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Thursday, June 25, 2009

चलता हूं दोस्त...देख लेना

हर दिन की तरह बुधवार को भी मैं अपने दफ्तर में रन डाउन की बगल की अपनी सीट पर बैठा था । अचानक पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और पीछे से आवाज आई- अच्छा दोस्त चलता हूं, तड़का के दो सेगमेंट निकल गए हैं, बाकि देख लेना । मैं जबतक पीछे मुड़ता तबतक शैलेन्द्र जी हाथ हिलाते हुए न्यूजरूम से बाहर की तरफ चल पड़े थे । तड़का फिल्मी दुनिया पर हामरे चैनल पर चलनेवाल एक शो है जिसे शैलेन्द्र जी प्रोड्यूस करते थे । उस दिन से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि शैलेन्द्र घर जाते वक्त मुझे कहें कि देख लेना । सबकुछ सामान्य ढंग से खत्म हुआ । फाइनल बुलेटिन रोल करने के बाद मैं लगभग एक बजे घर पहुंचा । लगभग ढाई बजे तक रात की पाली के प्रोड्यूसर से सुबह की बुलेटिन की प्लानिंग पर बात होती रही और फिर अखबार आदि पलटने के बाद सो गया। सुबह साढे चार बजे के करीब मोबाइल की घंटी बजी और दफ्तर के एक सहयोगी ने सूचना दी कि नोएडा एक्सप्रेस वे पर शैलेन्द्र जी का एक्सीडेंट हो गया है और वो ग्रेटर नोएडा के शारदा अस्पताल में भर्ती हैं । इस सूचना के बाद दफ्तर में फोन मिलाया तो जानकारी मिली कि रात तकरीबन ढाई बजे शैलेन्द्र जी की गाड़ी की टक्कर ट्रक से हो गई है । टक्कर इतनी जबरदस्त थी कि उनकी कार ड्राइवर की सीट तक ट्रक के नीचे तक घुस गई थी । राह चलते लोगों ने जब शैलेन्द्र जी को उनकी कार से निकालकर पास के अस्पताल में पहुंचाया तबतक बहुत देर हो चुकी थी और खून इतना बह चुका था कि उनको बचाना नामुमकिन था ।

सुबह लगभग साढे पांच बजे शैलेन्द्र जी ने अंतिम सांसे लीं । शैलेन्द्र जी की मौत से हम सब लोग स्तब्ध थे और किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था । अस्पताल में जरूरी कागजी कार्रवाई के बाद शैलेन्द्र जी का शव पोस्टमॉर्टम हाउस पहुंचा । लेकिन पोस्टमॉर्टम हाउस में ताला लटका था और पहले से ही तीन लाश वहां पोस्टमॉर्टम के इंतजार में रखी थी । चूंकि पत्रकारों की पूरी बिरादरी वहां मौजूद थी इसलिए नोएडा पुलिस ने पोस्टमॉर्टम हाउस का ताला तो तोड़ डाला लेकिन अंदर के हालात ऐसे नहीं थे कि शैलेन्द्र जी को अंदर लिटाया जा सके । सो तय हुआ कि शव को एंबुलेंस में ऱखा जाए और डॉक्टर को तलाशने के अलावा अन्य सरकारी कागजी कार्रवाई शुरू की जाए । कुछ लोग डॉक्टर को बुलाने में जुटे, तो एक कांस्टेबल पोस्टमॉर्टम के कागजात पर मुक्य चिकित्सा अधिकारी के दस्तखत करवाने रवाना हुआ । दो घंटे बीत चुके थे । धूप तेज होने लगी थी । जरूरी कागजातों पर सरकारी अधिकारियों के दस्तखत लेने गया कांस्टेबल लापता हो चुका था । इंसपेक्टर विनय राय उसको फोन लगाकर परेशान,लेकिन फोन पहुंच से बाहर । घंटेभर बाद कांस्टेबल नमूदार तो हुआ लेकिन अब कागजात थे लेकिन डॉक्टर नहीं । आधे घंटे बाद डॉक्टर आए और अगले बीस पच्चीस मिनट में पोस्टमॉर्टम की प्रक्रिया खत्म हो गई ।

तपती गर्मी में पोस्टमॉर्टम के लिए तीन से चार घंटे का इंतजार । ये हाल उत्तर प्रदेश के सबसे विकसित शहर नोएडा का था तो और शहरों में क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना मात्र से रूह कांप जाती है । ये एक ऐसी संवेदनहीन व्यवस्था का बदसूरत चेहरा था जो हर दिन दुखी परिवार को मुंह चिढ़ाता है । अव्यवस्था का आलम ये कि शव को रखने का कोई इंतजाम नहीं । ना ही साफ सफाई और ना ही शव को सुरक्षित रखने के कोई उपकरण या फिर बर्फ का ही इंतजाम । संवेदनहीनता इतनी कि डॉक्टर को देर से आने का मलाल नहीं, वो तो पत्रकारों की वजह से थोड़ा जल्दी यानि लगभग घंटेभर पहले पहुंचा था ।पोस्टमॉर्टम होने के बाद शैलेन्द्र जी के शव को कैलाश अस्पताल के शवगृह में रखवा दिया गया । तय ये हुआ कि जब उनके रिश्तेदार आ जाएंगे तो शुक्रवार की सुबह निगमबोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा ।

शाम को जब दफ्तर पहुंचा तो वहां अजीब सी मुर्दनी छाई थी, सबके चेहरे पर गहरे अवसाद को साफ तौर पर परलक्षित किया जा सकता था । मैं अपनी सीट पर बैठा था । पीछे से शैलेन्द्र जी की ओबिच्युरी तैयार होने की आवाजें आ रही थी । जो ये स्टोरी कटवा रहा था उसने बताया कि पैकेज का वॉयस ओवर करनेवाले साथी फफक-फफक कर रो रहे थे । दफ्तर में अजीब सा माहौल था, सब एक दूसरे को देख रहे थे और अपना गम छुपाने की कोशिश भी कर रहे थे । अचानक से मेरे सीनियर मेरे पास आए और मुझसे कहा कि शैलेन्द्र को हेडलाइन में ले लीजिए । ये वाक्य ऐसा था जिसे सुनकर मन अंदर तक कांप गया । कल तो जो हमारे साथ बैठा करते थे आज उनपर हेडलाइन लिखनी पड़ेगी । मन बेचैन था, कंप्यूटर खुला था, पांच बजने में कुछ मिनट रह गए थे, मुझे शैलेन्द्र जी को हेडलाइन में लेना था । घड़ी की सुई बढ़ती जा रही थी, हाथ को जैसे लकवा मार गया था, कुछ भी नहीं सूझ रहा था- नहीं रहे शैलेन्द्र जी - के बाद लिखने के लिए शब्द नहीं सूझ रहे थे । इस बीच हमारे संपादक आशुतोष मेरे पास आए और मेरा हौसला बढ़ाने लगे । किसी तरह से शैलेन्द्र जी पर हेडलाइन भी लिखा, उनपर बुलेटिन भी प्लान किया और जब पहली बार उनकी ना रहने की खबर बुलेटिन में चली तो पूरे न्यूजरूम में सन्नाटा और उसको चीरती हुई सिसकियां सुनाई दे रही थी । ये हमारे पेशे की एक ऐसी बिडंबना है जिसपर हम सिर्फ रो सकते हैं रुक नहीं सकते । क्योंकि चाहे जो हो जाए बुलेटिन नहीं रुक सकता ।

शुक्रवार को हमलोग उनके अंतिम संस्कार के लिए दिल्ली के निगम बोध घाट पहुंचे । स्नानादि करवा कर जब मंत्रोच्चार के बीच शैलेन्द्र जी की शव को चिता पर ऱखा जा चुका था । मैं किसी काम से उपर चला गया था और जब वापस घाट पर लौट रहा था तो देखा दो तीन लोग शैलेन्द्र जी के छह साल के छोटे बेटे को सफेद कुर्ता पायजामा पहनाने और बाल काटने पर आमादा थे । और वो मासूम बच्चा जो अबतक ये नहीं समझ पाया था कि उसको बेहद प्यार करने और उसकी हर ख्वाहिश पूरी करनेवाला उसका पापा इस दुनिया से जा चुका है, उसको अपने पिता को मुखाग्नि देने के लिए तैयार किया जा रहा था । और वो कह रहा था कि मैं क्यूं बदलूं कपड़े, मैंने तो अच्छी जींस पहन रखी है, मुझे नहीं पहनना कुर्ता-पायजामा, मुझे नहीं कटवाने अपने बाल । वो रो रहा था और कुछ लोग उसके साथ जबरदस्ती तो कुछ प्यार मनुहार कर रहे थे । सदमे में मैं नीचे आया और अपने वरिष्ठ सहयोगी प्रबल जी और संजीव को कहा कि उस बच्चे के साथ जो हो रहा है उसको रोकिए । दोनों ने धर्म के नाम पर हो रहे इस कर्मकांड को रोकने की भरसक कोशिश की लेकिन वहां मौजूद एक व्यक्ति ने लगभग चीखते हुए कहा कि हिंदू मायथालॉजी में बेटा इसलिए पैदा किया जाता है कि वो अपने पिता को मुखाग्नि दे सके । विरोध का स्वर भी तीखा था लेकिन समाज के कुछ धर्मभीरू लोग डटे थे । बीच का रास्ता निकाला गया और बच्चे को सिर्फ सफेद कुर्ता पहनाकर चिता का स्पर्श करवा दिया गया ।

शैलेन्द्र जी की मौत ने एक बार फिर से धर्म के नाम पर खेल खेलने वालों को बेनकाब किया । हिंदू धर्म और उसके ग्रंथों को व्याख्यायित कर हर रोज धर्म पर कार्यक्रम बनानेवाले शैलेन्द्र जी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके प्यारे बेटे के साथ धर्म के नाम पर उनके ही रिश्तेदार संवेदनहीनता की पराकाष्ठा पार कर जाएंगे । शैलेन्द्र जी आपके धर्म का तो ये मतलब नहीं ही रहा होगा । हिंदू धर्म के नाम पर अनपढ़ लोग हमेशा कुछ ऐसा कर गुजरते हैं जिससे धर्म में हमारे जैसे लोगों की आस्था जरा कम हो जाती है । आज जब मैं अपनी उसी सीट पर बैठकर शैलेन्द्र जी के निधन के बहाने संवेदनहीन व्यवस्था और अत्याचारी धार्मिक कर्मकांड पर लिख रहा हूं तो लगता है कि शायद पीछे से फिर शैलेन्द्र जी आकर कंधे पर हाथ रखेंगे और कहेंगे - चलता हूं दोस्त, देख लेना ।

Wednesday, June 24, 2009

धार्मिक खिलवाड़ को बेनकाब करती कृति

आस्था का जब धर्म से मिलन हो जाता है तो वो श्रद्धा में बदल जाती है और जहां श्रद्धा हो वहां सवाल नहीं हो सकते । यही बात भारत में लेखन को लेकर भी कही जा सकती है । हिंदू देवी देवताओं और मान्यताओं और रूढ़ियों पर हजारों लेख लिखे जा चुके हैं, सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । मुझे याद है बचपन में जब मैं ‘चंपक’ पढ़ा करता था तो उसमें दिल्ली बुक कंपनी की एक पुस्तक – हिंदू समाज पथभ्रष्टक तुलसीदास- का विज्ञापन उसमें प्रमुखता से छपा करता था । चूंकि हिंदू धर्म में सहिष्णुता की गुंजाइश है इसलिए इसपर उठने वाले सवालों और तीखी आलोचनाओं पर बवाल नहीं मचता ।

हाल के दिनों में कुछ संगठन राजनैतिक लाभ के लिए विरोध और हिंसा पर उतारू हो जाते हैं लेकिन उन्हें ज्यादा समर्थन नहीं मिलता । लेकिन भारत मे किसी और धर्म के साथ ये स्थिति नहीं है । जैसे आप इस्लाम, जैन या फिर ईसाई धर्म पर सावल खड़े नहीं कर सकते । अगर किसी कोने से कोई सवाल खड़ा होता है तो उसके खिलाफ लगभग पूरा समुदाय खडा़ हो जाता है । कोई उदाहरण देने की जरूरत नहीं है । हर धर्म में अच्छाइयां और बुराइयां होती है लेकिन कोई भी धर्म ‘क्वेशचनिंग’ के उपर नहीं हो सकता । प्रगतिशीलता की पहली शर्त ही संदेह है । जो है उसपर संदेह करो, सवाल खड़े करो और बगैर बहस के किसी भी सिद्धांत को ना मानो । लेकिन मेरे जानते हिंदी में इस्लाम और जैन धर्म पर सवाल करते रचनात्मक लेखन जरा कम ही हुआ है ।

पिछले दिनों कथाकार मधु कांकरिया का उपन्यास ‘सेज पर संस्कृत’ प्रकाशित हुआ । उपन्यास के शीर्षक से मैं चौंका जरूर, लेकिन जब पढ़ना शुरू किया तो तमाम संदेह दफन होते गए और लेखिका के साहस से मैं हतप्रभ रह गया । ‘सेज पर संस्कृत’ जैन धर्म के अंदर व्याप्त कुरीतियों को तार्किक आधार पर जोखिम मोल लेते हुए साहसपूर्ण तरीके से उठाता है । यह उपन्यास एक ऐसी जवान लड़की की यातना गाथा जो अपने और अपने परिवार के भविष्य के सुंदर सपने देखती है और उसे पूरा करने के लिए संघर्ष भी करती है लेकिन धार्मिक आस्थाओं में जकड़ी उसकी ही मां उसके सपनों पर ग्रहण लगाने को आमादा है । दरअसल ये पूरा उपन्यास एक ऐसी लड़की या यों कहें कि परिवार के इर्द गिर्द घूमता है जिसमें पिता की मौत के बाद दो बेटियां अपनी मां के साथ अकेली रह जाती है । रिश्तेदारों की नजर उनकी संपत्ति पर है । बड़ी लड़की संघमित्रा कॉलेज की अपनी पढ़ाई के साथ-साथ घर के लिए आवश्यक खर्च जुटाने के लिए दिन रात मेहनत करती है, लेकिन आर्थिक विपन्नता में जकड़े इस परिवार में मां अपने आप को धर्म को समर्पित कर देती है, साथ ही उसकी इच्छा दोनों बेटियां को भी धर्म पर कुर्बान कर देने की है । इस कथा के बहाने लेखिका जैन धर्म के अंदर चल रही अनैतिक कृत्यों को भी बेनकाब करती चलती है । इस उपन्यास की केंद्रीय पात्र संघमित्रा लगातार बार बार जैन धर्म पर सावल करती है, जिसका उत्तर उसे किसी भी साधु से नहीं मिल पाता है और उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है । संघमित्रा की मां अपनी छोटी बेटी- छुटकी को जैन धर्म में दीक्षित कराने के लिए कटिबद्ध है । छुटकी की उम्र इतनी कम होती है कि उसे इन चीजों की समझ ही नहीं है और वो दीक्षा के मौके पर होने वाले समारोह को लेकर ही उत्साहित है । लेखिका ने श्रमपूर्वक दीक्षा के वक्त ‘केश-लुंचन’ का बेहद ही मार्मिक चित्रण किया है ।

धर्म के नाम पर एक मासूम बच्ची की भावनाओं के साथ खिलवाड़ और अत्याचार को श्रद्धा समारोह में तब्दील कर सामूहिक हर्ष का अवसर बना दिया जाता है वो शर्मनाक है । दीक्षा समारोह के बाद लेखिका ने कथा के माध्यम से संघ के अंदर के मुनियों की कुंठित यौनाकांक्षा का वर्णन किया है । संघ में जो बच्चियां दीक्षित होती हैं, कलांतर में वो जब जवान होती हैं तो उनके अंदर भी सांसारिक सुख सुविधाओं को भोगने की आंकांक्षा हिलोरें लेने लगती है । धर्म और मर्यादा के बंधन में जकड़े जवान साधु- साध्वियों के दिलों में एक दूसरे के प्रति दैहिक आकर्षण उभरती है उसका एक नमूना विजयेन्द्र मुनि और छुटकी, जो दीक्षा के बाद साध्वी दिव्यप्रभा हो चुकी है, के बीच पनपे प्रेम से लगाया जा सकता है । दिव्यप्रभा और विजयेन्द्र संघ को छोड़कर नई जिंदगी शुरू करना चाहते हैं लेकिन विजयेन्द्र एक गलती कर बैठते हैं और अपने दिल की बात अपने ही एक साथी साधु अभयमुनि को बता देते हैं । अभयमुनि खुद ही काम की अग्नि में जल रहा होता है और उसे जब इस प्रेम-प्रसंग के बारे में जानकारी मिलती है तो उसकी यौन लिप्सा इस कदर बेकाबू हो जाती है कि वो छल से साध्वी दिव्यप्रभा का रेप कर डालता है . साध्वी के इंतजार में खड़े विजयेन्द्र मुनि को झूठी खबर दे कर विक्षिप्त भी कर देता है ।

इस बलात्कार की परिणति साध्वी के मां बनने में होती है और धर्म की पवित्रता की आड़ लेकर वही धर्मगुरू, साध्वी को संघ से निष्कासित कर देते हैं जहां कभी समारोहपूर्व उसे दीक्षित किया गया था । जिंदगी से हर तरह से ठुकराई साध्वी दिव्यप्रभा एक वेश्या बना दी जाती है जहां वो अपनी बेटी ऋषिकन्या का भरण पोषण करने लग जाती है । कहानी में एक बेहद नाटकीय मोड़ आता है और छुटकी से साध्वी बनी दिव्यप्रभा की मुलाकात उसकी बड़ी बहन संघमित्रा से होती है, जो एक बड़ी एनजीओ चला रही होती है । छुटकी अपनी बेटी को बहन को सौप कर दम तोड़ देती है । लेकिन मरने के पहले वो पूरी आपबीती जीजी को सुना जाती है । इंतकाम की आग में जल रही संघमित्रा बेहद ही योजनाबद्ध तरीके से अभयमुनि का कत्ल कर अपनी बहन के साथ हुए अन्याय का बदला लेती है।

समीक्ष्य पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे केरल की सिस्टर जेस्मी की आत्मकथा- एन ऑटोबॉयोग्राफी ऑफ अ नन – के कई प्रसंगों की याद आ जाती है – कि किस तरह से ‘होली किस’ के नाम पर फादर ननों का चुंबन लेते हैं और अपने इस कृत्य के लिए धर्म और धर्मग्रंथ की आड़ लेते हैं । ऐसा नहीं है कि ये कुरीतियां सिर्फ जैन और ईसाई धर्म में ही है । हिंदू धर्म में तो देवदासी प्रथा से लेकर शादी के बाद पंडितों के द्वारा लड़कियों के शुद्धिकरण की प्रथा रही है । दरअसल धर्म के नाम पर स्त्रियों के शोषण की ये दास्तां बेहद पुरानी हे लेकिन जिस साहस के साथ मधु कांकरिया ने अपने उपन्यास सेज पर संस्कृत में उसे उजागर किया है उसके लिए उन्हें दाद देनी पड़ेगी ।

Sunday, June 7, 2009

नहीं रहे हबीब तनवीर

सुप्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर भोपाल में लंबी बीमारी के बाद भोपाल में निधन हो गया । कुछ दिनों पहले उन्हें सांस लेने में तकलीफ की शिकायत के बाद निजी अस्पताल दाखिल कराया गया था जहां वो वेंटिलेटर पर थे । असपताल के डॉक्टरों के मुताबिक तनवीर को अस्थमा का दौरा पड़ा था, जिसके चलते उन्हें साँस लेने में तकलीफ हो रही थी। उनके फेफड़ों में पानी भर गया था और सीने एवं खून में संक्रमण की वजह से तबीयत बिगड़ गई थी ।
किसी भी विधा में ये देखने को कम ही मिलता है कि अपने जीवन काल में ही उसमें काम करनेवाला लीजेंड बन जाता है । लेकिन हबीब के साथ यही हुआ और वो रंगमकर्म की दुनिया के लीविंग लीजेंड बन गए थे . बावजूद इसके हबीब तनवीर का लोगों से जुड़ाव कम नहीं हुआ और वो लोक के कलाकार के तौर पर मशहूर हुए । हबीब ने जब रंगकर्म की दुनिया में कदम रखा तो उस वक्त रंगमंच की दुनिया में लोक की बात कम होती थी । लेकिन इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ के साथ बहीह के जुड़ाव ने उन्हें लोक से जुड़ने के लिए ना केवल प्रेरित किया बल्कि उनके विचारों को भी गहरे तक प्रभावित किया । एक सितंबर 1923 को रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर को पद्म भूषण, पद्म श्री और संगीत नाटक अकादमी जैसे पुरस्कार मिले थे. रायपुर में हुआ और स्कूली शिक्षा वहां से पूरी करने के बाद वो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पहुंचे जहां से उन्होंने ग्रेजुएशन किया और फिर 1945 में वो मुंबई चले गए जहां उनकता जुड़ा इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से हुआ । लेकिन हबीब ने नाटक की दुनिया में कदम दिल्ली में आने के बाद ही रखा- सन 1954 में जहां पहली बार उन्होंने आगरा बाजार का मंचन किया, लिखा भी । दिल्ली में ये वो दौर था जब रंगमंच की दुनिया यूरोपियन मॉडल से प्रभावित थी और यहां अंग्रेजी वालों का बोलबाला था । लेकिन अपने इस नाटक से तनबीर ने ना केवल अंग्रेजी का आधिपत्य तोड़ा बल्कि रंगमंच की दुनिया के लिए एक नया आकाश उद्धाटित किया । ये नाटक अटारहवीं शताब्दी के मशहूर उर्दू शायद अकबर नजीराबादी पर केंद्रित था । इस नाटक में हबीब तनवीर ने ओखला गांव के कलाकारों को लेकर रंगमंच के आभिजात्य को चुनौती देते हुए एक नई भाषा भी गढ़ी । इसके बाद हबीब इंगलैंड चले गए जहां तीन साल तक रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स में रंगमंच और उसकी बारीकियों को समझा . फिर 1959 में तनबीन ने अपनी रंगकर्मी पत्नी मोनिका मश्रा के साथ मिलकर नया थिएटर नास से एक ग्रुप बनाया जिसने भारतीय और यूरोपियन क्लासिक का मंचन किया । रंगमंच की दुनिया को तनबीर ने अंग्रेजी आभिजात्य से तो आजादी दिलाई साथ ही उन्होंने लोक कलाकारो को स्थानीय बोली बानी में नाटक करने के लिए प्रोत्साहित किया ।
1975 में हबीब तनबीर ने अपना मशहूर नाटक चरणदास चोर का मंचन किया जो आजतक इतना लोकप्रिय है कि जहां भी, जब भी इसका मंचन होता है, लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है । इसके बाद तनबीर ने कई विश्व क्लासिक का मंचन किया जिसमें – गोर्की की एनेमीज पर आधारित दुश्मन, असगर वजाहत की जिन लाहौर नहीं बेख्या के अलावा कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना, शाजापुर की शांतिबाई आदि ने रंगमंच को एक नई उंचाई दी । हबीब तनवीर ने थिएटर के साथ बालीवुड की फिल्मों में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी। उन्होंने नाना पाटेकर अभिनीत चर्चित फिल्म 'प्रहार' और निर्देशक सुभाष घई की 'ब्लैक एंड ह्वाइट' में भी काम किया।
हबीब तनबीर के प्रगतिशील विचारों को जब नाटकों में जगह मिलने लगी तो भगवा ब्रिगेड के कान खड़े हुए और जब मध्य प्रदेश में सन दो हजार तीन में पोंगा पंडित और लाहौर का मंचन शुरु हुआ तो भगवा ब्रगेड के कार्यकर्ताओं ने जमकर विरोध प्रदर्शन कर इन दोनों नाटको के मंचन को रुकवाने की कोशिश की । लेकिन हबीब की जिजीविषा पर कोई असर नहीं हुआ और अपने नाटकों के माध्यम से वो अलख जगाते रहे, बगैर डरे, बगैर घबराए । रंगमंच की इस महान विभूति को हमारी श्रद्धांजलि ।

टूटते सपनों की दास्तां

एक रचनाकार के तौर पर मृदुला गर्ग आज हिंदी साहित्य में किसी परिचय की मोहताज नहीं है । मृदुला गर्ग लगभग चार दशक से लेखन में सक्रिय हैं । कहानी और उपन्यास के अलावा पत्र-पत्रिकाओं भी उन्होंने विपुल लेखन किया है । लेकिन तेरह साल बाद मृदुला गर्ग का नया उपन्यास मिलजुल मन, सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से छपकर आ रहा है । मृदुला गर्ग के दो उपन्यास- चितकोबरा और कठगुलाब की  साहित्यिक जगत में खासी चर्चा हुई थी और लेखिका को प्रसिद्धि भी मिली थी । चितकोबरा में जो संवेदनशील स्त्री अपने नीरस जीवन से उबकर सेक्स के प्रति असामान्य आकर्षण दिखाती है वो कठगुलाब तक पहुंचकर संवेदना के स्तर पर अधिक प्रौढ़ नजर आती है । और इस उपन्यास मिलजुल मन में वो और मैच्योरिटी के साथ सामने आती है । 
इस उपन्यास मिल जुल मन की नायिका गुलमोहर उर्फ और उसकी सहेली मोगरा है । अपने इस उपन्यास में लेखिका ने आजादी के बाद के दशक में लोगों के मोहभंग के दौर को बेहद शिद्दत के साथ उठाया है । आजादी मिलने पर लोगों के मन में एक सपना था , एक सुनहरे भविष्य की कल्पना थी, बेहतर जीवन प्राप्ति की ललक थी । देश का हर नागरिक खुशहाली की चाह लिए था । युवक-युवतियों के मन में सफल होने की चाहत हिलोरें ले रही थी । एक खुशनुमा जिंदगी और समाज की उन्नति का सपना देख रहे लोगों ने आजादी की लड़ाई में संघर्ष किया था और जब आजादी मिली तो पूरे देश ने एक सपना देखा था । इस सपने के टूटने और विश्वास के दरकने की कहानी है मृदुला गर्ग का नया उपन्यास - मिलजुल मन । इस उपन्यास की भूमिका में लेखिका कहती हैं - दुविधा के अलावा और कई मायनों में अजब था वह वक्त । सदी भर पहले देखा , आजादी का सपना पूरा हुआ था । पर आजादी का जो सुंदर, सजीला, अहिंसक चेहरा हमने ख्यालों में तैयार किया था, मुल्क के तक्सीम होने के साथ, सपने की तरह तड़क कर बिखर गए । सपने के टूटने पर हमने असलियत में जीना कबूल नहीं किया, नया सपना पाल लिया । दुविधा में आ मिला मासूमियत भरा यकीन कि हम गुटनिरपेक्ष और मिली जुली अर्थव्यवस्था का ऐसा संसार बसाएंगे कि दुनिया हमारा लोहा मानेगी और हम विश्वगुरु कहलाएंगें । तो ये जो आजादी के बाद का मासूमियत और दुविधा के घालमेल से बना सपना था, जो आजादी के बाद कुछ वर्षों तक जनता ने देखा था, टूटकर बिखरने लगा । और सपने के इस टूटने और बिखरने को ही लेखिका ने इस उपन्यास का विषय बनाया । लगभग चार सौ पृष्ठों के इस वृहदाकार उपन्यास में गुल और मोगरा के बहाने मृदुला गर्ग ने आजादी के बाद के दशकों में लोगों की जिंदगी और समाज में आनेवाले बदलाव की पड़ताल करने की कोशिश करती है । मोगरा के पिता बैजनाथ जैन के अलावा डॉ कर्ण सिंह, मामा जी, बाबा, दादी और कनकलता के चरित्र चित्रण के बीच गल बड़ी होती है और इस परिवेश का उसेक मन पर जो मनोवैज्ञानिक असर होता है उसका भी लेखिका ने कथानक में इस्तेमाल किया है । 
अपने इस नए उपन्यास में मृदुला गर्ग अपने पात्रों के माध्यम से हिंदी के लेखकों पर बेहद ही कठोर टिप्पणी करती है - तभी हिंदी के लेखक शराब पीकर फूहड़ मजाक से आगे नहीं बढ़ पाते । मैं सोचा करती थी, लिक्खाड़ हैं,सोचविचार करनेवाले दानिशमंद । पश्चिम के अदीबों की मानिंद, पी कर गहरी बातें क्यों नहीं करते, अदब की, मिसाइल की, इंसानी सरोकार की । अब समझी वहां दावतों में अपनी शराब खुद खरीदने का रिवाज क्यों है । न मुफ्त की पियो और न सहने की ताकत से आगे जाकर उड़ाओ । अपने यहां मुफ्त की पीते हैं और तब तक चढ़ाते हैं जबतक अंदर बैठा फूहर मर्द बाहर ना निकल आए । ये लेखिका का प्रिय विषय भी रहा है । हिंदी लेखकों को बेनकाब करता इनका एक उपन्यास 1984 में प्रकाशित हो चुका है । मैं और मैं भी एक धूर्त लेखक द्वारा एक नई लेखिका के शोषण को विषय बनाकर महानगरीय परिवेश में  लेखक समाज की विकृतियों को उद्घघाटित किया था । 
इसके अलावा इस उपन्यास में गुल के व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं - एक लड़की, एक प्रेमिका, एक पत्नी, एक कथाकार को विस्तार से विश्लेषित किया है । हर पहलू का मनोविज्ञान उसके मन में चलनेवाले विचार और उसका उसके व्यक्तित्व पर असर सबकुछ लिखा गया है । इस उपन्यास की भाषा में रवानगी तो है लेकिन खालिस उर्दू के शब्दों का ज्यादा प्रयोग भाषा के प्रवाह को गाहे बगाहे बाधित करता है । इसके अलावा इस उपन्यास की एक बड़ी कमजोरी इसका आकार और घटनाओं का अनावश्यक विस्तार है, जिसे कुशल संपादन के जरिए कसा जा सकता था । इससे ना केवल पाठकों को बांधा जा सकता था बल्कि कथा भी सधती । इस उपन्यास को लेखिका ने जिस बड़े फलक पर उठाया है उसको संभालने में काफी मशक्कत भी की है, श्रमपूर्वक घटनाओं को समेटा है, लेकिन हर घटना को बढ़ाते रहने का लोभ मृदुला गर्ग संवरित नहीं कर पाई है । नतीजा ये हुआ है कि उपन्यास विस्तृत होता चला गया और कहानी में बार- बार ये एहसास होने लगा कि जबरदस्ती विस्तार दिया जा रहा है । घटनाओं के अलावा संवाद भी काफी लंबे-लंबे हैं जिसमें पाठकों के उलझने का खतरा है ।