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Saturday, July 27, 2019

कुंठा को चिंता में बदलने की चतुर चाल


एक हैं मंगलेश डबराल। हिंदी के कवि हैं। जन संस्कृति मंच से गहरे जुड़े रहे हैं। कविता के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है। पुरस्कार वापसी कर चुके हैं। लेकिन रायपुर में एक साहित्यिक कार्यक्रम में जब इनका परिचय साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता कवि के रूप में दिया गया था तो मंच पर बैठे मुस्कुराते रहे थे। इन दिनों कलावादियों के खेमे में भी उपस्थित रहते हैं। अभी उन्होंने लिखा है, हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है, हलांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं क्योंकि उन्हें खूब लिखा जा रहा है। लेकिन हिंदी अब सिर्फ जय श्रीराम और बन्दे मातरम् और मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान जैसी चीजें जीवित हैं। इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है। काश इस भाषा में न जन्मा होता!’ मंगलेश की इस छोटी सी टिप्पणी पर विचार किया जाना आवश्यक है। आवश्यक इसलिए कि वो हिंदी के कवि हैं, हिंदी में लिखते रहे हैं और पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार पाकर, फिर लौटाने का स्टंट करके सुर्खियां बटोर चुके हैं। अब उनका हिंदी को लेकर इस तरह की टिप्पणी करना एक सुचिंतित राजनीति का परिणाम है। इसकी दो तीन वजहें हो सकती हैं। पहली तो ये कि मंगलेश काफी समय से कुछ लिख नहीं पा रहे हैं। अपने ना लिख पाने की कुंठा ने उनको उपरोक्त टिप्पणी लिखने को मजबूर किया होगा। उम्र के इस पड़ाव पर पहुंच जाने, हिंदी के वरिष्ठ कवि होने के विशेषण के बाद हिंदी के पाठकों की यह अपेक्षा तो होती ही है कि वो कविताएं लिखें। जब पाठकों की इस अपेक्षा का बोझ वो नहीं उठा पाए तो वो कुंठित होते चले गए और अपनी इस कुंठा को उन्होंने एक खूबसूरत बहाना का आवरण पहनाया और हिंदी को अपमानित करने और उसको तीन नारों की भाषा घोषित करने की चाल चली। खुद की कुंठा को छिपाने के लिए हिंदी में लिखने को लेकर ग्लानि का एलान कर दिया। अहगर उनको मौजूदा केंद्र सरकार से कोई दिक्कत थी, जयश्रीराम के नारों से तकलीफ है तो उनको कविता लिखकर अपना विरोध दर्ज करवाना चाहिए था।
दूसरी वजह ये हो सकती है कि उन्होंने अपने कलावादी आका के इशारे पर एक नई रणनीति के तहत ये टिप्पणी लिखी हो। इस टिप्पणी को लिखने का जो समय है उसको अगर देखा जाए तो ये वही समय है जब मॉब लिंचिंग को लेकर अपर्णा सेन समेत देश के 49 कलाकारों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक खत लिखा। उसमें भी धर्म के नाम पर हिंसा की बात कही गई है। मंगलेश की टिप्पणी में भी जय श्रीराम, बंदे मातरम् और हिंदू मुसलमान की बात की गई है। तो इन दोनों घटनाओँ में एक साम्य नजर आता है, एक पैटर्न भी। मंगलेश की इन दिनों अशोक वाजपेयी से नजदीकी और उनके प्रकल्पों में काम करने की बात किसी से छुपी नहीं है। 49 कलाकारों के खत का जिस तरह से अशोक वाजपेयी ने स्वागत किया और उसके बाद मंगलेश ने ये टिप्पणी लिखी तो इससे तो साफ है कि वो भाषा को राजनीति का औजार बनाना चाहते हैं। पहाड़ पर लालटेन जलाने वाले मंगलेश को ये नहीं पता कि लालटेन की लौ कब की बुझ चुकी है और उसमें चाहे वो कितना भी और किसी भी प्रकार का तेल डाल लें आग नहीं पैदा कर सकते हैं, प्रकाश की तो बात ही दूर है।
अब आते हैं मंगलेश की टिप्पणी पर जहां वो हिंदी कविता, कहानी और उपन्यास की मृत्यु की घोषणा कर रहे हैं। मृत्यु की इस घोषणा में मंगलेश कई दोष के शिकार हुए हैं। जब वो हिंदी कविता, कहानी और उपन्यास के मृत्यु की घोषणा करते हैं तो लगता है कि समकालीन साहित्य से उऩका सरोकार ही नहीं रहा। संपर्क भी नहीं बचा। और सरोकारहीन और संपर्कहीन समझ के आधार पर निर्णय सुनाने के दोष के शिकार हो रहे हैं। आज हिंदी में युवा और नवोदित वृद्ध लेखकों की पूरी पीढ़ी सृजनरत है और बेहतरीन रचनाएं सामने आ रही हैं। मंगलेश को हो सकता है नहीं पता हो लेकिन अगर लोकप्रियता और बिक्री के लिहाज से देखा जाए तो ये हिंदी के लिए स्वर्णकाल है। अलग अलग क्षेत्रों में हिंदी के लेखकों के लिए नए नए अवसर पैदा हो रहे हैं। देश के अलग अलग हिस्सों में साहित्योत्सव हो रहे हैं और सभी साहित्य उत्सवों में हिंदी और उसको लेखकों की उपस्थिति अनिवार्य होती है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। मंगलेश को हिंदी भाषा को लेकर ग्लानि हो सकती है लेकिन हिंदी के कई बड़े लेखकों को अपनी भाषा पर ना केवल अभिमान है बल्कि वो इनकी समृद्धि के लिए काम भी कर रहे हैं। मंगलेश कहते है कि उनको इस भाषा (हिंदी) में पैदा होने पर भी ग्लानि है। उनकी इस टिप्पणी पर बगैर नाम लिए वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने बहुत सटीक लिखा है, मुझे आज भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत की मां याद आ रही है । उपयोग के बाद अनुपयोगी मां स्टोर रूम में...और कुछ लिए हिंदी भी शायद स्टोर रूम में। कितने सलीके से जनमेजय ने अपनी बात रख दी और मंगलेश पर प्रहार भी कर दिया। दरअसल मंगलेश ने पर्याप्त यश और पैसा हिंदी में लिखकर ही तो कमाया। अभी भी हिंदी में ही लिख रहे हैं, भले ही कविता ना लिख पा रहे हों लेकिन फाउंडेशन आदि के लिए लेखन तो कर ही रहे हैं। अब जब हिंदी से सबकुछ हासिल कर लिया तो उसी हिंदी से प्रचार हासिल करने के लिए उसको ही स्टोर रूम में डालने की जुगत में लग गए। मंगलेश ये भूल गए कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है। अकादमी पुरस्कार लौटाकर प्रचार मिला क्योंकि उन्हें पता था कि साहित्य अकादमी किसी भी कीमत पर एक बार दिए पुरस्कार की ना तो राशि वापस स्वीकार कर सकती है और ना ही स्मृति चिन्ह आदि। इसकी पुष्टि कोर्ट ने भी की थी। यह सब जानते बूझते अकादमी पुरस्कार लौटाया गया था। उस समय भी प्रचार मिला और अब भी सभा गोष्ठियों में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि का यश लूट रहे हैं। यानि दोनों हाथों मे लड्डू।  
दरअसल अगर हम देखें तो मंगलेश ने ये अपनी टिप्पणी एक विशेष राजनीति के तहत की ही है, इसके पीछे उनकी प्रचार पिपासा भी है। सवाल उठेगा कैसे? आइए जरा आपको अतीत में लिए चलते हैं। आपको याद होगा तीन चार साल पहले तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन की कृति मधोरुबगन को लेकर विवाद उठा था। जब वो उपन्यास तमिल में छपा था तो उसको लेकर थोड़ी सुगबुगाहट हुई थी लेकिन जब उसका अंग्रेजी अनुवाद वन पार्ट वूमन के नाम से छपा तो विवाद काफी बढ़ गया था। अपने उस उपन्यास में मुरुगन ने तमिल समाज में व्याप्त लैंगिक और सामाजिक असामनता को कसौटी पर कसा था। उपन्यास के प्रकाशन के चार साल बाद सबसे अधिक विरोध मुरुगन के गांव तिरुचेनगोडे में ही हुआ था। जब विवाद काफी बढ़ गया था तब मुरुगन को पीस कमेटी के दबाव में माफी मांगनी पड़ी थी। उस वक्त मुरुगन ने एक लेखक की मौत की घोषणा की थी। उनके मौत की घोषणा के बाद ये मामला तमिलनाडू से निकलकर पूरे देश में फैल गया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ध्वजा पताका लिए घूमनेवाले लोगों ने 2016 में काफी शोरगुल मचाया था और इसको भी असहिष्णुता से जोड़ने की कोशिश की थी। मुरुगन को पर्याप्त प्रसिद्धि भी मिली थी। अनुवाद का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी देने की घोषणा हुई थी और अब वो लिख भी रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मंगलेश जब हिंदी कविता, कहानी और उपन्यास के मृत्यु की घोषणा कर रहे होंगे तो उनके मन के किसी कोने अंतरे में मुरुगन को मिली प्रसिद्धि की बात रही होगी। ज्यादा प्रसिद्धि की चाहत में वो मुरुगन से भी आगे चले गए और हिंदी की विधाओं के अवसान की घोषणा कर दी। मंगलेश को पता था कि अगर वो एक लेखक की मौत की बात करेंगे तो कोई नोटिस भी नहीं लेगा क्योंकि मुरुगन तो निरंतर लिख रहे थे जबकि मंगलेश का लिखना कब का बंद हो चुका है। उन्होंने अपनी कुंठा के प्रकटीकरण के लिए हिंदी और साहित्य की विधाओं के अंत की घोषणा को चुना। मंगलेश को यह समझना होगा कि इन हथकंडों से ना तो हिंदी ना ही हिंदी कविता, कहानी या उफन्यास का कोई नुकसान होगा। ये सारी विधाएं और हिंदी भाषा बहुत सुरक्षित हाथों में हैं और युवा लेखक इसको बढ़ा ही रहे हैं। अपनी कुंठा निकालने के लिए, प्रचार पाने के लिए, अपने आका को खुश करने के लिए, अपनी विचारधारा की राजनीति चमकाने के लिए युवा लेखकों का अपमान अनुचित है और मंगलेश को इसके लिए उनसे माफी मांगनी चाहिए। जिनको मंगलेश की टिप्पणी में दर्द दिखता है उनको ये समझना होगा कि मंगलेश ने बेहद सधे तरीके से कुंठा को दर्द बनाने की कोशिश की है।   

Saturday, July 20, 2019

पुरस्कार बने राजनीति का औजार!


भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध कई सांस्कृतिक संगठन हैं जो बहुधा विवादों में रहते हैं। ऐसी ही एक संस्था है ललित कला अकादमी जो हमेशा से विवादों में ही रही है। घपले-घोटाले से लेकर अकादमी की पेंटिग्स को बेचने के आरोप वहां से बाहर निकलते रहे हैं। केस मुकदमे भी होते रहे हैं। पिछले संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के कार्यकाल में ललित कला अकादमी को लेकर इतने तरह के फैसले हुए कि अब वहां की क्या स्थिति है, ये किसी को ज्ञात नहीं है। महेश शर्मा के कार्यकाल में अशोक वाजपेयी के ललित कला अकादमी के अध्यक्ष रहते अनियमिततताओं की सीबीआई जांच की सिफारिश की गई थी, पता नहीं उसका क्या हुआ? जांच हुई भी या नहीं। ललित कला अकादमी की पेंटिग्स के गायब होने को लेकर किसी तरह की जांच में कुछ मिला या नहीं? इन बातों की जानकारी सार्वजनिक होनी ही चाहिए, आखिरकार इस तरह की सारी अकादमियां चलती तो करदाताओं के पैसे से ही हैं और करदाताओं को ये जानने का पूरा अधिकार है कि वहां क्या हो रहा है। इसी तरह की एक दूसरी संस्था है संगीत नाटक अकादमी। इस संस्था के मौजूदा अध्यक्ष हैं मशहूर और प्रतिष्ठित कलाकार शेखर सेन। यह अकादमी भी लगातार विवादों में रही है। कभी मेघदूत थिएटर का नाम बदलकर अब्राहम अल्काजी के नाम पर करने की कोशिशों को लेकर। कभी मोदी के धुर विरोधी और चुनावों में मोदी के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान के अगुवा रहे सुनील शॉनबाग को अकादमी पुरस्कार देकर तो कभी अकादमी की सचिव हेलेन आचार्य को उनके पद से हटाने को लेकर। हेलेन आचार्य का मामला तो न्यायालय के विचाराधीन है। इसके अलावा भी वहां कई छोटे मोटे विवाद होते ही रहे हैं। अभी एक बड़ा विवाद संगीत नाटक अकादमी को लेकर फिर से हुआ है। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार को लेकर। कर्नाटक के नाट्य निर्देशक एस रघुनंदन ने संगीत नाटक अकादमी की घोषणा के बाद इसको नहीं लेने का एलान कर दिया। सबसे बड़ी बात है रघुनंदन ने इस पुरस्कार को नहीं लेने की जो वजहें गिनाईं। रघुनंदन ने साफ कहा कि धर्म और भगवान के नाम पर जिस तरह से देश में मॉब लिंचिंग हो रही है उसको देखते हुए वो इस पुरस्कार को ठुकराते हैं। रघुनंदन ने जो लिखा उसमें से जो संदेश निकलता है उसको रेखांकित किए जाने की जरूरत है। रघुनंदन ने साफ तौर पर लिखा है कि संगीत नाटक अकादमी ने पिछले वर्षों में अपनी स्वायत्ता को बचाए रखा है और उसने उनको पुरस्कार के लिए चुना है इसलिए अकादमी का धन्यवाद। रघुनंदन जब अकादमी को धन्यवाद करते हैं तो यह संदेश जाता है कि संगीत नाटक अकादमी ने पुरस्कारों को तय करते वक्त बहुत मेहनत की होगी। उपयुक्त पात्रों के चयन के लिए बहुत मेहनत की होगी। लेकिन इसके पीछे की कहानी बहुत ही विस्मयकारी है। दरअसल संगीत नाटक अकादमी में एक वामपंथी लेखक का बोलबाला है जो बीते लोकसभा चुनाव के पहले मोदी के विरोध में बुद्धिजीवियों के एक वर्ग को एकजुट करने में जुटे थे। अपील बनवाई और उसपर अन्य लोगों के साथ हस्ताक्षर करवाकर उसको जारी भी किया था। मजे की बात कि जब लोकसभा चुनाव में मोदी की ऐतिहासिक जीत हुई तो वही शख्स इस बात का तर्क देता नजर आ रहा था उसने मोदी का विरोध नहीं किया बल्कि उसने तो एक प्रवृत्ति के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश की। सांस्कृतिक गलियारे में तो यहां तक चर्चा है कि उसकी पहुंच प्रधानमंत्री कार्यालय तक है। रघुनंदन को पुरस्कार देने के पीछे भी इस शख्स का ही दिमाग माना जा रहा है। इसके अलावा भी संगीत नाटक अकादमी में एक और शख्स को नामित किया गया जिसकी घोषित प्रतिबद्धता मोदी सरकार के खिलाफ है। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों को लेकर जो बैठकें होती हैं और जो भी सदस्य जिनका भी नाम प्रस्तावित करते हैं उनको सार्वजनिक किया जाना चाहिए। संगीत नाटक अकादमी की वेबसाइट पर प्रस्तावक और कमेटी की अनुशंसाओं को सार्वजनिक करना चाहिए।
2014 में जबसे मोदी की अगुवाई में सरकार बनी तब से ये वामपंथ के अनुयायी इसको प्रचारित करने में जुटे हैं कि मोदी सांस्कृतित संस्थाओं का भगवाकरण करने की कोशिशों में जुटी है। वो इन संस्थाओं में अपने विरोधी विचारधारा के लोगों को बाहर कर अपनी विचारधारा के लोगों को भर रही है। मोदी सरकार पर यह आरोप लगाना भी गलत है कि वो अपने वैचारिक विरोधियों को इन संस्थाओं में स्थान नहीं देती है। स्थान भी देती है, उनको सम्मान भी देती है, उनको प्रस्तावों को मानती भी है और उनके कहने पर पुरस्कार भी देती है। संगीत नाटक अकादमी साल दर साल इस बात को पुष्ट कर रही है। पिछले साल जब सुनील शॉनबाग को पुरस्कार देने का फैसला हुआ था तब भी कुछ लोगों ने इसका विरोध किया था लेकिन संगीत नाटक अकादमी के कर्ताधर्ताओं ने किसी तरह से उस विरोध को दरकिनार करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। उस चक्कर में पुरस्कार की फाइल तत्कालीन संस्कृति मंत्री के यहां लंबे समय तक लंबित भी रही थी।   
जब इस वर्ष के संगीत नाटक अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हुई तो संगीत नाटक अकादमी से लंबे समय से जुड़े और उसको नजदीक से देखनेवाले एक शख्स ने बताया कि अकादमी के पुरस्कारों को इस तरह से तय कि. जाता है ताकि उसमें मौजूदा सरकार को बदनाम करने की गुंजाइश हो। रघुनंदन को पुरस्कार दिलवाना भी उसी षडयंत्र का हिस्सा था। पहले पुरस्कार दिलवाओ फिर उसको वापस करवाकर सरकार की किरकरी करने का अवसर पैदा करो। रघुनंदन के केस में भी तो यही हुआ, रघुनंदन की विचारधारा और उनका स्टैंड सबको पहले से ज्ञात था। उनके पुरस्कार वापसी की घोषणा के बाद एक बार फिर से पुरस्कार वापसी गिरोह सक्रिय हो गया। अशोक वाजपेयी से लेकर नयनतारा सहगल तक ने रघुनंदन के समर्थन में बयान जारी करने में देर नहीं लगाई। अगर गंभीरतापूर्वक इन सबका विश्लेषण किया जाए तो साफ तौर पर लगता है कि इसकी स्क्रिप्ट पहले से लिख ली गई थी और उसके अनुसार ही सबकुछ चरणबद्ध तरीके से घटित हुआ।
रघुनंदन ने जिस तरह से मॉब लिंचिंग को पुरस्कार ठुकराने की वजह बताया उससे तो स्थितियां और साफ हो जाती हैं। एक खास किस्म की विचारधारा के लेखक और पत्रकार जिस तरह से लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से मॉब लिंचिंग को आधार बनाकर राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय मंचों पर अपने लेखन और वक्तव्यों से इस मुद्दे को उठा रहे हैं उसमें एक साम्य नजर आता है। मॉब लिंचिंग एक तरह का अपराध है और उसको धर्म से जोड़ना बिल्कुल गलत है। भीड़ की हिंसा के कई कारक होते हैं और उन कारकों में धर्म कभी कारक रहा हो इसके संकेत नहीं मिले हैं। चौरी-चौरा कांड भी भीड़ की हिंसा का एक उदाहरण है। 1922 में चौरी-चौरा में एक पुलिस स्टेशन को भीड़ ने आग लगा दी थी जिसकी वजह से उसमें मौजूद बाइस पुलिसकर्मी जिंदा जल गए थे। उस हिंसा के खिलाफ गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का एलान कर दिया था। चौरी-चौरा हत्याकांड में धर्म का कोई कोण नहीं था, उसकी अलग वजह थी। बाद में इतिहासकारों ने इन वजहों को विस्तार से व्याख्यित किया और इस निश्कर्ष पर पहुंचे कि भीड़ की हिंसा के कई सामाजिक कारक होते हैं, एक नहीं। इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचनेवालों में वामपंथी इतिहासकार भी शामिल थे लेकिन अब जिस तरह से भीड़ की हिंसा को लेकर बातें कही जा रही हैं उसमें सामाजिक कारणों की पड़ताल करने की कोशिश कम, सरकार को बदनाम करने की कोशिश ज्यादा दिखाई देती है। भीड़ का कोई धर्म नहीं होता। आपको याद दिला दें कि कुछ साल पहले नगालैंड में बालात्कार के आरोप में एक शख्स को जेल से निकालकर भीड़ ने बेरहमी से कत्ल कर दिया था। इसके बाद आगरा में भी एक लड़के को छेड़खानी के आरोप में पीट पीट कर मार डाला गया था। दिल्ली में भी ऐसी वारदातें हुई जहां भीड़ ने हिंसा में लोग मारे गए। दिल्ली की घटना को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की तरह देखा नहीं गया, देखा भी नहीं जाना चाहिए क्योंकि पहले ही कहा गया है कि भीड़ धर्म या जाति देखकर इस तरह का कृत्य नहीं करती है।
दरअसल संगीत नाटक अकादमी या ललित कला अकादमी में स्वायत्तता के नाम पर पूर्व में इतने तरह के घपले हुए हैं कि उसको समझ पाना आसान नहीं है। इन संस्थाओं में वामपंथी विचारधारा की जड़ें इतनी गही हैं कि वो इस तरह की बातें फैलाते हैं कि वामपंथ से इतर विचारधारा के लोगों के पास योग्य लेखक, कलाकार आदि हैं ही नहीं। इसी तर्क की आड़ में और स्वायतत्ता से मिली ताकत को अपनी राजनीति का औजार बनाकर कुछ लोग अपना खेल कर जाते हैं और जब खेल हो जाता है तब खामोशी ओढ़ लेते हैं। इन संस्थाओं के क्रियाकलापों में पारदर्शिता लाने और राजनीति के औजार के तौर पर इस्तेमाल करने पर तत्काल रोक लगाए जाने की आवश्यकता है।  

Saturday, July 13, 2019

फूहड़ता की चपेट में व्यंग्य लेखन


कुछ वर्ष पहले की बात है, शायद 2017 की, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी के सर्वाधिक समादृत लेखकों में से एक नरेन्द्र कोहली जी का साक्षात्कार का अवसर मिला था। वो साक्षात्कार कोहली जी के समग्र लेखन पर था, लिहाजा मुझे ये छूट मिल गई थी कि मैं प्रश्नों को अपने मन मुताबिक बना सकूं। उनके बातचीत करने के पहले लगभग सप्ताह भर मैंने उनके लेखन को लेकर शोद किया था, उनके लेख आदि पढ़े थे। लगभग घंटे भर के उस साक्षात्कार में मैने उनसे बेहद संकोच के साथ पहला प्रश्न किया था। प्रश्न उनके व्यंग्य लेखन से जुड़ा था। मैंने जानना चाहा था कि जब दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उनके जुड़वां बच्चों में से एक की मृत्यु हो गई थी, वो और उनका पूरा परिवार अवसादग्रस्त था तो ऐसे में उन्होंने व्यंग्य लेखन की शुरूआत कैसे की। कोहली जी ने तब कहा था कि जब मेरा बच्चा बीमार हो, अस्पताल में डॉक्टर उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहे हों, अस्पताल में प्रधानमंत्री आ जाए और आप अंदर घुस नहीं सकते हो और आपका बच्चा मरनेवाला हो तो उस समय जो मन में कड़वाहट होती है, जो आक्रोश होता है, जो कटाक्ष है वो सिवाए व्यंग्य के कहां प्रकट हो सकता है। अस्पताल के प्रति, सिस्टम के प्रति, प्रधानमंत्री के प्रति कटुता तो व्यंग्य में ही आएगी, इसलिए मैंने वहीं से व्यंग्य लिखना शुरू किया। एक स्थिति कोहली जी की है जहां सिस्टम के खिलाफ उनका आक्रोश उनकी व्यंग्य रचनाओं में आता है। एक दूसरी आज के व्यंग्य लेखन का परिदृष्य है, जहां आपको सिस्टम के खिलाफ आक्रोश लगभग नहीं के बराबर दिखता है। व्यंग्य के नाम पर जिस तरह की फूहड़ता देखने को मिल रही है वो इस विधा के होने पर ही सवाल खड़े कर रही है। व्यंग्य लेखन और चुटकुला लेखन का भेद लगभग मिट गया है। ज्यादातर व्यंग्य लेखक फूहड़ता और चुटकुलेबाजी में इस कदर लीन हैं कि उनको इस बात का भान ही नहीं हो रहा है कि वो हिंदी की एक विधा का आधारभूक स्वभाव ही बदल दे रहे हैं। यह गहन शोध की मांग करता है कि व्यंग्य लेखन कब और किन परिस्थितियों में चुटकुला लेखन बन गया। हास्य और व्यंग्य के बीच एक बहुत ही बारीक रेखा हुआ करती थी लेकिन ये बारीक रेखा कब और कैसे मिट गई इसपर विचार करना होगा। पहले हास्य और व्यंग्य कहा जाता था लेकिन धीरे-धीरे हास्य-व्यंग्य हो गया। अब ये सायास हुआ या अनायास, इसपर व्यंग्य विधा से जुड़े लेखकों को और फिर आलोचकों को विचार करना चाहिए। मंथन होगा तो उससे कुछ सूत्र निकल कर सामने आएंगें।
हम अगर इसर विचार करें तो यह पाते हैं कि व्यंग्य लेखन में फूहड़ता का प्रवेश इसके सार्वजनिक मंचन या वाचन से मजबूती पाता है। व्यंग्य के नाम पर इस मंच से इस तरह की रचनाओं का वाचन होता है जो इसको हास्य या चुटकला बना देता है। मंचीय व्यंग्यकारों के सामने ये चुनौती होती है कि वो श्रोताओं को बांधकर रखें। श्रोताओं को बांधकर रखने का दबाव और लेखक की फौरन लोकप्रिय होने की चाहत उसको फूहड़ता की ओर ले जाती है। व्यंग्य के नाम पर फूहड़ता की इस विधा का विकास कालांतर में स्टैंडअप कॉमेडी के लोकप्रिय होते जाने से भी हुआ। जिस तरह की भाषा और जिस तरह की जुमलेबाजी कॉमेडियन करते हैं वो कभी-कभी तो बेहद अश्लील या द्विअर्थी होती है । मंचन का आयोजन करनेवालों को इसका एक फायदा यह मिलता है कि दर्शकों को मजा आता है और दर्शक उनको सुनने के लिए रुके रहते हैं। हाल के दिनों में इस तरह के स्टैंडअप कलाकारों को यूट्यूब पर जिस तरह की सफलता मिल रही है वो भी व्यंग्य विधा के सामने एक चुनौती की तरह खड़ी है। व्यंग्य जब लेखन से उठकर मंचन तक पहुंचा तो उसमें ह्रास दिखाई दिया। अब उससे आगे जाकर जब टीवी पर शोज होने लगे तो इसमें और भी गिरावट या मिलावट देखने को मिली। इनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी लोकप्रियता को बनाए रखने की होती है। पिछले दो तीन सालों से कमेडी शोज का जोर समाज में बढ़ा है, इनके दर्शक बढ़े हैं। । इन कॉमेडी शोज की बदौलत ही मनोरंजन की दुनिया को कपिल शर्मा और सुनील ग्रोवर जैसा स्टार मिला। इन्हीं कमेडी शोज में एक और प्रवृत्ति देखने को मिली। वो प्रवृत्ति है कि पुरुषों को महिला के किरदार में पेश करने की। कपिल शर्मा के शो में तो सुनील ग्रोवर,किक्कू शारदा और अली असगर को महिला पात्रों के तौर पर पेश किया जाता है। अब इसपर विचार किया जाए कि क्यों पुरुषों को महिलाओं के तौर पर पेश किया जाता है? इसके पीछे की मंशा क्या हो सकती है? क्या इनके माध्यम से फूहड़ता को पेश करने में निर्माताओं को सहूलियत होती है? क्या इनके मुंह से अश्लील या फिर द्विअर्थी बातें कहवाने से आसोचना से बचा जा सकता है? अगर इन शोज के कई एपिसोड को देखें तो कुछ ऐसा ही लगता है। जिस तरह से महिला पात्र बने ये पुरुष शोज पर आनेवाली महिलाओं से बात करते हैं या इनकी जो अदाएं होती हैं वो कोई अभिनेत्री निभाती तो उसपर आपत्ति हो सकती थीं। जिस तरह से ये पात्र पुरुष और महिला मेहमानों को आलिंगबद्ध करते हैं या फिर उनके साथ फ्लर्ट करते हैं उसमें सब कुछ छुप सा जाता है। महिला बनी अभिनेताओं की आड़ में इस ओर किसी का ध्यान जाता ही नहीं। इन कॉमेडी शोज में जिस तरह से इन चरित्रों के माध्यम से महिलाओं का व्यवहार दर्शकों के सामने पेश किया जाता है, जिस तरह से इनके चरित्र का चित्रण होता है उसपर किसी महिला संगठन ने आज तक आपत्ति जताई हो ये ज्ञात नहीं हो सका है। महिला अधिकारों का झंडा-डंडा लेकर चलनेवाली एक्टिविस्टों ने भी कभी महिलाओं के इस तरह के चित्रण पर आपत्ति नहीं उठाई। क्या ये माना जाए कि महिलाओं के इस पुरुषोचित चित्रण पर उनका ध्यान नहीं गया या फिर वो जानबूझकर खामोश हैं। इस तरह के पात्रों की लोकप्रियता से कितना नुकसान होता है इसपर ध्यान देने की जरूरत है। तर्क यह दिया जा सकता है कि हमारे लोक में इस तरह की रीति पहले से चली आ रही है। बिहार और पूर्व उत्त्कर प्रदेश के कुछ इलाकों में लड़कों के लड़कियों का वेश धरकर नाचने-गाने का प्रचलन काफी पुराना है। कई पुस्तकों में भी इस तरह के चरित्रों का उल्लेख मिलता है। बिहार के एक मुख्यमंत्री को इस तरह के पात्रों का नृत्य बहुत पसंद आता था। उनकी रैली से लेकर उनकी सभा तक में इनका नृत्य होता ही था। खैर ये एक अलग प्रसंग है जिसपर कभी विस्तार से चर्चा होगी। हम बात कर रहे थे कि व्यंग्य विधा के चुटकुले में तब्दील हो जाने की।
विधागत ह्रास की यह प्रवृत्ति बेहद चिंता की बात है। उपरोक्त कुछ वजहों के अलावा भी इसके अन्य कारण हैं जो व्यंग्य की पहचान खत्म कर रहे हैं। जिस तरह का व्यंग्य लेखन इन दिनों हो रहा है और गंभीर व्यंग्यकार उसको ना केवल देख रहे हैं बल्कि बढ़ावा दे रहे हैं वो भी बहुत हद तक व्यंग्य विधा के लिए नुकसानदायक ही है। व्यंग्य को हास्य बना देने का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि इसके आलोचक भी धीरे-धीरे कम होते चले गए। व्यंग्य आलोचना के नाम पर एक तीन-चार नाम ही याद आते हैं। उनमें से भी कुछ तो बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहने के लिए जाने जाते हैं। बिगाड़ का जो डर है न वो भी एक बहुत महत्वपूर्ण कारक है। यह प्रवृत्ति अन्य विधाओं में भी उपस्थित है लेकिन व्यंग्य के आलोचकों के बीच बहुत मजबूती के साथ इसकी उपस्थिति व्यंग्य को सही रास्ते पर आने की राह में बाधा बनकर खड़ी हो जा रही है। कहानी, कविता, उपन्यास में भी आलोचक कम हो गए हैं लेकिन अब भी वहां कुछ लोग ऐसे हैं बचे हैं जिन्हें बिगाड़ का डर नहीं लगता और वो सच्ची बात कहने में हिचकते नहीं हैं। इसका एक फायदा यह होता है कि लेखक सतर्क रहते हैं और हल्का-फुल्का लिखने के पहले उनके मन में ये चलता रहता है कि उनकी रचनाओं को आलोचना की कसौटी पर कसा जाएगा। व्यंग्य लेखकों के चेतन या अवचेतन मन में ये नहीं चलता होगा क्योंकि वहां इस तरह की परंपरा बची नहीं कि कोई उनकी रचनाओं को आलोचना की कसौटी पर कसेगा। उनके लिए तो फेसबुक पर चंद लाइक्स, किसी गोष्ठी में चंद तालियां और किसी कॉमेडी शो में वाह-वाह की गूंज ही काफी है। आज इस बात की जरूत है कि व्यंग्य विधा से जुड़े लोग इन कारणों पर मंथन करे, साहित्य समाज में इसपर चर्चा हो और इस विधा को फूहड़ता से बताने का कोई रास्ता तलाशा जाए।  
      

Saturday, July 6, 2019

रचनात्मकता की आड़ में फेक नैरेटिव


पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान और उसके पहले भी देश ने देखा कि किस तरह से साहित्य, कला और संस्कृति की दुनिया के कई लेखक, कलाकार और फिल्मकार आदि ने अपनी सृजनात्मकता का उपयोग राजनीति के लिए किया। दलितों, अल्पसंख्यकों के अधिकारों और राष्ट्रवाद की भ्रामक परिभाषाओं के आधार पर एक अलग तरह का नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के क्रियाकलापों को कट्टरता से जोड़कर एक भयावह तस्वीर पेश करने की कोशिश की गई। जनता ने इन कोशिशों को नकार दिया। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रित गठबंधन को भारी बहुमत से सत्ता सौंप दी। लेकिन फेक नैरेटिव खड़ा करने और उसके आधार पर जनता के मन को प्रभावित करने का खेल अब भी जारी है। आश्चर्य की बात है कि इस तरह के नैरेटिव को खड़ा करने में एक बार फिर से वही ताकतें सक्रिय हैं जो चुनाव पूर्व सक्रिय थीं यानि कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े लोग। मोदी की जीत के बाद एक वेब सीरीज आया है जिसका नाम है लैला। ये सीरीज लेखक प्रयाग अकबर के उपन्यास पर आधारित है। इसके छह एपिसोड को देखने के बाद साफ तौर पर इस बात को रेखांकित किया जा सकता है कि ये हिंदुओं के धर्म और उनकी संस्कृति की कथित भयावहता को दिखाने के उद्देश्य से बनाई गई है। इस वेब सीरीज का निर्देशन दीपा मेहता ने किया है। इसमें चालीस साल बाद हिंदुओं की काल्पनिक कट्टरता को उभारने की कोशिश करते हुए परोक्ष रूप से एक नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश की जा रही है। भविष्य के भारत की जो तस्वीर दिखाई गई है उसमें हिन्दुस्तान नहीं होगा, उसकी जगह आर्यावर्त होगा। वहां राष्ट्रपिता बापू नहीं होंगे बल्कि एक आधुनिक सा दिखने वाला शख्स जोशी उस राष्ट्र का भाग्य- विधाता होता है। आर्यावर्त के लोगों की पहचान उनके हाथ पर लगे चिप से होगी। लोग एक दूसरे को जय आर्यावर्त कहकर अभिभावदन करेंगे। यहां दूसरे धर्म के लोगों के लिए जगह नहीं होगी। कुल मिलाकर एक ऐसी तस्वीर रची गई है जो ये साफ तौर पर बताती है कि भविष्य का भारत हिंदू राष्ट्र होगा जहां धर्म का राज होगा। एक आदमी की मर्जी से कानून चलेगा। उसकी अपनी पुलिस होगी, उसका अफना प्रशासन होगा।
कहानी यहीं नहीं रुकती है वो बहुत आगे तक चली जाती है। वेब सीरीज में यह दिखाय गया है कि आर्यावर्त में अगर कोई हिंदू लड़की किसी मुसलमान लड़के से शादी कर लेती है तो उसके पति की हत्या कर लड़की को आर्यावर्त के शुद्धिकरण केंद्र ले जाया जाएगा। अब इस शुद्धिकरण केंद्र का जो घिनौना चित्रण किया गया है उसके बारे में जान लीजिए। वहां ले जानेवाली महिलाओं को नारकीय जीवन जीना पड़ता है। उनको बेहोशी की दवा दी जाती है, बदबूदार और गंदा पानी पीना भी पड़ता है और उसमें ही नहाना भी होता है। इसमें पानी की कमी की बात को भी उठाया गया है लेकिन लगता नहीं है कि उसको दिखाने में इसके निर्माता-निर्देशक की कोई रुचि है। पानी की समस्या की भयावहता को बहुत हल्के तरीके से इसमें पेश किया गया है। शुद्धिकरण की प्रक्रिया के तहत महिलाओँ को पुरुषों के खाए जूठे पत्तलों पर अपमानजनक तरीके से रेंगना पड़ता है। शुद्धिकरण की प्रक्रिया को नहीं माननेवाली लड़कियों को आर्यावर्त की गुरू मां जो कि एक पुरुष है, गैस चैंबर में डालकर मार डालता है। अब इन सारे प्रतीकों को अगर हम अलग अलग तरीके से विश्लेषित करते हैं तो हमें इसको बनानेवालों की मंशा साफ समझ आ जाती है। हिटलर अपने विरोधियों को गैस चैंबर में डालकर मारता था। मौजूदा भारतीय राजनीति में हिटलर और उसकी तानाशाही जैसे शब्द बहुधा सुनने को मिलते हैं। इसके अलावा आर्यावर्त में एक पवित्र पलटन भी होता है जो शुद्धिकरण के काम में लगा होता है। एक और भयावह तस्वीर दिखाई गई है जिसमें हिंदू लड़की और मुसलमान लड़के से पैदा हुए संतान को मिश्रित कहा जाता है और उसको भी उसकी मां से अलग रखकर आर्यावर्त के संस्कारों में संस्कारित किया जाता है। शुद्धिकरण, पवित्रता और संस्कार तो इसका केंद्रीय थीम है लेकिन तब ये घृणित हो जाता है जब आर्यावर्त की मिलीभगत से इस तरह के बच्चों को बेचने का धंधा भी दिखाया जाता है। बच्चों की खरीद फरोख्त का ये रैकेट भी धर्म के नाम और उसकी आड़ में ही चलता है। वहां मिश्रित बच्चों का पूरा डाटा बैंक होता है जहां जाकर ग्राहक अपनी पसंद और शक्ल के बच्चे को खरीद कर ले जा सकते हैं।
धर्म के अलावा यहां जातिगत भेदभाव को इस तरह से उभारा गया है कि सामाजिक विद्वेष बढ़े और इसको देखकर लोगों के मन में ये प्रश्न उठे कि क्या भविष्य के भारत का समाज ऐसा ही होगा ? वेब सीरीज में आर्यावर्त की भौगोलिक चौहद्दी तो नहीं बताई गई है लेकिन आर्यावर्त में रहनेवाली आबादी और उसके बाहर की आबादी के बीच एक बेहद ऊंची दीवार होती है। आर्यावर्त के बाहर की बस्तियों को बेहद गंदा और खराब हालात में दिखाया गया है जो कूड़े के ढेर और उसके आसपास बसा होता है। यहां रहनेवाले लोग आर्यावर्त के अंदर नहीं जा सकते हैं। आर्यावर्त में रहनेवालों को लेकर इनके मन में नफरत भी है लेकिन कमजोर होने की वजह से कुछ कर नहीं पाते हैं। मौका-बेमौका आर्यावर्त के शासक इन बस्तियों पर ड्रोन से गोलियां भी बरसाता है। ये सब ऐसे बिंदु हैं जो बहुत ही शातिर तरीके से हिंदुत्व को बदनाम करने के लिए, उसको कट्टर बताने के लिए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को बदनाम करने की मंशा से तैयार किए गए हैं। ये इस वेब सीरीज के संवादों से साफ भी होता है। एक जगह गंदी बस्ती में एक संवाद है जिसमें एक व्यक्ति कहता है कि बहुत गंदगी है तो दूसरा कहता है कि गंदगी में ही तो कमल खिलता है। संदेश साफ है। परोक्ष रूप से यह बताया गया है कि नीची जाति के लोग गंदी बस्तियों में रहने के लिए ही अभिशप्त हैं।
लैला सीरीज को तीन लोगों ने मिलकर निर्देशित किया है जिसमें दीपा मेहता का नाम पहले नंबर पर है। अब दीपा मेहता की प्राथमिकताएं और उनकी सोच पूरी दुनिया को पहले से ज्ञात है। वाटर फिल्म में भी उन्होंने इसी तरह का काम किया था। उसके पात्रों का नाम भी चुन चुनकर रखा गया था जिससे कि वो एक संदेऎश दे सकें। नायक का नाम भी नारायण था। अब अगर हम इस टोली को देखें तो इनके मंसबे बहुत खतरनाक नजर आते हैं। वाटर फिल्म से जुड़े अनुराग कश्यप इसी टोली के सदस्य हैं। उनकी फिल्म मुक्काबाज में भी एक संवाद है कि वो आएंगें, भारत माता की जय बोलेंगे और तुम्हारी हत्या कर देगें। जब ये संवाद बोला जाता है तो इसका कोई संदर्भ है नहीं, संदर्भहीन तरीके से नारेबाजी की शक्ल में ये बात आती है और फिल्म आगे बढ़ जाती है लेकिन दर्शकों को तो आपने संदेश दे दिया कि भारत माता की जय बोलनेवाले हत्या करते हैं। यह एक फेक नैरेटिव खड़ा करने की कोशिश है। फेक नेरैटिव को मजबूत करने के लिए फिल्मों और वेब सीरीज का सहारा लिया जा रहा है। फिल्में और वेब सीरीज राजनीतिक टूल बनते जा रहे हैं। चूंकि वेब सीरीज के लिए किसी तरह का कोई नियमन नहीं है लिहाजा वहां बहुत स्वतंत्र होकर अपनी राजनीति चमकाने या अपनी राजनीति को पुष्ट करनेवाली विचारधारा को दिखाने का अवसर उपलब्ध है। यह तब और स्पष्ट होता है जब आर्यावर्त के नापाक मंसूबों से टकराने वालों को विद्रोही कहा जाता है। यहां भी विद्रोही के मार्फत किन लोगों को चित्रित किया गया है वो भी साफ है। हिंदुत्व की राजनीति करनेवालों का चित्रण और विद्रोहियों के चित्रण से इस वेब सीरीज की मार्फत होनेवाली राजनीति साफ हो जाती है। विद्रोहियों को समाज के हाशिए पर रहनेवाले लोगों की आवाज और हिंदुत्व की बात करनेवालों को नफरत का सौदागर बताकर साफ संदेश दिया गया है।
वेब सीरीज या फिल्मों के माध्यम से जो फेक नैरेटिव खड़ा करने की कोशिशें हो रही हैं उसका रचनात्मक प्रतिकार जरूरी है। आज जरूरत इस बात की है कि समय और समाज का सही चित्रण करनेवाली फिल्में आएं जो सही परिप्रेक्ष्य में अपनी बातें रखें। रचनात्मकता के इस प्रदेश में सेंसरशिप नहीं होनी चाहिए बल्कि सकारात्मक चीजों को सामने रखने की कोशिश होनी चाहिए। बड़ी लकीर खींचनी चाहिए। अगर लैला के माध्यम से हिंदू धर्म का काल्पनिक चित्रण हो रहा है तो किसी और वेब सीरीज के माध्यम से उसका यथार्थ चित्रण भी होना चाहिए जिसमें महिमामंडन की बजाए उन पक्षों पर बात हो जिसमें सबके कल्याण की बात है।


Thursday, July 4, 2019

हिंदी विभागों में रचनात्मक लेखन


हिंदी के मशहूर कथाकार और साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादक राजेन्द्र यादव हमेशा कहा करते थे कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग प्रतिभाओं की कब्रगाह हैं।  उनकी इस भावना का हिंदी के कई साहित्यकार समर्थन भी करते रहे हैं। यादव जी कहा करते थे कि विश्वविद्यालय और कॉलेजों के हिंदी विभागों में रचनात्मक लेखन करनेवाले लोग कम होते जा रहे हैं और जो हैं वो भी बेहद शास्त्रीय किस्म का लेखन कर रहे हैं। हो सकता है ऐसा कहने के लिए उनके पास अपनी वजहें हों लेकिन उनके वक्तव्य के पहले भी और बाद में भी कम से कम दिल्ली विश्वविद्लय के हिंदी विभाग से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों के हिंदी विभागों में भी कई रचनात्मक लेखक हुए। एक दौर था जब दिल्ली के जाकिर हुसैन कॉलेज के हिंदी विभाग में गंगाप्रसाद विमल, सुधीश पचौरी, कमलकिशोर गोयनका और प्रताप सहगल जैसे लेखक शिक्षण कार्य कर रहे थे। उसी कॉलेज के अंग्रेजी विभाग में भीष्म साहनी भी पढ़ाते थे। नरेन्द्र कोहली जैसे हिंदी के शीर्ष लेखक भी दिल्ली विश्वविदयालय के कॉलेज के हिंदी विभाग में पढ़ा चुके हैं। यह सूची बहुत लंबी है। मौजूदा दौर में भी दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों के हिंदी विभागों में कई लेखक हैं। इनमें से कुछ लेखकों की कृतियां तो इतनी लोकप्रिय हैं कि वो दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में भी शामिल हो चुकी हैं।
दिल्ली के देशबंधु कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर संजीव कुमार हिंदी की युवा पीढ़ी के शीर्ष आलोचकों में शुमार किए जाते हैं। उन्होंने कहानी पर कई अच्छी आलोचनात्मक टिप्पणियां लिखी हैं। संजीव कुमार ने अनुवाद का काम भी किया है। संजीव कुमार ने कहानी भी लिखी है। उनको आलोचना के लिए दिया जानेवाले प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी सम्मान भी मिल चुका है। संजीव कुमार ने जैनेन्द्र और अज्ञेय का सृजनात्मक मूल्यांकन भी किया है। संजीव कुमार की अभी हाल ही में कहानी आलोचना पर एक किताब भी आई है।
जाकिर हुसैन इवनिंग कॉलेज में हिंदी के चर्चित लेखक प्रभात रंजन भी हिंदी पढ़ाते हैं। मनोहर श्याम जोशी पर अभी प्रभात रंजन की संस्मरणात्मक पुस्तक पालतू बोहेमियन प्रकाशित होकर चर्चित हो रही है। इसके पहले प्रभात रंजन ने मुजफ्फरपुर की बाइयों को केंद्र में रखकर कोठागोई ने नाम से एक औपन्यासिक कृति की रचना की थी। प्रभात रंजन जमकर अनुवाद भी करते हैं। उनकी अनूदित पुस्तक आई डू व्हाट आई डू, जिसके लेखक रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन हैं, दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की अनुवाद श्रेणी में अपना स्थान बना चुकी है।
दिल्ली विश्वविद्लय के सत्यवती कॉलेज में हिंदी के शिक्षक प्रवीण कुमार ने अपनी रचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप किया है। उनकी कृति छबीला रंगबाज का शहर दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की कथा श्रेणी में अपना स्थान बना चुकी है। उनकी इस कृति की खूब चर्चा भी हुई थी। मशहूर कथाकार काशीनाथ सिंह ने इसपर लिखा था-दूसरे शहर झख मारें बिहार के इस अलबेले छबीला रंगबाज के शहर के आगे, इसे लंबी कहानी कहूं या लघु उपन्यास, जितना ही जबरदस्त है उतना ही मस्त
इसी तरह किरोड़ीमल कॉलेज में हिंदी विभाग से संबद्ध प्रज्ञा ने भी हाल के दिनों में एक कहानीकार के तौर पर अपनी पहचान बनाई है। उनकी कहानी मन्नत टेलर्स को पाठकों ने खूब सराहा। इसी नाम से उनका एक कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। दिल्ली विश्वविद्यालय के ही श्रद्धानंद कॉलेज के हिंदी विभाग में कार्यरत उमाशंकर चौधरी ने भी अपनी कहानियों से हिंदी जगत का ध्यान अपनी ओर खींचा। उनका हाल ही में एक उपन्यास आया है, अंधेरा कोना। बिहार की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस उपन्यास को लेकर पाठकों में उत्सुकता है।       

गुम हुए दिल्ली के जंगल और कुंए?


दिविक रमेश दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में हिंदी के शिक्षक रहे और वहीं प्राचार्य के पद से रिटायर हुए। उन्होंने कविताएं और कहानियां लिखी हैं। वो तीन साल तक दक्षिण कोरिया में हिंदी के विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे हैं। उनको बाल साहित्य के लिए साहित्य अकादमी के पुरस्कार से सम्मानित भी किया जा चुका है। उन्होंने अपनी यादें मेरे साथ साझा की। 
मेरा जन्म आजादी के एक साल पहले दिल्ली के एक गांव किराड़ी में हुआ, जिसका पूरा नाम किराड़ी सुलेमाननगर है। मेरा गांव नांगलोई से और आगे जाकर मुंडका के पास है। मुझे अभी भी याद है कि अपना सबसे पहला स्कूल, जिसकी कक्षाएं चौपाल पर लगा करती थीं। कभी बारिश आ जाए या फिर कभी गांव में कोई बारात आ जाए तो हमें चौपाल छोड़कर पेड़ के नीचे जाकर पढ़ाई करनी होती थी। मैंने पांचवीं तक की पढ़ाई चौपाल के स्कूल से की। आगे की पढ़ाई के लिए हमें नांगलोई जाना पड़ता था जो कि हमारे गांव से काफी दूर था और पूरा इलाका सुनसान भी रहता था। हमारे गांव से नांगलोई तक खेत ही खेत थे। आबादी बिल्कुल नहीं थी। नांगलोई में भी बड़े जंगल थे। हर रोज इतनी दूर जाने की तकलीफ देखकर मेरे पिता ने मुझे आगे की पढ़ाई के लिए मेरे ननिहाल देवनगर भेज दिया। देवनगर, करोलबाग का एक इलाका है। मैंने वहां के सरकारी स्कूल में एडमिशन ले लिया। तब हम किराड़ी को दिल्ली नहीं गांव बोलते थे, दिल्ली तो हमारे लिए करोलबाग था। जब मैं हायर सेकेंडरी की पढ़ाई देवनगर में करने लगा तो छुट्टियों में या सप्ताहांत में गांव जाता था। किशनगंज से ट्रेन से नांगलोई तक जाता था और फिर नांगलोई से पैदल ही किराड़ी तक जाना होता था। नांगलोई से किराड़ी के बीच इतना खाली था कि दिन में जाने में भी डर लगता था, उसपर से हिदायत थी कि अगर कोई साया दिखाई दे तो रुकना नहीं। कुंए पर पानी पीने तभी रुकना जब कोई और व्यक्ति वहां मिले। जाहिर तौर पर भूत के डर से सहमे हुए पूरा रास्ता तय करते थे। बाद में इस एहसास पर मैंने कविताओं की एक ऋंखला लिखी। ये बात 1960 के आसपास की है।
जब मैं करोलबाग आया था तब वो बिल्कुल मोहल्ले जैसा था। ऊंची इमारतें तो थीं नहीं, सभी एक या दो मजिंले घर थे। घरों में बिजली और पानी के कनेक्शन मेरे सामने आने शुरू हुए थे। मेरे नाना के घर में तो बिजली भी मेरे गांव से वहां शिफ्ट होने के बाद आई। मेरे दो मामा थे और दोनों नौकरी करते थे। वो दोनों मुझे एक-एक रुपया महीना जेबखर्च देते थे। तब दो रुपए बहुत होते थे। मैं उन पैसों से सिनेमा देखने चला जाता था। हमारे घर के पास लिबर्टी सिनेमा हॉल था। तब वो बेहद साधारण सा हुआ करता था। इसके अलावा आनंद पर्वत में डिफेंस सिनेमा होता था जो डिफेंस वालों का था। वहां सस्ते में फिल्में देखने को मिलती थीं, इस वजह से हमलोग लिबर्टी से ज्यादा डिफेंस सिनेमा ही जाया करते थे। वहां टिकट लेने के लिए कतार में खड़े होकर पहले हाथों पर मुहर लगवानी पड़ती थी। उस मुहर को देखने के बाद ही सिनेमा का टिकट दिया जाता था। पहले तो चोरी छिपे फिल्में देखता था लेकिन जब नौकरी करने लगा तो आराम से जाकर देख आता था। इसके अलावा देवनगर के चौराहों पर नियमित कवि सम्मेलन हुआ करते थे, उसको भी  सुना करता था। लालकिले पर होनेवाले कवि सम्मेलन को देखने पैदल ही देवनगर से लालकिला तक पहुंच जाया करता था। कवि सम्मेलन खत्म होने के बाद पैदल ही घर वापस लौटता था। उन कवि सम्मेलनों में बालकवि बैरागी जैसे बड़े कवियों के अलावा नवोदित मंचीय कवि भी शामिल होते थे । उन्हीं कवि सम्मेलनों के प्रभाव में मैंने सबसे पहले कविताएं लिखनी शुरू की थीं।
मेरा असली संघर्ष ग्यारहवीं करने के बाद शुरू हुआ। मैंने तय किया कि फीस के पैसे जुटाने के लिए नौकरी करूंगा। दरियागंज में एक पंजाबी रेफ्रिजरेटर नाम की दुकान थी, वहां पचहत्तर रुपए प्रतिमाह की नौकरी कर ली। दो महीने में फीस के डेढ सौ रुपए जमा हो गए तो नौकरी छोड़ दी। इन दो महीनों में पंजाबी रेफ्रिजरेटर के मालिकों की जूठी प्लेटें भी साफ कीं। फिर दिल्ली कॉलेज इवनिंग में एडमिशन लिया और वहां से बीए पास किया। बाद में दिल्ली कॉलेज का नाम बदलकर जाकिर हुसैन कॉलेज कर दिया गया। एमए करने के बाद 1970 में हस्तिनापुर कॉलेज ( अब मोतीलाल नेहरू कॉलेज) में व्याख्याता हो गया और वहीं तीस साल बाद प्रचार्य बना और उस पद पर लगभग एक दशक तक काम करने के बाद रिटायर हुआ। अब तो मैं दिल्ली से नोएडा शिफ्ट हो गया हूं, नोएडा शिफ्ट करते हुए सोचता था कि दिल्ली कितनी बदल गई है। नांगलोई के खेत, कुंए सब जाने कहां चले गए। शहरीकरण ने सबको खत्म कर दिया। जंगल अब कंक्रीट के जंगल बन गए।     
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)