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Sunday, September 29, 2013

घटनाओं से राजनीतिक राह की निर्मिति

भारतीय जनता पार्टी के सबसे कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी और उनके चंद अहम साथियों की मर्जी को दरकिनार कर नरेन्द्र मोदी आगामी लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनकर शीर्ष नेता के तौर पर स्थापित हो गए हैं । नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी के पहले लंबे समय तक चले ड्रामे से पार्टी की जमकर किरकिरी हुई । इस क्रम में मोदी और उनकी शख्सियत को तमाम तरह से व्याख्यायित और विश्लेषित किया गया । किसी ने मोदी को अपने राजनीतिक आका को ही दरकिनार करने का आरोप जड़ा तो किसी ने उनको पार्टी पर कब्जा करनेवाला करार दे दिया ।  राजनीतिक विश्लेषकों ने मोदी को तनाशाह तक कह डाला । आलोचना के जोश में वो यह भूल गए कि मोदी ने बिल्कुल लोकतांत्रिक तरीके से अपनी राजनीतिक चालें चली । सियासत की बिसात पर उनकी इन सुनियोजित चालों ने कमाल दिखाया और वो पार्टी के शीर्ष पर पहुंच गए । मोदी को फासिस्ट और तानाशाह बताने वाले अपने पूर्वग्रहों या मोदी की पार्श्व छवि में इतने उलझ गए कि उनको सियासत की बिसात पर मोदी की चालें दिखाई नहीं दी । उन्होंने गलत तर्कों के आधार पर मोदी को तानाशाह साबित करने की कोशिश की। राजनीति करनेवाले हर नेता का यह अधिकार होता है कि वो शीर्ष पर पहुंचने के लिए अपनी घेरेबंदी करे । मोदी ने भी वही किया । उनको अपनी बढ़ती लोकप्रियता और पार्टी में स्वीकार्यता पर भरोसा था लिहाजा उन्होंने पार्टी के लौहपुरुष से टकराने का इरादा बनाया । पहले गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उनका राजनीतिक कौशल दिखा और बाद में हाल में दिल्ली में भी दिखा । गुजरात में अपने मजबूत फैसलों के आधार पर जन के मन में अपनी पैठ बनाने वाले शख्स में संघ अपना भविष्य़ तलाश रहा है । 
दरअसल भारतीय राजनीति को और उसके विश्लेषकों को पारिवारिक पार्टियों और उनसे जुड़े नेताओं के शख्सियतों के विश्लेषण की आदत हो गई थी । बहुत दिनों के बाद कोई नेता गणेश परिक्रमा के बगैर शीर्ष पर पहुंचा । वो भी राजनीतिक कौशल और रणनीति के बूते पर । इस वजह से विश्लेषकों को मोदी में तानाशाह और फासिस्ट नजर आने लगा । मोदी से पहले इस तरह के राजनीतिक दांव पेंच  इंदिरा गांधी के राजनीति में आने के बाद देखा गया था । 1965 तक इंदिरा गांधी कांग्रेस की राजनीति में जवाहरलाल की बेटी से इतर खुद को स्थापित कर चुकी थी लेकिन देश के नेता को तौर पर जनता की स्वीकार्यता मिलना शेष था । दक्षिणी राज्यों में भाषा को लेकर जारी हिंसक आंदोलन को अपनी पहल से खत्म करवाकर इंदिरा गांधी ने इस कमी को पूरा करने का काम किया था । लेकिन उनके इस कदम से लालबहादुर शास्त्री थोड़े क्षुब्ध भी थे । इंदिरा गांधी भी खुद को विदेश मंत्री नहीं बनाए जाने से निराश थी । पाकिस्तान के साथ युद्ध में जीत के बाद लाल बहादुर शास्त्री की लोकप्रियता चरम पर थी लेकिन दुर्भाग्य से ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की मौत हो गई । इंदिरा गांधी को उनकी मौत की खबर 11 जनवरी को तड़के तीन बजे मिलती है । उसी वक्त से वो खुद को प्रधानमंत्री बनाए जाने की रणनीति पर काम शुरू कर देती हैं । अपने राजनीतिक विश्वासपात्रों को बुलाकर सबसे पहले ये संदेश देती हैं कि कोई भी उनको नाम को लेकर सार्वजनिक तौर पर बयान नहीं देगा । इंदिरा ने उदासीनता से जंग जीतने की रणनीति बनाई । अगर आप याद करें तो गुजरात विधानसभा चुनाव में लगातार तीसरी जीत हासिल करने के पहले नरेन्द्र मोदी अपनी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर बहुत ज्यादा सक्रिय नहीं थे । तीसरी जीत के साथ ही सबसे पहले सोशल मीडिया पर बेहद आक्रामक तरीके से उनको प्रधानमंत्री के तौर पेश करने की कवायद शुरू की गई । फिर उनके समर्थकों ने उनको प्रधानमंत्री बनाने की मांग करके पार्टी का मूड भांपने का काम शुरू किया । यह सब जब चरम पर पहुंचा तब बिहार भाजपा ने उनको पार्टी के प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने की मांग का प्रस्ताव पारित किया । यह प्रस्ताव भी ठीक उसी तरह का था जब लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद मोरार जी देसाई खुद को प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार मान रहे थे तो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग की थी । यह इंदिरा गांधी की चाल थी देश और पार्टी के कद्दावर नेताओं की राजनीति का मूड भांपने की । हालात इतने तनावपूर्ण हो गए थे कि कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के लिए संसद सदस्यों के बीच वोटिंग हुई । वोटिंग में इंदिरा गांधी ने मोरारजी भाई को करारी मात दी थी । उसी तरह गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान मोदी ने इस तरह की व्यूहरचना रची कि आडवाणी भी मोरार जी देसाई की तरह पराजित हो गए ।
1969 के राष्ट्रपति के चुनाव के वक्त भी कांग्रेस में पुराने नेताओं के सिंडिकेट ने इंदिरा को परास्त करने की कोई कसर नहीं छोड़ी।  अपने उम्मीदवार नीलम संजीव रेड़्डी की जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के नेताओं से मुलाकात कर समर्थन मांगा था । इंदिरा ने इस मुलाकात को धर्मनिरपेक्षता से जोड़ दिया और उसको जमकर भुनाया । नतीजे में वी वी गिरी ने नीलम संजीव रेड़्ड़ी को पराजित कर दिया । इस जीत में इंदिरा को उस वक्त के युवा नेताओं का जोरदार समर्थन था । बुजुर्ग नेता उनके खिलाफ थे । यही हालत अब बीजेपी में है । युवा नेता मोदी के साथ हैं और जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा जैसे बुजुर्ग नेता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आडवाणी के । नतीजा सामने है । राष्ट्रपति चुनाव में अपने उम्मीदवार को जीत दिलवाने के बाद से इंदिरा गांधी के स्वभाव में काफी बदलाव दिखाई देने लगा । आक्रामक दिखने वाली इंदिरा गांधी अपने बयानों में संतुलित और व्यवहार में एक कुशल राजनीतिज्ञ दिखने की कोशिश करने में जुट गईं । उसी तरह पाकिस्तान के दांत खट्टे करने जैसे बयान देनेवाले मोदी के तेवर प्रधानमंत्री प्रत्याशी का ऐलान होने के बाद बदल गए । रेवाड़ी की रैली में मोदी ने पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामकता नहीं दिखाई बल्कि उनसे शिक्षा, बेरोजगारी और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कंधे से कंधा मिलाकर काम करने की अपील की ।
भारत की राजनीति में नेहरू युग को मूल्यों और प्रतिभा की राजनीति का दौर माना जाता है । इंदिरा गांधी के दौर में इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया का जयकारा लगानेवाले लोग सत्ता के गलियारों में शक्तिशाली होने लगे । किचन कैबिनेट देश की कैबिनेट से ज्यादा ताकतवर हो गई । नतीजा यह हुआ कि इंदिरा गांधी तानाशाही की ओर बढ़ती चली गई जिसकी परिणति में इमरजेंसी में हुई । 

Wednesday, September 25, 2013

रणनीतियों का खेल

सात महीने बाद लोकसभा के चुनाव होनेवाले हैं । अर्थव्यवस्था की पतली हालत को लेकर सरकार पस्त नजर आ रही है । खाने पीने से लेकर आम जरूरतों की चीजों के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी को लेकर आम आदमी बेहाल है । लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों के बीच कांग्रेस पूरी तरह से लोकलुभावन वायदों और कानूनों से मतदाताओं को लुभाने में लगी है । कोयला आबंटन से जुड़ी फाइलों के गायब होने,सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा पर जमीनों की खरीद फरोख्त में गड़बड़झाले को लेकर संसद के पूरे मॉनसून सत्र में बीजेपी हमलावर थी । लगातार संसद का कामकाज ठप था । विपक्ष की इस घेरेबंदी को नाकाम करते हुए एक हफ्ते के अंदर कांग्रेस पार्टी ने दो अहम बिल लोकसभा से पास करवा कर आम आदमी को एक संदेश दिया कि सिर्फ कांग्रेस ही उनका हित सोचती है । संसद में सोनिया गांधी की दिनभर की मौजूदगी में मैराथन बैठक के बाद खाद्य सुरक्षा बिल का लोकसभा में पारित होना और उसके बाद दशकों पुराने भूमि अधिग्रहण के कानून को बदलनेवाला नया बिल पास करवा कर कांग्रेस ने विपक्ष की रणनीति को ध्वस्त कर दिया है । खाद्य सुरक्षा को लेकर तमाम तरह की आशंकाएं जताईं गईं, उसके डिलीवरी सिस्टम को लेकर सरकार पर आलोचना के तीर भी चले लेकिन लोकसभा में खड़े होकर किसी भी दल ने इस बिल के विरोध की हिम्मत नहीं दिखाई । उसी तरह से जमीन अधिग्रहण बिल पर भी विपक्ष ने लोकसभा में सिर्फ विरोध की रस्म अदायगी ही की । नौ साल से लटके पेंशन बिल को भी पास करवाकर कांग्रेस ने करम्चारियों का दिल जीतने की चाल चली ।
इन बिलों को पास करवाने और उसको प्रचारित करने की कांग्रेस ने जो रणनीति बनाई उसमें भी उनको सफलता मिलती दिख रही है । आम आदमी के बीच यह संदेश गया कि गरीबों को खाने की गारंटी देने वाला कानून सोनिया गांधी की व्यक्तिगत पसंद है और वो हर हाल में उसको लागू करवाना चाहती हैं । उसी तरह से भूमि अधिग्रहण बिल को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का सपना बताकर प्रचारित किया गया । कहना ना होगा कि कांग्रेस दोनों ऐतिहासिक बिलों का सेहरा गांधी सोनिया-राहुल के सर बांधकर चुनावी फायदे की रणनीति बना रही है । इस बात को भी जबरदस्त तरीके से प्रचारित किया जा रहा है कि कांग्रेस (गांधी परिवार पढ़ें) ने आम आदमी को पहले सूचना का अधिकार दिया, फिर रोजगार की गारंटी दी, फिर शिक्षा का अधिकार दिया और अब भोजन की गारंटी दी । सोनिया और राहुल गांधी जब भी बोलते हैं तो इन बिंदुओं पर काफी जोर रहता है । अगर स्वास्थ्य को छोड़ दिया जाए तो यही चार चीजें हैं जो आम आदमी के जीवन में महत्व रखती हैं और बेहतर जिंदगी का भरोसा देती हैं । कांग्रेस यही चाहती है कि उसकी छवि गरीबों के साथ खड़े होने वाली पार्टी के तौर पेश हो । गरीबी हटाओ के नारे के साथ इंदिरा गांधी भी एक चुनाव जीत चुकी हैं । अब आम आदमी को केंद्र में रखकर कांग्रेस जो रणनीति बना रही है वह रणनीति दरअसल इंदिरा गांधी की नीतियों का विस्तार है ।  
उधर अगर हम देश की प्रमुख विपक्षी दल और उनकी रणनीतियों की तरफ देखें तो वह एक अलग ही रास्ते पर चलती नजर आ रही है । भाजपा में प्रधानमंत्री पद के तौर पर मोदी को पेश करने में लंबे समय तक हिचक और विरोध दिखाई देती रही । लगभग आधे दर्जन नेता इस पद पर आंख गड़ाए बैठे रहे , आडवाणी का विरोध सार्वजनिक भी हुआ । इसमें गलत कुछ नहीं है । लोकतंत्र में स्वाभाभिक तौर पर हर नेता की सर्वोच्च पद पर पहुंचने की आकांक्षा होती है, होनी भी चाहिए । लेकिन जिस तरह से भाजपा में इसको लेकर लंबे समय से भ्रम की स्थिति और बयानबाजी होती रही वो एक अनुशासित पार्टी की छवि के विपरीत थी । कार्यकर्ताओं के बीच जबरदस्त भ्रम फैला । चुनावों को लेकर जो बीजेपी रणनीतियां बना रही हैं या जो सामने आ रही हैं उसके भी उत्साह वर्धक परिणाम नहीं आ रहे हैं । मुस्लिम वोटरों को लेकर भी पार्टी की दुविधा दिखाई देती है । पहले मुसलमानों को लेकर विजन डॉक्यूमेंट की बात होती है । फिर पिल्ले और सेक्यूलर बुर्के का बयान आता है । इस बीच नरेन्द्र मोदी के सिपहसालार अमित शाह उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के साथ मिलकर मुसलमानों को पार्टी के पाले में लाने की जुगत में हैं । इलके अलावा आम आदमी तक पहुंचने से ज्यादा पार्टी के नेताओं में फेसबुक और ट्विटर पर लोकप्रिय होने की लालसा दिखाई देती है । नेता विपक्ष तक अपनी बात ट्विटकर के जरिए कहती हैं । अटल बिहारी वाजपेयी जैसा जनता से सीधे संवाद करनेवाले नेता कम है ।
भाजपा को यह बात समझनी होगी की राम मंदिर आंदोलन का दौर बहुत पीछे छूट गया है 2014 के चुनाव में वोटरों की एक ऐसी पीढ़ी वोट डालने जा रही है जिसने उन्माद का वह दौर नहीं देखा है यह पीढ़ी मंदिर मस्जिद को पीछे छोड़कर विकास के रास्ते पर चल चुकी है उन्हें काम करनेवाले नो नानसेंस नेता चाहिए भाजपा की ताकत रही है अनुशासन और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से दीक्षित होकर पार्टी में आए ईमानदार नेता उसको अपनी इस ताकत का एक बार फिर से आकलन करना होगा और 2014 के चुनाव की रणनीति बनानी होगी उन्हें जनता के सामने हर मुद्दे पर एक वैकल्पिक मॉडल पेश करना होगा। कांग्रेस की नाकामियों के आसरे रहकर चुनाव जीतने का सपना छोड़ना होगा । किसी की नाकामियों पर सवार होकर सफलता कभी किसी को मिली नहीं है ।बीजेपी 2009 के लोकसभा चुनाव में यह गलती कर चुकी है । अगर अब भी बीजेपी के लोग यह समझ रहे हैं कि कांग्रेस की असफलता ही उनके लिए राजपथ का मार्ग प्रशस्त करेगी तो यह उनकी ऐतिहासिक भूल साबित हो सकती है । मोदी ने गुजरात में जो काम किया उस विकास माडल को प्रचारित करना होगा

Saturday, September 21, 2013

नेतृत्व की विचारशून्यता

एक बेहद दिलचस्प वाकया है । जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे और श्रीकृष्ण सिंह बिहार के मुख्यमंत्री । जवाहर लाल नेहरू की छवि एक पढ़ने लिखनेवाले नेता की थी । वो हर विषय पर सिर्फ अपनी राय रखते ही नहीं थे बल्कि जहां भी मौका मिलता था उसको लिखकर व्यक्त भी करते थे । उसी दौर की बात है श्रीकृष्ण सिंह पंडित जवाहर लाल नेहरू से मिलने प्रधानमंत्री निवास -तीन मूर्ति हाउस पहुंचे । प्रदानमंत्री को संदेश भेजा कि बिहार के मुख्यमंत्री श्रीबाबू मिलने आए हैं । तकरीबन बीस मिनट के बाद जवाहरलाल नेहरू श्रीकृष्ण सिंह से मिलने अपने ड्राइंग रूम में पहुंचे । नेहरू जी के हाथ में एक किताब थी। अपने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों के साथी का बीस मिनट का इंतजार श्रीबाबू को खल गया था । जवाहरलाल जी के आते ही उन्होंने उलाहना देते हुए कहा - अब आपसे मिलने के लिए मुझे भी बीस मिनट का इंतजार करना पडे़गा । जवाहरलाल जी ने विनम्रता पूर्वक क्षमा मांगते हुए अपने हाथ की किताब श्रीबाबू की ओर बढ़ाई और कहा कि ये नई किताब आई थी । जब आपके यहां आने की सूचना मिली तो सोचा कि ये नई किताब आपको भेंट करूं । इस किताब को ढूंढने में ही इतना वक्त लग गया । श्रीबाबू ने नेहरू जी के हाथ से किताब लिया, उलटा पुलटा और फौरन धन्यवाद सहित पंडित जी को वापस कर दिया । नेहरू जी हतप्रभ । नेहरू जी के चेहरे का भाव देखकर श्री बाबू ने धन्यवाद दिया और कहा कि वो उस किताब को दो महीने पहले पढ़ चुके हैं । नेहरू जी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में ठहाका लगाया और दोनों फिर से राजनीतिक बातों में मशगूल हो गए । ये संवाद था एक प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री के बीच का । इस किस्से को बताने का मकसद सिर्फ इतना बताना है कि आजादी के बाद के दौर के हमारे ज्यादातर नेता अपना काफी वक्त अध्ययन, चिंतन और मनन में बिताते थे । एक से एक पढ़ाकू और लिक्खाड़ । बिहार के मुंगेर में श्रीकृष्ण सेवासदन के नाम से एक पुस्तकालय है । इस पुस्तकालय में बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की तमाम किताबें भरी हैं । मैं नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में वहां जाया करता था । उस वक्त श्री बाबू के व्यक्तिगत संग्रह को देखकर आतंकित होता रहता था । उन किताबों में इतिहास, समाज शास्त्र, दर्शन से लेकर समकालीन विश्व राजनीति की तमाम किताबें थी । खास बात यह थी कि हर किताब में रंगीन पेंसिल से निशान लगाए हुए थे । वहां मौजूद सज्जन ने बताया कि श्रीबाबू किताबों को पढ़ने के दौरान अलग अलग रंगों की पेंसिल से निशान लगाते थे । तब गूगल का जमाना नहीं था । अध्ययन और स्मृति के सहारे ही ज्ञानार्जन होता था ।
इसके अलावा भी अध्ययन और चिंतन करनेवाले नेताओं की एक लंबी फेहरिश्त है । चाहे आप पंडित मदन मोहन मालवीय की बात करें चाहे मौलाना आजाद की या फिर सी राजगोपालालाचारी की या फिर भीमराव अंबेडकर की या एम एलस गोलवलकर की । उस दौर के अन्य नेताओं के बारे में बात करें तो भी उनके हिस्से में कई मौलिक किताबें हैं । उत्तर से लेकर दक्षिण तक, हिंदी से लेकर अन्य भारतीय भाषाओं के नेता भी पाठक भी थे और लेखक भी । गांधी जी ने तो इतना लिखा उसके बारे में कहना सूरज को दीया दिखाने जैसा है । गांधी के लिखे पर तो अब भी दुनिया भर के विद्धान कलम चलाते रहते हैं और उनको नए सिरे से समझने और उनके विचारों को पुनर्उद्धघाटित करने में लगे रहते हैं ।
उनकी तुलना में अगर अब हम देखें तो पढ़ने लिखनेवाले विचारवान नेताओं की संख्या बहुत ही कम है । लिखककर अपने विचार व्यक्त करनेवाले तो और भी कम । मौलिक चिंतन तो सिरे से गायब ही मालूम पड़ता है । इतना अवश्य है कि पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से जो लोग राजनीति में गए हैं वो यदा कदा लिखते हैं । इसकी क्या वजह हो सकती है कि हमारे देश के वर्तमान दौर के नेताओं का पढ़ने लिखने से वास्ता छूटता चला गया और वो खालिस राजनीति में मशगूल हो गए । इसकी वजह की तलाश में हमें इंदिरा युग में जाना होगा । भारत की राजनीति में जिस तरह से नेहरू युग को मूल्यों और प्रतिभा की राजनीति का दौर माना जाता है उसी तरह से इंदिरा युग में प्रतिभाहीन नेताओं और चापलूसों के शीर्ष पर पहुंचने का स्वर्णकाल कहा जा सकता है । इंदिरा गांधी के दौर में विचार और विचारक नेता पृष्ठभूमि में चले गए । प्रतिभाशाली नेता दरकिनार होते चले गए और इंदिरा गांधी प्रतिभाहीन नेताओं से घिरती चली गई । इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया का जयकारा लगानेवाले लोग अचानक से सत्ता के गलियारों में शक्तिशाली नजर आने लगे । यह विडंबना है कि जवाहर लाल की बेटी इंदिरा गांधी ने इस तरह से राजनीतिक नेतृत्व के पतन में अहम भूमिका निभाई । वो नेहरू जिन्होंने जेल से इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर नैतिक शिक्षा दी थी । नेहरू के पत्रों का वो संग्रह अब भी लोग अपने बच्चों को पढ़ने के लिए देते हैं । नेहरू हमेशा से इंदिरा को शिक्षा देते रहते थे । मार्च 1926 में अपने नवजात बेटे की मौत के बाद जवाहरलाल नेहरू अपनी पत्नी और बेटी के साथ मुंबई से पानी के जहाज से वेनिस जा रहे थे । जब उनका जहाज स्वेज नहर से गुजर रहा था तो उन्होंने इंदिरा गांधी से मिस्त्र की सभ्यता के बारे में बेहद लंबी बातचीत तिहासिक सभ्यता के बारे में बहुत कुछ बताया । बाबजूद इस पारिवारिक परिवेश के इंदिरा गांधी अध्ययन और मनन-चिंतन से दूर रही । राजेन्द्र पुरी ने 1975 में छपी अपनी किताब- इंडिया दे वेस्टेड इयर्स में लिखा है इंदिरा गांधी का अपना कोई स्टाइल नहीं था वो हमेशा नेहरू की अदाओं की नकल करती थी, चाहे तेज चलना हो, भीड़ में घुस जाना हो या फिर भीड़ को डांट देना हो क्योंकि उसे पता था कि लोग इन अदाओं में उसके पिता की छवि देखते हैं । उस छवि को इंदिरा जिंदा रखना चाहती थी । लेकिन इंदिरा गांधी ने कभी नेहरू की लिखने पढ़ने वाले नेता की छवि की चिंता नहीं की ।
नेहरू के दौर के ही कुछ नेताओं ने लिखने पढ़ने का काम जारी रखा जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी और राम मनोहर लोहिया प्रमुख हैं । इसके अलावा लाल कृष्ण आडवाणी और जसवंत सिंह ने भी अपनी आत्मकथाएं लिखीं हैं , नटवर सिंह ने भी कई किताबें लिखी । कुछ वामपंथी नेताओं ने आयातित विचारधाऱा के आदार पर लेखन किया जिसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए । लेकिन ज्यादातर नेता पढ़ने लिखने से ज्यादा गणेश परिक्रमा कर अपनी सत्ता बचाने में लगे हैं । इस वक्त के नेताओं पर गौर करें तो पूरे परिदृश्य में एक अजीब तरह की विचार शून्यता दिखाई देती है । नेताओं के विचारों को जानने समझने का अवसर प्राप्त नहीं होता है । अभी के परिदृश्य में शशि थरूर सबसे गंभीर काम कर रहे हैं । छिटपुट लेख तो सीताराम येचुरी से लेकर बलबीर पुंज तक लिख रहे हैं जो फौरी घटनाओं पर त्वरित टिप्पणी की तरह होती है । इसके अलावा गाहे बगाहे अरुण जेटली न्यायिक व्यवस्था से जुड़े मसलों पर अपनी राय जाहिर करते हैं । इस बीच कपिल सिब्बल का कविता लिखना एक सुखद हवा के झौंके की तरह आया । उनकी कविताएं कैसी हैं, उसका स्तर कैसा है जैसे सवाल तो उठते रहेंगे और उसपर विमर्श भीहोता रहेगा लेकिन बड़ी बात यह है कि एक केंद्रीय मंत्री साहित्य के लिए वक्त निकाल रहा है । इस बात के लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए । अभी अभी पत्रकार से सांसद बने मानवेन्द्र सिंह ने भी अपनी अपने चुनाव के दौरान के अनुभवों को डायरी की शक्ल में लिखा है । यह एक शुभ संकेत है । वर्ना तो बुद्धिजीवी बनने के चक्कर में नेता लोग अपने भाषणों का संग्रह छपवाने में जुटे हैं । प्रकाशक इस वजह से छाप देते हैं क्योंकि उसमें उनको कारोबारी संभावना नजर आती है ।  दरअसल गिरावट समाज के हर क्षेत्र में आया है लेकिन राजनीतिक नेतृत्व को जनता दूसरे नजरिए से देखती है और उनके क्रियाकलापों का असर होता लिहाजा उनसे अपेक्षाएं भी होती हैं । इन अपेक्षाओं पर खरे उतरने को अगर आज के नेता स्वीकार करने का साहस दिखा पाते हैं तो विचारक नेताओं का स्वर्णिम युग लौट सकता है । कहावत भी है कि इतिहास अपने को दोहराता है । इस कहावत को कहनेवाले ने हालांकि इतिहास के दोहराने की समय सीमा नहीं बताई थी ।
 

 

Saturday, September 14, 2013

हिंदी की उपेक्षा क्यों ?

आज हिंदी के लेखकों में इस बात को लेकर खासा क्षोभ दिखाई देता है कि उनको मीडिया, खासकर अंग्रेजी मीडिया में जगह नहीं मिलती । हालात यह है कि बड़े से बड़ा हिंदी का कवि या लेखक बड़े से बड़ा पुरस्कार पा जाए , उसकी नई कृति आ जाए और वो हिंदी समाज में चर्चित हो जाए या फिर किसी स्थापित लेखक या बुजुर्ग लेखक का निधन हो जाए । अंग्रेजी के अखबार या न्यूज चैनल उसकी नोटिस ही नहीं लेते हैं । अव्वल तो खबर नहीं ली जाती या फिर अगर ली भी जाती है तो उसको ऐसी जगह दी जाती है जो एकदम से महत्वहीन होती है और पाठकों की नजर वहां तक पहुंच ही नहीं पाती है । हां अगर लेखक फिल्मों से जुडा़ हो या फिर उसकी कोई साहित्येत्तर पहचान हो तो अंग्रेजी मीडिया उसको जमकर तवज्जो देते हैं । कमलेश्वर जी के निधन के बाद अंग्रेजी के अखबारों ने उनपर श्रद्धांजलि के लेख इस वजह से छापे कि वो हिंदी के साहित्यकार के अलावा फिल्म लेखन और दूरदर्शन के शुरुआती दौर से जुड़े थे । थोड़ा बहुत श्रीलाल जी के निधन पर भी अंग्रेजी अखबारों ने छापा । क्या इनको अंग्रेजी अखबारों में जितनी जगह दी गई वह काफी था । कतई नहीं वो इससे ज्यादा के हकदार थे । हम कह सकते हैं कि यह स्थिति अचानक से पैदा नहीं हुई । आजादी के बाद से हिंदी साहित्य के बारे में, हिंदी उपन्यासों के बारे में , हिंदी कवियों और लेखकों के बारे में अंग्रेजी के अखबारों में लगातार लेख छपते रहे हैं । हिंदी साहित्य में यह माना जाता है कि फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास मैला आंचल की पहली समीक्षा नलिन विलोचन शर्मा ने लिखी थी । लेकिन यह तथ्य नहीं है । फणीश्वर नाथ रेणु के मैला आंचल की पहली समीक्षा 15 जुलाई 1955 के एक अंग्रेजी अखबार में अ नॉवेल ऑफ रूरल बिहार के शीर्षक से छपी थी और उसे शामलाल ने लिखा था । उसी लेख से यह भी पता चलता है कि फणीश्वर नाथ रेणु का यह उपन्यास पहले समता प्रकाशन, पटना ने छापा था और बाद में वो राजकमल प्रकाशन से छपा । इसकी भी एक लंबी कहानी है लेकिन वो विषयांतर हो जाएगा ।
आजादी के बाद के कई दशक तक अंग्रेजी के अखबारों में हिंदी लेखकों की किताबों पर गंभीर लेख छपा करते थे । स्वयं शाम लाल जैसे अंग्रेजी के संपादक ने प्रेमचंद, जैनेन्द्र, मुक्तिबोध और निर्मल वर्मा की किताबों पर विस्तार से लिखा, साथ ही उस दौर के कवि और कविताओं पर भी गंभीर लेख लिखा था । शामलाल तो हिंदी कवियों पर कविता की नई प्रवृतियों पर अस्सी के दशक तक लिखते रहे । उन्होंने भोपाल की एक कवि गोष्ठी के बहाने से पहला सप्तक से लेकर उस वक्त तक की कविताओं पर एक आलोनात्मनक लेख अंग्रेजी में लिखा था । उस लेख को पढ़कर गैर हिंदी भाषी लोग भी हिंदी कवि नेमिचंद्र जैन से लेकर श्रीकांत वर्मा से लेकर विजयदेव नारायण साही से लेकर रघुवीर सहाय की कविताओं से परिचित हो सकते हैं ।  शामलाल के अलावा अन्य अंग्रेजी अखबारों के संपादक और वरिष्ठ पत्रकारों ने भी श्रीकांत वर्मा से लेकर अज्ञेय की किताबों और उनके रचनाकर्म पर गंभीरता से विमर्श किया है । वह दौर था जब हिंदी के आयोजनों में अंग्रेजी के संपादकों और लेखकों को आमंत्रित किया जाता था । लेकिन सत्तर के दशक के मध्य से अंग्रेजी का हिंदी के प्रति भाव उदासीन होने लगा । अंग्रेजी अखबारों में हिंदी के लेखकों, कवियों और उपन्यासकारों और उनके रचनाकर्म पर छपना कम होता चला गया ।  जिन अखबारों में मुक्ति बोध की मृत्यु की खबर मुखपृष्ठ पर फोटो के साथ छपी थी उसी अखबार ने श्रीलाल शुक्ल की मौत की खबर को अंदर के पन्नों पर छोटी सी जगह दी । जो अंग्रजी के लेखक हिंदी की किताबों पर लिखते थे उन्होंने कन्नी काटनी शुरू कर दी । यह एक बहुत गंभीर सवाल है । आज हम साहित्य के पाठकों की कमी के लिए छाती कूटते हैं लेकिन उस कमी के मूल कारण में नहीं जाते हैं । आज हम कोई ऐसा उपक्रम नहीं कर रहे हैं जिससे नया पाठक वर्ग संस्कारित हो सके । इसके पीछे के कारणों को ढूंढना होगा । आज अगर आप अपनी भाषा और संस्कृति की बात करेंगे तो आपको फौरन से पेशतर संघी करार दे दिया जाएगा और वो भी इस तरह से कि आपको लगेगा कि कोई जुर्म हो गया । गोया कि अपनी भाषा और संस्कृति के विकास की बात करना और उसपर गर्व करना गुनाह हो । हुआ यह कि हमने अपनी भाषा और उसकी ताकत पर गर्व करना छोड़ दिया । इसका नतीजा यह हुआ कि दूसरी भाषा के लोगों को लगने लगा कि हिंदी और हिंदुस्तान की संस्कृति की बात कहने से उनपर भी एक खास किस्म का ठप्पा लग जाएगा । लिहाजा अंग्रेजी के लोगों ने हिंदी से किनारा करना शुरू कर दिया । हमने भी अपनी भाषा का दामन छोड़ दिया और अंग्रेजी के पीछे भागने लगे । आजादी के कई साल बाद तक हिंदी के लोग गर्व से ये कहते थे कि वो हिंदी भाषी हैं और उन्हें अंग्रेजी नहीं आती । गर्व से अंग्रेजी नहीं आने की बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने का जो साहस था उससे हिंदी को एक मजबूती मिलती थी । महात्मा गांधी ने भी 15 अगस्त 1947 को बीबीसी को दिए एक संदेश में साफ तौर पर इसकी ओर इशारा किया था- समाज की जो हम सबसे बड़ी सेवा कर सकते हैं, वह यह है कि हमने अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के प्रति जो अन्धविश्वासपूर्ण सम्मान करना सीखा है, उससे स्वयं मुक्त हों और समाज को मुक्त करें । लेकिन हिंदी समाज ने गांधी की इस बात को नहीं माना और अंग्रेजी के प्रति लगातार हमारा अंधविश्वासपूर्ण सम्मान बढ़ता चला गया । नतीजा यह हुआ कि हम अपनी भाषा को छोड़कर एक विदेशी भाषा में प्रतिष्ठा तलाशने लगे । अंग्रेजी को लेकर हिंदी के लोगों में एक खास किस्म की हीन भावना घर कर गई । धड़ल्ले से हिंदी बोलनेवाले लोग भी जब किसी मॉल की भव्य दुकान के अंदर जाते हैं तो वहां घुसते ही एक्सक्यूज मी का जयकारा लगाते हैं । शानदार हिंदी बोलनेवाले भी टूटी फूटी अंग्रेजी बोलकर अपने को धन्य समझते हैं । इस तरह के वातावरण को देखकर अंग्रेजी वालों के मन में हिंदीवालों के प्रति एक उपहास का माहौल बना जो कालांतर में उनको हिंदी साहित्य से दूर लेकर चला गया ।  इस मानसिकता को प्रोफोसर यदुनाथ सरकार बेहतरीन तरीके से व्यक्त किया हमारे अंग्रेजी बोलने और सोचने से हमारे दिमाग पर इतना बोझ पड़ता है कि हम उससे कभी पूरी तौर पर मुक्त नहीं हो पाते हैं ।
हिंदी में कुछ शुद्धतावादी लेखक भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं । जब भी जहां भी मौका मिलता है वो हिंदी के नाश के लिए अंग्रेजी को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं । उन्हें लगता है कि अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से हिंदी का नाश हो जाएगा । उनकी ये चिंता जायज हो सकती है लेकिन हिंदी के प्रयोग के आग्रह में वो इतने उत्साहित हो जाते हैं कि अंग्रेजी को दुश्मन की तरह पेश करने में जुट जाते हैं । जोश में होश खोते हुए अंग्रेजी भगाओ तक का नारा देने में जुट जाते हैं । अंग्रेजी के साइनबोर्ड तक पर कालिख पोतने का दौर चलाने लग जाते हैं । इससे नफरत का माहौल बनता है । इस तरह की बात अंग्रेजी के लोगों तक पहुंचेंगी तो उनकी स्वाभावित प्रतिक्रिया हिंदी को शांति से दरकिनार करने की होगी । आज अगर अंग्रेजी के लोग हिंदी को लेकर तटस्थ हैं तो उसके पीछे यह भी एक बड़ी वजह है । आज वक्त आ गया है कि हिंदी को मजबूत करने के साथ साथ हमें अंग्रेजी के प्रति दुश्मनी के भाव को त्यागना होगा । हिंदी साहित्य के मूर्धन्यों को अंग्रेजी के प्रति घृणा का भाव त्यागना होगा । साथ ही अपनी भाषा और संस्कृति पर हमें गर्व करना ही होगा । हमें दूसरों को इस बात के लिए मजबूर करना होगा कि हिंदी पर लिखे बिना तुम्हारा काम चलनेवाला नहीं है । अपनी रचनात्मक विस्फोट से उनका ध्यान खींचना होगा । हिंदी के लिए यह जरूरी है कि वो किसी भाषा से नफरत ना करे और ना ही उसके प्रति अंधविश्वासपूर्ण सम्मान प्रदर्शित करें ।

Wednesday, September 11, 2013

दंगे पर वोट की फसल

भारत विभाजन के बाद पहली बार भारत आए खान अब्दुल गफ्फार खान ने 24 नवंबर 1969 को संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए कहा था कि- अगर सांप्रदायिक दंगों को भड़कानेवालों या उनमें भाग लेने वालों कोसमुचित दंड नहीं दिया जाता तो फिर बदमाशों को हमेशा ही देश की शांति को खतरा पहुंचाने की छूट मिल जाएगी ।  मुझे बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व चीफ जस्टिस ने भी कहीं कहा है कि इन सारे वर्षों सांप्रदायिक उपद्रवों में जान और माल का विनाश करने के गुनाह में एक भी व्यक्ति को फांसी नहीं दी गई है । अगर यह सच है तो फिर आप इन उपद्रवों से छुटकारा पाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं । खान अब्दुल गफ्फार खान ने आजसे तकरीबन चार दशक पहले जो बातें कही थी वो उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुई सांप्रदायिक दंगों के बाद एक बार फिर से यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ा हो गया है । हमें इस बात पर पर्याप्त तवज्जो देनी होगी कि सांप्रदायिक दंगों के मुजरिमों को कठोरतम सजा क्यों नहीं दी जाती । पिछले साल दिसंबर में एक लड़की के साथ गैंगरेप के खिलाफ हमारा समाज उठ खड़ा हुआ था । बलात्कार के खिलाफ नया कानून बन गया । लेकिन दंगों के दौरान हो रहे वहशीपन को लेकर हमारा समाज कभी उद्वेलित नहीं होता । जब हमारे समाज का ताना बाना छिन्न भिन्न होता है तो हमारे समाज से कोई आवाज नहीं उठती है । हमें इसके सामाजिक वजहों की पड़ताल करनी होगी । दरअसल हुआ यह कि आजादी के बाद से लगातार अंतर-सामुदायिक सबंध कमजोर होते चले गए। नागरिक समाज और शासक वर्ग के बीच अविश्वास की खाई चौड़ी होती चली गई । देश की संवैधानिक संस्थाओं की चमक फीकी पड़ती चली गई और प्रशासन का इकबाल भी कम हुआ, जिसकी वजह से दंगाइयों के मन में खौफ नहीं रह गया । फांसी की सजा तो अबतक किसी को हुई नहीं ।  
इसके अलावा दंगों में राजनीतिक दलों ने भी जमकर सियासी रोटियां सेंकीं । आजादी के बाद से ही सांप्रदायिकता की जमीन पर वोटों की फसल काटने का काम शुरू हो गया था । भारत में सांप्रदायिक दंगों का एक लंबा इतिहास रहा है और नियमित अंतराल पर देश के अलग अलग हिस्सों में दंगे होते रहे हैं । नब्बे के दशक के शुरुआत में राजनीति में पिछड़ी जातियों के उभार के केंद्र में आने के बाद से दंगों में कमी आई । बिहार में लालू यादव ने मुस्लिम और यादवों के गठजोड़ की ऐसी मजबूत नींव डाली कि उसपर उन्होंने पंद्रह साल के शासन की इमारत खड़ी कर ली । उसी तरह से उत्तर प्रदेश में मायावती के मजबूत होने के साथ सांप्रदायिक हिंसा में कमी आई । लेकिन मुसलमानों के रहनुमा होने का दावा करनेवाले मुलायम सिंह यादव के शासन काल में ऐसा हो नहीं सका । मुलायम के मुख्यमंत्रित्व काल में दंगे हुए । गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक अखिलेश यादव के एक साल के शासन काल में सौ से ज्यादा दंगे हुए । सवाल यह है कि मुलायम सिंह की राजनीति में सांप्रदायिक दंगों का क्या स्थान है । मुलायम सिंह यादव ने अपनी एक ऐसी छवि बनाई है कि वो मुसलमानों के उत्तर प्रदेश में इकलौते रहनुमा हैं । बावजूद इसके मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता संदिग्ध है । कभी वो अयोध्या के विवादित ढांचे के विध्वंस के वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से गलबहियां करते नजर आते हैं और दावा करते रहे कि कल्याण सिंह ने मस्जिद नहीं गिराई । तो कभी वो लाल कृष्ण आडवाणी और संघ के नेताओं की तारीफ में कसीदे गढ़ते हैं । इस वजह से उनपर भाजपा से मिलीभगत का आरोप भी लगता रहा है । अभी हाल ही में अयोध्या में चौरासी कोसी परिक्रमा को लेकर भी उनपर भाजपा के साथ मिलकर खेलने के आरोप लगे ।
मुजफ्फरनगर दंगों के पीछे भी सियासत का बेहद ही घिनौना खेल खेला गया और इसने तीस से ज्यादा लोगों की जान गई और सैकड़ों जख्मी हुए । एक छोटी सी वारदात को जिस तरह से सांप्रदायिकता का रंग दिया गया उससे यह साफ है कि यह एक सोची समझी राजनीति का हिस्सा है । जिस तरह से सरेआम पंचायतें और तकरीरें हुईं,  भड़काऊ भाषण और छिटपुट वारदातों की प्रशासन ने अनदेखी कर हालात बिगड़ने दिया , लाखों लोगों के इकट्ठे होने तक प्रशासन खामोश रहा वह भी किसी बड़ी साजिश का संकेत देता है । दरअसल अगर हम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामाजिक संरचना और वोटिंग पैटर्न का विश्लेषण करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि पारंपरिक रूप से यह इलाका कांग्रेस विरोधियों का गढ़ रहा है और जाट और मुसलमान यहां मिलकर वोट करते रहे हैं । एक छोटे से कालखंड को छोड़कर यह इलाका पारंपरिक रूप से पहले चरण सिंह के और अब उनके बेटे अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के साथ रहे हैं । पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के मात्र छह प्रतिशत वोट हैं लेकिन सामाजिक संरचना की वजह से वो कई जिलों में पड़नेवाले लोकसभा की सीटों के नतीजों को प्रभावित करते हैं । इस इलाके में समाजवादी पार्टी और भाजपा की हालात मजबूत नहीं है और प्रभाव भी कम है । इन दोनों दलों की नजर इस इलाके की तेरह लोकसभा सीटों पर है । समाजवादी पार्टी इस इलाके के 15 फीसदी मुस्लिम वोटरों को लुभाकर इस इलाके में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती है । उधर बीजेपी ध्रुवीकरण से अपनी उपस्थिति में मजबूती देखती है । इन दोनों की राह में जाट और मुसलमानों का गठजोड़ बड़ी बाधा है । मुजफ्फरनगर के दंगों ने जाट और मुसलमानों के बीच के गठजोड़ को तोड़ दिया है और इलाके में दोनों एक दूसरे के आमने सामने खड़े हैं । शहर से बढती हुई यह खाई अब गांवों तक जा पहुंची है जो हमारे समाज के लिए बेहद खतरनाक है लेकिन सियासत के लिए मुफीद । सियासत के नजरिए से देखें तो जाटों और मुसलमानों के वोटों में बंटवारे की स्थिति राष्ट्रीय लोकदल के लिए नुकसानदेह हो सकती है जबकि समाजवादी पार्टी के लिए यह आदर्श स्थिति है । समाजवादी पार्टी इस भरोसे है कि इस इलाके के भयाक्रांत पंद्रह फीसदी मुसलिम वोटर उसकी झोली में आ गिरेगा और भाजपा ध्रुवीकरण की स्थिति में खुद को हिंदू वोटरों की स्वाभाविक दावेदार माने बैठी है । 
दंगों के पीछे की सियासत पर भी संसद के अपने उसी भाषण में महान स्वतंत्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खान ने दंगों की सियासत करनेवालों को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा था हो सकता है उन दलों और व्यक्तियों को जो उन्हें बढ़ावा देते हैं या साजिश रचते हैं या बाद में उसके गुनहगारों का बचाव करते हैं, प्रभाव और शक्ति का अस्थायी लाभ मिले, लेकिन उससे ना तो देश की प्रतिष्ठा में कोई इजाफा होता है ना ही राजनीतिक स्थिरता या राजनीतिक और आर्थिक प्रगति हालिल होती है । अफसोस इस बात का है कि इस रोग ने अब समूचे देश को ग्रस्त कर लिया है । वक्त आ गया है कि आप नजरें उठाकर देखें और इस फैलती बुराई पर ध्यान दें । लगभग पैंतालीस साल तक हमने उनकी बातों का नजरअंदाज किया लेकिन अब अगर हमें सचमुच विकसित राष्ट्र बनना है तो हमें नफरत की राजनीति करनेवालों की पहचान कर उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से सबक सिखाना होगा । राजनीतिक दलों से पहल की आस बेमानी है , इसके खिलाफ जनता को ही उठकर खड़ा होना होगा और बांटने की सियासत करनेवालों के मंसूबों को नाकाम करना होगा ।

Saturday, September 7, 2013

स्यापा नहीं पहल जरूरी

साहित्य अकादमी के इतिहास में पहली बार हिंदी भाषा से अध्यक्ष बने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को इस बात का दुख है कि हिंदी में पाठकों की संख्या बेहद कम है, जबकि अन्य भाषाओं में पाठक बड़ी तादाद में मौजूद हैं । उन्हें इस बात का भी मलाल है कि हिंदी प्रदेशों में बंगाल, महाराष्ट्र और केरल जैसा साहित्यक माहौल नहीं बन पाया । साहित्य अकादनमी का अध्यक्ष अगर इस तरह के बयान देता है तो उसके हल्के में नहीं लिया जा सकता है क्योंकि अकादमी के अध्यक्ष की साहित्य जगत में एक अहमियत और उनके बयान का वजन होता है । इस वजह से विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के पाठकों की कमी के विलाप पर विचार होना चाहिए और इसकी पड़ताल भी होनी चाहिए । क्या सचमुच हिंदी में पाठकों की कमी है । यह सवाल हिंदी में कई दशकों से बार-बार उठता रहा है और इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क भी दिए जाते रहे हैं । दरअसल अगर हम गंभीरता से विचार करें तो यह लगता है कि हिंदी के पाठकों की कमी पर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष का बयान सामान्यीकरण के दोष का शिकार हो गया है । अकादमी अध्यक्ष ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया कि साल दर साल आने वाले रीडरशिप सर्वे चीख चीख कर इस बात की गवाही दे रहे हैं कि हिंदी के पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है । हर साल हिंदी अखबारों के नए-नए संस्करण खुल रहे हैं और उनका विस्तार हिंदी क्षेत्रों के अलावा गैर हिंदी क्षेत्रों में भी हो रहा है । इंडियन रीडरशिप सर्वे की पहली तिमाही के नतीजों के मुताबिक अखबारों की पाठक संख्या में एकाध अपवाद को छोड़कर बढ़ोतरी दर्ज की गई है । ना सिर्फ हिंदी अखबारों बल्कि पत्रिकाओं के पाठक संख्या में भी इजाफा हो रहा है । हो सकता है साहित्य अकादमी के अध्यक्ष जब पाठकों की कमी की बात कर रहे हों तो उनके अवचेतन मन में साहित्य के पाठकों की बात रही हो । अगर ऐसा है तो उनकी यह आशंका बिल्कुल ठीक है कि हिंदी में साहित्य के पाठक कम हुए हैं । यह बात हिंदी के तमाम प्रकाशक भी मानते हैं कि कविता-कहानी-उपन्यास के पाठक कम हुए हैं । आलोचना के पाठक तो पहले ही कम थे । साहित्येत्तर विषयों की किताबें धड़ाधड़ बिक रही है । हिंदी के कई शीर्ष प्रकाशकों ने तो साहित्य छापना ही कम कर दिया है । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष होने के नाते विश्वनाथ तिवारी की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो हिंदी साहित्य के नए पाठक वर्ग के निर्माण में अकादमी के मंच का इस्तेमाल करते हुए महत्वपू्र्ण भूमिका निभाएं ।
पाठकों तक पहुंचने का काम साहित्य अकादमी कर भी रही है । लेकिन अभी तक इस तरह के जो भी काम हो रहे हैं वो सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर हो रहे हैं । अकादमी लेखकों से मिलिए जैसे जो भी कार्यक्रम करती है वो लेखकों से मिलिए कम अकादमी के कर्मचारियों का गेट-टुगेदर ज्यादा होता है । दिल्ली के रवीन्द्र भवन में आयोजित इस तरह के कार्यक्रमों में वही वही चेहरे नजर आते हैं जो कभी भी आपको साहित्य अकादमी में दिख जा सकते हैं । साहित्य अकदामी का जब गठन हुआ था तो उसका उद्देश्य था कि सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य की समृद्ध परंपरा और विरासत का एक साझा मंच बने जहां साहित्य पर गंभीर विचार-विनिमय और विमर्श हो सके । साहित्य अकादमी के गठन के पीछे यह एक भावना यह भी थी कि अकादमी सेमिनार, सिंपोजिया, कांफ्रेंस और अन्य माध्यमों से एक दूसरे भाषा के बीच संवाद स्थापित करेगी । यह सारी चीजें साहित्य अकादमी कर रही है लेकिन करने के तरीके में घनघोर मनमानी और अपनों को उपकृत करने का काम हो रहा है । अपने गठन के दशकों बाद साहित्य अकादमी अपने इस उद्देश्य से भटकती नजर आ रही है । सत्तर के शुरुआती दशक से ही अकादमी मठाधीशों के कब्जे में चली गई और वहां इस तरह की आपसी समझ बनी कि हर भाषा के संयोजक अपनी अपनी भाषा की रियासत के राजा बन बैठे । साझा मंच की बजाए यह स्वार्थ सिद्धि का मंच बनता चला गया । अब से कुछ सालों पहले तक अकादमी पर वामपंथी विचारधारा का कब्जा था और यह बात जगजाहिर है कि वामपंथियों ने किस तरह अपनी विचारधारा वाले लेखकों को आगे बढ़ाया और विरोधियों को निबटाया । वामपंथी विचारधारा के लेखकों के कमजोर होने के बाद एक खास किस्म के अवसारवादी लेखकों का कब्जा अकादमी पर हो गया जो प्रतिभाशाली लेखकों से आक्रांत रहते थे, लिहाजा उन्होंने एक ऐसी व्यूह रचना रची कि प्रतिभाशाली लेखक अकादमी के अंदर नहीं आ पाएं । आमसभा से लेकर हर जगह प्रतिभा को रोकने का षडयंत्र शुरू हो गया । रचनात्क लेखकों के बजाए विश्वविद्यालयों के बुजुर्गों का क्लब बनते चला गया । उदाहरण के तौर पर हिंदी के वरिष्ठ लेखक उपन्यासकार रवीन्द्र कालिया को लेकर साहित्य अकादमी ने अबतक कोई कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जबकि कालिया सालों से दिल्ली में रह रहे हैं । जबकि हिंदी के कई प्रतिभाहीन लेखकों को साहित्य अकादमी ने मंच मुहैया करवाया । सवाल यह उठता है कि जबतक पाठकों के सामने किसी भी भाषा का सर्वश्रेष्ठ लेखक और उसका लेखन नहीं आएगा तबतक हमें पाठकों की कमी का रोना रोते रहना पड़ेगा । कमलेश्वर जी को भी अकादमी पुरस्कार तबतक नहीं मिल पाया जबतक कि डील नहीं हो गई । राजेन्द्र यादव को तो अबतक नहीं मिल पाया है । अकादमी की इस मठाधीशी का फायदा अफसरों ने भी उठाया और वो लेखकों पर हावी होते चले गए । अकादमी के पूर्व सचिव पर जांच भी चल रही थी इस बीच वो रिटायर हो गए । जांच के नतीजे का पता नहीं ।
इसके अलावा हिंदी में एक और समस्या है जिसकी वजह से पाठकों की संख्या का आकलन होना मुमकिन नहीं है । वह है हिंदी में किताबों की बिक्री का सही आंकड़ा सामने नहीं आ पाना । कई बार यह सवाल उठा है कि हिंदी के प्रकाशक लेखकों को उनकी किताबों की बिक्री का सही आंकड़ा नहीं बताते हैं । प्रकाशकों का दावा यह होता है कि किताबें बिकती ही नहीं है । साहित्य अकादमी के पचास साल पूरे होने के मौके पर उस वक्त के अकादमी अध्यक्ष गोपीचंद नारंग ने अकादमी की स्वयत्ता को लेकर जवाहरलाल नेहरू का एक वक्तव्य उद्धृत किया था । लेकिन अकादमी जवाहरलाल नेहरू के 13 मार्च 1954 के उस पत्र को भूल गई जिसमें उन्होंने हिंदी प्रकाशन की दशा और दिशा की ओर इशारा किया था । सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की बदहाली के मद्देनजर उनके लिए मासिक धन की योजना बनाने के बावत नेहरू जी ने साहित्य अकादमी के तत्कालीन सचिन कृष्ण कृपलानी को एक पत्र लिखा था । उस पत्र में उन्होंने लिखा कि निराला की किताबें जमकर बिक रही हैं और प्रकाशक मालामाल हो रहे हैं लेकिन निराला को कुछ भी नहीं मिल पा रहा है और वो लगभग भुखमरी की कगार पर हैं । अपने उस पत्र में नेहरू जी ने कृपलानी से कॉपीराइट एक्ट को दुरुस्त करवाने के लिए कोशिश करने का भी आग्रह किया था । लेकिन अकादमी ने नेहरू जी के उस पत्र से कोई सीख नहीं ली । अबतक अकादमी ने इस दिशा में कोई पहल या काम किया हो वो ज्ञात नहीं है । हिंदी में अबतक लेखकों प्रकाशकों के बीच का अनुबंध पत्र का भी मानकीकरण नहीं हो पाया है । किताबों की बिक्री के आंकड़ों के लिए कोई मैकेनिज्म बनाने का भी प्रयास नहीं हो पाया है । जब साहित्यक किताबों की बिक्री जानने की कोई व्यवस्था ही नहीं बन पाई है तो पाठकों की संख्या का पता कैसे चल पाएगा । इस बार के साहित्य अकादमी की आम सभा में हिंदी प्रकाशन जगत का एक नुमाइंदा भी चुना गया है । अकादमी का अध्यक्ष भी हिंदी का ही है । अपेक्षा इस बात की है कि बजाए पाठकों की कमी का स्यापा करने के इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं । साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों को भाषा के संयोजकों के चंगुल के मुक्त करना होगा और कार्यक्रमों के आयोजन में पूर्वग्रहों से उपर उठकर लेखकों और साहित्यप्रेमियों की भागीदारी बढ़ानी होगी । अगर ऐसा हो पाता है तो साहित्य के पाठकों का एक नया वर्ग संस्कारित होगा और अखबारों के पाठकों की तरह साहित्य के पाठकों में भी इजाफा होगा । यह सब कर पाना तिवारी जी के लिए बड़ी चुनौती है । अगर वो इन दोनों काम को कर पाने में सफल हो जाते हैं तो हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा वर्ना अन्य अकादमी अध्यक्षों की तरह वो भी इतिहास के बियावन में गुम हो जाएंगे ओर हिंदी साहित्य में पाठकों की कमी का स्यापा होते रहेगा ।

Tuesday, September 3, 2013

बढ़ता बलात्कार, निस्तेज नैतिकता

हर साल जब भी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ें आते हैं तो महिलाओं के खिलाफ होनेवाले वारदातों में खतरनाक तरीके की बढ़ोतरी दिखाई देती है । महिलाओं के लिए सुरक्षित मानी जानेवाली जगहों में भी बलात्कार, यौन उत्पीड़न और तेजाब हमले जैसी घटनाएं होने लगी है । दिल्ली में मेडिकल की छात्रा से गैंगरेप की वारदात के बाद राजपथ से लेकर जनपथ तक जनउबाल दिखता है । मुंबई में महिला पत्रकार के साथ गैंगरेप से हमारा पूरा समाज उद्वेलित हो जाता है । न्यूज चैनलों और अखबारों में बलात्कार जैसे घिनौने वारदात के लिए सख्त से सख्त कानून की मांग की आवाज बुलंद होती है । लेकिन बलात्कारियों के लिए सख्त सजा की मांग के कोलाहल के बीच समाज में फैल रहे इस कैंसर के मूल में नहीं जा पाते हैं । हमें इस बात पर विचार करना होगा कि हमारे समाज में बलात्कार जैसी घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं । क्यों बलात्कार के बढ़ते मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट नियमित अंतराल पर चिंता जाहिर करता है । अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताते हुए पूछा था हमारे समाज और सिस्टम में क्या खामी आ गई है कि पूरे देश में बलात्कार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं । सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि क्या ये सामाजिक मूल्यों में गिरावट का नतीजा है या पर्याप्त कानून नहीं होने की वजह से हो रहा है या फिर कानून को लागू करनेवाले इसको ठीक तरह से लागू नहीं कर पा रहे हैं । सुप्रीम कोर्ट के इन तीन सवालों का अगर हम जवाब ढूंढते हैं तो हमें लगता है कि इन तीन वजहों के अलावा भी एक दो वजहें हैं जो महिलाओं के प्रति इस जघन्य अपराध को बढ़ावा देती हैं ।
हमारा समाज सदियों से नैतिक मूल्यों के लिए शासक वर्ग और धर्म गुरुओं को अपना नायक मानता रहा है । लेकिन सत्तर के दशक के बाद से राजनेताओं और धर्मगुरुओं  के नौतिक मूल्यों में जिस तरह का ह्रसा हुआ है वह सभ्य समाज के लिए चिंता की बात हैं । महिलाओं को लेकर समाज के रहनुमाओं के मन में जो विचार रहते हैं वो बहुधा उनकी जुबान पर आते ही रहते हैं । अगर हम इन चार बयानों को देखें तो महिलाओं को लेकर हमारे समाज के रहनुमाओं की राय साफ हो जाएगी । शिया धर्म गुरु कल्बे जब्बाद कहते हैं लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है । कुदरत ने अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वो घर संभालें, अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें । रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास के मुताबिक- महिलाओं को अकेले मंदिर, मठ, देवालय में नहीं जाना चाहिए । अगर वो मंदिर, मठ या देवालय जाती हैं तो उन्हें पिता, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए नहीं तो उनकी सुरक्षा को खतरा है । गोवा के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेसी नेता दिगंबर कामत ने कहा था- महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है । राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है । समाज के बदलाव में महिलाओं की महती भूमिका है और उन्हें आनेवाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए । इससे भी आगे जाकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के रक्षा मंत्री रह चुके मुलायम सिंह यादव कहते हैं अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वो संसद में आईं तो वहां जमकर सीटियां बजेंगी । और इस वक्त के कोयला मंत्री बयानवीर श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो सारी हदें तोड़ दी थी और कहा था कि बीबी जब पुरानी हो जाती है तो मजा नहीं देती है । ये बयान अलग अलग धर्म और विचारधारा के मानने वालों के हैं जो अपने अपने समुदाय और विचारधारा की रहनुमाई करते हैं । समाज के रहनुमाओं के महिलाओं को लेकर इस तरह के बयानों से कम पढ़े लिखे लोगों के मन में कुत्सित विचार पैदा होते हैं और वो महिलाओं के प्रति अपराध की ओर प्रवृत्त होते हैं ।
लेकिन हमारे देश के राजनेताओं को इसकी कहां चिंता है । वो तो यह जानकर संतुष्ट हो जाते हैं कि महिलाओं के प्रति अपराध को लेकर पूरे विश्व में हम कई देशों से बहुत पीछे हैं । लेकिन आंकड़ों की ही बात करें तो हम पाते हैं कि 1990 से लेकर 2008 के बीच हमारे देश में बलात्कार के केस दोगुने से ज्यादा हो गए हैं।  मुंबई में तो सिर्फ एक साल में ही बलात्कर के मामलों में दोगुना इजाफा हुआ है । इन वारदातों में स्कूलों में बच्चों के साथ दरिंदगी, धर्म गुरुओं का भगवान के नाम पर भक्तों का यौन शोषण आदि सभी शामिल हैं । हमारे शासक वर्ग इन सबसे बेखबर सिर्फ संसद में कानून बनवाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ले रहा है । तमाम मसलों पर एक दूसरे के विरोध में तांडव करनेवाले सांसद सजायाफ्ता को संसद में पहुंचाने के लिए अपने सारे विरोध छोड़कर एक जुट हो जाते हैं । सुप्रीम कोर्ट ने दो साल से ज्यादा की सजा पाए नेताओं और चुनाव के वक्त जेल में रहनेवालों के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी । लेकिन पक्ष और प्रतिपक्ष अपराधियों के चुनाव लड़ने को को लेकर इतने चिंतित हैं कि बहुत मुमकिन है कि संसद के इसी सत्र में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटनेवाला कानून पास हो जाए । इन सबका समाज में यही संदेश जाता है कि हमारा शासक वर्ग अपराधियों के साथ है । समाज में नैतिक मूल्यों के लिए कोई जगह ही नहीं बची । कानून बनानेवालों को समाज से ज्यादा सिर्फ अपनी चिंता है । तभी तो वोट मांगने के लिए जनता के सामने हाथ फैलानेवाली पार्टियां जनता को अपने आय के स्त्रोत जानने के हक से वंचित करने के लिए भी एकजुट हैं । ये ऐसे मुद्दे हैं जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं । जिनपर लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी है वही लोकतंत्र से मिले हक का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए कर रहे हैं, जनता की फिक्र नहीं ।
बलात्कार के बढ़ते मामलों के लिए जटिल न्याययिक प्रक्रिया, इंसाफ मिलने में हो रही देरी और न्यायिक प्रक्रिया के दौरान पीड़ित के साथ होनेवाला सलूक बहुत हद तक जिम्मेदार है । दिल्ली गैंगरेप की सुनवाई को फास्ट ट्रैक कोर्ट को सौंपे तकरीबन आठ महीने बीत चुके हैं लेकिन अभी तक उस मामले में फैसला नहीं आया है । आरोपियों ने अदालत को कानून दांव पेंच में उलझा दिया है । जिस पूरे मसले पर पूरे देश में गुस्से का गुबार उठा था उसका यह हाल है तो यह अंदाजा लगाना आसान है कि सुदूर आदिवासी क्षेत्र की महिलाओं को कितनी जल्दी और कितना न्याय मिल पाता है । बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बना देने भर से इसपर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है । इसके साथ जांच की प्रक्रिया में भी आमूल चूल बदलाव लाना होगा । इस बात को कानूनी जामा पहनाना होगा कि पीड़िता का बलात्कार के बारे में एक ही बार बयान हो और वो भी मजिस्ट्रेट के सामने हो ताकि वो बार बार उस घिनौनी हरकत को किसी और के सामने बताने के लिए अभिशप्त ना हो । इसका एक फायदा यह भी होगा कि न्यायिक प्रक्रिया में तेजी आएगी और आरोपियों को अलग अलग बयानों में से लूप होल ढूढने का अवसर प्राप्त नहीं होगा । दरअसल इस मसले में सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है और उनके सवाल भी क्योंकि हमारे नायको की नैतिक आभा खत्म हो गई है । देश को इंतजार हैं एक ऐसे नायक की जो हमारे सामाजिक ताने बाने को सहेज कर रख सके और देश की जनता को प्रेरित भी कर सके । उम्मीद सिर्फ युवाओं से है ।