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Saturday, March 31, 2018

लेखक संगठनों पर वाजपेयी का हमला


हिंदी साहित्य जगत में एक बार फिर से लेखक संगठनों पर सवाल उठ रहे हैं। इस बार सवाल उठाया है हिंदी के वरिष्ठतम लेखकों में से एक अशोक वाजपेयी ने । हाल ही में उन्होंने वामपंथ को लेकर जो टिप्पणी की है उसके लपेटे में लेखक संगठन भी आ गए हैं। अशोक वाजपेयी के मुताबिक वाम रुझान रखनेवाले लेखकों के तीन संगठन हैं, वे त्रिपुरा-हार के पहले से ही, बल्कि भाजपा की दिग्विजय से भी पहले से, अप्रासंगिक और निष्क्रिय होते गए हैं, हालांकि वे ऐसा मानने को कतई तैयार नहीं हैं। उन्होंने स्वयं कई लेखकों और वृत्तियों के साथ जो अन्याय और अनाचार किए हैं उन्हें स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं। लोकतंत्र का नाट्य करते हैं पर इन संगठनों का ढांचा मूलतः और मुख्यतः लोकतांत्रिक नहीं रहा। उसके पदाधिकारियों की राजनैतिक-साहित्यिक चूकें काफी रही हैं।पर इस वस्तुस्थिति ने उन्हें बहिष्कार, निन्दा, अफवाह की गर्हित राजनीति से बचने के लिए उकसाया नहीं है। वे अब भी विचार और विश्लेषण ऐसी पदावली में करते हैं जो अब संसार भर की वाम विचारशीलता में कब की बाहर फेंकी जा चुकी है।अशोक वाजपेयी ने बहुत सधे तरीके से लेखक संगठऩों की निष्क्रियता और उन संगठनों में अलोकतांत्रिक व्यवस्था को उजागर कर एक बार फिर से वाम विचारधारा को कठघरे में खड़ा कर दिया। अशोक वाजपेयी का वाम विरोध जगजाहिर रहा है और वामपंथी लेखक बहुधा उनको कलावादी कहकर मजाक उड़ाते रहे हैं। निर्मल वर्मा, विद्यानिवास मिश्र जैसे लेखकों के साथ अशोक जी की निकटता जगजाहिर थी। इस वजह से भी वो वामपंथियों के निशाने पर रहते थे और अशोक वाजपेयी भी लगातार वामपंथियों पर हमले करते रहते थे। लेकिन केंद्र में मरेन्द्र मोदी सरकार आने के बाद जिस तरह से अशोक वाजपेयी ने सरकार के खिलाफ पहले परोक्ष रूप से और फिर प्रत्यक्ष रूप से मुहिम चलाई थी, जिसमें पुरस्कार वापसी अभियान प्रमुख था, उसके बाद वामपंथी लेखकों को अशोक वाजपेयी में एक अवसर नजर आया और वो अचूक अवसरवादी की तरह अशोक वाजपेयी के झंडे के नीचे खड़े होते चले गए। चाहे वो खुद को सबसे ज्यादा क्रांतिकारी मानने वाला संगठन जन संस्कृति मंच के उपाध्यक्ष मंगलेश डबराल हों या फिर जनवादी लेखक संघ के असद जैदी हों। इस तरह अलग अलग वामपंथी लेखक संगठनों में मौजूद लोग अशोक वाजपेयी के साथ जुड़ते चले गए। ये अशोक जी के साहित्यिक हितों की प्रत्यक्ष तौर पर रक्षा करते हैं या नहीं ये ज्ञात नहीं है लेकिन कई बार इनके कदमों से अशोक जी को समर्थन मिलता है। इससे यह संदेश भी गया कि अशोक वाजपेयी वामपंथी हो गए। नतीजा यह हुआ कि अशोक वाजपेयी के साथ जुड़े लेखकों उन लेखकों को परेशानी होने लगी जो वामपंथ विरोध की वजह से अशोक जी के साथ थे। मैंने एक बार अशोक जी से इस बारे में जिक्र किया और उनको कहा कि आप तो सरकार और मोदी विरोध के चलते वामपंथियों के साथ चले गए तो अशोक जी ने थोडी नाराजगी भरे स्वर में मुझे कहा कि मैं किसी से साथ नहीं गया बल्कि वो मेरे साथ आ गए। खैर...
अब, जब अशोक वाजपेयी ने वामपंथी लेखक संगठनों को कठघरे में खड़ा किया है तो ये देखना दिलचस्प होगा कि मंगलेश डबराल या असद जैदी जैसे कवि/लेखक कोई प्रतिक्रिया देते हैं या नहीं। हलांकि इसकी उम्मीद कम से कम जनवादी लेखक संघ को नहीं है क्योंकि जनवादी लेखक संघ के उपमहासचिव संजीव कुमार ने अशोक वाजपेयी को फेसबुक पर लंबी टिप्पणी लिखकर जो जवाब दिया हैं उसमें इस बात के पर्याप्त संकेत हैं। अशोक वाजपेयी की मुश्किल शीर्षक से की गई लंबी टिप्पणी में संजीव कुमार ने लिखा- अशोक जी इतने सुजान तो हैं ही कि उनकी हर बात बेबुनियाद न हो। मसलन, उनका यह कहना कि लेखक संगठनों के लोग अब भी विचार और विश्लेषण ऐसी पदावली में करते हैं जो अब संसार भर की वाम विचारशीलता में कब की बाहर फेंकी जा चुकी है’ (‘अब’ ‘कबके प्रयोग में जो अटपटापन है, उसका श्रेय मुझे न दें), वामपंथी लेखकों के एक हिस्से के लिए बहुत गलत नहीं है। लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि अपनी चरम निराशा में उन्होंने वामपंथी पहचान वाले लेखकों को पढ़ना ही छोड़ दिया है, इसलिए उन्हें मुहावरे के बदलाव और विश्लेषण में उभरे नए नुक्तों का कोई इल्म नहीं है। उनसे यह उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए कि उन्होंने सब कुछ पढ़ रखा हो, लेकिन यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि संसार भर की वाम विचारशीलताआदि के बारे में सब कुछ पढ़े हुए जैसा दावा करने से बचेंअगर बौद्धिक ईमानदारी के ख़याल से नहीं, तो अपने को हास्यास्पद होने से बचाने के लिए ही सही! उनकी इस बात से भी सहमत होने के अलावा कोई चारा नहीं कि ये लेखक संगठन निष्क्रिय होते गए हैं. अगर निष्क्रिय न होते तो ऐसा क्यों होता कि अशोक जी के या किसी भी और के लगाए आरोपों का जवाब देने के लिए कोई आगे न आता! ऐसा तभी होता है जब संगठन के साथ अपनी पहचान को जोड़ने से उसके सदस्य भी कतराते हैं, या दूसरी तरह से देखें तो वह उनकी आत्म-छवि का हिस्सा नहीं होता. शामिल लोग संगठन से अपनी पहचान को न जोड़ें, यह निष्क्रियता की सबसे बड़ी निशानी है; इससे पता चलता है कि कार्यक्रम आदि करा लेने के बावजूद, जो कि मुट्ठी भर सक्रिय लोगों के प्रयास से भी हो सकते हैं, संगठन कुल मिलाकर एक जीवंत इकाई की तरह काम नहीं कर रहा।अशोक वाजपेयी को उत्तर देने के क्रम में संजीव कुमार ने लेखकों के संगठन से अपनी पहचान जोड़ने से कतरानेवाले लेखकों की ओर इशारा किया है। बेहतर होता कि संजीव कुमार अपने लेख में ऐसे लेखकों के नाम उजागर करते। साहित्य जगत को यह तो पता चलता कि कौन से ऐसे लेखक हैं जो संगठन में रहते हुए उसका लाभ तो उठाते हैं लेकिन जब संगठन पर किसी तरह का संकट आता है या उसपर कोई साहित्यिक हमला होता है तो वो उससे अपना नाम जोड़ने में कतराते हैं।
इस पूरे प्रसंग से एक बात तो साफ है कि हिंदी साहित्य में जो लेखक वाम विचारधारा के ध्वजवाहक हैं, उनमें से ज्यादतर अवसरवाद की ध्वजा लिए घूम रहे हैं और जिस जगह पर उनको अवसर दिखाई देता है अपना झंडा वहीं गाड़कर कीर्तन करने लग जाते हैं। अशोक वाजपेयी के अखाडे में इन दिनों इस तरह के लेखकों का अखंड कीर्तन होता दिख रहा है। अशोक वाजपेयी लंबे समय तक भारत सरकार में नौकरशाह रहे हैं, मंत्रालयों में उच्च पदों पर काम किया है, इसलिए यह माना जा सकता है कि उनको इस तरह के लेखकों की पहचान करने में कोई दिक्कत नहीं होती है और वो गाहे बगाहे इनका इस्तेमाल करते रहते हैं, तरह तरह के लॉलीपॉप देकर।
अशोक वाजपेयी ने लेखक संगठनों पर दो बेहद संगीन इल्जाम लगाए हैं, एक तो ये कि इन संगठनों ने लेखकों और वृत्तियों के साथ अन्याय और अनाचार किया। यह सही है। जिस तरह से पूर्व में कई लेखकों को सायास उपेक्षित किया गया वो अब सबके सामने है। हिंदी में प्रचुर और महत्वपूर्ण लेखन करनेवाली शिवानी और मालती जोशी को लगातार उपेक्षित किया गया। उनके लेखन पर जानबूझकर विचार नहीं किया गया। नरेद्र कोहली की कथावाचक कहकर खिल्ली उड़ाई जाती रही। जबकि इन लेखकों के पास तथाकथित मुख्यधारा के लेखकों से कई गुणा ज्यादा पाठक थे और अब भी हैं। यह अन्याय ही तो है। अशोक वाजपेयी और कड़े शब्दों में कहते हैं कि ये लेखक संगठन लोकतंत्र का नाट्य करते हैं पर इन संगठनों का ढांचा मूलतः और मुख्यतः लोकतांत्रिक नहीं रहा। यह सबसे संगीन इल्जाम है। इस बात पर हिंदी साहित्य जगत में विचार किया जाना चाहिए कि क्या इन लेखक संगठनों में लोकतंत्र नहीं है क्या वो लोकतंत्र का नाटक करते हैं। इन लेखक संगठनों के अध्यक्ष उपाध्यक्ष और महासचिव के कार्यकाल को देखकर तो अशोक जी के आरोपों में दम लगता है। पर यह भी लगता है कि इन लेखक संगठनों की सार्थकता तो लगभग समाप्त हो गई है, प्रासंगिकता तो ये पहले ही खो चुके हैं, इनकी विश्वसनीयता भी लगभग समाप्त ही हो चुकी है तो ऐसे में अशोक जी क्यों चिंता कर रहे हैं? संजीव कुमार की तो मजबूरी समझ में आती है क्योंकि वो जनवादी लेखक संघ के पदाधिकारी हैं लिहाजा उनका बोलना आवश्यक है। लेकिन अकेले संजीव कुमार का बोलना भी तो कुछ संकेत करता ही है। इन संकेतों को समझने की जरूरत भी है।


Saturday, March 24, 2018

देशव्यापी बहस की दरकार


पिछले दिनों भाषा को लेकर दो बहुत अहम खबर आई जिसपर भारतीय समाज में खासतौर पर हिंदी समाज को चर्चा करने की आवश्यकता है। पहली खबर आई देश के महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नामांकन के लिए हुई परीक्षा के लिए हिंदी विभाग में एमफिल और पीएचडी के लिए सात सौ उनचास परीक्षार्थियों ने आवेदन किया लेकिन जो परिणाम आया वो बेहद चौंकानेवाला था। सात सौ उनचास अवेदनकर्ताओं से सिर्फ चार ने प्रवेश परीक्षा पास की और उऩको साक्षात्कार के लिए बुलाया गया । सात सौ उनचास में से सिर्फ चार यानि कि सफल परीक्षार्थियों का प्रतिशत लगभग आधा है। पूरे देश में जहां हिंदी पढ़ने जानने समझने वालों की संख्या देश की आधी आबादी से ज्यादा है वहां हिंदी को लेकर इस तरह की खबर हिंदी समाज को चिंतित करने के लिए काफी हैं। लेकिन इस पर हिंदी समाज से किसी तरह की चिंता व्यक्त की गई हो ऐसा ज्ञात नहीं हो सका। हमारे देश में हिंदी को लेकर उदासीनता क्यों है, अगर इसकी पड़ताल करते हैं तो जिस सबसे बड़े यथार्थ से मुठभेड़ होता है वह है हिंदी का रोजगार की भाषा नहीं बन पाना। इसपर बहुत बातें होती हैं लेकिन इस दिशा में कोई ठोस काम होता नहीं दिख रहा है। हिंदी के नाम पर खुले विश्वविद्यालयों में जिस तरह से काम हो रहे हैं वो संतोषजनक नहीं हैं या कह सकते हैं कि नाकाफी हैं। हिंदी को रोजगार से जोड़ने और साहित्य के अलावा अन्य विधाओ का सृजन हिंदी में नहीं होने पर भी काफी सालों से बातें हो रही हैं। 1910 में हिंदी साहित्य सम्मेलन में एक प्रस्ताव पारित हुआ था जिसमें भी हिंदी को लेकर चिंता की गई थी और उसको मजबूत करने का रोडमैप पेश किया गया था। कालांतर में साहित्य सम्मेलन के तीसरे अधिवेशन में भी पुरुषोत्तमदास टंडन के प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी जिसमें हिंदी को बढ़ाने के लिए मानविकी, समाज शास्त्र वाणिज्य, विधि तथा विज्ञान और तकनीकी विषयों की पुस्तकों को लिखवाना और प्रकाशित करवाने पर जोर दिया गया था। प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी और सबों की राय समान थी कि हिंदी को विस्तार देने और उसको मजबूती देने के लिए यह कार्य प्रारंभ करना होगा। आजादी के बाद इस दिशा में जो भी प्रयत्न हुए वो नाकाफी रहे। सरकार और संस्थागत स्तर पर अगर इस तरह के काम हुए भी तो बहुत कम थे। अंग्रेजी का दबदबा बना रहा जो आजतक कायम है। नब्बे के दशक में जब हमारे देश में अर्थव्यवस्था खुलने लगी उस वक्त भी अगर हिंदी को लेकर कोशिश की गई होती तो आज स्थिति बेहतर हो सकती थी। शायद बाजार के दबाव में कुछ हो पाता। दरअसल आजादी के बाद कई सालों तक कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलने पर जोर रहा। शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर बढ़ाने और हिंदी को उसमें मजबूती से स्थापित करने का उपक्रम गंभीरता से नहीं किया गया। कॉलेज और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को हिंदी में शोध करने,हिंदी में छात्रों से संवाद करने, हिंदी में शोध पत्र प्रस्तुत करने के लिए जितने  प्रोत्साहन की जरूरत थी उतना हो नहीं सका। शिक्षकों ने भी अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझा। नतीजा यह हुआ कि हिंदी को लेकर छात्रों में भी उदासीनता बढ़ती चली गई। हालात इतने बुरे होते चले गए कि कई कॉलेजों में हिंदी के छात्रों की संख्या शिक्षकों से कम रह गई । छात्र आ जाएं तो कक्षा लगती थी वर्ना शिक्षकों के पास कोई काम नहीं होता था। स्थिति बद से बदतर होती चली गई और छात्रों की पीढ़ी दर पीढ़ी हिंदी से विमुख होती गईं। आज अगर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस तरह के हालात पैदा हो रहे हैं तो वो वर्षों की लापरवाही और गलत नीतियों का परिणाम है।
दूसरी खबर आई नागपुर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक से। 9 से 11 मार्च तक चली इस प्रतिनिधि सभा में भाषा को लेकर एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किया गया जिसमें भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता पर जोर दिया गया। सभा का मत था कि भाषा किसी भी व्यक्ति एवं समाज की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण घटक तथा उसकी संस्कृति की सजीव संवाहिका होती है। देश में प्रचलित विविध भाषाएं व बोलियां हमारी संस्कृति, उदात्त परंपराओं, उत्कृष्ट ज्ञान एवं विपुल साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने के साथ ही वैचारिक नवसृजन हेतु भी परम आवश्यक हैंआज विविध भारतीय भाषाओं व बोलियों के चलन तथा उपयोग में आ रही कमी, उनके शब्दों का विलोपन व विदेशी भाषाओं के शब्दों से प्रतिस्थापन एक गम्भीर चुनौती बन कर उभर रहा है। भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए सरकारों, नीति निर्धारकों और स्वयंसेवी संगठनों से प्रयास करने की अपील की गई। अपील में कहा गया है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा या अन्य भारतीय भाषा हो, सरकारें इस दिशा में उचित नीतियों का निर्माण कर आवश्यक प्रावधान करे। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य सरकारें आरएसएस की प्रतिनिधि सभा की अपील पर ध्यान देंगी और इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाएंगी।
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा में तकनीकी और आयुर्विज्ञान सहित उच्च शिक्षा के लिए शिक्षण सामग्री, पाठ्य सामग्री और परीक्षा का विकल्प भारतीय भाषाओं में सुलभ करवायया जाए। यह एक ऐसा काम है जो सरकारों से गंभीरता की अपेक्षा करती है। इसके लिए एनसीईआरटी से लेकर राज्य सरकारों को भी पहल करनी होगी। अगर ऐसा हो पाता है तो हिंदी को भी इसका लाभ होगा और वो रोजगार से जुड़ने की दिशा में अग्रसर हो सकती है। इसके अलावा इस प्रस्ताव में शासकीय और न्यायिक कार्य में भी भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की बात की कही गई है, अंग्रेजी पर भारतीय भाषा को तरजीह देने की अपेक्षा की गई है। नाटकों,लोककलाओं आदि के प्रोत्साहन की बात कही गई है जो कि अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय भाषाओं को मजबूत करेगी। आखिर में कहा गया है कि – प्रतिनिधि सभा सरकारों, स्वैच्छिक संगठनों, जनसंचार माध्यमों, पंथ-संप्रदायों के संगठनों, शिक्षण संस्थाओं तथा प्रबुद्धवर्ग सहित संपूर्ण समाज से आवाहन करती है कि हमारे दैनन्दिन जीवन में भारतीय भाषाओं के उपयोग एवं उनके व्याकरण, शब्द चयन और लिपि में परिशुद्धता सुनिश्चित करते हुये उनके संवर्द्धन का हर सम्भव प्रयास करें।यह एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव है जिसपर गंभीरता से राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए थी। सरकारों को आगे आकर इस दिशा में काम को आगे बढ़ाने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना था। समाज में इसपर बहस होनी चाहिए।
बौद्धिक वर्ग के एक खास विचारधारा वाले लोगों से प्रतिनिधि सभा के इस प्रस्ताव पर बहुत उत्साह की अपेक्षा मुझे नहीं है क्योंकि ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रस्ताव है । आरएसएस के नाम से ही उनमें एक उदासीनता का भाव व्याप्त हो जाता है । प्रस्ताव चाहे लाख अच्छा हो, उससे समाज और देश का भला हो रहा हो, भाषा मजबूत हो रही हो, लेकिन अगर उसमें आरएसएस का नाम जुड़ गया है तो उसको प्रयासपूर्वक हाशिए पर डालने की कोशिश होती रही है, आगे भी होती रहेगी। लेकिन अगर हम चाहते हैं कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसी स्थिति नहीं आए तो राजनीति और विचारधारा को छोड़कर हमें अपनी भाषा को मजबूत करने के लिए एकजुट होना पड़ेगा। उसको एक मुहिम के तौर पर चलाना होगा, देश की सभी राज्य सरकारों को आगे बढ़कर भाषा को मजबूती देने का काम करना होगा। इसके अलावा हिंदी के लोगों को उस षड़यंत्रकारी सिद्धांत को भी निगेट करना होगा जिसमें सालों से ये प्रचारित किया जाता रहा है कि हिंदी मजबूत होगी तो वो अन्य भारतीय भाषाओं को कमजोर कर देगी। यह एक दुश्प्रचार है क्योंकि अगर हिंदी मजबूत होती है, उसका विस्तार होता है तो स्वाभाविक रूप से सभी भारतीय भाषाएं मजूबत होंगी। अन्य भाषाओं के साहित्य को हिंदी का विशाल पाठक वर्ग मिलेगा। पिछले दिनों पूर्वोत्तर के कई लेखकों ने इस बात को स्वीकारा कि हिंदी में उनकी कृतियों के अनुवाद होने से उनको लाभ हुआ और उनको अखिल भारतीय पहचान मिली। इस तरह की बातों को लगातार प्रचारित करना होगा, गोष्ठियों सेमिनारों में हिंदी के लोगों को जोर देकर अपना पक्ष रखना होगा। दिनकर ने भी कभी कहा था कि हिंदी को पूरे देश में उसी तरह से लागू किया जाना चाहिए जिस तरह कि अन्य भारतीय भाषा के लोग चाहते हैं। दिनकर की इस राय को ही मूलमंत्र मानते हुए सभी भारतीय भाषाओं को एकजुट होना होगा और इन भाषाओं के उपयोगकर्ताओं को भी सरकारों पर दबाव बनाना होगा कि हमें हमारी भाषा में काम करने का माहौल दो। लोकतंत्र में लोक का दबाव सर्वापरि होता है, इसको समझना होगा।    

Saturday, March 17, 2018

आलोचना की साख पर सवाल


हिंदी साहित्य में आलोचना एक ऐसी विधा है जिस पर नियमित अंतराल पर सवाल उठते रहते हैं, कई बार उचित, तो बहुधा व्यक्तिगत राग-द्वेष की वजह से। इन दिनों फिर से आलोचना की स्थिति को लेकर सोशल मीडिया से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में लिखे जा रहे हैं। कुछ कहानीकार, कुछ कवि अपने अधकचरे ज्ञान के आधार पर आलोचना को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश गाहे बगाहे करते रहते हैं। आलोचना विधा को समझे बगैर, उसकी गंभीरता और उसके औजारों को जाने बगैर उसपर सवाल उठाना हास्यास्पद लगता है। हद तो तब हो जाती है जब कुछ वरिष्ठ होते रचनाकार भी आलोचना के खिलाफ कोरस में शामिल हो जाते हैं और आलोचना को परजीवी विधा तक करार दे देते हैं। उनका बहुत साधारण सा तर्क होता है कि रचना के बगैर आलोचना का अस्तित्व ही नहीं है। सतही तौर पर ये आकलन ठीक लग सकता है, फेसबुक आदि पर इस तरह की टिप्पणी लिखनेवालों को लाइक्स के साथ-साथ वाहवाही आदि भी मिल जाती है, लेकिन आलोचना पर गंभीरता से काम करनेवालों की राय जुदा होती है। दरअसल जब आलोचना के परजीवी होने की बात की जाती है तो अज्ञानता में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संबंध के सिद्धांत पर विचार नहीं किया जाता है। रचना के बगैर आलोचना के अस्तित्व को नकारनेवाले यह भूल जाते हैं कि बगैर आलोचना के रचना के अर्थ खुलते ही नहीं हैं। यह आलोचक ही होता है जो किसी भी कृति या रचना के अंदर की संवेदना की परतों को रेशा दर रेशा अलग कर देख पाता है और उसको पाठकों के सामने पेश करता है। रचना और आलोचना के बीच बहुत गहरा संबंध होता है जिसको समझने के लिए भी गहरी अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है, इसका सामान्यीकरण कर इस संबंध को समझना लगभग असंभव है। मुझे ठीक से याद नहीं कि किस आलोचक ने ये कहा था- आलोचना रचना है, इसका एक अर्थ यह भी है कि अच्छी आलोचना रचना की ही तरह भाषा का शास्त्रीय नहीं बल्कि सृजनात्मक उपयोग करती है, जिससे उसे पढ़ते समय तक एक स्तर पर रचना को पढ़ने का आनंद मिलता है। जैसे रचना की एक रचना प्रक्रिया होती है, वैसे ही निश्चित रूप से आलोचना की भी। उदाहरण के तौर पर जब नामवर सिंह के साठ के दशक में नई कहानियां पत्रिका में स्तंभ लिखते थे तो उसको पढ़ते हुए पाठकों को किसी रचना से कम आस्वाद नहीं मिलता था। इसी तरह से विजयदेव नारायण साही के लेख शमसेर की काव्यानुभूति की बनावट को पढ़ें तो किसी बेहतरीन रचना को पढ़ने का आनंद मिलता है। यह ठीक कहा गया है। अस्सी के दशक में ये हिंदी साहित्य में ये शोर उठा था कि हिंदी आलोचना समसामयिक हो गई है। कहने का मतलब यह कि हिंदी आलोचना समकालीन रचनाकारों और कृतियों तक ही सीमित हो गई है। उस वक्त यह भी कहा गया था कि हिंदी आलोचना इतिहास और परंपरा की तरफ मुड़कर नहीं देखती। उस वक्त की स्थितियों का आकलन करने पर इसमें तथ्यों की कमी नजर आती है। उस दौर में सूर से लेकर मीरा तक और तुलसी से लेकर कबीर तक पर काम हो रहे थे। बार बार आलोचक मीरा बाई की कविताओं की ओर लौटते थे।
ऐसा नहीं है कि इस वक्त ही आलोचना को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं, आलोचना की प्रविधि और उसके तौर तरीकों पर समय समय पर सवाल भी उठते रहे हैं और आलोचक अपने तरीके से उसका उत्तर भी देते रहे हैं। शुक्ल जी के जमाने से लेकर अबतक आलोचना पर सवाल उठते रहे हैं। अशोक वाजपेयी ने भी आलोचना को लेकर कई तरह की स्थापनाएं दीं और कइयों पर पर प्रश्नचिन्ह लगाया। विवाद भी हुआ लेकिन बावजूद इसके रचना और आलोचना दोनों अपनी गति से चलती रही बल्कि कहें कि चल ही रही है। चंद दिनों पहले की बात है, हिंदी के वरिष्ठ उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल ने आलोचना को लेकर एक टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि हिंदी आलोचना अब भी रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के बीच ही झूल रही है। उसके पहले संभवत: स्तंभकार कुलदीप कुमार ने लिखा था कि हिंदी का प्राध्यापक नौकरी लगते ही आलोचक हो जाता है जबकि अंग्रेजी में ऐसा नहीं है। भगवानदास मोरवाल के इस कथन के बाद मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक गोपेश्वर सिंह का रामचंद्र शुक्ल और द्विवेदी जी की आलोचना पर एक लेख पढ़ने को मिला था। कुलदीप कुमार ने जिस प्रवृत्ति की ओर इशारा किया वो तो हिंदी आलोचना की सबसे बड़ी बाधा है ही। यह अकारण नहीं था कि राजेन्द्र यादव विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों को प्रतिभा की कब्रगाह कहा करते थे।
बावजूद इन सारी चीजों के हिंदी आलोचना में एकरसता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इंकार तो इस बात से भी नहीं किया जा सकता है कि हिंदी के जो नए आलोचक उभर कर आ रहे हैं वो हीं आलोचना की लीक से हटकर कुछ नया नहीं कर पा रहे हैं। मार्क्सवादी आलोचना के फॉर्मूले पर रचनाओं को कसते हैं। जब कसौटी ही पुरानी हो जाए तो उसके नतीजे तो दोषपूर्ण होंगे ही। इसके अलावा एक और बात जो आलोचना को सवालों के कठघरे में खड़ा करती है वो है आलोचनाकर्म पर व्यक्तिगत रागद्वेष का हावी हो जाना। इस बात के अनेक उदाहरण हिंदी साहित्य में मौजूद हैं जब आलोचकों ने मित्रताभाव का निर्वाह किया। एक ऐसी आलोचक हैं जिनको सभी कृतियां अद्भुत ही लगती हैं। सोशल मीडिया पर वो नियमित अंतराल पर अद्भुत कृतियों के नाम पोस्ट करती रहती हैं। उनके मुताबिक हर कृति एक लंबी लकीर खीचती है। आलोचना में इस तरह की उदारता भी अनपेक्षित होती है। इन दोनों के अलावा आलोचकों में अपनी बात कहने का साहस भी कम होता जा रहा है। वरिष्ठ आलोचक निर्मला जैन ने सालों पहले कहा था कि वो अब इस वजह से किसी कृति के बारे में सही बात नहीं करती हैं क्योंकि उनको लगता है कि अगर वो ऐसा करेंगी तो लेखक नाराज हो जाएंगे। तब भी मेरे मन में सवाल उठा कि आलोचक कब से लेखक के नाराज या खुश ङोने की परवाह करने लगा? निराला ने छायावादी दौर में पंत जी की रचना पल्लव पर बेहद कठोर टिप्पणी की थी । उस वक्त पंत जी और निराला में कितने गहरे संबंध थे यह बात पूरा साहित्य जगत जानता था। दरअसल आलोचना में कभी भी मुंह देखी नहीं होती है और बेहद निर्विकार भाव से कृति पर विचार करती है। खुद मार्क्स की एक किताब है- अ क्रिटिक ऑफ क्रिटिकल रिजन। लेकिन बाद के दिनों में मार्क्स के अनुयायियों ने इसको नेपथ्य में डाल दिया और रागद्वेष के आधार पर आलोचना करनी शुरू कर दी। आलोचना को सभ्य बना दिया जो कि बेहद शिष्ट होकर कृतियों पर विचार करने लगा। इस छद्म शिष्टाचार ने आलोचकों को सच कहने से दूर कर दिया। और आलोचना जब जब सच से दूर हुई है तो उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए हैं।   
आलोचना पर बात करें और समीक्षा पर बात ना हो यह उचित नहीं होगा। दरअसल हिंदी में समीक्षा की स्थिति बहुत चिंताजनक होती जा रही है। बगैर किसी तैयारी के समीक्षकों की एक पूरी फौज हिंदी में आ गई है। जो समीक्षा के नाम पर किसी कृति का सारांश प्रस्तुत कर दे रहे हैं। बहुत फूहड़ता के साथ कृतियों का और लेखक का परिचय देते हैं। इस तरह के समीक्षकों को चिन्हित करना बहुत आसान है। समीक्षा भी आलोचना की तरह ही एक गंभीर कर्म है जिसमें बगैर तैयारी के उतरना बेहद जोखिम भरा होता है। सारांशात्मक समीक्षा से कृति के उसपक्ष पर बात नहीं हो पाती है जिसकी अपेक्षा समीक्षा और समीक्षकों से की जाती है। इस प्रकार की समीक्षा से लेखक भले ही खुश हो सकता है लेकिन साहित्य का या फिर पाठकों का कोई भला नहीं होता है। बहुधा समीक्षा की इस कमजोर स्थिति की वजह से ही हिंदी आलोचना को भी कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। आज जरूरत इस बात की है कि समीक्षा कर्म पर बहुत गंभीरता से ध्यान दिया जाए और नादान समीक्षकों को चिन्हित कर उनको बताया जाना चाहिए कि आपने समीक्षा के नाम पर जो सारांश प्रस्तुत किया है वो साहित्य की एक समृद्ध विधा को कमजोर करनेवाली है। इस बात की पहल लेखकों के साथ साथ साथी समीक्षकों को भी करनी चाहिए क्योंकि फेसबुक ने इस प्रकार की सारांशात्मक समीक्षा को मंच दे दिया है। फेसबुक के बहुत श्वेत पक्ष हो सकते हैं लेकिन उसकी अराजक आजादी ने लेखकों के साथ साथ नादान समीक्षकों की महात्वाकांक्षाओं को भी पंख लगा दिए हैं। आलोचना और समीक्षा की साथ को कायम रखने के लिए जरूरी है कि इस तरह के छद्म समीक्षकों को रोका जाए।      


Saturday, March 10, 2018

'स्वस्थ आलोचना को गंभीरता से लेती'


दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में अनुवाद श्रेणी में अभिनेत्री और लेखिका ट्विंकल खन्ना की किताब मिसेज फनीबोन्स को स्थान मिला है। पिछले कुछ सालों में ट्विकंल खन्ना ने अपने लेखन से साहित्य जगत में रचनात्मक हस्तक्षेप किया है। उनकी दूसरी किताब द लीजेंड ऑफ लक्ष्मी प्रसाद को भी पाठकों ने पसंद किया। दैनिक जागरण बेस्टसेलर सूची में अपनी किताब के आने के बाद ट्विकंल खन्ना ने लेखन से लेकर अपनी भविष्य की योजनाएं पर मैंने बातचीत की। 

प्र- ट्विंकल जी, सबसे पहले हिंदी में आपकी किताब की सफलता पर बधाई। आपकी किताब मिसेज फनीबोन्स को दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की तीसरी सूची में स्थान मिला है। आपकी पहली प्रतिक्रिया।

ट्विकंल- धन्यवाद। लेखन की मेरी यह यात्रा बेहद शानदार रही है। मिसेज फनीबोन्स एक हास्य-व्यंग्यात्मक पुस्तक है। इसमें ये दिखाया गया है कि एक आधुनिक महिला अपने देश भारत को किस तरह से देखती है और उसका देश उसको किस नजरिए से देखता है। मुझे इस बात की बेहद प्रसन्नता है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद पूरे देश ने मेरे लेखन को हाथों हाथों लिया और एक लेखन के तौर पर मेरी ओर खुशी के साथ देखना शुरू कर दिया।

प्र- आपकी किताब मिसेज फनीबोन्सट को देश की ग्लैमर इंडस्ट्री ने भी खासा पसंद किया और आपको जमकर प्रशंसा मिली। जब आप किताब लिख रही थीं तो इतनी प्रशंसा की उम्मीद थी।

ट्विकंल- मैं जब लेखन की दुनिया में आई तो ये बात मेरे जेहन में बिल्कुल नहीं थी कि फिल्मी दुनिया के लोग मेरे लेखन को किस तरह से लेंगे या लेते हैं। मैं अपने पाठकों की प्रतिक्रिया का इंतजार अवश्य करती हूं। इस बात को लेकर भी उत्सुक रहा करती थी कि मेरे पाठक मेरी किताब मिसेज फनीबोन्स की मार्फत खुद को कितना देख पाते हैं या फिर उनके आसपास की दुनिया मेरी रचनाओं के जरिए उनके लिए कितना खुलती है।

प्र- आपकी ये किताब दरअसल ऐसी छोटी छोटी कहानियों का संग्रह है जिसमें रोजमर्रा के खुशनुमा पहलुओं को आपने पाठकों के सामने साझा किया है। आपने इस तरह के लेखऩ को कैसे साधा

ट्विंकल- जो भी पाठक मेरे स्तंभ को पढ़ते हैं या पढ़ने जा रहे होते हैं उनको मैं अपने लेखन के माध्यम से उनको सचेत भी करती चलती हूं। घटनाओं के माध्यम से भी और अपने लेखन के जरिए भी । अबतक तो ये नुस्खा सफल रहा है।

प्र- आपकी रचनाओं या पुस्तकों का पहला पाठक कौन होता है, अक्षय कुमार या कोई और ?

ट्विंकल – जैसे ही मैं स्तंभ लिखकर खत्म करती हूं तो सबसे पहले अक्षय उसको पढ़ते हैं। मुझे लगता है कि अक्षय की प्रतिक्रिया से मुझे इस बात का एहसास हो जाता है या कम से कम संकेत तो मिल ही जाता है कि पाठक इसको किस तरह से लेंगे।

प्र- आप सोशल मीडिया पर भी बहुत सक्रिय हैं। क्या सोशल मीडिया रचनात्मकता को मजबूत करती है या फिर आप कुछ अलग सोचती हैं।
  
ट्विंकल – मुझे लगता है कि सोशल मीडिया एक ऐसा मंच है जहां आप अपनी सोच बगैर किसी तरह की रोक टोक के सामने रखते हैं। इस मंच पर कोई भी आपकी सोच पर अपनी धारणा लाद नहीं सकता है। जो कि किसी इंटरव्यू आदि में संभव है। जैसे अगर किसी बातचीत में मैं कहूं कि मैं भूखी हूं, तो आप कह सकते हैं कि मैं भूख से मर रही हूं या फिर अलग तरीके से ये भी कह सकते हैं कि मैं डायटिंग पर हूं । आप जैसा सोचते हैं उस हिसाब से लिख देते हैं। जब आप सोशल मीडिया पर आप अपनी बात या सोच को रखते हैं तो उसको कोई इस तरह से व्याख्यायित नहीं कर सकता है। इसलिए मैं मानती हूं कि मेरे जैसे लोग जो शो बिजनेस में हैं उनके लिए ये मीडियम एक ताजा हवा के झोंके की तरह है । यहां कोई मेरी सोच को तोड़ मरोड़ कर पेश नहीं कर सकता है।

प्र- आपने अभिनय को अपना करियर चुना था, लेकिन लेखन में आपको अपेक्षाकृत ज्यादा सफलता मिली। क्या आपको भाग्य पर भरोसा है?

ट्विंकल- मैं नहीं जानती कि भविष्य के गर्भ में मेरे लिए कोई अपेक्षाकृत बड़ी योजना मेरा इंतजार कर रही है । जो मेरे सामने नहीं है, उसके बारे में बात करना या फिर जो सामने नहीं है उसको लेकर भाग्य की भूमिका पर बात करना व्यर्थ है। मैं अपनी सहज प्रवृत्ति को जानती हूं और उसके हिसाब से ही काम करती हूं। लंबे समय से मेरी दोस्त, जो एक अखबार की संपादक भी है, ने मुझे स्तंभ लिखने को राजी किया । उसका मानना था कि मैं बहुत पढ़ती हूं और हमेशा जोक्स के लहजे में अपनी बात रखती हूं। उसका ये भी मानना था कि मैं नियमित लेखन करूं। उसके ऐसा कहने पर मैंने सोचा कि चलो ट्राई किया जाए, हलांकि मैंने इसके पहले अपने टीन एज में ही कुछ लिखा था। लेखन की शुरुआत हुई और एक के बाद एक कड़ियां जुड़ती चली गईं। आज मैं करीब सौ अखबारी स्तंभ लिख चुकी हूं और दो पुस्तकों की लेखक भी हूं। इस पड़ाव पर पहुंच कर मैं सोचती हूं कि टीनएज में जो शुरुआत की थी उसको कायम क्यों नहीं रखा।

प्र- क्या आप फिल्मों के लिए लिखने की योजना बना रही हैं।

ट्विंकल – मेरी दूसरी पुस्तक द लीजेंड ऑफ लक्ष्मी प्रसाद की दो कहानियां परदे पर आई हैं। एक तो अरुणाचलम मरुगनाथम के पैडमैन बनने की कहानी के साथ और दूसरी सलीम नोनी अप्पा का मंचन किया गया ।

प्र- कुछ लोग कहते हैं कि आपकी किताब मिसेज फनीबोन्स आत्कथात्मक है। इससे ये छवि बनती है कि आप बहुत मुखर हैं, क्या आपकी मुखरता आपको लेखऩ में मदद करती है ।
ट्विंकल- मेरी किताब मेरे कॉलम की तरह ही सत्तर फीसदी तथ्य, थोडा फिक्शन, बैटविंग्स, हड्डियों और कुछ खराब होती मस्तिष्क कोशिकाओं का मिश्रण होता है। मुझे लगता है कि मुखरता से अधिक आपका पढाकू होना आपको लेखन में मदद करता है। मैं पूरी जिंदगी पढ़ाकू बने रहना चाहती हूं।

प्रः आप अपनी आलोचनाओं से किस तरह से निबटती हैं या उसको कैसे लेती हैं।

ट्विंकल- मैं स्वस्थ आलोचना को बहुत गंभीरता से लेती हूं क्योंकि यही आपके व्यक्तित्व के या आपके लेखन के उन पहलुओं को उजागर करती है जिसके बारे में आपको पता नहीं होता है। आलोचना के जरिए ही आपके सामने ये पक्ष उद्घाटित होता है।

प्र- कौन सा काम ज्यादा मुश्किल है अभिनय या रचनात्मक लेखन

ट्विंकल- ये तो ऐसा ही है कि किसी बिल्ली से पूछा जाए कि भौंकना ज्यादा आसान है या म्याऊं करना। हम सबकी अलग अलग स्ट्रेंग्थ होती है, मेरे लिए लिखना ज्यादा आसान है।

प्र- क्या आप किसी नई किताब पर काम कर रही हैं। क्या आप दैनिक जागरण के सात करोड़ पाठकों के साथ उस किताब के बारे में जानकारी साझा करना चाहती हैं।

ट्विंकल- मैं अपनी तीसरी किताब को लगभग आधा लिख चुकी हूं और उम्मीद करती हूं कि इस वर्ष के अंत तक किताब पाठकों के हाथों में होगी ।

प्र- दैनिक जागरण से बात करने का शुक्रिया
ट्विंकल – धन्यवाद


भ्रम से साहित्य का भला नहीं


त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद वहां लेनिन की प्रतिभा को गिराए जाने को लेकर जमकर राजनीति हुई। राजनेताओं ने तमा तरह के बयान दिए, आरोप प्रत्यारोप की सियासत हुई। सहिष्णुता-असहिष्णुता का राग भी सुने को मिला। राजनीति में इस मसले पर जारी वाद-विवाद साहित्य जगत तक जा पहुंचा। लेनिन की प्रतिमा को गिराए जाने को लेकर साहित्य जगत में खूब हलचल देखने को मिली। साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल बताने की अवधारणा एक बार फिर से नेपथ्य में गई और कुछ साहित्यकार राजनीति के पीछे पीछे चलते दिखाई दिए। कुछ लेखकों ने इल मुद्दे पर जमकर राजनीति की। इस स्तंभ में पहले भी चर्चा की जा चुकी है कि हिंदी साहित्य के ज्यादातर मामले या वैचारिक बहसें अब फेसबुक पर होती हैं। लेनिन वाले मसले पर भी फेसबुक पर कई साहित्यकारों ने लेनिन को महान तो बताया ही उनको विश्व शांति के लिए उनके योगदान को भी याद किया। लेनिन महान को याद करने की और उसको स्थापित करने में जिस तरह की तुलनाएं की गईं वो हास्यास्पद थीं। इसपर आगे चर्चा होगी लेकिन पहले देख लेते हैं कि मार्क्सवादी लेखक और जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे अरुण माहेश्वरी ने कया लिखा। अरुण माहेश्वरी के मुताबिक- स्तालिन ने दुनिया को तबाही से बचाया, लेनिन ने मजदूर वर्ग को बताया कि तुम अपने हाथ में विश्व की बागडोर थाम सकते हो। यह सिर्फ हवाई बातें नहीं है, इतिहास में दर्ज है। ये तो दर्ज है ही लेकिन इसके अलावा लेनिन के बारे में इतिहास में और क्या क्या दर्ज है, इसके बारे में भी जानना आवश्यक है । रूस के महान लेखक मक्सिम गोर्की ने 23 अप्रैल 1917 को अपने अखबार नोवाया जीज्न में लिखा- अब जबकि हमें ईमानदारी से बहस करने और एक दूसरे से असहमत होने का अधिकार मिला हुआ है तो एक दूसरे को जान से मारना अपराध और पाप है। जो इसे नहीं जानते वे स्वतंत्र मनुष्य के रूप में सोचने और महसूस करने में असमर्थ हैं। हिंसा और हत्या निरंकुशता का तर्क है, वह नीचता का तर्क तो है ही शक्तिहीन भी है। क्योंकि किसी अन्य व्यक्ति की इच्छा और भावना का दमन करने या किसी को जान से मारने का यह अर्थ नहीं होता और नहीं हो सकता कि एक विचार को भी मार डाला गया है, या उस विचार को गलत या किसी मत को दोषपूर्ण साबित कर दिया गया है।‘  दरअस मक्सिम गोर्की इस बात से खफा थे कि लेनिन चंद समर्थकों की हिंसा के बल पर रूस की सत्ता पर कब्जा करने में जुटे हुए थे। कई उपलब्ध दस्तावेजों और पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि रूस की क्रांति तो फरवरी 1917 में हो गई थी जब जार की सत्ता को वहां की जनता ने उखाड़ फेंका था। उसके बाद रूस में मिली जुली सरकार बनी थी जिसका लक्ष्य वहां लोकतांत्रिक सरकार के गठन का था। इसी के मद्देनजर संविधान सभा का चुनाव करवाना तय किया गया था। इस बीच लेनिन अप्रैल 1917 में रूस लौटे थे और अपने सिद्धांतो को प्रतिपादित करते हुए सत्ता कायम करने का एलान किया।
दरअसल लेनिन रूस में साम्यवादी सत्ता कायम करना चाहते थे, लोकतांत्रिक राज्य नहीं। नवंबर,1917  में लेनिन की योजना सफल हुई थी और बोल्शेविकों ने हिंसक विद्रोह के बाद सत्ता पर कब्जा कर लिया था। लेनिन ने अपनी सत्ता को कायम करने के लिए लंबा हिंसक अभियान भी चलाया। बाद में भी लेनिन ने अपने विरोधियों को चुप कराने के लिए गोली बारूद और हिंसा का सहारा लिया। लोकतांत्रिक व्यवस्था को नहीं मानने की लेनिन की जिद ने सोवियत संघ में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की भ्रूण हत्या कर दी थी। बावजूद इसके लेनिन को महान क्रांतिकारी और गरीबों और मजदूरों का मसीहा बताया जाता रहा। आम जनता के सपनों को पूरा करनेवाला करार दिया गया।
हमारे देश में भी लंबे समय तक लेनिन और तमाम वामपंथी नायकों को स्थापित करने का काम हुआ। सिर्फ लेनिन ही क्या माओ और फिडेल कास्त्रो जैसे तानाशाहों को भी मसीहा के तौर पर पेश किया जाता रहा। हमारे देश के बुद्धिजीवियों ने उनके चुनिंदा भाषणों और कोट्स के आधार पर उनको गरीबों और मजदूरों के मसीहा के रूप में स्थापित किया। फिडेल कास्त्रो का ही उदाहरण लें तो उन्होंने मुक्ति संघर्ष की आड़ में क्यूबा में अपनी सत्ता कायम की। लंबे समय तक क्यूबा पर राज किया, मुक्ति संघर्ष की आड़ में वहां की जनता की आजादी छीन ली । सैंतालीस सालों तक वहां के सर्वेसर्वा रहे और बीमार होते ही अपने भाई राउल कास्त्रो को गद्दी सौंप दी । एक तरह से देखे तो राजतंत्र जैसी व्यवस्था कायम कर दी। क्यूबा की जनता के पास अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार नहीं था लेकिन फिर भी कम्युनिस्टों का प्रचार तंत्र ऐसा कि बुर्जुआ से लोहा लेने के नाम पर फिडेल को मुक्तियोद्धा बना कर पेश कर दिया गया। दरअसल कम्युनिस्टों के पास पूंजीवाद से लड़ाई का एक ऐसा सपना है जो वो मौका मिलते ही जनता को दिखाते हैं और फिर उसकी आड़ में तानाशाही स्थापित कर राज करते हैं। तमाम वामपंथी शासन वाले देशों में ये देखने को मिलता है कि समानता के अधिकार को हासिल करने के नाम पर व्यक्तिगत आजादी को सूली पर टांग दिया जाता रहा है ।
अब एक और तर्क पर विचार करते हैं। त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा गिराने की तुलना कई लोगों ने अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा बुद्ध की प्रतिमा तोड़ने से कर डाली। अब इन उत्साही लोगों को क्या कहा जाए, उनकी अज्ञानता या जानबूझकर गलत तुलना कर भ्रमित करने की कोशिश। वामपंथी विचारधारा वाले जो लोग लेनिन की प्रतिमा ढाहने की तुलना तालिबान से कर रहे हैं उनको क्या यह याद नहीं है कि जब नृपेन चक्रवर्ती त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बने थे तो बकायदा सरकारी सर्क्यूलर जारी कर दफ्तरों से गांधी की तस्वीरें हटवा दी गईं थी। नेहरू की भी। त्रिपुरा में इंदिरा गांधी की प्रतिमा भी तोड़ी गई थी। तब किसी ने उस घटना की तुलना तालिबान से की हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। राजनीति के फेर में जब लेखक फंसते हैं तो ऐसी ही गलतियां या गलत तुलना करने के दोष के शिकार हो जाते हैं। अब ये गलतियां हो जाती हैं या जानबूझकर की जाती हैं इसपर विचार करना होगा। 
त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा को तोड़ने को सही नहीं ठहराया जा सकता है। जिन्होंने भी ऐसा किया उनके खिलाफ कानून के मुताबिक कार्रवाई होगी, हो भी रही है, लेकिन उसकी आड़ में जब अचूक अवसरवादी विचारधारा के लोग साहित्य की दुनिया को दूषित करने लगते हैं तो उसका प्रतिकार आवश्यक है। प्रतिकार इसलिए भी किया जाना आवश्यक है कि साहित्य में भी इस विचारधारा को प्रतिपादित करने से देश में मौजूद वैकल्पिक विचारों को नुकसान होता है। हुआ यह कि मार्क्सवाद के अंध अनुयायियों ने मार्क्स के चिंतन को अंतिम सत्य मानने के दुराग्रह ने मार्क्सवाद को जड़ बना दिया। मार्क्सवाद पर बहस से बचने या फिर उसको इतना पवित्र माने जाने कि उसपर सवाल नहीं खड़े हो सकते की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने का दुष्परिणाम यह हुआ कि यह विचारधारा फासीवादी के करीब चली गई। मार्क्स तो कम्युनिज्म को मनुष्य मन की एक सुंदर कविता मानते थे लेकिन उनके अंध भक्तों ने इसको तर्क से परे करार दे दिया। ई एम एस नंबूदरीपाद बनाम टी नांबियार के एक मुकदमे में नंबूदरीपाद और उऩके वकीलों में मार्क्सवाद की जो व्याख्या सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रस्तुत की उसपर अदालत की टिप्पणी गौरतलब है- हमें शंका है कि इन्होंने मार्क्सवादी साहित्य को ठीक से समझा है या कभी पढ़ा भी है। आगे दो न्यायाधीशों ने अपने फैसले में कहा कि – या तो ये मार्क्स के बारे में कुछ जानते नहीं अन्यथा जानबूझकर मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की रचनाओं की अपव्याख्या कर रहे हैं।सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणी हमारे देश में इस विचारधारा को लेकर, उसके अंतर्विरोधों को लेकर बहुत कुछ कह जाती है।

ये भी हुआ कि कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो को एक ऐसे घर्मग्रंथ के रूप में स्थापित कर दिया गया कि उसपर सवाल करना यानि ईशनिंदा को दोषी होने जैसा हो गया। साहित्य में विचारधारा के घालमेल ने भी पाठकों को भ्रमित किया। विचार या दर्शन कभी साहित्य नहीं हो सकता है। साहित्य को सत्य और साहित्यकारों को सत्य के साथ खड़ा होना होगा तभी साहित्य की भी साख बनेगी और साहित्यकारों की प्रतिष्ठा।

सूफी गायकी के ‘प्यारे’ अलविदा


पिछले साल के शुरुआत की बात है, सीरीफोर्ट ऑडिटोरियम में वडाली ब्रदर्स का परफॉर्मेंस था। संगीत रसज्ञ कुछ मित्रों के साथ मैं भी वहां गया था लेकिन इस शर्त पर कि हमें पांच दस मिनट वडावी बंधुओं से बात करने का मौका मिलेगा। मैं बड़े कलाकारों से मिलता हूं तो उनके संघर्षों के बारे में जानने की चाहत होती है। जब आयोजकों में से एक ने उनसे हमारा परिचय करवाया और कहा कि ये बात करना चाहते हैं तो वो फौरन तैयार हो गए। वडाली बंधुओं से दस मिनट की मुलाकात हुई। हमारी उस मुलाकात में छोटे भाई प्यारेलाल वडाली कम ही बोले लेकिन उन्होंने बड़े भाई पूरण चंद से चुटकी ली। प्यारेलाल जी ने बताया था कि एक बार दोनों भाई दिल्ली आए थे तो कुछ लोग उनसे मिले और अनुरोध किया कि वो अपने कैसेट बनवा लें। वो कैसेट पर गाने और संगीत सुनने का दौर था। प्यारे लाल जी ने बेहद शरारतपूर्ण मुस्कुराहट के साथ बड़े भाई की ओर देखा और कहा कि इन्होंने साफ मना कर दिया और कहा कि कैसेट बन जाएगा तो उनको सुनने कौन आएगा। हलांकि बाद में वो रिकॉर्डिंग के लिए तैयार हुए और उनके कैसेट्स खूब लोकप्रिय हुए। इसी तरह से जब मैंने पूरण चंद जी से उनके शुरुआती दिनों के बारे में पूछा तो वो बताने ही वाले थे कि प्यारे लाल जी ने कहा कि इनको तो शुरू में कोई गायक समझता ही नहीं था। बड़ी मूंछों की वजह से लोग या तो इनको पहलवान समझते थे या फिर ड्राइवर। दोनों भाइयों से बात करते हुए यह एहसास तो हो ही गया कि उनकी बॉडिंग जबरदस्त है। उस दिन पूरण चंद जी को चलने में तकलीफ हो रही थी तो प्यारेलाल जी उऩका हाथ पकड़कर स्टेज की ओर ले गए।  
पूरणचंद जी ने पहले गाना शुरू किया था और बाद में उन्होंने प्यारेलाल वडाली जी को अपने साथ जोड़ा था। बड़े भाई ने अपने पिता और पंडित दुर्गादास से गायकी के गुर सीखे थे। प्यारे लाल जी बताते थे कि कई बार पूरण चंद जी के साथ गाते हुए वो बड़े भाई की रुहानी आवाज में इतना डूब जाते थे कि खुद गाना भूल जाते थे। उनको इस बात का अफसोस था कि कव्वाली गाने वाले कुछ गायक उनके धर्म के आधार पर उनकी गायकी को खारिज रहे । ये दर्द उन्होंने सिरीफोर्ट परिसर में हुई बातचीत में भी साझा किया था। बावजूद इसके उन्होंने कव्वाली गाना नहीं छोडा और उसको अपनी आवाज से समृद्ध किया। वडाली बंधुओं का ये प्यारा साथ टूट गया। प्यारे लाल जी के निधन से सूफी संगीत का एक कोना सूना सा हो गया है।

Saturday, March 3, 2018

मजबूत पहल से निखरेगी प्रतिभा ·


आज अगर हम भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य पर नजर डालते हैं, खासकर नाटक और फिल्म के क्षेत्र में तो हमें तमाम विदेशी नाटककारों और फिल्मकारों का उदाहरण ही देखने सुनने को मिलता है। फिल्म और नाटक पर होनेवाली चर्चा में  ब्रेख्त, चेखव, हेनरिक इब्सन, कुरुसोवा, गोदार आदि के नाम ही गूंजते हैं। रूस के लेखक एंतोन चेखव के नाटकों के बारे में कहा जाता है कि 1918 से 1956 तक चेखव की रचनाओं का इकहत्तर भाषाओं में अनुवाद हुआ। पूरी दुनिया की अलग अलग भाषा में करीब पचास लाख पुस्तकें छापकर सस्ते दाम पर उसका वितरण करवाने का व्यवस्था की गई। दुनियाभर में चेखव के नाटकों के मंचन के लिए सोवियत रूस ने एक अभियान चलाया। आर्थिक के अलावा हर तरह की मदद नाटककारों को दी गई। यही हाल ब्रेख्त के नाटकों के साथ भी हुआ। हेनरिक इब्सन के नाटक अब भी हिंदी में अनूदित होकर मंचित हो रहे हैं। नार्वे के इस नाटककार के लिए वहां की सरकार ने जो जतन किए वो सबके सामने है। शेक्सपियर के साथ भी इस तरह की सहूलियत रही। अपने देश की सांस्कृतिक प्रतिभा को विश्वभर में फैलाने के लिए रूस और जर्मनी के अलावा कई देशों ने योजनाबद्ध तरीके से प्रचार किया। इसी तरह से अगर हम देखें तो फिल्मकार गोदार को धीमे ट्रैकिंग शॉट का जनक मानकर स्थापित करने के लिए दुनियाभर में प्रचार किया गया। गोदार को महान बनाने के लिए भी योजनाबद्ध तरीके से कोशिशें की गईं। लेकिन व्ही शांताराम ने जिल तरह से कैमरे का उपयोग किया उसको वैश्विक फलक पर पहचान नहीं मिल पाई। ये शांताराम ही थे जिन्होंने जिब या ट्राली शॉट के आने के पहले ही इस तरह के प्रयोग अपनी फिल्मों में किए। उस दौर में व्ही शांताराम ने बैलगाड़ी में कैमरा बांधकर जिब की तरह से उसका इस्तेमाल किया और उसको नीचे उपर करते हुए शॉट्स लिए। गंधर्व नाटक मंडली में काम करते हुए शांताराम ने जो अनुभव हासिल किए थे उसके आधार पर उन्होंने अपनी फिल्मों में बेहद क्लोज शॉट और ट्रॉली शॉट्स का इस्तेमाल शुरु किया। इस बात की चर्चा बहुत कम होती है। इसकी वजह यही है कि अबतक सरकार के स्तर पर अपने कलाकारों की कला को वैश्विक मंच पर रखने की कोशिश संजीदगी से नहीं हुई।
दुनियाभर में इस तरह के कई उदाहरण हमे देखने को मिल जाते हैं जहां सरकारें अपनी कलात्मक प्रतिभाओं के प्रचार प्रसार के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाती रही है, उसपर बजट बनाकर धन खर्च करती रही है। लेकिन हमारे देश में अपनी कलात्मक प्रतिभाओं को पूरी दुनिया के सामने पेश करने की सांगठनिक पहल नहीं हुई। इसके नाम पर होता यह था कि या तो अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भागीदारी या फिर भारत में आयोजित अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में सिनेमा का प्रदर्शन आदि करवाकर सरकारी अमला अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता था। कल्चरल एक्सचेंज के नाम पर भी छिटपुट गतिविधियां होती थीं। भारत में आयोजित अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी सिनेमा का प्रदर्शन होता था लेकिन उसको प्रचारित प्रसारित करने के लिए खास नहीं किया जाता था। अभी हाल ही में भारत सरकार ने इस दिशा में एक ठोस पहल की है। बर्लिन में आयोजित फिल्म महोत्सव, जिसको बर्लिनाले के नाम से जाना जाता है, में सीआईआई के साथ मिलकर एक प्रतिनिधिमंडल भेजा। इसकी अगुवाई मशहूर फिल्मकार करण जौहर ने किया और सदस्य के तौर पर वरिष्ठ फिल्मकार जानू बरुआ, शाजी करुण, सेंसर बोर्ड की सदस्य वाणी त्रिपाठी, अभिनेत्री भूमि पेडणेकर, सूचना और प्रसारण मंत्रालय में संयुक्त सचिव अशोक परमार के अलावा सीआईआई के प्रतिनिधि भी शामिल थे। तीन दिनों तक चले इस बर्लिनाले में भारत की तरफ से इस प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने अपने देश के सिनेमा को तो शोकेस किया ही, इसके अलावा भारत में सिनेमा निर्माण की अनंत संभावनाओं के बारे में भी इस फेस्टिवल में शामिल होनेवाले दुनियाभर के फिल्मकारों को बताया। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के उस पहल की मंशा बर्लिनाले में जाकर भारत की विविध और समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के बारे में पूरी दुनिया के फिल्माकरों को बताना था। प्रतिनिधि मंडल की सदस्य वाणी त्रिपाठी के मुताबिक तीन दिनों तक चले इस फिल्म महोत्सव में अनेक देशों के फिल्मकारों से बातचीत हुई और उनको भारत में शूटिंग करने से लेकर फिल्मों के एडिटिंग की सहूलियतों के बारे में बताया गया। इस तरह की पहल पहले शायद ही हुई हो जिसमें अंतराष्ट्रीय स्तर के निर्देशकों और भारतीय फिल्मकारों को आमने सामने बैठकर फिल्म निर्माण से लेकर सांस्कृतिक साझेदारी की संभावनाओं पर विचार करने का अवसर मिला हो। उनको भारत में फिल्म बनाने के लिए तमाम सहूलियतों के बारे में भी बताया गया जिनमें फिल्म फेलिसिटेशन ऑफिस भी शामिल है जो कि फिल्मकारों को सिंगल विंडों क्लीयरेंस देता है।ऐसा पहली बार हुआ है कि बर्लिनाले में कोई सरकारी प्रतिनिधिमंडल इस तरह के एजेंडे के साथ शामिल हुआ हो। बर्लिनाले के दौरान भारतीय दूतावास में बर्लिनाले के अंतराष्ट्रीय दर्शकों, जिनमें कई मशहूर प्रोड्यूसर्स भी थे, के सामने फिल्म नीरजा का प्रदर्शन भी किया गया। फिल्म से जुड़े लोगों को अस्सी का दशक याद होगा जब फ्रांस ने पूरी दुनिया के फिल्मकारों को तमाम तरह की सहूलियतें दी थीं। जर्मन फिल्मकार श्लौंडार्फ की 1984 में बनी फिल्म स्वान इन लव फ्रांस में बनी थी। इनके अलावा भी कई फिल्मकारों ने फ्रांस में जाकर फिल्म निर्माण किया था। अगर भारत में भी उसी तरह का माहौल बनाया जा सके तो दुनिया के मशहूर निर्देशक यहां आकर फिल्म निर्माण कर सकते हैं। 

एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त हमारे देश में सालभर में 1500 फीचर फिल्मों का निर्माण होता है, करीब 900 टीवी चैनलों के लिए कंटेंट तैयार किए जाते हैं, पैंतालीस करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं, जिनमें से करीब 35 करोड़ के पास स्मार्ट फोन है। यह परिदृश्य अंतराष्ट्रीय फिल्म निर्माताओं के लिए एक बेहतर बाजार है जिसके बारे में उनको विस्तार से बताए जाने की जरूरत है। अगर सरकार बर्लिनाले जैसे आयोजनों में भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के लोगों की लगातार भागीदारी सुनिश्चित करवाती है तो इसके कई फायदे हो सकते हैं। अगर विदेशों के बड़े फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों की शूटिंग और पोस्ट प्रोडक्शन का काम भारत में करती है तो स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर भी बढ़ सकते हैं। विदेश के फिल्मकारों को क्षेत्रीय स्तर के फिल्मकारों के साथ संवाद का मौका मिल सकता है जिससे की हमारे देश की स्थानीय प्रतिभा के बारे में पूरी दुनिया को पता चल सकता है और उनको बेहतर अवसर मिल सकते हैं। प्रत्यक्ष रूप से रोजगार और परोक्ष रूप से वैश्विक स्तर पर अवसर मिलने की संभावना बनती है। भारतीय फिल्म उद्योग को भी मजबूकी मिलेगी क्योंकि जब विदेशी फिल्में यहां बनने लगेंगी तो स्थानीय प्रतिभाओं को भी वैश्विक सोच और समझ का फायदा मिलेगा।  
पिछले दिनों कला विदुषी सोनल मान सिंह ने एक बातचीत में इस बात पर दुख जताया था कि हमारे देश में आजादी के सत्तर साल बाद भी कोई सांस्कृतिक नीति नहीं बन पाई है। उन्होंने एक दिलचस्प किस्सा भी सुनाया था कि जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो उनको चेतावनी दी थी कि अगर संस्कृति मंत्रालय को उचित महत्व नहीं दिया गया तो वो उनके आवास के बाहर धरने पर बैठ जाएंगी। सोनल जी इस बात से दुखी थीं कि संस्कृति मंत्रालय को किसी भी मंत्रालय के साथ पुछल्ले के तौर पर जोड़ दिया जाता है, कभी जहाजरानी मंत्रालय के साथ तो कभी महिला और बाल विकास मंत्रालय के साथ तो कभी विमानन मंत्रालय के साथ। दरअसल ये क्षोभ इस बात से उपजा था कि संस्कृति को महत्व नहीं मिलने की वजह से भारतीय कला को दुनिया में जितना महत्व मिलना चाहिए उतना मिल नहीं पाता है। अब अगर हम कालिदास का ही उदाहरण लें तो उनके नाटकों को वैश्विक स्तर पर प्रचारित करने के लिए कितने प्रयास किए गए ये शोध का विषय हो सकता है। संस्कृत में कई ऐसे नाटक और नाटककार हैं जिनके बारे में जब विदेशी विद्वानों ने लिखा तो वो अचानक से महत्वपूर्ण हो गए। कई ऐसी फिल्में बनीं, कई ऐसे निर्देशक हुए, कई ऐसी रचनाएं रची गईं जिनको वैश्विक मंच नहीं मिल पाया। वो अलक्षित रह गए। स्थानीय प्रतिभाओं को लक्षित और रेखांकित करने के लिए इस वक्त देश में एक ठोस सांस्कृतिक नीति की जरूरत महसूस की जा रही है। जबतक वो नहीं बन पाती है तबतक बर्लिनाले में जाकर भारतीय प्रतिभा और स्थितियों को मजबूती से रखने जैसी पहल लगातार होती रहे तो दुनिया के सामने भारतीय कला और कला संपदा को प्रमुखता से पेश करने में मदद मिल सकती है।