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Saturday, April 29, 2017

‘जुटान’ के बहाने प्रतिरोध का पाखंड

जब –जब चुनाव आते हैं तो वामदलों से संबद्ध लेखकों और लेखक संगठनों को उनके राजनीतिक आका काम पर लगा देते हैं। इन कामों का प्रकटीकरण कई बार अलग अलग रूपों में दिखाई देता है। बिहार चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी से लेकर असहिष्णुता का शोर शराबा। चुनाव खत्म होते ही ये तमाम लोग शांत होकर बैठ जाते हैं और लगता है कि देश में अमन चैन कायम हो गया है और असहिणुता आदि जैसे मुद्दे नेपथ्य में चले गए हैं। एक तरफ जहां सारे राजनीतिक दल अब अगले कुछ महीनों में होनेवाले गुजरात, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव प्रचार में लगे हैं वहीं वाम दलों के ये स्वयंसेवक लेखक दो हजार उन्नीस के लोकसभा चुनाव में अपने दलों के माहौल और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में माहौल बनाने में जुटे हुए हैं। लेखकों के चोले में वामपंथी दलों के इन कार्यकर्ताओं ने जुटान के नाम से एक संगठन बनाया है जिसके तहत वो देशभर में विचार गोष्ठियां आयोजित करके केंद्र सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश करेंगे। हाल ही में दिनभर की एक गोष्ठी दिल्ली में हुई जिसमें कथित तौर पर प्रतिरोध का स्वर बुलंद करने की कोशिश की गई। इस कार्यक्रम में इस बात पर जोर दिया गया कि देशभर में प्रतिरोध के बिखरे हुए स्वर को एकजुट करने की जरूरत है। इसमें फिर से वही घिसा पिटा रिकॉर्ड भी बजा जिसमें ये बताया जाता है कि साहित्य का मतलब ही प्रतिरोध होता है, वह सत्ता के साथ नहीं होता है आदि आदि। पर अतीत में वामपंथी कार्यकर्ता लेखकों ने जो किया उससे उनके कथनी और करनी का भेद साफ तौर पर जनता के सामने खुल चुका है।
सत्ता के प्रतिरोध की बात करते करते वो कब सत्ता सुख का आस्वादान करने लगते हैं, इसका पता आम जनता को होने नहीं देते हैं। लंबे समय तक चले प्रतिरोध के इस पाखंड ने ईमानदार प्रतिरोध की जान ही निकाल दी। लेकिन चुनावों के वक्त इस तरह के संगठनों को राजनीतिक दलों, खासतौर पर सीपीएम और सीपीआई से जीवनी शक्ति मिलती है। इस जीवनी शक्ति को प्राप्त करते ही ये फिर से खड़े होने लगते हैं लेकिन ये अपने ही खेमे की अरुंधति राय की बात भूल जाते हैं जब वो कहतीं हैं- फंड लेकर क्रांति नहीं हो सकती है। ट्र्स्टों और फाउंडेशनों की कल्पनाओं से कोई असली बदलाव नहीं आएगा। अरुंधति जब यह बात कहती हैं तो उनके मन के किसी कोने अंतरे में वामपंथी संगठन थे या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता है लेकिन चाहे अनचाहे उन्होंने जो भी कहा हो वो उनके वैचारिक दोस्तों पर भी लागू होता है।
अब एक और उदाहरण से वामपंथी दलों के इन छद्म कार्यकर्ताओं की बात समझी जा सकती है। मीडिया में छपी रिपोर्ट के मुताबिक जुटान की दिल्ली की गोष्ठी में कहा गया कि सिर्फ लिखने से नहीं चलेगा काम, सड़क पर उतरना होगा। इस वक्तव्य के बाद से इन छद्म कार्यकर्ताओं के चेहरे से मुखौटा हट गया है। कहना नहीं होगा कि अब इनके अंदर सत्ता हासिल करने की जो बेचैनी है फिर सत्ता छिन जाने का जो गम है वो उनको लेखकीय खोल से बाहर आने के लिए मजबूर कर रहा है। लुकाच ने समाजवादी परिप्रेक्ष्य की काफी चर्चा की थी। इस चर्चा से मार्क्सवादी लेखक का राजनीति से एक तरह का संबंध बनता चलता है। लुकाच के अलावा ब्रेख्त और बेंजामिन ने भी लेखकों के राजनीति से संबंध पर अपनी अपनी स्थापनाएं दी हैं । इन सबका मानना है कि लेखक और राजनीति का संबंध होना चाहिए लेकिन इनकी आड़ लेकर वामपंथी लेखक मित्र खुलकर राजनीति के मैदान में आने को जायज नहीं ठहरा सकते हैं। यह भूल जाते हैं कि उपर जिन भी लेखकों का नामोल्लेख किया गया है वो सब द्वितीय विश्वयुद्ध के वक्त के लेखक थे और इस वक्त लेखकों पर फासीवाद कहर बनकर टूटा था। इन्हीं लेखकों के मंतव्यों की आड़ में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया कि लेखकों के राजनीतिक होने में कोई हर्ज नहीं है। इसमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि जो भी इंसान सजग होगा और जिसकी भी लोकतंत्र में आस्था होगी वो राजनीतिक होगा। लेखक भी इंसान ही होता है लिहाजा उसका राजनीतिक होना आपत्तिजनक नहीं होता है । आपत्ति तब शुरू होती है जब वो अपनी राजनीति को खास दल के साथ जोड़कर अपने लेखन में प्रतिपादित करना शुरू हो जाता है। अज्ञेय से लेकर मुक्तिबोध तक ने लेखकों में राजनीतिक चेतना की वकालत की है लेकिन दलगत राजनीति का वकालत करनेवाला बड़ा लेखक सामने नहीं आया है। बल्कि दलगत राजनीति करने का विरोध ही होता आया है, बावजूद इसके वामपंथी लेखक इससे बाज नहींआते रहे हैं।
जुटान की अध्यक्षता कर रहे हिंदी के कवि इब्बार रब्बी ने भी खतरे की ओर इशारा किया। उन्होंने कहा कि ये बेहद खतरनाक समय है और फासीवादी ताकतें देश को मध्यकाल में ले जाना चाहती हैं। इब्बार रब्बी के अलावा इस कार्यक्रम में अधिकतर वक्ताओं ने राग-फासीवाद गाया। कुछ लेखकों को एक बार फिर से दाभोलकर, कालबुर्गी और गोविंद पानसारे हत्याकांड की याद आई लेकिन जिस वक्ता को इन सारी हत्या की याद आ रही थी उनको मुजफ्फरनगर दंगे की याद और उसमें उस वक्त के सूबे की सरकार की भूमिका की याद नहीं आ रही थी। दरअसल लखटकिया पुरस्कार में बहुत ताकत होती है और वो लेखकों को सुविधाजनक तर्क ढूंढने के लिए मजबूर करता रहता है । लेखकों की स्वामीभक्ति का यह चरम है। दरअसल जिसको ये फासीवाद कह रहे हैं वो फासीवाद नहीं है बल्कि उनके हाथ से सत्ता जाने का दुख है। अगर वामपंथियों के हाथों में इन साहित्यक, सांस्कृतिक संगठनों की सत्ता बरकरार रहती तो संभव है देश पर फासीवाद का खतरा पैदा नहीं होता।

पाठकों को याद होगा कि जब बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त वामपंथी संगठनों से जुड़े लेखकों ने बड़ा मुद्दा बनाकर प्रदर्शन आदि शुरू कर दिया था तब राष्ट्रवादी लेखकों ने भी जवाबी प्रदर्शन आदि किया था। वामपंथी संगठनों से जुड़े लेखक लगातार केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन आदि करते रहे लेकिन राष्ट्रवादी लेखकों का वो जमावड़ा फिर कभी दिखाई नहीं दिया। दरअसल होता यह है कि जब कोई संगठन तात्कालिता के दबाव में बनाया जाता है तो वो दीर्घजीवी नहीं हो सकता है। राष्ट्रवादी लेखकों के उस जुटान का भी वही हुआ। लेखकों का एक बड़ा वर्ग है जो वामपंथी या मार्क्सवादी विचारधारा से सहमत नहीं है लेकिन उनके पास वैकल्पिक प्लेटफॉर्म नहीं है और वामपंथियों की तरह का संरक्षण-तंत्र भी नहीं है। इन दोनों के आभाव में जो लेखक मार्क्सवादियों के विरोधी होते हैं वो भी खुलकर सामने नहीं आते हैं । इससे लगता है कि लेखकों के बीच वामपंथियों का ही दबदबा है। लेखकों के बीच वितार विनिमय के लिए भी यह आवश्यक है कि कोई वैकल्पित मंच बने जहां मार्क्सवाद से इतर विचारधारा के लोग भी मिल बैठकर आपस में संवाद कर सकें। भारत और भारतीयता की बात करनेवाली विचारधारा के बीच संवाद होना आवश्यक है क्योंकि इसी तरह के संवाद से कई तरह के भ्रम को फैलने या फैलाने का मौका नहीं मिलेगा। अब वामपंथी लेखकों का एक तबका यह कहकर मजाक उड़ाता है कि हिंदुओं ने वेदों में ही प्लास्टिक सर्जरी की खोज कर ली थी वर्ना हमारे एक देवता का सर हाथी का कैसे होता। इस तरह की बात फैलाने के बाद यह आरोप भी लगाते हैं कि इससे बातचीत का सार्वजनिक स्तर गिरता है। अब वामपंथियों को तो किसी भी बात को गढ़ने और उसको अपने कैडर के माध्यम से हर जगह फैलाने में महारथ हासिल है, लिहाजा वो इसको भी उसी विश्वास के साथ फैलाते हैं। अगर वैकल्पिक विचारधारा के लेखक बैठकर आपस में संवाद करने लगेंगे तो इस तरह की उलजलूल बातों को फैलने से रोका जा सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि वैकल्पिक विचारधारा से जुड़े लेखकों को पहल करनी होगी। उनको अपना एक संगठन बनाना होगा और उस संगठन को सरकारी संरक्षण ना भी मिले तो उसके साथ सौतेला व्यवहार नहीं हो। क्योंकि लाख फासीवाद की बातें की जाएं, संस्थाओं पर संकट की बातें हो, लेकिन अब भी वामपंथी विचारधारा के कार्यकर्ता सरकारी और गैर सरकारी पदों पर बैठे हैं जो इस वैकल्पिक साहित्यक विचारों के एक जगह इकट्ठा होने में बाधा डाल सकते हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में लेफ्ट की राजनीति कमजोर हुई है लेकिन खत्म नहीं हुई है। लेफ्ट से जुड़े लेखकों को दिल्ली की केजरीवाल सरकार से लेकर बिहार की नीतीश कुमार सरकार से भी संरक्षण मिलता रहा है । विचारों की इस लड़ाई में जितना आवश्यक इन लेखक कार्यकर्ताओं को बेनकाब करना है उतना ही आवश्यक है कि एक वैकल्पिक मंच का सृजन हो।         

जेरी ने बदला रास्ता!

जेरी पिंटो का नाम एक ऐसे लेखक के तौर पर जाना जाता है जो फिक्शन से लेकर बॉयोग्राफी और अनुवाद से लेकर बच्चों के लिए फिक्शन लिखते रहे हैं । अपने जमाने की मशहूर डांसर हेलन के जीवन पर जेरी ने बेहद रोचक और दिलचस्प किताब लिखी है। इसके अलावा जेरी ने अपनी किताब में बेहद संवेदनशील तरीके से मानसिक रोगियों पर भी लिखा है । जेरी अपनी चुटीली टिप्पणियों के लिए भी जाने जाते हैं । उनकी नई किताब मर्डर इन माहिम ने उनके लिए एक नई छवि गढ़ी है । जेरी पिंटो के इस उपन्यास में अपराध है, समलैंगिकता और उससे जुड़ी समस्याएं हैं और अपने संपूर्ण स्वरूप में उपस्थित है मायानगरी मुंबई । खांटी मुंबईकर की तरह जेरी ने माहिम, माटुंगा से लेकर मायानगरी के कई इलाकों में मौजूद सामाजिकक विसंगतियों और उससे उपजने वाले अपराध की मानसिकता की ओर भी इशारा करते चलते हैं। जेरी चूंकि मुबंई के रहनेवाले हैं लिहाजा उनके लेखन में मुंबई का समाज और उसकी बोली वाणी भी पाठकों को दिलचस्प लग सकती है ।
मर्डर इन माहिम में मुंबई के एक इलाके के पब्लिक टॉयलेट में एक युवक की लाश मिलती है जिसकी किडनी गायब है । इस केस को सुलझाने की जिम्मेदारी मिलती है मुंबई पुलिस के एक ईमानदार अफसर इंसपेक्टर झेंडे को जो इस केस में अपने मित्र बुजुर्ग पत्रकार पीटर डिसूजा को भी साथ रखता है और उससे केस की डिटेल्स पर चर्चा करता रहता है । जैसे जैसे यह अपराध की कथा आगे बढ़ती है वैसे वैसे इंसपेक्टर झेंडे और पीटर डिसूजा के बीच का संवाद बेहद दिलचस्प होता जाता है । कैसे किडनी निकाली गई होगी, क्या मर्डर करनेवाला पहली बार हत्या कर रहा होगा, उसे कैसे मालूम कि किडनी शरीर में कहां होती है, क्या हत्या कहीं और की गई और फिर लाश को लाकर टॉयलेट में फेंक दिया गया । इन सब बातों पर दोनों पात्रों के बीच बेहद सूक्षम्ता से बात होती है । दोनों पात्रों के बीच होनेवाली बातचीत के माध्यम से लेखक अपनी बात कहता चलता है यानि सामाजिक स्थितियों पर टिप्पणी भी करता चलता है । मर्डर इन माहिम भले ही अपराध कथा हो लेकिन लेखक इसको अपराध से ज्यादा समाज और पात्रों पर अपराध के असर को लेकर ज्यादा चौकस दिखाई देता है । पात्रोंके बीच जब धारा तीन सौ सतहत्तर को लेकर, अदालतों द्वारा दो वयस्कों के बीच के अप्राकृतिक यौन संबंधों को अपराध करार देने या फिर महानगर में अपनी मर्जी की जिंदगी के लिए छटपटाते मन को चित्रित करने की कोशिश इसको पठनीय बनाते हैं लेकिन कई बार अपराध कथा के तय खांचे से अलग भी लेकर चले जाते हैं । क्राइम फिक्शन में जिस थ्रिल की तलाश में पाठक रहते हैं वो जेरी की इस किताब में कई बार लेखक के ज्ञान से बाधित होती है । यह इस वजह से भी संभव है कि अपराध और अपराध की वजह और उसका प्रभाव भी उपन्यास में प्रमुखता से है । अपने एक इंटरव्यू में जेरी पिंटों ने माना भी है कि यह उपन्यास या क्राइम थ्रिलर समाज में व्याप्त स्थितियों को लेकर उनके गुस्से का प्रकटीकरण भी है । वो कहते हैं कि समाज की कबीलाई मानसिकता को लेकर उनके मन में बहुत दिनों से चल रहा था जिसको वो लगातार लिखते और सुधारते रहते थे, इस वजह से इस उपन्यास के दर्जनों ड्राफ्ट हुए। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि अगर जेरी ने लगातार अपराध कथा लिखते रहने की ठानी तो यह भारतीय क्राइम फिक्शन के लिए बेहतर होगा ।

विरासत को सहेजने का वक्त

हिंदी की विपुल साहित्यक विरासत पर अगर नजर डालें तो इस वक्त उसको संरक्षित करने की बेहद आवश्कता दिखाई देती है । संरक्षण के साथ-साथ जरूरत इस बात की भी है कि हिंदी साहित्य को समृद्ध करनेवाली रचनाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाने का काम भी किया जाए। आज पूरे देश में हिंदी के पक्ष-विपक्ष में बयानबाजी हो रही है लेकिन अगर हिंदी के लिए कुछ ठोस करना है तो उसकी विरासत को समकालीन बनाने का यत्न किया जाना बेहद जरूरी है। हिंदी के व्याकरण को लेकर बहुत सारी बातें होती हैं, हिंदी में शब्दों की युग्म-रचना को लेकर भी बहसें होती रहती हैं । इन सारे प्रश्नों का जिस किताब में उत्तर है वह पुस्तक अब लगभग अप्राप्य है। पंडित किशोरीदास वाजपेयी की किताब हिन्दी शब्दानुशासन अहम है.,लेकिन वो अब मिलती नहीं है। अगर बहुत जतन के बाद आप इस पुस्तक तक पहुंच भी गए तो इसकी छपाई के अक्षर काफी पुराने हैं, लिहाजा आपको पढ़ने में कठिनाई होगी। नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी से प्रकाशित इस पुस्तक के पुनर्प्रकाशन और पाठकों तक इसकी जानकारी पहुंचाने की कोशिश की जानी चाहिए। इसी तरह से अगर आप हमारे वेदों को देखें तो वो उपलब्ध तो हैं लेकिन उनको समकालीन बनाने की आवश्यकता है। प्रस्तुतिकरण में समकालीन, छपाई में बेहतर अक्षरों का प्रयोग और इन सबसे अलग जो हिंदी में इसका अनुवाद छपा है उसको फिर से देखकर आज के जमाने की हिंदी की अनुसार करना होगा ताकि हमारी आज की युवा पीढ़ी उसको पढ़ समझ सके।   
इसी तरह से अगर हम विचार करें तो हमारे कई ऐसे कवि-लेखक हैं जिनके बारे में, जिनकी रचनाओं के बारे में युवा पीढ़ी को बताने के लिए काम करना होगा। अपनी परंपरा और विरासत तो सहेजकर ही उसकी मजबूत जमीन पर बुलंद इमारत खड़ी की जा सकती है।
अभी हाल ही में केंद्रीय हिंदी निदेशालय के सहयोग से अयोध्या में जगन्नाथदास रत्नाकर पर दो दिन की राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई। इस गोष्ठी में जगन्नाथदास रत्नाकर और हिंदी साहित्य में उनके योगदान पर गहन चर्चा हुई। जगन्नाथदास रत्नाकर को ज्यादातर लोग रीतिकालीन कवि और उद्धव शतक के रचयिता के तौर पर जानते हैं, परंतु उनका रचना संसार काफी व्यापक है। कहा जाता है कि उन्होंने जयपुर राजघराने से लेकर बिहारी सतसई का भाष्य प्रस्तुत किया। कुछ लोगों का तो ये भी मानना है कि सूर सागर के संपादन और संकलन का बड़ा हिस्सा उन्होंने ही किया था । उद्धव शतक के रचयिता कविवर जगन्नाथदास रत्नाकर की कर्मभूमि अयोध्या है। वो करीब तीन दशकों तक अयोध्या में रहे और वहीं रहकर उन्होंने उद्धव शतक, गंगालहरी, गंगावतरण, बिहारी सतसई की टीका जैसे कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की।अच्छी बात यह रही कि इस गोष्ठी में केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने रत्नाकर के बिखरे साहित्य को सहेजने एवं पुनर्प्रकाशन का ऐलान किया । जगन्नाथदास रत्नाकर के बारे में यह तथ्य अभी तक सामने है कि वो आजादी पूर्व उन्नीस सौ दो में अयोध्या के राजा के निजी सचिव होकर आए थे और वहां रहते हुअ उन्होंने साहित्य के लिए बेहद अहम कार्य किया। उनकी रचनाएं काल की सीमाओ को तोड़ते हुए आज भीअपने बूते पर जिंदा हैं। जरूरत उसको विशाल हिंदी पाठक वर्ग तक पहुंचाने की है ।
टी एस इलियट ने कहा था- ऐतिहासिक बोध उन कवियों के लिए, जो अपनी उम्र के पच्चीस वर्ष बाद भी कवि बने रहना चाहते हैं, लभग अनिवार्य है। इस ऐतिहासिक बोध का मतलब है एक परप्रेक्ष्य, जो अतीत की अतीतता से नहीं, उसकी वर्तमानता से भी संबद्ध हो। ऐतिहासिक बोध व्यक्ति को इसके लिए बाध्य करता है कि वो अपनी अस्थियों में सिर्फ अपनी पीढ़ी को लेकर ही ना लिखे, बल्कि इस अनुभूति के साथ लिखे कि होमर से लेकर आजतक के यूरोप का संपूर्ण साहित्य उसमें अंतर्निहित है। इसमें उसके अपने देश के साहित्य का समांतर अस्तित्व होगा और वह समांतर क्रम में ही रचना करेगा। कवि जग्गनाथदास रत्नाकर में ये गुण है।

हिंदी में लंबे समय तक परंपरा को तोड़ने फोड़ने का काम किया गया और इस तोड़ फोड़ का नुकसान यह हुआ कि हम अपनी विरासत से दूर होते चले गए। अपरंपरा का शोर मचानेवाले तो समय के साथ साहित्य में हाशिए पर चले गए लेकिन जबतक शोर मचाते रहे तबतक साहित्य का बहुत नुकसान कर दिया। कुछ कवियों को आगे बढ़ा दिया तो कुछ के विचारों में कमजोरी पकड़कर उसके बरख्श किसी और कवि को खड़ा करने की कोशिश की गई। मिसाल के तौर पर जिस तरह से आलोचकों में गोस्वामी तुलसीदास और कबीर को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ दिखाई देती है उसको देखा जा सकता है। कबीर को क्रांतिकारी और तुलसी को रूढ़िवादी करार देकर सालों तक तुलसी के कवि रूप पर विचार नहीं किया गया या कह सकते हैं कि तुलसी को सायास हाशिए पर डालने की कोशिश की गई । तुलसी को वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थक और कबीर को रूढ़ियों पर प्रहार करनेवाला रचनाकार बताया जाता रहा। यह तो तुलसी के कवित्व की ताकत थी कि जिसके बूते पर वो पाठकों के मानस पर पीढ़ी दर पीढ़ी बने रहे। सवाल तो उसपर भी खड़े होने चाहिए कि कविता की कसौटी कवि का विचार होना चाहिए या उसकी विचारधारा? हमारा तो मानना है कि कविता को कविता की प्रचलित कसौटी पर ही कसा जाना चाहिए। कविता को विचार और विचारधारा की कसौटी पर कसना कवि के साथ अन्याय करने जैसा है। हिंदी में विचारधारा के आलोचकों ने जब कवियों का विचार और धारा के आधार पर मूल्यांकन शुरू किया तो इस तरह की गड़बड़ियां होने लगीं। जगन्नाथदास रत्नाकर से लेकर अन्य रीतिकालीनऔर भक्तिकालीन कवि हाशिए पर धकेले जाने लगे। अब वक्त आ गया है कि एक बार फिर से हमअपने पूर्ववर्ती रचनाकारों पर गंभीरता से बगैर किसी वैचारिक पूर्वग्रह के विचार करें और मूल्यांकन का आधार साहित्यक हो। सरकारें भी हिंदी का बहुत शोर मचा रही हैं लेकि अगर वो सचमुच हिंदी को लेकर गंभीर हैं तो उनको प्रतीकात्मकता छोड़कर ठोस कार्य प्रारंभ करना होगा। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के अलावा भी भारत सरकार के कई संस्थान हैं जो इस तरह के काम को अपने हाथ में ले सकते हैं। कई संस्थाएं तो पुरानी कृतियों के संरक्षण और संवर्धन के लिए हैं। इस बिखने हुए संस्थामों को साथ आकर, गंभीरता से, लोगों को चिन्हित कर इस काम को करवाना होगा।          

Thursday, April 27, 2017

नक्सलियों के ‘गन’तंत्र पर हल्लाबोल

सुकमा में नक्सलियों के तांडव ने एक बार फिर से भारतीय गणतंत्र को चुनौती दी है । सीआरपीएफ के जवानों को घेर कर कत्ल करनेवाले नक्सलियों ने इस इलाके में तैनात राज्य के खुफिया तंत्र की पोल खोलकर रख दी है। घात लगाकर और गांववालों की आड़ में जिस तरह से नक्सलियों ने जवानों को मौत के घाट उतार दिया वो सरकार के लिए बेहद चिंता की बात है। राज्य और केंद्र सरकार के नुमाइंदे लगातार कड़ी कार्रवाई की बात कर रहे हैं लेकिन नियमित अंतराल पर नक्सली जिस तरह से सुरक्षा बलों के जवानों की हत्या कर रहे हैं उससे उनके बुलंद हौसलों का अंदाजा लगाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ खासकर सुकमा इलाके में नक्सलियों पर काबू करने के लिए छत्तीसगढ़,ओडिशा और तेलांगाना की सरकार को मिलकर एक कार्यसोजना पर काम करना होगा। तीनों राज्यों की खुफिया तंत्र को मजबूत कर इनपुट साझा करने और बेहतर तालमेल का तंत्र बनाना होगा। जिस दिन सुकमा में नक्सलियों ने खून की होली खेली उसके एक दिन पहले मैं रायपुर में था । वहां के प्रबुद्ध जनों के साथ बातचीत में नक्सल समस्या पर भी बात हुई । एक सज्जन ने बहुत सही तरीके से कहा कि नक्सली अगर हिंसा छोड़कर पिछड़े इलाके का विकास करने लगें तो जनता उनकी दीवानी हो जाएगी। वो अगर सड़क काटने के बजाए पुल बनाने में लग जाएं तो उस इलाके की जनता उनको समर्थन देगी । अभी जनता जान के डर से समर्थन दे रही है लेकिन अगर नक्सली हिंसा का रास्ता छोड़कर विकास के रास्ते पर आते हैं तो सूरत कुछ अलग होगी। फिरक लोकतंत्र में उनकी भागीदारी भी बढ़ेगी। लेकिन उनकी तो गनतंत्र में आस्था है गणतंत्र में नहीं ।
हाल के दिनों में नक्सलियों ने जिस तरह से अपने प्रभाव वाले इलाकों में रंगदारी, वसूली, लड़कियों को जबरन उठाकर शादी करने की घटनाओं को अंजाम दिया है उसकी जड़ में ना तो विचारधारा हो सकती है और ना ही किसी लक्ष्य को हासिल करने का संघर्ष । कौन सी विचारधारा इस बात की इजाजत दे सकता है शिक्षा के मंदिर स्कूल को बम से उड़ा दिया जाए और आदिवासी इलाकों के बच्चों को शिक्षा से वंचित कर दिया जाए । दरअसल नक्सलियों की एक रणनीति यह भी है कि आदिवासियों को शिक्षित नहीं होने दो ताकि उनको आसानी से बरगलाया जा सके । अधिकारों के नाम पर बंदूक उठाने के लिए अशिक्षित आदिवासियों को प्रेरित करना ज्यादा आसान है । इन सबके उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ अपराध की मानसिकता है और सरकार को नक्सलियों से अपराधी और हत्यारे की तरह सख्ती के साथ निबटना चाहिए ।

सरकार के अलावा इस देश के तथाकथित व्यवस्था विरोधी बुद्धिजीवी नक्सलियों के रोमांटिसिज्म से ग्रस्त हैं और नक्सलियों के वैचारिक समर्थन को जारी रखने की बात करते हैं । उन्हें नक्सलियों के हिंसा में अराजकता नहीं बल्कि एक खास किस्म का अनुशासन नजर आता है । नक्सलियों की हिंसा को वो सरकारी कार्रवाई की प्रतिक्रिया या फिर अपने अधिकारों के ना मिल पाने की हताशा में उठाया कदम करार देते हैं । नक्सल मित्रों को सुरक्षा बलों के तथाकथित अत्याचार नजर आते और उनकी कार्रवाई को राज्य सत्ता की संगठित हिंसा तक करार देते हैं। दरअसल नक्सलियों के विचारधारा के रोमांटिसिज्म से ग्रस्त ज्यादातर लोग मार्क्सवाद के बड़े पैरोकार हैं या वैसा होने का दावा करते हैं । दरअसल मार्क्सवादियों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि उनकी दीक्षा ही हिंसा और हिंसकराजनीति में होती है  उन्नीस सौ साठ में विभाजन के बाद सीपीआई तो लोकतांत्रिक आस्था के साथ काम करती रही लेकिन सीपीएम तो सशस्त्र संघर्ष के बल पर भारतीय गणतंत्र को जीतने के सपने देखती रही  चेयरमैन माओ का नारा लगानेवाली पार्टी चीन केतानाशाही के मॉडल को इस देश पर लागू करने करवाने का जतन करती रही  चीन में जिस तरह से राजनीतिक विरोधियों को कुचल डाला जाता है , विरोधियों का सामूहिक नरसंहार किया जाता है वही इनके रोल मॉडल बने  उसी चीनी कम्युनिस्ट विचारधारा की बुनियाद पर बनी पार्टी भारत में भी लगातार कत्ल और बंदूक की राजनीति को जायज ठहराने में लगी रही । कुछ सालों पहले केरल में एक मार्क्सवादी नेता ने खुले आम सार्वजनिक सभा में हिंसा और मरने मारने की बात की थी । 
अब वक्त आ गया है कि हमें देखना होगा कि जिनकी दीक्षा ही हिंसा और हिंसक राजनीति से शुरू होती है और जिनकी आस्था अपने देश से ज्यादा दूसरे देश में हो उनकी बातों को कितनी गंभीरता से ली जानी चाहिए । मेरा मानना है कि मार्क्स और माओ के इन अनुयायियों की बातों का बेहद गंभीरता से प्रतिकार किया जाना चाहिए । देश की जनता को उनके प्रोपगंडा और उसके पीछे की मंशा को बताने की जरूरत है । जब यह मंशा उजागर होगी तो उनके खंडित यथार्थ का असली चेहरा सामने आएगा । आज देश के बुद्धिजीवियों के सामने नक्सलमित्रों और नक्सलमित्रों की चालाकियों को सामने लाने की बड़ी चुनौती है । इसमें बहुत खतरे हैं । मार्क्सवाद के नाम पर अपनी दुकान चलानेवाले लोग बेहद शातिराना ढंग से आपको सांप्रदायिक, संघी आदि आदि करार देकर बौद्धिक वर्ग में अछूत बनाने की कोशिश करेंगे । अतीत में उन्होंने कई लोगों के साथ ऐसा किया भी है । लेकिन सिर्फ इस वजह से हिंसा की राजनीति को बढ़ावा देने उसको जायज ठहरानेवालों को बेनकाब करने से पीछे हटना अपने देश और उसकी एकता और अखंडता के साथ छल करना है । 

Tuesday, April 25, 2017

ट्यूबलाइट से रौशन होगे रिश्ते!

चंद दिनों पहले जब सलमान खान ने अपनी आनेवाली फिल्म ट्यूबलाइट का पोस्टर ट्वीटर पर साझा किया तो हजारों लोगों ने उसको रीट्वीट और लाइक किया। कबीर खान के साथ सलमान खान की ये तीसरी फिल्म है। इसके पहले की फिल्म बजरंगी भाईजान में भी कहानी सरहद के इस पार से लेकर उस पार तक जाती है और ट्यूबलाइट में भी कहानी सरहद के इसपार से उस पार तक जाती है । बस इस बार सरहद बदली हुई है । इस बार पाकिस्तान की जगह चीन है। भारत-पाकिस्तान रिश्ते पर बॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं लेकिन लेकिन भारत-चीन के रिश्तों या यों कहें कि उन्नीस सौ बासठ के भारत-चीन युद्ध पर ज्यादा फिल्मे नही बनीं। चेतन आनंद की फिल्म हकीकत जरूर इस युद्ध की पृष्ठभूमि पर आई थी लेकिन उसके बाद इन दोनों देशों के किसी भी तरह के रिश्ते पर कोई फिल्म नहीं बनी है। इस वक्त जब देशभर में देशभक्ति को लेकर एक खास किस्म का प्रेम देखने को मिल रहा है। चीन की दादागीरी को लेकर भी पूरे देश के मन में एक तरह का गुस्सा है वैसे में सलमान खान इस फिल्म के पोस्टर के ट्वीट में कहते हैं शांति, आदर, प्यार और जिंदगी में उजाला। अभी दलाई लामा के अरुणाचल प्रदेश के दौरे के बाद चीन का गुस्सा देखने को मिल रहा हैष ऐसे में देश में चीन के खिलाफ गुस्सा और बढ़ सकता है जिसका फायदा ट्यूबलाइट को हो सकता है ।
दरअसल सलमान खान और कबीर खान देश के माहौल को भांपने में माहिर होते जा रहे हैं । आपको याद होगा कि जब पाकिस्तान में भारतीय लड़की गीता की वतन वापसी को लेकर पूरे देश में एक एक माहौल था उसी माहौल को भुनाने के लिए बजरंगी भाईजान नाम से फिल्म बनाई गई सिर्फ कहानी को पलट दिया गया । गीता पाकिस्तान चली गई थी कि जबकि मुन्नी नाम की छोटी सी लड़की पाकिस्तान से भारत आ गई थी । उसके घर को खोजने के लिए बजरंगबली के भक्त बने सलमान खान सरहद पार कर उसको मां-बाप तक पहुंचा देते हैं। गीता को लेकर जिस तरह की भावनात्मक लहर पूरे देश में थी उस भावना को भुनाने में कबीर खान सफल रहे थे । फिल्म सुपर डूपर हिट रही थी और जब गीता को वतन वापस लाया गया था तब तमाम न्यूज चैनल पर कबीर खान लाइव थे। एक अच्छे सफल और कारोबारी फिल्मकार की यही निशानी होती है कि वो माहौल को भांपते हुए ऐसी कहानी को फिल्माए कि लोग सिनेमा हॉल तक आने को मजबूर हो जाएं। इस वक्त देश भर में राष्ट्रवाद को लेकर माहौल बना हुआ है और चीन को लेकर अलग ही किस्म की विरोधी मानसिकता है। कबीर खान ने फिल्म ट्यूबलाइट की थीम भी कुछ इसी तरह की रखी है ।
कहा जा रहा है कि अंग्रेजी फिल्म
लिटिल बॉय की कहानी पर आधारित ये फिल्म भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि पर बन रही है। इस फिल्म को सफल बनाने के लिए कबीर खान ने इसमें तमाम मसाला डाला है। करीब पंद्रह साल बाद शाहरुख और सलमान खान किसी फिल्म में साथ दिखेंगे। इसके पहले दोनों सुपर स्टार को दर्शकों ने दो हजार की फिल्म हम तुम्हारे हैं सनम में साथ-साथ देखा था। दो हजार दो में रिलीज हुई इस फिल्म के बाद शाहरुख और सलमान के बीत मनमुटाव बढ़ता चला गया और एक पार्टी में तो दोनों के बीच मारपीट की खबर भी आई थी। लेकिन कहते हैं कि समय सबसे बड़ा हीलर होता है । डेढ दशक बीतने के बाद दोनों के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघली और दोनों कई स्टेज पर साथ साथ दिखने लगे थे। अब शाहरुख खान अपने दोस्त सलमान की फिल्म ट्यूबलाइट में एक कैमियो कर रहे हैं । इसके प्रचारित होते ही सलमान और शाहरुख के फैन दोनों को इस फिल्म का बेसब्री से इंतजार है क्योंकि दोनों स्क्रीम पर कैसे लगते हैं यह देखने की उत्सकुकता दर्शकों के बीच है । सोशल मीडिया पर तो ये कयास भी लगाए जा रहे हैं कि इस फिल्म में सलमान खान की एक्स गर्लफ्रेंड कटरीना कैफ भी एक आइटम नंबर करनेवाली हैं । इसके अलावा चाइनजी कलाकार ग्लैमरस झू झू भी इस फिल्म में तो है ही।
अबतक सलमान खान की जो इमेज थी वो मारधाड़ करते हुए अपने लक्ष्य को हासिल करनेवाले हीरो की थी लेकिन इस बार कहा जा रहा है कि ट्यूबलाइट में उन्होंने अपनी इस इमेज से मुक्ति पा ली है । ट्यूबलाइट में सलमान का फौजी भाई भारत-चीन वॉर में गुम हो जाता है और सलमान उसकी तलाश में चीन में घुस जाता है। यहां वो दंगल नहीं करता है बल्कि एक अलग ही किस्म के कैरेक्टर के रोल को निभाता है। इसी दौर में इसकी मुलाकात चीनी लड़की झू झू से होती है और वो उसको दिल दे बैठता है । इस फिल्म में भाई एक चीनी गर्ल से रोमांस करते नजर आएंगे। रोमांस और प्यार भी ऐसा कि दोनों एक दूसरे की भाषा नहीं समझते हैं लेकिन कहते हैं ना कि प्यार की अपनी अलग ही भाषा होती है तो उसी लव लैंग्वेज में सल्लू भाई झूझू के साथ प्यार की पींगे भरते नजर आएंगे। फिल्म से जुड़े लोगों का कहना है कि सलमान खान की इस चीनी लड़की के साथ ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री दर्शकों को खासी पसंद आएगी क्योंकि सलमान खान की भूमिका में एक विट और ह्यूमर का एलीमेंट भी होगा ।अब ये भी पहली बार हो रहा है कि सलमान खान किसी स्टार हिरोइन के साथ नहीं है।
इस फिल्म से कुछ लोग तो ये भी उम्मीद लगा रहे हैं कि भारत चीन युद्ध के वक्त कुछ घटनाएं जो इतिहास के पन्नों में दबी रह गई थी कबीर खान उसके बाहर निकाल कर लाएंगे। उम्मीद करने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन कबीर ऱान जिस तरह से फिल्मों को मुनाफे के लिए बनाते हैं उसमें उनसे ये उम्मीद करना ज्यादती होगी कि वो इतिहास में दफन कुछ तथ्यों को जनता के सामने लाएंगे ।   

             

Monday, April 24, 2017

किसानों की समस्या का हल क्या?


इन दिनों एक बार फिर से देश के किसान और उनकी समस्याएं सुर्खियों में हैं । आमतौर पर किसान को चुनावों के वक्त तवज्जो मिलती है लेकिन इन दिनों हालात ऐसे बन रहे हैं कि चुनाव के वादों के पूरा करने को लेकर किसान की चर्चा है । उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने मंझोले और सीमांत किसानों की कर्ज माफी का एलान कर दिया है। लेकिन उत्तर प्रदेश से दूर तमिलनाडू के किसान अपनी बदहाली को लेकर नग्न होकर तमिलनाडू में प्रदर्शन कर रहे हैं, कहीं कलाई काटकर अपना विरोध और गुस्सा दिखा रहे हैं तो हाल ही में दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर तक किसानों का प्रदर्शन पहुंच गया। मीडिया में किसानों का आंदोलन उतनी बड़ी खबर नहीं बन पाती जब तक कि कोई चौकानेवाली घटना ना हो । किसानों की बढ़ती आत्महत्या को लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक की सरकारों की कार्यशैली पर सवाल खड़े हो रहे हैं ।दरअसल अगर हम देखें तो आजादी के बाद से ही हमारा देश कृषि प्रधान देश रहा है लेकिन किसानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा। चुनाव के वक्त किसानों के भावनात्मक मुद्दों को उठाकर पार्टियां बोट बटोरती रही। किसानों का भी राजनीतिक इस्तेमाल उसी तरह से हुआ जिस तरह से अल्पसंख्यकों का हुआ । अल्पसंख्यकों के दिलों में डर पैदा कर, उनके वोट बटोरनेवाली पार्टियों ने कभी इसकी बेहतर तालीम से लेकर बेहतर रोजगार तक के बारे में ध्यान नहीं दिया, वादे बहुत किए गए लेकिन पूरे नहीं हुए। एक तरफ तो अल्पसंख्यकों को अपनी राजनीतिक जागीर समझनेवाली पार्टियों ने उनको खुश करने के लिए इतनी बातें की, इतनी नारेबाजी कर डाली कि बहुसंख्यकों को असुरक्षा बोध होने लगा जिसका प्रकटीकरण चुनाव दर चुनाव के नतीजों में हुआ । खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी ने किसी भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया तो उसकी आलोचना तो हुई पर चुनाव नतीजे पर कोई असर नहीं पड़ा । बल्कि अब तो ये कहा जा सकता है कि पार्टी का मुसलमानों को टिकट नहीं देने का सियासी दांव सकारात्मक नतीजा दे गया ।
अल्पसंख्यकों की तरह ही किसानों के बारे में लगातार बातें होती रही लेकिन आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे किसान अपनी फसल के लिए इंद्र देवता की मेहरबानी पर ही निर्भर हैं। अगर मॉनसून अच्छा हुआ तो फसल अच्छी होगी नहीं तो किसान बदहाली का शिकार हो जाएगा। किसानों की बेहतरी के लिए ठोस नीति की आवश्यकता है।मौजूदा सरकार ने किसानों को ध्यान में रखकर कई कार्यक्रमों का एलान किया है लेकिन वो किसानों की समस्या को दूर करने के लिए काफी नहीं हैं । बाजार के नियमों के हिसाब यानि मांग और आपूर्ति के हिसाब से किसानों के उत्पाद का बाजार भाव तय किया जाना चाहिए। अभी तक होता क्या है जब आपूर्ति बढ़ जाती है तो किसानो को नुकसान होता है और जब आपूर्ति कम होती है तब भी किसानों को फायदा नहीं होता है क्योंकि एक तो उन पर अपने उत्पादों का दाम नहीं बढ़ाने का नैतिक दबाव रहता है दूसरे सरकारी खरीद में तय रेट पर ही अन्न खरीदे जाते हैं । इसका नुकसान ये होता है कि किसान पूंजी जमा नहीं कर पाता है । किसानों की बेहतरी के लिए यह बहुत जरूरी है कि वो पूंजी जमा करे । इसके अलावा देश पर संकट आदि आता है देश को उद्योगपतियों से ज्यादा किसानों से उम्मीद रहती है और उनको अन्नदाता आदि कहकर बरगलाया जाता रहा है ।
देश के कई राज्यों में किसानों की हालत को समझने के लिए इन आंकड़ों पर नजर डालते हैं । नेशनल सैंपल सर्वे के सिचुएशनल असेसमेंट सर्वे के मुताबिक उत्तर प्रदेश के किसान परिवारों की औसत आय चार हजार नौ सौ तेइस रुपए है और उसका खर्च छह हजार दो सौ तीस रुपए है । इस सर्वे के नतीजों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में एक किसान परिवार को हर महीने तेरह सौ सात रुपए यानि सालभर में पंद्रह हजार छह सौ चौरासी रुपए का अतिरिक्त जुगाड़ करना पड़ता है । पैसों का यह अतिरिक्त जुगाड़ बैंकों से कर्ज से नहीं हो पाता है बल्कि ऊंचे ब्याज दर पर स्थानीय साहूकारों से लेना पड़ता है। साल दर साल किसान के परिवार पर यह कर्ज बढ़ता जाता है क्योंकि ब्याज चुकाने में ही उसका दम निकल जाता है। ऐसा नहीं है कि किसानों की यह हालत सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही है, पश्चिम बंगाल समेत देश के कई अन्य राज्यों में भी किसानों को स्थानीय साहूकारों के कर्ज के भरोसे परिवार चलाना पड़ता है ।और यही कर्ज जब बढ़ जाता है तब किसान मौत को गले लगाने के रास्ते पर चल निकलता है ।
किसान ऐसा नहीं करें इसके लिए आवश्यक है कि उनके पास एक निश्चित पूंजी हो जिससे वो अपने खर्चे का घाटा पूरा कर सके । दरअसल हम देखें तो इस दिशा में ज्यादा सोचा नहीं गया । किसानों को समाजवाद की घुट्टी आदि पिला-पिलाकर गरीब रखा गया जबकि होना यह चाहिए था कि किसानों को मांग और पूर्ति के हिसाब से उनके उत्पादों का मूल्य मिलना चाहिए था। किसानों को कारोबारियों की तरह खुलकर अपना कारोबार करने की छूट मिलनी चाहिए थी । कम आपूर्ति के वक्त उनको पैसे कमाने की छूट मिलनी चाहिए थी या उनके उत्पादों को सरकार को मांग और आपूर्ति के नियम के हिसाब से खरीदना चाहिए था ताकि उनको अधिक मूल्य या मुनाफा हासिल हो पाता और वो भविष्यके लिए पूंजा इकट्ठा कर सकते । कम आपूर्ति के दौर में सरकार उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए अलग से कोई कदम उठा सकती थी लेकिन हुआ ये कि किसानों के उत्पादनों के हितों का ध्यान रखे बगैर उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखा गया । कृषि उत्पादों का मूल्य रेगुलेट करने से किसानों को बाजार में उत्पाद की कमी से जो मुनाफा हासिल हो सकता था वो हो नहीं पाया । नतीजे में पूंजी जमा नहीं हो पाई और किसान अपने नियमित खर्च के लिए साहूकार के पास जाने के लिए मजबूर हो गया । 
किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत करने के बजाए अबतक की सरकारों ने किसानों को छोटे छोटे आर्थिक लाभ का लॉलीपॉप दिया । कभी किसानों की कर्ज माफी का दांव चला गया तो कभी बिजली बिलों की माफी दी गई । किसानों को लगातार फर्टिलाइजर पर सब्सिडी देने की नीति भी बनाई गई । खादकी इस सब्सिडी में कितने बड़े बड़े घोटाले हुए ये देश ने देखा । एक जमाने में तो सौ करोड़ से ज्यादा का यूरिया घोटाला सामने आया था जिसके छींटे एक केंद्रीय मंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री के बेटे के दामन पर भी पड़े थे। खाद पर सब्सिडी का जो पूरा तंत्र है उससे किसानों से ज्यादा फायदा बिचौलियों और सरकारी अफसरों को हुआ। किसानों तक उचित लाभ तो पहुंचा नहीं लेकिन अफसरों और नेताओं की तिजोरियां भरती चली गईं । जरूरत इस बात की है कि किसानों को आर्थिक रूप से इतना समृद्ध किया जाए कि वो बाजार भाव पर बीज और खाद खरीद सकें । इसके लिए बाजार मे किसान को मजबूत करना होगा । किसानों के कर्ज को माफ करने की बजाए किसानों की बैंकों में जमा पूंजी पर ज्यादा ब्याज देने का प्रावधान किया जा सके । जिस तरह से बुजुर्गों को आर्थिक तौर पर मजबूत करने के लिए बैंक उनके जमा रकम पर ज्यादा ब्याज देती है उसी तरह से किसानों के लिए भी कोई नीति बनानी चाहिए । दरअसल किसानों पर दोहरी मार पड़ी । हुआ यह कि उनको बाजार के सारे नियम तो मानने पड़े लेकिन उनके उत्पादों को बाजार में खुलकर खेलने का मौका नहीं मिला । जरूरत इस बात की है किसानों को दया का पात्र नहीं बनाया जाए बल्कि उनको सचमुच अन्नदाता की हैसियत मिले ।   

Saturday, April 22, 2017

टिकते नहीं विदेशी प्रकाशक

हिंदी का इतना बड़ा बाजार दिखाई देता है कि दुनिया भर के प्रकाशकों को ये बाजार हमेशा से लुभाता रहा है । दुनिया भर के प्रकाशक, खासकर अंग्रेजी के प्रकाशक, जब हिंदी भाषा के बाजार के आकार को देखते हैं तो उनको लगता है कि इस बाजार में उनकी भी भागीदारी होनी चाहिए। इस बाजार में प्रवेश और यहां के बाजार के मुनाफे में अपनी हिस्सेदारी के उद्देश्य से नियमित अंतराल पर अंग्रेजी के प्रकाशक इस बाजार में दस्तक देते रहते हैं। पेंग्विन से लेकर हार्पर कालिंस तक ने इस बाजार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। अभी हाल ही में इंगलैंड के एक प्रकाशक 'लोटस फीट पब्लिकेशन' ने भारत में अपना कारोबार शुरू करने का एलान किया है । लोटस फीट पब्लिकेशन ने हिंदी के बाजार में शुरुआत में गीत चतुर्वेदी के लघु उपन्यास के साथ साथ मनीषा कुलश्रेष्ठ, आकांक्षा पारे, किरण सिंह, अजय नावरिया और विवेक मिश्र की लंबी कहानियों का संग्रह छापने का एलान भी किया है । उनका दावा है कि वो अन्य भारतीय भाषाओं की चुनी हुई साहित्यक कृतियों का अंग्रेजी में अनुवाद करवाकर विश्वस्तर पर उसका प्रकाशन और वितरण करेंगे । इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। यह हिंदी प्रकाशन जगत में स्पदंन पैदा कर सके ऐसी उम्मीद भी की जानी चाहिए। इसके पहले भी हिंदी प्रकाशन जगत में बहुत सारे विदेशी प्रकाशन गृहों के अलावा अंग्रेजी के प्रकाशकों और बड़ी पूंजी लेकर इस कारोबार में उतरनेवालों की एक फेहरिश्त है। उदाहरण के लिए अगर हम पेंग्विन और हार्पर कालिंस को ही देखें तो इन लोगों ने बहुत ताम-झाम के साथ हिंदी प्रकाशन जगत में प्रवेश का एलान किया था । बड़े बड़े साहित्यक नामों को अपने साथ जोड़ा भी था लेकिन विशाल हिंदी पाठक में उनकी वो स्वीकार्यता नहीं बन पाई जिसकी उम्मीद जताई गई थी। धीरे धीरे इन प्रकाशनों ने हिंदी से हाथ खींचना शुरू कर लिया बल्कि कहना ये चाहिए कि साहित्यक कृतियों के प्रकाशन को कम करना शुरू कर दिया । अंग्रेजी में हिट किताबों का हिंदी अनुवाद या फिर साहित्येतर पुस्तकों का प्रकाशन शुरू कर दिया। हार्पर कांलिस ने तो सुरेन्द्र मोहन पाठक के पूर्व प्रकाशित उपन्यासो को छापकर आकर्षक पैकेजिंग में बेचना शुरु कर दिया । इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वो कारोबारी हैं और कारोबार में मुनाफा ही उनका लक्ष्य होता है। सुरेन्द्र मोहन पाठक की कृतियों को नया पाठक भी मिला । प्रभात प्रकाशन के निदेशक पियूष कुमार नए प्रकाशनों का स्वागत करते हैं लेकिन जब उनसे पूछा गया कि अबतक इनकी सफलता का ट्रैक रिकॉर्ड इतना बढ़िया क्यों नहीं है। पियूष कहते हैं कि जब अमेरिका में बैठा प्रकाशन गृह का सीईओ ये देखता है कि पचास करोड़ हिंदी भाषी हैं तो वो फौरन अपनी रणनीति बनाता है भारत के अपने प्रतिनिधि को आदेश देता है कि एक साल में सौ किताबें छापनी चाहिए। उसको बताया जाता है कि सालभर में मुनाफा नहीं हो सकता है तो उसको लगता है कि साल दो साल तक निवेश करना चाहिए क्योंकि बाजार का आकार बहुत बड़ा है। जब दो साल में भी मुनाफा नहीं होता है तो वो अपना कारोबार समेटने लगता है।    
इसके अलावा पुस्तकों के चयन में भी इन प्रकाशन गृहों से चूक होती है जिसकी वजह से हिंदी के पाठक इनको नही मिल पाते हैं । होता यह है कि जो भी विदेशी प्रकाशक हिंदी के बाजार में उतरने की कोशिश करता है वो हिंदी के कुछ साहित्यकारों से संपर्क करता है। अब यह संपर्क किस आधार पर होता है या बगैर किसी आधार के होता है यह कहना मुश्किल है। जब संपर्क हो जाता है तो भविष्य की उनकी सारी योजनाएं उन्हीं कुछ साहित्यकारों की सलाह पर चलने लगता है। पूर्व में तो यह भी देखने में आया कि इन सलाहकार सहित्यकारों ने अपनी और अपने दोस्तों की पूर्व प्रकाशित किताबों को नए प्रकाशन गृह से छपवाने की सलाह दी और वो किताबें छपीं भी। नतीजा क्या हुआ कि हिंदी का पाठक नए प्रकाशन गृहों की किताबों को लेकर उत्साहित नहीं हो पाया क्योंकि जो उत्पाद नई साज सज्जा में नए प्रकाशन गृह से बाजार में भेजा गया उसको पाठक पहले ही पसंद या नापसंद कर चुके थे। छपी हुई रचनाओं के प्रकाशन का पुनर्प्रकाशन ने इस तरह के प्रकाशन गृहों को बहुत नुकसान पहुंचाया। अब लोटस फीट ने जिन कहानीकारों की लंबी कहानियों को छापने का एलान किया है उसके साथ यह नहीं बताया गया है कि वो नई रचनाएं होंगी या फिर उनकी पूर्व में प्रकाशित रचनाओं को प्रकाशित किया जाएगा। अगर नई रचनाओं को संकलन छपता है तो अच्छी बात है और पाठकों में उसको लेकर एक उत्सुकता होगी लेकिन अगर कहानीकारों के पूर्व प्रकाशित संकलनों से निकालकर नया संग्रह बनाकर बाजार में भेजा जाता है तो उसकी सफलता में संदेह है। लोटस फीट ने जिन भी रचनाकारों के नाम की घोषणा की है वो सभी अगर अपनी नई रचना देते हैं और वो एक जिल्द में प्रकाशित होती है तो इसमें सफल होने की गुंजाइश ज्यादा रहेगी।
दरअसल हिंदी प्रकाशन जगत का मन-मिजाज ही ऐसा है कि यहां बहुत ज्यादा फॉर्मूलों पर या मार्कंटिंग के टूल्स का इस्तेमाल कर सफल नहीं हुआ जा सकता है। हिंदी प्रकाशन जगत खासकर साहित्यक प्रकाशन की जो दुनिया है वो बहुत कुछ व्यक्तिगत संबंधों पर ही चलती है। लेखक-प्रकाशक के बीच रूठने मनाने का दौर चलता है, शिकवा शिकायतें भी होती हैं लेकिन वो दोनों ज्यादातर मामलों में एक दूसरे का साथ छोड़ते नहीं हैं। मुझे याद पड़ता है कि कई सालों पहले रे माधव और रेनबो पब्लिकेशंस के नाम से दो प्रकाशन संस्थान हिंदी में आए थे । लेखकों को उनकी रचनाओं के लिए अग्रिम भुगतान के तौर पर मोटी रकम दी गई थी लेकिन नतीजा क्या रहा। दोनों प्रकाशन गृह का आज कोई नामलेवा नहीं है। जुतने गाजे बाजे के साथ वो आए थे उतनी ही खामोशी के साथ हिंदी के बाजार से प्रस्थान कर गए। जिन लेखकों ने अग्रिम राशि लेकर अपनी किताबें इनको दी थीं वो बाद में अन्य प्रकाशकों के यहां चक्कर लगाते देखे गए थे ताकि उनकी किताबें फिर से प्रकाशित हो सकें। कहा तो यहां तक गया कि छोटे अंतराल के लिए हिंदी प्रकाशन जगत में आए इन दो प्रकाशन संस्थानों ने इस कारोबार को फायदा की जगह नुकसान ही पहुंचाया। इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि पेशेवर तरीके से चलाने का दावा करने वाले ये लोग बाजार में बरकरार क्यों नहीं रह पाए।

इससे इतर अगर हम हिंदी के प्रकाशन कारोबार को देखें तो यहां अबतक पेशवर मैकेनिज्म बन नहीं पाया है। हिंदी के प्रकाशन में बिक्री के आंकड़ों को लेखकों से साझा करने की प्रवृत्ति रही नहीं है। साल में एक बार जब रॉयल्टी का बही खाता लेखकों को भेजा जाता है तब पता लगता है कि उसकी अमुक कृति की इतनी प्रति बिकीं। लेखकों के सामने प्रकाशकों पर विश्वास करने के अलावा कोई चारा नहीं है। इससे भी बुरी स्थिति यह है कि अब भी हिंदी के अस्सी फीसदी प्रकाशक अपने लेखकों के साथ किसी भी किताब के प्रकाशन को लेकर करार नहीं करते हैं। करार नहीं होने की स्थिति में लेखक और प्रकाशक दोनों के सामने अराजक होने का विकल्प रहता है। कई बार इस तरह की अप्रिय स्थितियां सामने आईं हैं। किसी का नाम लेना यहां उचित नहीं होगा क्योंकि हिंदी के लेखकों-पाठकों को इन अप्रिय प्रसंगों की जानकारी है। अच्छा जहां करार होता भी है वहां सभी प्रकाशकों के करारनामे अलग अलग हैं। इस करारनामे का कोई स्टैंडर्ड फॉर्मेट नहीं हैं।यह सब इस वजह से भी होता है कि प्रकाशकों पर नजर रखने की या उस कारोबार को रेगुलेट करने के लिए कोई एक संस्था नहीं है जो लेखक- प्रकाशक के बीच के मसलों पर अपनी राय दे सके, विवाद की स्थिति में उसको सुलझाने की कोशिश कर सके। प्रकाशकों को चाहिए कि वो एक ऐसी संस्था बनाएं जो कि इस तरह के मसलों पर नजर रख सकें और उस संस्था के फैसले सभी सदस्यों पर लागू हों । इस संस्था में प्रकाशकों के प्रतिनिधि के अलावा लेखकों की नुमाइंदगी भी हो और साथ ही साहित्य अकादमी जैसी संस्था के प्रतिनिधि भी इस संस्था में हों। हिंदी प्रकाशन जगत में पारदर्शिता लेखक और प्रकाशक दोनों के हित में है। अगर यह पारदर्शिता रहेगी तो बहुत संभव है कि विदेशों से जो प्रकाशक नए प्रकाशन गृह शुरू करने की योजना के साथ भारत आते हैं वो यहां पहले से स्थापित प्रकाशकों के कारोबार में पूंजी लगाने के बारे में सोचें। नए प्रकाशन गृहों के आने और जाने से तो यह स्थिति बेहतर होगी कि विदेशी पूंजी का निवेश स्थानीय प्रकाशकों के कारोबार मे हो। इससे इस सेक्टर को मजबूती मिलेगी, संभव है लेखकों को ज्यादा पैसे मिलें और प्रकाशकों के मुनाफे में बढ़ोतरी हो।          

हिंदी की बाधाएं

हाल के दिनों में दो खबरें ऐसे आईं जिसको लेकर भाषा के पैरोकारों की पेशानी पर बल पड़ने लगे। पहली खबर तो ये आई कि सीबीएसई के स्कूलों में दसवीं तक हिंदी की शिक्षा को अनिवार्य किया जा रहा है और दूसरी खबर ये आई कि हिंदी पर बनाई गई संसदीय समिति की कुछ सिफारिशों को राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी है । इन सिफारिशों में ये भी शामिल था कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य मंत्री अपना भाषण हिंदी में देंगे, जिसको भी मंजूरी मिली, लेकिन शर्त के साथ। शर्त ये इनको हिंदी आती हो और वो इस भाषा में सहज हों। सीबीएसई ने हिंदी को अनिवार्य करने की खबरों से इंकार कर दिया और कहा कि भाषा को लेकर जो फॉर्मूला चल रहा है वही जारी रहेगा। लेकिन संसदीय समिति की सिफारिशों के खिलाफ एक माहौल बनाने की कोशिश की जाने लगी है। यह सत्य और तथ्य है कि भारत के लगभग साठ करोड़ लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। यह भी माना जाने लगा है कि हिंदी एक तरीके से पूरे देश में संपर्क भाषा के तौर पर विकसित हो चुकी है और कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कोलकाता तक सबलोग हिंदी समझते हैं। तो फिर हिंदी का विरोध क्यों। इसका उत्तर एक शब्द का है, राजनीति।
अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए गैर हिंदी प्रदेश के कुछ नेता इसको मुद्दा बनाकर जनता की भावनाएं भड़काना चाहते हैं। इन भावनाओं को भड़काने के पीछे भाषा से कुछ लेना देना हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है। बल्कि ये संकेत मिलते हैं कि इसके पीछे वोटबैंक की राजनीति है। डीएमके नेता एम के स्टालिन ने पिछले चुनाव के वक्त कई इलाकों में हिंदी में अपनी पार्टी के पोस्टर लगवाए थे। अब संसदीय समिति की सिफारिश के बाद वो भी हिंदी के विरोध का झंडा लेकर खड़े हो गए हैं । इसके पहले भी वो हाईवे पर बोर्ड में हिंदी में शहरों के नाम लिखवाने को मुद्दा बनाने की कोशिश में लगे थे जो परवान नहीं चढ़ सकी। इन विरोधों के बीच केंद्र की तरफ से बार-बार ये कहा गया है कि हिंदी किसी पर थोपी नहीं जाएगी ।
दरअसल हिंदी को सरकारी नोटिफिकेशन आदि से सर्वामान्य भाषा के तौर पर स्थापित किया भी नहीं जा सकता है। इसके लिए हिंदी अपना रास्ता खुद बना रही है। हिंदी के विकास में दो सबसे बड़ी बाधा है पहली तो अंग्रेजी के पैरोकार जो खुद औपनिवेशिक मानसिकता में जी रहे हैं। उनको लगता है कि हिंदी का अगर दबदबा कायम हुआ तो उनकी धमक कमजोर हो जाएगी । इसके लिए वो लगातार प्रयत्न करते हैं कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं एक दूसरे से झगड़ती रहें। जबकि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में किसी तरह का कोई झगड़ा है नहीं। अन्य भारतीय भाषाओं की कृतियों का जितना अनुवाद हिंदी में होता है उतना किसी अन्य भाषा में नहीं होता है। हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं को यह समझना होगा कि हित इसी में हैं कि वो साथ साथ चलें। कहा भी गया है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं सहोदर हैं तो फिर झगड़ा कैसा और क्यों? हिंदी के विकास में दूसरी बाधा उसका अपना तंत्र है। हिंदी को सर्वमान्य बनाने के लिए भाषा में नए शब्दों के गढ़ने की जरूरत है। कई बार हिंदी में शब्दों की कमी नजर आती है और उसके लिए अंग्रेजी के वैकल्पिक शब्द का प्रयोग करना पड़ता है । जैसे हिंदी में रोमांस, डेट आदि के लिए शब्द गढ़ने की जरूरत है । हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए और युवाओं के बीच पैठ बनाने के लिए एक तरह का खुलापन भी लाना होगा। अतिशुद्धतावाद से बचना होगा और अगर अन्य भाषा के शब्द सहजता से आ रहे हैं तो उसका स्वागत भी करना होगा ।