार हुआ है। छोटे शहरों की कहानियों पर सफल फिल्में बनीं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ की सफलता से हिंदी फिल्मों के निर्माताओं को उन प्रदेशों में प्रवेश का हौसला मिलेगा जिनमें घुसने से वो हिचकते थे। बहुत संभव है कि स्वाधीन भारत की अन्य घटनाओं जैसे पंजाब समस्या और उसका समाधान, पूर्वोत्तर में आतंकवाद, दिल्ली में हुए सिखों के नरसंहार पर फिल्में बनाने के लिए निर्माता आगे आएं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ की सफलता से हिंदी फिल्मों की कहानियों का क्षेत्र विस्तार होगा और दर्शकों के सामने विकल्प की विविधता होगी।


Saturday, March 12, 2022

प्रश्नों के घेरे में लेखक प्रकाशक संबंध


हिंदी साहित्य में इन दिनों एक बार फिर से विनोद कुमार शुक्ल की चर्चा हो रही है। चर्चा उनकी किसी कृति को लेकर नहीं बल्कि उनके एक बयान को लेकर हो रही है। इंटरनेट मीडिया पर वायरल एक वीडियो में वो अपनी पुस्तकों के प्रकाशकों से नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं। उनको इस बात का मलाल है कि उनके प्रकाशकों ने उनकी पुस्तकों पर रायल्टी कम दी या रायल्टी देने में गड़बड़ी की। इस वीडियो के पहले फिल्मों से जुड़े मानव कौल ने विनोद कुमार शुक्ल को मिलनेवाली रायल्टी के बारे में लिखा था। विनोद कुमार शुक्ल की आयु 85 वर्ष से अधिक हो रही है। इस उम्र में उन्होंने रायल्टी का मुद्दा उठाया, अच्छी बात है। उनकी पुस्तकों के प्रकाशकों, राजकमल और वाणी प्रकाशन, ने भी अपना पक्ष सार्वजनिक रूप से सामने रखा। इन दोनों प्रकाशकों के प्रमुखों ने विनोद जी को सम्मानित लेखक बताया और उनको समय पर रायल्टी देने की बात कही। 1990 के बाद के वर्षों में विनोद कुमार शुक्ल को लेकर अशोक वाजपेयी और उनकी मंडली के लोग खूब चर्चा करते थे। 1994 में अशोक वाजपेयी को जब संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहते साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया तो उनकी मंडली ने विनोद कुमार शुक्ल के पक्ष में माहौल बनाना आरंभ किया था। उस वक्त साहित्य जगत में ये चर्चा हुई थी कि कवि विष्णु खरे ने विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का प्रकाशन अरुण माहेश्वरी से बात करके वाणी प्रकाशन से करवाया था। चर्चा तो इस बात की भी हुई थी कि वाणी प्रकाशन ने उपन्यास लेखक को अग्रिम भुगतान किया था। विनोद जी हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक हैं। उनकी बात को हिंदी जगत में गंभीरता से लिया जाता है। उन्होंने रायल्टी का मसला छेड़ा है तो उनको ये भी बताना चाहिए कि ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का अनुबंध कब हुआ था और उसकी शर्तें क्या थीं। क्या पुस्तक प्रकाशन के पहले अनुबंध हुआ था या प्रकाशन के बाद, आदि। 

1997 में विनोद कुमार की पुस्तक ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का प्रकाशन हुआ और दो वर्षों के बाद 1999 में इस पुस्तक पर उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। अकादमी पुरस्कार के बाद विनोद जी की पुस्तकों की बिक्री बढ़ी होगी, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। श्रद्धा से मुक्त होकर विचार करना होगा कि क्या विनोद कुमार शुक्ल की पुस्तकें अब भी उतनी ही संख्या में बिकती हैं जितनी बीस वर्ष पहले बिका करती थीं। कोई भी पुस्तक अपने प्रकाशन के दो तीन वर्षों तक अधिक संख्या में बिकती है और उसके बाद धीरे धीरे उसकी बिक्री कम हो जाती है। विनोद कुमार शुक्ल की पुस्तकें इसका अपवाद नहीं हो सकती हैं। किंडल आदि पर तो बिक्री का आंकड़ा पारदर्शी होता है। उसमें तो किसी भी तरह की गड़बड़ी की भी नहीं जा सकती। जितना डाउनलोड होगा उतनी संख्या पता चल जाएगी।  हिंदी साहित्य में इन दिनों एक चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, वो ये कि साहित्य से जुड़े कुछ लोग साहित्यिक मसलों का फेसबुक पर फौरी हल चाहते हैं। इस मामले में भी ऐसा ही  देखने को मिल रहा है। जिनको प्रकाशन जगत की बारीकियों का कुछ भी नहीं पता वो भी क्रांति की पताका लेकर फेसबुक पर विनोद कुमार शुक्ल के पक्ष में नारेबाजी कर रहे हैं। जबकि इस पूरे मसले को समग्रता में देखे जाने की जरूरत है। इस पर विचार करने की भी आवश्यकता है कि विनोद कुमार शुक्ल जैसे सम्मानित लेखक को इस उम्र में ऐसे सवाल क्यों उठाने पड़ रहे हैं। कुछ वर्षों पूर्व निर्मल वर्मा की पुस्तकों की रायल्टी को लेकर विवाद उठा था। निर्मल जी की पत्नी गगन गिल ने तो झुब्ध होकर प्रकाशक बदल दिया था। इन दो लेखकों के अलावा भी लेखकों और प्रकाशकों के बीच रायल्टी को लेकर विवाद होते रहते हैं। दरअसल हिंदी प्रकाशन जगत अनुबंध से अधिक संबंध के आधार पर चलते रहे हैं। पुस्तक प्रकाशन के समय कम ही लेखक अनुबंध पर जोर देते हैं और इससे भी कम लेखक अनुबंध की शर्तों को लेकर प्रकाशक से बातचीत करते हैं। लेखक का जोर तो पुस्तक के प्रकाशन को लेकर रहता है। हिंदी प्रकाशन में कोई मानक अनुबंध नहीं है, अलग अलग प्रकाशकों के अलग अलग अनुबंध पत्र हैं। 

स्वाधीन भारत में पहली बार रायल्टी को लेकर पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने टिप्पणी की थी। 13 मार्च 1954 को साहित्य अकादमी के तत्कालीन सचिव कृष्ण कृपलाणी को नेहरू ने एक पत्र लिखा था। उस पत्र में उन्होंने निराला जी की आर्थिक मदद की बात की। उसी पत्र में नेहरू ने लिखा था प्रकाशकों ने निराला की पुस्तकें बेचकर काफी मुनाफा कमाया लेकिन निराला को बहुत कम राशि मिली। नेहरू ने इसको प्रकाशकों के लेखक के शोषण का शर्मनाक मसला बताया था। उन्होंने अकादमी से कापीराइट एक्ट में बदलाव को लेकर गंभीरता से काम करने की सलाह भी दी थी। कापीराइट एक्ट में बदलाव तो हुए लेकिन रायल्टी का मसला नहीं सुलझ पाया। नेहरू के कालखंड में भी और उसके बाद भी जो लोग साहित्य की दुनिया में प्रभावशाली रहे उन्होंने लेखक प्रकाशक संबंध को लेकर कोई काम नहीं किया। अगर किया होता तो आज विनोद कुमार शुक्ल को ये सब कहने की जरूरत नहीं पड़ती। एक विशेष कालखंड में हिंदी में लेखक संघ प्रभावी रहे हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच जैसे वाम विचार वाले लेखक संगठनों ने रायल्टी के मुद्दे पर कोई गंभीर पहल तो दूर की बात गंभीर मंथन भी नहीं किया। नामवर सिंह प्रगतिशील लेखक संघ से लंबे समय से जुड़े रहे और वो राजकमल प्रकाशन के भी सलाहकार रहे लेकिन लेखक-प्रकाशक अनुबंध के मानकीकरण की दिशा में कोई काम नहीं किया। साहित्य अकादमी में भी नामवर सिंह और उनके खेमे के लेखकों का दबदबा रहा लेकिन रायल्टी का मसला वहां भी दबा ही रहा। बात बात पर अपील जारी करनेवाले लेखकों ने भी कभी रायल्टी के मुद्दे को अपने एजेंडे में शामिल नहीं किया। कश्मीर समस्या से लेकर साप्रदायिकता पर लेखकों को एकजुट करने का दावा करनेवाले अशोक वाजपेयी ने भी रायल्टी के मसले पर कोई पहल की हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। वामपंथी लेखकों ने भी लेखकीय अधिकार के लिए कभी एकजुट होकर आवाज नहीं उठाई। वामपंथी लेखकों ने प्रकाशकों के साथ मिलकर स्वयं का स्वार्थ साधा और खामोश रहे। 

विनोद कुमार शुक्ल ने अगर अपनी लोकप्रियता के कालखंड में रायल्टी का प्रश्न उठाया होता तो ज्यादा असरदार होता। वाणी प्रकाशन और राजकमल प्रकाशन के बयानों को देखें तो उसमें विनोद कुमार शुक्ल को ज्यादातर समय अग्रिम भुगतान ही होता रहा है। फेसबुक के क्रांतिवीरों को भी ये देखना चाहिए और इसपर भी सवाल खड़े करने चाहिए। आज आवश्यकता इस बात की है कि रायल्टी के मुद्दे पर ठोस और सकारात्मक पहल हो। लेखकों और प्रकाशकों को अनुबंध के मानकीकरण की दिशा में काम करना होगा। रायल्टी ठीक से और समय पर मिले इसके लिए एक ऐसा तंत्र विकसित करना होगा जिसमें किसी तरह की शंका की गुंजाइश न रहे। पुस्तकों की बिक्री के आंकड़ों का रिकार्ड रखने के लिए भी एक पारदर्शी तंत्र बनाना होगा। लेखकों को भी पुस्तक प्रकाशन के पहले अनुबंध को ध्यान से देखना चाहिए। ‘किसी तरह पुस्तक छप जाए’ की मानसिकता से बाहर निकलना होगा। प्रकाशकों को भी खुले दिल से लेखकों के साथ बैठकर इस समस्या को दूर करना चाहिए। कोरोनाकाल में प्रकाशन जगत संकट के दौर से गुजर रहा है। लेखकों और प्रकाशकों को रायल्टी के साथ साथ पुस्तको की बिक्री बढ़ाने के उपायों पर भी संयुक्त रूप से विचार करना चाहिए। 

Saturday, March 5, 2022

प्रामाणिक लेखन से छंटेगा कोहरा


सरस्वती नदी को केंद्र में रखकर संपादित पुस्तक ‘द्विरूपा सरस्वती’ के लोकार्पण समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य में भारतीय इतिहास और उसकी सत्यता पर पूर्व में उठाए गए सवालों पर कटाक्ष किया। उन्होंने अंग्रेजों की मंशा को रेखांकित करते हुए बताया ‘अंग्रेजों ने बताया कि भारत का न तो कोई रणगौरव है और न ही धनगौरव । वेद पुराण सब भांग के नशे में गाए गए गीत हैं। भारतीय इतिहास कपोल कल्पित है।‘ ये बताते हुए मोहन भागवत ने इस बात पर बल दिया कि भारतवर्ष की प्राचीनता और सनातनता के सातत्य को स्थापित करना होगा। इसके लिए विद्वानों और नई पीढ़ी को प्रमाण देना होगा क्योंकि इतिहास के प्रमाण बदल दिए गए, भाषा बदल दी गई और गुलामी के कालखंड में बदले हुए प्रमाण और भाषा को ही प्राथमिकता दी गई। सरसंघचालक ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कई सूत्र दिए। नई पीढ़ी को प्रमाण देने की बात बेहद अहम है। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा की हमारी वर्तमान प्रणाली में प्राथमिक स्तर से सुधार हो। प्राचीनता और सनातनता के सातत्य को स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि ऐसी पुस्तकें तैयार की जाएं जो प्रमाणिक तरीके से विदेशी इतिहासकारों के मतों का निषेध करे और भारतीय मत और सिद्धांत को स्थापित करे। यह रास्ता बहुत कठिन है लेकिन भारत और भारतीयता से प्रेम करनेवाले और उसके गौरव को स्थापित करने के उद्देश्य से लेखन करनेवालों को इस कठिन राह पर आगे बढना ही होगा।

इतिहास लेखन बेहद श्रमसाध्य कार्य है। इसमें तथ्यों की प्रधानता होनी चाहिए। उसके बाद व्याख्या को महत्व देना चाहिए। तथ्यों की अनदेखी करने से इतिहास का स्वरूप बदलता है। व्याख्या में भाषा का स्थान बेहद महत्वपूर्ण होता है । इतिहासकार जब शब्दों का चयन करता है तो उसी मंशा स्पष्ट हो जाती है। अगर हम प्राचीन भारतीय इतिहास को लिख रहे होते हैं और वर्ण के स्थान पर अगर जाति का प्रयोग कर देते हैं तो अर्थ ही बदल जाता है। प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन में जब सबाल्टर्न को केंद्र में रखकर लेखन किया गया तो इस तरह के शब्दों के प्रयोग ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया। यही गलती सामंती व्यवस्था को व्याख्यायित करते समय भी हुई। विदेशी इतिहासकार ने यूरोपीय सिद्धांतों के आधार पर भारत के समाज को समझने की कोशिश की। डेमोक्रेसी या लोकतंत्र को विदेशी अवधारणा मानने और प्रचारित करने के चक्कर में इतिहासकारों ने भारत की जनपद व्यवस्था या वैशाली में प्रचलित गणतंत्रीय व्यवस्था को जानबूझकर ओझल कर दिया । मध्यकाल में जब धर्म की व्याख्या की गई तो वहां भी इतिहासकारों ने यूरोपीय अर्थ के आधार पर इस शब्द की व्याख्या की और अर्थ का अनर्थ कर दिया। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। आधुनिक भारत का इतिहास लिखने के क्रम में भी तथ्यों को ओझल कर दिया गया। छवि निर्माण के लिए गलत  व्याख्या की गई। स्वाधीनता आंदोलन और उसके बाद के भारत के इतिहास में भी इस तरह की कई गड़बड़ियां दिखाई देती हैं। ऊपरी तौर पर इस कालखंड का विवेचन वैज्ञानिक तरीके किया प्रतीत होता है लेकिन अगर हम उसकी तह में जाते हैं और घटनाओं और व्यक्तियों का सूक्ष्मता से आकलन करते हैं तो समग्र तस्वीर नहीं दिखती। 

अगर स्वाधीनता के ठीक पहले और उसके बाद की घटनाओं पर नजर डालें तो इतिहास लेखकों ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रसंग में बहुधा उन तथ्यों की अनदेखी कि जिससे नेहरू की प्रचलित छवि खंडित होती है। इसको कई उदाहरणों से समझा जा सकता है। 3 जून 1947 की माउंटबेटन योजना में भारत विभाजन को सैद्धांतिक स्वीकृति दी गई थी। भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारे और सीमा निर्धारण के लिए सर सिरिल रेडक्लिफ को चुना गया था। वो कभी भारत नहीं आए थे और इसको ही आधार बनाकर उनकी निष्पक्षता को प्रचारित किया गया। रेडक्लिफ को अंतराष्ट्रीय सीमा निर्धारण का कोई अनुभव नहीं था। वो कानूनी विशेषज्ञ थे। रेडक्लिफ 8 जुलाई 1947 को भारत पहुंचे तब उनको पता चला कि उनको पांच सप्ताह में सीमा निर्धारण का काम पूरा करना है। यहां तक तो ठीक था।  लेकिन उसके बाद इस बात की चर्चा कम ही मिलती है कि नेहरू बंटवारे को लेकर जल्दबाजी में थे।  वो चाहते थे कि बंटवारे और सीमा निर्धारण का काम जल्द से जल्द हो जाए। वो तो इसके लिए भी तैयार थे कि अस्थायी सीमा निर्धारण करके बंटवारे के काम को अंजाम दे दिया जाए। नेहरू का मत था कि नये देश बाद में आपसी सहमति के आधार पर सीमाओं को ठीक कर लेंगे। इन तथ्यों का उल्लेख पत्रकार और इतिहासकार लेनार्ड मोस्ले की 1961 में प्रकाशित पुस्तक द लास्ट डेज आफ ब्रिटिश राज में मिलता है। ये पुस्तक जवाहरलाल नेहरू के जीवन काल में ही प्रकाशित हो गई थी। इसमें उल्लिखित तथ्यों का कोई खंडन हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। नेहरू की इस जल्दबाजी को इतिहासकारों ने ओझल कर दिया और उनकी एक दूसरी तरह की छवि निर्मित की गई। 

सोमनाथ मंदिर के पुनर्निमाण के समय नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद के बीच मतभेद हुआ। नेहरू के बारे में इस तरह की बातें लिखी गईं कि वो धर्म को शासन से अलग रखना चाहते थे आदि आदि। उनके पत्रों को इसका आधार बनाया गया लेकिन नेहरू की मानसिकता को समझने के लिए इतिहासकारों ने पर्याप्त शोध नहीं किया। जो पत्र सामने आए उसके आधार पर नेहरू की छवि बना दी गई। नेहरू का सोमनाथ मंदिर को लेकर जो स्टैंड था उसके पीछे मंशा कुछ और थी। इसको समझने के लिए 14 अगस्त 1947 की एक घटना का विवरण देखना होगा। शाम को संविधान सभा के अध्यक्ष डा राजेन्द्र प्रसाद के घर एक समारोह का आयोजन किया गया था। तंजावुर के हिंदू पुरोहितों ने पूजा पाठ और हवन का जिम्मा संभाला था। वो पवित्र जल लेकर भी आए थे। राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे और महिलाओं ने उनके माथे पर तिलक लगाया। नेहरू ने भी तिलक लगाया और हवन भी किया क्योंकि उनके मित्रों ने उनको समझाया था कि सत्ता प्राप्त करने का हिंदू तरीका यही है। इसका उल्लेख ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’ नाम की पुस्तक में मिलता है। 

ऐसी ही एक घटना 1952 के लोकसभा चुनाव के समय की है। फूलपुर में नेहरू की सभा थी। सभास्थल के रास्ते एक स्थानीय राजा अपने हाथी से निकलना चाहता था। अफसर उनको निकलने नहीं दे रहे थे। हो हल्ला होने लगा। नेहरू को जब पता चला तो वो राजा के पास पहुंचे और ‘महाराज की जय हो’ के नारे लगाए। राजा खुश हो गए और जनता से नेहरू को वोट देने की अपील कर डाली। बाद में नेहरू ने युवा अफसर को समझाया कि ‘राजा को जय-जयकार की जरूरत थी और मुझे वोट की। मैंने राजा को उनका चाहा दिया और उन्होंने मुझे।‘  ऐसी कई अन्य घटनाएँ हैं जिससे नेहरू की छवि सत्ता के लिए हड़बड़ी में रहे एक नेता की बनती है। लेकिन आधुनिक भारत के इतिहास की पुस्तकों में ये छवि नदारद है। उदाहरण के लिए नेहरू से जुड़े प्रसंगों को गिनाया लेकिन अगर इसी तरह से वामपंथियों की स्वाधीनता आंदोलन में भूमिका पर समग्रता में विचार हो तो प्रचलित मान्यताओं से अलग ही तस्वीर निकलकर आएगी। मोहन भागवत जब प्रमाण के साथ इतिहास लेखन की बात करते हैं तो वो तथ्यों के साथ समग्रता की अपेक्षा करते हैं। इस कार्य में देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों को नेतृत्व करना होगा। देश में 50 से अधिक केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। सालभर में एक विश्वविद्यालय से एक भी प्रमाणिक पुस्तक का प्रकाशन इतिहास लेखन की कमियों को दूर कर सकता है।