Translate

Showing posts with label आग. Show all posts
Showing posts with label आग. Show all posts

Sunday, December 8, 2024

मेरा नाम राजू...


दस ग्यारह वर्ष का एक बालक बाग में एयर गन से खेल रहा था। पेड़ पर चिड़ियां चहचहा रही थीं। अचानक बालक ने एयर गन से चिड़ियों की झुंड पर फायर कर दिया। एक बुलबुल पेड़ से नीचे गिरी। उसकी मौत हो चुकी थी। बालक ने उसको प्यार से उठाया। बाग में ही गड्ढा खोदकर बुलबुल को उसमें डालकर मिट्टी से ढंक दिया। फिर कुछ फूल लाकर उसने उस जगह पर रखा। बुलबुल को श्रद्धांजलि दी। साथ खेल रहे भाई बहनों से भी फूल डलवाया। बाद में इस कहानी को उसने बेहद संवेदनशील तरीके से अपने परिवारवालों को सुनाया। मधु जैन ने अपनी पुस्तक में इस घटना का रोचक वर्णन करते हुए लिखा है कि वो बालक मास्टर स्टोरीटेलर राज कपूर था। कहना ना होगा कि राज कपूर में बचपन से ही कहानी कहने का ना केवल शऊर था बल्कि उसमें समय के अनुरूप रोचकता का पुट मिलाने का हुनर भी। वो कहानियों में संवेदना को उभारते थे। राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यमवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आंरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया। किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का आफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसफाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज तो रख लेना, वो बेहद खूबसूरत है। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया।

स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से राज ने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन, कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है। फिल्म बरसात के बाद राज कपूर ने आर के स्टूडियोज की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म आवारा बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि ये भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया। आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी लेकिन राज कपूर किसी वाद की चौहद्दी में नहीं घिरे थे। फिल्म आवारा से लेकर राम तेरी गंगा मैली पर विचार करने के बाद ये लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही। प्रेम पगे दृश्यों के बीच वो भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार भी करते चलते हैं। वो कहते थे कि मेरा पहला काम मनोरंजन करना है। ऐसा करते हुए अगर समाज को कोई संदेश जाता है तो अच्छी बात है। राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरावादी हिंदू हैं। 

राज कपूर ने अपनी फिल्मों में रोमांस का एक ऐसा स्वरूप पेश किया जो मिजाज में तो पश्चिमी था लेकिन उसमें भारतीयता के तत्व भी भरे हुए थे। उन्होंने एक ऐसी शैली विकसित की जिसमें पश्चिम की छाप थी लेकिन वातावरण और सामाजिक प्रतिरोध भारतीय था। आवारा में नर्गिस एक समय में दो पुरुषों से प्यार करती है। एक ऐसी नारी जो सोच और परिधान से पश्चिम से प्रभावित है लेकिन भारतीय वातावरण में रह रही है। इसका नायक भी समाज के तमाम बंधनों से मुक्त है। राज कपूर ने कैमरे की आंख से बाहर निकलकर एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जो दर्शकों को झटके भी दे रहा था लेकिन पसंद भी आ रहा था। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में राज कपूर ने लाइटिंग से दृष्यों को जीवंत किया। रंगीन फिल्मों का दौर आया तो राज कपूर ने इंद्रधनुषी रंगों का बेहतरनी उपयोग करके दर्शकों को बांधने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद की फिल्मों में भी राज कपूर भारतीय जीवन के यथार्थ से टकराते रहे। नर्गिस से उनका रोमांस चरम पर था। देश विदेश में उनके साथ के दौरे चर्चा में रहते थे। 

राज कपूर की जिंदगी और उनकी फिल्मों का रास्ता बदलता है 1960 में। जब वो पद्मिनी को लेकर जिस देश में गंगा बहती है बनाते हैं। यहां से राज कपूर की फिल्मों में नारी देह पर कैमरा फोकस करने लगता है जो राम तेरी गंगा मैली तक निरंतर बढ़ता चला गया। इस बात पर बहस हो सकती है कि राज कपूर की फिल्मों में नारी देह का चित्रण जुगुप्साजनक होता है या सौंदर्य को उद्घाटित करने वाला। 1964 में राज कपूर की फिल्म आती है संगम। इस फिल्म से राज कपूर पूरी तरह से व्यावसायिक राह पर चल पड़े। लेकिन कलाकार मन फिर से दर्शन की ओर लौटने को बेताब था। 1970 में आई फिल्म मेरा नाम जोकर। फिल्म बिल्कुल नहीं चली। राज कपूर पर इस असफलता का गहरा प्रभाव पड़ा। यही वो दौर था जब उनके पिता का अमेरिका में इलाज चल रहा था। राज कपूर डिप्रेशन में तो गए लेकिन टूटे नहीं। पांच वर्ष बाद जब उनकी फिल्म बाबी आई तो उसने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। हिंदी फिल्मों में रोमांस का रास्ता भी बदल दिया। बाबी के बाद की बनी कई फिल्मों में स्वाधीनता के बाद जन्मी पीढ़ी के किशोर और अल्हड़ प्रेम का प्लाट भी अन्य निर्माता निर्देशकों के हाथ लग गया। नारी देह पर घूमने वाला राज कपूर का कैमरा सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत अमान की देह के विभिन्न कोणों पर पहुंचता है लेकिन फिल्म को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। नारी देह दिखाने का राज कपूर का फार्मूला हर फिल्म में नहीं चला। संगम में वैजयंती माला के अंग प्रदर्शन को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन जब मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल की नग्न टांगों को और सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत के उत्तेजक दृष्यों को नकारा। फिर राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी के देह दर्शन ने फिल्म को सफलता दिलाई। 1982 में जब राज ने प्रेम रोग बनाया तो इस फिल्म में सामतंवादी रूड़ियों पर प्रहार तो था लेकिन एक सुंदर प्रेम कहानी भी गढ़ी गई थी।

यहां ये भी ध्यान रखना चाहिए कि राज कपूर ने अपनी और अपने फिल्मों की अलग जगह उस समय बनाई जब महबूब खान और के आसिफ जैसे फिल्मकार फिल्में बना रहे थे। देवानंद, दिलीप कुमार और जुबली कुमार राजेन्द्र कुमार निरंतर सफल हो रहे थे। समाजिक यथार्थ और रोमांस का ऐसा मिश्रण राज कपूर ने तैयार किया जिसमें गीत-संगीत से ऐसी मिठास घोली कि दर्शक चार दशकों तक उसके प्रभाव में रहा। राज कपूर की जन्मशती का उत्सव ग्रेट शौ मैन का स्मरण पर्व भी है।