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Saturday, December 22, 2012

विवादों के चक्रव्यूह में महुआ


हिंदी की साहित्यक पत्रिका पाखी में श्रवण कुमार गोस्वामी के छपे एक लेख ने सर्द साहित्यिक माहौल को गरमा दिया है । अपने लंबे लेख में,वरिष्ठ उपन्यासकार (उनके परिचय में छपा विशेषण) श्रवण कुमार गोस्वामी ने उपन्यासकार महुआ माजी पर अपनी स्मृतियों और डायरी के आधार पर कई संगीन इल्जाम लगाए हैं । गोस्वामी के लेख में कई आरोप हैं लेकिन उनका दर्द ये है महुआ माजी ने उनसे अपने उपन्यास -मैं बोरिशाइल्ला- की पांडुलिपि ठीक करवाई लेकिन जब उपन्यास छपकर आया तो उसमें उनके लिए आभार के दो शब्द भी नहीं थे । अगर ये सही है तो महुआ माजी को अपना भूल सुधार करना चाहिए लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या श्रवण कुमार गोस्वमी ने इस शर्त और करार पर महुआ की पांडुलिपि ठीक की थी कि उनको आभार प्रकट किया जाएगा । लगभग पांच पृष्ठों के अपने लेख में श्रवण कुमार गोस्वामी ने जो लिखा है उससे यह लगता है कि महुआ माजी का उपन्यास -मै बोरिशाइल्ला -उन्होंने या तो लिखा नहीं है या जो अंश लिखा है वो बेहद कमजोर है । गोस्वामी के इस लेख में पूरे तौर पर उनकी मर्दवादी सोच हावी है । इस पूरे लेख में पुरुष की अहंकारी सोच भी नजर आती है जो हमेशा से यह सोचती है कि एक स्त्री इस वजह से मशहूर हो रही है कि वो रूपसी है । गोस्वामी भी 31 जुलाई 2004 की अपनी डायरी में लिखते हैं -  चूंकि यह उपन्यास एक रूपसी का है इसलिए लोग इसे फुलाएंगे जरूर । महुआ को अभी ही ऐसा सत्कार मिल चुका है कि वह गलतफहमी में जीने लगी है । कभी कभी मुझे ऐसी प्रतीति भी होती है कि यह कुछ पाने के लालच में कुछ गंवा भी सकती है । यहां गोस्वामी ने कुछ गंवाने को स्पष्ट तो नहीं किया है लेकिन उनका इशारा साफ है । और यही इशारा हमें उनकी मर्दवादी सोच को जानने का रास्ता भी देती है । यह वही मानसिकता है जिसमें कांग्रेस के नेता संजय निरुपम टेलीविजन चैनल की डिबेट में भारतीय जनता पार्टी की सांसद स्मृति ईरानी को कह देते हैं कि कल तो तुम टीवी में ठुमके लगाती थी और आज राजनीति पर ज्ञान दे रही हो । यह वही मानसिकता है जिसमें कोई मुल्ला शबाना आजमी को नाचने गाने वाली करार देता है । यह वही मानसिकता है जिसमें एक केंद्रीय मंत्री यह कहता है कि पुरानी होनी पर बीबी का मजा खत्म हो जाता है । यह वही मानसिकता हो जो किसी भी महिला की प्रसिद्धि को पचा नहीं पाते हैं और अवसर आने पर उसके इर्द गिर्द ऐसा ताना बाना बुनते हैं कि वो उसमें उलझकर रह जाए ।

श्रवण कुमार गोस्वामी का साहित्यिक पत्रिका पाखी में छपा लेख उसी मानसिकता का बेहतरीन नमूना है । इस लेख में पहले तो श्रवण कुमार गोस्वामी ने यह साबित करने की कोश्श की है कि महुआ माजी उनके बहुत करीब थी और उनके घर मिठाई और पेस्ट्री लेकर आया करती थी । लेकिन बाद में उनकी भयंकर बीमारी के बारे में जानने के बावजूद भी उन्हें अपनी गाड़ी से घरतक छोड़ने के बारे में पूछने तक की औपचारिकता नहीं निभाती । अरे इन व्यक्तिगत बातों से साहित्य का क्या लेना देना । साहित्य का भले ही लेना देना नहीं हो लेकिन इस पूरे लेख का इन्हीं सब से लेना देना है कि कल तक मेरे घर पर मिठाई और पेस्ट्री का डब्बा पहुंचानेवाली लेखिका अब मुझे इग्नोर कैसे कर रही है । यहां महुआ माजी से चूक होती है । उन्हें गोस्वामी जी की वरिष्ठता और उनके साथ के अपने वर्षों के संबंधों का ध्यान रखना चाहिए था । महुआ की इसी चूक पर गोस्वामी जी कुपित हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इसी क्रोध के वशीभूत होकर यह लेख लिखा गया है । जाहिर सी बात है जब क्रोध में कोई भी काम होता है तो वहां ना बुद्धि पर नियंत्रण रहता है ना ही विवेक पर । और जब बुद्धि और विवेक दोनों का सहारा लिए बगैर लेख लिखे जाते हैं तो उसमें कई तथ्यात्मक भूलें हो जाती हैं । जैसे अपने इस लेख में गोस्वामी जी ने लिखा है कि- आश्चर्य इस बात का है कि हिंदी के प्रखर आलोचक नामवर सिंह, कृष्णा सोबती और हिंदी फिल्मों के सुप्रसिद्ध पटकथा लेखक एवं गीतकार तीनों व्यक्तियों ने मिलकर महुआ माजी के उपन्यास (?)मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ की पांडुलिपि को तीसरे राजकमल कृति सम्मान के लिए चुना और महुआ माजी को फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार प्रदान किया । गोस्वामी जी ने तथ्यों को जाने बगैर कृष्णा सोबती और जावेद अख्तर पर सवाल खड़े कर दिए । जबकि महुआ को फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार को चुनने के लिए बनी समिति में नामवर सिंह के अलावा आलोचक विजय मोहन सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी थे । इतना ही नहीं श्रवण कुमार गोस्वामी अपनी तथ्यात्मक भूल के आधार पर हिंदी आलोचना के शीर्ष पुरुष नामवर सिंह से सवाल करते हुए उनपर तंज भी कस रहे हैं । गोस्वामी जी को यह नहीं मालूम कि हिंदी के पाठक बेहद सजग हैं और उन्हें बरगलाना आसान काम नहीं है । गोस्वामी जी का दावा है कि -मैं बोरिशाइल्ला- की पांडुलिपि के प्रत्येक पृष्ठ पर उनकी अंगुलियों के स्पर्श के चिन्ह हैं । हो सकता है कि उनका यह दावा सही भी हो लेकिन जब वो लिखते हैं कि मैं बोरिशाइल्ला उपन्यास के पाठकों को अच्छी तरह पता है कि इस उपन्यास में कहां कहां फांक है । इसके पूर्वाद्ध में बांग्लादेश की मुक्ति की कथा आती है और उतरार्ध में बंबई (बेकरी कांड) तथा कलकत्ता की घटनाएं आती हैं । पूर्वार्ध में बांग्लादेश का जो चित्रण है उसमें एक सधी हुई लेखनी के दर्शन होते हैं और उत्तरार्ध में कथानक को तोड़-जोड़ के सहारे और आगे बढ़ाने की चेष्टा देखने को मिलती है । इस हिस्से में लेखक का वह लेखन कौशल दिखाई नहीं देता है, पूर्वार्ध में जो दर्शनीय है । यहां भी गोस्वामी जी से चूक हो जाती है और वो उत्तरार्ध को पूर्वार्ध और पूर्वार्ध को उत्तरार्ध लिख देते हैं । इससे भी इस लेख और आरोपों की मंशा पर सवालों के कठघरे में आ जाती है ।

दरअसल जिस मर्दवादी प्रवृत्ति और मानसिकता  का संकेत मैंने उपर किया है वो हिंदी में काफी लंबे अरसे से चल रहा है । जिस भी महिला लेखिका ने अपने दौर में उपन्यास या कहानी लिखकर प्रसिद्धि के पायदान पर कदम रखा तो उसके खिलाफ एक खास किस्म का माहौल तैयार कर उनके लेखन को कमतर कर आंकने की कोशिश की गई । किसी दौर में मृदुला गर्ग पर भी आरोप लगे थे कि उनके लिए कोई और ही लेखन करता है । कालांतर में यह बात गलत साबित हुई और मृदुला जी ने एक के बाद एक बेहतरीन कृति देकर हिंदी साहित्य में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया । उसके बाद नब्बे के दशक में जब मैत्रेयी पुष्पा की सफलता का परचम हिंदी साहित्य के आकाश पर लहराने लगा तो उनके खिलाफ भी इस तरह के आरोप लगे थे । मैत्रेयी पुष्पा पर आरोप लगे कि राजेन्द्र यादव उनके उपन्यासों को रिराइट करते हैं । मैत्रेयी पर आरोप लगाने वाले यह भूल गए थे वो जिस भावभूमि पर लिखती हैं वो यादव जी के लेखन क्षेत्र में कभी रहा नहीं है । फिर किसी और को लेकर आरोप लगे लेकिन बाद में सब के सब गलत साबित हुए । मैत्रेयी पुष्पा पर पुरुषों के अलावा महिलाओं ने भी आरोप लगाए थे । तो हिंदी में इस तरह की एक गलत परंपरा रही है जिसपर लगाम लगाने की जरूरत है । हिंदी में हाल के दिनों में अगर देखा जाए तो चर्चित कृतियों का नितांत अभाव नजर आता है । अब कोई इदन्नम, चाक, आवां, तत्तवमसि, कितने पाकिस्तान, बशारत मंजिल जैसी कृति नहीं आ रही जिसपर गंभीर विमर्श हो सके । बजाए इसपर चिंता करने के आज हमारा हिंदी समाज इस बात में उलझा हुआ है कि कौन किसके लिए लिखता है और किसने किसका अहसान नहीं चुकाया । बड़ा सवाल यह है कि हिंदी के रचनाकारों के चिंता के केंद्र में जो बात होनी चाहिए वो हाशिए पर है । आज हिंदी में रचनाशीलता पर सवाल खड़े हो रहे हैं । हिंदी के नए लेखक पाठकों की मनोदशा को भांप नहीं पाने की वजह से पिछड़ते नजर आ रहे हैं । प्रकाशकों के लाख कोशिशों के बावजूद, आलोचकों की सराहना के बावजूद आज अगर हिंदी की कोई कृति सारा आकाश या आपका बंटी या चितकोबरा या राग दरबारी को नहीं छू पा रहा है तो साहित्यक पत्रिकाओं में इस बात पर बहस की जानी चाहिए । आज हमारे यहां इस बात पर क्यों कोई विमर्श नहीं होता कि हिंदी के लेखक को अबतक नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला । विमर्श के केंद्र में रचना होनी चाहिए रचनाकार का व्यक्तिगत व्यवहार नहीं । जबतक हम हिंदी के लोग इन बातों से उपर उठकर नहीं सोचेंगे तबतक इसी तरह के आरोप लगते रहेंगे और मर्दवादी सोच से लबरेज लेखक प्रसिद्धि के पायदान पर कदम रखनेवाली महिला लेखिकाओं को अपनी आलोचनाओं से छलनी करते रहेंगे । वक्त आ गया है कि हिंदी समाज अब गंभीरता से लेखन पर बात करे और आरोपों प्रत्यारोपों के चक्रव्यूह से निकलकर हिंदी की पताका को फहराने के लिए प्रयत्नशील हो ।

Tuesday, December 4, 2012

पाठकों तक पहुंचें प्रकाशक

दिल्ली से सटे इंदिरापुरम के एक भव्य और दिव्य शॉपिंग मॉल में तकरीबन दो साल पहले एक बड़ी किताब की दुकान खुली थी । उसमें देश विदेश की तमाम नई पुरानी और हर विषय की पुस्तकें बेहद करीने से रखी गई थी । दो फ्लोर की उस किताब की दुकान में ग्राहकों के लिए बैठकर अपनी मनपसंद पुस्तकें छांटने और उसके अंशों को पढ़ने की सहूलियत भी थी । नीचे की मंजिल पर किताबों के साथ साथ संगीत और फिल्मों का भी एक बड़ा कलेक्शन था जहां से आप हिंदी फिल्मों के अलावा विश्व क्लासिक फिल्मों की डीवीडी खरीद सकते थे । उसी में एक अलग कोने में पंडित रविशंकर और जसराज से लेकर माइकल जैक्सन तक की म्यूजिक सीडी अलग अलग खानों में ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित किया करती थी । भजन से लेकर गजल तक की सीडी वहां करीने से रखी रहती थी और उसका विभाजन बेहद सुरुचिपू्र्ण और करीने से था ताकि ग्राहकों को अपनी पसंद की चीजों तक पहुंचने में किसी भी तरह की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़े । पहली मंजिल पर घुसते ही करीने से सजा कर रखी जाती थी नई नई रिलीज हुई किताबें । उस दुकान में हलांकि अंग्रेजी की पुस्तकों की बहुलता थी लेकिन हिंदी की भी मशहूर किताबें मिल जाया करती थी । अगर पसंद की किताबें उपलब्ध ना हों तो वो मंगवाने का इंतजाम भी करते थे । आपको फोन नंबर लिख लिया जाता था और जैसे ही किताब उपलब्ध होती थी तो वहां से कॉल आ जाया करती थी । हर सप्ताहांत पर वहां पुस्तक प्रेमियों की अच्छी खासी भीड़ जुटा करती थी । लगता था कि किताब की दुकान ठीक चल रही थी । लेकिन चंद महीनों के अंदर ही वहां से किताबों का स्टॉक कम होना शुरू हुआ । ग्राहकों की पसंद की अनुपलब्ध किताबें मंगवाने में उनकी रुचि नहीं रही और उन्होंने ये सुविधा खत्म कर दी । फिर तो धीरे धीरे उस दुकान में भगवान की फोटो से लेकर बच्चों के खिलौने और खेल कूद के सामान भी बिकने लगे । पर तब भी पहली मंजिल पर किताबें रहा करती थी । तकरीबन सात आठ महीने आते आते उस दुकान ने, यूं लगा कि, दम तोड़ दिया है । एक सप्ताहांत वहां पहुंचा तो जिसकी आशंका थी वही हुआ । वहां चमकदार शीशे के गेट पर ताला लगा था और कागज पर चिपका था किराए के लिए उपलब्ध । दुखी मन से वापस लौटा क्योंकि पड़ोस में वैसी दुकान का बंद हो गई थी जहां किताबों के अलावा गीत संगीत की डीवीडी भी मिला करती थी । दरअसल पूरे इंदिरापुरम इलाके में वो इकलौती किताबों की दुकान थी । चंद साल पहले दुनिया की एक मशहूर पत्रिका ने इंदिरापुरम को विश्व के दस सबसे विकासशील और संभावना वाले शहरों शुमार किया था । लेकिन बावजूद उसके लाखों की आबादी वाले इलाके में इकलौती किताब की दुकान का खामोशी से बंद हो जाना गंभीर मसला था ।

बहुत मुमकिन है कि मॉल में खर्चे ज्यादा होने की वजह से किताब की दुकान बंद हो गई हो । लेकिन अभी चंद महीने पहले वहां से गुजर रहा था तो बेहद चौंकाने वाला दृश्य देखा । किताबों की दुकान वाली जगह पर एक मशहूर भारतीय फूड चेन ने अपना आउटलेट खोल दिया है । उस आउटलेट में इतनी भीड़ थी कि दोनों फ्लोर पर गार्ड ग्राहकों को बाहर ही रोक रहे थे और चंद मिनटों के इंतजार के बाद ही उनको अंदर जाने दिया जा रहा था । पैसे चुकाने वाले छह काउंटर पर लंबी कतार थी । अंदर की मेजें भरी हुई थी और ग्राहक मेज के पास खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे । अचानक थोडा अतीत में चला गया और यह सोचने लगा कि काश अगर यहां अब भी किताब की दुकान होती तो क्या इतनी ही भीड़ होती । इस सवाल का साफ जवाब मिला नहीं । लेकिन जब एक बार आपके जेहन में सवालों का बवंडर खड़ा होता है तो एक के बाद एक बमबारी की तरह से वो सामने आता जाता है । लिहाजा दूसरा सवाल खड़ा हो गया कि क्यों नहीं हो सकती किताबों की दुकान में भीड़ । इसका जवाब नहीं मिला । लिहाजा सवालों का आना बंद हो गया । मंथन शुरू हो गया । तलाश शुरू हो गई कि वजह क्या है कि हमारे समाज में खासकर हिंदी भाषी समाज में किताबों की अहमियत क्यों कर कम हो रही है ।
कई तर्क है कुछ लोगों का कहना है कि पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण ने हमारी पढ़ने की आदत खत्म कर दी । लेकिन अभी कुछ दिन पहले नेशनल बुक ट्रस्ट और नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च ने भारतीय युवाओं के बीच पढ़ने की आदतों और उनकी रुचियों को लेकर इंडियन यूथ डेमोग्राफिक्स एंड रीडरशिप सर्वे किया था  जिसे नेशनल यूथ रीडरशिप सर्वे कहा गया । उस सर्वे में कई बेहद चौंकानेवाले नतीजे सामने आए हैं । युवाओं के बीच पढ़ने की कम रुचि की चार वजहें सामने आई हैं । पहला समय की कमी , दूसरा पढ़ने में रुचि का कम होना,तीसरा सूचना के नए स्त्रोतों का आसानी से उपलब्ध होना और चौथा पुस्तकों की उचित मूल्य पर उपल्बधता । ये बात ठीक है कि आज के देश के युवाओं के पास पढ़ने का वक्त कम है । युवा वर्ग अपने करियर को आगे बढ़ाने को लेकर भी जल्दी में है । टेलीवीजिन और इंटरनेट जैसे सूचना के नए स्त्रोतों से पढ़ने की भूख कम तो हो जाती है लेकिन चौथी वजह भी उतनी ही अहम है । उसमें दो वजहें एक साथ समाहित हैं । पहली पुस्तकों की उपलब्धता और दूसरे उसका मूल्य । हिंदी पुस्तकों की बात करें तो उसकी उपलब्धता लगातार सिकुड़ती जा रही है । दिल्ली और लखनऊ जैसे शहरों में भी किताबों की चंद दुकानें हैं । नतीजा यह होता है कि टहलते घूमते किताबें खरीदना नहीं हो पाता है । दिल्ली में तो किताब खरीदना एक पूरा प्रोजेक्ट है । किताबों को उचित मूल्य पर उपलब्ध करवाने में प्रकाशकों की कोई सामूहिक रुचि दिखाई नहीं देती है । कोई सामूहिक प्रयास नहीं होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदी प्रकाशन जगत में तो पाठकों की कोई अहमियत है ही नहीं । प्रकाशकों की पहली प्राथमिकता सरकारी और पुस्तकालयों की खरीद है । प्रकाशकों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती है कि भारत में शिक्षित युवाओं का एक बेहद विशाल वर्ग है जो 2001 से लेकर 2009 के बीच तकरीबन 2.49 फीसदी की दर से बढ़ रहा है । यह बढ़ोतरी देश की सालाना जनसंख्या बढ़ोतरी से भी करीब आधा फीसदी ज्यादा है । शहरी इलकों में तो यह बढ़ोतरी तकरीबन सवा तीन फीसदी है । नेशनल यूथ रीडरशिप सर्वे के मुताबिक देशभर के युवाओं की कुल जनसंख्या के पच्चीस फीसदी युवाओं में पढ़ने की प्रवृत्ति है । जिसमें से सबसे ज्यादा करीब तैंतीस फीसदी पाठक हिंदी के हैं । इसमें से 42 फीसदी पाठक फिक्शन और 24 फीसदी नॉन फिक्शन किताबें पसंद करते हैं । बाकियों को अन्य तरह की किताबें पसंद हैं । अगर हम इस सर्वे के संकेतों को पकड़े तो सिर्फ हिंदी में फिक्शन और नॉन फिक्शन पढ़नेवाले युवा पाठकों की संख्या करोडो़ं में है । उस सर्वे में एक बात और साफ तौर पर उभर कर सामने आई है कि 56 फीसदी युवा किताबें खरीदकर पढ़ते हैं । अगर हम पाठकों की संख्या को और फिल्टर करें और उसमें से खरीदकर पढ़नेवालों की संख्या निकालें तो सिर्फ हिंदी हिंदी में ये संख्या लाखों में होगी । हिंदी के प्रकाशकों के सामने खरीदकर पढ़ने वाले इन लाखों युवा पाठकों तक पहुंचने की बड़ी चुनौती है लेकिन उस चुनौती को कारोबारी अवसर के रूप में देखने की रणनीति बनाने की कोशिश हिंदी के प्रकाशक गंभीरता के साथ नहीं कर रहे हैं । क्योंकि उसी सर्वे में यह बात भी उभर कर आई है कि अड़तीस फीसदी पाठकों को नई किताबों के बारे में दोस्तों से पता चलता है जबकि सिर्फ बीस फीसदी पाठकों को किताबों की दुकानों से पता चलता है । पुस्तकालयों से नई किताबों के बारे में सिर्फ 14 फीसदी पाठकों को पता चलता है ।
नेशनल बुक ट्रस्ट और नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के इस सर्वे के नतीजों से यह बात तो साफ हो गई है कि भारत में पाठकों की संख्या कम नहीं हो रही है , खरीदकर पढ़नेवाले भी लाखों में हैं । पर अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि प्रकाशकों के सामने उन खरीदकर पढ़नेवाले पाठकों तक पहुंचने की इच्छा शक्ति है या नहीं । आनेवाले दिनों में हिंदी के प्रकाशकों को इस दिशा में सामूहिक प्रयत्न करना होगा । किताबों की आसमान छूती कीमतों पर लगाम लगाना होगा । इसके अलावा जरूरत इस बात की भी है कि सरकार भी देश के लिए एक नई पुस्तक नीति लागू करे जिससे कि किताबों के दाम भी उचित रूप से निर्धारित किए जा सकें । अगर हम समय रहते ये कदम नहीं उठा सके तो किताबों की बची खुची दुकानों की जगह भी फूड चेन नजर आने लगेंगी ।

Sunday, November 18, 2012

प्रकाशन संस्थानों की चुनौती

महीने भर पहले विश्व प्रकाशन जगत में एक बेहद अहम घटना घटी जिसपर विचार किया जाना आवश्यक है । विश्व के दो बड़े प्रकाशन संस्थानों- रैंडम हाउस और पेंग्विन ने हाथ मिलाने का फैसला किया । रैंडम हाउस और पेंग्विन विश्व के छह सबसे बड़े प्रकाशन संस्थानों में से एक हैं । दोनों कंपनियों के सालाना टर्न ओवर के आधार पर या माना जा रहा है कि इनके साथ आने के बाद अंग्रेजी पुस्तक व्यवसाय के पच्चीस फीसदी राजस्व पर इनका कब्जा हो जाएगा । अगर हम विश्व के पुस्तक कारोबार खास कर अंग्रेजी पुस्तकों के कारोबार पर नजर डालें तो इसमें मजबूती या कंसॉलिडेशन का दौर काफी पहले से शुरू हो गया था । रैंडम हाउस जो कि जर्मनी की एक मीडिया कंपनी का हिस्सा है उसमें भी पहले नॉफ और पैंथियॉन का विलय हो चुका है । उसके अलावा पेंग्विन, जो कि एडुकेशन पब्लिकेशन हाउस पियरसन का अंग है, ने भी वाइकिंग और ड्यूटन के अलावा अन्य छोटे छोटे प्रकाशनों गृहों को अपने में समाहित किया हुआ है । अब हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि आखिरकार पेंगविन और रैंडम हाउस में विलय की योजना क्यों बनी और उसका विश्व प्रकाशन के परिदृश्य पर कितना असर पड़ेगा । इस बारे में अमेरिका के एक अखबार की टिप्पणी से कई संकेत मिलते हैं । अखबार ने लिखा कि रैंडम हाउस और पेंग्विन में विलय उस तरह की घटना है जब कि एक पति पत्नी अपनी शादी बचाने के लिए बच्चा पैदा करने का फैसला करते हैं । अखबार की ये टिप्पणी बेहद सटीक है । पुस्तकों के कारोबार से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि अमेजॉन और किंडल पर ई पुस्तकों की लगातार बढ़ रही बिक्री ने पुस्तक विक्रेताओं और प्रकाशकों की आंखों की नींद उड़ा दी है । माना जा रहा है कि अमेजॉन के दबदबे से निबटने के लिए रैंडम हाउस और पेंग्विन ने साथ आने का फैसला लिया है । कारोबार का एक बेहद आधारभूत सिद्धांत होता है कि किसी भी तरह के आसन्न खतरे से निबटने के लिए आप अपनी कंपनी का आकार इतना बड़ा कर लें कि प्रतियोगियों को आपसे निबटने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़े ।
कारोबार के जानकारों के मुताबिक आनेवाले वक्त में पुस्तक कारोबार के और भी कंसोलिडेट होने के आसार हैं । उनके मुताबिक अब वो दिन दूर नहीं कि जब कि दुनिया भर में एक या दो प्रकाशन गृह बचें जो बडे़ औद्योगिक घरानों की तरह से काम करें ।  हम अगर पुस्तकों के कारोबार पर समग्रता से विचार करें तो यह पाते हैं कि दुनियाभर में या कम से कम यूरोप और अमेरिका में ई बुक्स के प्रति लोगों की बढ़ती रुझान की वजह से पुस्तकों के प्रकाशन पर कारोबारी खतरा तो मंडराने लगा है । एक तो पुस्तकों के मुकाबले ई बुक्स की कीमत काफी कम है दूसरे किंडल और अमेजॉन पर एक क्लिक पर आपकी मनपसंद किताबें उपलब्ध है । दरअसल जिन इलाकों में इंटरनेट का घनत्व बढ़ेगा उन इलाकों में छपी हुई किताबों के प्रति रुझान कम होता चला जाएगा । इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि छपी हुई किताबों का अपना एक महत्व है । पाठकों और किताबों के बीच एक भावनात्मक रिश्ता होता है । किताब पढ़ते वक्त उसके स्पर्श मात्र से एक अलग तरह की अनुभूति होती है । लेकिन तकनीक के विस्तार और पाठकों की सुविधाओं के मद्देनजर ई बुक्स की लोकप्रियता में इजाफा होता जा रहा है । कुछ दिनों पहले एक सेमिनार में ये बात उभर कर सामने भी आई । एक वक्ता ने सलमान रश्दी की नई किताब जोसेफ एंटन का उदाहरण देते हुए कहा कि करीब साढे छह सौ पन्नों की किताब को हाथ में उठाकर पढ़ना असुविधाजनक है । उसका वजन काफी है और लगातार उसे हाथ में लेकर पढ़ने रहने से हाथों में दर्द होने लगता है । आप अगर उसी किताब को इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में पढ़ते हैं तो ज्यादा सहूलियत होती है । उनकी तर्कों को हंसी में नहीं उड़ाया जा सकता है या एकदम से खारिज भी नहीं किया जा सकता है । छह सात सौ पन्नों के किताबों को हाथ में लंबे समय तक थामे रहने का धैर्य आज की युवा पीढ़ी में नहीं है । वो तो पन्ने पलटने की बजाए स्क्रोल करना ज्यादा सुविधाजनक मानता है । यह पीढियों की पसंद और मनोविज्ञान का मसला भी है । ई बुक्स की लोकप्रियता की एक वजह ये भी है । यूरोप और अमेरिका के अखबारों में बेस्ट सेलर की ई बुक्स की अगल कैटेगिरी बन गई है । ये इस बात को दर्शाता है कि ई बुक्स ने पुस्तक प्रकाशन कारोबार के बीच अपना एक अलग मुकाम हासिल किया है ।
पेंग्विन और रैंडम हाउस की तरह से हिंदी के दो बड़े प्रकाशकों का भी विलय कुछ वर्षों पहले हुआ था । हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशन गृहों में से एक राजकमल प्रकाशन समूह ने इलाहाबाद के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान लोकभारती प्रकाशन का अधिग्रहण कर हिंदी प्रकाशन जगत में अपनी उपस्थिति और मजबूत की थी । उस वक्त भी ये लगा था कि हिंदी में भी कंसोलिडेशन शूरू हो गया है लेकिन राजकमल का लोकभारती का अधिग्रहण के बाद उस तरह की किसी प्रवृत्ति का संकेत नहीं मिला । अंग्रेजी के प्रकाशनों और प्रकाशकों की तुलना में हिंदी की बात करें तो हमारे यहां अभी प्रकाशकों के मन में ई बुक्स को लेकर बहुत उत्साह देखने को नहीं मिल रहा है । भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया ने दो तीन महीने पहले ज्ञानोदय के संपादकीय में इस बात का संकेत किया था कि वो ज्ञानपीठ के प्रकाशनों को ई बुक्स के फॉर्म में लाने पर गंभीरता से काम कर रहे हैं । इसके अलावा इक्का दुक्का प्रकाशन संस्थान इस बारे में विचार कर रहे हैं । हिंदी के अखबारों ने इस दिशा में बेहतरीन पहल की । आज हालत यह है कि तमाम भाषाओं के अखबारों के ई पेपर मौजूद हैं । इसका उन्हें राजस्व में तो फायदा हुआ ही है, उनकी पहुंच भी पहले से कहीं ज्यादा हो गई है और यों कहें कि वैश्विक हो गई है । आज अगर अमेरिका या केप टाउऩ में बैठा कोई शख्स दैनिक जागरण पढ़ना चाहता है तो वो वो एक क्लिक पर अपनी ख्वाहिश पूरी कर सकता है । अखबारों ने उससे भी आगे जाकर उस तकनीक को अपनाया है कि मोबाइल पर भी उनके अखबार मौजूद रहें । लेकिन भारत के खास करके हिंदी के प्रकाशकों में तकनीक के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में ज्यादा रुचि दिखती नहीं है । सरकारी खरीद की वजह से आज हिंदी में करीब चार से पांच हजार प्रकाशन गृह हैं । अगर उन कागजी कंपनियों को छोड़ भी दें तो कम से कम पचास तो ऐसे प्रकाशक हैं ही जो गंभीरता से किताबें छाप कर पाठकों के बीच ले जाने का उपक्रम करते हैं या उपक्रम करते दीखते हैं । लेकिन इन पचास प्रकाशनों में से कईयों के तो अपनी बेवसाइट्स तक नहीं है, ई बुक्स की तो बात ही छोड़ दीजिए । उन्हें अब भी सरकारी खरीद और पाठकों पर भरोसा है । ये भरोसा गलत नहीं है । सिर्फ इसी भरोसे पर रहकर उनके पिछड़ जाने का खतरा है । भारत में थर्ड जेनरेशन यानि 3 जी मोबाइल और इंटरनेट सेवा के बाद अब चंद महीनों में 4 जी सेवा शुरू होने जा रही है जिसे इंटरनेट की दुनिया में क्रांति के तौर पर देखा जा रहा है । माना यह जा रहा है कि 4जी के आने से उपभोक्ताओॆ के सामने अपनी मनपसंद चीजों को चुनने के कई विकल्प होंगे । उनमें से एक ई बुक्स भी होंगे । हिंदी के प्रकाशकों को इन बातों को समझना होगा और क्योंकि भारत में भी इंटरनेट का घनत्व लगातार बढ़ता जा रहा है और उसके यूजर्स भी । ऐसे में हिंदी के प्रकाशक अगर समय रहते नहीं चेते तो उनका नुकसान हो सकता है । दरअसल हिंदी के प्रकाशकों के साथ दिक्कत ये है कि वो अति आत्मविश्वास में हैं । इस आत्मविश्वास की बड़ी वजह है सरकारी खरीद । लेकिन वो भूल जाते हैं कि सरकारी खरीद से कोई भी कारोबार लंबे समय तक नहीं चल सकता है । वो छोटे से फायदे के बीच ई बुक्स के बड़े बाजार और बड़े फायदा को छोड़ दे रहे हैं जो कारोबार के लिहाज से भी उचित नहीं हैं । प्रकाशकों को वर्चुअल दुनिया में घुसना ही होगा नहीं तो उनके सामने हाशिए पर चले जाने का खतरा भी होगा । एक बार ई बुक्स की चर्चा होने पर हमारे एक प्रकाशक मित्र ने कहा था कि वो देख लेंगे कि ई बुक्स में कितना दम है लेकिन हाल के दिनों में पता चला है कि वो ई बुक्स के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं । प्रेमचंद ने कहा ही था कि विचारों में जड़ता नहीं होनी चाहिए उन्हें समय के हिसाब से बदल लेना चाहिए । हिंदी के प्रकाशकों को प्रेमचंद की बातों पर ध्यान देना चाहिए ।   

Saturday, November 10, 2012

कर्नाड का सर विदिया पर हमला

सर विदियाधर नायपॉल और विवादों का चोली दामन का साथ रहा है । पहले वो अपने लेखन में भारत के बारे में, मुसलमानों के बारे में टिप्पणियों से विवादों में रहे । नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भारत आने के बाद भारतीय जनता पार्टी के दफ्तर जाने को लेकर भी भारतीय बौद्धिक जगत में खासा हलचल मचा था । सर विदिया की बाबरी मस्जिद को गिराने की घटना को भी महान सृजनात्मक जुनून बताकर साहित्यक जगत में भूचाल ला दिया था । उस वक्त देश-विदेश के कई विद्वानों ने सर विदिया को नोबेल पुरस्कार दिए जाने की तीखी आलोचना की थी । नायपॉल भारत को तो एक महान राष्ट्र मानते रहे हैं लेकिन साथ ही ये भी जोड़ना नहीं भूलते हैं कि इस महान राष्ट्र को मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अपना वर्चस्व कायम करने के लिेए भ्रष्ट कर दिया । अपने लेखन में सर विदिया मुसलमानों को लेकर एक तरीके से होस्टाइल नजर आते हैं । इस वजह से वो कई बार भयंकर आलोचनाओं के भी शिकार होते रहे हैं । ताजा विवाद के केंद्र में हैं मुंबई लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान नोबेल और बुकर पुरस्कार प्राप्त ख्यातिलब्ध साहित्यकार सर विदियाधर नायपॉल को लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया जाना । और फिर उसी मंच से नाटककार और वरिष्ठ लेखक गिरीश कर्नाड का नायपॉल को सम्मानित किए जाने की तीखी आलोचना करना । आलोचना अपनी जगह ठीक है, गिरीश के अपने तर्क और अपनी रणनीति है । रणनीति इस वजह से कि उन्होंने बाद में एक इंटरव्यू में कहा कि वो दस सालों से इस अवरसर की तलाश में थे । सर विदिया की कई बातों को लेकर गंभीर आलोचना की जाती रही है,मैंने भी की है । लेकिन किसी को सम्मानित या पुरस्कृत करने को लेकर आलोचना जायज है । सबके अपने अपने तर्क हैं । हलांकि गिरीश कर्नाड का अपना एक एजेंडा है । वो उसी पर चलते हैं । पहले भी वो कन्नड़ के लेखक एस एल भैरप्पा की भी आलोचना कर चुके हैं । भैरप्पा ने अपने उपन्यास आवर्णा में टीपू सुल्तान को धार्मिक उन्मादी बताते हुए कहा था कि उसके दरबार में हिंदुओं की कद्र नहीं थी । उस वक्त भी गिरीश कर्नाड ने भैरप्पा पर जोरदार हमला बोला था क्योंकि अपने नाटकों में उन्होंने टीपू सुल्तान का जमकर महिमामंडन किया था । यह भी तथ्य है कि गिरीश कर्नाड की तमाम आपत्तियों के बाद भी भैरप्पा के उपन्यास ने बिक्री की नई उंचाइयां हासिल की थी और छपने के पांच महीने के अंगर ही उसकी दस आवृत्तियां हो गई थी । अभी भी गिरीश कर्नाड ने बैंगलोर के एक कार्यक्रम में सर विदिया को एक बार फिर से गैर सृजनात्मक और चुका हुआ लेखक करार दिया लेकिन उसी कार्यक्रम में गिरीश ने उत्साह में गुरुवर रवीन्द्र नाथ टैगोर के नाटकों को भी बेकार करार दे दिया । गिरीश कर्नाड ने कहा कि भारत के नाटककारों पर शेक्सपियर का जबरदस्त प्रभाव रहा है । उनके मुताबिक 1947 तक जितने भी नाटक लिखे गए सभी दोयम दर्ज के थे । गिरीश कर्नाड ने कहा कि टैगोर बेहतरीन कवि थे लेकिन उनके नाटकों को झेलना मुमकिन नहीं था । ये ठीक है कि कवि के रूप में टैगोर नाटककार टैगोर पर भारी पड़ते हैं, लेकिन उनके नाटक असहनीय थे इसपर मतभिन्नता हो सकती है, एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता है  । खैर एक बार फिर से वापस लौटते हैं सर विदिया के लेखन और गिरीश कर्नाड की आलोचना पर ।
सर विदिया के शुरुआती उपन्यासों में एक खास किस्म की ताजगी और नए विषय और उसको समझने और व्याख्यायित करने का नया तरीका नजर आता है । चाहे वो 'मिस्टिक मैसअ'र हो , 'सफरेज ऑफ अलवीरा' हो या फिर 'मायगुल स्ट्रीट'। विदियाधर सूरजप्रसाद नायपॉल के शुरुआती उपन्यासों में जो ताजगी दिखाई देती है उसमें जीवन के विविध रंगों के साथ लेखक का ह्यूमर भी करीने से मौजूद है । गिरीश कर्नाड चाहे जो भी कहें लेकिन पश्चिमी देशों के कई आलोचक यह भी स्वीकार करते हैं कि नायपॉल के लेखन ने अपने बाद  भारतीय लेखकों की पीढ़ी लिए एक ठोस जमीन भी तैयार कर दी । साठ और सत्तर के दशक में सर विदियासागर के लेखन का परचम अपनी बुलंदी पर था । उस दौरान लिखे उनके उपन्यास - अ हाउस फॉर मि. विश्वास- से उन्हें खासी प्रसिद्धि मिली और इस उपन्यास को उत्तर औपनिवेशिक लेखन में मील का पत्थर माना गया ।  नायपॉल का लेखक उन्हें लगातार भारत की ओर लेकर लौटता है नायपॉल ने भारत के बारे में उस दौर में तीन किताबें लिखी - एन एरिया ऑफ ड्राकनेस (1964), 'इंडिया अ वूंडेड सिविलाइजेशन'(1977) और इंडिया: मिलियन म्यूटिनी नॉउ(1990), लिखी । इस दौर तक तो नायपॉल के अंदर का लेखक बेहद बेचैन रहता था, तमाम यात्राएं करता रहता था और अपने लेखन के लिए कच्चा माल जुटाता था 'एन एरिया ऑफ डार्कनेस' को तो आधुनिक ट्रैवल रायटिंग में क्लासिक्स माना जाता है इसमें नायपॉल ने अपनी भारत की यात्रा के अनुभवों का वर्णन किया है इस किताब में नायपॉल ने भारत में उस दौर की जाति व्यवस्था के बारे में लिखा है । कालांतर में सर विदिया के लेखन में एक खास किस्म का ठहराव नजर आने लगता है ,विचारों में जड़ता भी इस्लामिक जीवन का जो चित्र उन्होंने खींचा है या उसके बारे में उनके जो विचार सामने आए हैं,  या फिर 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने को जिस तरह नायपॉल ने परोक्ष रूप से सही ठहराया, इन सब बातों से उनका विरोध तो बढ़ा ही, उनसे असहमतियां भी बढ़ी लेकिन इन सबके बावजूद उनके लेखन को एकदम से नकाराना नामुमकिन था
उम्र के और बढ़ने पर सर विदिया के लेखन में भारत और भारत के लोगों को लेकर सर विदिया के लेखन में एक खास किस्म का उपहास भी रेखांकित  किया जा सकता है । कुछ वर्षों पहले उनकी एक किताब आई थी - राइटर्स पीपल, वेज ऑफ लुकिंग एंड फीलिंग- आई है इसमें विदियाधर नायपॉल के पांच लेख संकलित थे । इस किताब में सर विदिया के लेखन में भारत की महान विभूतियों को लेकर भी एक खास किस्म की घृणा दिखाई देती है । इन लेखों में सर विदिया ने त्रिनिदाद के अपने शुरुआती जीवन  से लेकर गांधी और विनोबा को समेटते हुए भारतीय मूल के लेखक नीरद सी चौधरी को केंद्र में रखकर लिखे थे । इन पांच लेखों में सर विदियाधर की भारत और भारतीयों के बारे में मानसिकता को समझने में मदद मिलती है ।
अपने लेख- इंडिया अगेन महात्मा एंड ऑफ्टर में विदिया लिखते हैं - "असल में गांधी किसी तरह की पूर्णता थी ही नहीं, उनका व्यक्तित्व यहां वहां से उठाए गए टुकड़ों से निर्मित हुआ था- व्रत और सादगी के प्रति उनकी मां का प्रेम, इंगलिश कॉमन लॉ, रस्किन के विचार, टॉलस्टॉय का धार्मिक स्वप्न, दक्षिण अफ्रीका की जेल संहिता, मैनचेस्टर की नो ब्रेकफास्ट एसोसिएशन........1888 में जब गांधी इंगलैंड पहुंचे तो वो सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य थे, वे भारत के इतिहास को नहीं जानते थे, उन्हें भूगोल का ज्ञान भी नहीं था, वे पुस्तकों और नाटकों के बारे में नहीं जानते थे।  लंदन पहुंचकर उन्हें ये नहीं पता था कि वो वहां अपने पांव कैसे जमाएंगे। गांधी ने डांस भी सीखा और वॉयलिन भी सीखने की कोशिश की लेकिन इन सब के दौरान उनके हाथ लगी तो सिर्फ हताशा।"  हलांकि गांधी ने अपनी आत्मकथा में इन सारी स्थितियों का वर्णन करते हुए अपनी अज्ञानता को स्वीकारा भी है। लेकिन नायपॉल ने उसे इस तररीके से पेश किया जैसे वो कुछ नया उद्घाटित कर रहे हों ।
गांधी के बाद नायपॉल ने बिनोबा भावे को एक एक मूर्ख शख्स करार देते हुए काह कि वो पचास के दशक में गांधी की नकल करने की कोशिश कर रहे थे । विदिया ने अपने लेख में बिनोबा के बारे में लिखा कि वो बाद में एक सुधारक, बुद्धिमान व्यक्ति नहीं बल्कि एक धार्मिक मूर्ख के रूप स्थापित हुए जिनके साथ आला नेता फोटो खिंचवाना पसंद करते थे । इसके अलावा सर विदिया ने भारतीय अंग्रेजी लेखक नीरद सी चौधरी को तो शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टियों से छोटा करार दे दिया । ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनसे नायपॉल की भारत और भारतीयों की मानसिकता और राय को समझा जा सकता है । गिरीश कर्नाड को भी आपत्ति, नायपॉल के मुसलमानों के बारे में जो विचार हैं, उसको लेकर है । अब सर विदिया के समर्थक उनकी पत्नी के मुसलमान होने की बात कहकर विदियाधर सूरजप्रसाद का बचाव कर रहे हैं । उन अज्ञानी लोगों को फ्रैंच पैट्रिक की विदिया की जीवनी पढ़नी चाहिए जिसमें विदिया की पहली पत्नी को लेकर क्रूरता के किस्से हैं जिन्हें बाद में विदिया ने खुद स्वीकारा है । हमारा मानना है कि साहित्यक मसलों की जंग सिर्फ और सिर्फ विचारों से लड़ी जानी चाहिए और ये बात गिरीश कर्नाड को नहीं भूलनी चाहिए ।