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Monday, August 31, 2020

किताबों से झांकती राजनीति

जुलाई 1969 में राज्यसभा की सबसे पीछे वाली सीट पर बैठने वाले प्रणब मुखर्जी जब जुलाई 2012 में देश के प्रथम नागरिक बने तब उन्होंने सक्रिय राजनीति को अलविदा कहा। राष्ट्रपति बनने के बाद प्रणब मुखर्जी ने अपनी यादों को संजोना शुरू किया था। प्रणब मुखर्जी के बारे में कहा जाता है कि उनकी याददाश्त हाथी के जैसी थी। वो जिस घटना के साक्षी बनते थे वो उनको याद रहता था, वो जिस कागज को एक बार देख लेते थे वो उनके मस्तिष्क पर छप जाता था। प्रणब मुखर्जी ने अपने राजनीति दौर को तीन पुस्तकों में समेटा, ‘द ड्रामैटिक डिकेड:द इंदिरा गांधी इयर्स’, ‘द टर्बुलेन्ट इयर्स’ और ‘द कोएलीशन इयर्स’। पहली किताब में प्रणब मुखर्जी ने इंदिरा गांधी के दौर के कांग्रेस की राजनीति का सूक्ष्मता से विवरण दिया। 1971 में पाकिस्तान से युद्ध जीतने वाली नायिका किस तरह से चार साल में ही देश में इमरजेंसी लगाने को मजबूर होती हैं, इसके कारण भी गिनाए। प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में सिद्धार्थ शंकर रे को परोक्ष रूप से आपातकाल लगाने के लिए पृष्ठभूमि बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया।

अपनी दूसरी किताब द टर्बुलेंट इयर्स में उन्होंने 1980 से लेकर 1996 की भारतीय राजनीति का विवरण दिया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके बुरे दिन शुरू हो गए थे। यहां उन्होंने एक दिलचस्प टिप्पणी की है कि वो पार्टी और सरकार के काम में इतने व्यस्त हो गए थे कि काम लगानेवाले पर नजर नहीं रख सके थे। जितना जरूरी काम करना है उतना ही अहम काम लगानेवालों पर नजर रखना है।तीनों पुस्तकों में प्रणब मुखर्जी ने बहुत ही शास्त्रीय ढंग से राजनीतिक घटनाक्रम का विवरण पेश किया है, विवादों से दूर । तीसरी किताब द कोएलीशन इयर्स में उन्होंने कांची के शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रसंग पर कैबिनेट की चर्चा का वर्णन किया है वो भी सपाट। लिखा कि ‘कैबिनेट की बैठक में शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती की गिरफ्तारी की टाइमिंग पर सवाल उठाते हुए गुस्सा हो गया और पूछा कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदुओं के लिए ही है, किसी की हिम्मत है कि वो ईद के समय किसी मुस्लिम धर्मगुरू को गिरफ्तार कर ले?’ इसके बाद फौरन शंकराचार्य की रिहाई के आदेश हो गए। इस तरह के प्रसंग बहुत कम हैं लेकिन कांग्रेस के संविधान, कांग्रेस कार्यसमिति के नियम और अधिकार से लेकर संसदीय नियामवलियों का कब कैसे उपयोग हुआ है उसकी विस्तार से जानकारी है। यह अकारण नहीं था कि जब उनका राष्ट्रपति चुनाव के लिए उन्होंने मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दिया तो उस वक्त 97 मंत्रिमंडलीय समूह के अध्यक्ष थे।    

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ढकोसला


दिल्ली दंगों पर लिखी किताब ‘दिल्ली रॉयट्स 2020, द अनटोल्ड स्टोरी’ के प्रकाशन रोकने के प्रकाशक ब्लूम्सबरी के फैसले को लेकर वामपंथी लेखक-पत्रकार या कलाकार आदि बेहद खुश नजर आ रहे थे। उनको लग रहा था कि मोनिका अरोड़ा, सोनाली चीतलकर और प्रेरणा मल्होत्रा की इस किताब का प्रकाशन ब्लूम्सबरी प्रकाशन से रुकवाकर उन्होंने बड़ा तीर मार लिया है। लेकिन वो यह भूल गए कि ये भारत भूमि है जहां शब्दकोश में विकल्पहीनता शब्द नहीं है। ब्लूम्सबरी के प्रकाशन से इंकार के फौरन बाद गरुड़ प्रकाशन ने इस पुस्तक को प्रकाशित करने की घोषणा करते हुए प्री बुकिंग शुरू कर दी। पाठकों का इतना प्यार मिला कि एकबार तो गरुड़ प्रकाशन की वेबसाइट ही क्रैश कर गई। प्रकाशक के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली रॉयट्स 2020, द अनटोल्ड स्टोरी को बंपर ओपनिंग मिली और चंद घंटों में ही 15000 प्रतियों की प्री बुकिंग हो गई। यह तो खैर इसकी लोकप्रियता का एक पक्ष है। लेकिन इस पूरी घटना से वामपंथी बौद्धिकों का खोखलापन उजागर हो गया। वामपंथ के ये झंडाबरदार लगातार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर छाती कूटते रहते हैं। हर छोटी बड़ी घटना पर उनको लगता है कि देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किया जा रहा है और उनको जब ये लगता है तो सोशल मीडिया पर हाथों में तख्ती लेकर फोटो लगाने लगते हैं। इस बार जब उन्होंने दिल्ली रॉयट्स 2020, द अनटोल्ड स्टोरी को रोकने के लिए अभियान चलाया तो वो ये भूल गए कि इस अभियान से उनकी खुद की पोल खुलने वाली है, उनका दुचित्तापन उजाहर होनेवाले है, उनके चेहरे पर लगा मुखौटा तार-तार होनेवाला है। जब वो इस किताब को रोक कर जश्न मनाने में लगे थे तो वो कुछ सालों पहले का एक वाकया भूल गए थे। भूल तो ये भी गए थे कि उस वक्त उन्होंने क्या क्या कहा था। वामपंथियों की स्मरण शक्ति कमजोर होती है लेकिन वो इतनी कमजोर होती है इसका अंदाजा नहीं था। ज्यादा समय नहीं बीते हैं छह साल पहले की ही बात है। हिंदू धर्म पर कई किताब लिखनेवाली लेखिका वेंडी डोनिगर की किताब- द हिंदूज, एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री को पेंग्विन बुक्स ने भारतीय बाजार से वापस लेने और छपी हुई अनबिकी प्रतियों को नष्ट करने का फैसला लिया । यह फैसला अदालत में उस किताब पर चल रहे केस के मद्देनजर याची के साथ समझौते के बाद हुआ । दरअसल दिल्ली की एक संस्था को इस किताब के कुछ अंशों पर आपत्ति थी और उस संगठन से जुड़े दीनानाथ बत्रा ने दो हजार ग्यारह में इस किताब के कुछ अंशों को हिंदुओं की भावनाएं भड़काने का आरोप लगाते हुए केस दर्ज करवाया था। किताब के खिलाफ याचिका दायर होने के तीन साल बाद आउट ऑफ द कोर्ट एक समझौता हुआ जिसके तहत किताब को वापस लेने का फैसला हुआ । दीनानाथ बत्रा ने पुस्तक को पढ़ने के बाद उसपर अपनी आपत्ति जताई थी। वामपंथियों की तरह नहीं कि बगैर ‘दिल्ली रॉयट्स 2020, द अनटोल्ड स्टोरी’ को पढ़े उसके खिलाफ नारे लगाने लगे या षड़यंत्र करने लगे।

वेंडि डोनिगर की पुस्तक छपने के बाद से ही उसपर विवाद शुरू हो गया था, अमेरिका में इसको खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुआ, लंदन में तो लेखिका पर अंडे तक फेंके गए थे। तब पेंग्विन के फैसले के बाद कुछ लोग इसको अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला करार देने लगे थे। कुछ वामपंथियों ने इसको हिंदू संगठनों की कथित फासीवादी मानसिकता करार दिया था। सेक्युलरिज्म के नाम पर अपनी दुकान चलानेवालों को हिंदू संगठनों पर हमलावर होने का बहाना चाहिए होता है। पेंग्विन के उस फैसले में भी उनको संभावना नजर आई थी और वो फासीवाद-फासीवाद चिल्लाने लगे थे। तब भी मैंने सवाल उठाया था कि वर्ष दो हजार नौ में किताब छपी उसके पांच साल बाद इस किताब को वापस लेने का फैसला प्रकाशक ने लिया। इसमे फासीवाद कहां से आ गया था । क्या शांतिपूर्ण तरीके से विरोध जताना और संविधान से प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करना फासीवाद है? यह तो वैश्विक ट्रेंड है कि अगर किसी किताब पर या उसके अंश पर आपत्ति हो तो अदालत का दरवाजा खटखटाया जाता है। वेंडि डोनिगर की पुस्तक के खिलाफ भी याचिकाकर्ता ने भी भारतीय संविधान के तहत मिले अपने नागरिक अधिकारों का उपयोग करते हुए कोर्ट में केस किया था । अदालत में मुकदमा चल ही रहा था कि दोनों पक्षों ने समझौता कर लिया था।


प्रकाशक के उस फैसले के बाद लेखकों के एक बड़े समुदाय में इस बात को लेकर खासी निराशा का प्रदर्शन हुआ था।  विवादास्पद लेखिका अरुंधति राय से लेकर पत्रकार और लेखक सिद्धार्थ वरदराजन आदि भी उस वक्त विवाद में कूदे थे। सिद्धार्थ ने तो पेंग्विन से अपनी किताबों को नष्ट करने और क़ापीराइट वापस करने की मांग भी की थी। सिद्धार्थ वरदराजन ने अपने पत्र में साफ लिखा था कि उन्हें अब पेंग्विन पर भरोसा नहीं रह गया, लिहाजा वो गुजरात दंगों पर लिखी गई उनकी किताब- दे मेकिंग ऑफ अ ट्रेजडी- के अधिकार वापस कर दें । सिद्धार्थ वरदराजन ने तब कहा था कि ‘अगर किसी समूह की भावना इस किताब से आहत हो जाती है और वो भारतीय दंड विधान की धारा 295 के तहत केस कर देता है, तो संभव है कि पेंग्विन उनकी किताब को भी वापस लेने का फैसला कर दे’। पता नहीं उनकी पुस्तकें नष्ट की गई या नहीं लेकिन अब भी सिद्धार्थ वरदराजन की ये किताब पेंग्विन बेच रहा है। ये है इनका विरोध। समय पर घोषणा करो, प्रचार हासिल करो और फिर भूल जाओ। ये है मार्क्सवाद का अर्धसत्य। वामपंथियों का झूठ का प्रचार एक बार होकर रुकता नहीं है वो सतत चलता रहता है। वेंडि डोनिगर के मसले के दो साल बाद पीईएन इंटरनेशनल ने एक रिपोर्ट पेश की थी, इमपोजिंग साइलेंस, द यूज ऑफ इंडियाज लॉज टू सप्रेस फ्री स्पीच। पेन कनाडा, पेन इंडिया और यूनिवर्सिटी ऑफ टोरेंटो के फैकल्टी ऑफ लॉ ने संयुक्त रूप से इस अध्ययन को करने का दावा किया था। पेन इंटरनेशनल कवियों, लेखकों और उपन्यासकारों की एक वैश्विक संस्था, जिसका दावा है कि वो पूरी दुनिया में साहित्य और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए काम करती है। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर स्थिति बेहद विकट है । उस रिपोर्ट की आरंभिक पंक्तियों से ही शोधकर्ताओं के मंसूबे साफ दिखे थे– भारत में इन दिनों असहमत होनेवालों को खामोश कर देना बहुत आसान है...दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए ये स्थिति बेहद शर्मनाक है। भारत में धर्म पर लिखना मुश्किल होता जा रहा है।‘ इस संबध में वेंडी डोनिगर की ही किताब का उदाहरण दिया गया था। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि पेन इंटरनेशनल की रिपोर्ट में ‘दिल्ली रॉयट्स 2020, द अनटोल्ड स्टोरी’ के प्रकाशन को रोकने का जिक्र होता है या नहीं। वो इस तरह का शोध प्रस्तुत करते भी हैं या नहीं। अगर इनकी की रिपोर्ट में एक पुस्तक के प्रकाशन को रोकने की इन चालों का जिक्र नहीं होता है तो इनकी साख पर बड़ा सवालिया निशान लगेगा। दरअसल ‘दिल्ली रॉयट्स 2020, द अनटोल्ड स्टोरी’ के प्रकाशन का ब्लूम्सबरी ने प्रकाशन नहीं होने देना एक प्रकार की साहित्यिक माफियागीरी भी है। जिस तरह से पाकिस्तानी पिता की संतान लेखक आतिश तासीर ने ब्रिटेन के लेखक विलियम डेलरिंपल को ‘दिल्ली रॉयट्स 2020, द अनटोल्ड स्टोरी’ के प्रकाशन को रोकने के लिए सार्वजनिक रूप से बधाई दी उससे भारत के खिलाफ अंतराष्ट्रीय साजिश के भी संकेत मिलते हैं। ‘दिल्ली रॉयट्स 2020, द अनटोल्ड स्टोरी’ का प्रकाशन रोका जाना कोई साधारण घटना नहीं है बल्कि इसके दूरगामी असर होंगे। 

Saturday, August 29, 2020

भारतीय भाषाओं की बढ़ेगी ताकत


भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित प्रत्येक भाषा के लिए अकादमी स्थापित की जाएगी, जिसमें हर भाषा के श्रेष्ठ विद्वान एवं मूल रूप से वह भाषा बोलनेवाले लोग शामिल रहेंगे ताकि नवीन अवधारणाओं की सरल किंतु सटीक शब्द भंडार तैयार किया जा सके, तथा निमित रूप से नवीन शब्दकोश जारी किया जा सके (विश्व में कई भाषाओं अन्य कई भाषाओं के सफल प्रयोग सदृश)। इन शब्दकोशों के निर्माण के लिए ये अकादमियां एक दूसरे से परामर्श लेंगी, कुछ मामलों में आम जनता के सर्वश्रेष्ठ सुझावों को भी लेंगी। जब संभव हो, साझे शब्दों को अंगीकृत करने का प्रयास भी किया जाएगा। ये शब्दकोश व्यापक रूप से प्रसारित किए जाएंगे ताकि शिक्षा, पत्रकारिता, लेखन, बातचीत आदि में इस्तेमाल किया जा सके एवं किताब के रूप में तथा ऑनलाइन उपलब्ध हों। अनुसूची आठ की भाषाओं के लिए इन अकादमियों को केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों के साथ परामर्श करके अथवा उनके साथ मिलकर स्थापित किया जाएगा। इसी प्रकार व्यापक पैमाने पर बोली जानेवाली अन्य भारतीय भाषाओं की अकादमी केंद्र अथवा/और राज्य सरकारों द्वार स्थापित की जाएगी।‘ यह कहा गया है राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बिन्दु संख्या 22.18 में। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह एक बेहद महत्वपूर्ण कदम है। हमारे देश में सक्रिय भाषा अकादमियों की आवश्यकता है और ये उस आवश्कता पूर्ति की दिशा में उठाया गया एक कदम साबित हो सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने के बाद इसका देशव्यापी असर होगा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषा अकादमियों के बनाने के प्रस्ताव पर विचार करें तो यह बहुत ही व्यावहारिक विचार लगता है। इस तरह की बात पहले भी हो चुकी है जब 1948 में राधाकृष्णन कमीशन ने भी कुछ इसी तरह का प्रस्ताव दिया था। राजभाषा आयोग के सुझावों में भी भाषा अकादमियों की बात की गई थी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने भी सितंबर 1959 में राज्यसभा में दिए अपने भाषण में भी कहा था कि ‘मुझे इस बात की नितांत आवश्कता दिखती है कि हिंदी समेत भारत की भाषाओं की एक नेशनल अकादमी बना दी जाए और उसका प्रधान कार्यालय हैदराबाद में रखा जाए। इस अकादमी के जरिए हम प्रत्येक भाषा-क्षेत्र में वहां की भाषा को आगे बढ़ाने में मदद कर सकते हैं। इस अकादमी के जरिए हम प्रत्येक भाषा क्षेत्र में द्विभाषी, त्रिभाषी विद्वान तैयार कर सकते हैं और भाषाओं के भीतर भावात्मक एकता लाने के लिए सभी उपायों को काम में ला सकते हैं।‘ कई बार भाषाओं के नेशनल अकादमी की बात होती है तो लोग कहते हैं कि साहित्य अकादमी है तो, लेकिन भ्रमित नहीं होना चाहिए। साहित्य अकादमी तो भारतीय भाषाओं में रचे साहित्य के लिए है भाषा के लिए नहीं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषा को लेकर बहुत महत्वाकांक्षी बातें की गई हैं तो उम्मीद की जा सकती है कि कुछ ठोस भी होगा। हलांकि भाषाई अकादमियों की स्थापना को लेकर चुनौतियां बहुत अधिक हैं।

चुनौतियां इस वजह से कि स्वतंत्रता के बाद देशभर में भाषा को लेकर कई तरह के संस्थान केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर बनाए गए। कई राज्यों में अलग अलग-अलग भाषाओं को लेकर अकादमियां हैं। उत्तर प्रदेश को ही लें तो वहां आठ भाषाई अकादमियां और संस्थान कार्य कर रहे हैं। जिनमें हिंदी, संस्कृत, उर्दू, सिंधी, पंजाबी, हिंन्दुस्तानी भाषाओं की अकादमियां हैं। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में एक भाषा संस्थान भी है जिसका उद्देश्य ‘भारतीय भाषाओं और उसके साहित्य का अभिवर्धऩ है।‘ इस तरह से बिहार में मैथिली, अंगिका, भोजपुरी और मगही को लेकर भाषाई अकादमियां हैं। बिहार के इन अकादमियों की हालत पर किसी प्रकार की टिप्पणी करना व्यर्थ है। बिहार के भाषाई संस्थान संसाधनों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके पा न तो अपेक्षित कर्मचारी हैं न ही धन। राजस्थान में भी आधा दर्जन भाषाई अकादमियां कार्य कर रही हैं, जिनमें राजस्थान साहित्य अकादमी, भाषा और संस्कृति अकादमी,संस्कृत अकादमी,उर्दू अकादमी, सिंधी अकादमी,पंजाबी अकादमी प्रमुख हैं। यहां क्या काम हो रहा है इसके बारे में जानना भी दिलचस्प होगा। राजस्थान में जो सबसे महत्वपूर्ण काम हुआ वो सीताराम लालस ने किया जिन्होंने दस खंडों में राजस्थानी का पहला शब्दकोश बनाया। सीताराम लालस मशहूर कोशकार और भाषाकर्मी थे। उसके बाद छिटपुट काम हुए। दिल्ली की हिंदी अकादमी भी आयोजनों में ही व्यस्त रहती है और अगर उससे समय मिलता है तो साहित्य पर काम होने लगता है। इन भाषाई अकादमियों में जो गड़बड़ियां हुईं वो इनके कर्ताधर्ताओं ने ही कीं। उन्होंने भाषा और साहित्य का घालमेल कर दिया। जिन संस्थाओं को काम भाषा को मजबूत करना और भाषा के क्षेत्र में नवाचार करना था वो साहित्य सेवा में जुट गए। साहित्यिक पत्रिकाएं निकालने लगे, साहित्य उत्सव होने लगे जिसमें भाषा से अधिक साहित्य के प्रश्नों पर चर्चा होने लगी। इससे भाषा के क्षेत्र में काम नहीं या बहुत कम हो सका। साहित्यिक कृतियों पर पुरस्कार देने लगे। इसके अलावा इन संस्थाओं में योग्य व्यक्तियों की नियुक्तियां भी बहुत कम हुईं। भाषाई अकादमियों के नाम पर कांग्रेस शासनकाल में जिन संस्थाओं का गठन किया गया उनमें से ज्यादातर अपने समर्थकों को फिट करने की मंशा थी, कागज पर लिखित उद्देश्य चाहे कुछ भी रहा हो।

केंद्रीय स्तर भी भाषा के संवर्धन के कई संस्थान हैं। मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान अपनी स्थापना के पचास साल पूरे कर चुका है। इस संस्थान की स्थापना भारतीय भाषाओं के विकास को समन्वित करने के लिए वैज्ञानिक अध्ययनों के माध्यम से भारतीय भाषाओं की मूलभूत एकता लाने के लिए की गई थी। मैसूर स्थित इस संस्थान ने अबतक अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्या किया इसपर विचार करना चाहिए। इसके अलावा भारतीय भाषाओं के लिए भी अलग अलग संस्थान हैं। तमिल के लिए चेन्नई स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लासिकल तमिल है। हिंदी के लिए तो दिल्ली में केंद्रीय हिंदी निदेशालय है, आगरा में केंद्रीय हिंदी संस्थान हैं। उर्दू और सिंधी के लिए केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद, राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद हैं। इस तरह के दर्जनों संस्थान देशभर में हैं। जरूरत है कि इन सभी संस्थानों के क्रियाकलापों पर विचार किया जाए और इन सारी संस्थाओं को एक केंद्रीय स्वरूप प्रदान किया जाए। एक ही भाषा के लिए जो अलग अलग संस्थाएं काम कर रही हैं और जिनके कामों के बीच दोहराव है उनका पुनर्गठन किया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भाषा संस्थाओं का पुनर्गठन बेहद आवश्यक है। भाषा अकादमियों के साथ-साथ जरूरत इस बात की भी है कि एक ऐसे केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए जहां सभी भारतीय भाषाएं और उसकी उपभाषाओं के संरक्षण और संवर्धन पर काम किया जा सके। यह एक ऐसा उपक्रम होगा जिसमें एक ही परिसर में सभी भारतीय भाषाओं के विद्वान, शोधार्थी और छात्र उपस्थित रहेगें। इसका लाभ यह होगा कि भाषाओं के बीच समन्वय बढ़ेगा, एक दूसरे की भाषा के महत्वपूर्ण गुणों और शब्दों को जानने का अवसर भी मिलेगा। दो तीन वर्ष पूर्व भारतीय भाषाओं के विश्वविद्लाय की स्थापना को लेकर एक एक गंभीर कोशिश हुई थी लेकिन पता नहीं मंत्रालय या सरकारी फाइलों में वो कोशिश कहां गुम हो गई। अब जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की बात हो रही है तो जरूरत है कि भारतीय भाषा के विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रस्ताव को भी निकालकर फैसला करना चाहिए। अगर ऐसा हो पाता है तो सचमुच आजादी के बाद भारतीय भाषाओं को मजबूती प्रदान करने की एक गंभीर कोशिश होगी जिसका परिणाम देश को मजबूक करेगा, राष्ट्रीय एकता को मजबूत करेगा।      

Saturday, August 22, 2020

निष्पक्षता की आड़ में कुंठा- प्रदर्शन

फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत को लेकर हिंदी फिल्मों की दुनिया लगातार चर्चा में है। फिल्मी दुनिया के दांव पेंच, सितारों की निजी जिंदगी तक की बातें सामने आ रही हैं। फिल्मी सितारों के बीच के अंतरंग मैसेज भी सार्वजनिक होकर चर्चित हो रहे हैं। फिल्मों से जुड़े लोग इस या उस पक्ष में होने के संकेत अपने बयानों से दे रहे हैं। कुछ लोग बयानों से अपनी कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन भी कर रहे हैं। इसी तरह का एक बयान ताजा-ताजा बयानवीर बने नसीरुद्दीन शाह ने भी दिया। उन्होंने इशारों में कंगना रनौत को अर्धशिक्षित कह डाला। एक टीवी चैनल पर साक्षात्कार में नसीरुद्दीन ने कहा कि उनका भारत की कानून व्यवस्था और न्यायिक प्रणाली में विश्वास है और कोई भी व्यक्ति किसी अर्धशिक्षित सितारे की राय जानने में रुचि नहीं रखता है। नसीरुद्दीन शाह के इस बयान पर कंगना ने सवाल खड़ा किया और पूछा कि क्या नसीर यही बात प्रकाश पादुकोण या अनिल कपूर की बेटी के लिए कह सकते हैं। यह एक अलग लेकिन वैध मुद्दा है जो कंगना उठा रही है, पहले भी वो इस तरह के मुद्दे पर मुखर रही हैं। नसीरुद्दीन शाह का किसी को भी अर्धशिक्षित कहना यह बताने के लिए काफी है कि वो अहंकार की ऊंची मीनार पर खड़े होकर दूसरों को हेय दृष्टि से देख रहे हैं। पिछले साल भी जब नागरिकता संशोधन कानून को लेकर उनसे सवाल जवाब हुआ था तब भी उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर निहायत ही व्यक्तिगत आक्षेप किया था। उस वक्त उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री कभी छात्र रहे नहीं इसलिए वो छात्रों की बात नहीं समझ सकते हैं या उनके मन में छात्रों के लिए करुणा नहीं है। वो मानते हैं कि मौजूदा हुकूमत में कोई भी बुद्धिजीवी नहीं है, लिहाजा वो बुद्धिजीवियों की महत्ता को नहीं समझ सकते है। कहते हैं न कि लोग जोश में होश खो बैठते हैं या क्रोध विवेक को हर लेता है, नसीर भी इसके शिकार हैं। वो तो प्रधानमंत्री की डिग्री तक देखने की ख्वाहिश जताने लगे थे और अपने को हिंदी फिल्मों के मानसिक रूप से विपन्न एक निर्देशक की इच्छा के साथ जोड़ रहे थे। यह उस व्यक्ति का अहंकार ही बोल रहा था। 

पिछले कुछ सालों से नसीर इस बात की सफाई भी देने लगे हैं कि वो ये बात एक मुसलमान के तौर पर नहीं कह रहे हैं। इतना कहने के बाद वो अपनी भड़ास निकालने लगते हैं, वैसी भड़ास जिसमें तथ्य कम अहंकार अधिक रहता है। दरअसल नसीर जैसे लोगों के साथ दिक्कत ये हुई कि उनकी फिल्मों में उनके अभिनय को लेकर इतनी बड़ी-बड़ी बातें हो गईं कि वो खुद को बहुत ही ऊंचे पायदान पर देखने लगे। दरअसल 1970 में जब समांतर या कला फिल्मों की शुरुआत हुई तो उसमें काम करनेवाले अभिनेता अभिनेत्री को पता नहीं किस वजह से बुद्धिजीवी भी मान लिया गया। नसीर भी उनमें से एक हैं। फिल्मों से हटकर जब भी नसीर बात करते हैं तो उनकी बातें फूहड़ और चालू लगती हैं। वो वही बातें करते हैं जिनका आधार सोशल मीडिया पर चलनेवाली आधारहीन और तथ्यहीन बातें होती हैं। आपको यकीन न हो तो नागरिकता संशोधन कानून या अन्य मसलों पर उनका साक्षात्कार देख लें। वास्तविकता सामने आ जाएगी। 

नसीरुद्दीन शाह की ही तरह एक शायर हैं नाम है मुनव्वर राना। अभी राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उन्होंने अपनी कुंठा सार्वजनिक कर दी और कहा कि अदालतों में तो फैसले होते हैं, इंसाफ नहीं। जबकि राम मंदिर के मामले पर तो इंसाफ की जरूरत थी। सुप्रीम कोर्ट के राम मंदिर पर दिए फैसले से वो इतने कुपित थे कि उन्होंने फैसला सुनानेवाले खंडपीठ में शामिल सुप्रीम कोर्ट के उस वक्त के चीफ जस्टिस रंजन गगोई पर बेहद संगीन इल्जाम लगा दिए। उन्होंने कहा कि रंजन गगोई बिक गए। जैसा कि उपर कहा गया कि बहुधा क्रोध विवेक को हर लेता है वहीं मुनव्वर राना के मामले में भी हुआ और वो एक ऐसी बात बोल गए जो उनकी सामंती मानसिकता को भी उजागर कर गया। उन्होंने कहा कि वो तो इतने में बिक गए जितने में तवायफें नहीं बिकतीं। मुनव्वर राना का ये निहायत ही घटिया बयान है, जिसकी भर्त्सना होनी चाहिए थी। जो लोग महिला अधिकारों की बातें करते हैं वो खामोश रहे, हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श का झंडा लहरानेवाली लेखिकाएं भी इस मसले पर आश्चर्यजनक रूप से खामोश रहीं। मुनव्वर राना के इस बयान में एक खास चीज जो रेखांकित की जानी चाहिए वो ये कि जब वो राम मंदिर के फैसले पर बोल रहे थे तो उन्होंने भी ये कहा कि वो खरा-खरा बोलते हैं जिससे हिंदू भी नाराज होते हैं और मुसलमान भी। परोक्ष रूप से वो ये कहना चाह रहे थे कि वो जो कह रहे हैं वो एक मुसलमान के तौर पर नहीं कह रहे हैं बल्कि उनकी आवाज को एक स्वतंत्र आवाज समझी जानी चाहिए। यही बात नसीरुद्दीन शाह भी कहते हैं कि वो एक मुसलमान के तौर पर नहीं बोल रहे हैं। 

एक मुसलमान के तौर पर नहीं बोलने का दावा करने की बात को रेखांकित करते हुए अगर विश्लेषित करें तो पाते हैं कि इन दिनों ये बात आम हो गई है। कुछ कहने के पहले ये डिस्क्लेमर जरूर दिया जाता है। बावजूद इस पूर्वकथन के इनकी बातों से जो ध्वनित होता है वो यही है कि वो पक्के तौर पर एक मुसलमान होने के नाते ही ऐसी बातें कर रहे हैं, चाहे वो नसीरुद्दीन शाह हों या मुनव्वर राना या फिर दस साल तक देश के उप राष्ट्रपति रहे हामिद अंसारी। और अगर एक मुसलमान होने के तौर पर ये बातें कह भी रहे हैं तो उसमे हर्ज क्या है। ये देश स्वतंत्र देश है और हर किसी को चाहे वो किसी भी मजहब या धर्म का हो उसको अपनी बात कहने का अधिकार है। दरअसल ये मौजूदा हुकूमत की आलोचना करने के पहले ये जताना चाहते हैं कि वो निष्पक्ष होकर अपनी बात कह रहे हैं। पर इनकी मुखरता इनके इस दावे की पोल खोल देता है। हाल के दिनों में नसीरुद्दीन शाह को अपने बेटों को लेकर डर लगता है, लेकिन नसीरुद्दीन शाह को तब डर नहीं लगा था जब मुंबई में बम धमाके हुए थे, उनको तब भी डर नहीं लगा था जब यूपीए के शासनकाल में नियमित अंतराल पर देश के इलग अलग शहरों में बम धमाके हो रहे थे। तब उनकी बेबाकी को लकवा मार गया था। दरअसल अगर नसीर और राना जैसे लोगों के वक्तव्यों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो ये साफ तौर पर लगता है कि वो इस बात से आहत हैं कि इस देश का बहुसंख्यक अब अपनी बात मजबूती से रखने लगा है। बहुसंख्यकों की बात को और उनकी भावनाओं का सरकार सम्मान करने लगी है। बहुसंख्यकों के अपने हिस्से की बात करना उनको सांप्रदायिकता लगता है। यही मानसिकता उनसे ये कहवाती है कि वो एक मुसलमान के तौर पर नहीं बोल रहे हैं। इसके अलावा ये लोग जिस तरह से प्रतिक्रिया देते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि वो मोदी सरकार के तीन तलाक खत्म करने से लेकर संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 खत्म करने के फैसले से भी खफा हैं। इसी को लेकर अपनी नाराजगी का प्रदर्शन वो कभी मोदी पर भड़ास निकालकर करते हैं तो कभी उनके मंत्रियों पर। पर इससे साख न तो मोदी की खराब होती है न उनके मंत्रियों की, बल्कि प्रतिष्ठा कम होती है नसीर और राना जैसों की। 

Saturday, August 15, 2020

प्रमाणन से मुक्त होती फिल्में

फिल्म ‘गुंजन सक्सेना, द कारगिल गर्ल’ की प्रशंसा हो रही है। ये फिल्म भारतीय वायुसेना की पहली महिला हेलीकॉप्टर पॉयलट गुंजन सक्सेना के जीवन पर आधारित है। फिल्म में सितारों के अभिनय आदि पर बात हो ही रही थी कि भारतीय वायुसेना ने इस फिल्म के कई दृष्यों और संवादों को लेकर आपत्ति जता दी। वायुसेना ने अपनी आपत्तियों को लेकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को एक पत्र भी लिखा जिसमें साफ तौर पर फिल्म में वायुसेना की नकारात्मक छवि पेश करने के आरोप का उल्लेख किया गया है। इस पत्र को नेटफ्लिक्स और धर्मा प्रोडक्शन को भी भेजा गया है। धर्मा ने इस फिल्म को बनाया है और नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित की गई। इस फिल्म में गुंजन सक्सेना जब उधमपुर एयरबेस पर पहुंचती हैं तो उनको कदम दर कदम इस बात का एहसास होता या कराया जाता है कि वो महिला हैं, कई बार प्रत्यक्ष तो कई बार परोक्ष रूप से। उधमपुर एयरबेस में गुंजन सक्सेना के रहने के दौरान की घटनाओं और स्थितियों के फिल्म में चित्रण पर वायुसेना को आपत्ति होगी। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी इस विवाद पर टिप्पणी की। इसके पहले भी सेना और सैनिकों के चित्रण को लेकर विवाद खड़ा हुआ है। मुकदमे भी हुए। इन विवादों को देखते हुए 27 जुलाई 2020 को रक्षा मंत्रालय ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को एक पत्र लिखा। इस पत्र में रक्षा मंत्रालय ने बोर्ड को लिखा है कि उनकी जानकारी में ऐसी बातें आई हैं कि कुछ फिल्मों और वेब सीरीज में सेना की नकारात्मक छवि दिखाई पेश की जा रही है। इसलिए रक्षा मंत्रालय को ये अपेक्षा है कि फिल्मों और वेब सीरीज के निर्माताओं को सलाह दें कि वो अपनी फिल्मों या वेब सीरीज में सेना के बारे में दिखाने के पहले रक्षा मंत्रालय से अनापत्ति प्रमाण पत्र लें। उनको ये सलाह देने की अपेक्षा भी की गई कि सेना की नकारात्मक छवि दिखाने से बचें। सेना ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को पत्र लिखकर अपनी अपेक्षाएं साझा कर लीं लेकिन रक्षा मंत्रालय से एक चूक हो गई।

रक्षा मंत्रालय से सक्षम अधिकारियों को ये पता होना चाहिए था कि वेब सीरीज या ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर दिखाए जाने वाली फिल्में या अन्य सामग्रियां केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के दायरे में नहीं आती हैं। इस पत्र का कोई अर्थ है भी नहीं। 27 जुलाई को रक्षा मंत्रालय ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को पत्र लिखा और 12 अगस्त को गुंजन सक्सेना को नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई जिसके कुछ दृश्यों पर भारतीय वायुसेना को आपत्ति है। इस फिल्म पर भारतीय वायुसेना की आपत्तियों के विश्लेषण से दो बातें सामने आती हैं, पहली तो ये कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने रक्षा मंत्रालय की अपेक्षा के अनुसार सभी फिल्म और वेब सीरीज प्रोड्यूसर्स को सलाह नहीं दी कि वो सेना या वायुसेना या नौसेना के बारे में किसी भी तरह के कटेंट को सार्वजनिक करने से पहले अनापत्ति प्रमाण पत्र लें। दूसरी बात ये हो सकती है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने सलाह दी हो लेकिन निर्माताओं को ये आवश्यक नहीं लगा हो क्योंकि ऐसा कोई कानून तो है नहीं। ओटीटी पर दिखाई जानेवाली फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों को इस बात के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है कि वो भारतीय सेना के बारे में कुछ भी दिखाने के पहले सक्षम अधिकारियों से अनापत्ति प्रमाण पत्र लें। कोविड की वजह से सिनेमाघर बंद हैं और तमाम फिल्मों का प्रदर्शन ओटीटी प्लेटफॉर्म पर हो रहा है। ऐसे में तो इन फिल्मों के लिए भी किसी प्रकार की प्रमाणन की कोई आवश्यकता रही नहीं। फिल्म प्रमाणन बोर्ड तो उन फिल्मों को प्रमाणित करता है जिनका सामूहिक प्रदर्शन होना होता है चाहे वो सिनेमाघरों में हो या फिर किसी फिल्म फेस्टिवल में। फिल्मों का अगर सार्वजनिक और सामूहिक प्रदर्शन होना होता है तो रक्षा मंत्रालय या भारतीय सेना को उसके रिलीज से पहले देखने का अधिकार है। रक्षा मंत्रालय को अगर कोई शिकायत हो तो उसको इलेक्ट्रानिक और प्रोद्योगिकी मंत्रालय को लिखना चाहिए था।

इस पूरे प्रकरण से एक बार फिर से स्पष्ट होता है कि ओटीटी पर चलनेवाले कंटेंट को लेकर नियमन की आवश्यकता है। कोरोना काल में ओटी प्लेटफॉर्म मनोरंजन का एक अनिवार्य अंग हो गया है। सिनेमा हॉल के खुलने की अनिश्चितता के बीच इस माध्यम की अनिवार्यता स्थायित्व लेती नजर आ रही है। सभी बड़े बजट की फिल्में यहां रिलीज हो रही हैं। इस उपक्रम का आकार भी दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस स्तंभ में पहले भी कई बार संकेत दिया जा चुका है कि मुनाफे के लिए ओटीटी प्लेटफॉर्म पर दिखाए जानेवाले कंटेंट में मर्यादा की सारी सीमाएं तोड़ी जा रही हैं। अश्लीलता और मनोरंजन का भेद मिट सा गया है। अभी हाल ही में आए आंकड़ों ने इस बात की पुष्टि भी की है। एक वेब सीरीज है जिसका नाम है मस्तराम। एक एजेंसी के आंकड़ों के मुताबिक इस वेब सीरीज को तीन जुलाई को एक दिन में एक करोड़ दस लाख से अधिक दर्शकों ने देखा। इसके मुताबिक इसको उस दिन तक छत्तीस करोड़ से अधिक लोग देख चुके हैं। ये वेब सीरीज तमिल, तेलुगू और हिंदी में उपलब्ध है और ये संख्या इन तीन भाषाओं के दर्शकों को मिलाकर है। निर्माता इस वेब सीरीज को भले ही वयस्क की श्रेणी में डालकर पेश कर रहे हों लेकिन ये है तो अश्लील ही। मस्तराम के नाम से कुछ वर्षों पूर्व पीली पन्नी में लपेटकर इरोटिक पुस्तकें बेची जाती थीं लेकिन अब ये खेल खुलकर चल रहा है। कहीं न कहीं दर्शक संख्या मुनाफे से जुड़ता है।

एक और आंकड़े पर गौर करना चाहिए। मैंने एक दिन नेटफ्लिक्स के कस्टमर केयर पर फोन किया तो बातों बातों में कस्टमर केयर एक्जीक्यूटिव ने बताया कि कोरोना काल में पिछले तीन महीनों में नेटफ्लिक्स के डेढ करोड़ एप डाउनलोड हुए हैं। ये इतनी बड़ी संख्या है,जिसकी कल्पना नेटफ्लिक्स के कैलिफोर्निया में बैठे कर्ताधर्ताओं ने सपने में भी नहीं की होगी। इस संख्या में उनको व्यापक संभावना नजर आ रही है, बहुत बड़ा बाजार नजर आ रहा है और इसके साथ ही मुनाफे का एक ऐसा फॉर्मूला भी उनके हाथ लग गया है जिसमें जोखिम कम है। अगर हम सिर्फ इस डेढ़ करोड़ की संख्या को ही लें और उसको सबसे कम यानि 199 रु प्रतिमाह की सदस्यता शुल्क के आधार पर गणना करें तो करीब तीन अरब रुपए प्रतिमाह का कारोबार होता दिखता है। ये तो सिर्फ इन तीन महीनों में बने नए ग्राहकों के न्यूनतम सदस्यता शुल्क के आधार पर कारोबार का टर्न ओवर है। अगर इसमें पुराने ग्राहकों की संख्या भी जोड़ लें तो सालभर में अरबों का टर्नओवर हो जाता है। अगर कारोबार इतना बड़ा है तो मुनाफा की कल्पना भी की ही जा सकती है। ये तो सिर्फ एक प्लेटफॉर्म का आंकड़ा है। अगर सभी को जोड़ दिया जाएगा तो इसका कारोबार हिंदी फिल्मों के सालाना कारोबार से कहीं अधिक होगा। देश में सभी व्यवसाय को नियंत्रित करने के लिए अलग अलग तरह के नियमन हैं लेकिन ये एक ऐसा कारोबार है जहां मुनाफा कमाने के लिए कुछ भी करने की छूट अबतक प्राप्त है चाहे वो सामाजिक तानेबाने को तोड़ने वाले संवाद हों, सांप्रदायिकता को बढ़ाने वाले बोल हों या फिर भारतीय सेना की नकारात्मक छवि पेश करने वाले दृश्य हों। जबकि भारतीय सेना को भी इस अराजकता ने अपनी जद में ले लिया है तब तो अपेक्षा करनी चाहिए कि इसके नियमन को लेकर प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।

Saturday, August 8, 2020

देश की संस्कृति के आधार राम

अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बननेवाले भव्य मंदिर के भूमिपूजन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण के निहितार्थों पर पर्याप्त चर्चा होनी चाहिए। अगर गंभीरता से विचार किया जाए तो पांच अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ मंदिर के विधिवत निर्माण की शुरुआत ही नहीं की उन्होंने भारतीय संस्कृति के बारे में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने की नींव भी डाली। भारतीय संस्कृति को राम से जोड़कर नरेन्द्र मोदी ने उन उदारवादियों की सोच को भी सही दिशा में लाने की कोशिश की जो राम को धर्म से जोड़कर देखते और व्याख्यायित करते रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी का अयोध्या में दिया गया भाषण कई मायनों में ऐतिहासिक है। मोदी ने जय श्रीराम के नारे के स्थान पर सियावर रामचंद्र की जय या जय सियाराम का उद्घोष करके एक और संदेश दिया। ऐसा संदेश जो अपेक्षाकृत समावेशी है। राम जन्मभूमि आंदोलन के समय जय श्रीराम का उद्घोष किया जाता रहा था, बाद में भी जय श्रीराम का ही नारा लगता रहा। कुछ लोगों को प्रधानमंत्री का सियावर रामचंद्र कहना प्रतीकात्मक लग सकता है, लेकिन संस्कृति के सवालों से जब मुठभेड़ होती है तो प्रतीकों का भी बहुत अधिक महत्व हो जाता है। अपने पूरे भाषण के दौरान नरेन्द्र मोदी ने राम के सांस्कृतिक पक्ष को सामने रखा और स्पष्ट रूप से ये संदेश दिया कि भारत में किसी भी व्यक्ति का धर्म कुछ भी हो सकता है लेकिन हम सबकी संस्कृति तो राम ही है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम। वो कहते हैं कि ‘राम हमारे मन में गढ़े हुए हैं, हमारे भीतर घुल-मिल गए हैं। कोई काम करना हो, तो प्रेरणा के लिए हम भगवान राम की ओर ही देखते हैं। आप भगवान राम की अद्भुत शक्ति देखिए। इमारतें नष्ट कर दी गईं, अस्तित्व मिटाने का प्रयास भी बहुत हुआ, लेकिन राम आज भी हमारे मन में बसे हैं, हमारी संस्कृति का आधार हैं। श्रीराम भारत की मर्यादा हैं, श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।‘

अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी साफ तौर पर संस्कृति और धर्म को अलग करके देखते हैं। जब वो विदेशों का उदाहरण देते हैं तो ये और भी स्पष्ट होता है, ‘दुनिया में कितने ही देश राम के नाम का वंदन करते हैं, वहां के नागरिक, खुद को श्रीराम से जुड़ा हुआ मानते हैं। विश्व की सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या जिस देश में है, वो है इंडोनेशिया। वहां हमारे देश की ही तरह ‘काकाविन’ रामायण, स्वर्णद्वीप रामायण, योगेश्वर रामायण जैसी कई अनूठी रामायणें हैं। राम आज भी वहां पूजनीय हैं। कंबोडिया में ‘रमकेर’ रामायण है, लाओ में ‘फ्रा लाक फ्रा लाम’ रामायण है, मलेशिया में ‘हिकायत सेरी राम’ तो थाईलैंड में ‘रामाकेन’ है! आपको ईरान और चीन में भी राम के प्रसंग तथा राम कथाओं का विवरण मिलेगा। श्रीलंका में रामायण की कथा जानकी हरण के नाम सुनाई जाती है, और नेपाल का तो राम से आत्मीय संबंध, माता जानकी से जुड़ा है। ऐसे ही दुनिया के और न जाने कितने देश हैं, कितने छोर हैं, जहां की आस्था में या अतीत में, राम किसी न किसी रूप में रचे बसे हैं! आज भी भारत के बाहर दर्जनों ऐसे देश हैं जहां, वहां की भाषा में रामकथा, आज भी प्रचलित है।‘ उनके वक्तव्य के इस अंश के निहितार्थ को अगर समझें तो ये साफ होता है कि राम और राम का चरित्र उन देशों में भी संस्कृति का आधार हैं जिन देशों का धर्म या मजहब अलग है। इस्लाम को मानने वाले देशों में भी राम वहां की संस्कृति के आधार हैं। कहना न होगा कि प्रधानमंत्री ये साफ कर रहे हैं कि किसी का धर्म इस्लाम हो सकता है, कोई ईसाई धर्म में विश्वास रख सकता है लेकिन अगर वो भारत में रहता है तो उसकी संस्कृति राम है। राम को सिर्फ धर्म विशेष से जोड़ना उचित नहीं है वो तो भारत के हर धर्म के लोगों से जुड़े हैं, उनके जीवन में हैं। और यही तो संस्कृति है। कहा भी गया है कि संस्कृति को हम लक्ष्णों से जान सकते हैं, उसको परिभाषित करना जरा मुश्किल है।

यह भी कहा गया है कि संस्कृति वह गुण है जो हम सब में व्याप्त है जबकि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है। तो राम तो हर भारतवासी के अंदर व्याप्त है, अपने अलग अलग रूपों में चाहे वो राम की मर्यादा हो, राम की नीति हो या फिर राम का नाम। दैनिंदिन अभिवादन से लेकर आचार व्यवहार तक में। तभी तो अपने भाषण में मोदी जोर देकर कहते हैं कि ‘जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है, जहां हमारे राम प्रेरणा न देते हों। भारत की ऐसी कोई भावना नहीं है जिसमें प्रभु राम झलकते न हों। भारत की आस्था में राम हैं, भारत के आदर्शों में राम हैं! भारत की दिव्यता में राम हैं, भारत के दर्शन में राम हैं! हजारों साल पहले वाल्मीकि की रामायण में जो राम प्राचीन भारत का पथ प्रदर्शन कर रहे थे, जो राम मध्ययुग में तुलसी, कबीर और नानक के जरिए भारत को बल दे रहे थे, वही राम आजादी की लड़ाई के समय बापू के भजनों में अहिंसा और सत्याग्रह की शक्ति बनकर मौजूद थे! तुलसी के राम सगुण राम हैं, तो नानक और कबीर के राम निर्गुण राम हैं।’ जब वो वाल्मीकि के रामायण से लेकर कबीर के निर्गुण राम तक आते हैं या फिर बापू के राम की बात करते हैं तो वो एक परंपरा को रेखांकित कर रहे होते हैं। वाल्मीकि का राम अलग है जो समय और काल के अनुरुप तुलसी के यहां बहुत अलग दिखाई देता है। यह अकारण नहीं है कि तुलसीदास शम्बूक वध और सीता परित्याग की घटना रामचरित मानस में नहीं लिखते हैं। अलग अलग कालखंड में राम का चरित्र चित्रण इस तरह से हुआ है कि वो समकालीन चुनौतियों से मुठभेड़ करता दिखता है। राम का चरित्र देश काल और परिस्थिति के अनुसार इतना लचीला है कि वो अपने अंदर तमाम तरह के बदलावों को समाहित कर लेता है। अपने युग के धर्म का पालन भी करता है।

राम की व्याप्ति के इतने गवाक्ष खोलकर प्रधानमंत्री ने उनको लोक से जोड़ दिया। जब हम लोक की संस्कृति की बात करते हैं तो हमें रामधारी सिंह दिनकर के एक लेख ‘रेती के फूल’ की पंक्तियां याद पड़ती हैं जिसमें वो कहते हैं कि ‘असल में संस्कृति जिंदगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं। ...संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिनकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। संस्कृति असल में शरीर का नहीं आत्मा का गुण है और सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है।‘  हमारे राम ऐसे ही तो हैं, उनका प्रभावव भी तो हमारे देश में पीढ़ियों से चला आ रहा है। प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद बहुत संभव है कि उन बुद्धिजीवियों के मानस पर वर्षों से जमा वो भ्रम का जाला भी साफ होगा जिसमें वो भारत को विविध संस्कृतियों का देश मानते और बताते रहते हैं। विविध संस्कृतियों का देश बतानेवाले सिद्धातों का निषेध होगा क्योंकि यह तो साफ है कि भारत की संस्कृति तो एक ही है, लेकिन हम इस एक संस्कृति में विविधता का उत्सव मनाते हैं।

Saturday, August 1, 2020

बौद्धिक संपदा को सहेजने का भरोसा

पिछले दिनों सरकार ने नई शिक्षा नीति की घोषणा की। नई शिक्षा नीति में भाषा और कला को लेकर कई उत्साहवर्धक घोषणाएं की गई हैं। इन घोषणाओं में साफ तौर पर यह कहा गया है कि संस्कृति को मजबूत करने के लिए यह आवश्यक है कि भाषा को मजबूती प्रदान की जाए। शब्दकोश से लेकर अनुवाद तक की महत्ता के बारे में बात की गई है। एक और महत्वपूर्ण बात जो इस नई शिक्षा नीति में कही गई है वो ये है कि ‘भारत इसी तरह सभी शास्त्रीय भाषाओं और साहित्य का अध्ययन करनेवाले अपने संस्थानों और विश्वविद्यालयों का विस्तार करेगा और उन हजारो पांडुलिपियों को इकट्ठा करने, संरक्षित करने और अनुवाद करने और उनका अध्ययन करने का मजबूत प्रयास करेगा, जिस पर अभी तक ध्यान नहीं गया है। इसी प्रकार से सभी संस्थानों और विश्वविद्यालयों में जिसमें शास्त्रीय भाषाओं और साहित्य पढ़ाया जा रहा है, उनका विस्तार किया जाएगा। अभी तक उपेक्षित रहे लाखों अभिलेखों के संग्रह, संरक्षण, अनुवाद और अध्ययन के दृढ़ प्रयास किए जाएंगे।‘ इस शिक्षा नीति में यह एक बेहद महत्वपूर्ण प्रयास होगा। हमारे प्राचीन ग्रंथों को सहेजने का प्रयास होना चाहिए। कई बार कई तरह के सर्वेक्षणों में यह बात सामने आ चुकी है कि कि पूरी दुनिया में भारत के पास सबसे अधिक पांडुलिपियां है लेकिन साथ ही ये बात भी सामने आती हैं कि हमारे देश में इन पांडुलिपियों के संरक्षण की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक हमारे देश में इस वक्त दो करोड़ से अधिक पांडुलिपियां हैं जिनको संरक्षित करने की सख्त आवश्यकता है। 
इन पांडुलिपियों को सहेजने की बात नई नहीं है और इस शिक्षा नीति में जो कहा गया है इस तरह के प्रयास पहले भी हो चुके हैं। जब अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने 2002 में पंद्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से ‘राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन’ की घोषणा की थी। सात फरवरी दो हजार तीन को ‘राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन’ की विधिवत शुरुआत की गई थी। मिशन की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक इसकी स्थापना पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय के अधीन की गई थी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को नोडल एजेंसी बनाया गया था। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन ‘भविष्य के लिए अतीत का संरक्षण’ के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। इसके शुभारंभ के मौके पर अटल जी ने भी भाषा को लेकर चिंता जताई थी और कहा था कि ‘चूंकि 70 प्रतिशत पाण्डुलिपियां संस्कृत में हैं अत: इस भाषा के शिक्षण और अध्ययन को और प्रवर्तित करने की आवश्यकता होगी और अनेक संस्थान जो पहले से ही इस क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं उन्हें इस मिशन से जोड़ा जाना होगा और अंतत: पाण्डुलिपियों के निजी अभिरक्षकों को आगे बढ़कर अपनी पाण्डुलिपियां मिशन को सौंप देने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु एक बड़ा जागरूकता अभियान चलाना होगा|’ कुछ इसी तरह की बात नई शिक्षा नीति में भी की गई है। 2003 में स्थापित राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन ने पिछले सत्रह साल में क्या काम किया ये अबतक ज्ञात नहीं हो पाया है। 2004 में एनडीए को पराजय का सामना करना पड़ा लेकिन पांडुलिपि मिशन बन गया था तो चलता रहा लेकिन कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबंधन में इस पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया। मिशन तो किसी काम को पूरा करने के लिए बनाया जाता है और उसकी एक निश्चित समयावधि होती है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का भी कार्यकाल तय था और अब इसको 2021 तक के लिए बढ़ाया गया है।   
पिछले दिनों वाराणसी के दो ऐसे स्थान पर जाने का अवसर मिला जहां हजारों पांडुलिपियां और प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध हैं। पांडुलिपियों को उचित रखरखाव और प्राचीन ग्रंथों को पुनर्प्रकाशित करने की आवश्यकता है। काशी के सपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के पास हजारों दुर्लभ पांडुलिपियां हैं जिनपर काम करने की जरूरत है। उनको अनूदित करके शोधार्थियों या छात्रों के समक्ष लाने की जरूरत है। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन ने इस दिशा में जो प्रयास किया है वो नाकाफी है। सिर्फ बनारस में ही नहीं पूरे देश में जाने कितने पुस्तकालयों में पुरानी पांडुलिपियां पड़ी होंगी, इसका वास्तविक आकलन भी नहीं हो पाया है। सबसे बुरी स्थिति तो उन रजवाड़ों की बताई जा रही है जहां संपत्ति को लेकर विवाद के चलते संपत्तियां अदालतों के आदेश पर सील कर दी गई हैं। इन सील की गई कई संपत्तियों में उन राजघरानों के निजी पुस्तकालय भी हैं। उन पुस्तकालयों में ढेर सारी पांडुलिपियां हैं जो सालों से बगैर देखरेख के नष्ट हो गई हैं या नष्ट हो रही हैं। इसी तरह से देश के अलग अलग हिस्सों के लेखकों के घरों में पांडुलिपियां थीं जो या तो नष्ट हो गईं या नष्ट होने के कगार पर हैं। अगर नई शिक्षा नीति में पांडुलिपियों के प्रकाशन पर ध्यान दिया जाता है तो हम अपनी उन बौद्धिक संपदा को सहेज कर आनेवाली पीढ़ियों के लिए एक बड़ा काम कर पाएंगे। 
सवाल यह भी उठता है कि अभी पांडुलिपि मिशन संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत है लेकिन जब नई शिक्षा नीति में इसपर काम करने की बात की गई है तो क्या ये माना जाए कि पांडुलिपि मिशन अब संस्कृति मंत्रालय से शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत होगा। शिक्षा नीति में तो मोटे तौर पर नीतिगत बातें की गई हैं, उसका क्रियान्वयन कैसे होगा इसपर विस्तृत जानकारी प्रतीक्षित है। अगर सरकार पांडुलिपियों को लेकर गंभीरता से काम करना चाहती है तो उसको पांडुलिपि मिशन को भंग करके राष्ट्रीय पांडुलिपि प्राधिकरण जैसी संस्था का गठन करना होगा। जैसे संस्कृति मंत्रालय ने 2010 में स्मारकों की सुरक्षा और उसके संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्मारक प्रधारिकरण का गठन किया था। अगर ऐसा हो पाता है तो पांडुलिपियों के संरक्षण के कार्य को गति भी मिलेगी और स्थायित्व भी। 
एक और बात इस नई शिक्षा नीति में कही गई है कि ‘भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित प्रत्येक भाषा के लिए अकादमी स्थापित की जाएगी जिसमें हर भाषा के श्रेष्ठ विद्वान एवं मूल रूप से वह भाषा बोलनेवाले लोग शामिल रहेंगे ताकि नवीन अवधारणाओं का सरल किन्तु सटीक शब्द भंडार तय किया जा सके तथा नियमित रूप से नवीन शब्दकोश जारी किया जा सके।... इसी प्रकार व्यापक पैमाने पर बोली जानेवाली अन्य भारतीय भाषाओं की अकादमी केंद्र अथवा/ और राज्य सरकारों द्वारा स्थापित की जाएंगीं।‘ अब ये भी कोई नई बात नहीं है अभी एक साहित्य अकादमी है जो संविधान में उल्लिखित भाषाओं के लिए काम करती हैं और केंद्रीय हिंदी संस्थान शब्दकोश बनाने का काम करता है। पिछले दिनों केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक नंदकिशोर पांडे ने बहुत श्रमपूर्वक शब्दकोश पर काम करवाया और 45 शब्दकोश का प्रकाशन हो गया और छह पर काम चल रहा है। राज्यों में भी भाषाई अकादमियां हैं उनमें से ज्यादातर की हालत बहुत खराब है क्योंकि उनके पास पर्याप्त बजट नहीं है। ये देखना दिलचस्प होगा कि इन अकादमियों का गठन होगा तो साहित्य अकादमी का क्या होगा, केंद्रीय हिंदी संस्थान का क्या होगा, भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर का क्या होगा, केंद्रीय शास्त्रीय तमिल संस्थान, चेन्नई का क्या होगा? क्या सरकार इन संस्थानों के पुनर्गठन की सोच के साथ नई शिक्षा नीति को लेकर आई है। इसमें से कुछ संस्थान तो शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आते हैं लेकिन कई संस्थान संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आते हैं। अगर पुनर्गठन की सोच है तो ये एक अच्छी पहल हो सकती है क्योंकि संस्कृति मंत्रालय की कई ऐसी संस्थाएं हैं जिनको अगर शिक्षा मंत्रालय के साथ कर दिया जाए तो बेहतर होगा।