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Tuesday, August 29, 2017

बीजेपी के ‘शाह’ का मिशन 350

एक पुरानी कहावत है कि कामयाबी के बाद लोग थोड़े ढीले पर जाते हैं, सेना भी जीत के बाद अपने बैरक में जाकर आराम कर रही होती है। आजादी के बाद लगभग सात दशकों में देश की राजनीति ने वो दौर देखा जब ये कहा जाता था कि नेता चुनाव में जीत के बाद पांच साल बाद ही नजर आते हैं। भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी युग के उदय के बाद स्थितियां बदलती नजर आ रही हैं। अमित शाह ने तीन साल पहले जब भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष का पद संभाला तो उन्होंने अपनी कार्यशैली से भारतीय राजनीति में एक अलग तरह की शुरुआत की। जीत दर जीत के बाद भी उनके काम करने के अंदाज में किसी तरह की ढिलाई नजर नहीं आई। उनके सियासी सिपाही भी चुनावी जीत के बाद बैरक में नहीं पहुंचे बल्कि अपने सेनापति की रणनीति पर अमल करने के लिए अगले सियासी मैदान की ओर कूच करने लगे। इस वक्त जबकि दो हजार उन्नीस में होनेवाले लोकसभा चुनाव में करीब पौने दो साल बाकी हैं, तो अमित शाह ने उसकी रणऩीति बनाकर अपने मोहरे फिट करने शुरू कर दिए हैं। खुद अध्यक्ष हर राज्य में जाकर वहां संगठन की चूलें तो कस ही रहा है सरकार में बैठे लोगों को यह संदेश भी दे रहा है कि बगैर जनता के बीच में गए सफलता संदिग्ध है।
एक तरफ जहां पूरा विपक्ष बिखरा हुआ है और विपक्षी एकता की सफल-असफल कोशिशें जारी हैं वहीं अमित शाह ने 2019 के लोकसभा चुनाव का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है। मिशन 360 यानि लोकसभा की तीन सौ साठ पर जीत का लक्ष्य। अमित शाह ने अपने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए ब्लूप्रिंट बनाकर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और केंद्रीय मंत्रियों के साथ सीटों पर जीत की संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दी है। पहले तो उन लोकसभा सीटों की पहचान की गई है जहां बीजेपी के जीतने की संभावना काफी है, उन सीटों के बारे में भी मंत्रियों और नेताओं के साथ मंथन कर जीत पक्की करने की रणनीति बनाकर उसपर काम शुरू हो गया है। इसके बाद उन सीटों पर काम शुरू किया जा चुका है जहां 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी दूसरे नंबर पर आई थी। इन सीटों पर जीत की संभावनाओं के लिए अमित शाह ने पिछले दिनों दिल्ली में बीजेपी मुख्यालय में पार्टी के नेताओं के साथ बैठक की थी। उस बैठक में बीजेपी के सभी राष्ट्रीय महासचिवों के अलावा केंद्रीय मंत्री, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के दो तीन मंत्री के अलावा पार्टी के चुनिंदा सांसदों ने भी हिस्सा लिया था। कुल बाइस नेताओं की इस बैठक में हरेक को पांच से छह लोकसभा सीटों की जिम्मेदारी दी गई है। माना जा रहा है कि उस बैठक में तमिलनाडू, केरल और पूर्वोत्तर के राज्यों में बीजेपी की सीटें बढ़ाने की रणनीति को अंतिम रूप दिया गया। केरल में बीजेपी अपना आधार बढ़ाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए है। केरल में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की हत्या को मुद्दा बनाकर बीजेपी के वरिष्ठ मंत्री से लेकर संगठन के नेताओं के लगातार दौरे हो रहे हैं। हाल ही में वित्त मंत्री अरुण जेटली भी केरल गए थे । आरएसएस के बड़े नेता भी उस मोर्चे पर सक्रिय हैं। दिल्ली से लेकर केरल तक में सेमिनार और धरना प्रदर्शन कर माहौल बनाया जा रहा है ।
बीजेपी की एक रणनीति जो देखने को मिली वो ये कि चुनाव के पहले सूबे में विपक्ष के महत्वपूर्ण नेता को अपने पाले में लाने की कवायद। चाहे असम में हेमंता सरमा हो, दिल्ली में अरविंदर सिंह लवली हों, उत्तर प्रदेश में स्वामी प्रसाद मौर्य हों या अब गुजरात में शंकर सिंह वाघेला हों। विपक्षी नेताओं को अपने पाले में लाने की अमित शाह की इस रणनीति का बड़ा मनोवैज्ञानिक फायदा मिलता है। यह पाला बदल कई बार चुनाव के ऐन पहले भी करवाया जाता है ताकि वोटरों के बीच परोक्ष रूप से यह संदेश जाए कि फलां पार्टी जीत रही है क्योंकि विपक्ष के अहम नेता पार्टी छोड़कर उधर चले गए हैं।

बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 289 सीटों पर विजय प्राप्त की थी और पारंपरिक आंकलन यह है कि कुछ सीटों पर बीजेपी को एंटी इनकंबेसी झेलनी पड़ सकती है। एंटी इंनकंबेंसी की धार को कुंद करने के लिए या फिर इससे होने वाले नुकसान की भारपाई के लिए रणनीति तो बनाई ही गई है, साथ ही मिशन 360 का लक्ष्य भी रखा गया है। अमित शाह की चुनावी रणनीति में जोरशोर से लगने से ये कयास भी लगाए जा रहे हैं कि 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनाव को प्रीपोन कर 2018 में भी करवाया जा सकता है। दो हजार अठारह में कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं । इऩ चुनावों के लिए भी अरुण जेटली समेत केंद्रीय मंत्रियों को प्रभारी नियुक्त किया गया है। संभव है कि प्रधानमंत्री मोदी के राज्य और केंद्र में साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर अमल हो जाए। हलांकि पार्टी के कई नेता इसमें दो हजार चार के चुनाव में शाइनिंग इंडिया के बावजूद पार्टी की हार का हवाला देकर ऐसा नहीं करने की सलाह दे रहे हैं। लेकिन अमित शाह की कार्यशैली को देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि वो सारे संभावनाओं और आशंकाओं पर विचार करने के बाद व्यूह रचना रचते हैं और वो व्यूह रचना ऐसी होती है जिसमें एक दो बार को छोड़कर हमेशा उनको सफलता ही मिली है। मिशन 360 को पूरा करने के लिए जुटे शाह को विपक्ष के बिखराव का लाभ भी मिल सकता है। लाभ तो राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद को संभालने को लेकर जारी भ्रम का भी होना लगभग तय है।  

Saturday, August 26, 2017

स्वार्थसिद्धि से संकल्पसिद्धि की ओर

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजनीति में भी अपने गैरपारंपरिक तौर तरीकों से चौंकाते रहे हैं। राजनीति से इतर भी जब वो बातें करते हैं तो उनकी सोच लोगों को उन प्रदेशों तक में जाती है जहां जाने में उनके पूर्ववर्ती कतराते रहे हैं। किसी का स्वागत करने के लिए फूल की जगह किताब की पौरोकारी कर प्रधानमंत्री ने सभी पुस्तकप्रेमियों को दिल जीत लिया। अब उनकी इस सलाह पर अमल भी होना शुरू हो गया है, यह देखना प्रीतिकर है कि गुलदस्तों की बजाए नेता अब पुस्तकों से स्वागत कर रहे हैं । इसी तरह से कुछ साल पहले एक पुरस्कार समारोह में में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि हर घर मे पूजाघर की तरह एक पुस्तकालय अवश्य होना चाहिए। उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि घर बनाते समय आर्किटेक्ट से नक्शे में पुस्तकालय के प्रावधान के लिए अनुरोध किया जाना चाहिए। अभी हाल ही में उन्होंने मन की बात में भी कुछ ऐसी ही बातें की जो उनकी दीर्घकालीन सोच को एक बार फिर से देश के सामने रख रही है। अभी हाल में उन्होंने 1942 को संकल्प का साल मानते हुए उन्होंने आजादी के पचहत्तरवें साल यानि दो हजार बाइस को सिद्धि का वर्ष करार दिया यानि- संकल्प से सिद्धि का कालखंड । जब प्रधानमंत्री संकल्प से सिद्धि की बात करते हैं और समाज के हर तबके से इसको अपनाने की अपील करते हैं तब उनकी यह अपील समाज के साथ साथ साहित्य और संस्कृति की देहरी पर भी दस्तक देती है।  हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि आजादी के पहले रचनाधर्मियों के क्या दायित्व थे, आजादी मिलने के बाद उनके दायित्व क्या हुए और अब आजादी के सत्तर साल बाद रचनाकारों के दायित्व और उनकी प्राथमिकताएं कितनी बदलीं।
अगर हम उन्नीस सौ बयालीस या उसके कुछ साल पहले से विचार करें तो उस वक्त के साहित्यकारों के सामने एक ही लक्ष्य था जो सबसे बड़ा था वह था- आजादी। उनकी रचनाओं के केंद्र में लोक की यही चिंता प्रतिबिंबित होती थी, लोक की यही आकांक्षा भी रहती थी। इस चिंता का प्रकटीकरण उनकी रचनाओं में होता था। 1947 में देश को आजादी मिली, हमारी आकांक्षाएं परवान चढ़ने लगीं, उम्मीदें सातवें आसमान पर जा पहुंची। आजादी के बाद के करीब दो दशक तक पूरा देश स्वतंत्रता के रोमांटिसिज्म में रहा। उसके बाद का काल मोहभंग का काल रहा। सत्तर के दशक से तो हमारे देश की बहुलतावादी संस्कृति, जिसे अनेकता में एकता की स्वीकृति मिली हुई थी, उसका निषेध होना शुरू हो गया। एक खास विचारधारा, जो अबतक कमजोर अवस्था में थी, उसको बल मिलना शुरू हो गया। भारतीय संस्कृति, साहित्य और ज्ञान परंपरा के पास जो विश्व दृष्टि थी उसको मार्क्सवाद के प्रचार प्रसार के जरिए विस्थापित करने की जोरदार कोशिशें शुरू हुईं। भौतिकता-आधुनिकता,धार्मिकता-आध्यात्मिकता वाली ज्ञान परंपरा को विस्थापित कर आयातित विचार के आधार पर साहित्य रचा जाने लगा। उस दौर में ही रामधारी सिंह दिनकर को कहना पड़ा- जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी परंपराओं को भूलकर दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगती हैं,...जब वे मन ही मन अपने को हीन और दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती है। पारस्परिक आदान-प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, किन्तु जहां प्रवाह एकतरफा हो, वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरी जाति की सांस्कृतिक दासी हो रही है। किन्तु सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने लगती है। वह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जो जाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, वह अपनी परंपरा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है।दिनकर को ये इस वजह से कहना पड़ा क्योंकि हम भाषा और रचनात्मक दोनों स्तर पर अपनी परंपरा को भुलाकर दूसरे देश या कहें कि दूसरे विचारधारा की मानसिक गुलामी के लिए अपनी एक पूरी पीढ़ी को तैयार करने में लगे थे।
साहित्य में आधुनिकता के नाम पर यह दलील दी जाने लगी कि भारतीय साहित्य आधुनिकता से कोसों दूर है । भारतीय ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ानेवाले लेखकों को दकियानूसी और पिछड़ा कहकर अपमानित किया जाने लगा। लेखन के केंद्र में नैतिकता, अध्यात्म और सौन्दर्यबोध को निगेट करने की संगठित कोशिशें होने लगी। अदृश्य के प्रति आस्था और परलोक के अस्तित्व में भारतीय जनमानस के विश्वास को खंडित करने जैसी रचनाएँ लिखी जाने लगी। इस खंडनवादी लेखन को वैज्ञनिकता का आधार भी प्रदान किया गया लेकिन ऐसा करनेवाले यह भूल गए कि भारत में लोक की आस्था को खंडित करना आसान नहीं है। हमारे देश में जो सृष्टिबोध है उसका आधार विश्वास है। भारत की संस्कृति पुरातन संस्कृति है जहां लोकजीवन और लोक यहां की संस्कृति का आधार रहे हैं। लोक को भी नकारने की कोशिशें हुईं। लोकगीतों को या जो भारतीय ज्ञान परंपरा कंठों में निवास करती थी उसको कपोल कल्पना कहा जाने लगा। ईश्वर को नकारने की कोशिशें हुईं। नीत्से की उस प्रसिद्ध घोषणा का सहारा लिया गया जिसमें उसने ईश्वर की मृत्यु की बात की थी । ऐसा प्रचारित करनेवाले लोग लगातार इस बात को छिपाते रहे कि नीत्शे ने इस घोषणा के साथ और क्या कहा था। नीत्शे ने कहा था कि ईश्वर की मृत्यु बहुत बड़ी घटना है । इस घटना की बराबरी मनुष्य जाति में तभी संभव है जब एक एक शख्स स्वयं ईश्वर बन जाए।
सत्तर के दशक में जो हुआ उसपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इंदिरा गांधी के पहले जवाहरलाल नेहरू के दौर में कांग्रेस एक विचारधारा के साथ चल रही थी और उनसे नेताओं के वौचारिक सरोकार भी होते थे। उन्नीस सौ इकहत्तर में इंदिर गांधी के मजबूत होने के बाद कांग्रेस ने वैचारिकता का दामन छोड़ दिया और उसको वाम दलों को आउटसोर्स कर दिया। इसका फायदा भी इंदिका गांधी को हुआ जब इमरजेंसी के दौर में प्रगतिशील लेखक संघ ने उनका समर्थन किया और दिल्ली में भीष्म साहनी की अगुवाई में समर्थन का प्रस्ताव पास किया गया।
उधर हिंदी साहित्य अपनी पारंपरिक चेतना से प्रेरित होने की बजाए रूसी चेतना से प्रेरित होने लगी। मार्क्सवाद में जिस समाज की कल्पना की गई थी उसको हिंदी साहित्य में साकार किया जाने लगा। अंतराष्ट्रीय अवधारणा के नाम पर हमारी राष्ट्रीय अवधारणा को नेपथ्य में डाल दिया गया । अंतराष्ट्रीयता के नाम पर मार्क्सवाद की अनुचित उपासना ने हमारी राष्ट्रीय चेतना का नुकसान करना प्रारंभ कर दिया था। अज्ञेय या निर्मल वर्मा जैसे लेखक या विद्यानिवास मिश्र या कुबेरनाथ राय जैसे निबंधकारों को साहित्य के केंद्र में आने से रोकने की कोशिश होती रही। दिनकर को उनके जीवनकाल साहित्य की परिधि पर धकेलने का प्रयास विदेशी विचारधारा के प्रभाव में काम कर रहे आलोचकों और लेखकों ने संगठित रूप से किया। उऩकी मृत्यु के बाद भी उनकी रचनाओँ का मूल्यांकन ना हो पाए, इस बात का ध्यान रखा गया। चूंकि दिनकर की रचनाएं इतनी मजबूत थीं कि तमाम प्रयासों के बावजूद उनको जनता से दूर नहीं किया जा सका। निराला के उन लेखों को कालांतर में प्रचारित प्रसारित नहीं होने दिया जिसमें उन्होंने हिन्दुत्व और हिंदू देवी-देवताओं के चरित्रों पर लिखा था। ऐसे दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं। यहां तक कि अशोक वाजपेयी को भी कलावादी कहकर साहित्य की कथित मुख्यधारा से अलग करने का प्रयास हुआ। यह तो अशोक वाजपेयी की सांगठनिक क्षमता, सत्ता से उनकी नजदीकी और बाद में उनकी आर्थिक संपन्नता की वजह से उनको बहुत नुकसान नहीं पहुंचाया जा सका।  
यह तो साफ है कि जो संकल्प भारत छोडो आंदोलन के वक्त साहित्य में चलकर आया था वो सिद्धि तक पहुंचने के रास्ते से भटक गया था। लोक और जन की बात करनेवाले लोक और जन से ही दूर होते चले गए। अपनी स्वार्थसिद्धि के चक्कर में संकल्प सिद्धि बिसरता चला गया, रचनाओं में भी और व्यवहार में भी। साहित्य को इसका बड़ा नुकसान हुआ, साहित्य की विविधता खत्म हो गई, चिंतन पद्धति का विकास अवरुद्ध हो गया, साहित्येतर विधाएं मृतप्राय होती चली गईं। दो हजार बाइस तक का वक्त है, अगर हम अपनी आजादी के पचहत्तरवें साल में भी साहित्य को उसकी विविधता लौटा सकें, लोक को उसके केंद्र में स्थापित कर सकें, कंठों के माध्यम से जीवित साहित्य को जिंदा कर सकें तो हम संकल्प सिद्धि के छूटे हुए डोर को पकड़ने में कामयाब हो सकते हैं।


Saturday, August 19, 2017

एक्ट में बदलाव से बदलेगी सूरत

हाल ही में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड जिसे आमतौर पर लोग सेंसर बोर्ड के नाम से जानते हैं, का पुर्नगठन किया गया और अध्यक्ष समेत कई सदस्यों को बदला गया। हटाए गए अध्यक्ष पहलाज निहलानी के कार्यकाल में फिल्मों के सेंसरशिप को लेकर काफी हो हल्ला मचता रहा। उनके विवादास्पद बयानों ने भी उनके विरोधियों को काफी मसाला दे दिया। बोर्ड के अंदर ही सदस्यों के बीच मतभेद शुरू हो गए थे। दरअसल पहलाज निहलानी ने सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनते ही ऐसे काम शुरू कर दिए किए कि बोर्ड तो को संस्कारी बोर्ड कहा जाने लगा था। सेंसर बोर्ड ने जब जेम्स बांड की फिल्म में कांट-छांट की थी तो संस्कारी बोर्ड हैश टैग के साथ कई दिनों तक वो मसला ट्विटर पर ट्रेंड करता रहा था । फिल्म में चुंबन के दृश्य पर सेंसर बोर्ड की कैंची चली थी । उस वक्त पहलाज निहलानी का तर्क था कि भारतीय समाज के लिए लंबे किसिंग सीन उचित नहीं हैं और उन्होंने आधे से ज्यादा इस तरह के सीन को हटवा दिया था । बांड की फिल्म में कट लगाने के बाद पूरी दुनिया में सेंसर बोर्ड और उसके अध्यक्ष की फजीहत हुई थी । अभी हाल ही में प्रकाश झा की फिल्म लिपस्टिक अंडर बुर्का को लेकर भी काफी विवाद हुआ। विवादित फिल्मों की काफी लंबी सूची है। अब जब सेंसर बोर्ड का नए सिरे से गठन किया गया है और प्रसून जोशी को उसका अध्यक्ष बनाया गया है तो फिल्मकारों को उम्मीद जगी है कि अब उनका काम आसान होगा। पर क्या सच में यह इतना आसान है। क्या फिल्मों पर कैंची चलनी रुक जाएगी। शायद नहीं।
नवगठित बोर्ड में दोबारा नामित वाणी त्रिपाठी के बयानों से लगता है कि जबतक सिनेमेटोग्राफी एक्ट में बदलाव नहीं किया जाएगा तो बहुत कुछ बदलने वाला नहीं है। वाणी त्रिपाठी जिस ओर इशारा कर रही हैं उसपर विचार करना बहुत आवश्यक है । सिनेमेटोग्राफी एक्ट की धारा 5 बी (1) को देखे जाने की जरूरत है। इस धारा के अंतर्गत बोर्ड के सदस्यों को यह छूट मिलती है कि वो शब्दों को अपने तरीके से व्याख्यायित कर सकें । इस धारा के मुताबिक - किसी फिल्म को रिलीज करने का प्रमाण पत्र तभी दिया जा सकता है जब कि उससे भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता पर कोई आंच ना आए । मित्र राष्ट्रों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी ना हो । इसके अलावा तीन और शब्द हैं पब्लिक ऑर्डर, शालीनता और नैतिकता का पालन होना चाहिए । अब इसमें सार्वजनिक शांति या कानून व्यवस्था तक तो ठीक है लेकिन शालीनता और नैतिकता की व्याख्या अलग अलग तरीके से की जाती रही है । अब नए बोर्ड में ही अगर हम देखें तो प्रसून और वाणी के लिए शालीनता और नैतिकता की परिभाषा अलग हो सकती है वहीं नरेन्द्र कोहली की व्य़ाख्या इनसे अलग हो सकती है। और यहीं से मतभेद और विवाद की शुरुआत होती है।
इस एक्ट के तहत सालों से विवाद होते रहे हैं । उन्नीस सौ तेहत्तर में बी के आदर्श की फिल्म गुप्त ज्ञान को लेकर काफी बवाल मचा था । तत्कालीन बोर्ड के कई सदस्यों को लग रहा था कि ये जनता की यौन भावनाओं को भड़का कर पैसा कमाने के लिए बनाई गई फिल्म है जबकि निर्माताओं का तर्क था था वो समाज को शिक्षित करना चाहते हैं । लंबी बहस के बाद गुप्त ज्ञान को बगैर किसी काट छांट के प्रदर्शन की इजाजत तो दी गई थी।  फिल्म के प्रदर्शन के बाद उसके अंतरंग दृष्यों को लेकर इतनी आलोचना हुई कि चंद महीने में ही उसको सिनेमाघरों से वापस लेना पड़ा था । उन्नीस सौ चौरानवे में दस्यु सुंदरी फूलन देवी की जिंदगी पर बनी फिल्म बैंडिट क्वीन में भी स्त्री देह की नग्नता को लॉंग शॉट में ही दिखाने की इजाजत दी गई थी । फिल्म फायर से लेकर डर्टी पिक्चर तक पर अच्छा खासा विवाद हुआ लेकिन सेंसर बोर्ड ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया था । फिल्म 12 इयर्स अ स्लेव में गुलामों के अत्याचार के नाम पर नग्नतापूर्ण दृश्यों की इजाजत देना हैरान करनेवाला था । जब दो हजार में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सीईओ घूसखोरी के आरोप में सीबीआई के हत्थे चढ़े तो स्थितियां साफ होने लगी थीं कि किस वजह से मानदंड को अलग अलग तरीके से किसी के हक में इस्तेमाल किया जाता है। सीईओ की गिरफ्तारी के बाद कई सुपरस्टार्स और निर्देशकों ने इस बात के पर्याप्त संकेत दिए थे कि उनको अपनी फिल्मों में गानों को पास करवाने के लिए घूस देना पड़ा था । एक सेंसर बोर्ड सैफ अली की फिल्म ओमकारा में गालियों के प्रयोग की इजाजत देता है तो दूसरा सेंसर बोर्ड प्रकाश झा की फिल्म में गाली हटाने को कहता है ।फिल्म प्रमाणन बोर्ड में जिस तरह से एडल्ट और यू ए फिल्म को श्रेणीबद्ध करने की गाइडलाइंस है उसको लेकर भी बेहद भ्रम है । फिल्मों को सर्टिफिकेट देने की गड़बड़ी शुरू होती है क्षेत्रीय स्तर की कमेटियों से जहां वैसे लोगों का चयन होता है जिनको सिनेमा की गहरी समझ नहीं होती है । इसके बाद फिल्म प्रमाणन बोर्ड में भी कई स्तर होते हैं और एक्ट के शब्दों को अपनी तरह से व्याख्यित कर अध्यक्ष अपनी मनमानी चलाते हैं ।
वाणी त्रिपाठी इस बात को जोर देकर कहती हैं कि फिल्म प्रमाणन बोर्ड में सुधार के लिए श्याम बेनेगल समिति की सिफारिशों को जल्द से जल्द लागू किया जाना चाहिए। अरुण जेटली जब सूचना और प्रसारण मंत्री थे तब श्याम बेनेगल की अध्क्षता में एक समिति बनाई थी। इस समिति में राकेश ओमप्रकाश मेहरा और पियूष पाडें सदस्य थे। सीबीएफसी में सुधारों को लेकर इस समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी लेकिन उसको लागू नहीं किया जा सका है।जहां तक ज्ञात हुआ है कि श्याम बेनेगल समिति ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सेंसर बोर्ड के कामकाज के अलावा फिल्मों को दिए जानेवाले सर्टिफिकेट की प्रक्रिया में बदलाव की सिफारिश की थी । यह भी कहा जा रहा है कि बेनेगल कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक अब इस संस्था को सिर्फ फिल्मों के वर्गीकरण का अधिकार रहना चाहिए । वो फिल्म को देखे और उसको किस तरह के यू , ए या फिर यूए सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए, इसका फैसला करे । इस सिफारिश को अगर मान लिया जाता है तो फिल्म सेंसर के इतिहास में बदलाव की शुरुआत हो सकेगी। सूचना और प्रसारण मंत्रालय संभालने के बाद जिस तरह से स्मृति ईरानी ने फिल्म प्रमाणन बोर्ड से लेकर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की आयोजन से जुड़ी समितियों में बदलाव किया है उससे उम्मीद जगी है कि बेनेगल समिति की सिफारिशों को लागू किया जा सकेगा। फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सदस्य ही बेनेगल समिति की सिफारिशों को लेकर उत्साहित हैं तो संभव है कि उसको लागू करने का प्रक्रिया में तेजी आए। बेनेगल कमेटी की सिफारिशों को लागू करते हुए यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसमें भी सिनेमेटोग्राफिक एक्ट की धारा 5 बी(1) का ख्याल रखने की सलाह दी गई है। सारी समस्या की जड़ में तो यही धारा है ।
यह भी ज्ञात हुआ है कि बेनेगल समिति की सिफारिशों के मुताबिक फिल्मकारों के लिए ये बताना जरूरी होगा कि वो किस श्रेणी की फिल्म बनाकर लाए हैं और उन्हें किस श्रेणी में सर्टिफिकेट चाहिए । उसके बाद सीबीएफसी के सदस्य फिल्म को देखकर तय करेंगे कि फिल्मकार का आवेदन सही है या उनके वर्गीकरण में बदलाव की गुंजाइश है । उसके आधार पर ही फिल्म को सर्टिफिकेट मिलेगा । बेनेगल कमेटी ने अपनी सिफारिशों में फिल्मों के वर्गीकरण का दायरा और बढा दिया गया है । यू के अलावा यूए श्रेणी को दो हिस्सों में बांटने की सलाह दी गई है । पहली यूए + 12 और यूए +15 । इसी तरह से ए कैटेगरी को भी दो हिस्सों में बांटा गया है । ए और ए सी । ए सी यानि कि एडल्ट विद कॉशन । इसके अलावा कमेटी ने बोर्ड के कामकाज में सुधार के लिए भी सिफारिश की है । उन्होंने सुझाया है कि बोर्ड के चेयरमैन समेत सभी सदस्य फिल्म प्रमाणन के दैनिक कामकाज से खुद को अलग रखेंगे और इस काम की रहनुमाई करेंगे । पहलाज निहलानी के साथ एक दिक्कत यह भी थी कि वो रोजाना बोर्ड के दफ्तर में बैठते थे और हर छोटे बड़े फैसलों को लेकर बयान देने के लिए उपलब्ध रहते थे। अबतक की छवि के मुताबिक प्रसून जोशी बेहद संजीदगी से काम करते हैं और विवादों से दूर रहते हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके कार्यकाल में विवादित बयान कम आएंगे लेकिन फिल्मों पर कैंची चलनी कम हो जाएगी यह उम्मीद तबतक बेमानी है जबतक कि बेनेगल कमेटी की सिफारिशों को सुधारों के साथ लागू नहीं कर दिया जाता है ।

Sunday, August 13, 2017

शोध से दूर हिंदी की रचनात्मकता

आजादी के आज सत्तर साल होने को आए हैं और सत्तर साल की वय किसी के भी मूल्यांकन का बेहतर मौका तो होता ही है। हिंदी की रचनात्मकता की बात करें तो सत्तर साल के सफर पर बात करने से हमें बहुत आशाजनक तस्वीर नजर नहीं आती है। हिंदी में आजादी के पूर्व और आजादी के कुछ दिनों बाद जिस तरह की रटनाएं आ रही थीं धीरे धीरे उसका ह्रास होता चला गया। हम तो अपने व्याकरण. पुरातत्व, वैदिक और पौराणिक वांग्मय, संस्कृत काव्य को नए सिरे से व्याख्यायित करने की ओर भी ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। भारतीय धर्म शास्त्रों को नए सिरे से उद्घाटित करने का उपक्रम भी नहीं दीखता है। वेद और पुराणों को लेकर शोध भी लगभग नहीं के बराबर हो रहे हैं, यह जानने की कोशिश भी नहीं हो रही है कि कि जिस वेदव्यास ने महाभारत की रचना की थी उसी ने वेदव्यास ने पुराणों की रचना की थी। यह प्रश्न भी हिंदी के शोधार्थियों को नहीं मथता है कि अकेले वेदव्यास सभी पुराणों के रचियता कैसे हो सकते हैं। पुराणों के रूप में जो करीब चार लाख श्लोकों का विशाल साहित्. मौजूद है उससे मुठभेड़ का साहस लेखक क्यों नहीं कर पाता है। भारतीय धर्म के ज्ञानकोष वेद को लेकर भी हमारे साहित्यकार उत्साहित नजर नहीं आते हैं । वासुदेव शरण अग्रवाल जैसा विभिन्न विषयों पर विपुल लेखन करनेवाला लेखक भी हिंदी में इस समय कोई नजर नहीं आता है। अगर कोई है तो हिंदी समाज का दायित्व है कि ऐसे लेखक को विशाल हिंदी पाठक वर्ग से जोड़ने का उपक्रम किया जाए। पौराणिक चरित्रों को लेकर जिस तरह से लेखन किया जा रहा है वो युवा वर्ग के पाठकों के बीच लोकप्रिय भी हो रहा है वह भी भ्रम पैदा करता है। राम-सीता और कृष्ण के चरित्रों के साथ जिस तरह से छेड़छाड़ किया जा रहा है उसपर भी कहीं से किसी तरह की गंभीर लेखकीय आपत्ति का नहीं आना भी खेदजनक है।
उधर विदेशों में पौराणिक भारतीय साहित्य को लेकर बेहद उत्साहजनक रचनात्मकता दिखाई देती है। अमेरिका से लेकर जर्मनी तक में भारतीय पौराणिक साहित्य से मुठभेड़ करते विद्वान नजर आते हैं। संभऴ है कि उनमें से कई लेखकों की राय पर अन्य लोगों को आपत्ति हो लेकिन वो काम तो कर रहे हैं। ऐसी ही एक छिहत्तर साल की लेखिका हैं- वेंडी डोनिगर। इतिहास और धर्म की प्रोफेसर रहीं वेंडी डोनिगर की किताब- हिंदूज,एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री को लेकर भारत में काफी विरोध हुआ था। विरोध के बाद प्रकाशक ने उसको वापस लिया फिर किसी अन्य प्रकाशक ने उसको छापा। दरअसल हिंदू धर्म और उसका धार्मिक इतिहास वेंडी डोनिगर की रुचि के केंद्र में रहे हैं। ऋगवेद, मनुस्मृति और कामसूत्र का उन्होंने अनुवाद किया है। इसके अलावा शिवा, द इरोटिक एसेटिक, द ओरिजन ऑफ एविल इन हिंदू मायथोलॉजी जैसी विचारोत्तेजक कृतियां भी वेंडी डोनिगर के खाते में है। हिंदूज,एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री में वेंडी डोनिगर ने हिंदू धर्म की अवधारणाओं और प्रस्थापनाओं को पश्चिमी मानकों और कसौटी पर कसा है। वेंडी डोनिगर के मुताबिक हिंदू धर्म की खूबसूरती उसकी जीवंतता और विविधता है जो हर काल में अपने दर्शन पर डिबेट की चुनौती पेश करता है।हिंदू धर्म पर प्रचुर लेखन करने के बाद अब उनकी एक और दिलचस्प किताब आई है द रिंग ऑफ ट्रुथ, मिथ ऑफ सेक्स एंड जूलरी। अपनी इस किताब में डोनिगर जूलरी का बिजनेस करनेवाले अपने मामा के अनुभवों के आधार पर कई सिरों को जोड़कर उसकी व्याख्या की है। वेंडि डोनिगर ने माना है कि उन्होंने अंगूठियों और गहनों पर करीब दो सौ लेख लिखे हैं और कई लेक्चर में उन्होंने इसको विषय बनाया है। वेंडी के मुताबिक जब भी वो इस विषय पर कोई लेक्चर देती थीं तो कोई ना कोई उनके पास आता था और अपनी रिंग फिंगर को दिखाकर उससे जुड़ी कोई कहानी सुनाता था। सबकी अपनी अपनी कहानी थी। इसके बाद जब उन्होंने जब ग्रीक और संस्कृत साहित्य पढ़ना और पढ़ाना शुरू किया तो उन्हें इस विषय पर इतने उदाहरण मिले कि वो चकित रह गईं। और उन्होंने उसको सहेजना और जोड़ना प्रारंभ कर दिया था। हमारे प्राचीन और पौराणिक ग्रंथों में अंगूठी को लेकर बहुत कुछ कहा गया है। राजा जब खुश होता था तो अंगूठू उतारकर दे देता था, राजा के हाथ में जो अंगूठी होती थी वो उसके राजा होने की जानकारी भी देती थी आदि आदि।
अपनी इस कृति में वेंडि इस सवाल का जवाब तलाशती हैं कि अंगूठियों का कामेच्छा से क्या संबंध रहा है और स्त्री पुरुष संबंधों में उसकी इतनी महत्ता क्यों रही है। क्यों पति-पत्नी से लेकर प्रेमी-प्रेमिका और विवाहेत्तर संबंधों में अंगूठी इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है। अंगूठी प्यार का प्रतीक तो है इसके मार्फत वशीकरण की कहानी भी जुड़ती चली जाती है। बहुधा यह ताकत के प्रतीक के अलावा पहचान के चौर पर भी देखी जाती रही है।
इस पुस्तक में यह देखना बेहद दिलचस्प है कि किस तरह से वेंडी डोनिगर पूरी दुनिया के धर्मग्रंथों से लेकर शेक्सपियर, कालिदास और तुलसीदास तक की कालजयी रचनाओं में अंगूठी के उल्लेख को जोड़ती चलती हैं । ग्रीक और रोमन इतिहास में भी अंगूठियों को स्त्री-पुरुष के प्रेम से जोड़कर देखा गया है। चर्च ने भी अंगूठी को वैवाहिक बंधन के चिन्ह के रूप में मान्यता दी थी। वो इस बारे में पंद्रह सौ उनसठ के बुक ऑफ कॉमन प्रेयर का जिक्र करती हैं। वो बताती है कि किस तरह से सोलहवीं शताब्दी में इटली में पुरुष जो अंगूठियां पहनते थे उसमें लगे पत्थरों में नग्न स्त्रियों के चित्र उकेरे जाते थे। माना जाता था कि इस तरह की अंगूठी को पहनने वाले स्त्रियों को अपने वश में कर लेते थे। अंगूठी और संबंधों के बारे में मिथकों में क्या कहा गया है, अपनी इस खोज के सिलसिले में लेखिका ने जितना शोध किया है वो आश्चर्यजनक है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों से उसने इतना कुछ उद्धृत किया है कि पाठक चमत्कृत रह जाते हैं और उनके मन में यह सवाल भी कौंधता है कि हिंदी में इस तरह की किताबें क्यों नहीं लिखी जाती हैं।
वेंडि डोनिगर के मुताबिक करीब हजारों साल पहले जब सभ्यता की शुरुआत हुई थी तभी से कविताओं में गहनों का जिक्र मिलता है । उन कविताओं में स्त्री के अंगों की तुलना बेशकीमती पत्थरों की गई थी। जब नायिका के बालों को सोने जैसा बताया गया था। वेंडि डोनिगर इस क्रम में जब भारत के मिथकीय और ऐतिहासिक चरित्रों की ओर आती हैं तो वो सीता का उदाहरण देती हैं। इस संदर्भ में ये भी कहती हैं कि अपने पति की अनुपस्थिति में गहने पहननेवाली औरतों को उस वक्त के समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता था। सीता चूंकि राजकुमारी थीं, इसलिए गहने उनके परिधान का आवश्यक अंग थे, इसलिए अपने पति से अलग निर्वासन में रहने पर भी सीता के गहने पहनने पर किसी तरह का सवाल नहीं उठा था। सीता के अलावा वो दुश्यंत का भी उदाहरण देती हैं कि कैसे उसको अंगूठी को देखकर अपनी पत्नी शकुंतला की याद आती है। तो आप देखें कि किस तरह से एक शोध के सिलसिले में कालिदास से लेकर तुलसीदास की रचनाओं का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा लेखिका जिस कालखंड में विचरण करती हैं वो कितना बड़ा है। इतने बड़े कालखंड़ को अपने लेखन में साधने के लिए कितने कौशल और ज्ञान की जरूरत होती है इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है।

इन दिनो मिथ पर इतना अधिक लिख जा रहा है और जनश्रुतियों और लोककथाओं के आधार पर उपन्यास पर उपन्यास लिख जा रहे हैं उससे यह लगता है कि मिथक लेखन के पाठक बहुत हैं। हाल में जिस तरह से भारतीय अंग्रेजी लेखकों ने मिथकों पर लिखा है उससे यह प्रतीत होने लगा है कि मिथ को अपने तरीके तोड़ने मरोड़ने की छूट वो लेते हैं और फिर संभाल नहीं पाते हैं। वेंडी डोनिगर की यह किताब बताती है कि मिथकों और मिथकीय पात्रों और परिस्थितियों पर लिखने के लिए कितनी मेहनत की आवश्यकता होती है। अपने तर्कों के समर्थन में कितने उदाहरण देने पड़ते हैं। जिस तरह से वेंडि डोनिगर ने अपनी इस किताब में मेसोपोटामिया की सभ्यता से लेकर हिंदी, जैन, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म के लेखन से तथ्यों को उठाया है और उसको व्याख्यायित किया है वो अद्धभुत है। आजादी के सत्तर साल बाद आज हम हिंदी के लोगों को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि हिंदी मे स्तरीय शोध आधारित लेखन को कैसे बढ़ावा दिया जाए। 

Saturday, August 12, 2017

कांग्रेस में संघर्ष होगा तेज

अभी हाल ही में कांग्रेस पार्टी में दो अहम घटनाएं हुईं। बहुचर्चित राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल गुजरात से निर्वाचित हुए। निर्वाचन के पहले हाई वोल्टेज ड्रामा हुआ और मेरे जानते हाल के दशकों में किसी राज्यसभा चुनाव को मीडिया में इतनी कवरेज नहीं मिली थी। अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव को कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था लेकिन पटेल के लिए तो यह चुनाव करो या मरो की स्थिति के जैसा था। पिछले करीब एक दशक से अहमद पटेल कांग्रेस में सोनिया गांधी के बाद सबसे ताकतवर नेता के तौर पर स्थापित थे। कहा जाता था कि पटेल की मर्जी के बगैर पार्टी में पत्ता भी नहीं हिलता है। ऐसे में जब बीजेपी ने कांग्रेस के इस कद्दावर नेता को राज्यसभा चुनाव के चक्रव्यूह में घेरा तो अहमद पटेल के सामने अपने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया। पटेल ने अपने रणनीतिक कौशल से इस चुनाव के नतीजे को अपने पक्ष में कर लिया और पार्टी में अपनी अहमियत भी साबित कर दी। राज्यसभा चुनाव के नतीजे के पहले पार्टी में एक और बेहद अहम घटना हुई। कांग्रेस के महासचिव और राहुल गांधी कैंप के माने जानेवाले दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस आलाकमान को खत लिखकर पार्टी की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त करने की मांग की ताकि तीर्थयात्रानुमा जर्नी पर जा सकें। इसके पहले दिग्विजय सिंह को गोवा और कर्नाटक के बाद तेलांगना के प्रभार से पार्टी ने मुक्त कर दिया था। पार्टी के अंदर गोवा में सरकार नहीं बनने के लिए दिग्विजय सिंह को ही जिम्मेदार माना गया था। तेलगांना का प्रभार लिए जाने के बाद दिग्विजय ने खत लिखा था।
पहली घटना ने तो मीडिया में जमकर सुर्खियां बटोरी लेकिन दिग्विजय सिंह के कदम को उस तरह से सुर्खियां हासिल नहीं हुईं। अब इन दोनों घटनाओं को मिलाकर देखने पर कांग्रेस में एक नए तरह के समीकरण का आभास होता है। पटेल की जीत से एक बात तो तय मानी जा रही है कि पार्टी में अब राहुल गांधी के कैंप के नेताओं पर सोनिया की पीढ़ी के नेता और उनके सहयोगी हावी होने की कोशिश करेंगे। अहमद पटेल की मजबूती को इस रूप में देखा जा रहा है । यह भी संभव है कि अब इस तरह की मांग उठे कि दो हजार उन्नीस के लोकसभा चुनाव तक सोनिया गांधी के हाथों में ही पार्टी की कमान रहे। राहुल गांधी पार्टी के उपाध्यक्ष के तौर पर अपनी भूमिका का निर्वाह करते रहे। अगर इस तरह की मांग मान ली जाती है तो 2019 तक अहमद पटेल की पार्टी में अहमियत और केंद्रीय भूमिका बनी रह सकती है।
कांग्रेस में संगठनात्मक चुनाव होने वाले हैं और जिस तरह से एक नियमित अंतराल पर राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने की खबरें आम होती हैं उसी तरह से एक बार फिर से कयास लगाए जा रहे हैं कि अक्तूबर में राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बन सकते हैं। अहमद पटेल की जीत के बाद यह तो तय हो गया है कि अगर राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष बनते भी हैं तो उनके लिए अहमद पटेल को दरकिनार कर अपनी मर्जी चलाना आसान नहीं होगा। दिग्विजय सिंह की खुद को पार्टी की जिम्मेदारियों से मुक्त करने के अनुरोध को कुछ लोग कांग्रेस के पुराने कामराज फॉर्मूले की तरह देख रहे है। यह कहां तक व्यावहारिक है ये तो आने वाले वक्त में ही पता चल पाएगा।
दरअसल मौजूदा कांग्रेस पार्टी में सोनिया के कैंप के नेताओं और राहुल गांधी के करीबी नेताओं के बीच एक तरह की रस्साकशी लंबे समय से चल रही है। राहुल गांधी चाहते हैं कि वो तब अध्यक्ष बनें जब पार्टी के सभी पदाधिकारी उनकी मर्जी के हों। वो अपनी टीम खुद बना सकें। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाता है। राहुल कैंप के कई नेताओं का मानना है कि इसमें अहमद पटेल सबसे बड़ी बाधा हैं और वो चाहते हैं कि पार्टी नए और पुराने नेताओं के बीच समन्वय बनाकर चले ताकि पार्टी को अनुभव और ऊर्जा दोनों का साथ मिल सके। अहमद पटेल ने राज्यसभा चुनाव में जीत हासिल कर अपने अनुभव और ऊर्जा के समन्वय के सिद्धांत को साबित भी कर दिया, लिहाजा ये माना जा रहा है कि सोनिया गांधी का इस सिद्धांत में भरोसा बढ़ेगा। सोनिया गांधी जितना ही अनुभव और ऊर्जा के समन्वय की बात करेंगी उतनी ही राहुल गांधी को दिक्कत होगी। राहुल कैंप के नेता चाहते हैं कि जब वो राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बनें तो उनकी राह में किसी तरह की बाधा ना हो। उनकी टीम में सभी नेता ऐसे हों जिनकी आस्था सिर्फ उनमें हो। अहमद पटेल की राज्यसभा की जीत ने पार्टी के अंदर के इस द्वंद को बढ़ा दिया है।

राहुल गांधी कैंप के नेताओं और अहमद पटेल के बीच संबंध कैसे हैं इसकी बानगी ट्वीटर पर भी देखने को मिल सकती है। अहमद पटेल की जीत के बाद जब पार्टी के सभी नेता अहमद पटेल को बधाई दे रहे थे तो वो सभी उनको टैग कर रहे थे और पटेल भी लगभग सबको नाम लेकर धन्यवाद दे रहे थे। दिग्विजय सिंह ने जो ट्वीट किया उसमें लिखा- बधाई हो अहमद भाई। जवाब में पटेल ने लिखा- बहुत धन्यवाद जी। औपचारिक बधाई का बेहद औपचारिक धन्यवाद। इस ट्वीटर संवाद से ही संकेत मिल रहे हैं। पटेल की जीत के बाद अब पार्टी में एक बार फिर से पीढ़ियों का संघर्ष बढ़ सकता है, इसके संकेत तो मिलने शुरू हो ही गए हैं। अब यह सोनिया के राजनीतिक कौशल पर निर्भऱ करता है कि वो इस संघर्ष से पार्टी को कैसे उबारती हैं।    

Saturday, August 5, 2017

टिप्पणी से कठघरे में कवि

भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के एलान के साथ ही हिंदी साहित्य में एक उबाल सा उठा है। पुरस्कार के लिए चयनित युवा कवि अच्युतानंद मिश्र की कविताओं पर बात होने के बजाए विमर्श गैर-साहित्यक मसले पर शुरू हो गया। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार हर वर्ष हिंदी के पैंतीस साल तक की उम्र के कवि को दिया जाता है। प्रक्रिया के मुताबिक निर्णायक मंडल का एक सदस्य अपनी बारी आने पर कवि का चयन करता है । इस वर्ष चयन की बारी हिंदी की वरिष्ठ कवयित्री अनामिका की थी। उन्होंने अच्युतानंद मिश्र की कविता बच्चे धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं के लिए ये पुरस्कार देने का फैसला किया। यहां तक तो सबकुछ सामान्य लग रहा था। एलान भी हो गया।  अच्युतानंद को बधाई आदि का दौर शुरू ही हुआ था कि अचानक फेसबुक पर एक कवि अवतरित हुए और उन्होंने अनामिका पर बेहद अमर्यादित टिप्पणी कर दी। फेसबुक पर इस टिप्पणी के आते ही बवाल मच गया। लगभग चरित्रहनन करते इस पोस्ट को लेकर हिंदी की कई लेखिकाओं ने अपना विरोध जताना शुरू कर दिया। बाद में कवि जी ने अनामिका पर की गई अपनी टिप्पणी को हटा दिया, लेकिन तबतक जो नुकसान होना था वह हो गया। कवि महोदय की पोस्ट वायरल हो चुकी थी। स्क्रीन शॉट साझा किए जा रहे थे। पक्ष-विपक्ष में लोग अपनी बातें कहने लगे थे। कुछ लेखिका खुद को निष्पक्ष दिखने-दिखाने के चक्कर में नापतौल कर पोस्ट लिख रही थीं। मसला ये कि कई लोग खुलकर विरोध करने से बचते रहे थे। कवि जी की पोस्ट को लेकर एक नया नया ललबबुआ ने तो पीरी लेखिका बिरादरी को ही कूढ़मगज करार दे दिया। ललबबुआ की परेशानी यह बताई जा रही है कि उसको उम्मीद थी कि इस वर्ष का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार उसको मिलेगा लेकिन अच्युतानंद को देकर अनामिका ने उसका सपना तोड़ दिया। कोई भी शख्स जब सपने को सच माने बैठा हो और जब उसके सच होने का समय आए और सपना चूट जाए तो बौखलाहट स्वाभाविक है। बौखलाहट में साहित्य के खर पतवारों में भी हलचल होनो लगी और मर्यादा तार-तार होने लगी। इस साहित्यक घटना को बताने का मकसद समकालीन हिंदी साहित्य में विमर्श के गिरते स्तर की ओर इशारा करना था। हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक हमेशा अपनी बातचीत में हमेशा कहा करते हैं कि समकालीन हिंदी साहित्य इस वक्त बजबजा रहा है। उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए ये कहा जा सकता है कि साहित्यक परिदृश्य ना केवल बजबजा रहा है बल्कि गुड़ की राब की तरह खदबदा रहा है। यह मसला सिर्फ साहित्यक विमर्श के गिरते स्तर तक नहीं पहुंचता है बल्कि इस घटना के कई छोर हैं जिनपर साहित्य से जुड़े लोगों को गंभीरता से विचार करना होगा।
लेखिकाओं के बारे में अमर्यादित और अश्लील टिप्पणी करने का मंच फेसबुक बना । फेसबुक इस वक्त हिंदी साहित्य में एक अनिवार्य उपस्थिति की तरह है। लगभग हर तरह के मसले फेसबुक पर ही सबसे पहले नमूदार होते हैं, सूचनाओ से लेकर विवाद तक, गंभीर विमर्श से लेकर हल्की फुल्की बातों तक। यहां तक कि लेखकों के व्यक्तिगत मामले भी फेसबुक पर सार्वजनिक होते रहते हैं । फेसबुक लेखकों के लिए पाठकों से जुड़ने का एक बेहद उपयोगी मंच है। नई ऩई रचनाएं और विचार, जिनको पत्र-पत्रिकाओं में जगह नहीं मिल पाती हैं, उनको फेसबुक पर स्थान तो मिलता ही है, एक पाठकवर्ग भी मिलता है। लेकिन फेसबुक पर कुछ भी लिखने की जो आजादी है वो इस मंच को कई बार एक अराजक मंच भी बना देता है। यह अराजकता फेसबुक की सबसे बड़ी खामी है । इस अराजक आजादी का फायदा कुछ लोग उठाते हैं एक दूसरे को नीचा दिखाने और अपमानित करने के लिए। फेसबुक पर मौजूद साहित्य से जुड़े लोगों को इस अराजकता से निपटने के उपायों पर विचार करना चाहिए। दूसरी बात जो इस प्रकरण में उभर कर सामने आई वो ये कि लेखिकाओं पर हो रहे हमलों को अलग अलग लेखिकाओं ने अपने अपने नजरिए से देखने की कोशिश की। किसी ने सिर्फ अफसोस जाहिर किया तो किसी को आश्चर्य हुआ। अफसोस और आश्चर्य के बीच विरोध गुम हो गया। लानत मलामत तो दूर की बात।
आज समाज में जिस तरह की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है उसका भी प्रकटीकरण इस पूरे मसले में हुआ है। आज हमारी संवेदनाएं इतनी कम या खत्म हो गई हैं वो सिर्फ समाज में ही नहीं दिखता। कई बार ऐसी खबरें आती हैं कि दुर्घटना का शिकार व्यक्ति बीच सड़क पर तड़पता रहा लेकिन उसकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया । पूरे देश ने टीवी पर ऐसी कई तस्वीरें देखी हैं। ऐसी ही संवेदनहीनता साहित्य की दुनिया में भी दिखाई देने लगी है कि कोई अमुक को गाली गलौच कर रहा है तो हम उस पचड़े में क्यों पड़ें। इस प्रवृत्ति के बढ़ने से हमलावरों के हौसले बुलंद होते रहते हैं और वो जब चाहें, जिसे चाहें अपमानित करते रहते हैं और जब दबाव बनने लगता है तो पोस्ट डिलीट कर अपनी शराफत का ढिंढोरा पीटना शुरू हो जाते हैं। साहित्य में बढ़ रही इस संवेदनहीनता पर भी साहित्य से जुड़े लोगों को विचार और मंथन करना चाहिए। क्या साहित्य समाज स्त्री विरोधी मानसिकता वाले ऐसे लोगों को चिन्हित कर उसके सामूहिक बहिष्कार आदि के बारे में विचार नहीं कर सकता है। कम से कम फेसबुक पर तो बहिष्कार की पहल हो।
इस पूरे घटनाक्रम से लेखक संगठनों का भी महिलाओं को लेकर रवैया एक बार फिर उजागर हो गया। अनामिका के अपमान के मसले पर प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के तरफ से स्तंभ लिखे जाने तक कोई बयान सामने नहीं आया। इतने समय तक लेखक संगठनों की चुप्पी उनकी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करती है। बयानवीर जनवादी लेखक संघ का इस मसले पर कोई प्रेस रिलीज जारी नहीं करना भी उनको कठघरे में खड़ा कर गया। अब सवाल यही उठता है कि लेखक संगठन क्यों चुप हैं? दरअसल ये लेखक संगठन कोई भी स्टैंड लेने के पहले अपने अपने पैतृक राजनीतिक दलों का मुंह जोहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस मसले पर इन लेखक संगठनों के राजनीतित आकाओं की अबतक कोई राय बन नहीं पाई लिहाजा उनकी तरफ से किसी भी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। बात-बात में अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा देखनेवाले इन लेखक संगठनों को अपनी ही जमात की एक वरिष्ठ लेखिका पर हुई वाचिक हिंसा से किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं दिखना इनके दोहरे रवैये को उजागर करता है। दरअसल इस मसले में इनका भी कोई दोष नहीं है, इस विचारधारा के जो भी नायक रहे हैं उनकी महिलाओं को लेकर क्या राय या कारनामे रहे हैं, ये जगजाहिर है। चाहे वो माओ हों, चाहे स्टालिन या लेनिन या फिर क्यूबा के कम्युनिस्ट तानाशाह फिडेल कास्त्रो। लेकिन ये लेखक संगठन इस बात को भूल जाते हैं कि ये भारत है जहां महिलाओं का सम्मान सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। इन लेखक संगठनों के अप्रासंगिक होने की वजह भी इन प्राथमिकताओं को नहीं समझ पाना रहा है।

भारतीय लेखन में ज्यादा पीछे नहीं जाकर अगर हम जयशंकर प्रसाद की कामायनी को ही देखें तो उन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्री को भरपूर सम्मान दिया है। कामायनी की मूल आत्मा में मनुष्यता की चिंता है। वहां जब देव संस्कृति की बात होती है तो यह बताया जाता है कि उस संस्कृति में विलासिता की वजह से, स्त्री की अवमानना की वजह से या फिर कह सकते हैं कि स्त्री को सिर्फ विलासिता की वस्तु समझने की वजह से देवों को दंडित करने के लिए उस संस्कृति को लगभग समाप्त कर दिया। कामायनी का जो चित्रण हुआ है वो अद्भुत है, वह विलासिता की देवी के रूप में नहीं बल्कि ममता की प्रतिमूर्ति के रूप में, करुणा से भरी हुई श्रद्धा के रूप में सामने आती है। अनामिका जी का अपमान करनेवाले कवि हैं, उनको अपनी परंपरा का तो ज्ञान होगा ही, लेखक संगठनों को ना हो क्योंकि उनका रिमोट कंट्रोल तो कहीं और होता है। प्रसाद जी ने तो अपने नाटक ध्रुवस्वामिनी में भी स्त्री अस्मिता का प्रश्न उठाया था। यह सिलसिला आगे भी चलता रहा लेकिन कवि जी को ना तो अपनी परंपरा की फिक्र है ना ही लेखिकाओं की। इसके पहले भी वो एक अन्य कवयित्री को लेकर अनाप शनाप टिप्पणी कर चुके हैं। अगर हम देखें तो साहित्य में महिलाओं को लेकर इस तरह की घटनाएं होती रही हैं लेकिन मजबूती के साथ प्रतिरोध नहीं होता है। लेखिकाओं को एकजुट होकर स्टैंड लेना होगा, रचनाओं से आगे जाकर व्यवहार में भी।